शक्ति चेतना जनजागरण शिविर, सिद्धाश्रम, 07.10.2008
नवरात्रि पर्व पर इस पावन पवित्र धाम में आये हुये अपने समस्त शिष्यों, माँ के भक्तों, श्रद्धालुओं, जिज्ञासुओं व दर्शनार्थियों को अपने हृदय में धारण करता हुआ माता आदिशक्ति जगज्जननी जगम्बा का पूर्ण आशीर्वाद प्राप्त करता हुआ, अपना पूर्ण आशीर्वाद आप समस्त लोगों को समर्पित करता हूँ।
सौभाग्य के ये क्षण, जो प्रतिवर्ष नवरात्रि में अष्टमी, नवमी और विजयदशमी पर्व पर आप समस्त भक्तों को प्राप्त होते हैं, ये एक-एक क्षण, एक-एक पल आपको उस सत्य-पथ की ओर अग्रसर कर रहे हैं जिस सत्य-पथ पर ही चलकर सत्य और धर्म की स्थापना की जा सकती है। निश्चित है वर्तमान में कलिकाल का साम्राज्य चारों तरफ स्थापित है। उसमें जब सत्य की विचारधारा की कोई बात रखी जाती है तो हर एक की समझ में आये, ऐसा सम्भव नहीं है। हर काल में यह होता आया है। आज की कोई नवीन बात नहीं, मगर जब भी असुरत्व समाज पर अपना पूर्ण प्रभुत्व स्थापित कर लेता है, उन विषम परिस्थितियों में कहीं न कहीं से ‘माँ’ की ज्योति प्रज्वलित होती है। कहीं न कहीं से माँ की ऊर्जा फैलती है और समाज में पुनः परिवर्तन आता चला जाता है।
आज सौभाग्य से हमें और आप सभी को माँ ने वह सौभाग्य प्रदान किया है कि हम और आप सभी को मिलकर माँ की वह जो ज्योति इस पवित्र धाम से प्रज्वलित है, माँ की ऊर्जात्मक चेतना तरंगें जो इस पवित्र स्थल से पूरे ब्रह्माण्ड में, इस भूतल पर प्रवाहित हो रही हैं, उसमें प्रकृतिसत्ता ने मुझे और आपको माध्यम बनाया है। जब तक हम उस विचारधारा को समझते नहीं हैं, जब तक हम उस भावभूमि पर पहुँचते नहीं हैं, तब तक हमारे अन्तःकरण को शान्ति की अनुभूति नहीं होती है। वैसे तो मेरे द्वारा अब तक उन सभी क्षेत्रों के चिन्तन विस्तार से दिये जा चुके हैं कि आपको क्या विचारधारा बताई गई है? किस प्रकार का जीवन आपको जीना है? किस प्रकार के कर्म करने हैं? ये सभी प्रकार के चिन्तन दिये जा चुके हैं और अब तक अनेकों शिष्यों-भक्तों के अन्दर उतनी पात्रता भी आ चुकी है कि यदि मैं शान्त भी बैठा रहूँ, शिष्यों को एक के बाद एक को अवसर देते जाया जाय तो उनके अन्दर इतनी पात्रता आ चुकी है कि वह सब कुछ चिन्तन देने में सामर्थ्यवान हैं जिससे कहीं न कहीं सत्य-धर्म की दिशा में समाज को बढ़ाया जा सकता है।
वह दिशा दी जा सकती है। वह ऊर्जा आज तक उन शिष्यों ने ग्रहण की है। निश्चित है मेरे द्वारा लोगों को साधू-सन्त-सन्यासी नहीं बनाया जाता, एक साधक बनाया जाता है और उन साधकों के अन्दर धीरे-धीरे वह पात्रता भरी जा रही है। तो जिस पात्रता को लेकर मेरे द्वारा समाज में जो कहा गया है कि वे जो अनेकों भगवे वस्त्रधारी समाज के बीच टहल रहे हैं, अपना वर्चस्व स्थापित किये बैठे हैं, जो सिर्फ लुटेरों का जीवन जीते हैं, उनकी तुलना में मेरा एक साधक दस-दस पर भारी पड़ेगा। सत्य की विचारधारा को समझना हर एक के वश की बात नहीं। सत्य के सब सहयोगी बन सकें, यह भी सबके वश की बात नहीं। सिर्फ अपने अन्तःकरण में उस प्रकृतिसत्ता की, गुरू की स्थापना करने की जरूरत है। जो बाहर ब्रह्माण्ड में है, वह सब कुछ आपके अन्दर समाहित है। आपको जितनी चेतना जन-जन में फैलाना है, उतना अपने अन्तःकरण को निर्मल और पवित्र बनाना है।
आपको यह नहीं विचार करना कि कौन क्या कहता है? आपको सिर्फ यह विचार करना है कि आपका गुरू क्या कह रहा है? आपको चिन्तन क्या मिल रहे हैं? आपको किस दिशा में बढ़ना है? प्रकृतिसत्ता से क्या माँगना है? वह भी भाव मैंने स्पष्ट कर रखे हैं। निश्चित है आप लोग नाना प्रकार की कामनाओं की पूर्ति का भाव, समस्याओं के निदान का भाव लेकर इस पवित्र धाम में पहुँचते हैं और मैंने वह रास्ता बताया है कि होगा वही जो प्रकृतिसत्ता चाहेगी, होगा वही जो आपका गुरू चाहेगा। फिर नाना प्रकार की कामनाओं में क्यों अपना वक्त बर्बाद करते हो? सिर्फ प्रकृतिसत्ता से भक्ति, ज्ञान व आत्मशक्ति की कामना करो। इन तीन शब्दों में सब कुछ सार समाहित है। यदि हमें भक्ति मिल जाये, ज्ञान मिल जाये, आत्मशक्ति मिल जाये तो उसमें तो सब कुछ समाहित है।
आपका गुरू उसी मार्ग में आपको खीचता है जिस मार्ग में चलकर प्रकृतिसत्ता की कृपा को आपके गुरू ने प्राप्त किया है। उस प्रकृतिसत्ता को अपने अन्तःकरण में स्थापित किया है। एक ऋषित्व के जीवन को, एक ऋषि को समाज समझ सके, यह कम से कम इस कलिकाल में तो सम्भव ही नहीं है। चूँकि समाज तो सामान्य से साधकों को नहीं समझ सकता, तो एक ऋषि को समझना किसी के वश की बात नहीं। मगर मैंने इसके पूर्व में भी कहा है और आज पुनः कह रहा हूँ कि कम से कम अपनी डायरियों में अवश्य नोट करके रख दें कि आने वाली आपकी पीढ़ियाँ जरूर देखेंगी कि यही पावन पवित्र धाम विश्व की धर्मधुरी बनेगा। आज हो सकता है कि समाज के कुछ ऐसे चन्द लोग हों, जो मेरी भी बुराई करते हों, मगर कल वो मेरे रजकणों को प्राप्त करने के लिये इसी स्थान पर तरसेंगे, तड़पेंगे, रोयेंगे, विलखेंगे। चूँकि सत्य का ज्ञान मुझे है।
मैंने जब यात्रा प्रारम्भ की थी, मैंने जब एक भी शिष्य नहीं बनाया था, तब भी मैंने अपनी यात्रा के बारे में बताया था कि मेरी यात्रा कब, कहाँ-कहाँ से और किस प्रकार होती हुयी जायेगी? कहाँ पर, किस प्रकार मेरे आश्रम की स्थापना होगी? निश्चित है अभी यहाँ वैभवशाली आश्रम का निर्माण नहीं हो पाया है, मगर उस वैभवशाली आश्रम के निर्माण के पहले मैंने हर पल साधनारत रह करके यहाँ के वातावरण को चेतना तरंगों के माध्यम से चैतन्य बनाने का प्रयास किया है। आप में से अधिकांश लोग जानते हैं कि वर्ष में एक या दो बार से ज्यादा नदी से बाहर इस सिद्धाश्रम धाम से जाता भी नहीं हूँ। भविष्य में जो समाज आये, इस स्थान पर बैठे तो यहाँ की चेतना तरंगों से लाभान्वित हो सके और आज इतने कम समय में ही चेतना तरंगों का प्रभाव है कि नाना प्रकार की विघ्न-बाधाओं से लोग मुक्ति प्राप्त करते हैं। नाना प्रकार की कामनाओं की पूर्ति प्राप्त करते हैं। मगर आज तो आश्रम का यह प्रथम चरण भी मैं नहीं मानता। प्रयास किया जा रहा है उस नीव की स्थापना का। प्रयास किया जा रहा है अपने आपको खपाने का। प्रयास किया जा रहा है कि जिस स्थान पर माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा का आवाहन होना है, जिस स्थान पर माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा की स्थापना होना है, जिस स्थान पर माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा की चेतना तरंगें प्रतिपल बरसती रहेंगी, उस स्थान को कम से कम उस योग्य बना सकूँ। उसी के लिये मेरा यहाँ सतत् प्रयास चलता रहता है।
जैसे-जैसे आप उस विचारधारा को समझते चले जाओगे, आपके मन की एकाग्रता यहाँ स्वतः लगती चली जायेगी। उस रास्ते पर चलने के लिये आप लोग क्रमशः और चेतनावान बन सकें, उसी दिशा में मेरे चिन्तन रहते हैं। चूँकि मैं यहाँ आप लोगों को कहानियाँ और किस्से सुनाने के लिये नहीं बुलाता। मेरे अनेकों ऐसे शिष्य हैं जिनको यदि मैं खड़ा कर दूँ तो सुबह से शाम तक एक से एक कथानक सुनाते रहेंगे। मैं भी चाहूँ तो आपको सैकड़ों कथानक सुनाकर हंसा सकता हूँ। आप हंसते रहेंगे, तालियाँ बजाते रहेंगे और जब आप यहाँ से जायेंगे तो आपके हाथ कुछ नहीं लगेगा। मगर आपका गुरू हर पल अपने नेत्रों के माध्यम से, अपने शरीर के माध्यम से चेतना तरंगें प्रवाहित करता रहता है। जिन चेतना तरंगों के बीच आप आबद्ध रहते हैं। जो चेतना तरंगें अपको चैतन्य बनाती हैं। जो चेतना तरंगें आपके अन्तःकरण को निर्मल और पवित्र बनाती हैं। साधक का कार्य चेतना तरंगों के माध्यम से होता है। इसीलिये मैंने कहा है कि अगर मैं सात तहखाने के अन्दर भी बैठा रहूँ तो वहाँ से भी आपको वह चेतना दे सकता हूँ। हजारों किलोमीटर दूर रह करके भी जब आप स्मरण चिन्तन करते हैं तो चेतना तरंगें आपको लाभान्वित करती हैं। एक योगी का कार्य, एक ऋषि का कार्य स्थूल की अपेक्षा सूक्ष्म से अधिक होता है और उन चीजों की अनुभूतियाँ भी अनेकों शिष्य, भक्त समाज के बीच पाते रहते हैं।
निश्चित है मेरी यात्रा अलग है। समाज के समझने के वश की बात नहीं है मगर जितना तुम समझते जाओगे, तुम्हारे अन्दर स्थायित्व आता चला जायेगा। धैर्यता आती चली जायेगी, सन्तुलन आता चला जायेगा। अधर्मी-अन्यायी जितने रहे हैं, उनका सम्मान होता रहा है। यह हर काल में होता रहा है। आज साईं के भक्त देश के कोने-कोने में मिल जायेंगे। सब दिन-रात उनके गुणगान कर रहे हैं, सभी टी.वी. चैनल उनके गुणगान कर रहे हैं। मगर साईं का जीवन कितने कष्टों से भरा रहा, जब तक वे समाज के बीच रहे, जब तक वे जीवन जीते रहे! उन्होंने एक-एक समय के लिये भोजन कहाँ से जुटाया, बल्कि उसको भी देने में लोगों ने आनाकानी की। टिप्पणियों के ऊपर टिप्पणियाँ की और आज उनका किस तरह गुणगान हो रहा है? काश अगर इसी तरह पहले गुणगान ऋषियों-मुनियों का हो रहा होता तो आज समाज न भटकता। मैं प्रसन्न इस बात से हूँ कि पहली बार किसी सिद्ध योगी का, सिद्ध साधक का देश में सम्मान हो रहा है। देश उनका गुणगान कर रहा है। भले प्रलोभनों के लिये कर रहे हैं, भले सौदागर बन करके कर रहे हैं, मगर यदि साधक बन करके करें तो समाज में और परिवर्तन आ सकता है। मगर आज समाज की विडम्बना है कि चाहे धर्म हो, देवी-देवता हों, ऋषि-मुनि, गुरुजन हों, समाज सिर्फ उनसे सौदागर बन करके सम्बन्ध स्थापित करना चाहता है। सिर्फ अपनी भौतिक कामनाओं की पूर्ति के लिये उनसे रिश्ते जोड़ता है और यही समाज के पतन का मूल कारण है।
हमारा रिश्ता आत्मा और परमात्मा का है। उस प्रकृतिसत्ता से है। हम किसी धर्मगुरू, किसी ऋषि, किसी देवी-देवता से जब सम्बन्ध स्थापित करते हैं तो आत्मा और परमसत्ता के बीच की कड़ी मान करके स्थापित करते हैं कि हमारी आत्मा की चैतन्यता यदि दिव्य चैतन्य आत्मा से जुड़ेगी तो हमारी आत्मा में जो आवरण पड़े हुये हैं, वे आवरण अपने आप हटते चले जायेंगे। हम एकाकार होते चले जायेंगे और जिस प्रकार वे चैतन्य हैं, धीरे-धीरे हमारी भी चैतन्यता बढ़ती चली जायेगी और हमारे जीवन की समस्यायें अपने आप दूर होती चली जायेंगी। मगर लोगों के अन्दर आज की विचारधारा कि मुझे अगर एक करोड़ मिल जाये तो सौ रुपये का प्रसाद चढ़ा दूँगा। सब सौदागर हैं। हजारों-लाखों में एक दो ही ऐसे नजर आएंगे, जिन्हें शिष्य कहा जा सकता है, जिन्हें भक्त कहा जा सकता है। अन्यथा समाज की विडम्बना है कि अब तक के धर्माचार्यों ने, साधू-सन्त-सन्यासियों ने उन सौदागरों से उसी तरह सौदागर का रिश्ता जोड़ दिया है। चोर-चोर मौसेरे भाई। वो भी सौदागर हैं व आप भी सौदागर बन रहे हो और जब तक यह सौदागर प्रवृति का रिश्ता जुड़ा रहेगा, तब तक आप सिर्फ और सिर्फ पतन के मार्ग पर जाओगे। छोटी-मोटी कामनाओं की यदि पूर्ति हो भी गयी, तो भौतिक जगत की छोटी-मोटी कामनाओं की पूर्ति भी होती रही और आपके अन्तःकरण में आवरण पड़ते चले गये, तो आप कभी भी सत्य-पथ पर नहीं बढ़ सकते। आप कभी चेतनावान नहीं बन सकते। आप कभी संस्कारवान नहीं बन सकेंगे। इस जीवन में जितनी समस्यायें आपके सामने हैं, उससे दस गुना ज्यादा समस्यायें आपके अगले जीवन में और खड़ी होंगी। यह जीवन आपका स्वस्थ है, तो अगले जीवन में आप अनेकों प्रकार की बीमारियों से ग्रसित नजर आयेंगे।
अपने आपको चेतनावान बनाना नितांत आवश्यक है। इसके अलावा और दूसरा कोई मार्ग नहीं है और भगवती मानव कल्याण संगठन द्वारा समाज को उसी मार्ग पर बढ़ाने का कार्य किया जा रहा है कि आपको साधक बनाया जाय, सौदागर नहीं। आत्मीयता के रिश्ते को जोड़ा जाय। उस प्रकृतिसत्ता के रिश्ते से आपको जोड़ा जाय। आप एक भक्त बन सकें। वास्तव में भक्त कहलाने के अधिकारी बन सकें। अन्यथा भक्त का आवरण है कि शेर की खाल पहने हुये समाज के बीच अनेकों सियार टहल रहे हैं। उसी तरह समाज में है कि अनेकों प्रकार के लोग हैं कि हम माँ के भक्त हैं, हम उस भगवान के भक्त हैं, हम उस गुरू के भक्त हैं, मगर वास्तव में भक्त का स्वरूप क्या होना चाहिये, भक्त की गहराई क्या होनी चाहिये, भक्ति किस प्रकार की होनी चाहिये, भक्त का कर्तव्य क्या होना चाहिये, भक्त को किस प्रकार का जीवन जीना चाहिये? जब तक यह सब सीखेंगे नहीं, तब तक आपके जीवन में भटकाव आता चला जायेगा। आप दो कदम आगे चलते हैं फिर दो कदम पीछे चलते हैं। दो कदम फिर आगे जायेंगे, दो कदम फिर पीछे जायेंगे। कोई पल आया तो आपको लगता है बस अब मैं सर्वस्व त्याग दूँ, मैं गुरु के चरणों में सर्वस्व त्याग दूँ, मैं माँ के चरणों में सर्वस्व त्याग दूँ। अपना पूरा जीवन न्यौछावर कर दूँ, दिन-रात गुरु की सेवा करूँगा, दिन-रात माँ की सेवा करूँगा और कई बार मन एकदम से भटक जाता है। कई बार पूजा-पाठ में मन लगता है और कई बार मन नहीं लगता है। यह स्थाईत्व इसलिये नहीं आ पा रहा है कि आप भक्ति की गहराई में डूबे नहीं हैं। जिस तरह मैंने कहा कि यदि आपके अन्दर शिष्यत्व आ जाय तो गुरू की चेतना तरंगें अपने आप आपको लाभान्वित करने लगेंगी। आपको कुछ माँगने की आवश्यकता ही नहीं है, यदि आप भक्त बन जायें।
भक्ति के वशीभूत शक्ति होती है। भक्ति में शक्ति समाहित होती है, शक्ति में भक्ति समाहित होती है और जब तक इस संयोग को आप जोड़ेंगे नहीं, तब तक आपके जीवन में भटकाव आता चला जायेगा और उसके लिये आपको अपने शरीर को सन्तुलित बनाना पड़ेगा। शरीर को ही साधना पड़ेगा। समाज में अनेकों ऋषियों-मुनियों ने वही कार्य किया है, मगर समाज की विडम्बना है कि समाज भटक रहा है। आपको पुनः एक बार सचेत होने की जरूरत है। पुनः आपको एक बार सोचने की जरूरत है कि आप इतना जो भौतिकतावाद का सब कुछ समेटने के लिये दिन-रात व्यथित हैं, क्या यही सोच आपका कल्याण कर देगी? अरे, जो यह शरीर हम लेकर जन्म लेते हैं, जाने के समय तो यह शरीर भी साथ छोड़ देता है। जब हम इस धरती पर जन्म लेते हैं तो शरीर के साथ आते हैं और जब हम इस धरती से जाते हैं तो यह शरीर भी हमारा यहीं का यहीं रह जाता है। तो इस शरीर की सुख- सुविधाओं के लिये उतने ही संसाधन जुटाओ, उतना ही अपने अन्दर उतावलापन रखो, जितना आवश्यक है।
आपके जीवन के लिये जितना नितान्त आवश्यक है, उतना ही संग्रहित करें और अगर भौतिकतावाद के लिये लिप्त भी हो तो जितना भौतिकतावाद के लिये लिप्त हो, तो कम से कम पचास-पचास प्रतिशत में बाँट दो कि जितना भौतिक जगत के लिये आप लिप्त हो, उतना ही आध्यात्मिक जगत के लिये भी आप अपने आप को लिप्त कर दो। कम से कम सन्तुलन तो बना रहेगा और जब सन्तुलन आ जायेगा तो आपका विकास अपने आप ही होता चला जायेगा। नहीं तो जिस विकास को आप विकास मानते हैं, क्या वह विकास है? अनेकों उद्योगपतियों, लखपतियों, अरबपतियों को आप देखें कि वो घर से कितना अशान्त हैं! बेटे उनके कहने में नहीं चल रहे, बेटियाँ उनके कहने में नहीं चल रहीं, पत्नियाँ उनके कहने में नहीं चल रहीं। बेटा सोचता है कि पिता कितनी जल्दी मर जाय तो मैं उनकी सम्पत्ति का अधिकारी बन जाऊँ। बेटे-बेटियाँ ही अपने माता-पिता की हत्या तक कर देते हैं। समाज के बीच में अनेकों ऐसी घटनायें मिलती हैं। माता-पिता बेइमानी करके लाखों-करोड़ों-अरबों रुपये इकट्ठे करते हैं और वो एक-एक रात में दस-दस, बीस-बीस लाख तो क्या, करोड़ों-करोड़ों रुपये तक एक-एक पार्टी में लुटा देते हैं। रास्ता वह तय करो कि संस्कारवान बनो और बच्चों को भी संस्कारवान बनाओ और उसके लिए एकमात्र रास्ता है अपने आपका शोधन करना, अपने आपको सुधारना, अपने आपको सही दिशा देना, अपने आपको साधक बनाना।
सबसे पहले अपने आपको साधक बनाना है। सत्य-पथ पर बढ़ने के लिये ज्ञानमार्ग, भक्तिमार्ग, योगमार्ग आदि अनेकों मार्ग बताये गये हैं। मगर जो सर्वश्रेष्ठ मार्ग है जिसमें चल करके एक गरीब भी, एक अमीर भी, एक साधू भी, एक सन्त भी, एक ऋषि भी, एक योगी भी और देवी-देवता भी अगर उस प्रकृतिसत्ता की कृपा को प्राप्त कर सकते हैं तो सिर्फ एक ही मार्ग है- भक्तिमार्ग। इस मार्ग के अलावा और दूसरा कोई मार्ग है ही नहीं सत्य-पथ पर पहुँचने का। आप बहुत बड़े ज्ञानी बन जाइये, बहुत बड़े धर्मग्रन्थों का आप अध्ययन कर लीजिये, ग्रन्थों-पुराणों को रट लीजिये मगर आपके हाथ कुछ नहीं लगेगा, जब तक उनको ग्रहण करने के बाद आप पुनः भक्तिमार्ग में प्रवेश नहीं करेंगे। बिना भक्ति के शक्ति की प्राप्ति की ही नहीं जा सकती और जब यह सत्य है कि भक्ति के बिना शक्ति की प्राप्ति की ही नहीं जा सकती तो क्यों न आप लोग अपनी नीव का प्रारम्भ ही भक्ति से कीजिये? क्यों भटक रहे हो?
अपने शरीर को साधने का सरल से सरल मार्ग है। अपने ही शरीर का शोधन करना है। हमारे ऋषियों-मुनियों ने भी पूर्व में बता रखा है, जो कल सत्य थे, आज सत्य हैं और कल भी सत्य रहेंगे। उसमें अपने आपको, अपने शरीर को, अपनी चेतना को, अपनी आत्मा को, अपने मन को, अपनी बुद्धि को, एक सम्पूर्ण रथ के समान मान लेना है कि एक रथ, यदि उसमें सब कुछ सकुशल हो तो उसकी गति को कोई नहीं रोक सकता। उसी प्रकार आपको अपनी आत्मा को रथ का रथी बनाना है, भक्ति को सारथी बनाना है, मन को अश्व बनाना है और रथ इस शरीर को बनाना है और दोनों पहिये हैं एक ज्ञान और एक योग। यदि ज्ञानरूपी और योगरूपी रथ के पहिये हों तो शरीर आपका किसी भी प्रकार का हो, उसको रथ ही मात्र मान लें और मनरूपी अश्व को जोत दें, भक्ति को सारथी बना दें और आत्मा को चैतन्यता से रथी बना रहने दें। यह विचारधारा लेकर यदि आप नित्य चिन्तन करें कि मेरे रथ का रथी मेरी आत्मा है और उसका सारथी मेरी भक्ति है, तो जो अश्वरूपी मन है, वह कभी भी भटक नहीं सकता। वह बिल्कुल सही रास्ते पर सही गति से जायेगा।
एक ऋषि भी वही विचारधारा लेकर चलता है। वह भी भक्ति के बल पर ही अपने मन पर अंकुश लगाता है और मैंने कहा है कि मन कभी दूषित या मलीन नहीं होता है। मन हमारी आत्मा की चेतना तरंग है, कार्य करने की क्षमता है, एक ऊर्जा है। यदि आपके पास कोई गन्दा पाइप हो और उस गन्दे पाइप में आप एक तरफ से साफ स्वच्छ पानी डालना शुरू करें तो पहले गन्दा पानी ही निकलना शुरू होगा। यदि पहले से ही कोई स्वच्छ पाइप है और उसमें आप स्वच्छ पानी डालेंगे तो दूसरी तरफ स्वच्छ पानी ही निकलना शुरू होगा। उसी तरह हमारे शरीर में, आपके शरीर में सत्, रज, तम ये तीनों गुण मौजूद हैं और जिस समय जिस प्रकार की हमारी कोशिका ज्यादा प्रभावक हो जाती है, उसी तरह उसी कोशिका में हमारा मन कार्य करने लगता है और मन उसी प्रकार की विचारधारा के साथ जुड़ जायेगा। चूँकि मन के पास तो केवल ऊर्जा है, सिर्फ कार्य करने की क्षमता है। उसे जैसा जोत दोगे, वह उसी दिशा में भागता चला जायेगा और जब आपके अन्दर ये तीनों गुण सत्, रज, तम मौजूद रहते हैं तो आप स्वतः देखते हैं कि काम, क्रोध, लोभ, मोह उसी तरह कार्य करने लगते हैं।
आप जब भी क्रोधी होते हैं, क्रोध भाव आ जाता है, आपके शरीर में पूरा क्रोध आ जाता है, आवेश आ जाता है। आपकी पूरी शक्ति क्रोध के रूप में कार्य करने लगती है। इसी तरह जब आपके शरीर में वासना के भाव आते हैं, तभी आप भटकते हैं। अतः जब आपका वह भावपक्ष जाग्रत हो जायेगा, उसी तरह आपका शरीर बाहर कार्य करने लगेगा। तो जब इतनी सारी क्षमतायें आपके शरीर के अन्दर हैं तो उन क्षमताओं को क्यों सतोगुणी नहीं बना लेते हो। क्यों उन क्षमताओं को अपनी भक्ति के बल से सतोगुणी ऊर्जा को, सतोगुणी कोशिकाओं को इतना प्रभावक बना लेते हो कि मन आपका गुलाम हो जाय, मन आपका दास हो जाय। आप रिद्धियाँ-सिद्धियाँ प्राप्त करना चाहते हैं। पहले अपने मन की सिद्धि को हासिल कर लो। किन सिद्धियों के पीछे भाग रहे हो? प्रकृतिसत्ता ने आपको सब कुछ दे रखा है। सबसे बड़ा साधक वह है जो अपने मन की सिद्धि हासिल कर ले। मन के अन्दर अलौकिक शक्ति है, अलौकिक क्षमता है। यदि मन के मनोयोग से किसी क्षेत्र में कोई चिन्तन, विचारधारा डाल दिया जाय तो बहुत कुछ किया जा सकता है।
आप अपने जीवन में ये जो छोटी-छोटी बातें हैं, उनमें विचार नहीं करते। आप कई बार देखते हैं कि आप मन में किसी के बारे में, अपने परिजन के बारे में, अपने मित्र के बारे में बड़े भावपक्ष से सोचते हैं, अपने मन को उधर लगाते हैं और वह भी उधर उसी समय कहता है कि पता नहीं क्यों, आज मुझे अपने उस फलां व्यक्ति की याद क्यों आ रही है? या आपका कोई व्यक्ति संकट में ग्रसित होता है और वह आपको गहरायी से कहीं याद करता है तो आपका मन उदास सा लगने लगता है। आपका बेटा, आपका बच्चा कहीं संकट में घिरा हुआ हो तो आपका मन उदास होने लगेगा। चूँकि उसकी मनःशक्ति आपकी ऊर्जा को खीचने का प्रयास करती है और उस समय आपकी मनःशक्ति उधर खिचने लगती है। इन सब योगों के संयोगों को यदि हम समझने का प्रयास करें तो ये सभी छोटी-छोटी बातें हैं मगर इन छोटी-छोटी बातों में बहुत कुछ सार छिपा पड़ा है।
उस मन की शक्ति को, मन की सिद्धि को अपने वशीभूत कर लें, सतोगुण को अपने आधीन कर लें। मैं मन को अपने आधीन करने की बात इसलिये कह रहा हूँ कि इस बात को आप दृढ़ता से हर पल विचार करें, हर पल आप सोचें कि मैं शरीर नहीं, मैं मन नहीं हूँ, पहले मैं आत्मा हूँ। वह चैतन्य आत्मा, जो परमसत्ता का अंश है और उस आत्मा की ये जितनी सिद्धियाँ हैं जो बुद्धि के रूप में, मन के रूप में या किसी भी रूप में कार्य कर रही हैं, उनको मुझे पहले अपने वशीभूत करना है और जब मैं उनको अपने वशीभूत कर लूँगा तो मुझे किन्हीं रिद्धियों-सिद्धियों की जरूरत ही नहीं पडे़गी रिद्धियाँ-सिद्धियाँ मेरी गुलाम बन जायेंगी।
बहुत सहज और सरल मार्ग है भक्तिमार्ग में डूब जाना। इतना तो हम आप सभी जानते हैं कि उस प्रकृतिसत्ता माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा, जिनके सामने देवाधिदेव भी हाथ जोडे़ खड़े रहते हैं, सभी धर्मग्रन्थ चीख-चीख कर कहते हैं, ऋषि-मुनियों ने चीख-चीख कर कहा है कि ब्रह्मा, विष्णु, महेश जिनके सामने हाथ जोड़े खड़े रहते हैं, ऋषि-मुनि जिनका गुणगान करते रहते हैं, उस परमसत्ता की भक्ति में आप लोग क्यों न डूबें? क्यों न हम आप सभी उसमें डूबने का प्रयास करें? क्यों भटकते हो? क्यों अटूट रिश्ता जोड़ने का प्रयास नहीं करते? क्यों सौदागर बन करके केवल छोटी-छोटी कामनाओं के लिए रिश्ता जोड़ने का प्रयास करते हो? एक बार वह रिश्ता तो जोड़ लो। तुम्हारे लिये जो आवश्यक होगा, अपने आप होता चला जायेगा। मैंने कहा है कि इस कलिकाल में संघर्षों से तो घबड़ाना ही नहीं चाहिये।
आप संघर्षों से घबड़ाते हो और आपका गुरू कहता है कि जीवन में आज तक इस भूतल पर जितने संघर्ष किसी के जीवन में न डाले गये हों और माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा अगर मेरे ऊपर कृपा करना चाहती हैं तो संघर्ष मेरे ऊपर डालें। मैं उनसे कृपास्वरूप संघर्ष माँग रहा हूँ। चूँकि मैं जानता हूँ कि अगर मेरे जीवन में संघर्ष आयेंगे, तभी उन संघर्षों से पार जाने की चेतना तरंगें मेरे अन्दर से उपजेंगी और वह चेतना तरंगें मैं प्रकृतिसत्ता से हासिल कर सकूँगा। आवश्यक है कि जिन चीजों से आप घबड़ा जाते हैं, जिन चीजों से आप व्यथित हो जाते हैं, उनसे व्यथित क्यों हों? आत्मा तो अजर-अमर-अविनाशी है, उसे कौन नष्ट कर सकता है? उसको कौन मार सकता है? आत्मावानों का जीवन तो जियो। आत्मा में अलौकिक शक्ति-सामर्थ्य है। दुनिया की कोई ताकत नहीं है कि मैंने जो लक्ष्य ठाना है, उसमें कोई अवरोध बन करके मेरे सामने टिक सके। यह किस बल पर मेरे द्वारा कहा जाता है? यह गर्व और घमण्ड के बल पर नहीं, उस प्रकृतिसत्ता के बल पर ही कहा जाता है। उस भक्ति के बल पर ही, उस माता भगवती आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा की कृपा के फलस्वरूप ही कहा जाता है।
इस आश्रम के क्षेत्र को, जो अंधियारी कहा जाता था, प्रभावित क्षेत्र कहलाता था। उसे एक तीर्थ के रूप में आदिशक्ति जगज्जननी की कृपा से चैतन्य किया जा रहा है, जो विश्व की धर्मधुरी कहलायेगा और जहाँ मैं भक्तिमार्ग की बात कह रहा था, चूँकि कुछ मार्ग ऐसे हैं कि जिस तरह हमारे शरीर में सत्, रज, तम हैं तो हैं, उसको कोई दूसरा नहीं बदल सकता, उसमें नवीनता नहीं लायी जा सकती। उसी तरह जिस तरह अष्टांग योग का मार्ग है, उसी प्रकार भक्तिमार्ग है। वैसे तो भक्ति को केवल तीन चीजों में बाँध दिया जाता है- निष्ठा, विश्वास और समर्पण, कि हमारे अन्दर गुरू के प्रति, ईष्ट के प्रति निष्ठा, विश्वास और समर्पण यदि एक सौ एक प्रतिशत आ जाय तो हम वास्तव में एक भक्त बनने के पूर्ण अधिकारी बन गये। मगर मैं इसकी गहराई में और थोड़ा प्रवेश कराना चाहूँगा, जिसे नवधा भ्क्ति कहते हैं। उस नवधा भक्ति को जब आप लोग समझोगे, उस पर अमल करोगे तो आपके अन्दर जो यह संशय बना रहता है कि गुरुदेव जी कहीं हम आपसे दूर न चले जायें, हम आपसे कट न जायें, तो यदि यह रास्ता तय करोगे तो कभी भी ऐसा नहीं हो सकता। उस सम्बन्ध को जोड़ोगे तो कभी भी ऐसा नहीं हो सकता।
मेरे द्वारा उसी मार्ग में चल करके ही तो कहा जाता है कि यदि प्रकृतिसत्ता में सामर्थ्य हो तो मुझे अलग करके देखे। अपनी भक्ति से मुझे विमुख करके देखे। यह वही कह सकता है कि जब एक बार आप यदि निर्णय ले लो कि अरे, प्रकृतिसत्ता हमारे साथ करेगी क्या? इस शरीर को नष्ट कर देगी, इस शरीर को अपाहिज बना देगी, हमारा सर्वस्व छीन लेगी, कोढ़ियों का जीवन दे देगी, अपाहिजों का जीवन दे देगी, नेत्रहीनों का जीवन दे देगी। इससे ज्यादा और क्या होगा? प्रकृतिसत्ता के प्रति तुम्हारा प्रेम और बढ़ता चला जायेगा। चूँकि प्रकृतिसत्ता आपको कभी अपने से अलग करने की सोचती भी नहीं है। वो तो आप स्वयं ही आवरण पैदा कर लेते हो। चूँकि प्रकृतिसत्ता कभी अपने आपको मार नहीं सकती। वह चैतन्य अजर-अमर-अविनाशी सत्ता है और उसी अजर-अमर-अविनाशी सत्ता के हम आप सभी अंश हैं। तो जब उस सत्ता में कुछ नहीं हो सकता, तो अंश में भी कुछ नहीं हो सकता। आवश्यकता है कि हमारे अन्दर दृढ़ता, विश्वास और समर्पण क्षणिक न हो, स्थायित्व हो कि जीवन की अन्तिम श्वास भी आ जाये, मौत हमारे सामने खड़ी हो, तब भी हम हसते-हसते उसे स्वीकार करने की क्षमता हासिल कर लें। चूँकि हम आत्मावानों का जीवन जी रहे हैं। आपका जीवन केवल एक स्थूल शरीर से बंधा हुआ नहीं है। जिस दिन यह दृढ़ता आपके अन्दर आ जायेगी, उस प्रकृतिसत्ता के साथ आपके अटूट सम्बन्ध जुड़ जायेंगे, और उसके लिये नवधा भक्ति के मार्ग में चलना नितान्त आवश्यक है, जिसमें ऋषि-मुनि भी चलते हैं, साधू-सन्त-सन्यासी भी चलते हैं।
नवधा भक्ति में सबसे पहले आता है श्रवण। सुनना, सुनने की शक्ति हासिल करना। अपने अन्दर सुनने की पात्रता हासिल करना। श्रवण में अलौकिक शक्ति छिपी है। आप स्वतः देखते हैं कि आप माँ की भक्ति के गीत सुनने लगें, गुणगान सुनने लगें, आपका मन भावविभोर हो जायेगा। आपकी सतोगुणी प्रवृत्ति जाग्रत होती चली जायेगी। केवल सुनने मात्र से काम, क्रोध, लोभ, मोह आपसे दूर भागते चले जायेंगे। स्वर में क्षमता है। श्रवण करने में क्षमता है कि आप जैसा सुनोगे, वैसे विचार आपके अन्दर पैदा होंगे। तो सबसे पहले आपके अन्दर श्रवण करने की क्षमता होनी चाहिए, श्रवण करने की कोशिश होनी चाहिये। जिस तरह आप नित्य पूजा-पाठ करते हैं, उसी तरह नित्य धर्म-आध्यात्म के बारे में, गुरुवाणी के बारे में, प्रकृतिसत्ता के गुणगान के बारे में, माँ की भक्ति के बारे में उन भजनों को सुनना चाहिये। उस ज्ञान को सुनना चाहिये।
भक्तिभाव के गीत आप सुनते हैं, भक्ति आपके अन्दर पैदा हो जायेगी। फिल्मी अश्लील गाने आप सुनने लगेंगे, वासना का भाव आपके अन्दर जाग्रत होने लगेगा। प्रभाव पड़ता है। आज अगर देखा जाय तो लोग एकदम भटकाव की ओर, चूँकि या तो कोई देवत्व के मार्ग में बढ़ रहा है या कोई एकदम असुरत्व के मार्ग में बढ़ रहा है। आपके अन्दर इतने आवरण पड़ चुके हैं कि आप जरा सा रिश्ता ही नहीं जोड़ना चाहते हें। आज अगर मैं समाज से पूछूँ कि कितने लोग यहीं बैठे हैं, जिनमें से कितने लोग ऐसे होंगे जो अपने मोबाइल में देवी-देवताओं के या माँ के भजन या गीत फीड किये होंगे? अधिकतर लोगों के मोबाइल में फिल्मी गीत फीड होंगे। जरा सी सोच पैदा नहीं होती कि हमारी सबसे पहली सोच क्या होनी चाहिये कि अगर हमें कोई एक सौभाग्य प्राप्त हो रहा है कि हमारे पास अगर कोई ऐसा एक यन्त्र या एक ऐसा माध्यम है कि अगर हमसे कोई सम्बन्ध स्थापित करना चाहे तो उसके पास सबसे पहली ध्वनि हम किस प्रकार की भेजें? किस प्रकार का हम अपना भाव सन्देश भेजें। मगर सब वही वासनात्मक गीत। अरे, माँ के गीत उसमें फीड करो। माँ के गीत डालो, देवी-देवताओं के गीत डालो, आरती-पूजन की चीजें भर दो कि अगर दूसरा भी सुने तो एक मिनट के अन्दर उसका भी भावपक्ष उधर जाग्रत हो।
श्रवण में अलौकिक शक्ति है, क्षमता है कि खुद ऐसी बातें सुनो जिससे कि सत्यपथ पर चल सको। दूसरों को ऐसी बातें सुनाओ जिससे कि वह सत्यपथ पर चल सके। जिस प्रकार का संगीत सुनोगे, वैसे विचार आपके अन्दर पैदा होंगे। संगीत में अलौकिक क्षमता है, चाहे गीत, भजन हों, चाहे संगीत हो। आप यहीं भजन सुनते हैं, भजन में आप एकाग्र हो जाते हैं। कुछ करने की जरूरत नहीं रहती। हो सकता है आप अपने घर में आधे-एक घण्टे जो पूजन करते हैं, वह पूजन करने में आपका भावपक्ष उतना जाग्रत नहीं होता होगा, जितना आपका भावपक्ष जाग्रत एक भजन कर देता है। कितने बड़े-बड़े माध्यम आपके बीच पड़े हैं? क्यो नहीं आप उनका उपयोग करते? क्या आप प्रयास करते हैं कि नित्य एक संकल्प ले लो कि घर में कम से कम हम एक भजन तो नित्य सुनेंगे ही। ज्यादा समय नहीं मिलता तो कम से कम सप्ताह में एक कैसेट ऐसी सुनेंगे ही, जिसमें गुरु के विचार मिल रहें हों, ऐसे चिन्तन मिल रहे हों, माँ के विचार मिल रहे हों।
गुरुपद पर बैठेने के कारण मेरा वह कर्तव्य बनता है कि वह मार्ग बताऊँ कि किस प्रकार की बातें सुनें और किस प्रकार की न सुनें। ऐसी बातों से अधिक से अधिक बचें जो आपके विचारों को तमोगुणी बना दें, जो आपके विचारों को रजोगुणी बना दें। धन कमा रहे हो कमाते रहो, कम से कम विचारों को दिशा तो दो। जिस तरह असुरत्व, कलिकाल बिना बताये धीरे-धीरे जड़ें जमाकर आप सबके अन्दर अपना स्थायित्व स्थापित कर चुका है, उसी तरह एक प्रयास आप लोग भी तो करके देखो कि धीरे-धीरे सत्य की स्थापना के लिये नीव की जड़ों को जमाने का प्रयास करो। माँ की ऊर्जा के माध्यम से वही कार्य किया जा रहा है कि मैंने सबसे पहले माँ के गुणगान को स्थापित किया है। रास्ता वही है और मैंने कहा है कि मैं समय के साथ धीरे-धीरे सब समझाता चला जाऊँगा। मैंने सबसे पहले श्री दुर्गा चालीसा पाठ के गुणगान की स्थापना यहाँ पर की है कि इस गुणगान में वह क्षमता है वह अलौकिकता है कि आप अगर नित्य श्री दुर्गा चालीसा का पाठ करोगे तो आपके अन्दर माँ की भक्ति धीरे-धीरे बढ़ती चली जायेगी और जो सुनेगा, उसके अन्दर धीरे- धीरे परिवर्तन आता चला जायेगा। साधक के लिये यह बहुत विस्तार का विषय है। यदि एक-एक चीज में वर्षों चिन्तन दिया जाता रहे तो भी बहुत कम समय है।
श्रवण में अलौकिक क्षमता है कि आपको किस तरह की बातें सुनना है और किस तरह की बातों को नजरन्दाज करना है। अपने बच्चों को अपने घर में थोड़ा बहुत मनोरंजन करने की इच्छा पड़ती है तो उनको भी थोड़ा बहुत वक्त दे दो। मगर इतना नहीं कि वह पलड़ा इतना भारी हो जाय कि वो पतन के मार्ग में चले जायें और कल वही बोझ बन जायें आपके लिये। अधिकतर माँ-बाप मेरे पास समस्या लेकर आते हैं कि बच्चे उनका कहना नहीं मानते। मैं तो परेशान नहीं हूँ। मेरी तीनों बच्चियाँ हैं। में जैसा चाहता हूँ, वो वैसा ही चलती हैं। ऐसा नहीं है कि उनको मेरे द्वारा कभी डाँटा नहीं जाता, समझाया नहीं जाता, बताया नहीं जाता या कभी उनके द्वारा गल्तियां नहीं होतीं। मगर मैं कह रहा हूँ कि मैं पूर्णतया सन्तुष्ट हूँ। जिस तरह एक पिता को सन्तुष्ट रहना चाहिये, उस तरह मैं सन्तुष्ट रहता हूँ। इसलिये हर पल उनको उस दिशा में बढ़ाने का प्रयास करता हूँ। बच्चों की सोच अपनी हो सकती है। उनकी बातें सुन लो, मगर उनको तुम्हें किस दिशा में बढ़ाना है यह निर्णय तुम्हारा होना चाहिये। तभी बच्चों का कल्याण होगा।
दिशा बदलने की जरूरत है। संध्या की अपनी प्रबल इच्छा थी कि गुरुदेव जी मैं डॉक्टर बनकर समाज की निःस्वार्थ भाव से सेवा करना चाहती हूँ। मैंने नहीं टोका और एक निर्धारित उम्र तक जो जैसा चलता रहा, चलने दिया। वह पढ़ाई करती रही। प्रारम्भ में हिन्दी और फिर इंगलिश मीडियम में गयी और हर क्षेत्र में प्रथम श्रेणी से अच्छे प्रतिशत से विद्यालय में अपना स्थान प्राप्त करके तीव्र गति से चल रही थी। जिस क्षेत्र में मैं बढ़ाता, उस क्षेत्र में बढ़ती जाती। डॉक्टर बनना कोई बड़ी बात नहीं थी। मगर मैंने जो जानकारी इस अन्तराल में ली कि उन विद्यालयों की जो स्थिति थी कि सभी जगह नशा चल रहा है। सभी जगह भटकाव की स्थिति चल रही है। सभी जगह माँस परोसा जा रहा है, और तब मैंने कहा कि मेरे बच्चे वहाँ नहीं पढ़ सकते। मैंने कहा कि मेरा जो लक्ष्य है, एक डॉक्टर वह नहीं कर सकता, जो एक साधक या साधिका कर सकती है। मैंने कहा कि अब तक तुम्हारी इच्छा चलती रही, अब मेरी इच्छा चलेगी और अब तुमको संस्कृत विद्यालय में जाना है। हर एक के अन्दर यह निर्णय लेने की स्थिति नहीं आ सकती। मैंने उसको उस दिशा में डाला। चूँकि मैं जानता हूँ कि हम दूसरों का क्यों इन्तजार करते हैं, सबसे पहले हम अपने आपको सुधारें। सबसे पहले अपने बच्चों को दिशा दें।
बच्चे आपके डॉक्टर बनना चाहते हैं, इन्जीनियर बनना चाहते हैं तो मैं नहीं कहता कि सबको रोक दो मगर उन्हें एक दिशा दो कि बनकर किस प्रकार के कार्य करने हैं। एक भावपक्ष होना चाहिये। सब बेईमान बनना चाहते हैं। चूँकि वास्तविकता सत्य है, इन्जीनियर बनना चाहते हैं कि बेईमानी का पैसा खूब कमा लेंगे। हर एक के अन्दर यह भावपक्ष छिपा हुआ है कि एक इन्जीनियर लाखों-करोडों रुपया बेईमानी का कमा सकता है। एक डॉक्टर खूब अधाधुन्ध पैसा कमा सकता है। कहीं न कहीं से सचेत हों। कहीं न कहीं से त्याग करो। कहीं न कहीं अपने अन्दर दृढ़ता लाने का प्रयास करो कि आपको नशे और मांस का त्याग करना है। धीरे- धीरे करके अपने बच्चों को ऐसी दिशा दें कि उनमें कूट-कूट कर ऐसी मानसिकता भर दें कि डॉक्टर, इन्जीनियर, वैज्ञानिक कुछ भी बनो, मगर भ्रष्टाचार की मानसिकता तुम्हारे अन्दर पनपने न पाये। धीरे- धीरे तभी तो समाज का सुधार होगा। आज अपने आप में सुधार नहीं करना चाहते, अपने बच्चों में सुधार नहीं करना चाहते और चाहते हो कि समाज में परिवर्तन आ जाये तो उसके लिये साधक बनने की जरूरत है। श्रवण शक्ति हासिल करने की जरूरत है। खुद अच्छी बातें सुनो और अपने बच्चों को अच्छी बातें सुनाओ। श्रवण, गुरू व ईष्ट के बारे में आप जैसी बातें सुनेंगे, वैसे विचार आपके अन्दर आते चले जायेंगे। गुरू से उतना सम्बन्ध उसी तरह से जुड़ता चला जायेगा।
श्रवण के बाद आता है कीर्तन। कीर्तन में अपने आपको रत करना। वही भजन पहले सुनें और जो कीर्तन-भजन हो रहे हों, उनमें अपने आपको रत करें। आप कीर्तन कर नहीं सकते, बोल नहीं सकते, लेकिन कहीं कीर्तन चल रहे हैं, भजन चल रहे हैं तो उसमें अपने आपको रत कर दें। अपने तन की सुध को भुला देना, इसी को तो ध्यान-साधना कहते हैं। ऐसा नहीं है कि आँख बन्द करके ध्यान-साधना हो जाती है। आप सुनें भी और भजनों में, कीर्तनों में अपने आप को रत करें, और अगर फिल्मी गीतों में रत करेंगे तो विनाश की ओर जायेंगे। यह जीवन भी पतन के मार्ग में जायेगा और नवीन जीवन में भी उसी तरह कटोरा लेकर भीख माँगते हुये रोड में खड़े नजर आयेंगे। अपाहिजों का जीवन जी रहे होंगे। चूँकि निश्चित है हर कर्म का फल सुनिश्चित है। यह मेरे द्वारा पूर्व के चिन्तनों में बताया जा चुका है।
आपके अन्दर श्रवण, श्रवण के बाद कीर्तन भजन में स्वयं को रत रखें। इनमें रत करने का तात्पर्य यह नहीं है कि जिस तरह अनेकों लोग झूमने लगते हैं नाचने लगते हैं! अपने आपको रत कर देना, एकाग्र कर देना कि आपका मन थिरके। आपके अन्दर हलचल हो और उस हलचल से आप अपने अन्दर के सूक्ष्म शरीर को प्रभावित करने का प्रयास करें। अपने अन्तःकरण को स्थिर करने का प्रयास करें। ताली बजाकर मन को एकाग्र करना या कोई छोटी-मोटी क्रियायें करना जिससे आपके शरीर का सन्तुलन बने, मगर ऐसे बेसुध न हो जायें कि अनेकों लोग बेसुध होकर गिरने पड़ने लगते हैं। लोटने लगते हैं कि ऐसा लगता है ये रत हो गये मगर यह रत नहीं, यह उनका पतन है। जब ऊर्जा अनियन्त्रित होने लगे तो आपकी ऊर्जा सूक्ष्म की ओर नहीं जा रही, बल्कि आपकी ऊर्जा स्थूल की ओर जा रही है। मगर जब तक आप स्थूल शरीर में आनन्दित हो रहे होते हैं, कि आपको लगता है कि आप ताली भी बजाने लगें। ताली सुन करके हाथ-पैर चलने लगते हैं। यह आनन्द है और इससे जब ज्यादा होने लगता है तो आप लोटने लगते हैं, इधर-उधर करने लगते हैं। बेसुध होने लग जायेंगे और उसमें आपकी ऊर्जा आपके स्थूल शरीर की ओर प्रवाहित हो जायेगी, वह सूक्ष्म की ओर नहीं जा रही होगी। ये सब छोटी-छोटी बातें हैं जिनको समझने की जरूरत है।
थिरकन हो मगर थिरकन में सचेत रहें। रत करना है अपने आपको मगर रत करने में आप यदि स्थूल शरीर की ओर हो जाओगे, आपकी ऊर्जा यदि स्थूल शरीर की ओर जाने लग जायेगी तो यह रत करना नहीं कहलायेगा। आपका मन एकाग्र होते-होते, मन एकाग्र करते-करते शान्त होने की स्थिति में आ जाये कि बाहर कोई कुछ भी करे मगर आपका मन शान्त एकाग्र होता चला जाये। आप धीरे-धीरे स्थिर होते चले जायें। कीर्तन और भजन, ये जो छोटी-छोटी बातें हैं इनमें अपने आपको लगाने की जरूरत है। ये क्रियायें हैं कि प्रतिदिन थोड़ा बहुत कीर्तन, भजन, संगीत इनको रोज सुनें और अपने मन के अन्दर गुनगुनायें।
मैं उसी बात की ओर आपको ले जाना चाहता हूँ कि आपमें से अधिकांश स्वतः अपने अन्तःकरण में झांक करके देख लें कि कितने लोग हैं जिनके मुख में सुबह-शाम लेटते, उठते-बैठते, चलते-फिरते माँ के मन्त्र, माँ का गुणगान, माँ की भक्ति के गीत गूंजते हैं। बल्कि, हर एक के अन्दर किसी न किसी फिल्म का संगीत गूंजता होगा। उठते हैं तो लाइनें गूंजती रहेंगी, तो बाद में याद क्या आयेगा? फिर बच्चे कहते हैं कि गुरूजी हमारी याददाश्त कमजोर होती जा रही है! सुबह-शाम उनके मुंह में किसी न किसी फिल्मी गीत की लाइन होगी, जो बगैर आपके रटे रटाये आपके मन-मस्तिष्क में गूंजती है तो आप अपने शरीर को स्थिर ही नहीं कर सकते। जिस तरह की चीजें आपकी चलेंगी, वह उसी तरह की आपकी कोशिकाओं को चैतन्य करेंगी और आपको पतन के मार्ग में ले जायेंगी। तो श्रवण के साथ कीर्तन में सचेत रहो कि अच्छे कीर्तनों को सुनो, अच्छे कीर्तनों में अपने आपको लगाओ, अच्छे कीर्तनों में अपनी वाणी का उपयोग करो और अच्छे कीर्तन आपके अन्तःकरण में मनन होते रहने चाहिये, चलते रहने चाहिये।
श्रवण व कीर्तन के बाद आता है स्मरण। तीसरा महत्वपूर्ण बिन्दु है हर पल का स्मरण कि आपने जो सुना, आपने जो कीर्तन किया, उसके प्रति आपकी सोच, हर पल आपका स्मरण बना रहे। हर पल सोच उस दिशा में बनी रहनी चाहिये। एक विचारधारा आपकी बनी रहे। जब आप अपनी सोच को एक सतोगुणी विचारधारा से जोड़कर रखेंगे, वह विचारधारा अपने अन्दर बना करके रखेंगे तो उस सोच के साथ आपका हर पल, हर क्षण साधनामय बन जाता है। प्रारम्भ में धीरे-धीरे अभ्यास करेंगे और इन सब चीजों की गहराई इतनी है कि जितनी गहराई में आप डूबेंगे, उतना आपको आनन्द मिलता चला जायेगा। मैं सुख की बात नहीं कह रहा। चूँकि हर एक का तो विलोम होगा मगर आनन्द का कोई विलोम नहीं होता। आनन्द तो सिर्फ आनन्द है। जितना डूबो, उतना ही आनन्द है। आप कितना डूब सकते हो, यह आपके ऊपर है। वही चीज है कि जितना आप हर पल स्मरण रखोगे, उस प्रकृतिसत्ता का स्मरण, माँ का स्मरण, अपने गुरू का स्मरण, अपने इष्ट का स्मरण, आपके मन-मस्तिष्क में वह गूंजता रहना चाहिये। आपके मन-मस्तिष्क में सोते-जागते, उठते-बैठते वह चीज छायी रहनी चाहिये। चूँकि कोई न कोई चीज तो आपके अन्दर छायी ही है। आप बेसुध से रहते हैं। पता चला कि गाड़ी वाला हार्न के ऊपर हार्न बजाये चला जा रहा है, आप रास्ते में जा रहे हैं मगर पता नहीं कहाँ खोये हुये हो और एक्सीडेन्ट हो जाता है। गाड़ी चला रहे हो मगर ध्यान कहीं दूसरी जगह है। तो ध्यान सत्य पर लगाओ। ध्यान अगर सत्य पर लगा रहेगा तो दुर्घटनाओं से भी बच जाओगे और आपकी सतोगुणी प्रवृति भी जाग्रत होती चली जायेगी।
हर पल स्मरण रखो। सोते-जागते, उठते-बैठते, एक क्षण ऐसा आये ही नही कि जिस क्षण आप सतोगुणी प्रवृति से विमुख हों। एक क्षण के लिए भी स्मरण से आप अलग हो सको, दूर हट सको। श्रवण, कीर्तन, स्मरण इन पर ध्यान रखें। कुछ न कुछ वक्त दें। अपने अन्दर एक सोच पैदा करें।
श्रवण, कीर्तन, स्मरण के बाद आता है पादसेवन, चरणसेवा। आपके घर में आपके गुरू की, इष्ट की जो छवियाँ हों, उनका सेवन करें। वैसे आप में अधिकांश हर कोई किन्हीं न किन्हीं गुरु से जुड़े हैं और मैंने कहा है कि मेरे चरणों की सेवा करने का सौभाग्य हर एक को मिल सके, ऐसा सम्भव ही नहीं और उसकी आवश्यकता भी नहीं है, चूँकि बिना माँगे ही मैं वह सब कुछ देने के लिये तैयार रहता हूँ जो आपको चरणों की सेवा से प्राप्त होगा। आप उन छवियों की सेवा करते हैं, उनमें ही वह फल प्राप्त हो जाता है जिस फल की आप कामना करते हैं। चरणसेवा, कि आपके घर में जो छवियाँ रखीं हैं, जो तस्वीरें रखी हैं तो कोई न कोई ऐसा स्थान अवश्य बनायें कि कुछ क्षण आप बैठने का अवसर प्राप्त करें। उस अवसर की तलाश कि जिस तरह आप अनीति-अन्याय-अधर्म के लिये मौके तलाशते रहते हैं, चोरी करने के लिये, गलत करने के लिये अवसर तलाशते रहते हैं, उसी तरह सत्य के कार्य करने के लिये अपने अन्दर एक तड़प पैदा करो कि आज उस तस्वीर के मैंने चरण स्पर्श नहीं किये तो मेरे जीवन में खालीपन नजर आ रहा है। आज अगर मैंने अपने हाथ से माँ की तस्वीर को पोछा नहीं है, माँ की छवि को स्नान नहीं कराया है तो मेरे जीवन में खालीपन नजर आ रहा है। तो चरणसेवा का अपने अन्दर भाव पैदा करना।
सेवाभाव, कि चरणों की सेवा, चरणों के दर्शन, चरणों की ललक, चरणों की कृपा प्राप्त करने का वह भाव आपके अन्दर जाग्रत होना चाहिये। गुरु के प्रति, अपने इष्ट के प्रति आपके अन्दर एक ललक होनी चाहिये। चूँकि आप स्थूल शरीर में हो और मैंने कहा है कि एक माध्यम लेकर चलोगे तो बिखर जाओगे। सभी माध्यमों को लेकर चलोगे तो एक माध्यम आपका टूटेगा तो दूसरा माध्यम सम्भाल लेगा।
तदुपरान्त, पादसेवन, चरणसेवा के बाद पांचवा अर्चन है। नित्य कुछ न कुछ उस प्रकृतिसत्ता की पूजा-अर्चन में, आरती करने में, पूजा करने में, स्नान कराने में, उनको पुष्प चढ़ाने में, उनको धूप-दीप लगाने में, कुछ अपना समय दो। इससे आपके अन्दर भावपक्ष जाग्रत होगा और भाव का ही फल तो सब जगह प्राप्त होता है। भाव में ही सब कुछ समाहित है। जैसे आपके अन्दर भाव बनेंगे, जिस तरह जब आप पुष्प समर्पित करेंगे तो आपके अन्दर समर्पण का भाव आयेगा। आप जब जिस समय आरती कर रहे होंगे, उस समय आपका मन एकाग्र होगा तो वह अर्चन का भाव आपके अन्दर होना चाहिये कि हम किस तरह भोग चढ़ायें, किस तरह पुष्प चढ़ायें, किस तरह धूप दीप लगायें। यह आप नित्य करेंगे तो सतोगुणी प्रवृत्तियाँ आपके शरीर के अन्दर स्वतः जाग्रत होती चली जायेंगी। चूँकि आप जैसी चीज का स्पर्श करोगे, वैसे ही आपके अन्दर विचार पैदा होते चले जायेंगे। आपके अन्दर वह भावपक्ष बना करके उसी तरह की चीजों का अर्चन करें। भावपक्ष से अपने इष्ट, अपनी देवी माँ भगवती का तथा जो जिन देवी-देवताओं से जुड़े हों, उनका पूजन करें, उनका अर्चन करें।
छठवीं चीज है वन्दन करना। उनकी स्तुति करना, उनका गुणगान करना, उनकी वन्दना करना। वन्दना करने का तात्पर्य यह नहीं है कि हम उनकी वन्दना करेंगे तो वे तत्काल प्रसन्न होकर हमारे ऊपर कृपा कर देंगी। निश्चित है कि आप प्रकृतिसत्ता की जैसी स्तुति करेंगे, वैसा फल आपको प्राप्त होगा। आप किसी को गाली दोगे तो उसी तरह की विपरीत ऊर्जा आपके अन्दर आयेगी, उसी तरह का भावपक्ष आपके अन्दर जाग्रत होगा। किसी से आप प्रेम से बातें करते हो, वह उसी तरह आयेगा। उसी तरह जब आप प्रकृतिसत्ता से प्रेम का सम्बन्ध स्थापित करोगे, आप पूजन-अर्चन का भाव, वन्दना कर रहे हो तो निश्चित है कि आपके अन्दर की सतोगुणी कोशिकायें आपकी सतोगुणी प्रवृति से आपका सम्बन्ध स्थापित करेंगी। वह चेतना तरंगें बरबस आपके शरीर से जुड़ना शुरू हो जायेंगी।
हम स्थूल से सूक्ष्म में बहुत गहराई से जुड़े हुये हैं। जिस तरह यह स्थूल है, इसके बहुत नजदीक सूक्ष्म जगत जुड़ा हुआ है। जिस तरह तरह यह स्थूल शरीर है, उसी तरह इसके बहुत नजदीक हमारा सूक्ष्म शरीर है। मगर आज समाज का दुर्भाग्य है कि समाज के अधिकांश साधु-सन्त-सन्यासी, बल्कि अगर मैं यह कह दूँ कि शायद दुर्लभ एक या दो ऐसे व्यक्ति समाज के बीच होंगे जिनका सूक्ष्म शरीर जाग्रत हो। वैसे तो समाज के बीच तलाशना ही मुश्किल है। हिमालय की कन्दराओं, गुाओं में निश्चित ही ऐसे लोग हैं जिनका सूक्ष्म शरीर जाग्रत है। मगर आज पतन इसलिये होता चला जा रहा है कि तुम सोच ही इस दिशा की ओर नहीं कर रहे हो कि हमारे अन्दर सूक्ष्म शरीर बहुत ही नजदीक है। मगर जिस तरह आप वन्दन अर्चन करेंगे, उससे आपके अन्तःकरण में थिरकन पैदा होती है, आपकी सुसुम्ना नाड़ी चैतन्य होती है। आपके सातों चक्रों में जब चेतना तरंगें पैदा होंगी तो आप सतोगुणी प्रवृत्ति की ओर बढ़ते चले जायेंगे। उस ऊर्जा शक्ति को आप धीरे- धीरे करके हासिल करते चले जायेंगे। पूजा अर्चन केवल हम उसी के लिये नहीं करते कि हमें पूजा करना है, आरती करना है। इन कड़ियों को जब तक आप भावपक्ष में नहीं लेंगे कि हम नित्य कुछ न कुछ अपने इष्ट की व अपने गुरू की, जिस गुरू से जुड़े हुये हैं, आरती करें, वन्दना करें।
अगली कड़ी में सातवां आता है दास्यभाव। दास का भाव अपने अन्दर लेना कि मैं सेवक हूँ, वह स्वामी हैं। प्रकृतिसत्ता, वह मेरी स्वामिनी है। मैं सिर्फ उसका एक दास हूँ, उसका एक रजकण हूँ। अपने अन्दर दास का भाव पैदा करना, अपने अन्दर सेवक का भाव पैदा करना, ये भक्ति के ही अंग हैं। मैं भक्त हूँ, केवल इससे काम नहीं चलेगा। काम चलेगा जब अपने अन्दर दास प्रवृत्ति पैदा करोगे कि सौभाग्य से मुझे ऐसे चरणों में रहने का सौभाग्य मिल जाय कि जहाँ मैं दास बन करके रह सकूँ। माता का जहाँ भी आश्रम है या जहाँ से भी मैं जुड़ा हुआ हूँ तो एक सेवाकार्य करने का अवसर प्राप्त हो जाय। एक दास का जो भाव रहता है, सेवक का जो भाव रहता है, वह अपने अन्दर यदि पैदा करने लग जाओगे तो आपके अन्दर की सतोगुणी प्रवृत्ति जाग्रत होती चली जायेगी, चैतन्य होती चली जायेगी और आप साधक बनते चले जाओगे।
हर पल अपने आपको एक दास मानो, एक सेवक मानो कि हम उस प्रकृतिसत्ता के, उस गुरू के केवल एक दास हैं। दासत्व भाव अपने अन्दर लाओ, जहाँ अपना कुछ नहीं रहता। हमें हमारी प्रकृतिसत्ता जहाँ जिस हाल में जैसा रखें, रहना है। हम प्रकृतिसत्ता के दास हैं, हम उनके गुलाम हैं। प्रकृतिसत्ता हमें जहाँ जैसे जिस हाल में रखें, हमें प्रसन्नचित्त रहकर उसके सेवाकार्यों में रत रहना है। यह हमारे लिये सौभाग्य होगा कि प्रकृतिसत्ता हमें दास के रूप में स्वीकार कर लें। हमारे अन्दर दासत्व का भाव होना चाहिये। हमारे अन्दर एक तड़प होनी चाहिये कि मेरे जीवन का सबसे बड़ा सौभाग्य होगा कि मुझे वह पुत्र मानें या न मानें, मुझे पहले दास मान लें। अपना मुझे सेवक मान लें। अपने अन्दर सेवक की प्रवृत्ति पैदा करो, अपने अन्दर दासत्व की प्रवृत्ति पैदा करो। मगर आज उसी प्रवृत्ति से तो समाज विमुख होता चला जा रहा है। यदि उस इष्ट के प्रति, माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा के प्रति दासत्व भाव आ जाये तो आपकी भक्ति कभी खण्डित नहीं होगी। चूँकि जिस समय आपने अपने आप को माँ का दास मान लिया तो नित्य उतार-चढ़ाव क्यों आयेगा? जो कभी आगे जाते हो, फिर कभी पीछे हो जाते हो। कभी मन के भाव आगे बढ़ते हैं और फिर पीछे चले जाते हैं। हर पल सोच रखो, हर पल स्मरण रखो कि मैं उस प्रकृतिसत्ता का दास हूँ और दास की कोई सोच नहीं रहती। प्रकृति मुझे जैसा चला रही है, वैसा मुझे चलते जाना है। सिर्फ अपने कर्म को याद रखना है।
मैं एक दास हूँ, एक सेवक हूँ। मुझे जो मौका मिल रहा है, सेवा करने का जो सौभाग्य मिल रहा है, उसमें मुझे अपनी पूरी क्षमता झोंक देने की जरूरत है, जिस तरह एक दास का कर्म होता है। इसीलिये मैंने कहा है कि यह बहुत गहराई के विचार हैं। एक-एक चीज में, जितनी गहराई में उदाहरण दे-देकर मैं जाना चाहूँ तो मैं बहुत लम्बे अन्तराल तक चला जाऊँ। मगर मैं संक्षिप्त शब्दों में उनके विचार दे रहा रहा हूँ।
वह दासत्व भाव अपने अन्दर पैदा करो और दासत्व भाव जब आ जाये, उसके बाद आठवां अपने अन्दर पुत्रभाव पैदा करो कि मैं पहले दास हूँ, फिर अगर प्रकृतिसत्ता चाहें तो अपना पुत्र स्वीकार कर लें। मेरे अन्दर पुत्रत्व का भाव आ जाये कि मैं प्रकृति से जो भी सम्बन्ध स्थापित करूँ, वह मुझे पु़त्र मान रही हों या न मान रही हों मगर मैं अपना पूरा पुत्रत्व का व्यवहार करूँ। माँ से यह आशीर्वाद मागूँ कि माँ मेरे अन्दर ऐसे गुण भर दो कि मैं आपका पुत्र बन सकूँ। जिस तरह एक अबोध पुत्र माता-पिता से प्रेम करता है, अपने माता-पिता से लगाव रखता है, अपने माता-पिता की गोद से बाहर नहीं जाना चाहता है, वह पुत्रत्व भाव मेरे अन्दर पैदा कर दो कि मैं आपसे विमुख होने की बात अपने अन्दर सोच भी न सकूँ। हे माँ, वह लगाव वह तड़प मेरे अन्दर पैदा कर दो। फिर भला कौन आपको माँ की भक्ति से अलग कर सकेगा? अपने अन्दर वह अबोध भाव लाने का प्रयास तो करो।
नित्य जब माँ के चरणों में बैठो तो माँ के चरणों के प्रति अपने अन्दर तड़प पैदा करो कि माँ, मेरे अन्दर वह पुत्रत्व भाव पैदा कर दो। माँ, अपने से मुझे कभी विमुख मत करना। माँ, मुझे अपने चरणों का दास बनाओ और मुझे अपना पुत्र बना लो, अपना एक अंश मान लो और वास्तव में हम पुत्र हैं ही। जो हैं बस उसकी सोच पैदा करना है। हम आप सभी उस प्रकृतिसत्ता के अंश ही तो हैं और अंश हैं तो पुत्रत्व भाव ले आओ, सम्बन्ध का भाव ले आओ। प्रकृतिसत्ता तुम्हें जितना ज्ञान देती चली जाये, उतना प्रकृतिसत्ता से सम्बन्ध स्थापित करते चले जाओ। भौतिक जगत के पुत्रत्व से न लो, चूँकि पुत्र का भाव तो समाज में बहुत भटका हुआ है कि बचपन के भाव अलग होते हैं मगर ज्यों-ज्यों पुत्र बड़े होने लगते हैं, वह लगाव माता-पिता के पास से अलग होता जाता है। प्रेम शब्द टूट जाता है। जो निष्ठा, विश्वास और समर्पण की बात मैंने कहा है कि वह प्रेमभाव वहाँ से समाप्त हो जाता है, जबकि वह पुत्रत्व भाव समाप्त होने वाला नहीं होना चाहिये।
हम हर पल अबोध हैं, शिशु हैं। जब हर पल हम शिशु मान करके चलेंगे तो प्रकृतिसत्ता से हमारे सम्बन्ध कभी विच्छेद हो ही नहीं सकते। मगर आज समाज में जिस तरह की स्थिति है कि बच्चों की एक निर्धारित स्तर तक की उम्र हुई नहीं या शादी हुई नहीं कि माता-पिता से पचास प्रतिशत सम्बन्ध तो अपने आप ही कम हो जाता है। माता-पिता के प्रति एक तड़प पैदा करो, एक लगाव पैदा करो। उसी तरह उस प्रकृतिसत्ता से सम्बन्ध में एक पुत्रत्व का भाव होना चाहिये। मगर उस प्रकृतिसत्ता से सम्बन्ध के पुत्रत्व के भाव से, स्थूल जगत के माता-पिता के पुत्रत्व के भाव से नहीं जोड़े जा सकते। चूँकि इससे करोड़ों-अरबों गुना या जिसकी मैं कह दूँ कि कोई गणना ही नहीं निर्धारित की जा सकती कि कई गुना ज्यादा उस भाव की गहराई है। उस पुत्रत्व के भाव में गहराई छिपी है तो उस पुत्रत्व के भाव की गहराई में डूबने का प्रयास करो। हर पल अपने आपको पुत्रत्व के भाव में रखने का प्रयास करो। हर पल एक सोच पैदा करो कि जिस तरह आप एक अबोध शिशु हो और अपनी माता से अलग नहीं होना चाहते, माँ की गोद से अलग नहीं होना चाहते व यदि घण्टे दो घण्टे बाद माँ की गोद पाते हो, तो ऐसा लगता है जैसे सर्वस्व आपको मिल गया। उस समय आपको कोई कुछ भी दे रहा हो तो भी आप उसकी तरफ देखना भी पसन्द नहीं करते। बस माँ की गोद में डूबना चाहते हो, पिता की गोद में डूब जाना चाहते हो। वही शिशुवत भाव अपने अन्दर लाओ और जब शिशुवत भाव अपने अन्दर ले आओगे तब वास्तविकता में तुम्हारा मन यह स्वीकार कर लेगा।
मैंने मन पर जो लगाम लगाने की बात कही है कि मनरूपी रथ का सारथी भक्ति को बनाओ, लगाम भक्ति को दे दो। भक्तिरूपी भाव जब आप शिशुवत्व के अन्दर डुबा दोगे, पुत्रत्व के अन्दर डुबा दोगे, दासत्व के अन्दर डुबा दोगे, एक अबोध भाव ले करके हर पल जीवन जियोगे तो आपके प्रकृतिसत्ता से सम्बन्ध टूटेंगे कैसे? प्रकृतिसत्ता से सम्बन्ध बढ़ेंगे और इसी तरह आपके आवरण हटते चले जायेंगे। सतोगुणी प्रवृत्ति आपके अन्दर पैदा होती चली जायेगी। साधना में और करना क्या है? आपके अन्दर वासनात्मक भाव पैदा होते हैं तो वासना में बहकर पतन की ओर चले जाते हो। नाना प्रकार के अनीति-अन्याय-अधर्म कर बैठते हो और जब वही पुत्रत्व का भाव, दासत्व का भाव आपके अन्दर पैदा होता चला जायेगा तो वही प्रवृत्ति आपके अन्दर जाग्रत होती चली जायेगी। सतोगुणी प्रवृत्ति आपके अन्दर जाग्रत होती चली जायेगी, तो पुत्रत्व भाव अपने अन्दर पैदा करो।
आपके अन्दर यदि पुत्रत्व भाव आ जाये तो उसके बाद अन्तिम और नवां चरण है आत्मनिवेदन, आत्मसमर्पण कि अब न मैं दास हूँ, न सेवक हूँ, न पुत्र हूँ। यह मेरी जो आत्मा है प्रकृतिसत्ता के चरणों में समर्पित हो जाये, इसका प्रकृतिसत्ता से सम्बन्ध जुड़ जाये। यह सब कुछ जो दासत्व भाव है, पुत्रत्व भाव है, सब प्रकृतिसत्ता के अंश के रूप में है और अब मैं कुछ कर ही नहीं रहा हूँ। न मैं पुत्र बन सकता हूँ, न मैं दास बन सकता हूँ। मेरे पास जो कुछ भी है, सब उस प्रकृतिसत्ता का अंश है और मैं उस प्रकृतिसत्ता से सिर्फ यह मांगूं कि हे माँ, मेरी आत्मा को अपने चरणों में शरण दे दो, अपने आप में जोड़ दो, अपने आप में मिला दो। अपनी पूरी सामर्थ्य जो भी है, जो कुछ भावपक्ष है, आत्मसमर्पण कर दो। बस सिर्फ एक बार कि मेरा आत्मकल्याण किस प्रकार हो, मुझ पर कृपा कर दो। हे माँ, मैं बन्धनों में जकड़ा हूँ, मैं विषमताओं से जकड़ा हूँ। हे माँ, मेरे अन्दर जो आवरण पड़े हुये हैं, इन्हें आपके अलावा और कोई हटा नहीं सकता। इन आवरणों को हटाने की सामर्थ्य सिर्फ आपमें है। मैं आपसे विमुख होकर दूसरी तरफ देखूँगा तो एक आवरण और चढ़ जायेगा। हे माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा, इन आवरणों को हटाने की शक्ति, सामर्थ्य केवल आपमें है। हे माँ, केवल आप ही इन आवरणों को दूर कर सकती हैं और इन आवरणों को हटाने के लिये मैं आपके चरणों में समर्पित हूँ। वह भाव अपने अन्दर पैदा कर लें। आत्मसमर्पण का भाव जिस क्षण आपके अन्दर आ जायेगा, उन क्षणों से प्रकृतिसत्ता के चरणों से आपके सम्बन्ध अपने आप जुड़ जायेंगे और वही संयोग आपका पूर्णत्व का संयोग कहलायेगा।
आप जब आत्मावान बनने की पात्रता हासिल कर लेंगे, जिस समय आप आत्मावानों का जीवन जीने लगेंगे कि मैं एक आत्मा हूँ, एक अजर-अमर-अविनाशी आत्मा हूँ, उस माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा का एक अंश हूँ और अब तक मैं अलग रहा, अब तक मैंने माँ को समझा नहीं, अब तक मैंने अपनी इष्ट को समझा नहीं, अब तक मैंने प्रकृतिसत्ता को समझा नहीं, अब तक मैं आवरणों में भटकता चला गया और मेरे जीवन का वास्तविक सत्य क्या है? सत्य है माँ में समा जाना, माँ से अपने आपको जोड़ देना और उन सम्बन्धों को जोड़ने के लिये पूर्णता का समर्पण कर दो, कि मैं कुछ नहीं हूँ, मेरा कोई वर्चस्व नहीं है और जिस समय वह भाव आ जायेगा, आपके अन्दर का अहंकार नष्ट हो जायेगा। जो कुछ भी करोगे, वह सब कुछ माँमय होगा, सतोगुणी होगा, अच्छा होगा, जनकल्याणकारी होगा, चेतना से परिपूर्ण होगा। आत्मसमर्पण का वह भाव आपके अन्दर जाग्रत होना चाहिये और वही जीवन की सत्यता है। इसी सत्यता को जब आप ले करके चलोगे तो आपको एहसास ही नहीं होगा कि आप अगर इस नवधा भक्ति को नित्य अपने जीवन में रखते हैं तो कब कितने क्षण हमारे माँ के चरणों में गुजर गये। हमको आलस्य या नींद कहाँ से आयेगी? आलस्य व नींद तो वहीं आयेगी, जब इस नवधा भक्ति में हमारे भावपक्ष ही नहीं जुड़े होंगे। चैतन्यता आयेगी, धीरे-धीरे प्रयास करो। नित्य भावपक्ष को जब जाग्रत करोगे तो वह नवधा भक्ति धीरे- धीरे आपके अन्दर समा जायेगी और जब वह समा जायेगी, तभी आपके अन्दर चेतनाशक्ति जाग्रत होगी।
मैंने कहा है कि सातों चक्र हैं तथा कुण्डलिनी चेतना के जाग्रत होने का तात्पर्य यह नहीं है कि एक मिनट के अन्दर कुण्डलिनी जाग्रत हो जाती है। हर पल आपकी सोच, विचार, सब कुछ तो आपके अन्दर इसी शरीर के अन्दर समाहित है। छोटी-छोटी बात आप पूछते हो। आप कोई बात भूल जाते हैं, तो अगले ही क्षण आप आँख बन्द कर थोड़ी देर ध्यान करते हो तो आपको याद आ जाता है। अरे, आज जो क्षमता शून्य रूप में है या 5 प्रतिशत, 6 प्रतिशत आपके अन्दर है तो उसको क्यों नहीं शत प्रतिशत में बदल देते हो। फिर देखो कि तुम एक सामान्य मानव से महामानव बन जाओगे। तुम्हारे अन्दर देवत्व का उदय होगा। तुम्हारे अन्दर साधुत्व का उदय होगा। तुम्हारे अन्दर सन्तभाव जाग्रत होगा। तुम्हारे अन्दर ऋषित्वभाव जाग्रत होगा। अन्यथा तो भगवे वस्त्र धारण कर लेने से न कोई साधू-सन्त बन जायेगा, न सन्यासी बन जायेगा।
ऋषित्व का मार्ग क्या होता है? आपका गुरू ऋषित्व का मार्ग जीता है, ऋषित्व का जीवन जीता है और उस ऋषित्व के मार्ग को मैंने कहा है कि आज के साधु-सन्त-सन्यासी समझ सकें, यह उनके वश की बात नहीं है। उस गहराई को समझ सकें, उनके वश की बात नहीं। निश्चित है मैंने एक किसान परिवार में जन्म लिया है मगर मैंने इससे भी पूर्व के अपने जीवन के बारे में बताया है कि मैं किस चेतना का अंश हूँ। इस जीवन में इस रूप में कार्य कर रहा हूँ। उस चेतना की क्या सामर्थ्य है, मगर उसके बाद वर्तमान में भी इस शरीर के रूप में उसी विचारधारा के साथ नित्य आराधना करता हूँ, नित्य माँ के चरणों में बैठता हूँ, नित्य एक साधक का जीवन जीता हूँ। वही जीवन आपको भी जीना है। मेरे सामने तो मेरा गृहस्थ बाधक नहीं है। मेरे सामने तो मेरे बच्चे बाधक नहीं हैं। मगर आप जीवन ही किस प्रकार का जीते हो? मानव के लिये जीवन जीने की क्या क्रिया सिखाई गयी है? किस प्रकार हमें जीवन जीना चाहिये? गृहस्थ का हमें किस प्रकार उपयोग करना चाहिये? किस तरह समाज का उपयोग करना चाहिये? किस तरह हमें जीवन जीना चाहिये? जब आप इस विचारधारा के अन्दर प्रवेश करोगे, तो सब कुछ ज्ञान आपको होता चला जायेगा।
पानी पीने के लिये होता है, आपकी प्यास बुझाने के लिये होता है। आपको प्यास लगे और अगर जाते ही नदी को देखकर छलांग लगाकर डूब मरो, तो निश्चित मर जाओगे। हर चीज का उपयोग कहाँ, कितना, किसलिये, किस कार्य हेतु करना है, जीवन में हमें कितना धन चाहिये? कितना परिवार से सम्बन्ध स्थापित करना चाहिये? कितना हमें किन सम्बन्धों को प्रगाढ़ता देनी चाहिये? इन सभी बिन्दुओं पर विचार करना चाहिये। हर पल अपने अन्दर वैराग्यभाव हो और जो मैंने कहा है कि नवधा भक्ति, जिससे मेरा तो सिर्फ और सिर्फ एक रिश्ता है उस प्रकृतिसत्ता से, शेष अन्य मेरे सभी रिश्ते कर्तव्य से बंधे हुये हैं और कर्तव्यों का निर्वहन किस प्रकार करना है, उसमें एक सजगता होनी चाहिये? रिश्ता तो सिर्फ एक है। दूसरा रिश्ता तो हो ही नहीं सकता और उस रिश्ते से जब आप अपने आप को जोड़ लोगे तो आपके अन्दर चेतना आयेगी, चैतन्यता आयेगी, धैर्यता आयेगी, स्थायित्व आयेगा, मन को शान्ति मिलेगी और वास्तव में जब उस सम्बन्ध को आप प्राप्त कर सकोगे, तभी आप एक अभय जीवन प्राप्त करोगे।
मैं निर्भय जीवन की बात नहीं करता। एक अभय जीवन, जहाँ भय ही न हो। चूँकि अनेकों बार भक्त अगर माँगता है तो क्या माँगता है कि हे प्रभु, मुझे निर्भय जीवन दे दो। निर्भय का मतलब है कि कहीं भय समाहित है। निर्भय भय में कभी भी परिवर्तित हो सकता है मगर अभयपूर्ण जीवन में कोई भय नहीं रहता। जिस समय तुम आत्मावान जीवन जीने लग जाओगे तो अभय जीवन तुम्हारा हो जायेगा। जीवन भयमुक्त हो जायेगा। किस कालिकाल के वातावरण से तुम भयग्रसित होगे? कौन सा संघर्ष तुम्हें तोड़ सकता है? कौन सी विघ्न-बाधायें तुम्हें डिगा सकती हैं? कौन तुम्हें उस शाश्वत पथ से विमुख कर सकता है। सिर्फ एक विचारशक्ति अपने अन्दर पैदा करो कि मैं एक आत्मावान जीवन जीने वाला उस प्रकृतिसत्ता का एक अंश हूँ।