भक्ति, ज्ञान व आत्मशक्ति

शक्ति चेतना जनजागरण शिविर, सिद्धाश्रम, 08.10.2008

शक्ति चेतना जनजागरण शिविर के द्वितीय दिन, नवमी तिथि पर यहाँ उपस्थित अपने समस्त शिष्यों, इस व्यवस्था में लगे हुये समस्त कार्यकर्ताओं, माँ के भक्तों, दर्शनार्थियों को अपने हृदय में धारण करता हुआ, माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा का पूर्ण आशीर्वाद प्राप्त करता हुआ, अपना सम्पूर्ण आशीर्वाद आप समस्त लोगों को समर्पित करता हूँ।
आज समाज में जहाँ हर मानव कहीं न कहीं दैहिक, दैविक और भौतिक तापों से ग्रसित है। ऐसा कोई मानव नहीं है जिस मानव के जीवन में किसी न किसी पक्ष का कोई न कोई संघर्ष न हो, मगर उसमें अनेकों लोग ऐसे होते हैं कि उन संघर्षों के बीच भी, उन संघर्षों को नजरन्दाज करते हुये अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते चले जाते हैं। इतिहास साक्षी है, समाज में अनेकों समाजसेवक पैदा हुये हैं, अनेकों राजनेता पैदा हुये हैं, अनेकों धर्मप्रमुख पैदा हुये हैं, अनेकों ऋषि-मुनि रहे हैं, संघर्ष उनके जीवन में भी रहे हैं, मगर कभी भी संघर्ष उनके सामने बाधा बनकर इस प्रकार नहीं खड़े हो सके, कि उन्होंने अपने लक्ष्य की प्राप्ति न की हो।

संघर्ष किसके जीवन में नहीं रहा? जिन्हें आप देव मानते हैं, जिनकी आप आराधना करते हैं, क्या उनके जीवन में संघर्ष नहीं रहे! क्या राम का जीवन संधर्षों से भरा नहीं था? क्या कृष्ण का जीवन संघर्षों से भरा नहीं था? ऐसा कौन सा देवपुरुष रहा है जिसने समाज में जन्म लिया हो, ऐसा कौन सा ऋषि-मुनि रहा है जिसने समाज में जन्म लिया हो और उसके जीवन में संघर्ष न रहे हों? तो आम मानव, जो आम जीवन जी रहा है, निश्चित रूप से उसके जीवन में भी संघर्ष उसी प्रकार से हैं। मगर कई बार होता है कि आप उन संघर्षों में इतना अधिक लिप्त हो जाते हैं कि आगे की ओर देख ही नहीं पाते और अपने अन्दर इतना आत्मबल ही नहीं जाग्रत कर पाते कि इन संघर्षों के पार भी आप जा सकते हैं, क्योंकि कहीं न कहीं समाज का आत्मबल कमजोर होता जा रहा है। आत्मा में एक के बाद एक करके इतने आवरण पड़ते चले जा रहे हैं कि आत्मा की चेतना तरंगों का एहसास मानव कर ही नहीं पा रहा है कि आत्मा में कितनी दिव्यता है, कितनी अलौकिकता है, कितनी क्षमता आपके अन्दर भरी पड़ी है?
आप बाहर से सब कुछ अर्जित करना चाहते हो। बाहर से एक के बाद एक आशीर्वाद प्राप्त करने की कामना रखते हो। मगर आशीर्वाद, जब आध्यात्म क्षेत्र से जाते हैं, ऊर्जा तरंगों के माध्यम से जाते हैं। किसी भी साधू-सन्त-सन्यासी के पास, किसी भी देवी-देवताओं के मन्दिरों में जाते हो और यदि आपकी आत्मा में पड़े हुये आवरण हटे नहीं हैं तो चेतना तरंगें आपके शरीर तक जायेंगी और वापस हो जाती हैं। आप फल प्राप्त नहीं कर पाते। जब तक आपका अन्तःकरण निर्मल नहीं होगा, आपका अन्तःकरण पवित्र नहीं होगा, तब तक आपके पूर्व जीवन के जो संस्कार हैं, आप उन फलों को खाते रहते हैं। कई बार आप आगे बढ़ते हैं और कई बार एक घटना आपको बहुत पीछे फेंक देती है। मगर यदि आपके अन्दर संघर्ष करने की क्षमता है और वास्तविकता के सत्य का जीवन समझ सके, तो आपका कल्याण होगा। मैंने इसलिये कहा कि राम का जीवन भी संघर्षों से भरा था और कृष्ण का जीवन भी संघर्षों से भरा था। ये वो दो देवपुरुष हैं जिन्हें आज आप या अधिकांश समाज स्वीकार करता है, किन्तु उस काल में अनेकों लोगों ने स्वीकार नहीं किया। किसी ने राम को राजपुत्र माना, तो किसी ने कृष्ण को रसिया माना, किसी ने किसी रूप में देखा, तो किसी ने किसी रूप से देखा। मगर जिसने जिस रूप से देखा, उस रूप से उनकी शक्तियाँ उनको प्राप्त हुयीं।

चिन्तन प्रदान करते हुए सद्गुरुदेव परमहंस योगीराज श्री शक्तिपुत्र जी महाराज

आज का जीवन भी संघर्षों से भरा हुआ है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, इनमें से ऐसी कौन सी चीज है जो मानव में, पशु-पक्षियों में, जीव-जन्तुओं में, कीट-पतंगों में या ऐसा कोई भी जीवधारी नहीं है जिस जीवधारी में ये काम, क्रोध, लोभ, मोह समान भाव से न हों। आप अनेकों बार देखते हैं कि एक छोटे से छोटे पक्षी को देखें, वह भी अपने बच्चे को बड़े चाव से अन्न का दाना खिलाता है, प्रेम करता है, उनके घोसले बनाता है। उनके जन्म के पहले से ही घोसले बनाना प्रारम्भ कर देता है। उनकी देखभाल करता है कि खुद भोजन करने नहीं जाता है, उनकी देखरेख करता है, मौसम बिगड़ते देखता है तो उनको छाया कर देता है, ढकता है। मोह उनका भी अपने बच्चों के प्रति उसी प्रकार है। कोई भी जंगल में रहने वाले जीव-जन्तु हों, हिंसक जीव-जन्तु हों, उनका भी प्रेम, मोह, काम, क्रोध, लोभ, सभी उसी प्रकार हें। बच्चों की किस प्रकार रक्षा करना है, अभी आप लोगों ने कुछ समय पहले टी. वी. में देखा होगा कि एक जो घटनाक्रम दिखाया गया कि एक भैंस के बच्चे को एक बाघ ने पकड़ लिया। पहले एक बार भैंसों का पूरा झुण्ड भागता चला गया, मगर एक स्थिति, जब बच्चे की माँ ने देखा कि मेरे बच्चे को सिंह ने पकड़ लिया है, वह दूर तक गयी जरूर, मगर बच्चे के मोह को त्याग नहीं सकी और दौड़ करके पूरी क्षमता से आयी और सिंह से लड़ पड़ी। अपने बच्चे को बचाने के लिए उस भैंस ने लड़ते-लड़ते उस सिंह को भगाया। मैं इसलिये यह उदाहरण दे रहा हूँ कि जिन्हें कम बुद्धि का माना जाता है, थोड़ी देर में उन भैसों का पूरा समूह संगठित हो करके आया और शेरों के समूह को खदेड़ता चला गया। सबके अन्दर वही भाव हैं। संगठित होने की विचारधारा, रक्षा करने की विचारधारा, अपने आपको बचाने की विचारधारा। चीटी भी अपने घर में अन्न के दाने ले जा करके संग्रहित करती चली जाती है, यह होती है संग्रह करने की प्रवृति।
सभी में, हर प्रकार की प्रवृत्ति समाहित है। सभी प्रकृति की उस माया से बंधे हुये हैं। सभी कर्म-बन्धनों से बंधे हुये हैं, मगर उन कर्म-बन्धनों के बीच मानव जीवन को सर्वश्रेष्ठ कहा गया है। सभी में समान चीजें हैं। जीव-जन्तु भक्ति करते हैं, जीव-जन्तु भी अच्छाई करते हैं, जीव-जन्तुओं में भी एक दूसरे के दुखों को देख करके दुखी होने के भाव होते हैं, यह केवल मानव के अन्दर ही नहीं होते हैं। चूँकि आज अनेकों साधू-सन्त-सन्यासी, जीव-जन्तुओं को बिल्कुल ऐसा मान लेते हैं कि उनके पास बुद्धि नहीं है। सोचने-समझने की शक्ति केवल मानव के पास है, जबकि यह शक्ति सभी में समान रूप से भरी हुयी है। वह भी जब अपने किसी न किसी को दुखी देखते हैं, तो कई बार आप पशुओं को देखते होंगे कि आँसू निकल आते हैं। कुत्ते, बिल्ली पाले जाते हैं और अगर मालिक की मृत्यु हो जाती है तो कई बार कुत्ते की भी मृत्यु हो जाती है। यह भावना सभी के पास समान भाव से है, मगर उन सभी समान भावों के बीच मानव जीवन के पास एक सबसे प्रमुख चीज है। पशुओं के अन्दर भी भक्तिभाव है, उनके अन्दर भी चेतना भाव है। वे भी अपनी चेतना को एक निर्धारित स्तर तक जाग्रत कर सकते हैं, मगर मनुष्य निर्धारित स्तर तक जाग्रत करके अपने शरीर की मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं। मानव जीवन के अन्दर जो कुण्डलिनी चेतना है, आत्मचेतना है, सुषुम्ना नाड़ी है, वह एक जो मूलद्वार है जिसे कहा गया है कि चौरासी लाख योनियों में भटक करके एक बार अगर मानव जीवन मिलता है तो उस मानव जीवन में अगर हम एक बार मुक्ति के द्वार की ओर बढ़ गये तो हम मुक्त हैं और अगर हम मुक्ति के द्वार की ओर नहीं बढ़ सके तो हम बन्धनों से ग्रसित रह जायेंगे।
ऐसा नहीं है कि इस बार मानव जीवन मिला, दूसरी बार मानव जीवन तत्काल बदल जायेगा। जब मनुष्य अनेकों बार जन्म ले ले करके एकदम विपरीत कार्य करता चला जाता है, तब कहीं जा करके योनि बदलती है। मगर यदि मानव सचेत हो जाये, सत्य-पथ की ओर बढ़ना शुरू कर दे। आत्मा को अजर-अमर-अविनाशी मान ले, आत्मतत्व को पहचान ले, अपने अन्दर बैठी शक्ति को पहचान ले कि जो कुछ भी इस निखिल ब्रह्माण्ड में है, वह सब कुछ मेरी आत्मचेतना में समाहित है। मैं चाहूँ तो धीरे-धीरे करके उसे जाग्रत करता हुआ इस निखिल ब्रह्माण्ड से जुड़ सकता हूँ और अपने आप को चैतन्य बना सकता हूँ, अपने आप को सर्वशक्तिमान बना सकता हूँ। मगर मनुष्य आज अपने स्वस्वरूप को जानना नहीं चाहता। सबसे बड़ी विडम्बना यही है कि स्वस्वरूप को न जानने के कारण ही समाज में नाना प्रकार की विघ्न- बाधायें, इतनी विपरीत परिस्थितियाँ पैदा होती चली जा रही हैं कि कलिकाल अपना साम्राज्य स्थापित करता चला जा रहा है। सत्य की विचारधारा से लोग दूर हटते चले जा रहे हैं। सत्य-असत्य में निर्णय ही नहीं कर पाते कि सत्य का पलड़ा कौन है तथा असत्य का पलड़ा कौन है? हमें क्या करना चाहिये और क्या नहीं करना चाहिये? केवल काम, क्रोध, लोभ, मोह इतना अधिक मानव के अन्दर समाहित हो चुका है कि उससे मुक्त जीवन का एहसास ही नहीं कर पाते कि आनन्दमयी जीवन क्या है और इसीलिये कल जो मैंने आप लोगों को बताया कि उसके लिये जहाँ अष्टांग योग का एक मार्ग है यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि, जिसके माध्यम से हम अपने शरीर का शोधन करते हैं, अपने विचारों का शोधन करते हैं, अपनी श्वासों पर नियन्त्रण प्राप्त करते हैं, अपने शरीर पर नियन्त्रण प्राप्त करते हैं, अपने मन पर नियन्त्रण प्राप्त करते हैं। उसी तरह भक्ति मार्ग का, जो मैंने नवधा भक्ति का ज्ञान दिया कि नवधा भक्ति के माध्यम से भी हम अपने विषय-विकारों को दूर कर सकते हैं। वासना को केवल साधना से ही नष्ट किया जा सकता है, और कोई मार्ग नहीं है। जिस तरह हर बीमारी का एक इलाज होता है कि इस बीमारी का इलाज यही है कि जब इस इलाज को पूर्ण किया जायेगा तभी वह बीमारी दूर भागेगी। उसी प्रकार वर्तमान समाज में जो वासनामय वातावरण पैदा हो गया है, उसे सिर्फ साधना से दूर किया जा सकता है।
वासना केवल शारीरिक नहीं होती है। मन से, अनेकों प्रकार से आप किसी चीज में लिप्त हों, वह भी वासना ही है। आप एक के बाद एक अपने वैभवशाली महल के ऊपर महल बनवाना चाहते हैं, यह भी एक वासना है। आप हजारों प्रकार के कपड़े पहनना चाहते हैं या हजारों प्रकार के जेवर-जवाहरातों से अपने आपको लाद देना चाहते हैं, यह भी एक वासना ही है। आप अपने घरों में सैकड़ों प्रकार की गाड़ियों के ऊपर गाड़ियाँ खड़ी करना चाहते हैं, यह भी एक वासना है। वासना केवल एकपक्षीय नहीं होती और जब वासना आपके शरीर में समाहित हो जाती है, जब वासना आपके शरीर में छा जाती है तो आपके सोचने-समझने की शक्ति नष्ट होती चली जाती है।
समाज को जो सोच पैदा करना चाहिये, वह सोच समाज पैदा नहीं कर पा रहा। सम्बन्ध भी भटकते चले जाते हैं। इसलिये यदि धर्म-अध्यात्म से भी जो सम्बन्ध जुड़ रहे हैं, जो मैंने कल बतलाया था कि वह सम्बन्ध केवल सौदागर के समान हैं। उस सौदागर की प्रवृति से ही मैं आपको निकालने आया हूँ। केवल सौदागर की प्रवृति को छोड़ दो, आत्मीयता के सम्बन्ध को जोड़ो। गुरू से सम्बन्ध, प्रकृतिसत्ता से सम्बन्ध, केवल और केवल आत्मकल्याण के लिये होना चाहिये और आत्मकल्याण में तो सब कुछ समाहित है। जब आप अपने आत्मकल्याण की दिशा में बढ़ पड़ेंगे, आपकी आत्मा के आवरण एक के बाद एक हटते चले जायेंगे तो जिन कामनाओं की आप मांग कर रहे हैं, उन कामनाओं की पूर्ति अपने आप सहज होती चली जायेगी। एक पक्ष से आप एकपक्षीय कामना प्राप्त करते हैं, गुरू का आशीर्वाद आपको प्राप्त होता है, दूसरे पक्ष से आप बिखर जाते हैं। कल आपका क्या होगा? कैसे आपकी नींव सशक्त होगी? किस प्रकार आप एक सशक्त मानव कहला सकेंगे? सौदागर बनकर नहीं। आज एक कामना की आपने पूर्ति कर ली, कल आपका क्या होगा? इसीलिये मेरे द्वारा वह रास्ता बताया जा रहा है कि सहज मार्ग में चलो। मैं प्रलोभनों में बाँधकर आपको नहीं ले जाना चाहता। मगर उस प्रलोभन में जरूर बाँधना चाहता हूँ कि जिस प्रलोभन में यदि तुम बँध गये तो तुम्हें सत्य की प्राप्ति होगी, शक्ति की प्राप्ति होगी। अपने गुरू को प्राप्त कर सकोगे, अपनी इष्ट माता भगवती आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा को प्राप्त कर सकोगे और सौदागर बनते रहोगे तो सिर्फ विनाश का पथ प्राप्त होगा। कुछ कामनाओं की पूर्ति हो जाने से, देवी-देवताओं के जैकारे लगा लेने से आप भक्त नहीं बन जायेंगे। भक्त बनेंगे अपने अन्तःकरण को निर्मल बना लेने से।
प्रकृतिसत्ता ने इस रूप से देखने के लिये आपको यह चेतना नहीं दी थी। मानव को वह दिव्य आत्मचेतना प्रकृतिसत्ता ने इसलिये नहीं दी थी कि उसमें आप इतनें आवरण डालें। केवल क्षणिक प्रलोभनों के वशीभूत आप भगते चले जा रहे हैं कि जो वासना आपको अच्छी लगती है, जो इन्द्रियाँ आपको भोगना चाहती हैं, स्थूल शरीर जो आपको भोगना चाहता है, उसी भोगवाद में आप लिप्त होते चले जा रहे हैं। जबकि शरीर में स्थूल के अन्दर बहुत ही नजदीक सूक्ष्म शरीर समाहित है। आपमें दोनों का सन्तुलन होना चाहिये। मगर हजारों-हजारों वर्षों से समाज की विडम्बना, कि समाज इतना भटकता चला आया है कि साधना करने के बाद भी वह सूक्ष्म शरीर का एहसास नहीं कर पाता। इसलिये तो बहुत कुछ अन्तर आ चुका है, बहुत कुछ आवरण पड़ चुके हैं। समाज की सोच भटक चुकी है, समाज की दिशा भटक चुकी है। इसलिये आज आवश्यकता है कि आज फल की कामना मत करो। कर्म और कर्तव्य की कामना करो। कर्म और कर्तव्य मांगो कि हमें मानव जीवन मिला है और अगर हमें कोई सत्य का स्थान मिला है, अगर हमें सद्गुरू की प्राप्ति हुयी है तो हमारा कर्म क्या बनता है? हमें इसका ज्ञान प्राप्त हो और कर्म और कर्तव्य के पथ पर बढ़ चलो।
कल्याण उससे होगा, जब आप सत्य मार्ग पर चलोगे। निष्ठा, विश्वास और समर्पण से भरपूर हो जाओगे। रोम-रोम आपका सतोगुणी हो जायेगा। सब कुछ इस शरीर में समाहित है। केवल उधर पलटकर देखने की जरूरत है। इस चीज को तो आपने बहुत कुछ पढ़ा होगा, सुना होगा कि मृग की नाभि में कस्तूरी बसती है और वह उसे जंगल में ढ़ूंढ़ता रहता है। अरे, वह तो एक पशु है, पशु की श्रेणी में आता है। मगर आप तो अपने आपको इन्सान और मानव कहते हो। क्या आप उनसे बदतर नहीं हो? उसके पास तो केवल एक कस्तूरी है और उसे आप कह रहे हो कि भटक रहा है। अरे, आपके अन्दर तो वह कस्तूरी बैठी है जिससे हजारों-करोड़ों कस्तूरियों का निर्माण हो सकता है और फिर भी आप भटक रहे हो! फिर भी आपके अन्दर सोच पैदा नहीं हो रही है, इसलिये कि आप भौतिकतावाद के झंझावातों में अपने आपको इतना भटका चुके हो और आप ही नहीं, अनेकों धर्मगुरू, धर्माचार्य, योगाचार्य, बड़े-बड़े ब्रह्मऋषि-योगऋषि, अपने आपको कहने वाले, ये सब लिप्त पड़े हैं। लक्ष्य और पथ का भान भूल चुके हैं। लक्ष्य क्या है, यह भूल चुके है! पथ को ही लक्ष्य मान बैठे हैं। हर व्यक्ति पथ को ही लक्ष्य माने बैठा है। एक से एक आपको मिल जायेंगे ब्रह्म, जीव, ज्ञान, माया पर बड़े-बड़े प्रवचन देने वाले। गीता को कंठस्थ किये बैठे होंगे। अनेकों वेद-शास्त्रों-उपनिषदों को कंठस्थ किये बैठे होंगे और कंठस्थ करके उसी को अपना सारज्ञान मान लेते हैं कि हमने गीता को कंठस्थ कर लिया, गीता पर एक के बाद एक करके श्लोक सुनाते हुये उसका अर्थ सुनाते चले जायेंगे और अपने आपको ब्रह्मज्ञानी परमहंस कहला जायेंगे। यही हो रहा है। आपको कहीं न कहीं सोच पैदा करने की जरूरत है कि वेदों-पुराणों के, उपनिषदों के चिन्तन देने वाले आपको अनेकों मिल जायेंगे, मगर क्या वेद-पुराण और उपनिषदों की रचना, गीता की रचना केवल इसलिये की गयी है कि आप इसे रट लो, इसके रट्टू तोता बन जाओ और इसका बखान करते जाओ और अपने आपको ब्रह्मज्ञानी मान लो। क्या यही लक्ष्य है? गीता हमें उस लक्ष्य का ज्ञान कराती है, वह पथ बतलाती है। गीता हमारे लिये एक पथ है उस लक्ष्य तक पहुँचने के लिये, मगर वे पथ को ही लक्ष्य मान बैठे हैं। हर व्यक्ति चाहे जिसको देखो, सिर्फ धर्म को माध्यम बना करके केवल धन अर्जन का मूल लक्ष्य बना चुका है। सत्य का अर्जन करना ही नहीं चाहता।
मेरे द्वारा जो चुनौती रखी जाती है, वह गर्व और घमण्ड से नहीं रखी जाती। मैं एक किसान परिवार में पैदा हुआ हूँ। उत्तर प्रदेश के फतेहपुर जिले के भदवा ग्राम में मेरा जन्म हुआ है। सामान्य सा जीवन जीता हूँ, आप लोगों के बीच रहता हूँ। मगर मैं जानता हूँ कि आज वर्तमान समय में पूरा समाज दिशाभ्रमित है और जब धर्म के रक्षक दिशाभ्रमित हो जायेंगे तो समाज दिशाभ्रमित होगा ही। समाज को दिशा कौन दिखायेगा? एक के बाद एक जो उनके शिष्य तैयार होते हैं, वह भी उसी प्रकार कथावाचकों की तरह कथावाचक शिष्य ही तैयार होंगे। उन रट्टू तोतों के दो-चार और रट्टू तोता तैयार हो जायेंगे। उनको इस चीज का एहसास ही नहीं कि स्थूल और सूक्ष्म का जब तक हम सम्बन्ध नहीं जोड़ेंगे, तब तक हमारे लिये धर्म, शास्त्र, ग्रन्थ, उपनिषद, ये सब बेकार हो जायेंगे। ये हमारे लिये किसी कार्य के नहीं हैं। ये हमें कहाँ तक पहुँचाते हैं? किस बिन्दु पर शब्दों का लोप हो जाता है, इस चीज का ज्ञान ही उनको नहीं है। उतने से ही अपने आपको परिपूर्ण मान लेते हैं। धर्मग्रन्थों का अध्ययन कर लिया, अपने आप को पूर्ण मान लिये, ज्ञानी बन गये, अपने आपको यह मान लिये कि हमने प्रकृति से एकाकार कर लिया। मगर वहाँ ढ़ोंग होता है छलावा होता है। मगर आज सत्य कहने की हिम्मत किसी में नहीं है।
निश्चित ही मैंने कहा है कि जो थोड़ी भी अच्छाई करता है, उसके पास अच्छाइयाँ होती हैं। कोई साधक प्रवृति का जीवन जी रहा है। कोई साधु प्रवृति का जीवन जीवन रहा है, मैंने कहा इस प्रवृति पर विराम दे देना, पथ पर ही अपने आपमें विश्राम करने लग जाना, यह उन ज्ञानियों की सबसे बड़ी अज्ञानता है। उन बड़े-बड़े धर्माचार्यों, बड़े-बड़े योगाचार्यों की सबसे बड़ी अज्ञानता है। कोई योग के नाम पर लुटेरा बना बैठा है, कोई धर्म के नाम पर लुटेरा बना बैठा है। सिर्फ एक लक्ष्य बन गया है, धन अर्जन करो, मान-सम्मान कमाओ, इसे ही जीवन की पूर्णता मान लेते हैं। हजारों-लाखों-करोड़ों शिष्य हो गये, वही अपने जीवन की पूर्णता मान लेते हैं। एक नहीं अनेकों मठों की स्थापना हो गयी, वही उनके जीवन की पूर्णता हो गयी। आज पूरा समाज दिशाभ्रमित होता चला जा रहा है और इस दिशाभ्रमित समाज को दिशा दिलाने के लिये सिर्फ एक मार्ग है, साधक की प्रवृति समाज में पैदा करना। समाज जब साधक बनेगा, समाज के अन्दर जब भक्तिभाव जाग्रत होगा, नवधा भक्ति जाग्रत होगी तो आप अनेकों चेतनावान बनने लगेंगे। आपके बीच से भी अनेकों सूर, मीरा, राधा और तुलसी बनना शुरू हो जायेंगे, सुदामा बनना शुरू हो जायेंगे।
अनेकों जो हमारे एक से एक ऋषि-मुनि पैदा हुये हैं, जिनके पास नवीन स्वर्ग की रचना करने की सामर्थ्य थी, दिव्य अस्त्र-शस्त्रों से युक्त रहते थे। राम को राम बनाने वाले ऋषि-मुनि ही थे। कृष्ण को कृष्ण बनाने वाले भी ऋषि-मुनि थे। जितने दिव्यास्त्रों का उन्होंने जीवन में उपयोग किया, वह ऋषियों-मुनियों की धरोहर थी और ऋषियों-मुनियों के पास यह सब आता कहाँ से है? तप बल के माध्यम से। तो उस तप बल को अर्जित करने का प्रयास समाज क्यों नहीं करता। जितने कदम चलोगे, उतने कदम तुम्हारी तपस्या तुम्हारा साथ देगी। तुम भिखारियों के पलड़े से हटकर साधक के पलड़े पर खड़े हो जाओगे। तभी प्रकृति से तुम्हारा सच्चा सम्बन्ध जुड़ सकेगा। अन्यथा तुम भिखारी बन करके जाते हो, दीन-हीन बन करके जाते हो, सिर्फ अपनी कामनाओं की पूर्ति के लिये। आप आत्मकल्याण के लिये नहीं जाते हो कि आपका आत्मकल्याण किस प्रकार हो? आपके अन्दर पुत्रत्व भाव किस प्रकार पैदा हो? आपके अन्दर दासत्व भाव किस प्रकार से पैदा हो? उस भक्ति की गहराई को समझने का प्रयास करो।
सफलता के मैंने तीन आधार बताये हैं और इस पण्डाल में भी बाहर एक बैनर लगा है कि सफलता के तीन आधार-भक्ति, ज्ञान और आत्मशक्ति। भक्ति हमारी ऐसी होनी चाहिये जो हमें शक्ति से मिला दे। ज्ञान हमारा ऐसा होना चाहिये जो हमें शक्ति से मिला दे। आत्मशक्ति हमारी इस प्रकार की होनी चाहिये जो हमें शक्ति से मिला दे। तीनों का लक्ष्य शक्ति से मिलन होना चाहिये। हर मनुष्य के अन्दर वह दिव्य अलौकिक क्षमता आत्मचेतना के रूप में बैठी हुयी है। यहाँ जो नित्य साधना के क्रम बताये गये हैं, जितने समय तुम पूजन में बैठते हो, उतने समय में भी कामनायें तुम्हारे ऊपर हावी रहती हैं। मैं उन बिन्दुओं में आज सहजता से चिन्तन देना चाहूँगा कि तुम्हारे विचार सन्तुलित हो सकें। तुम्हें एक दिशा मिल सके। कई बार होता है कि तुम बड़े-बड़े स्त्रोतों का पाठ करते रहते हो, मन्त्रों का जाप करते रहते हो, किन्तु मन एकाग्र नहीं होता। इसलिये कि कामनाओं का बोझ तुम्हारे शरीर में सवार रहता है। पूजा भी इसलिये करते हो कि हमारी समस्याओं का समाधान हो जाये और एक तरफ चाहते हो कि माँ की कृपा भी मिल जाय। मैं जहाँ तक मानता हूँ कि जितने मन्त्र आप सुबह शाम बैठकर जाप भी नहीं करते, दिन भर में उतनी कामनायें आपके मन-मस्तिष्क में हावी हो जाती हैं।
आप वर्तमान का जीवन ही नहीं जी रहे हो। अतीत का बोझ तुम्हारे मन-मस्तिष्क में छाया रहता है। आपका चेहरा बता देता है पूरा भविष्य, चेहरा बता देता है वर्तमान और चेहरा बता देता है कि आपका अतीत क्या है? सब कुछ पढ़ने की क्षमता होती है। मानव का चेहरा, मानव का कोई एक अंग भी अगर देख लिया जाय, एक अंगूठे का केवल नाखून देख लिया जाय तो पूरा भूत, भविष्य और वर्तमान बताया जा सकता है। अंगूठे के नाखून को छोड़ दो, केवल अंगूठे की गाँठ को देख लिया जाय तो पूरा भविष्य बताया जा सकता है। पैर के नीचे घुटने को देख लिया जाय तो उससे उसका पूरा भविष्य बताया जा सकता है। रोम-रोम चीख-चीख करके कहता है कि आपका भूत, भविष्य, वर्तमान आपके अन्दर समाहित है और शरीर से उभर करके उसी तरह स्थूल में अंकित होता रहता है। उसको आप अच्छा भी बना सकते हो, बुरा भी बना सकते हो। इस चीज की घटनाओं के मैंने एक नहीं, सैकड़ों प्रमाण भविष्य में दिये हैं कि मेरे जीवन का कोई भी ऐसा काल, कोई भी ऐसा पल नहीं, जो छिपा हुआ हो। किसी का भूत, भविष्य, वर्तमान बता देना मेरे लिये कोई कठिन काम नहीं है। एक नहीं, सैकड़ों प्रमाण समाज के बीच दिये गये हैं। कब किसकी मृत्यु होगी, कब किसकी किस प्रकार की स्थिति होगी, कब किसके साथ दुर्घटना होगी? यह सब दिन तारीख सहित अनेकों घटनायें प्रमाण के रूप में समाज में दी गयी हैं। बार-बार हर शिविर में वह चिन्तन मैं देना नहीं चाहता। उसमें अपना समय बर्बाद नहीं करना चाहता।
मैं उन प्रलोभनों से आपको जोड़ना नहीं चाहता हूँ। चूँकि जिस तरह के प्रलोभन मैं दूँगा, तो उसी तरह की विचारधारा आपकी बनेगी कि हमारे लिये ऐसा कार्य कर दिया जाय। इस तरह के इस शरीर ने आश्रम में आने के पहले हर तरह के कार्य समाज के बीच किये हैं। एहसास कराया गया है कि एक स्थान में बैठ करके दूसरे देशों तक की जानकारी दी गयी है कि कहाँ पर क्या हो रहा है? घातक से घातक बीमारियों को केवल हाथ के स्पर्श से दूर किया गया है। मेरा यह लक्ष्य नहीं। मैं बीमारों को इकट्ठा नहीं करना चाहता। तुम्हारी जो सबसे बड़ी बीमारी है, उस बीमारी को दूर करने आया हूँ, जिसको तुम समझ नहीं पा रहे हो। बीमारियों की जो मूल बीमारी है कि आत्मचेतना में पड़ा हुआ आवरण हट जाय तो बीमारियाँ अपने आप हटती चली जाती हैं। एक व्यक्ति अगर कीचड़ में गिर जाय, गढ्ढे में गिर जाय, पूरे उसके कपड़े खराब हो जायें और कोई बाहर खड़ा व्यक्ति यह कहे कि तुम्हारे कपड़े कीचड़युक्त हो गये हैं, ये नये कपड़े मैं तुम्हें दे रहा हूँ, कपड़े बदल लो तो सबसे पहले वह यही कहेगा कि क्या मूर्ख हो? अरे, पहले मुझे कीचड़ से बाहर निकालो। यहाँ मैं इन कपड़ों को बदलूँगा तो यह भी कीचड़ में खराब हो जायेंगे। चूँकि इतना ज्ञान तुम्हारे पास है। स्थूल जगत का ज्ञान है। इतना समझ लोगे और उन कपड़ों को न लोगे। सबसे पहले कहोगे कि मुझे बाहर निकालो, पहले मुझे नहलाओ-धुलाओ, तब मैं कपड़ों को बदलूँगा। वही स्थिति जब आपका गुरू, एक चेतनावान साधक देखता है कि आप किस कीचड़ में पड़े हुये हो तथा इस कीचड़ में आशीर्वाद की झड़ी लगाने से आपका कल्याण नहीं होगा। आप गन्दे हो और यदि मेरा आशीर्वाद प्राप्त हो जायेगा तो उसको भी उसी गन्दगी से ओत-प्रोत कर दोगे। आवश्यकता है उस गन्दगी से पहले आपको बाहर निकाला जाय। आपकी सोच बदली जाय, आपके विचार बदले जायें, आपके चिन्तन बदले जायें। आपके रिश्तों का जो दायरा है, उसको बदला जाय और उसी के लिये भगवती मानव कल्याण संगठन का गठन किया गया है।
भगवती मानव कल्याण संगठन में मेरे प्राण बसते हैं, चूँकि हर शब्द के पीछे एक विचारधारा होती है। मैं वह कार्य कर रहा हूँ जो इस भूतल में आज के पहले किसी ने नहीं किया। आपने यह तो सुना है कि राम ने वानरों की सेना ले करके रावण का अस्तित्व समाप्त कर दिया, मगर किसी ऋषि-मुनि ने अपनी चेतना तरंगों को समाज में अनेकों-अनेकों में बाँट करके साधक कभी पैदा नहीं किये। कुछ ने दो-चार-दस शिष्य तैयार कर दिये होंगे, मगर आज आपके गुरू के द्वारा उसी लक्ष्य को ठाना गया है जिसको आप समझें कि मैं यहाँ एकान्त में क्यों रहता हूँ? क्यों वर्ष में एक या दो बार से ज्यादा समाज के बीच जाना पसन्द नहीं करता। चूँकि मेरे कार्य शक्तिपात के माध्यम से होते हैं, चेतना तरंगों के माध्यम से होते हैं। स्थूल की अपेक्षा सूक्ष्म जगत के माध्यम से होते हैं और भगवती मानव कल्याण संगठन के साथ जो मैंने जुड़ने के लिये कहा है कि साधक बन करके, भगवती मानव कल्याण संगठन के कार्यकर्ता बन करके आगे बढ़ें, तो मैं अपनी चेतना तरंगों की ऊर्जा जन-जन में समाहित करने के उद्देश्य से ही उन कार्यकर्ताओं के अन्दर उस चेतना को समाहित कर रहा हूँ। अपने इस शरीर के रहते-रहते अपनी चेतना को करोड़ों-अरबों में बाँट देना चाहता हूँ। वह चेतना, जो सीधे-सीधे तुम्हारी आत्मा में प्रभाव डालती है, वो चेतना तरंगें जो सीधे-सीधे तुम्हारी आत्मा में पड़े हुये आवरणों को हटाती हें। आज समाज में इसीलिये छोटे-छोटे बच्चों में भक्ति-भाव जाग्रत हो रहा है। वही प्रवृति पुनः जाग्रत होगी कि फिर भक्त, साधक तैयार होंगे, फिर मीरा का युग आयेगा, फिर राधा का युग आयेगा, फिर सूर पैदा होंगे, फिर तुलसी पैदा होंगे और तभी आयेगा समाज में परिवर्तन।
तुम मानव हो, केवल एक विचारधारा को स्वीकार कर लो कि आपका गुरू अपने जीवन का एक-एक पल समाज को न्यौछावर कर रहा है। अपने शरीर को समाज में तपा-तपा करके अपने अस्तित्व को, स्थूल रूपी अस्तित्व को मिटा रहा है और तुम्हारे अस्तित्व को जाग्रत कर रहा है। तुम्हें सच्चा मानव कहलाने का अधिकारी बना रहा है। यदि तुम उस विचारधारा को समझ सकोगे तो तुम समझ सकोगे कि भगवती मानव कल्याण संगठन क्या है? भगवती मानव कल्याण संगठन की यह विचारधारा माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा की है। यह संगठन मेरे नाम से नहीं है। भगवती मानव कल्याण संगठन का नाम ही माँ के नाम से है। एक निर्धारित समय के बाद तुम अपने आपको गौरवान्वित महसूस करोगे कि हम भगवती मानव कल्याण संगठन के एक कार्यकर्ता हैं, भगवती मानव कल्याण संगठन के एक सदस्य हैं। घर-घर में ज्योति जलाने का एकमात्र रास्ता है कि जब तक माँमय वातावरण पैदा नहीं किया जायेगा, जब तक शक्तिमय वातावरण पैदा नहीं किया जा सकेगा, तब तक समाज में परिवर्तन नहीं आ सकता और उस परिवर्तन के लिये ही जन-जन में चेतना फैलाने के कार्य में आज समाज को लगाया गया है।

परम पूज्य सद्गुरुदेव जी महाराज के चिन्तन श्रवण करते हुए भक्तगण

श्री दुर्गा चालीसा का जो अखण्ड पाठ यहाँ सिद्धाश्रम में चल रहा है, वह प्रारम्भ से इसीलिये आश्रम में यहाँ प्रवेश करते ही मेरे द्वारा तत्काल श्री दुर्गा चालीसा का पाठ प्रारम्भ करा दिया गया था। प्रारम्भ में पहले छप्पर में पाठ प्रारम्भ कराया गया, फिर अस्थाई भवन का निर्माण कराया गया और शीघ्र ही, माँ की कृपा से स्थाई भवन का भी निर्माण हो जायेगा। चूँकि वह भवन जिसके अन्तर्गत आज चौदह-पन्द्रह वर्षों के अन्तराल में समाज में एक विचारधारा पैदा की गयी, एक चेतना फैलाई गयी है। उस श्री दुर्गा चालीसा पाठ के माध्यम से जन-जन में एक जो विचारधारा, छोटे-छोटे बच्चों में एक जो परिवर्तन आता चला जा रहा है, उसको हम आप सभी लोग देख रहे हैं। वह एक अस्थाई भवन से चल रहीे जो एक ऊर्जा है, उसका प्रभाव समाज में देखा जा सकता है और स्थाई भवन निर्मित होने के बाद वह विशेष ऊर्जा और कई गुना ज्यादा चेतना तरंगों के माध्यम से समाज में फैलेगी, तो उसका एहसास समाज को स्वतः होता चला जायेगा।
आपका गुरू जो चिन्तन और स्मरण की बात कह रहा था कि श्रवण करने की शक्ति पैदा करो। कल जो आपको चिन्तन दिया गया- श्रवण, कीर्तन और स्मरण। नवधा भक्ति का पूरा भाव श्री दुर्गा चालीसा पाठ के साथ समाहित हो जाता है। यही जो आप सच्चे मन से श्री दुर्गा चालीसा का पाठ करते हैं तो उस पर यदि आप एक-एक पंक्ति पर ध्यान देंगे तो उसमें नवधा भक्ति पूरी तरह समाहित है। केवल आवश्यकता होती है कि उस विचारधारा को, सत्य की विचारधारा को सतत आकर समझें और सत्यता की विचारधारा सतत अपनाकर चलें। आपका गुरू आपको एक साधक बनाने आया है, एक विचारधारा देने आया है कि तुम सिर्फ प्रलोभनों में अपने आपको मत जकड़ो। पूरा समाज भटक रहा है और उस भटकाव में यदि तुम उसी तरह चलते चले गये तो तुम्हारा पतन सुनिश्चित है। उम्र घटती चली जा रही है, शरीर की स्थितियाँ घटती चली जा रही हैं, समस्याओं के ऊपर समस्यायें बढ़ती चली जा रही हैं। आज आपके सामने इतनी समस्यायें हैं तो कल आपके बच्चों का क्या होगा? तो कम से कम अपने लिये नहीं, तो अपनी आगे आने वाली पीढ़ी के लिये अपने घर को साधनामय बनाओ। अपने घर को साधनामय वातावरण से परिपूर्ण करो। माँ का ध्वज घर में लगाओ। बच्चों को आरती-पूजन के लिये प्रेरित करो। दस-पाँच मिनट उन्हें अपने पास बिठाओ। यदि इस विचारधारा को आप लोग अपना कर चलोगे, तो घर में एक साधक प्रवृति पैदा होती चली जायेगी, एक सुधार आता चला जायेगा। अन्यथा तुम भी उसी तरह, कि जिस तरह आज साधू-सन्त-सन्यासी भटक रहे हैं, उसी तरह तुम्हारी विचारधारा भटकती चली जाएगी, चूँकि तुम उन्हीं के पीछे तो लगे रहते हो।
ज्ञान भी प्राप्त करना चाहते हो, शिष्य भी बनना चाहते हो, तो जिस व्यक्ति से जिस तरह के शिष्य बनोगे, उसी तरह की विचारधारा, उसी तरह की प्रवृत्ति तुम्हारे अन्दर जाग्रत होगी। चूँकि बार-बार मेरे द्वारा इंगित किया जा रहा है कि आज के धर्माचार्य पूरी तरह दिशाभ्रमित हें। उन्होंने पथ को ही अपना लक्ष्य मान लिया है और अगर भ्रमित नहीं हैं तो हर मंच से मेरे द्वारा चुनौती शब्द इसीलिये रखा जाता है कि गर्व और घमण्ड से नहीं, सत्य की रक्षा के लिये, धर्म की स्थापना के लिये कि कम से कम एक आयोजन समाज में जरूर होना चाहिये, जहाँ एहसास किया जा सके कि क्या किसी ने अपने सूक्ष्म शरीर को जाग्रत किया है और जिसने अपने सूक्ष्म शरीर को जाग्रत नहीं किया होगा, वह दृश्य से परे अदृश्य शक्तियों से सम्बन्ध स्थापित कर ही नहीं सकता और सूक्ष्म को जाग्रत किया है या नहीं किया, उसके लिये आज वैज्ञानिक मशीनें बनी हुयी हैं। किसी के बोलने के जो ढ़ंग हैं, वह झूठ बोल रहा है या सत्य बोल रहा है, इसका परीक्षण किया जा सकता है। किसी के मस्तिस्क का परीक्षण किया जा सकता है। इन परीक्षणों से स्पष्ट हो सकता है।
समाज के बीच दो प्रकार के कार्य ला करके रखे जा सकते हैं। देश के जितने धर्माचार्य हैं, जितने धर्मप्रमुख हैं, जितने योगाचार्य हैं, सब एक पलड़े पर खड़े हो जायें और आपका गुरू भी एक पलड़े पर खड़ा हो सकता है। एक प्रकार के दो कार्य ला करके रख दिये जायें। मेरे जीवन में असम्भव शब्द नहीं है। हर प्रकार के कार्य समाज के बीच किये गये हैं। उसी ऊर्जा को आज जन-जन में बाँटने का कार्य किया जा रहा है कि आपके अन्दर एक सहज विचारधारा पैदा हो। आप शिष्यत्व की गहराई में डूब सकें। आप साधक बनें, रट्टू तोता न बनें। केवल बड़े-बड़े स्त्रोतों का पाठ करने वाले न बन जायें कि हम श्री दुर्गा सप्तसती का पाठ एक घण्टे-दो घण्टे नित्य करते हैं। कुछ हाथ नहीं लगेगा, कुछ हासिल नहीं होगा। बड़े-बड़े स्त्रोतों का पाठ करते रहो, जब तक आपके अन्दर भक्ति की गहराई नहीं आयेगी, जब तक नवधा भक्ति में आप डूबेंगे नहीं, तब तक उसकी ऊर्जा का लाभ आप प्राप्त कर ही नहीं सकोगे। जब तक आप अपने अन्तःकरण को निर्मल नहीं बनाओगे, आप लाभ प्राप्त नहीं कर सकोगे। दिन भर आप अनीति-अन्याय- अधर्म, भ्रष्टाचार करोगे और एक घण्टे पूजा करके चाहोगे कि प्रकृति हम पर प्रसन्न हो जाये, तो असम्भव है। इसलिये आपको अपने अन्तःकरण को धीरे-धीरे करके निर्मल बनाना है।
अपने विचारों में धीरे-धीरे करके सुधार करें। मैं नहीं कहता कि एक मिनट के अन्दर सुधार हो जाएगा, चूँकि असाढ़-सावन की उफान मारती हुयी नदी में एक मिनट के अन्दर बाँध नहीं लगाया जा सकता। मगर प्रयास किया जाय तो बड़ी-बड़ी नदियों में बाँध लगा दिये जाते हैं। नित्य शोधन करो अपने शरीर का। नित्य विचार करो कि तुम्हें मानव जीवन मिला हुआ है। अलौकिक चेतना तुम्हारे शरीर के अन्दर बैठी हुयी है। उस आत्मचेतना में अलौकिक क्षमतायें हैं, धीरे-धीरे उसकी गहराई में डूबने का प्रयास करो, उसे निखारने का प्रयास करो। भौतिक जगत की चीजों पर जितना ध्यान दो, उतना ही अन्तःकरण के आत्मग्रन्थ का भी अध्ययन करो। आत्मग्रन्थ में सभी ग्रन्थ समाहित हैं और इन बड़े-बड़े धर्माचार्यों-योगाचार्यों से पूछें कि आपने जो बड़े-बड़े गीता, पुराणों और उपनिषदों को जो कंठस्थ कर रखा है, यह सब आपको कहाँ तक पहुचायेंगे? इनकी सीमायें कहाँ तक हैं? जिस तरह आप किसी बड़ी से बड़ी गाड़ी में सवार हो जायें और नदी में अगर कोई पुल न बना हो तो नदी तक जाकर वो रुक जायेगी। इसी तरह ये शब्द, ये स्त्रोत, ये मन्त्र, ये भाषा, जो कुछ भी भौतिक जगत में है, वे सिर्फ हमें समाधि तक पहुँचा सकते हैं, शून्य स्थान तक पहुँचा सकते हैं। संयोग करा सकते हैं स्थूल और सूक्ष्म जगत का और ज्यों ही हम समाधि की शून्यता की गहराई में न्यूट्रल अवस्था को प्राप्त करते हैं, न्यूट्रल अवस्था आते ही यह पक्ष विराम हो जाता है। दूसरा पक्ष प्रारम्भ हो जाता है, जिस पक्ष का ज्ञान समाज को है ही नहीं।
आप साधना की गहराई में डूबने का प्रयास करें। आप प्रमुखता से प्रयास करें और धीरे-धीरे ध्यान की गहराई में देखें कि जब आप ध्यान की गहराई में डूबते हैं तो आपके शब्द रुकने लगते हैं। चूँकि ये शब्द सूक्ष्म को प्रभावित नहीं कर सकते, न ही सूक्ष्म को चैतन्य बना सकते हैं। ज्यों ही आप सूक्ष्म शरीर में आये, आपके स्थूल का भान कटाप हुआ तो भौतिक जगत की ये सभी चीजें यहीं कटाप हो जाती हैं। वहाँ की एक नवीन भाषा है, नवीन चिन्तन है, नवीन विचारधारा है, नवीन चेतना तरंगें, जहां सब कुछ चेतना तरंगों के माध्यम से होता है और यदि आपने वह संयोग प्राप्त कर लिया, यदि आप गहराई में डूबने लग गये तो आपकी समस्याओं का समाधान अपने आप होने लगेगा, आपकी कामनाओं का समाधान अपने आप होने लगेगा। पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम की स्थापना इसीलिये की गई है कि यहाँ पर भविष्य में साधक तैयार हो सकें, योगी तैयार हो सकें, वैराग्य भाव पैदा हो सके। एक सौदागर बनकर लोग मुझसे सम्बन्ध न स्थापित कर सकें। सौदागर बन करके माता से सम्बन्ध न स्थापित करें, बल्कि एक पुत्र बन करके सम्बन्ध स्थापित करें। माँ के दास बन करके सम्बन्ध स्थापित करें। उन सम्बन्धों की ओर ही मैं आपको बढ़ा रहा हूँ और उसके लिये आपको संगठन की विचारधारा को पकड़ना ही होगा, जिस संगठन के लिए मैंने कहा है कि संगठन में मेरे प्राण बसते हैं।
संगठन के माध्यम से, संगठन में जुड़ने वाले सदस्यों को अपनी चेतना तरंगों के माध्यम से मैं चैतन्य बना रहा हूँ। इसलिये आज अनेकों ऐसे साधक शिष्य तैयार हो रहे हैं जो समाज को दिशा दे सकते हैं, चिन्तन दे सकते हैं। जो अपने आप में भी सुधार करते हैं, उनकी विचारशक्ति जाग्रत हो रही है। वे अपने जीवन में परिवर्तन ला रहे हैं, अपने घरों में परिवर्तन ला रहे हैं। आपके आचार-विचार-व्यवहार में सहज परिवर्तन आता चला जा रहा है, मगर उसमें और तीक्ष्णता लाने की जरूरत है। चूँकि समय कभी किसी का इन्तजार नहीं करता और जब तक आप अपने अन्दर तीक्ष्णता नहीं लायेंगे, अपने अन्दर तीव्रता नहीं लायेंगे, समय के महत्व को नहीं समझेंगे, तब तक आप कभी भी उस सत्य को हासिल नहीं कर सकेंगे, जिस सत्य को आप इस जीवन में हासिल कर सकते हैं। अन्यथा आपके अन्दर भटकाव आता चला जायेगा। दो कदम आप आगे चलेंगे और दो कदम फिर पीछे चले जायेंगे।
समाज आपका सहारा नहीं बन सकता। सहारा अपने आप को ही बनाओ, सहारा अपनी आत्मा को बनाओ। वह ज्ञान अर्जित करो, जिस ज्ञान को अर्जित करके आपकी वह नीव इतनी सशक्त हो सके कि एक नहीं, अनेकों जन्मों तब आपको किसी सहारे की जरूरत ही न पडे़। आपको हर जन्म में नवीन जीवन प्राप्त हो, तो प्रकृति का सहारा सहज प्राप्त हो जाये। आपको सहज सतमार्ग प्राप्त हो जाये। इस मार्ग को प्राप्त किया जा सकता है, परन्तु उसके लिये कुछ न कुछ त्याग करना पड़ेगा, कुछ न कुछ तपस्यात्मक जीवन जीना पड़ेगा। कुछ न कुछ अपने प्रलोभनों से अपने आपको हटाना पड़ेगा। अन्यथा जिस तरह समाज भटक रहा है, उसी तरह आप भी भटकते चले जाओगे।
भगवती मानव कल्याण संगठन की विचारधारा को आत्मसात करो। पूर्ण नशामुक्त जीवन जियो, पूर्ण मांसाहारमुक्त जीवन जियो। आत्मकल्याण करो और जनकल्याण की भावना से अपने आपको ओत-प्रोत करो। अपनी क्षमतायें अपने लिये उतनी ही बढ़ाओ, जितनी आपके लिये नितान्त आवश्यक हैं। अन्यथा अपनी जितनी क्षमतायें हैं, समाज में बाँट दो। समाज के सहारे बनो। जो समाज दिशाभ्रमित हो रहा है, उसे सही दिशा देने का प्रयास करो और वास्तव में यदि तुम मेरे शिष्य हो तो मैंने कहा है कि मैं शेरदिल इन्सानों को अपना शिष्य बनाना पसन्द करता हूँ। शारीरिक रूप से नपुंसक होना कोई बड़ी बात नहीं हैं, किन्तु बड़ी बात तो मानसिक नपुंसक होना है और आज समाज में नपुंसकता इतनी भर गई है कि जिसकी कोई कल्पना नहीं है। सभी भयग्रस्त हैं। मानसिक नपुंसकता शरीर में सवार हो चुकी है। सत्य के साथ सत्य की आवाज नहीं मिला सकते। सत्य कहने की सामर्थ्य नहीं है। राजनेता हों, धर्माचार्य हों, समाज के अन्दर चाहे जितनी सामर्थ्य भरी हो, सबके अन्दर कहीं न कहीं मानसिक नपुंसकता आ गई है। बोलने की क्षमता समाप्त होती चली जा रही है कि वे सत्य को सत्य कह सकें। जहाँ गलत है, वहाँ गलत कहने की सामर्थ्य अपने अन्दर पैदा करो और जब तक यह सामर्थ्य अपने अन्दर पैदा नहीं कर सकोगे, तब तक इसी तरह की विषमतायें तुम्हें चारों तरफ से घेरती चली जायेंगी। अनीति-अन्याय- अधर्म इसी तरह फलता फूलता चला जायेगा।
समाज के सभी लोग कहते हें कि भ्रष्टाचार कहाँ से दूर होगा? जब तक आपके अन्दर एक विचारधारा जाग्रत नहीं होगी, जब तक राजनेता नहीं सुधरेंगे, तब तक भ्रष्टाचार समाप्त हो ही नहीं सकता। एक अधिकारी अगर भ्रष्टाचार न करे तो राजनेता उससे बात नहीं करते हैं। सभी थाने बिकते हैं। ऐसा कौन सा थाना है जहाँ भ्रष्टाचार न हो। हर महीने के महीने पैसा पहुँचाना पड़ता है। अधिकारी को जाता है, अधिकारी नेताओं को पहुँचाते हैं। किसी भी अधिकारी का ट्रान्सफर बिना पैसा लिये होता ही नहीं। कहीं अच्छी जगह भेजना है तो पैसा लगेगा। ये राजनेता, जब खुद उनको अपना वेतन बढ़ाना हो तो कुछ करने की जरूरत नहीं है, कई-कई गुना ज्यादा वेतन बढ़ाते चले जाते हैं। मगर एक कर्मचारी जो सात-सात, आठ-आठ घण्टे, बारह-बारह घण्टे मेहनत परिश्रम करता है, वह अगर दो-पाँच प्रतिशत बढ़ाने की माँग करता है तो लाठीचार्ज की जाती है। उन अधर्मी-अन्यायी नेताओं को कौन जवाब देगा? धर्म का तात्पर्य एकपक्षीय नहीं होता।
धर्म का तात्पर्य केवल पूजा-पाठ करना ही नहीं होता। धर्म का तात्पर्य केवल हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाते रहना ही नहीं होता। तुम एक ऋषि के शिष्य हो, तुम अपने अन्दर ऋषित्व भाव पैदा करो, अपने अन्दर साधक की प्रवृत्ति पैदा करो। जब तक तुम अपना बहुमुखी विकास नहीं करोगे, तब तक समाज में सुधार आ ही नहीं सकता। उन राजनेताओं को सचेत करो कि अपनी दिशा और दशा को बदलो। अगर दिशा-दशा को नहीं बदलोगे तो भगवती मानव कल्याण संगठन में एक न एक दिन सामर्थ्य आयेगी जरूर, कि तुम्हारी दिशा और दशा दोनों को बदल करके रख देगा।
देश में आतंकवादी साम्राज्य स्थापित करते चले जा रहे हैं और देश के गृहमन्त्री जैसे फैशन परेड में चल रहे हें। बढ़िया से बढ़िया क्रीज वाले कपड़े पहन करके चलते हैं। आज तक इतना असमर्थ गृहमन्त्री तो देखने को नहीं मिला। उससे ज्यादा तो गृहराज्यमन्त्री कहीं न कहीं, देखने में ज्यादा सामर्थ्यवान नजर आते हैं। देश की राजसत्ताओं का पतन क्यों हुआ, क्योंकि लोग उसी सत्ता के मद में चूर हो जाते थे। उन्हें जो पद मिलता था, उस पद का कर्तव्य क्या है, भूल जाते थे?
मैंने कहा है कि आप लोगों को फल की कामना नहीं, कर्म और कर्तव्य का ज्ञान प्राप्त करना है। सबसे पहले राजनेताओं को अपना कर्म और कर्तव्य, धर्माचार्यों को अपना कर्म और कर्तव्य का ज्ञान प्राप्त करना चाहिये कि उनका धर्म और कर्तव्य क्या बनता है? आज तुम किसी भी धर्म के धर्माचार्य हो तो तुम्हारा धर्म और कर्तव्य बनता है कि समाज के अन्तःकरण को पवित्र और निर्मल बनाओ। सत्य बोलने की क्षमता हासिल करो, उन नेताओं के चाटुकार न बन जाओ। मगर आज वही होता है कि अधर्मी से अधर्मी, अन्यायी से अन्यायी राजनेताओं को मंच के बगल में बिठाया जाता है। अनेकों योगाचार्यों को देखो कि अगर उन्हें कोई पैसा दे दे तो दानदाता के माताजी, पिताजी, उनके पूज्य पिताजी, पूज्य माताजी बन जायेंगी। धन में सब कुछ बिक रहा है। पहले तो सुना जाता था कि वेश्यायें पैसों में अपना तन बेचती हैं, मगर आज के बड़े-बड़े धर्माचार्य -योगाचार्य अपना सर्वस्व बेच रहे हैं। कौन दिशा देगा इन्हें? इन्हें दिशा देगा समाज। जिस समाज को छल रहे हैं, जिस समाज को ठग रहे हैं, जिस समाज को लूट रहे हैं। उन्हें सिर्फ समाज सुधार सकता है और समाज तभी सुधार पायेगा, जब समाज के अन्दर आत्मबल जाग्रत होगा, लाभ-हानि से परे जीवन जीने की प्रवृत्ति जाग्रत होगी।
आज अगर आपको कोई पद मिला हुआ है तो आपकी जिम्मेदारी बनती है कि आप उस पद का निर्वहन करें। यदि तुम किसी क्षेत्र के विधायक हो तो विधायक होने के नाते तुम्हारा कर्तव्य क्या बनता है? आप किसी क्षेत्र के सांसद हैं तो सांसद होने के नाते तुम्हारा कर्तव्य क्या बनता है? आप किसी विभाग के मन्त्री हैं तो मन्त्री होने के नाते तुम्हारा कर्तव्य क्या बनता है? आप देश के प्रधानमन्त्री हैं, राष्ट्रपति हैं तो आपका कर्तव्य क्या बनता है? पूर्व जीवन के योगों और संस्कारों से मनुष्य को पद प्राप्त होता है, मगर उन पदों में जाने के बाद अपने कर्म और कर्तव्यों को पूरी तरह से भुला बैठता है। केवल मान-सम्मान और धन अर्जन एकमात्र लक्ष्य बन करके रह गया है, चाहे धर्माचार्य हों या राजनेता हों, और जब तक दोनों पक्षों में सुधार नहीं होगा, तब तक समाज में सुधार आ ही नहीं सकता।
सब भटक रहे हैं। बेइमानी के ऊपर बेइमानी कर रहे हैं, फिर भी ईमानदारी का पाठ पढ़ा रहे हैं कि भ्रष्टाचार मिटाया जायेगा, गरीबी मिटायी जायेगी। करोड़ों-करोड़ों, अरबों-अरबों पड़ा हुआ है, पैसे की कमी नहीं है। कमी है तो एक विचारशक्ति की कमी है। गरीब पिसता चला जा रहा है। गरीब, गरीब होता चला जा रहा है और अमीर, अमीर बनता चला जा रहा है, किन्तु कोई दुखी नहीं है। मैं यह बात इसलिये कह रहा हूँ कि अभी कुछ समय पहले की घटनायें हैं कि क्या कभी गृहमन्त्री को व्यथित देखा है! अभी जब गोधरा में बम ब्लास्ट हुये और अनेकों लोग मारे गए तो क्या कभी आपने गृहमंत्री की आँखों में आँसू देखा? मगर यदि उनका बेटा मारा जाय, उनकी बेटी मारी जाय या उनकी पत्नी मारी जाय, उनके बच्चे जलाये जायें तो चीख-चीख कर रोयेंगे। अगर देश का एक व्यक्ति मरता है और राष्ट्रपति की आखों में आँसू नहीं छलकते तो कैसा राष्ट्रपति, कैसा प्रधानमन्त्री और कैसा गृहमन्त्री? इसलिये कि देश के रक्षक बनकर भी देश की रक्षा करने की विचारशक्ति अन्दर से पैदा नहीं होती कि सौभाग्य से हमें वह पद मिला है तो हमारा धर्म और कर्तव्य क्या बनता है? सौभाग्य से अगर हम धर्मगुरू बने हुये हैं तो धर्मगुरू का धर्म और कर्तव्य क्या बनता है? इस बिन्दु पर समाज को सोचना पड़ेगा।
अनीति-अन्याय-अधर्म बढ़ता चला जा रहा है। समाज में असुरत्व छाता चला जा रहा है। करोड़ों-करोड़ों रुपये एक-एक चुनाव में फूँक दिये जाते हैं, फिर भी जाँच एजेंसियाँ कहती हें कि सब कुछ ईमानदारी से चल रहा है। किसी के ऊपर बड़ी से बड़ी आपदा आ जाय, कहीं तबाही मच जाय तो मैं कहता हूँ कि वहाँ कोई पैसा खर्च करने की जरूरत नहीं है, केवल छः महीने बाद की तारीख देकर वहाँ चुनाव घोषित कर दिया जाय और नेताओं को स्वतन्त्र कर दिया जाय कि आपके पैसे की जाँच नहीं की जायेगी, आप अपने-अपने क्षेत्र में सहयोग करो, तो जिले में जिसका घर कच्चा बना होगा, उसका घर पक्का बन जायेगा। कोई राहत सामग्री पहुँचाने की जरूरत नहीं है, नेताओं के पास बड़ी क्षमता है चूँकि देश के अन्दर क्षमतायें भरी पड़ी हैं मगर वह सब तिजोरियों में कैद हैं। वह सिर्फ प्रलोभनों के लिये निकलती हैं, सत्य के लिये नहीं निकलतीं, सत्य की विचारधारा के लिये नहीं निकलती।
अनेकों राजनेताओं को देखो। एक से एक जो क्षेत्र के सबसे बड़े अधर्मी होंगे, अन्यायी होंगे, शराब पीते होंगे, अय्याशी के अड्डे चलाते होंगे, जिनके लड़के एक-एक रात में दस-दस, पन्द्रह-पन्द्रह लाख फूँक देते होंगे, रास-रंग में मस्त रहते हैं, उनकी पीठ थपथपाई जाती है। उनका माल्यार्पण किया जाता है, उनसे अपने ऊपर माल्यार्पण कराया जाता है। क्या मेरे शिष्य नहीं हैं? क्या मुझसे राजनेता नहीं जुड़े? क्या मुझसे अधिकारी नहीं जुड़े? क्या मुझसे न्यायपालिका के लोग नहीं जुड़े? क्या मुझसे समाजसेवक नहीं जुड़े? मगर क्या आपने देखा कि कभी मैंने अपना माल्यार्पण कराया हो? अगर शिष्य भी चाहते हैं तो मेरे चरण-पूजन का सौभाग्य नहीं प्राप्त कर पाते हैं। मंच में भी जो चरण-पूजन के मौके देता हूँ, वह भी अपनी तीनों जो बच्चियाँ हैं उनको देता हूँ कि समाज के लोगों में कहीं ऐसा न लगे कि मैं किसी को मौका दे दूँगा तो यही कहेंगे कि हो सकता है उसने गुरूजी को लाख-दो लाख रुपये दे दिये होंगे। मेरे लिये सभी एक समान हैं और सभी के लिये एक समान रूप से कार्य करता हूँ। किसी से द्वेष नहीं, किसी से राग नहीं। मगर अनीति-अन्याय किसी के अन्दर है तो उससे राग-द्वेष बराबर है। चूँकि मैं जानता हूँ कि जब तक धर्माचार्य और राजनेता नहीं सुधरेंगे, तब तक सुधार नहीं किया जा सकता।
एक विचारधारा पैदा करनी पड़ेगी, एक सोच पैदा करनी पड़ेगी। करोड़ों-करोड़ों, अरबों-अरबों रुपये इकट्ठे करते चले जा रहे हैं और कहते हैं कि बस हम दो वस्त्र पहनते हैं, दो गज जमीन चाहिये। दुनिया का वैभव इकट्ठा करते चले जा रहे हो, पूरे समाज को लूटते चले जा रहे हो। यह सब किसलिये है? हर राजनेता की पार्टी अटेण्ड करते हो, सोफासेट में बैठते हो, उनके साथ रास-रंग की बातें करते हो, मनोरंजन की बातें करते हो। तुम्हारे बगल में अगर कोई मन्त्री आ करके बैठ जाता है तो तुम्हारा चेहरा खिल जाता है, प्रसन्न हो जाते हो। वहीं पर कोई मुझसे पूछे कि यदि यही लोग मेरे आस-पास कहीं आकर बैठ जाते हैं तो मेरी चेतना तरंगें दबने लगती हैं। मेरे लिये बोझ नजर आते हैं। मैं जानता हूँ कि आज राजनेता पथभ्रष्ट हो चुके हैं, भटक चुके हैं। धर्माचार्य भटक चुके हैं, इसीलिये आज तक न मैं धर्माचार्यों के मंच पर बैठता हूँ, न उनको अपने मंच पर बैठने का अधिकार देता हूँ। एक बार सोच पैदा करनी पड़ेगी, एक बार संघर्ष आपको झेलना ही पडे़गा, एक बार मान-अपमान आपको सहना ही पड़ेगा, एक बार वह सोच आपको अपने अन्दर पैदा करनी ही पड़ेगी।
भगवती मानव कल्याण संगठन का गठन मैंने इसीलिये किया है कि भगवती मानव कल्याण संगठन के साथ जुड़ो, एक संगठित विचारधारा बनाओ, संगठन की आवाज के साथ अपनी आवाज मिलाओ और फिर देखो आपके क्षेत्र में परिवर्तन आता है कि नहीं। वह विचारशक्ति पैदा करनी पड़ेगी, वह सोच पैदा करनी पड़ेगी। मैंने ग्यारह वर्षों से यहाँ एकान्त साधना के माध्यम से यहाँ के वातावरण को चैतन्य करने का प्रयास किया है। अभी यहाँ प्रथम चरण है। मैंने यहाँ स्थाई तौर पर कहीं एक भी मन्दिर का निर्माण नहीं किया। इस स्थान पर भयावह वातावरण था, यह अन्धियारी क्षेत्र कहलाता था, प्रभावित वातावरण कहलाता था। आज चेतना तरंगों से परिपूर्ण वातावरण है। लोग आते हैं, यहाँ से लाभन्वित होते हैं। कोई भी व्यक्ति यहाँ से खाली हाथ नहीं जाता। हर एक को कुछ न कुछ प्राप्त अवश्य होता है। मगर एक सोच पैदा करने की, एक विचारशक्ति पैदा करने की आवश्यकता है। मैंने कहा है कि साधक बनने का तात्पर्य केवल पूजा-पाठ करने तक सीमित नहीं होता। पूर्ण प्रकृति ब्रह्माण्ड आपके अन्दर समाहित है और जब आप पूर्णत्व से आत्मचेतना को जाग्रत करना चाहोगे तो आपकी बहुमुखी विचारधारा होनी चाहिये। पूजा-पाठ भी करो, आत्मचेतना को भी जाग्रत करो और भटके हुये समाज को भी सचेत करो और जरूरत पड़ने पर अपनी शक्ति का उपयोग करो। तभी समाज को सुधारा जा सकता है, तभी समाज को एक दिशा दी जा सकती है, अन्यथा समाज भटकता चला जायेगा।
सभी प्रलोभनों से ग्रसित हैं। सबको केवल धन की कामना है। सबको अपने वैभव की कामना है। सबको अपने मान-सम्मान की कामना है। मैं भी चाहूँ तो तीन सौ पैंसठ दिन में एक भी दिन खाली नहीं जा सकता। एक-एक दिन में दस-दस शिष्यों के घरों में जा सकता हूँ। एक-एक शिष्य से लाख-दो लाख रुपये ले सकता हूँ, दस-बीस लाख रुपये ले सकता हूँ। सैकड़ों नेता आ चुके हैं। अनेकों विधायक, सांसद यहाँ की कृपा से बने हैं जिन्होंने मंच से कहकर स्वीकार किया कि हम यहाँ की कृपा से बने हैं। मगर वह रास्ता आज मैं अपना रहा होता तो आज यहाँ पर पुल बना हुआ होता। मगर यदि पुल नहीं बना तो क्या बिगड़ रहा है? उस प्रकृति का पुल बना हुआ है कि भक्त सावन-भादों की नदी में भी पार करते चले आते हैं। पुल आज नहीं, कल बन जायेगा, किन्तु हम सत्य की ओर बढ़ रहे हैं। नमक-रोटी खा लेना पसन्द है, जीवन को त्याग देना पसन्द है अनीति-अन्याय के मार्ग को अपनाने की अपेक्षा। माँ जिसके अन्दर जब सोच पैदा करेंगी, तब वह कार्य पूर्ण होगा। मैंने जब श्री दुर्गा चालीसा पाठ आश्रम में प्रारम्भ कराया था, तब एक छप्पर में प्रारम्भ करा दिया था, उसके बाद अस्थाई भवन बना। समय के साथ सब कुछ हो जायेगा, जब जैसा माँ चाहेंगी। उसके लिये उतावलापन, उसके लिये धन अर्जन करने के लिये अनीति-अन्याय को पूरी तरह से बढ़ावा दे देना अन्याय और अधर्म है।
अनेकों लोग मेरी विचारधारा को नहीं समझ पाते और कई बार दूसरी संस्थाओं से तुलना करने लग जाते हैं कि उस संस्था में ऐसा होता है। मैंने कहा है कि मेरे भगवती मानव कल्याण संगठन से तुलना करने लायक आज इस भूतल पर कोई संस्था है ही नहीं और मेरा कोई ऐसा शिष्य अगर तुलना करता है तो एक अपराध करता है। चूँकि धार्मिक संस्थाओं की तुलना क्या धन-वैभव से करना चाहोगे या संस्थाओं की तुलना चेतना तरंगों से करना चाहोगे, सत्य से करना चाहोगे? धार्मिक संस्थायें चेतना तरंगों से चलती हैं। अगर धन-वैभव से चलने वाली होतीं तो उन राजसत्ताओं को क्या याद नहीं कर सकते कि जो समाज को लूट-लूट करके बड़े-बड़े महल बनवाते गये, वैभवशाली महल बनवाते गये, जिन्हें आज भी लोग देखने जाते हैं। उस समय क्या हाल रहा होगा? गरीब आम व्यक्ति वहाँ पर जूता पहन कर नहीं जा सकता था, मिट्टी लगाकर नहीं जा सकता था, चौखट तक जाने में भी भयग्रस्त रहता था। अरबों-खरबों की सम्पत्ति थी। बड़ी-बड़ी ऐसी गुायें बनायी जाती थीं, जहाँ अरबों-खरबों की सम्पत्ति लूट करके वहाँ लाकर जमा कर दी जाती थी। पैसे की कोई कमी नहीं थी। सर्वश्रेष्ठ वैभव अपने महलों में रखते थे। आज उन महलों का क्या हाल हो गया? सैनिकों की बूटों की आवाजें वहाँ गूँजती हैं। कहीं सैनिक छावनी पड़ी हुयी है तो कहीं कुछ पड़ा हुआ है। इसी तरह से यदि धार्मिक संस्थायें केवल पैसे के बल पर, वैभव के बल पर शीघ्र से शीघ्र खड़ी की जाती रहीं, राजनेताओं की चाटुकारिता करके कि आज इस प्रदेश में जगह मिल जाये तो यहाँ करोड़ों-अरबों रुपये इकट्ठा करके यहाँ सबसे बड़ा संस्थान बना दें, तो संस्थान बना देने से समाज का कल्याण नहीं होगा। समाज का कल्याण होता है लोगों के अन्तःकरण को बदलने से।
आज अनेकों ऐसे स्थानों में चले जाओ, जो ऋषियों मुनियों की तपस्थली रही हो, वहाँ टूटे-फूटे खण्डहर भी पड़े होंगे और आप वहाँ जाओगे तो मन को शान्ति मिलेगी। वह वातावरण कहीं न कहीं चैतन्यता प्रदान कर रहा होगा, आपको तृप्ति प्रदान कर रहा होगा। मगर बड़े से बड़े वैभवशाली मन्दिरों में चले जाओ, वहाँ वह तृप्ति आपको नहीं प्राप्त होगी। मगर हो सकता है चूँकि आपकी निगाहें वैभव ही पसन्द करती हैं कि कितना बड़ा मन्दिर बना हुआ है? कितने वैभवशाली अरबों-खरबों के स्थान बने हुये हैं? वही विचारधारा आपको अच्छी लगती है कि जहाँ दस राजनेता मंच में बैठे हों, मन्त्री बैठे हों, दस जटाजूटधारी रखाये बैठे हों, चाहे वे गाँजा-चिलम लगाते हों, तो आपको लगेगा कि अरे, इस मंच में तो अनेकों धर्माचार्य इकट्ठे हैं, अनेकों मन्त्री इकट्ठे हैं, शायद यह बहुत बड़ा सम्मेलन है तथा इससे बड़ा और सम्मेलन क्या हो सकता है? अरे ऐसे सम्मेलन अधर्मी-अन्यायियों के सम्मेलन हैं। गाँजा-चिलम लगाते हैं और उतने समय सब सत्यवादी बन जाते हैं। दिन में राम-राम और रात में पउवा चढ़ता है। वो तो समाज से भी बदतर जीवन जीते हैं। तुम तो कम से कम सुबह-शाम माँ की आरती-पूजन कर लेते हो, किसी न किसी धर्मगुरू का स्मरण चिन्तन कर लेते हो। उनके पास तो इतना भी वक्त नहीं रहता है।
आज एक मन्त्री के बच्चे का जन्मदिन है, आज वहाँ जाना है। जिस तरह से नपुंसक लोग जगह-जगह जा जाकर नाचते रहते हैं, कुछ पैसे प्राप्त करने के लिये आज वही नाच तो हो रहा है। आज मंत्री के बेटे का जन्मदिन है, आज इस चीज का उद्घाटन है, आज उस जगह उस फैक्ट्री का उद्घाटन है। सभी धर्माचार्य इसी में लिप्त हैं। एक-दूसरे को स्वागत देना, एक दूसरे का स्वागत करना, बस इसी में लिप्त हैं। पूजा-पाठ कैसे करना है, कब करना है, कहाँ करना है, इस सबका उनको ज्ञान ही नहीं है? वह स्वतः दिशाभ्रमित हो चुके हैं। ज्यादा से ज्यादा उन धर्मग्रन्थों को रट लिये तो धर्मग्रन्थों को रट लेना हमारा लक्ष्य नहीं, यह हमारा पथ है।
गीता को पढ़ लेना, गीता को सुना देना, गीता को रटते रहना, गीता को बताते रहना, इससे समाज का कल्याण होगा ही नहीं। गीता किस दिशा में तुम्हें खींचना चाहती है, किस लक्ष्य की ओर तुम्हें खींचना चाहती है, उस लक्ष्य तक तुम पहुँच कर दिखाओ। क्या गीता का कोई एक पाठक यह कह सकता है कि उसने भगवान कृष्ण की कृपा प्राप्त की हो। अरे, कृष्ण की बात तो छोड़ो, उसने अर्जुन के समान चेतना को प्राप्त किया हो। यह कहने वाला भूतल पर कोई भी कृष्ण भक्त नहीं है। यह इसलिये कि वे सत्य-पथ से विमुख हो चुके हैं। बस कथायें सुनना और सुनाना, इसी को सार मान बैठे हैं। मैं यह नहीं कहता कि कथाओं से समाज को लाभ नहीं मिलता, आंशिक मिलता है, किन्तु यदि आंशिक में उलझे रहे तो आंशिक में ही उलझे रहेंगे। चूँकि कलिकाल के कई गुना ज्यादा आवरण समाज में पड़ रहे हें और उन कई गुना पड़ने वाले आवरणों को आप स्वतः हटा सकते हैं एक सोच पैदा करके, एक प्रवृत्ति पैदा करके।
सभी चीजों में एक सोच पैदा करो। कहीं दहेज के रूप में बहू-बेटियाँ जलाई जाती हैं तो कहीं प्रापर्टी के लालच में लोभी पुत्र अपने माता-पिता को मार डालता है कि जल्द से जल्द हमें प्रापर्टी मिल जाय। राजनेता एक दूसरे की जड़ें काटने में लगे हुये हैं। समाज को लड़ायेंगे और खुद एक जगह बैठकर चाय-नाश्ता करते हैं। मगर मैंने जो आज से दस साल पहले कहा था कि आज तक राजनेता समाज को लड़ाते रहे, मगर आने वाले समय में राजनेता आपस में लड़ेंगे और वह आप लोग देख भी रहे हो समाज में कि आज राजनेता एक दूसरे को जेल भेजने को तैयार रहते हैं। थोड़ा बहुत मीडिया भी सहयोग कर देता है एक दूसरे के लूज प्वाइन्ट खोलने में। यह सब कुछ चल रहा है बस खुली आँखों से देखते जाओ। प्रकृति सहारा देने के लिये हर पल तत्पर है, तुम्हें केवल सोच पैदा करने की जरूरत है।
संगठन को संगठित करने की जरूरत है। मैंने भैसों के झुण्ड का जो एक उदाहरण दिया था कि सभी भैसों के झुण्ड ने जा करके शेरों के झुण्ड को खदेड़ दिया, जिसकी तुम कल्पना भी नहीं कर सकते। तुम तो इन्सान हो।अधर्मी-अन्यायी अपने आपको बदल डालेंगे या फिर उन्हें खदेड़ने में समय नहीं लगेगा। अभी कुछ समय पहले ही राजस्थान के एक क्लास-वन अधिकारी की एक घटना थी। जब वहाँ बाढ़ आयी तो वहाँ बाँध टूट गया। तबाही मच गयी, गाँव के गाँव बह गये। अधिकारी जब उस क्षेत्र का दौरा करने गये तो अधिकारियों को पकड़ लिया गया, उनके कपड़े उतरवा करके उनको मिट्टी खोदने के लिये फावड़ा-गैंती पकड़ा दी गयी और पाँच-छः घण्टे उनसे मिट्टी डलवाई गई और यही होना चाहिये। अधिकारी हों या नेता, सब हाथ के ऊपर हाथ रखकर बैठे रहते हैं। कौन मर रहा है, कौन खप रहा है, इससे कोई मतलब नहीं है। अधिकारी, या तो नेताओं की चाटुकारिता में लगे हुये हैं या तो नेताओं के साथ मीटिंग करने में लगे हुये हैं। आम आदमी के साथ क्या हो रहा है, इससे कोई लेना देना नहीं है!
जब चुनाव आते हैं, तब सब उनसे जुड़ जाते हैं, सब रिश्ते जुड़ जाते हैं। सब गरीब उनके लिये प्रिय बन जाते हैं। यह इसलिये कि जब तक आपका बाह्य वातावरण सुधरेगा नहीं, तब तक तुम ध्यानक्रम में बैठ कैसे पाओगे? आरती में तुम्हारा मन कैसे लगेगा, जब आपका एक लड़का बेरोजगार नजर आयेगा या आपके पढ़े-लिखे दो-दो, चार-चार लड़के बेरोजगार नजर आयेंगे, तब आप आरती-पूजन में बैठेंगे तो आपका मन कैसे लगेगा? इसलिये आपको दानों पहलुओं को सुधारना होगा। यदि किसी नौकरी में कहीं भर्ती होती है तो यह पहले से तय होता है कि इनमें विधायक के दस लोग लगेंगे, इतने मन्त्री के लगेंगे, जो अधिकारी भर्ती करा रहा है, उस अधिकारी के इतने लोग लगेंगे। यह सब पहले से तय रहता है कि किस पोस्ट के लिये कितना पैसा कम से कम देना अनिवार्य होगा। इससे ज्यादा भ्रष्टाचार और क्या फैलेगा? और फिर भी सब राजनेता ईमानदार, सब धर्माचार्य ईमानदार ! उन्हीं राजनेताओं को अपने बगल में बिठायेंगे, उन्हीं का सम्मान करायेंगे।
अरे, जनप्रतिनिधियों का सम्मान होना चाहिये। मेरे पास जो जनप्रतिनिधि आते हैं, तो मैं कहता हूँ कि अगर थोड़ी सी सोच पैदा कर सको, यह नहीं कहता कि एक मिनट में तुम सुधार कर सकते हो, मगर एक निर्णय ले लो कि आज के बाद से सुधार के रास्ते की ओर चलना है। अगर आप जनप्रतिनिधि बने हैं तो यह पद सौभाग्य से मिला है। चूँकि यदि प्रकृतिसत्ता आपको किसी बिन्दु तक पहुँचाये, तो वह सौभाग्य, संस्कार और कर्मों के फलस्वरूप होता है, मगर कर्मों के फलस्वरूप अगर आप उस पद पर बैठे हैं तो एक बार उन गरीबों की ओर आँख उठाकर अवश्य देखो।
मैंने कहा है कि मेरी प्रारम्भ की यात्रा से इस शरीर की अन्तिम यात्रा तक किसी भी काल में देख लोगे तो दस प्रतिशत से ज्यादा अमीर या उद्योगपति मुझसे नहीं जुड़ पायेंगे। चूँकि मैंने कहा है कि मुझसे 90 प्रतिशत आम व्यक्ति ही जुड़ पा रहा है। आम व्यक्ति जुड़ेंगे, जिनके लिये मैं कार्य करने आया हूँ। मेरी चेतना तरंगें उनको ही खीचती हैं। जिनके पास सब कुछ भरा पड़ा है, उनसे सम्बन्ध स्थापित करने की मुझे ज्यादा आवश्यकता भी नहीं है। चूँकि अधिक से अधिक चीजों की पूर्ति धन से हो जाती है और नहीं भी होगी तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा। इसलिये मैंने कहा है कि मैं समाज के दिये दान के पैसे से अपना जीवकोपार्जन नहीं करता। समाज से दिया हुआ जो पैसा आता है, वह जनकल्याण में लगता है। अपने जीवकोपार्जन के लिये मैंने आज तक परिवार का भी ऋण नहीं रखा है। 17-18 वर्ष की उम्र होने के बाद से अपने कर्म से उपार्जित धन के माध्यम से, अपने व्यवसाय के माध्यम से अपना जीवकोपार्जन करता था, बल्कि समाजसेवा में भी लगा रहा हूँ। यहाँ चाहे स्टाल का पैसा आ रहा हो, चाहे जहाँ से आ रहा हो, सब जनकल्याण के कार्य में जाता है। मैं कर्मवानों का जीवन जीता हूँ और यह आपको सिखाना चाहता हूँ कि साधू-सन्त-सन्यासी बन जाने का तात्पर्य, भगवान की पूजा करते हुये केवल दान-दक्षिणा में जीवन जीना नहीं। आपका गुरू दान-दक्षिणा के पैसे से जीवन नहीं जीता। मैं जानता हूँ कि जिस दिन मैं अनीति-अन्याय-अधर्म के पैसे को अपने शरीर में लगाना शुरू कर दूँगा, मेरे अन्दर आवरण पड़ने शुरू हो जायेंगे और मेरी वाणी में लगाम लगना शुरू हो जायेगा।
क्या कलिकाल इसी तरह बढ़ता चला जायेगा, इसी तरह फलता फूलता चला जायेगा? क्या कभी आवाज नहीं उठायेंगे? आवाज तो उठानी ही पड़ेगी। चूँकि पूजा-पाठ का मतलब एकपक्षीयता नहीं होती। मैं भी पूजा पाठ करता हूँू, मैं भी ध्यान-साधना करता हूँ। मगर मैंने कहा है कि मैंने अपना बहुमुखी विकास किया है। आज भी साधनारत रहता हूँ। चौबीस घण्टे में दो-ढाई घण्टे से ज्यादा कभी नींद नहीं लेता। केवल इसलिये कि समाज की रक्षा हो सके, समाज के मान-सम्मान की रक्षा हो सके। मैंने अपनी एक-एक पल की साधना समाज को समर्पित की है। भगवती मानव कल्याण संगठन के साथ संगठित हों और मैं खुली चेतावनी भी देना चाहूँगा अपने शिष्यों को, कि मेरा कोई भी शिष्य ऐसा न करे जो मानसिक रूप से नपुंसक हो, जिसके अन्दर चेतना शक्ति जाग्रत न हो, जो सत्य के साथ आवाज मिलाकर चलने के लिये तैयार न हो, संगठन के पदाधिकारियों के साथ कन्धा से कन्धा मिलाकर चलने के लिये तैयार न हो, एक आवाज में उठ खड़ा होने के लिये तैयार न हो। मैंने कहा है कि मैं तुम्हें अपना शिष्य, समूह तैयार करने के लिये नहीं बना रहा हूँ, तुमको प्रलोभनों से बाँधने के लिये नहीं तैयार कर रहा हूँ। मैं शिष्य तैयार कर रहा हूँ कि तुम साधक बनो और सत्य के रक्षक बन सको। समाज में जो अनीति-अन्याय- अधर्म फैला हुआ है, उसे दूर करने के लिये एक धर्मयुद्ध के योद्धा बन सको।
अपने अन्दर एक चेतनाशक्ति पैदा करो। तुम सब कुछ कर सकते हो। सब बदल करके रख सकते हो। भारत में जब अंग्रेजों का साम्राज्य था, भारत गुलाम था तो चन्द स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी व महात्मा गाँधी जैसा व्यक्ति, उन अधर्मी-अन्यायियों के पूरे साम्राज्य को बदलने में सामर्थ्यवान हो सके। प्रजातन्त्र आया, मगर प्रजातन्त्र आज हमको मिल नहीं पाया। आज गुण्डातन्त्र है, अपराधतन्त्र है। राजाओं के तन्त्र से भी बदतर तन्त्र चल रहे हैं। कोई एक समान व्यवस्था नहीं हैं। कोई मन्त्री, सांसदों, विधायकों के खिलाफ आवाज नहीं उठा सकता। वे राजनेता उन पदों पर जाकर यह भूल जाते हैं कि आज अगर हम विधायक बन गये तो हम एक पार्टी के विधायक नहीं हैं, हम पूरे क्षेत्र के विधायक हैं! आज अगर हम मन्त्री बन गये तो हम एक पार्टी के नहीं, इस विभाग में पूरी जनता के मन्त्री हैं। मगर सब अपने आपको एक सीमित दायरे में बाँधे हुये हैं। कैसे सुधार होगा समाज का? क्या यह इसी तरह चलता रहेगा? इसे कहीं न कहीं बदलना पड़ेगा। कहीं न कहीं वह सोच डालनी पड़ेगी कि समाज में सुधार आये। समाज में बदलाव आये और हर व्यक्ति अपने कर्तव्य को समझे कि मैं जहाँ पर खड़ा हूँ, वहाँ के प्रति मेरा धर्म, कर्म और कर्तव्य क्या है? फल की कामनाओं को छोड़ दो। मैंने तो कहा है कि हर कर्म का फल तो सुनिश्चित है। कोई भी काम निष्काम है ही नहीं इस जगत में। जब हर कर्म का फल सुनिश्ति है तो तुम सत्कर्मों में केवल बढ़ चलो। फल की कामना रोज क्यों करते हो? नित्य कहते हो कि फल दो! तुम्हें जो मिलना है, वह मिलेगा ही। उसे दुनिया की कोई ताकत छीन ही नहीं सकती।
अपने अन्दर एक विचारशक्ति पैदा करो। तुम प्रकृतिसत्ता के अंश हो। उस आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा की चेतनाशक्ति तुम्हारे अन्दर बैठी हुई है। उसे जानो, समझो और पहचानो। उसे बहुमुखी विचारधारा से जोड़ो। एक सोच पैदा करो। नवीन चिन्तन अपने अन्दर पैदा करो। सब कुछ बदल जायेगा। ऐसा कुछ भी नहीं है जो अनीति-अन्याय- अधर्म के ऊपर भारी न पड़े। सत्य की सदैव विजय होती है। आपको एक विचारधारा पैदा करके चलने की जरूरत है। दूसरी चीज मैं सचेत करना चाहूँगा कि कल गुरुदीक्षा का कार्यक्रम है तो मेरे शिष्य वही बनें, जो वास्तव में साधक बनना चाहते हैं, सौदागर नहीं बनना चाहते। मैंने कहा है कि मैंने प्रकृतिसत्ता से माँगा है कि आज तक किसी साधू-सन्त सन्यासी के जीवन में जितने संघर्ष न डाले गये हों, उतने संघर्षों की सौगात माँ मुझे दे दें। तो मेरा जीवन तो संघर्षों से भरा रहेगा ही और अगर उन संघर्षों के साथ चल सको तो मेरे शिष्य बनो, अन्यथा देश के अन्दर अनेकों धर्माचार्य, योगाचार्य, अनेकों धर्मप्रमुख बने बैठे हैं, जाकर तुम उनके शिष्य बन जाओ। मैं मानसिक रूप से नपुंसकों को अपना शिष्य नहीं बनाना चाहता।
तुम गरीब हो, अमीर हो, इससे मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। बल्कि गरीब मेरे लिये ज्यादा प्रिय होते हैं। तुम किस जाति-धर्म-सम्प्रदाय के हो, उससे मेरे लिये कोई फर्क नहीं पड़ता। मगर फर्क तब पड़ता है जब तुम जुड़ करके भी भगवती मानव कल्याण संगठन की विचारधारा को आत्मसात् नहीं कर पाते। जहाँ मैंने तुम्हारे सम्पूर्ण हृदय का साम्राज्य माँगा है, वहाँ एक कोने में भी पूर्णता की स्थापना नहीं कर पाते। एक छोटा सा व्यक्ति तुम्हें भ्रमित करता है और तुम भ्रमित हो जाते हो। चूँकि मैं जानता हूँ कि समाज में मेरा विरोध किया जायेगा। आज अनेकों धर्माचार्य मुझे धमकियाँ देते हैं कहीं फोन से, तो कहीं किसी अन्य माध्यम से। मगर जब मेरी चुनौती पाते हैं तो सियार के समान अपना मुँह बन्द करके बैठ जाते हैं। मेरे साथ कल को षड्यंत्र किये जा सकते हैं मगर मैंने कहा है कि दुनिया की कोई ताकत नहीं है जो किसी का षणयंत्र मुझे पराजित कर सके। आपका गुरू चेतनावानों का जीवन जीता है। इस भूतल पर कोई साधू-सन्त-सन्यासी, ऋषि-मुनि-योगी आदि नहीं है जो मेरे सत्य का सामना कर सके, मेरी चेतना तरंगों का सामना कर सके।
तुम्हारे अन्दर सत्य की सोच पैदा होगी, बस एक बार मान-अपमान से परे जीवन गुजार दो। एक जीवन भगवती मानव कल्याण संगठन को समर्पित कर दो। अपनी आँखों से ही देख लेना कि समाज में किस गति से परिवर्तन होता चला जायेगा। परिवर्तन कभी धनबल से नहीं आयेगा। हमारा देश आजाद हुआ तो धनबल से नहीं आजाद हुआ, आत्मबल से आजाद हुआ है। चाहे महात्मा गाँधी हों या हमारा कोई स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी रहा हो, केवल आत्मबल के माध्यम से उन्होंने विदेशियों को खदेड़ कर बाहर कर दिया। उस आत्मबल को समझो, पहचानो। आज हम आजाद हो गये, मगर हमारी आत्मिक आजादी अभी गुलाम है। उनके अन्दर कौन सा आत्मबल था कि रेगिस्तान में लिटाये जाते थे, नीचे से आग जलाकर गर्म तवे पर लिटा दिये जाते थे। बाँसों को फाड़कर उनके शरीर के रोयें पर चलाये जाते थे, रोयें उखाडे़ जाते थे। कोड़ों से पीटा जाता था, फिर भी कभी क्या उनकी आँखों में आँसू का अहसास किया गया? केवल एक देश की आजादी के लिये हंसते-हंसते फाँसी पर झूल गये। देश की आजादी तो आवश्यक है, किन्तु आत्मिक आजादी मूल आजादी है। उस आत्मिक आजादी के लिये अपने आपको न्यौछावर करने के लिये तत्पर हों और मैं समाज का आवाहन करता हूँ भगवती मानव कल्याण संगठन के साथ जुड़ने के लिये कि वास्तव में अगर तुम अपनी आत्मिक आजादी चाहते हो, अपने देश का मान-सम्मान बढ़ाना चाहते हो, अपने धर्म का मान-सम्मान बढ़ाना चाहते हो तो मैं अपने हृदय में तुम्हें स्थान देता हूँ कि आओ और भगवती मानव कल्याण संगठन के साथ जुड़ो। मैं तुम्हें वह सब कुछ प्रदान कर दूँगा जो तुम्हारे अन्तःकरण में है। जिसे तुम कह नहीं पाते, वह करके दिखा दूँगा। सिर्फ एक बार आगे बढ़ो।
निष्ठा और विश्वास जाग्रत करो। आज तक तुम्हारे गुरू का सिर कहीं नहीं झुका और न झुकेगा। न मेरे शिष्यों का सिर कहीं झुका है और न मैं झुकने दूँगा। शिष्यों का अस्तित्व समाप्त होने से पहले मैं अपने अस्तित्व को समाप्त कर देना ज्यादा पसन्द करूँगा। मैंने संकल्प लिया है कि अनीति-अन्याय-अधर्म के पद पर पैर रखने से पहले, मैं अपने शरीर का त्याग करना पसन्द करूँगा। मैं भूखा मर जाना पसन्द करता हूँ मगर अनीति-अन्याय-अधर्म के रास्ते से आये हुये अन्न के दाने को अपने पेट में डालना पसन्द नहीं करता। अरे, क्या लेकर आये हो और क्या लेकर जाओगे? सत्य की रक्षा के लिये एक जीवन तो गुजार दो। एक जीवन तो गुजार दो अपनी आगे आने वाली पीढ़ी के लिये, कि उनको कम से कम हम वह वातावरण दे सकें। एक बार विचारशक्ति अपने अन्दर पैदा करो। तुम्हारे अन्दर सब कुछ सामर्थ्य है, केवल देखने समझने की जरूरत है। अपने अन्दर आत्मबल पैदा करने की जरूरत है। मेरी ऊर्जा इसीलिये मैं जन-जन में बाँट रहा हूँ।
एक-दो व्यक्तियों को मैंने चिन्तन में लेकर देखा। अनेकों सासंदों-विधायकों को चुनाव जिताया गया। जहाँ वे कह रहे थे कि हम बिल्कुल जीत नहीं सकते, कह करके जिताया गया, मगर जीतने के बाद उन्होंने क्या किया! दो कदम भी जनकल्याण के कार्यों में नहीं चल सके। सत्य की आवाज के साथ अपनी आवाज मिला करके नहीं चल सकते, क्योंकि उनके पास सत्य के साथ चलने का समय ही नहीं है। भगवती मानव कल्याण संगठन की विचारधारा को दृढ़ता के साथ समाज में कहने की सामर्थ्य नहीं है। एक श्री दुर्गा चालीसा पाठ अच्छी तरह से कराने की सामर्थ्य नहीं है। अनेकों बार कहने के बाद फिर से मांसाहार व शराब सेवन में चले जाते हैं और जैसे ही चुनाव आया, फिर से आ करके कहते हैं कि बस गुरूजी हमसे गलती हो गयी, अब हम नशा व माँसाहार नहीं करेंगे। अनेकों विधायकों व सांसदों ने यहाँ आ करके माफी माँगी है और जब पिछली बार आये थे, तब भी यही हुआ था। मगर अब बहुत हो चुका। मेरा संकल्प, मेरी चेतना तरंगें समाज में जायेंगी। अब यहाँ से किसी भी राजनेता को तभी लाभ मिलेगा, जब वह यहाँ से संकल्प लेगा। तभी मेरी चेतना तरंगें उनको उनके क्षेत्रों में लाभ देंगी, अन्यथा मैं किसी भी राजनेता से अपना सम्बन्ध स्थापित नहीं करना चाहता। अगर राजनेता हो, तो राजनेता के धर्म और कर्म को समझो। अगर धर्म के पास आते हो, तो भक्त बन करके आओ, मान-सम्मान पाने के लिये नहीं। मान-सम्मान मेरे आसन से नहीं मिल सकता। सभी का आवाहन करता हूँ कि आओ मिल करके इस समाज में एक ऐसी दिशा दें कि हम रहें न रहें, मगर इस समाज के सामने आज जो संघर्ष हैं, वे संघर्ष समाज के बीच से समाप्त हो जायें। इस शरीर के मोह को एक बार त्याग दें। हमारे जीवन की जितनी नितांत जरूरतें हैं, उससे ज्यादा जो हमारे पास सामर्थ्य है, उसको जनकल्याण में लुटा दें। परिवर्तन करने के लिये अपनी क्षमताओं को झोंक दें। अपनी चेतनाशक्ति को जनकल्याण में लगायें।
प्रत्येक व्यक्ति के अन्दर क्षमतायें होती हैं मगर आज जिनके पास क्षमतायें हैं, वे उन्हें सीमित दायरे में किये हुये हैं, सिर्फ अपने लाभों में ग्रसित किये हुये हैं। अरे, तुम दोबारा विधायक न बनोगे तो तुम्हारा क्या बिगड़ जायेगा। कम से कम सत्य के साथ तो चलो। दोबारा तुम मन्त्री नहीं बन पाओगे तो तुम्हारा क्या बिगड़ जायेगा और अगर अनीति-अन्याय- अधर्म से दस बार मन्त्री बन भी गये तो उन कुसंस्कारों का जो रास्ता तुम तय कर रहे, तो आज जिस तरह रेलवे प्लेटफार्मों में भिखारियों के समान कोई माँ के गुणगान करता हुआ एक-एक, दो-दो रुपये के लिये भीख माँग रहा है, तो कोई कोढ़ियों का जीवन जी रहा है, तो कोई अपाहिजों का जीवन जी रहा है, तो तुम भी उसी गति की ओर बढ़ रहे हो। चूँकि आप सभी यह जानते हैं तथा जानते हुये भी गलती करते हैं, तो प्रकृतिसत्ता के विधान में न देर है और न अन्धेर। प्रकृति की इच्छा के विरुद्ध एक रोंया भी इधर से उधर नहीं हिलता। आप जैसा कर्म करेंगे, वैसा फल आपको भोगना जरूर पड़ेगा। आज क्षणिक मान-सम्मान और पद की लिप्तता में क्यों अपने जीवन में ऐसे संघर्षों का आवाहन करते चले जा रहे हो कि जिन संघर्षों के बीच यदि फंस जाओगे तो कभी भी उभर न पाओगे। अतः सचेत होकर अपने आपको सुधारो, अपने आपको दिशा दो।
‘सिद्धाश्रम पत्रिका’ का मैंने इसीलिये प्रकाशन किया है कि उसके माध्यम से जन-चेतना सन्देश भगवती मानव कल्याण संगठन के सदस्यों सहित समाज में जन-जन तक पहुँचते चले जायेंगे। हर जिले में भगवती मानव कल्याण संगठन का सतत् गठन किया जा रहा है। मात्र एक-एक जिले में दस-दस, पन्द्रह-पन्द्रह हजार सदस्य इकट्ठे हो करके माँ का गुणगान करते हैं, मगर उस क्षेत्र का जनमानस, राजनेता, धर्माचार्य या अन्य जो मीडिया वर्ग है, कोई नहीं जानता। मगर यदि कहीं सौ-पचास लोग इकट्ठे हो जाते हैं तो उनके बारे में सब जानकारी मिल जाती है। मैंने कहा है कि जिस तरह कलिकाल अपनी जड़ें स्थापित करता चला गया और किसी को पता ही नहीं चला कि कब कलिकाल का साम्राज्य स्थापित हो गया? उसी तरह तुम भी अपने मान-सम्मान से परे रहकर केवल अपने कर्म और कर्तव्य के पथ पर चलते चले जाओ और कलिकाल को पता ही नहीं चलेगा कि कब उसका धरातल खिसक गया। संगठन के साथ अपने आपको जोड़ो। मुझे कहने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि प्रत्येक जिले में संगठन की शाखा का गठन किया गया है।
संगठन की विचारधारा के साथ आगे चलो। अभी तो मैंने कहा है कि मैं नीव को जमा रहा हूँ। इस नीव पर जब सत्य का महल खड़ा होगा तो अधर्मी-अन्यायियों के कलेजे काँप जायेंगे। उनके धरातल खिसक जायेंगे। उनको एहसास होगा कि भगवती मानव कल्याण संगठन के पास कौन सी शक्ति सामर्थ्य है? वह सामर्थ्य माता भगवती आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा की है और माँ की चेतना तरंगों के प्रवाह में अधर्म-अन्याय टिक सके, ऐसा सम्भव ही नहीं। सूर्य के उदय होते ही जिस तरह अन्धकार समाप्त हो जाता है, उसी प्रकार उन चेतना तरंगों को उदय होने दो, प्रस्फटित होने दो, विकसित होने दो और जिस दिन भगवती मानव कल्याण संगठन एक निर्धारित स्तर पर पहुँच जायेगा, उस दिन इस अनीति-अन्याय-अधर्म से खुला धर्मयुद्ध होगा। एक ऐसा धर्मयुद्ध, जिसके बारे में आज तक न किसी ने सोचा है, न समझा है, न जाना है। उसके लिये अपने आपको तैयार करो। उसके लिये अपने अन्दर के आत्मबल को बढ़ाओ।
तुम्हारे अन्दर सभी क्षमतायें भरी पड़ी हैं, उन क्षमताओं को निखारो। गरीब हो तो क्या हुआ? यह तो तुम्हारा एक पक्ष हो गया, शरीर के अन्दर जितनी क्षमतायें मेरे अन्दर हैं, उतनी तुम्हारे अन्दर हैं। फर्क यह है कि मैंने देखा है, समझा है और तुम देख और समझ नहीं रहे हो। तो जो क्षमतायें तुम्हारे अन्दर हैं, उनको उजागर करो। उन्हें देखो, समझो, पहचानो और अपने आपको उभारो, उठ खड़े हो। धन कोई मायने नहीं रखता। धन नगण्य है, उससे ऊपर उठो। प्रत्येक के पास कुछ अच्छाइयाँ होती हैं, उन अच्छाइयों को बढ़ाना शुरू करो। बुराइयों को धीरे-धीरे दबाते चले जाओ। कल तुम्हारा होगा, भविष्य तुम्हारा होगा और इसी पूर्णत्व के साथ आज के चिन्तनों का मैं आपको पूर्ण आशीर्वाद प्रदान करता हूँ और अब मैं आरती की ओर बढ़ूँगा। आरती पूर्ण चैतन्यता, धैर्यता और स्थिरता से करेंगे।
बोल जगदम्बे मात की जय।

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