शक्ति चेतना जनजागरण शिविर, सिद्धाश्रम, 09.10.2008
आज विजयदशमी पर्व पर मैं अपने समस्त शिष्यों, कार्यकर्ताओं, माँ के भक्तों व इस सिद्धाश्रम में उपस्थित समस्त दर्शनार्थियों को अपने हृदय में धारण करता हुआ माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा का पूर्ण आशीर्वाद प्राप्त करता हुआ अपना पूर्ण आशीर्वाद आप समस्त लोगों को समर्पित करता हूँ।
जैसा कि नाम ही है विजयदशमी पर्व। विजयदशमी का पर्व हमें इस बात का एहसास कराता है कि हमने किसी चीज पर सफलता हासिल की है, विजय हासिल की है। यह श्रीराम और रावण के युद्ध में रावण की मृत्यु को परम्परा के तहत विजय की सफलता के रूप में मान लिया जाता है। दशहरा के दिन रावण के पुतले जलाये जाते हैं और लोग अपने आप को विजयी मान लेते हैं। जबकि आप लोग देखें कि जो भी वातावरण आज बन रहा है, इन परम्पराओं में समाज दिशाभ्रमित होता चला जा रहा है कि वास्तव में अगर हमने उस चीज का एहसास किया है तो उन कर्मों का एहसास भी करना है, चिन्तन करना है।
रावण के बड़े-बड़े पुतले बनाकर उनका दहन कर देने से, न तो आपको वह विचारधारा प्राप्त होती है और न ही आपके जीवन में किसी चीज का परिवर्तन आता है। बड़े-बड़े रावण बनाये जाते हैं, उनका दहन किया जाता है और वहीं पर उन्हीं पण्डालों में, उन्हीं क्षेत्रों पर हजारों रावणों के प्रतिमूर्त नजर आते हैं। हो-हल्ला मचाने वाले, उच्श्रंखलता मचाने वाले, एक दूसरे के साथ छीनाझपटी करने वाले, फूहड़ता का वातावरण पैदा करने वाले, लोफड़ों की मजार्टी की मजार्टी नजर आयेगी। जिसे हम सफलता मान रहे हैं, उन बिन्दुओं पर विचार करने की जरूरत है कि यह पर्व हमें किस ओर इंगित करता है? यह असत्य पर सत्य की विजय का पर्व है। आपको करना क्या चाहिये? आपको सोचना चाहिये कि आपको सबसे पहले अपने आप पर विजय प्राप्त करना है। कहीं ऐसा तो नहीं कि केवल उन पर्वों को मनाने-मनाने में आपका सत्य दबता चला जा रहा हो, आपके अन्दर ही असुरत्व हावी होता चला जा रहा हो, आपके ही अन्दर असुरत्व पनपता चला जा रहा हो, आपके ही अन्दर रावण की प्रवृत्ति पनपती चली जा रही हो!
क्या हम विजय पर्व मनाने के अधिकारी हैं? क्या हम विजय पर्व मना करके प्रसन्न होने के अधिकारी हैं? जब तक हमने अपने आप पर विजय नहीं पायी, जब तक हमारा लगाव सत्य की ओर नहीं हुआ, सत्य से हमें प्रेम नहीं हुआ, जब तक हमारा रोम-रोम यह एहसास न करने लग जाये कि रावण का अन्त किस प्रकार हुआ था? हमारे जीवन में कभी इस प्रकार का भटकाव न आने पाये, हम जीवनपर्यन्त सतमार्ग पर चलेंगे, हम अवगुणों से दूर रहेंगे, हम नशे से अपने आपको मुक्त रखेंगे, हम मांसाहार से अपने आपको मुक्त रखेंगे। जब तक यह विचारधारा आपके अन्दर कूट-कूट करके पनप नहीं जाती, तब तक वास्तव में आप लोग विजयदशमी पर्व उस रूप में, उत्सव के रूप में, जिस तरह से समाज मनाता है, वह मनाने का अधिकारी नहीं है।
आपको सबसे पहले अपने आप पर विजय हासिल करना है। आपको अपने इष्ट की, अपने गुरु की कृपा को प्राप्त करते हुये अपने आप का हर पल शोधन करना है, अपने आप पर विजय प्राप्त करनी है। अपने काम, क्रोध, लोभ, मोह, इनका अन्त नहीं किया जा सकता। चूँकि इसका चिन्तन मैंने पूर्व में दे रखा है। समय का अभाव है, किसी बड़े चिन्तन की गहरायी में नहीं जा सकता। मगर जो महत्वपूर्ण संकेत हैं, मैं उन विषयों में आपको चिन्तन दे रहा हूँ कि प्रकृति की किसी भी कृति को नष्ट नहीं किया जा सकता। हमारा शरीर तमोगुण, रजोगुण और सतोगुण से परिपूर्ण है। इन तीनों गुणों में किसी गुण को नष्ट नहीं किया जा सकता। केवल उन गुणों को सन्तुलित किया जा सकता है, सतोगुण के आधीन किया जा सकता है। उसी तरह काम, क्रोध, लोभ, मोह को आज तक न कोई नष्ट कर सका है और न कर सकेगा। केवल इन पर विजय हासिल की जा सकती है, पकड़ हासिल की जा सकती है कि कहाँ पर काम की आवश्यकता है, कहाँ पर क्रोध की आवश्यकता है, कहाँ पर लोभ की आवश्यकता है, कहाँ पर मोह की आवश्यकता है?
मैंने काम, क्रोध, लोभ, मोह के बारे में विस्तार से चिन्तन दिया है कि हमको काम को अपने शरीर में किस प्रकार उपयोग करना चाहिये, लोभ को हमें किन चीजों को प्राप्त करने के लिये करना चाहिये। क्रोध का उपयोग किस प्रकार से अपने अवगुणों को दूर करने के लिये करना चाहिये? किस तरह से अपनी अन्तर्चेतना को जाग्रत करने का मोह होना चाहिये? किस तरह से प्रकृतिसत्ता के दर्शन प्राप्त करने का, प्रकृतिसत्ता की कृपा प्राप्त करने का, अपने सहज स्वरूप को प्राप्त करने की हमारे अन्दर एक तड़प होनी चाहिये, हमारे अन्दर एक ललक होनी चाहिये। इनका उपयोग यदि हम अपने लिये करना शुरू कर दें तो वही काम जो हमें विनाश की ओर ले जाता है, हमारी शक्ति को क्षीण करता है, वही कामना जब हम अपने आप के साथ, अपनी सुषुम्ना नाड़ी के साथ सम्भोग की यात्रा तय करते हैं, सामंजस्य की यात्रा तय करते हैं तो हमारी प्राणवायु ऊपर की ओर चढ़ती है, हमको चैतन्यता की प्राप्ति होती है, हम दीर्घायु बन जाते हैं, हम चेतनावान बन जाते हैं और वही जब विसर्जित करते हैं तो पतन की ओर जाते हैं और हमारी शक्ति क्षीण होती है।
आपको एहसास ही नहीं कि किन ऊर्जाओं का उपयोग आपको किस प्रकार से करना चाहिये? बाह्य क्रम में कितना एवं किस प्रकार उपयोग करना चाहिये और उस मूल ऊर्जा को हमें किस प्रकार अपने अन्तःकरण में समाहित करना है। अपने आप के साथ सामंजस्य स्थापित करना है। हम शिव शक्ति के समन्वित स्वरूप हैं। हमको उस सुषुम्ना नाड़ी को किस तरह से चेतनावान बनाना है? किस तरह से काम, क्रोध, लोभ, मोह को अपने जीवन में उपयोग करना है? इनका उपयोग आपको गहराई की ओर ले जाता है, पूर्णत्व की ओर ले जाता है कि अगर आपका एक मिनट का ध्यान लग गया तो जो सात घण्टे, आठ घण्टे, दस घण्टे की नींद से आपको तृप्ति नहीं मिलेगी, वह यदि एक घण्टे का मन एकाग्र हो गया तो दसों घण्टे आपको एक एनर्जी, एक उर्जा मिलती चली जायेगी। एक अलौकिक नशा, मैं कह रहा हूँ चूँकि बाहर के नशों से आप जिस क्षेत्र में जायेंगे तो आपका पतन सुनिश्चित है और अन्दर के जिस नशे में आप जायेंगे तो आप अमरत्व को प्राप्त करते चले जायेंगे, आनन्द को प्राप्त करते चले जायेंगे।
बाहर की चीजें हमें क्षणिक सुख दे सकती हैं। अगर हम सुख को प्राप्त करेंगे तो दुख हमारे जीवन में आयेगा ही आयेगा और यदि हम आनन्द को प्राप्त करेंगे तो मैंने कहा है कि आनन्द का कोई विलोम होता ही नहीं। आनन्द ही आनन्द है हम जितना तृप्ति की ओर जायेंगे। यदि आप बाहर का नशा कर लें तो जब तक आप नशा करेंगे, तब भी आप अपने मन-मस्तिष्क में नहीं रहेंगे, होश-हवाश में नहीं रहेंगे और जब नशा उतरेगा तो आपका शरीर बिल्कुल क्षीण होने लगेगा, शक्तिहीन होने लगेगा, ऐंठन होगी, और जो आपके अन्दर एक अलौकिक दिव्य नशा है, बाहर के किसी भी नशे में उतनी शक्ति-सामर्थ्य है ही नहीं जो आपके अन्दर के नशे में है। यदि सुषुम्ना के प्राणवायु के नशे को आप जाग्रत कर लें, अपनी समस्त कोशिकाओं में प्राणवायु को प्रवाहित करने की क्षमता आपको यदि हासिल हो जाये और अपनी प्राणवायु को ज्यों ही अपने सहस्त्रार की ओर चढ़ाना सीख जायेंगे, तब आपको एहसास होगा कि यह एक नशा आपको कितनी तृप्ति देता है। कितनी बड़ी चेतना देता है, आपके शरीर में कितनी चैतन्यता को भर देता है, आपके अन्दर कितनी दिव्यता को भर देता है। तब कहीं जाकर आपको एहसास होगा कि वास्तव में आपके अन्दर कितनी क्षमतायें भरी हुयी हैं। एक साधक का जीवन जीते हुये उनको धीरे-धीरे करके क्रमिक अर्जित करें।
बहुत बड़ी कोई साधनायें करने की आवश्यकता नहीं रहती। मैंने जो कहा है, आपको मैंने चिन्तन दिया है कि अष्टांग योग का मार्ग और नवधा भक्ति के मार्ग को यदि आप अपना कर चलेंगे, भक्ति, ज्ञान व आत्मशक्ति की कामना को लेकर चलेंगे तथा नित्य मन को एकाग्र करके, मेरुदण्ड को सीधा करके यदि आप 5-10 मिनट का ही ध्यान लगाने लग जायें, तो वर्ष-दो वर्ष के अन्दर ही या 4-6 महीने के अन्दर ही कई बार आपको एहसास होने लग जायेगा कि चाहते न चाहते अचानक आपकी प्राणवायु ऊपर चढ़ने लग जायेगी और आपको एहसास होगा कि इससे आपको एक अलौकिक तृप्ति, एक अलौकिक आनन्द प्राप्त हो रहा है, एक अलौकिक लोक की ओर आप बढ़ते चले जा रहे हैं। आपके स्थूल शरीर का भान मिटता चला जा रहा है। आपके अन्दर एक दिव्यता आती जा रही है। आपका शरीर एकदम फूल सा कोमल होता जा रहा है। एक अलौकिक दिव्यता, एक हल्कापन, एक अलग तृप्ति, एक अलग आनन्द प्राप्त होगा। तब हमको एहसास होता है कि स्थूल जगत से परे भी कोई जगत है। हमारे सम्बन्ध जुड़ने लगते हैं। अन्यथा तो हम एहसास ही नहीं कर पाते कि इस कोलाहलपूर्ण जगत से परे क्या है? इसकी शून्यता क्या है? एक न्यूट्रल अवस्था क्या है?
आपकी सोच जहाँ से प्रारम्भ होती है, जहाँ से आपके स्थूल की ऊर्जा प्रारम्भ होती है, उस स्थूल की ऊर्जा को रोकने के बिन्दु तक पहुँचना तो हर मनुष्य का कर्तव्य और धर्म होना चाहिये कि ऐसा कौन सा बिन्दु है, ऐसा कौन सा प्वाइन्ट है हमारे स्थूल शरीर के अन्दर कि जहाँ से हमारे सोचने-समझने की शक्ति, कार्य करने की शक्ति प्रारम्भ होती है कि हम रात्रि में भी सो रहे होते हैं तो हमारा दिमाग कहीं न कहीं उलझा रहता है, कार्य करता रहता है और यदि हम उस न्यूट्रल अवस्था को प्राप्त करने की शक्ति-सामर्थ्य प्राप्त कर लें तो हम चाहे जितने तनावों से ग्रसित हों, चाहे जितनी समस्याओं से ग्रसित हों, हमने एक मिनट के लिये भी न्यूट्रल अवस्था को प्राप्त किया कि सभी तनावों, सभी समस्याओं से अपने आप मुक्त हो जाते हैं। उन समस्याओं से लड़ने के लिये एक नई ऊर्जा आपको मिल जायेगी।
उस ऊर्जा की ओर चूँकि समाज नहीं बढ़ रहा है, इसीलिये वह पतन की ओर बढ़ता चला जा रहा है। जबकि मेरे द्वारा कहा गया है कि आप संकल्प कर लें कि हम आधे घण्टे पूजा-पाठ करेंगे व जो भी जितना समय है आधा घण्टा, एक घण्टा, दो घण्टा मन्त्र जाप कर लें, मगर 5 मिनट से 10 मिनट ध्यान के लिये नित्य दें। आज्ञाचक्र पर ध्यान लगा लें। एक सहज भाव से जो मैंने आज्ञाचक्र को राजाचक्र बतलाया है कि आज्ञाचक्र पर आप ध्यान लगाने का प्रयास करेंगे, आज्ञाचक्र पर ध्यान लगायेंगे और किसी भी चीज के विषय में आपको सोचने की जरूरत नहीं है कि मूलाधार में हमें क्या ध्यान लगाना है, स्वाधिस्ठान में क्या ध्यान लगाना है? चूँकि कुण्डलिनी चक्र के बारे में जितनी भी पुस्तकें आज समाज में हैं, मैं कह रहा हूँ कि वो एक सौ एक प्रतिशत पुस्तकें सिर्फ आपको दिशाभ्रमित कर रही हैं। उन क्रमों में आप चाहे जितना उलझ जायेंगे, मगर कुण्डलिनी चेतना का आप एहसास ही नहीं कर पायेंगे। अपने अन्दर के अमरत्व का एहसास ही नहीं कर पायेंगे और यदि आप आज्ञाचक्र को, राजाचक्र को माध्यम बना लें तो निश्चित लाभ होगा।
आप छोटी से छोटी चीज को सोचते हैं, समझते हैं और यदि कोई चीज भूल जाती है और आप आँख बन्द करके याद करते हैं, तत्काल आपको याद आ जाती है। किसी का नाम याद नहीं आ रहा हो और आप जरा सा सोचते हैं, तत्काल याद आ जाता है। कुछ न कुछ तो ध्यान की क्षमता आप सभी की है मगर वह क्षमतायें धीरे-धीरे क्षीण और समाप्त होती जा रही हैं। उन क्षमताओं को प्रभावी बनाने का यदि प्रयास करें और आज्ञाचक्र को, राजाचक्र को यदि आप अपने वशीभूत कर लें तो राजा यदि हमारा अपना बन जाये तो राजा से जुड़े सभी चक्र अपने आप अपने बन जायेंगे। वह अपनी दिशा में स्वतः कार्य करना शुरू कर देंगे और आज्ञाचक्र के माध्यम से हम मूलाधार से सुषुम्ना नाड़ी को पूरी तरह से चैतन्य बना करके सहस्त्रार की ओर हमारी प्राणवायु अपने आप बढ़ना शुरू हो जायेगी और जिस क्षण हमारी प्राणवायु सहस्त्रार की ओर बढ़ना शुरू हो जाती है, हमको तब एहसास होता है कि वास्तव में हमारे ऋषियों-मुनियों, वेद-पुराणों, शास्त्र, उपनिषदों ने जो कह रखा है वह सब कुछ सत्य है, अन्यथा तब तक आप असत्य ही मानते रहेंगे।
एक बार उसकी झलक मिल जाये, एक बार आपकी प्राणवायु सहस्त्रार की ओर चढ़ जाये, एक बार आपका सूक्ष्म शरीर बाहर निकल करके खड़ा नजर आ जाये, फिर आपको कोई दिशाभ्रमित कर ही नहीं सकता। चूँकि आपको सत्य का ज्ञान हो जाता है कि जिस चीज को मैं अपनी आँखों से देख रहा हूँ। जिस अमरत्व का पान मैं अपने आप में कर रहा हूँ, वह तो झूठा हो ही नहीं सकता और जब आप उसको बार-बार करेंगे तो दिव्यता, चैतन्यता आती चली जाती है।
अलौकिक क्षमता आपके अन्दर भरी हुई है। अपने आपको विषय-विकारों से अलग हटाओ। एक विचारशक्ति पैदा करो कि हम जहाँ पर भी हैं, अपने आपको केवल संभालना है, अपने आप पर विजय प्राप्त करने का केवल एक संकल्प लेना है। इसमें कोई धन-दौलत नहीं लगनी, कोई पैसा नहीं लगना है। अगर आप एक सोच बनायेंगे तो यह एक गरीब भी कर सकता है, एक अमीर भी कर सकता है, एक साधू भी करता है, एक सन्यासी भी करता है। सब लोग उसी मार्ग पर चलते हैं चूँकि इसके अलावा और कोई मार्ग है ही नहीं पूर्णत्व प्राप्त करने का। इसके अलावा और कोई मार्ग है ही नहीं अपने जीवन की समस्त समस्याओं के समाधान के लिये और जब आप उसको और बढ़ाने का प्रयास करेंगे तो आपको यह अनुभूतियाँ सहज भाव से मिलना शुरू हो जायेंगी। मैंने कहा है कि चेतना तरंगें यदि आपकी पकड़ में नहीं हैं तो ऊर्जा को किसी न किसी गलत रास्ते के माध्यम से नष्ट करती रहती हैं। उसी में यदि आपकी पकड़ हासिल हो जाये तो उसको आप अपने अनुरूप जहाँ जैसा चाहें, वहाँ वैसा चला सकते हैं। जहाँ जैसा चाहें, वहाँ वैसा उपयोग कर सकते हैं।
अतः विजयदशमी पर्व संकल्प पर्व होना चाहिये। विचार करने का पर्व होना चाहिये कि वास्तव में अगर हमें विजय प्राप्त करना है तो सबसे पहले अपने आप पर विजय प्राप्त करनी होगी। अपने सहज स्वरूप को प्राप्त करना होगा और माता भगवती आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा को अपना इष्ट स्वीकार करना होगा क्योंकि वास्तव में वही जन-जन की जननी हैं। चूँकि वही अजर-अमर-अविनाशी सत्ता हैं। ब्रम्हा विष्णु तो अनेकों हैं। अनेकों इस तरह के लोक हैं। यह अलग बात है कि विज्ञान आज तक उन चीजों तक पहुँच नहीं पाया है। हो सकता है आने वाले समय में उन चीजों को हासिल कर सके। चूँकि ज्ञान से विज्ञान का निर्माण होता है।
बाहर जो कुछ भी है, वह हमारी आत्मा के अंश आत्मचेतना पर स्थापित है जिससे सूक्ष्म न कुछ है और न कुछ हो सकेगा। उस प्रकृतिसत्ता की कृति को तो देखिये कि इतने छोटे से आत्मतत्व को, जिसे सबसे सूक्ष्म और सबसे विराट माना गया है, उस सूक्ष्म में प्रकृतिसत्ता ने कितना सब कुछ सार भर रखा है कि आप चाहो तो उसे जाग्रत करके इस लोक ही नहीं, दूसरे लोकों का भी ज्ञान प्राप्त कर सकते हो। इस सौरमण्डल का ही नहीं, दूसरे सौरमण्डलों से भी सम्बन्ध स्थापित कर सकते हो। हमारे ऋषियों-मुनियों ने किया है। आप वह नहीं कर सकते तो कम से कम अपने आपको तो जान सकते हो। अपने आपको तो पहचान सकते हो। अपनी पूँजी को तो पहचान सकते हो। वास्तव में प्रकृतिसत्ता ने मुझे क्या पूँजी दी है? मेरी सोचने-समझने की शक्ति क्या दी है? मेरी चरम अवस्था क्या है? मेरी मूल शक्ति क्या है? मेरी मूल जननी कौन हैं? यह आप तभी जान सकेंगे, जब आप अपनी आत्मा को जान सकेंगे, पहचान सकेंगे, आत्मविजयी बन सकेंगे, आत्मावान बन सकेंगे और तभी सही मायने में हमें विजयपर्व मनाने का अधिकार होगा, अन्यथा समाज भ्रान्तियों में भटकता चला जा रहा है।
दशहरे के नाम पर दाण्डिया नृत्य किया जा रहा है। कोई पूजन-आराधना का भाव नहीं। सब सज-सँवर कर आते हैं, बस एक-दो लकड़ियाँ ले लेंगे और नाचने में पूरा ध्यान उधर ही रहता है, प्रकृति की ओर कोई ध्यान नहीं रहता। साधना- आराधना के मार्ग अलग होते हैं। प्रसन्नता के तहत कुछ क्षण के लिये नृत्य किया जाय तो बात अलग है। यह तो अपनी एक कला है। मगर नवरात्रि पर्व में उन्हीं चीजों को बढ़ावा देना शुरू कर दिया जाय, पूजन आराधना के क्रमों को सीमित कर दिया जाय, लोगों के अन्दर सोच न पैदा की जाय कि यह दशहरा पर्व हमें मिलता है सोचने-समझने के लिये! यह प्रवृत्ति उचित नहीं है।
व्रत-उपवास क्यों रहते हैं? कि कहीं न कहीं व्रत-उपवास रह करके हम अन्नमय कोष से थोड़ा सा अलग हट करके प्राणमय कोष की ओर जाते हैं। इन व्रत-उपवासों के माध्यम से ऋषि, मुनियों ने हमें वह मार्ग दिये हैं कि कुछ क्षण तो हमें ऐसे प्राप्त हों कि अन्नमय कोष को कुछ कम करके हम अपने प्राणमय कोष को सक्रिय करें, जाग्रत करें। प्राणमय कोष वालों की यह शक्ति सामर्थ्य है कि आप हजारों वर्षों तक भोजन न भी करना चाहें, यदि आपकी पूर्ण चैतन्यता, दिव्यता है, यदि आप किसी का स्पर्श न करें और अपने आप में चैतन्य अवस्था में रहना चाहें तो आपको किसी अन्न की आवश्यकता नहीं। आपका स्थूल शरीर भी उसी प्रकार रहेगा और आपका सूक्ष्म शरीर भी उसी प्रकार सक्रिय रहेगा।
उपवास का तात्पर्य है नजदीक वास करना। अपने आप के नजदीक, अपनी आत्मा के नजदीक जाने का प्रयास करना। जितना हम अन्नमय कोष में रहते हैं, उतना ही अधिक हम स्थूल जगत से जुड़ते चले जाते हैं। अतः व्रत-उपवास का भी मेरे द्वारा चिन्तन दिया गया है। कुछ जानकारियाँ अधिक से अधिक देना चाहूँगा जिनको प्राप्त करके आप आगे सन्तुलन का जीवन जी सकेंगे।
नवरात्रि के नौ दिन व्रत रहें और दिन में थोड़ा बहुत जो फलाहार कम से कम लेना चाहें, एक या दो बार ले लें जो बहुत नितान्त आवश्यक हो और सायंकाल आरती-पूजन करने के पश्चात्, सूर्यास्त के पश्चात् आपके घर में जो शुद्ध सात्विक भोजन है, उस भोजन को कर सकते हैं। दाल, चावल, नमक, रोटी सभी फलाहार हैं। केवल असात्विक भोजन नहीं होना चाहिये। इससे आपका व्रत ज्यादा सन्तुलित होगा। आपके जीवन में ज्यादा सन्तुलन प्राप्त होगा। अन्यथा वही होता है कि आप नौ दिनों तक एक-एक दिन गिनते हैं कि आज एक दिन पूर्ण हुआ, कल दो दिन और अब कितनी जल्दी नवमी तिथि आ जाय और कितनी जल्दी नौ दिन पूर्ण हों कि हम अन्य चीजों का सेवन करें। फलाहार में आप दो-दो सौ, चार-चार सौ, पाँच-पाँच सौ रुपये की चीजें एक-एक दिन में खा जाते हैं और फिर भी आपको तृप्ति नहीं मिलती। अतः दिन में आप व्रत रहें और सायंकाल आप तृप्ति का भोजन करें, आपको ज्यादा शान्ति और सन्तुलन प्राप्त होगा।
आप ऐसे तो दिन-दिन भर अपने पेट में भोजन भरते रहते हैं। एक के बाद एक इतना भोजन भरते चले जायेंगे कि आपको एहसास ही नहीं होता कि आपके पेट में भोजन भरने की कितनी क्षमता है? उससे भी कई गुना ज्यादा भरने का प्रयास करते रहते हैं और फिर अचानक व्रत रहेंगे कि नवरात्रि में हम निराहार व्रत रह रहे हैं, केवल एक लौंग लेकर रह रहे हैं, केवल पानी पी करके रह रहे हैं। ये व्रत आपको लाभ नहीं देंगे, बल्कि केवल नुकसान ही देंगे। चूँकि जिस तरह से सन्तुलन बना करके, सहज भाव से आज आपके शरीर की जो क्षमता है, उस तरह से चलेंगे तो कल्याणकारी होगा।
यदि आप किसी अखण्ड साधना में बैठ रहे हैं, मन्त्र जाप में बैठ रहे हैं, समाज में भौतिक जगत के कोई कार्य नहीं कर रहे हैं तो आप निराहार रह करके कर सकते हैं। चूँकि जब अखण्ड साधनायें हों तब निराहार रह करके साधना करना चाहिये या कम से कम भोजन लेना चाहिये। सामान्य अवस्था में जब आप रहेंगे तो जो आपकी रूटीन ढली रहती है और आप जब अचानक ऐसे व्रतों में जायेंगे तो आपका शरीर क्षीण होगा। आपके लीवर में कमजोरी आ जायेगी और जब आप भोजन पुनः शुरू करेंगे तो आपकी पाचन क्रिया बिगड़ चुकी होगी। अनेकों लोगों को देखते हैं कि महिलायें करवा चौथ का व्रत रहती हैं। करवा चौथ का व्रत रहेंगी, एक भी अन्न और जल नहीं ग्रहण करेंगी और दूसरे दिन जब चार बजे प्रातः से भोजन करेंगी तो उल्टियों के ऊपर उल्टियाँ करेंगी। अनेकों महिलायें तो अस्पताल में एडमिट हो जाती हैं। इन व्रतों के विधान किसी समय दिये गये थे, किन्तु आज केवल गुरुवार व्रत और कृष्ण पक्ष की अष्टमी के व्रत में सभी व्रतों का सार समाहित है।
मेरे द्वारा बताया गया है कि गुरुवार का व्रत यदि आप रह रहे हैं और केवल अष्टमी का व्रत रह रहे हैं तो अन्य किसी व्रत के रहने की आपको जरूरत नहीं है। यही दो व्रत केवल मैंने बताये हें कि वास्तव में अपनी आत्मचेतना को जाग्रत करने के लिये, सभी व्रतों का लाभ प्राप्त करने के लिये, अपने परिवार की सुख-शान्ति के लिये, आध्यात्मिक चेतना को प्राप्त करने के लिये गुरुवार का व्रत और कृष्ण पक्ष की अष्टमी का व्रत पूर्ण और परिपूर्ण होता है। मैं भी समाजकल्याण के लिये गुरुवार का व्रत रहता हूँ। कृष्ण पक्ष की अष्टमी को सिद्धाश्रम में साधनारत रहता हूँ। यज्ञ, अनुष्ठान के क्रम समाजकल्याण के लिये करता हूँ।
कृष्ण पक्ष की अष्टमी के व्रत में भी चिन्तन दिये गये हैं कि आप यदि किसी कारण से कृष्ण पक्ष की अष्टमी न रह सकें तो दूसरे दिन नवमी तिथि में व्रत रह सकते हैं। नवमी तिथि भी यदि छूट जाये या सफर में कोई ऐसी बात पड़ जाये, आप बीमार हों, अस्वस्थ हों तो चतुर्दशी को व्रत रह सकते हैं। इन तीन तिथियों का फल एक समान बताया गया है कि किसी कारण से अष्टमी न रह सकें तो दूसरे दिन नवमी को व्रत रह लें और अगर वह भी छूट जाता है तो चतुर्दशी में व्रत रह लें। उसमें भी व्रत दिन भर रहना है और सायंकाल सूर्यास्त के बाद माँ की साधना-आराधना करके भोजन प्राप्त कर लेना है। अगर आप यात्रा में कहीं पड़ जाते हैं तो केवल माँ का ध्यान-चिन्तन-स्मरण कर लीजिये और उसके बाद जो भी शुद्ध सात्विक भोजन मिले, उसे ग्रहण कर लीजिये।
अपने जीवन को जनकल्याणकारी बनाने का प्रयास करें। वास्तव में अगर आप माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा की कृपा प्राप्त करना चाहते हैं, अपनी कोशिकाओं को विकसित करना चाहते हैं, तो पूर्णत्व का विकास करना होगा। कभी आपके सामने लक्ष्मी की कमी आती है तो आप लक्ष्मी की आराधना करते हैं, ज्ञान की कमी आती है तो आप सरस्वती की आराधना करते हैं, शत्रुओं से प्रताड़ित होते हैं तो काली की आराधना करते हैं! आपके जीवन में समानता होनी चाहिये। तीनों शक्तियों को एक समान रूप से पूजना चाहिये। समान भाव से आराधना करनी चाहिये और मैंने माता महिषमर्दिनी के स्वरूप का पूजन करने का ज्ञान इसीलिये प्रदान किया है कि इसमें सभी देवी-देवताओं की आराधना-पूजन एक साथ हो जाता है, एक साथ फल प्राप्त हो जाता है और उस पूर्ण प्रकृतिसत्ता को आप इष्ट के रूप में स्वीकार कर लेते हैं। चूँकि हमारे अन्दर पूर्ण ब्रह्माण्ड, पूर्ण प्रकृतिसत्ता समाहित है। उसमें जब हम एक पक्ष की आराधना करते हैं तो उसमें दूसरा पक्ष हमारा टूटेगा, बिखरेगा जरूर और जब हम पूर्ण की देवी पूर्णत्व के इष्ट को स्वीकार करके उनकी साधना-आराधना करते हैं तो हमारा बहुमुखी विकास होता है। हमारी सुषुम्ना नाड़ी चैतन्य होने लगती है।
आज किसी की आराधना कर रहे हैं, कल किसी अन्य की आराधना कर रहे हैं। सभी देवी-देवताओं का आदर मान-सम्मान करो। आपके पास जो भी समय मिलता है, उनकी आराधना करना चाहते हो, कर सकते हो मगर जो मूल सत्य है, उस सत्य को स्वीकार करके उस सत्य को इष्ट के रूप में स्वीकार करो कि तुम्हारी आत्मा की जननी केवल माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा हैं जो अजन्मा, अविनाशी केवल एक सत्ता हैं। आपकी आत्मा भी अजन्मा, अविनाशी सत्ता है। तुम उसी प्रकृतिसत्ता के अंश हो। पहले उससे सम्बन्ध जोड़ लो, फिर समाज में जितनी चीजों की आवश्यकता हो, उतनी चीजें प्राप्त करते चले जाओ।
तुम्हारा एक लक्ष्य निर्धारित होना चाहिये और उस लक्ष्य को निर्धारित करने के लिये मैंने कहा है कि आपका बहुमुखी जीवन होना चाहिये। आत्मकल्याण और जनकल्याण के लिये नित्यप्रति चिन्तन करो। दोनों क्रमों में, आत्मकल्याण में हम स्थूल को सूक्ष्म से जोड़ने का प्रयास करते हैं और जनकल्याण में हम स्थूल से समाज को जोड़ने का प्रयास करते हैं कि हमारा दायित्व और कर्तव्य बन जाता है कि जिस तरह मेरे दोनो पक्षों में चिन्तन होते हैं, धर्म-आध्यात्म की ओर होते हैं और समाज सुधार की ओर भी होते हैं। चूँकि सभी के जीवन का धर्म और कर्तव्य होता है कि यदि हम समाज के बीच जीवन जी रहे हैं, हम समाज का भोजन कर रहे हैं, समाज के दायरे में जीवनयापन कर रहे हैं तो हमारी ऊर्जा, दोनों क्षेत्रों में दोनों ओर जब समान रूप से खर्च होगी, तभी हमारे जीवन में शान्ति, सन्तुलन और तृप्ति की प्राप्ति होगी। चूँकि हमें स्थूल की भी आवश्यकता है और सूक्ष्म की भी आवश्यकता है। हम किसी को नष्ट नहीं कर सकते। नष्ट करके हमें कुछ भी हासिल नहीं होगा।
अनेकों लोग व्रत-उपवासों में अपने शरीर को इतना अधिक तोड़ देते हैं कि जिसकी कोई कल्पना ही नहीं। हड्डियों के ढ़ाँचे दिखने लगेंगे। केवल भोजन छोड़ देने से आपको कुछ नहीं प्राप्त होगा, बल्कि इससे आपकी कोशिकायें नष्ट होती चली जायेंगी। आपके अन्दर आलस्य बढ़ता चला जायेगा। आपकी कार्य क्षमता घटती चली जायेगी। मैं चिन्तन इसलिये दे रहा हूँ कि यह नितान्त आवश्यक है। कई लोग भोजन छोड़ देते हैं कि हम निराहार व्रत रह रहे हैं। इतने साल से हम निराहार रह रहे हैं। केवल हड्डियों के ढ़ाँचे में अपने आपको परिवर्तित कर लेते हैं। आपके गुरू ने भी अनेकों बार अपने इस शरीर को हड्डियों के ढ़ाँचे के रूप में परिवर्तित किया है। मगर तब, जब 17-17, 18-18 घण्टे एक आसन पर बैठकर साधना करता था। हमें भोजन का त्याग तब करना चाहिये जब हम साधना कर रहे हों, अखण्ड अनुष्ठान कर रहे हों, पूजन कर रहे हों कि हमारे पास समय न हो, चूँकि हमको एकान्त बैठना पडे़गा। उस समय कम से कम पानी लेना चाहिये और कम से कम भोजन लेना चाहिये।
मैंने भी निराहार रह करके अखण्ड साधनाओं को पूर्ण किया है। हड्डियों के ढ़ाँचे के रूप में यह शरीर कई बार बना है। चूँकि मैंने समाज के बीच में ही उन साधनाओं को पूर्ण किया है। कहीं हिमालय और पर्वतों की बात नहीं कह रहा। मेरे आसपास रहने वाले लोगों को एहसास है, जानकारी है। मगर जब साधना पूर्ण होती थी तो फिर से शरीर को स्वस्थ बनाता था। चूँकि यह हमारा कर्तव्य है। हमारे ऋषि-मुनि भी यही करते थे कि पौष्टिक चीजों का सेवन करते थे। मगर आप हैं कि केवल एक ही प्रक्रिया में ढ़ल जाते हैं कि शरीर को बस कमजोर बना लेना है। अरे, शरीर के अन्दर हमारी कोशिकायें हैं। जब हम साधनायें कर रहे हैं तो साधना के लिये आवश्यक है कि अन्नमय कोष से अधिक से अधिक प्राणमय कोष में रहें। जब हम साधना के बाद समाज से सम्बन्ध स्थापित करते हैं, समाज के बीच रहते हैं तो अगर उस समय हमारा शरीर स्वस्थ नहीं है, चैतन्य नहीं है तो हमारी कोशिकायें नष्ट हो जायेंगी और फिर कभी हम उनको उजागर करना चाहें, उनमें चेतना भरना चाहें, प्राणवायु भरना चाहें तो प्राणवायु कभी भर ही नहीं सकेंगे। स्थूल को नष्ट करके हमारी चेतना कार्य किसके माध्यम से करेगी। आज समाज में होता है कि अनेकों लोग अपने शरीर को तोड़ करके बिल्कुल जर्जर बना लेते हैं और किसी लायक नहीं बचते।
एक-एक आसन में 17-17, 18-18 घण्टे बैठ करके मैंने उन सभी साधनाओं को सम्पन्न किया है। चूँकि मैंने समाज के बीच कार्य के लिये इस शरीर से उन्हीं साधनाओं को पूर्ण किया है। अनेकों लोग साक्षी हैं जो मेरे परिजन रहते थे, इस बात को जानते हैं। चौहान जैसे लोग जो दूसरी संस्थाओं में रहते थे, वहाँ से छोड़कर इसीलिये मेरे पास आये कि राजस्थान की तपती हुयी भूमि पर मैं प्रातः छः बजे से बैठ जाता था तो सायंकाल छः बजे, सात बजे आसन से उठता था, वह भी बिना एक बूंद जल ग्रहण किये हुये। दो-दो महीने, छः-छः महीने उन साधनाओं का एहसास मैंने समाज को कराया है। कुछ संस्थाओं में जा करके मैंने एहसास कराया कि कहीं न कहीं एहसास हो कि मैं किन क्षमताओं को लेकर समाज के बीच बैठा हूँ कि शायद उनकी आँखे खुल जायें और उनको कहीं न कहीं दिशा मिल जाये। मैं तो समाज के बीच आना भी नहीं चाहता था। समाज को अपना परिचय भी नहीं देना चाहता था। मैंने कई संस्थाओं में जा करके प्रयास भी किया। उनको बताया कि मेरी अपनी क्षमतायें क्या हैं? मैं चाहता हूँ कि आप लोग समाज से जुड़े हैं, आप अपने आपको समाज से पुजवाते रहो, मगर मैं जो कह रहा हूँ केवल उस विचारधारा को अपना लो। तुम मुझसे निर्देशित हो जाओ और तुम समाज को निर्देशित करते रहो। मगर वही है कि केवल अपना लाभ लेने का प्रयास! कुत्ते की पूंछ पोंगरी में डालकर चाहे जितना सीधा करने का प्रयास करो मगर उसको जब भी निकाला जायेगा, टेढ़ी ही रहेगी।
अनेकों लोगों ने मेरी साधनाओं का दुरुपयोग करने का प्रयास किया। उनको सब कुछ एहसास कराने के बाद भी उनके जीवन में परिवर्तन नहीं आया। बाध्य हो करके मुझे समाज के बीच आना पड़ा और अपनी पहचान बतानी पड़ी कि मैं कौन हूँ, क्या करने आया हूँ और क्या कर सकता हूँ? उसके बाद भी मैंने अपने आपको अधिक से अधिक एकान्त साधनाओं के लिये ही रखा है। चौहान जैसे लोग साक्षी हैं, मेरे परिजन, मेरे इष्ट मित्र साक्षी हैं। अशोक आहूजा (रायपुर, छ.ग.) जो भोजनालय में लगा होगा, शहडोल में मेरा मित्र रह चुका है। उससे मित्रवत् सम्बन्ध रहे हैं, जब तक मैंने इन वस्त्रों को धारण नहीं किया था। आज उसको आप देख सकते हैं कि नजदीकता, साधक चाहे बचपन में रह रहा हो या आज का जीवन जी रहा हो, उसकी ऊर्जा हमेशा कार्य करती है। जब मैंने व्यवसायिक क्षेत्र को भी चुना तो मैंने कभी भी परिवार का ऋण अपने जीवन में नहीं रखा। अपने जीवन को संचालित करने के लिये अपने कर्मबल से उपार्जित अपनी पूँजी के माध्यम से अपनी साधनायें भी करता था और अपने परिवार का और अपना जीवकोपार्जन भी करता था। वह नौकर, रामगोपाल यहाँ मौजूद है। आप उससे मिल सकते हैं कि विकास किस प्रकार होता है कि वह जो नौकर के भाव से रहता था, मैंने उसे नौकर कभी नहीं माना। हमेशा उसको छोटे भाई के समान स्थान देता था। मगर वह इज्जत, मान-सम्मान तब भी करता था। मैं उस समय तब धोती-कुर्ता पहनता था, दाढ़ी-बाल तब भी मैं रखता था, एक साधक का जीवन जीता था। नित्य सुबह-शाम मेरी साधना-आराधना के क्रम चलते थे। बीच-बीच में एक-एक, दो-दो महीने के लिये मैं अखण्ड अनुष्ठान में बैठ जाता था।
वह जब तक जितने सेवाभाव से रहता था कि हर पल जिस मान-सम्मान से कि अगर मैं कहीं बैठा रहूँ और अगर एक घण्टे, दो घण्टे, चार घण्टे भी गुजर जायें, अगर मैं नहीं कहता था तो हिलता तक नहीं था। रामगोपाल कहीं बाहर नहीं, यहीं पर है। आप उससे मिल सकते हैं कि नजदीकता का, सतसंग का प्रभाव क्या होता है? वह जो एक सेवाकार्य करता था, जब मैंने शहडोल का व्यवसाय बन्द किया तो साल भर उसने कहीं कार्य किया ही नहीं और बोला कि, ‘भइया जी, मैं कहीं कार्य करूँगा ही नहीं।’ चूँकि तब वह मुझे भइया जी कहा करता था। बोला, ‘भइया जी के यहाँ कार्य किया है तो मेरा कहीं और कार्य में मन लगेगा ही नहीं।’ तब वह जानता भी नहीं था कि मेरी अपनी साधनात्मक क्षमतायें क्या हैं? केवल मेरे जीवन को जानता था कि मैं किस तरह सात्विकता का जीवन जीता हूँ, किस तरह साधनात्मक जीवन जीता हूँ? वर्षों बाद फिर मैंने उसको आशोक आहूजा के साथ लगाया। आज वही जो एक सामान्य सा जीवन जीता था, मजदूरी का जीवन जीता था, जिसकी अपनी कोई पहचान नहीं थी, जिसकी अपनी कोई सामर्थ्य नहीं थी, आज वह उसी गाँव का प्रधान बना बैठा है। अशोक आहूजा जो बचपन से ले करके आवश्यकता से अधिक आर्थिक तंगी का शिकार था। शहडोल में रहता था। अधिकतर लोग जानते हैं कि परिवार का बोझ उसके ऊपर था। किस प्रकार से संचालन करता था? आज रायपुर में वह एक सफल व्यवसायी है। तो यह तो तब के सम्बन्ध थे। सरपंच जी आज भी मेरी यात्रा से जुड़े हुये हैं। यह तब से हैं, जब मैं इस रूप में भी नहीं था।
आज तो मेरा आपका सम्बन्ध शिष्य और गुरु के रूप में जुड़ा हुआ है। यदि वास्तव में आप उस सत्य को समझ लोगे, उस विचारधारा से अपने सम्बन्धों को जोड़ लोगे तो न आपका भौतिक जगत का विकास पथ रुकेगा, और न आध्यात्मिक पथ रुकेगा। केवल विचारधारा अपनाकर चलने की आवश्यकता है। विचारशक्ति उत्पन्न करने की जरूरत है। एक निष्ठा और विश्वास पैदा करने की जरूरत है कि हमको अपने सूक्ष्म को भी संभालना है और अपने स्थूल को भी संभालना है। मैंने कहा है कि ‘काया महाठगिनि मैं जानी।’ काया महाठगिनी है, हमको इसको ठगना है, इसको लूटना है। इसको सख्त बनाओ, चैतन्य बनाओ और साधना में बदल दो, जनसेवा में बदल दो। इसका जितना उपयोग कर सको, कर लो। इसको भोग-विलास के लिये तन्दुरुस्त मत बनाओ, भोग-विलास के लिये सुन्दर मत बनाओ, भोग-विलास के लिये चैतन्य मत बनाओ। इसको बार-बार साधना में तपाओ और बार-बार चैतन्य बनाओ। इसको बार-बार उपयोग करो कि इसको खिला-खिला करके तन्दुरुस्त करेंगे और इसका जनकल्याण में उपयोग करेंगे। अपने शरीर को कमजोर करने की जरूरत नहीं है। आत्मकल्याण और जनकल्याण की भावना अपने अन्दर पैदा करो। एक सोच पैदा करो कि हमें सत्यपथ पर चलना है। सत्यपथ के राही बनना है। हमें अपने आपको पहचानना है और जनकल्याण के लिये अपनी पूरी क्षमता को लगाने का प्रयास करना है।
अनेकों प्रकार के चिन्तन दिये गये हैं कि अपने घर में माँ का ध्वज लगाओ। जिस घर में माँ का ध्वज लगा रहता है, वहाँ मेरी नित्य की साधना का संकल्प रहता है कि जिस घर में माँ का ध्वजा लगा होगा, घर के लोग नशामुक्त, माँसाहारमुक्त जीवन जी रहे होंगे तथा नित्य साधनाक्रम का पालन कर रहे होंगे तो उनके परिवारों के कल्याण के लिये मैं अपनी नित्य की एकान्त की साधना को समर्पित करता हूँ।
मैंआपको अनेकों बार एहसास करा चुका हूँ कि जब भी मैं शिविर सम्पन्न कराता हूँ, दीक्षा प्रदान करता हूँ या विशेष आशीर्वाद दे करके जाता हूँ तो उसके बाद उन कष्टों को मुझे अपने शरीर में भोगना पड़ता है। मेरे नजदीक रहने वाले शिष्य हर बार देखते हैं। अन्य साधू-सन्त-संन्यासी समाज के बीच जाते होंगे, शिष्यों के, समाज के बीच रुकते होंगे तो उनका दो-चार किलो वजन और बढ़ जाता होगा और मैं चाहे बाहर शिविर करने जाऊँ या आश्रम में शिविर का आयोजन करूँ, आप परीक्षण कराकर कभी भी देख सकते हैं कि मेरे शरीर में चैतन्यता का क्या प्रभाव आता है? मैंने वैज्ञानिकों को चुनौती दी है कि देखें मेरे शरीर में एकाग्रता का क्या प्रभाव आता है? इसी शरीर को मैं फूल के समान कोमल और निर्मल बना लेता हूँ और इसी शरीर में समाज के कितने कष्टों को आत्मसात् कर लेता हूँ?
मैं समाज के कष्टों को अपने ऊपर लेता हूँ और माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा की मुझ पर एक विशेष कृपा है कि उन कष्टों से माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा मुझको सदैव मुक्त कर देती हैं। आज आपके बीच बैठा हूँ, चैतन्य अवस्था में बैठा हूँ। मैं हर पल जब आता हूँ अपने आपको लुटा देना चाहता हूँ। चूँकि आशीर्वाद दे देना एक अलग बात है, ऊर्जा के माध्यम से कुछ कार्य कर देना एक अलग बात है, मगर जन-जन में अपनी आन्तरिक चेतना को, अपनी तपस्या को बाँट देना अलग बात है। उसके बाद शरीर में एक रिक्तता आती है, सुषुम्ना नाड़ी में एक ऐंठन आती है चूँकि वास्तव में आत्मचेतना इसलिये होती ही नहीं है। मेरी साधनायें मेरे अपने लिये हैं। मेरी अपनी दिव्यता के लिये हैं कि मुझे किस प्रकार कार्य करना है, किस प्रकार आनन्द प्राप्त करना है, किस प्रकार समाज से व्यवहार करना है? मगर अपने आनन्द का त्याग करके, अपनी शान्ति का त्याग करके, अपनी तृप्ति का त्याग करके मैं समाज में वह ऊर्जा विसर्जित करता हूँ।
आज प्रातः जिस समय मैं दीक्षा दे करके गया था, इसी स्थान से जाते समय अभी दोपहर में भी शिष्यों ने देखा कि जब यहाँ से दीक्षा दे करके गया, तब मैं तीव्र बुखार में था। एक घण्टे रजाई ओढ़ करके मुझे लेटना पड़ा, तब कहीं जा करके मैं अपने आप को संभाल सका। यह एक बार नहीं, इन चीजों के अनेकों बार मैं प्रमाण दे चुका हूँ। अनेकों लोगों को, मैंने घातक बीमारियों को अपने शरीर में लेने का एहसास कराया है। जिस समय मैंने उनको स्पर्श किया, वही बुखार मेरे शरीर में एक मिनट के अन्दर मैंने तत्काल उनको दिखाया। यहाँ ज्वाला जी बैठे हैं। जब उनकी पत्नी की तबियत गंभीर स्थिति में थी, तब मैंने मात्र एक यन्त्र धारण कराया और तत्काल जब उधर एक ओर उनको लाभ मिल रहा था, तभी दूसरे पल इधर मैं बिस्तर में था। चूँकि जब किसी को लाभ दिया जाता है तो उसका प्रभाव शरीर में लेना ही पड़ता है और प्रभाव लेने में तत्काल उस चीज का प्रभाव आपके शरीर में आयेगा ही आयेगा, मगर आपकी ऊर्जा शक्ति का, सुषुम्ना नाड़ी का प्रभाव होता है कि धीरे-धीरे करके वह प्रभाव समाप्त हो जाता है, क्षय हो जाता है, नष्ट हो जाता है।
मैं तो उसे माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा की कृपा ही मानता हूँ कि समाज के जितने अवगुणों का मैं पान करता हूँ, माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा की कृपा से मुझे सदैव उन सभी चीजों से मुक्ति मिल जाती है। ये सामान्य क्रियायें नहीं हैं। एक साधक किस प्रकार से क्रियायें करता है कि आप लोगों के लिये 17-17, 18-18 घण्टे साधनामय जीवन जी करके समाज के बीच कार्य किये जा रहे हैं। यदि उनको समझ जाओगे तो यहाँ की ऊर्जा के प्रति आपका लगाव स्वतः हो जायेगा और सिर्फ वह आत्मीयता का सम्बन्ध जिस समय जुड़ जायेगा तो आप यहाँ का लाभ प्राप्त करने लगोगे और आपकी समस्यायें स्वतः दूर होने लगेंगी।
मैंने कहा है कि आपको दोनों पक्षों में एक संकल्प लेना है कि आप आत्मावान बनेंगे और समाजसेवक बनेंगे। आत्मकल्याण करेंगे और जनकल्याण करेंगे। नवधा भक्ति में अपने आप को रत रखेंगे। ये छोटे-छोटे बच्चों में जो आप लोग देखते हैं कि इनमें गीत गाने का भाव, एक तड़प, एक भाव, विचार, मन-मस्तिष्क की एकाग्रता देखो कि उन क्षणों में एक छोटा सा बच्चा अपने आपको एकाग्र कर लेता है। आप सभी लोगों के अपने विचारों पर, अपने भावों पर यदि इसी प्रकार का भाव समाज में जाग्रत होता चला जायेगा तो समाज में फिर सूर, तुलसी, मीरा और रैदास पैदा होंगे। समाज में फिर भक्ति का युग आयेगा। शक्ति चल करके फिर हमारे पास आयेगी तथा भक्ति और शक्ति का संयोग हो जाये, भक्ति और शक्ति का संगम हो जाये तो समाज तो सुखमय बन ही जायेगा, समाज को सुख प्राप्त हो ही जायेगा।
आपको हर पल सुधार करने की जरूरत है, हर पल नित्य अपने अवगुणों से मुक्त होने की जरूरत है कि धीरे-धीरे आप अपने आप को अपने अवगुणों से अलग कर लें। सद्गुणों को ग्रहण करें। यही तो साधना है, यही तो आराधना है। हम प्रकृसित्ता से क्या चाहते हैं, यह सोचना छोड़ दो। यह सोचने की जरूरत ही नहीं है कि हम प्रकृतिसत्ता से क्या चाहते हैं। अरे, प्रकृतिसत्ता ज्ञानवान है, सामर्थ्यवान है। क्या हमें प्रकृतिसत्ता को बताने की जरूरत है कि हम उसे बतायें कि माँ ऐसा कर दो, माँ वैसा कर दो। फिर भी कभी आपके भाव पक्ष जाग्रत होते हैं तो एक बार, दो बार वह चिन्तन रख दो। प्रकृतिसत्ता हमसे क्या चाहती है? अगर यह नहीं जान पाते कि प्रकृतिसत्ता हमसे क्या चाहती है, नहीं समझ पाते, नहीं सुन पाते, तो कम से कम इतना तो समझ ही सकते हो कि प्रकृतिसत्ता ने जो कुछ सामर्थ्य तुम्हें दी है, आत्मा की पवित्रता दी है, आत्मा की चैतन्यता दी है तो वह विनाश के लिये नहीं दी है। प्रकृतिसत्ता ने जो सामर्थ्य दी है, वह सन्तुलन के लिये दी है कि हर पल तुम अपने आपको जान सको, अपने आपको पहचान सको और प्रकृतिसत्ता से सम्बन्ध बना कर रह सको। यह तो सहज भाव है कि प्रकृतिसत्ता ने जो कुछ दिया है, उसको सम्भालने का कर्तव्य और धर्म तो आपका होना ही चाहिये। यह धर्म और कर्तव्य तो बनता ही है।
आपका पिता अगर आपको एक लाख रुपये व्यवसाय के लिये देता है तो वह सोचता है कि आप वह एक लाख तो सुरक्षित रखोगे ही और इस एक लाख से एक लाख, दो लाख, दस लाख, बीस लाख या करोड़ों रुपये बनाओगे, तो प्रकृतिसत्ता को इतना तो मान लो कि उसकी इतनी अपेक्षा तो आपसे होगी ही कि मैंने जैसा तुमको बनाया है तो कम से कम वैसा तो बराबर बन कर रह जाओ। मगर तुम केवल एक पक्ष पर, एकपक्षीयता में समाज ढ़लता चला जा रहा है, दूसरा पक्ष विखरता चला जा रहा है। आप भूलते चले जा रहे हैं कि दृश्य जगत के कितना नजदीक अदृश्य जगत मौजूद है। आप उस अदृश्य जगत का एहसास भूल जाते हैं। चिन्तन भूल जाते हैं। अपने आपकी पहचान भूलते चले जा रहे हैं और जब अपने आपकी पहचान भूल जायेंगे तो समाज में ठोकरें खायेंगे ही। उन ठोकरों से यदि बचना है तो अपने आपको पहचानना सीखो। अपनी जननी को पहचानना सीखो। सत्य से सम्बन्ध स्थापित करना सीखो। सत्य का सान्निध्य प्राप्त करो। सतोगुणी प्रवृत्ति को जाग्रत करो। रजोगुण और तमोगुण को सतोगुण के आधीन कर दो। अपने अन्दर भक्ति का भाव पैदा करो। प्रकृतिसत्ता के प्रति अपने अन्दर दासत्व भाव पैदा करो। अपने अन्दर पुत्रत्व भाव पैदा करो और आत्मकल्याण के लिये ही प्रकृतिसत्ता के चरणों में निवेदन करो। प्रकृतिसत्ता से मांगो तो भक्ति, ज्ञान और आत्मशक्ति ही मांगो।
नित्य जिस तरह भोजन करते हो, उसी तरह नित्य साधना-आराधना आपके लिये आवश्यक है। यदि नित्य साधना-आराधना आप नहीं करेंगे तो बाहर के वातावरण का प्रभाव आपके ऊपर पड़ता है और वह वातावरण आपको प्रभावित कर देता है। चूँकि जिस तरह के वातावरण में आप रहोगे, उस तरह का आपके ऊपर प्रभाव पड़ता है। किसी मन्दिर के सात्विक वातावरण में चले जाते हो, आपको आनन्द व तृप्ति मिलने लगती है, आपकी सतोगुणी प्रवृत्ति जाग्रत होने लगती है। किसी अश्लील नृत्य को देखने लगोगे तो आपके अन्दर अश्लीलता का भाव आता चला जायेगा। माँ को आप माँ के रूप में देखते हो, नारी का वही स्वरूप है। नारी एक माँ है, एक बेटी है, एक बहन है, एक पत्नी है। आपके अन्दर जैसा भावपक्ष पैदा होता है, वैसे ही आपके अन्दर विचार उत्पन्न होते जाते हैं और उसी तरह की कार्यप्रणाली आपके अन्दर उत्पन्न होती जाती है। उसी तरह की तृप्ति आपके अन्दर पैदा होती है और उसी तरह के सम्बन्ध आपके पास पैदा हो जाते हैं। सब भावों का खेल है। यदि भावों को आपने संभाल लिया, सत्य को सत्य के रूप में स्वीकार कर लिया, अपने अन्दर भावपक्ष पैदा कर लिया, अपने अन्दर भक्ति पैदा कर ली तो आपको तृप्ति मिलेगी, शान्ति मिलेगी, आनन्द मिलेगा। केवल उस विचारधारा को ग्रहण करने की जरूरत है।
एक संकल्पित जीवन जीने की जरूरत है। संकल्पवान बनने की जरूरत है, साधक बनने की जरूरत है और इसीलिये मैंने रक्षाकवच आपके गले में धारण कराया है, मस्तक पर कुंकुम का तिलक लगवाया है। यह वह रक्षाकवच है कि यदि कोई विशेष परिस्थिति है तो मैंने कहा है कि ऐसा कोई जॉब पड़ता है, तो रक्षाकवच अपनी जेब में रख सकते हैं। बच्चे विद्यालय जाते हैं तो उनके बस्ते में रख सकते हैं। आपका कोई ऐसा कार्यालय है, विभाग है जहाँ आप रक्षाकवच डाल कर नहीं जा सकते, तो आप अपनी जेब में डाल कर रखें। मगर जब आप घर में रहें या बाहर रहें तो रक्षाकवच को ससम्मान गले में डाल कर रखें। ससम्मान अपने घर में माँ का ध्वज लगा कर रखें। ये छोटी-छोटी क्रियायें हैं मगर इनमें वह सार छिपा है कि जिसके लिये आप नाना प्रकार के तन्त्र प्रयोग के लिये कभी किसी तान्त्रिक के पास जाते हैं, कभी किसी मान्त्रिक के पास जाते हैं, कभी किसी को हाथ दिखाते हैं। आपके गुरू ने आप सभी लोगों को वह मार्ग दिया है कि केवल इसी मार्ग में चलकर आपका कल्याण छिपा हुआ है, अन्यथा कभी कोई ज्योतिषाचार्य आपको लूटेगा तो कभी कोई टैरोकार्ड वाले आपको लूटेंगे। आप टी.वी. चैनल में नित्य देखते होंगे कि टैरोकार्ड रीडर बने होंगे जो बिल्कुल ताड़का के समान अपनी वेशभूसा बना लेंगे, नाना प्रकार के तन्त्र-मन्त्र-यन्त्रों को धारण कर लेंगे और बस ताश के पत्तों से आपका भविष्य बताने की बात करेंगे। इस प्रकार के अनेकों लुटेरे समाज के बीच बैठे हुये हैं, इनसे सजग होने की जरूरत है।
सहज भाव का जीवन जियो। ज्योतिष गणना एक महत्वपूर्ण गणना है मगर आज ज्योतिष के नाम पर सब तरफ लूट मची है। धर्म पर लुटेरों ने अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया है। आप लोगों को उनका पर्दाफाश करना है और जिस राजनीति क्षेत्र से आप जुड़े हुये हो, उसको भी मुक्त कराने की सोच अपने अन्दर उत्पन्न करना है। अन्यथा राजनेता उनको बुलायेंगे और वे उनको दीर्घायु की कामना देंगे कि मन्त्री जी की दीर्घायु हो, इनको लम्बी आयु मिले। आप अनेकों बार मंचों में देखते-सुनते होंगे कि अनेकों योगाचार्यों द्वारा, अनेकों धर्माचार्यों द्वारा, कि कोई मन्त्री जब उनके मंच पर आता है तो उसको बिठाया जायेगा, उसका माल्यार्पण कराया जायेगा और उनकी दीर्घायु की कामना करेंगे। मैं कहता हूँ कि विजयदशमी के दिन रावण का वध करो या न करो, पुतले जलाओ या न जलाओ, मगर हो सके तो वर्ष में एक बार माँ के चरणों में यह संकल्प किया करो कि हे माँ, अगर हो सके तो देश के जितने राजनेता हैं, उनमें कम से कम 90 प्रतिशत राजनेता जो आज अपने आप को क्रीम कहते हैं, जितने उद्योगपति जो अपने आप को सामर्थ्यवान कहते हैं, जिन्होंने अनीति-अन्याय-अधर्म से अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया है, बड़ी-बड़ी वो हीरोइनें, फिल्मी एक्टर जो नग्नता का प्रदर्शन करते हैं, उन धनकुबेरों को, उन राजनेताओं को जहाँ मैं कहता हूँ कि 10 प्रतिशत से ज्यादा सच्चाई के लोग नहीं मिलेंगे, तो शेष 90 प्रतिशत लोगों के लिये माँ के चरणों में प्रार्थना करो कि हे माँ! ये सब अल्पायु हों। ये सब जल्दी ही यमराज को प्यारे हों। चूँकि वास्तविकता सत्य यही है कि यदि इनका अस्तित्व समाप्त हो जाय तो समाज में सुधार अपने आप आ जायेगा।
दीर्घायु की कामना उन्हीं की करें जो वास्तव में समाजसेवक लग रहे हों। लग रहा हो कि हाँ इनके रहने से समाजसुधार हो रहा है। लग रहा हो कि इनके रहने से समाज का हित हो रहा है, अन्यथा ऐसे अन्यायी-अधर्मियों के लिए तो मैं कहता हूँ कि ऐसे लोग दुर्घटनाओं के शिकार हों, ऐसे लोग समस्याओं से ग्रसित हों। इनको तो इसी तरह का आशीर्वाद देना चाहिये। अगर कल्याण का भाव करना है तो आम लोगों के प्रति करें जिनको आज आवश्यकता है। दीर्घायु का आशीर्वाद उनको दो, जो समाजसेवक हैं व जो समाजसेवक बन सकते हैं।
विजयदशमी पर्व पर आपको संकल्पित जीवन जीना चाहिये। सत्य के साथ जीवन जीने का प्रयास होना चाहिये। आप संकल्प लें कि हम विजयदशमी पर्व पर संकल्प लेते हैं कि सदैव सत्य का सहारा लेकर जीवन जियेंगे, सत्य के पथ पर चलेंगे। असत्य, अनीति-अन्याय-अधर्म से अपने आपको दूर रखने का प्र्रयास करेंगे। अपनी पूरी क्षमता लगायेंगे। हमें प्रकृतिसत्ता ने आज जो यह सौभाग्य प्रदान किया है, यह सौभाग्य हम नित्यप्रति जाग्रत रखेंगे। पुनः एक संकल्प लेने का प्रयास करेंगे कि पुनः-पुनः आ करके माँ के इस स्थान पर बैठने का सौभाग्य प्राप्त करेंगे। हम पुनः माँ के चरणों की आराधना कर सकें। हमारी पुनः भूख मिट सके। हम ऐसे भक्ति के संगम में, तृप्ति में, आनन्द में अपनी आत्मा को चैतन्य बना सकें। जिस तरह के आनन्द में तीन दिनों की आरती में आपने अपने आपको रत रखा, आपका ध्यान एकाग्र रहा। कुछ न कुछ आपके अन्दर सन्तुलन आया। यही सन्तुलन आपके कार्यों को सही गति प्रदान करने के लिये आपको ऊर्जा प्रदान करेगा।
समाज में सब कुछ फैला पड़ा है। आपको केवल अपनी सोच और आखों को खुला रखने की आवश्यकता है। जहाँ मैंने कहा है कि जीवन रूपी रथ के दो पहिये हैं, एक योग का और दूसरा ज्ञान का। आप अपने स्थूल शरीर को किस प्रकार चैतन्य रखें, इस पर ध्यान रखना है। किस तरह का भोजन करना है, किस तरह का भोजन नहीं करना है, इस पर ध्यान रखना है। कुछ योगिक क्रियायों को अपने साथ जोड़कर चलें। अपने ज्ञानपक्ष को, अपने विवेक को जाग्रत करके चलें। नित्य धर्म-आध्यात्म की कुछ न कुछ चीजों को पढ़ें, श्रवण करें, इससे आपका ज्ञानपक्ष तथा विवेक जाग्रत होगा। चूँकि यही आपके पास माध्यम हैं कि गुरू के विचारों को सुने, समझें और जानें। इससे आपकी आत्मचेतना चैतन्य होगी, जाग्रत होगी और धीरे-धीरे जब आपके अपने अन्तःकरण से सम्बन्ध जुड़ता चला जायेगा तो आत्मज्ञान में सब कुछ ज्ञान समाहित है। मुझे किसी शास्त्र, उपनिषद् और ग्रन्थों को स्पर्श करने की भी जरूरत नहीं रहती, फिर भी सभी शास्त्र, उपनिषदों का ज्ञान मेरे अन्दर समाहित रहता है। विजयदशमी पर्व पर आपके अन्दर एक संकल्प होना चाहिये कि अनीति-अन्याय-अधर्म से अपने आपको दूर रखेंगे। अपने आप पर विजय प्राप्त कर लेंगे। अपने काम, क्रोध, लोभ, मोह पर अपना नियंत्रण होना चाहिये। आपकी अपनी पकड़ होनी चाहिये। इनका उपयोग किस प्रकार से करना है, पूर्व के चिन्तनों की कैसेटों में मेरे द्वारा चिन्तन दिये जा चुके हैं।
सिद्धाश्रम पत्रिका के माध्यम से मेरे विचार सभी क्षेत्रों में आप लोगों को, समाज को मिलते रहेंगे। एक किसी की छोटी सी चिट प्राप्त हुयी थी कि गुरुदेव जी इस पत्रिका में लिखा हुआ है- ‘विश्व की एकमात्र आध्यात्मिक पत्रिका‘ तो इसका अर्थ क्या है? कुछ लोग कहते हैं कि आध्यात्मिक पत्रिका तो अनेकों हैं, इसलिये यह नहीं लिखा होना चाहिये। मैंने कहा कि वह अज्ञानी हैं जिनके अन्दर इस तरह की सोच भी पनपती है। फिर उन्होंने मुझको समझा ही नहीं। न उन्होंने मुझे समझा, न मेरे विचारों को समझा और न उस पत्रिका में लिखे हुये शब्दों को कभी पढ़ा है। चूँकि पढ़ना दो प्रकार का होता है। एक बार बस आप शब्दों को पढ़ते चले जाते हैं और एक बार समझने का प्रयास करते हैं कि यह पत्रिका आपको किस दिशा की ओर खीच रही है। इस पत्रिका से हमें एक ऋषि की वाणी मिल रही है, हमें साधक बनने के लिये विचार मिल रहे हैं, जो आज तक इस धरती पर किसी भी पत्रिका में नहीं मिलेंगे। इस पत्रिका से प्राप्त एक ऋषि की वाणी, एक ऋषि के शब्द, एक ऋषि के विचार जो आपको एक दिशा दे देंगे, वे अन्यत्र नहीं मिलेंगे।
मैंने पूर्व में चिन्तन दिया था कि एक पुस्तक की मेरी एक छवि मात्र ने एक लड़की को, जो घर से आत्महत्या के लिये निकली थी, मात्र पुस्तक पर उसकी निगाह मेरी छवि पर पड़ गई और उस छवि ने उसको आकर्षित करके मेरे स्थान तक खीच लिया और आत्महत्या का उसका विचार बदल गया था। मेरी विचारधारा के रूप में पत्रिका में वो तो जाग्रत शब्द हैं, उनमें विचारशक्ति भरी हुई है। उन विचारशक्तियों को यदि आप ग्रहण करोगे तो वह पत्रिका समाज के आप जैसे गृहस्थ व्यक्तियों के लिये, साधू-सन्त-संन्यासियों के लिये और योगियों के लिये भी उपयोगी है। मैं भौतिकतावाद के जीवन की ओर आप लोगों को नहीं खीच रहा हूँ। वह पत्रिका आपको आध्यात्म की ओर खीचती है। एक विचार देती है, एक चिन्तन देती है। अन्यथा धर्म-आध्यात्म के नाम पर धर्माचार्य-योगाचार्य समाज को केवल लूट रहे हैं, ठग रहे हैं। मैं खुले मंचों से कहता हूँ कि मैं उन्हें केवल लुटेरों की निगाह से देखता हूँ। वे समाज के लुटेरे हैं। समाज को दिशा नहीं दे रहे हैं। देखने में लग रहा होगा कि वो दिशा दे रहे हैं मगर वास्तव में उनकी नीव सत्य पर आधारित नहीं है। वह दिशा कहीं न कहीं समाज को भ्रमित अवश्य करेगी।
अनेकों योगाचार्य पैदा हो जायेंगे जो शिविर शुल्क लगा-लगा करके योग सिखायेंगे और योग के नाम पर अपनी आयुर्वेद की दुकानें चलायेंगे। समाज के पैसे से आयुर्वेद की बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियाँ लगायी जायेंगी और फैक्ट्रियों पर अपना व्यवसाय चलेगा, जो कि केवल आयुर्वेद तक ही सीमित नहीं रहेगा। भारत के मान-सम्मान की जो बातें करते हैं, वो यहाँ के अन्न को दलिया के रूप में विदेश भेजेंगे, तो कभी किसी रूप में विदेश भेजेंगे। लोगों को सब्सिडी नहीं मिल रही और वो करोड़ों-करोड़ों की सब्सिडी हजम कर जायेंगे। यही समाज के बीच हो रहा है कि हाथी के दाँत खाने के कुछ और, दिखाने के कुछ और। समाज के बीच कुछ हैं और बाहर कुछ और हैं। आपका गुरू एक समान जीवन जीता है। जैसा आपके सामने जीवन जीता है, वैसा ही बाद में जीवन जीता है, उसी तरह सभी जगह जीवन जीता है। जो कहता है, उस पर अमल करता है और करता भी वही है।
समाज को दिशाभ्रमित किया जा रहा है कि हाथ उठाओ-फोटो खिंचाओ और फोटो हमारे पास भेज दो, आपकी गरीबी दूर हो जायेगी। विदेशियों को तो लुटेरे कहा जा रहा है और जब ऐसे लोग भी उसी तरह के समाज में कार्य कर रहे हों, तो उन्हें क्या कहा जाना चाहिये? एक के बाद एक उद्योग स्थापित करते चले जा रहे हो और कह रहे हो कि हम तो समाज का कल्याण कर रहे हैं! यह समाज में दिशाभ्रमित अनेकों धर्माचार्यों, योगाचार्यों द्वारा हो रहा है। एक परम्परा विकसित हो गई है। कोई योगाचार्य समुद्र के जहाज में योग लगा रहा है तो कोई कथावाचक समुद्र के जहाज में कथा सुना रहा है। एक परम्परा बन गयी है कि समुद्री जहाज में पर्यटन भी करने जाओ, कथा भी सुनो, योग भी सीखो, शराब भी पियो और मांस भी खाओ। वहीं एक तरफ योग सिखाया जाता है और एक तरफ भोगवाद की सब चीजें चलती हैं। गाना, डान्स, शराब सब होता है। वही लोग एक तरफ योग सीखते हैं और बाद में जाकर शराब पीते हैं।
मुझसे जुड़ने वाले हर शिष्य को संकल्पित कराया जाता है और संगठन के सदस्यों को सूचना देकर रखा जाता है कि यदि कभी भी देखो कि कोई भी व्यक्ति नशा करते नजर आता है तो या तो उसे समझाओ कि तत्काल संकल्प लेते हुये गलती मानने के लिये तैयार हो और तभी उसे माफ करो, अन्यथा उसका रक्षाकवच छीन लो। अरबों-खरबों की सम्पत्ति दान देने वाला व्यक्ति भी अगर कह दे कि मैं आश्रम के कमरे में बैठकर बियर पी लूँ तो मेरे द्वारा कभी अनुमति नहीं दी जा सकती, पैर से ठोकर मार दिया जायेगा। मगर वहीं धर्माचार्य-योगाचार्य जानते हैं कि ये कितने अधर्मी-अन्यायी हैं, जानते हैं कि ये किस तरह समाज से पैसे लूट-लूट कर शोषण कर रहे हैं, ये जानते हैं कि मेरे सामने जो बैठे हैं किस तरह गांजा चिलम चढ़ाते हैं, वो जानते हैं कि ये शराब पीते हैं, किस तरह ऐय्यासी करते हैं, इनके बच्चे किस तरह की ऐय्यासी का जीवन जीते हैं मगर उनकी किस तरह खुशामदी की जाती है, वह आप लोग खुली आँखों से देखा करें और अगर जरा सा विवेक जाग्रत हो तो इन सभी लोगों से, इन सभी लुटेरों से आपको कौन बचा पायेगा? तो बचा सकती हैं माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा। बचा सकता है आपका सहज स्वरूप कि आप अपने सहज स्वरूप को प्राप्त करें।
भगवती मानव कल्याण संगठन का गठन इसीलिये किया गया है कि माँ के संगठन से जुड़ करके अपना आत्मकल्याण करें और जनकल्याण की शक्ति अपने अन्दर अर्जित करें। आज यही संगठन में हो रहा है कि एक असमर्थ से असमर्थ व्यक्ति, एक गरीब से गरीब व्यक्ति जिसकी समाज में अपनी कोई पहचान नहीं थी, संगठन के माध्यम से जनकल्याण का कार्य करते चले जा रहे हैं। हजारों, लाखों, करोड़ों में उनकी पहचान है। यह तो अभी प्रथम चरण है। भगवती मानव कल्याण संगठन की विचारधारा को यदि अपनाकर चलेंगे, प्रकृतिसत्ता की आराधना करेंगे, भगवती मानव कल्याण संगठन के साथ कदम से कदम मिलाकर चलेंगे, जहाँ-जहाँ संगठन का गठन है, वहाँ के पदाधिकारियों की एक आवाज पर उठ खड़े होने के लिये तैयार होंगे तो धीरे-धीरे समाज में परिवर्तन निश्चित रूप से आता चला जायेगा।
मेरे द्वारा ‘शक्तिजल’ आपकी अपनी समस्याओं के निदान के लिये आशीर्वादस्वरूप प्रदान किया जाता है। वह आश्रम से निःशुल्क दिया जाता है। मैं चाहता तो उसके हजारों-हजारों रुपये शुल्क रख सकता था। लाख, दस-बीस लाख चाहे जो शुल्क रख देता, फिर भी समाज उसे लेने के लिए बाध्य होता। किन्तु, वह मेरे द्वारा निःशुल्क दिया जाता है। शक्तिजल ले जाओ और गंगाजल मिलाकर चाहे जितना बढ़ाकर रख लो और नित्य पान करो। शक्तिजल से आपकी आत्मचेतना भी चैतन्य होगी और भौतिक जगत की आपकी समस्यायें भी दूर होंगी। वह शक्तिजल यहां से निःशुल्क बंटवाया जाता है। बार-बार यही कहा जाता है कि अगर घट जाये तो बार-बार मेरे आश्रम न आते रहें, उसमें गंगाजल मिलाकर बढ़ाते रहो एवं खुद पियो और दूसरे को भी पिलाओ। माँ का ध्वज यदि आपके घर में लगा हुआ है तो मेरी साधना का संकल्प आपके साथ जुड़ जाता है।
आश्रम की मेरी एक विचारधारा यहाँ के वातावरण को केवल चैतन्य करने के लिये रहती है और समाज के वातावरण को चैतन्य करके दोनों का संयोग करा देने के लिये है। मात्र यदि आप मेरी विचारधारा को स्पर्श कर जायेंगे, एहसास कर जायेंगे तो साधक की प्रवृत्ति अपने आप उत्पन्न होती चली जायेगी। आपको केवल संगठन की विचारधारा को अपनाकर चलना है, संगठन के साथ जुड़कर चलना है। महाआरतियों के लाभ का क्रम भी मैंने इसीलिये प्रदान किया है कि जिन-जिन जिलों में मैंने संगठन का गठन कर रखा है, वहाँ हर महीने एक महाआरती होती है। मैं चाहता हूँ कि समाज अधिक से अधिक लाभ प्राप्त कर सके, क्योंकि मैं जानता हूँ कि मुझसे जुड़ने वाला 90 प्रतिशत समाज आर्थिक तंगी का शिकार है। उसे बार-बार आश्रम न आना पड़े, इसलिये आश्रम में जो नित्य सुबह-शाम आरतियां होती हैं उस एक आरती का लाभ वहाँ आपको अपने जिले में अपने घर बैठे ही प्राप्त हो जायेगा, यदि आप महाआरती का लाभ लोगे। उन क्रमों में चलो तो, बढ़ो तो। यही तो साधना है, यही तो जीवन है कि वास्तव में अगर आपको सत्य की विचारधारा नजर आती है तो उस पर चलो।
मेरे द्वारा कहा जाता है कि पांच साल का बच्चा भी यदि मुझे एहसास करा देगा और कह देगा कि गुरुदेव जी आपके द्वारा यह गलत किया जा रहा है, इसमें समाज का हित नहीं, अहित है और समाज मुझे बता दे तो मैं पांच साल के बच्चे के आगे भी अपना सिर झुकाकर उस बात को स्वीकार कर लूंगा। यदि किसी के अन्दर भ्रान्ति हो तो मेरे पास आये, बताये और समझे। हर पल मेरी सोच, हर पल मेरी तड़प, हर पल मेरा रोम-रोम समाजकल्याण के लिये समर्पित है। मैं संकल्पित हूँ। मैंने अपनी, जो कुछ साधनायें थीं, उनको पूर्ण करने के पश्चात माँ के चरणों में संकल्प लिया था कि मेरा शेष जीवन हर पल समाजकल्याण के लिये समर्पित रहेगा, जनकल्याण के लिये समर्पित रहेगा। मेरी एक पल की भी साधना, मेरे इस जीवन के साथ न जुड़े, मेरी तृप्ति के साथ न जुडे़, बल्कि जो मेरी अन्दर की तृप्ति है, मैं उस ऊर्जा को बार-बार जाग्रत करके अपने आपको समाज में विसर्जित करता चला जाऊँ और इस जीवन में जो भी साधना करूं, उसका पूरा फल समाज को प्राप्त हो। इसलिये मैं कहता हूँ कि जब आप मेरे सम्मुख आ करके बैठ जाते हैं तो मैं कुछ बोलूं या न बोलूं, हर क्षण आप मुझसे कुछ न कुछ प्राप्त कर रहे होते हैं। मैं जब अपने लिये साधना करता था, तब भी उसी निष्ठा-विश्वास के साथ करता था और जब आज आपके लिये करता हूँ तो भी उसी प्रकार अष्टमी के हवन, यज्ञ आदि के क्रम करता हूँ।
नित्य प्रातः ढ़ाई से तीन बजे के बीच उठता हूँ। मेरी साधनायें नित्य चलती हैं। नित्य उसी तरह सुबह-शाम के पूजन का क्रम रहता है। ये सभी क्रियायें मैंने आपको अनेकों बार बताई हैं। मैं चाहता हूँ कि आप प्रातः ढ़ाई-तीन बजे नहीं उठ सकते तो कम से कम सूर्योदय से पहले जरूर उठें। सूर्योदय से पहले उठने की आदत डालें कि कम से कम सूर्योदय के समय जब मैं अपने पूजन कक्ष में पूजन पूर्ण करने बाद, अपनी योगिक क्रियायें पूर्ण करने के बाद पूजन करने के लिये चालीसा भवन में आता हूँ, जिस चालीसा भवन में चालीसा पाठ के क्रमों से मैंने समाज को जोड़ा है तो कम से कम आप उतने समय निद्रा अवस्था में न हों। अगर आपका शरीर किसी बहुत घातक बीमारी से ग्रसित है तो उस परिस्थिति को केवल छोड़कर यह क्रम अवश्य अपनायें। चूँकि सूर्योदय के होते-होते मैं चालीसा भवन में आता हूँ तो आप कम से कम सूर्योदय के पहले ही जग जायें और स्नान कर लें तो उत्तम है और अगर पूजन में बैठे हैं तो अति उत्तम है। इतना पहले तो जगने का प्रयास अवश्य करें। पूर्व में होता था कि शिष्य पहले जगते थे, गुरू बाद में जगते थे। आज आपका गुरू अपने शिष्य के लिये पहले जग रहा है और शिष्यों से कह रहा है कि तुम बाद में जगो। तुमको कोई तकलीफ न हो, परेशानी न हो, मगर उतनी तकलीफ तो सहनी ही पड़ेगी कि यदि इतनी भी तकलीफ तुम नहीं सहोगे तो मेरी ऊर्जा को प्राप्त नहीं कर सकोगे। इतना तो आपको करना ही पड़ेगा।
आपका गुरू आपके लिये, आपके कल्याण के लिये, अपने शरीर को तपाता है, नष्ट करता है और यह संकल्प लिये बैठा है कि मैंने माँ की स्थापना करने से पहले यहाँ अपने आप की स्थापना की है। इस शरीर के रूप में, इस चेतना के रूप में मेरा कोई पुनर्जन्म नहीं होगा। मैं इस शरीर के त्याग करने के बाद भी सूक्ष्म जगत में रहकर इस आश्रम के सेवा कार्यों में रत रहूंगा। माँ के चरणों से समाज को आशीर्वाद दिलाने के लिये सतत् प्रयासरत रहूंगा। इसीलिये मैं कह रहा हूँ कि यह पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम विश्व की वह धर्मधुरी बनेगी कि आने वाला समाज एहसास कर सकेगा। आप लोग सौभाग्यशाली हो कि जहाँ पर अभी किसी चीज का स्थाई निर्माण नहीं हुआ है, उस काल में तुम्हें यहाँ बैठने का सौभाग्य प्राप्त हो रहा है। अपने अन्दर एक तड़प पैदा करो कि अगर हमें यह सौभाग्य प्राप्त हो रहा है तो यह हमें हमारे संस्कारों से प्राप्त हो रहा है और यह संस्कार हमें जन्म-जन्मान्तर तक बराबर मिलते चले जायें।
अपने छोटे-छोटे बच्चों को एक सही दिशा दो, अन्यथा वो नशे के शिकार होंगे, गलत मार्गों में जायेंगे, भटकाव में जायेंगे। कोई नशा करेगा, कोई ऐय्यासी में पैसा लुटायेगा, कोई राक्षसी प्रवृत्ति में जायेगा। एक रावण का वध कर देने से, एक रावण का पुतला जला देने से क्या होगा? महानगरों में देखो, हजारों-लाखों रावण बैठे हैं। शाम होते ही उनकी रातें रंगीन होने लगती हैं। यही कार्य राक्षस किया करते थे। दिन भर पड़कर सोते थे, रात होते ही उनकी चेतना जाग्रत हो जाती थी और सुबह चार-पांच बजे ब्रह्ममुहुर्त में फिर जा करके सो जाते थे और वही सब आज समाज कर रहा है। पहले सुबह सात बजे दुकानें खुल जाती थीं, फिर आठ बजे, फिर नौ बजे खुलने लगीं। अब कोई सामान लेना है तो कहते हैं कि अरे ग्यारह बजे के पहले तो कोई आता ही नहीं है, ग्यारह बजे के पहले मार्केट में जा करके क्या करेंगे? रात्रि को ग्यारह-ग्यारह, बारह-बारह बजे तक जगेंगे। रात में बारह-एक बजे के पहले सोते ही नहीं।
ब्रह्ममुहुर्त, जो चैतन्यता का मुहुर्त होता है, जो हमें आरोग्यता प्रदान करता है, जिस समय सूर्य की किरणें ओजोनपर्त से होकर आ रही होती हैं, जिनका हम लाभ ले सकते हैं, जो उस वातावरण में चेतना तरंगें रहती हैं, उन चेतना तरंगों में यदि आप सुप्त अवस्था में लेटे हों व आपकी कोशिकायें चैतन्य अवस्था में न हों, जाग्रत अवस्था में न हों तो आपकी वही चेतना दबती चली जायेगी। जिस प्रकार मैंने कहा है कि हमारे अन्दर मन की शक्ति होती है, आत्मशक्ति होती है, उसी तरह इस वातावरण की शक्ति होती है। जिस तरह से मैंने कहा था कि यदि स्वच्छ पानी को गन्दे पाइप में डालोगे तो गन्दगी निकलेगी। उसी तरह यदि जाग्रत अवस्था में उस एनर्जी को लोगे तो वह जाग्रत कोशिकायें और जाग्रत होती चली जायेंगी और सुप्त अवस्था में उस एनर्जी को लोगे तो वह एनर्जी आपकी कोशिकाओं को और सुप्त बनाती चली जायेगी।
दृश्य से परे अदृश्य में अलौकिक क्षमतायें भरी पड़ी हैं। हमारे ऋषियों-मुनियों ने चीख-चीख कर इनके बारे में बताया है, इनका ज्ञान दिया है। आज तुम्हें भी उन चीजों को ग्रहण करने की जरूरत है, आत्मसात् करने की जरूरत है। अपने जीवन में हर पल सुधार करने की जरूरत है। सहज भाव से, सामान्य भाव से बड़ी-बड़ी घटनायें टल जाती हैं। यदि आपके अन्दर चिन्तन हो, विचार हो तो बड़ी-बड़ी दुर्घटनायें टल जाती हैं। जिस तरह मैं कह रहा हूँ कि मैं इस तरह के सैकड़ों प्रमाण दे चुका हूँ कि किसके साथ कब और क्या घटना होगी? मैंने अनेकों बार बताया है कि मेरी निगाहों से कुछ भी छिपा नहीं है। हस्तरेखा का जो ज्ञान मुझे है, अगर इस धरती पर किसी के पास हो तो मैं कह रहा हूँ वह सामने आये। उन चीजों के प्रमाण मैंने एक नहीं, अनेकों बार दिये हैं।
मैं कई संस्थाओं में गया। उनको चिन्तन देने, उनको अपनी शक्ति का एहसास कराने कि उनको कहीं न कहीं एहसास हो जाये तो समाज में वो दिशाधारा दे दें। बृजपाल चौहान जैसे शिष्य जो ऐसी संस्थाओं में उलझे पड़े थे, इनको भी कहीं न कहीं वहाँ से निकालना था और जब मैं एक साधक के रूप में रहता था तो वहाँ पर मेरी साधनाओं को, मेरे अपनेपन को देखा और उन संस्थाओं से खिंचकर आज यहाँ आप लोगों के बीच सेवाकार्यों में लगे रहते हैं। राजस्थान में जब मैं रह रहा था, तब की एक घटना है। बृजपाल चौहान यहां मौजूद है। उस घटना के विषय में आप उससे मिल सकते हैं। वहाँ एक अपने आपको बहुत बड़ा हस्तरेखा विशेषज्ञ कहते थे। एक हस्तरेखा विशेषज्ञ के रूप में ही रहते थे। वहाँ रोज सैकड़ों पत्र आते थे तथा जवाब में सैकड़ों पत्र रोज लिखाये जाते थे कि तुम्हारी हस्तरेखा यह कह रही है, तुम्हारे साथ यह होगा, तुम्हारे साथ वह होगा। वहीं दिल्ली से किसी व्यक्ति का पत्र आया था, जिसमें उस व्यक्ति के हाथों की फोटोग्राफ भी साथ में थी। उन हस्तरेखा विशेषज्ञ ने फोटो को देखा और बोले कि बहुत सुन्दर हाथ है, बड़ी सुन्दर हस्तरेखा है। इस व्यक्ति के तो बहुत अच्छे योग हैं। भौतिकता में इसको बहुत सुख-शान्ति के योग होंगे, विदेश जाने के योग होंगे। अतः इस व्यक्ति को पत्र लिख दो कि विदेश जाने के आपके बहुत अच्छे योग हैं, गृहस्थ जीवन तुम्हारा बहुत सुखमय होगा, तुम धनवान बनोगे, तुम्हारे बहुत अच्छे योग हैं।
उन हस्तरेखा विशेषज्ञ ने जैसे ही इतना कहा तो मैंने तत्काल दूर से ही टोकते हुये कहा कि रुको, जो कुछ तुम लिखाने जा रहे हो, वह सब गलत लिखाने जा रहे हो। जबकि मैं कम से कम वहाँ से बीस-पच्चीस फिट की दूरी पर था। वहाँ कम से कम चार-पांच व्यक्ति जो आज मेरे शिष्य हैं, उस समय उस संस्था में थे। मैंने कहा रुको। मैं जो कुछ देख रहा हूँ कि जिस व्यक्ति को तुम बहुत अच्छा कह रहे हो, वह व्यक्ति सबसे बड़ा दुर्भाग्यशाली व्यक्ति है। मैंने कहा, उसका पूरा जीवन अशान्त है। उसी लिफाफे में जिससे आपने फोटो निकालकर लिखाना शुरू कर दिया है, उसी में एक छोटा सा पत्र अन्दर पड़ा होगा। उसको पढ़ो, उसमें सबकुछ लिखा भी होगा। मैंने कहा, यह व्यक्ति बड़ा दुर्भाग्यशाली है। इसके विदेश जाने के योग तो छोड़ दो, इसकी पत्नी ही इसकी हत्या कभी भी कर सकती है। यह अपनी पत्नी से अशान्त है और आत्महत्या करने का विचार बना चुका है। और, जब पत्र खोलकर पढ़ा गया तो जो-जो शब्द मैंने कहे थे, वही सभी परिस्थितियां उस व्यक्ति ने अपने पत्र में वर्णित की थीं। बृजपाल चौहान यहाँ मौजूद है, आप उससे पूछ सकते हैं। ये उस समय की घटनायें हैं, जब मैं इन साधनात्मक वस्त्रों को धारण नहीं करता था।
मैं कई जगह विचरण करने गया। हरिद्वार में भी कई संस्थाओं को एहसास कराने गया कि अगर किसी के अन्दर शक्ति हो तो वह आगे आये या मेरी शक्ति का एहसास करना चाहे तो केवल अपनी दिशा बदल ले। कुछ संस्थाओं को मैंने चिन्तन दिया। कुछ संस्थाओं में जा करके देखा कि किस तरह से समाज का शोषण किया जाता है? किस तरह से भावनावानों को लूटा जाता है? एक तड़प पैदा हुई कि जब तक मैं स्वतः समाज के बीच में उपस्थित नहीं होउंगा, सामने नहीं आऊंगा, समाज को दिशा नहीं दूंगा, समाज को अपनी पहचान नहीं बताऊंगा कि मैं कौन हूँ, किसलिये आया हूँ, तब तक समाज को दिशा नहीं मिलेगी? जब तक अधर्मियों-अन्यायियों के खिलाफ खुलकर आवाज नहीं उठाऊंगा, तब तक समाज में सुधार नहीं आयेगा।
मैंने कहा है कि प्रकृति का सब कुछ सार हमारे अन्दर समाहित है। सब कुछ आइने की तरह खुला है। यदि आपके ज्ञानचक्षु जाग्रत हो जायें, यदि आपका तीसरा नेत्र जाग्रत हो जाये, आपकी आत्मचेतना जाग्रत हो जाये, आपका आज्ञाचक्र जाग्रत हो जाये तो सब कुछ खुला पड़ा है। आप सहजता का जीवन जियेंगे, सहजता से शक्ति आपके अन्दर आती चली जायेगी। अनेकों इस तरह की घटनायें आती जाती हैं और निकलती चली जाती हैं। अभी आज सुबह की ही एक घटना है, चूंकि मैंने कहा है कि जब मैं समाज के कार्य करता हूँ तो कुसंस्कार कई बार मेरे आस-पास विपरीत घटनायें घटित करने का प्रयास करते हैं।
आज सुबह संध्या की एक बहुत बड़ी दुर्घटना होते-होते टली। गाड़ी कुछ दूर आगे खड़ी थी और चूंकि मुझे दीक्षा देने के लिये आना था, अतः चौहान ने जल्दबाजी में आ करके गाड़ी को स्टार्ट करके तेजी से बैक करके लगाने का प्रयास किया कि दरवाजे के पास ले आऊं। लेकिन उसी क्षण संध्या गाड़ी में बैठने के लिये आगे बढ़ चुकी थी और मुड़कर पीछे ज्योति को बुलाने लगी। संध्या का ध्यान ही गाड़ी की ओर नहीं था और चौहान ने देखा कि गुरुजी अन्दर से निकलने वाले होंगे और पीछे तो खाली जगह देख करके गया था, अतः गाड़ी को तेजी से बैक किया तो संध्या को पूरी जोर से ठोकर लगी। तब तक मैं आगे आ करके खड़ा हो चुका था।
एक क्षण का अन्तर था। गाड़ी के टायर से संध्या की दूरी मात्र एक फिट ही बची थी। अब मेरे पास दो परिस्थितियां थीं कि मैं संध्या को खींचकर बचाने का प्रयास करूं या गाड़ी रोकूं? मगर तत्काल वही, जो मैंने कहा है कि यदि आपका विवेक जाग्रत हो तो आप एक क्षण में वह निर्णय ले सकते हैं जो तत्काल प्रभावी हो जाता है। संध्या बिल्कुल टायर के सामने गिरी थी और जिस तरह गिरी थी कि एक क्षण मात्र के अन्दर ही एक फिट के दायरे में गाड़ी का टायर सिर से चढ़ जाता। मैंने कहा है कि जो सजग शिष्य रहता है उसका ध्यान हमेशा गुरु की तरफ रहता है। मैंने चिन्तन किया कि उसे गाड़ी के पीछे अगर केवल मेरी छवि दिख जायेगी तो गाड़ी को अपने आप रोक देगा। चूंकि जो सजग शिष्य रहता है यदि उसके आस-पास के दायरे में भी कहीं गुरु हो तो उसका एहसास अपने आप जाग्रत हो जाता है। उसने केवल मुझे गाड़ी के एकदम नजदीक खड़े देखा कि शायद अब अगर एक इन्च भी गाड़ी पीछे जायेगी तो गुरुदेव जी को टच हो जायेगी। अतः गाड़ी उसने रोक दी और संध्या बच गयी, जबकि उसे काफी तेज ठोकर लगी थी।
इस तरह की कई बड़ी-बड़ी घटनायें हैं। चूंकि वही घटना कहीं न कहीं घटनी थी और इस तरह की बड़ी-बड़ी घटनायें सामान्य रूप से निकल जाती हैं। ऐसी अनेकों घटनाएं एक क्षण में निकल कर चली जाती हैं मगर आप उनका एहसास ही नहीं कर पाते। अगर किसी ज्योतिषाचार्य को एहसास करना हो, किसी हस्तरेखा विशेषज्ञ को देखना हो तो आज के उन क्षणों पर उसी समय वह एक योग, जीवनयोग में पड़ा होगा कि किस समय एक दुर्घटना होगी जिसमें एक निर्धारित चोट आ सकती है। यही नहीं, मेरे साथ अशोक आहूजा जिसे मैंने अपने जीवन के बारे में एक घटना बतायी थी। जब मैं शहडोल में रहता था, व्यवसायिक क्षेत्र में रहता था, उस समय मेरे पास एक एच.डी. मोटरसाइकल रहा करती थी। मैं उसी में सफर किया करता था और उसकी डिग्गी में मेरा एक कोटेशन ‘‘लक्ष्य पर पहुंचे बिना, ऐ पथिक विश्राम कैसा’’ भी लिखा रहता था। मैंने उसको एक तिथि पहले से बता रखी थी कि अशोक, इस तारीख को मेरे साथ एक दुर्घटना घटित होने वाली है और वह बड़ी दुर्घटना है। मेरे जीवन में जुड़ी हुयी है और उसको किसी तरह से टालना है तो आपस में तय करके हुआ कि तीन-चार दिन पहले ही मोटरसाइकल को रख दिया जाय कि जब मोटरसाइकल उपयोग में ही नहीं ली जायेगी तो दुर्घटना होगी ही नहीं।
अपने आवास से उस संस्थान तक पैदल आने का क्रम तीन-चार दिन पहले से ही बन गया। मैं इन परिस्थ्तिियों से कभी भी विचलित नहीं था मगर एक विचार कि लोगों ने कहा कि ऐसा किया जाय तो मैंने कहा ठीक है। अगर गाड़ी से दुर्घटनाग्रस्त होने के योग हैं तो मैं गाड़ी रख देता हूँ। मैं प्रातः नित्यप्रति पूजन के बाद माँ के ध्यान में रत रहता था। कभी भी इन दुर्घटनाओं का एहसास ही नहीं रहता था मगर चूंकि लोगों को बता दिया था कि घटना घटित होनी है जबकि मैं खुद भूल चुका था और उस समय मैंने साइकल से सफर करना शुरू कर दिया था। लोगों का कहना था कि मोटरसाइकल आप रख दीजिये क्योंकि जब आप खुद कह रहे हैं और ऐसे योग हैं कि किसी बडे़ वाहन या मोटरसाइकल से दुर्घटना के योग हैं तो सावधानी आवश्यक है। एक दिन अपने आवास से जब उस जगह पर आया तो सब लोगों ने देखा कि उसी समय पूरी क्षमता से आ रहा एक स्कूटर बेकाबू हो गया और वह इतनी तेज टकराया कि साइकिल मरोड़ कर एक कोने में लग गयी। मैं गिरा और एकमात्र छोटी सी खरोंच लगी। एक या दो बूंद खून निकला होगा। बड़ी घटना, सामान्य सी होकर निकल गयी।
मेरे जीवन में कब, कहाँ और क्या होना है? सब पता है। ये योग होते हैं। लोगों ने उस स्कूटर चालक को पकड़ा और मारना शुरू कर दिया। मैंने उसको बचाया कि उसे जाने दो। यह सब काल प्रेरित है। जब जहाँ जो घटना होनी है, वह होती ही है। उसे मारने-पीटने से कुछ नहीं होगा। मेरे साथ कुछ नहीं हुआ है। लोगों ने कहा कि यह साइकिल तो बनवा ही देगा। बगल में साइकिल की दुकान थी और उसी दुकान की वह साइकिल थी। मैंने कहा, कुछ भी हो मगर कम से कम उसको कोई हाथ नहीं लगायेगा। ये स्वाभाविक घटनायें हो जाती हैं कि कौन किसके माध्यम से किससे कहाँ टकरायेगा, किसके साथ क्या होगा? यह सब सुनिश्चित है। हम आप सभी पात्र हैं और हमारे पास वर्तमान है। यदि वर्तमान हमारे हाथ में है, वर्तमान में हम सतमार्गी हैं तो बड़ी से बड़ी घटनायें भी सामान्य होकर निकल जायेंगी। इस तरह के अनेकों प्रमाण हैं। एक-दो नहीं, मैं अगर उन घटनाओं को बताना प्रारम्भ करूं तो उस तरह आज भी हजारों लोग जगह-जगह पर लाभ प्राप्त करते रहते हैं मगर मैं उस तरह की प्रत्यक्ष घटनाओं से बचने का प्रयास करता रहता हूँ।
एक-दो घटनायें नहीं, हजारों घटनायें हैं। जब जहाँ चाहा गया, बरसात की गयी, जब जहाँ चाहा गया, बरसात रोकी गयी। मगर यह मेरा आये दिन का क्रम नहीं है कि थोड़ी बरसात होने पर आप कहें कि गुरुदेव जी, बरसात रुक जाये! अरे, प्रकृतिसत्ता तो हर पल हमारी मदद करती है, बस हमें विपरीत परिस्थितियों में कार्य करने की आवश्यकता है। संघर्षों के बीच जीवन जीने की क्रिया सीखनी चाहिये। आंधी आये या तूफान, आपको केवल सत्यपथ पर सजगता के साथ, पूर्ण निष्ठा और विश्वास के साथ बढ़ना है। भौतिक जगत के आंधी और तूफान आपका क्या नुकसान कर पायेंगे? जो नुकसान हो रहा है, होने दो। अपने सत्यपथ पर बढ़ते रहो। तुम लक्ष्य तक निश्चित रूप से पहुँच जाओगे। प्रकृति तुम्हारी सहायिका बन जायेगी।
साधना-आराधना चमत्कारों के लिए नहीं होती। कई बार छोटे-मोटे चमत्कार या छोटी-मोटी घटनायें इसलिये कर दी जाती हैं कि मेरे शिष्यों की आस्था व विश्वास बरकरार रहे। साधना लोगों के जनकल्याण के लिये होती है। प्रकृति जहाँ, जिस परिस्थिति में रखे, उस परिस्थिति में रहते हुये कार्य करने के लिये साधना होती है। इस तरह की अनेकों परिस्थितियां हैं कि जब जहां जैसा वातावरण चाहा जाये, वैसा मोड़ा जा सकता है, वैसी दिशा दी जा सकती है।
भगवती मानव कल्याण संगठन से जुड़कर, भगवती मानव कल्याण संगठन के निष्ठावान कार्यकर्ता बनकर उस दिशा में आप गोते लगा सकते हो। हर बार यह मत सोचो कि संगठन में जब गुरुदेव जी का आदेश आयेगा, तभी हम अमल करेंगे। गुरुदेव जी के जो प्रतिनिधि हैं, नियुक्त पदाधिकारी हैं, वे अगर कोई आवाज दें तो उस आवाज के साथ अपनी आवाज मिलाओ। एक आवाज में उठ खड़े हो। उनके साथ खड़े नजर आओ। इस पर मत विचार करो कि वह सही कदम उठा रहा है या गलत कदम उठा रहा है। चूंकि जो कदम उठ रहा होगा, वह सत्य पर आधारित होगा। उनके साथ सिर्फ तुम्हें चलना है और यदि उसमें तुम अपना विवेक लगाने लग जाओगे तो उसी तरह, जिस तरह मैंने कहा है कि जो घटना रामखेलावन शुक्ल जी के साथ घटित हो चुकी है कि अगर वो अमल करते तो उससे बचत हो जाती। ज्वाला जी हैं, पैर से परेशान रहते हैं और मैं कह देता हूँ कि यहाँ रहो तो यहाँ रहते ही उनको लाभ मिल जाता है। मगर समाज की परिस्थितियों से बाध्य हैं। समाज के बीच जाना पड़ता है।
एक बार काफी समय पहले एक डॉक्टर ने ज्वाला जी को एक दवा दिलाई। मैंने कहा कि यह दवा नशे की है जो तुम लेते हो। इस दवा को छोड़ दो। यह दवा तुम्हारे लिये घातक है। डॉक्टर बताते नहीं हैं कि हम कौन सी दवा दे रहे हैं और कितनी नुकसानदायक है। जब मैंने वह दवा छुड़वाई तो इनको दौरे पड़ने लग गए। लगता था कि बिल्कुल प्राणान्त हो जायेगा। लोग घबड़ाये हुये बोले कि गुरुदेव जी कुछ कीजिये। अब ये बचेंगे नहीं और आपने दवा भी बन्द करवा दी है। मैंने कहा इनके साथ कुछ नहीं होगा। दो-चार दिन के अन्दर अपने आप पूरी तरह से सामान्य अवस्था में आ जायेंगे। एक बार नहीं, कई बार मैंने वह लाभ दिया कि चलने फिरने लगे। सब तरह से लाभ मिल जाता है। लाभ किसी को भी दिया जा सकता है मगर दिया तभी जाता है जबकि ऊर्जा का उसी तरह से उपयोग किया जाये। जब मार्ग में चलोगे तो किसी भी प्रकार का लाभ प्राप्त कर सकते हो। दूसरे भी प्राप्त करते हैं आप भी प्राप्त कर सकते हो।
एक विचारशक्ति पैदा करो। माँ के आराधक बनो। भगवती मानव कल्याण संगठन के नियमों का पालन करो, निर्देशों का पालन करो। कायरता का त्याग कर दो। मानसिक रूप से जो नपुंसकता तुम्हारे अन्दर है कि मैं अनेकों शिष्यों को देखता हूँ कि मुझसे जुड़ करके भी, मेरे शिष्य हो करके भी कई बार आप भयग्रस्त नजर आते हो। छोटी-छोटी समस्यायें आ जाती हैं तो विचलित हो जाते हो। चेतनावानों का जीवन जियो। कायरों के समान अपने घरों में छिप करके मत बैठो। जनचेतना फैलाने में लगो। जनजागरण में अपनी शक्ति लगाओ। संगठन के जहाँ कार्यालय खुले हैं, वहाँ अपना कुछ समय दो। वहाँ से निर्देशन लो और उनमें अमल करो। तभी आप गुरु की विचारधारा से जुड़ सकोगे। चूंकि आज मैं हर शिष्य को अलग-अलग बैठा करके समझा नहीं सकता। आप सभी मुझसे मिलना चाहते हो और मैं हर पल आप लोगों से मिल ही तो रहा हूँ। प्रत्यक्ष रूप से और अप्रत्यक्ष रूप से भी जब रहता हूँ, मैं अपने एक पल को भी नष्ट नहीं होने देता, जबकि आप जानते हैं कि मेरा समय कितना सीमित दायरे में है। निरर्थक की चर्चाओं में बैठे व बात करते हुये आज तक कभी किसी ने मुझे देखा नहीं होगा। अपने ही कक्ष में जो दो-तीन कमरे बने हैं, उनमें ही एक कमरे से दूसरे कमरे में जाने का वक्त नहीं रहता। साधना कक्ष, मिलन कक्ष या अपने आवास स्थान में ही समय देता हूँ। केवल इसलिये कि समाज को लाभ मिले, एक दिशा मिले।
संगठन के कार्यकर्ता जो निर्देशन दिया करें, उन निर्देशनों के आधार पर कार्य किया करें। वे निर्देशन यहाँ से निर्देशित रहते हैं और कोई बात आपको ऐसी लगती है कि यह निर्देशित हें या नहीं तो यहां रहने वाले बृजपाल चौहान, आशीष शुक्ला, प्रमोद तिवारी या इन्द्रपाल आहूजा ’सरपंच जी‘ ये सब यहाँ मेरे नजदीक रहते हैं, इनमें से किसी से भी जानकारी ली जा सकती है। आधी रात को भी यदि सूचना दी जाती है तो इनके द्वारा किसी न किसी माध्यम से मेरे पास तक सूचना पहुंचा दी जाती है। हर व्यक्ति यह अपेक्षा न रखा करे कि गुरुदेव जी हमारे फोन को अटेण्ड करें। मेरे पास इतना समय नहीं है। मैं उन गुरुओं में नहीं हूँ कि दो-दो, तीन-तीन मोबाइल अपने गले में टांगे फिरूं। जायें और देखें जब कुम्भ आदि होते हैं तो अनेकों तान्त्रिक-मान्त्रिक मिल जायेंगे जो दो-दो, तीन-तीन मोबाइल गले में टांगे होंगे। एक से उद्योगपतियों से बात करने के लिये, दूसरे से राजनेताओं से बात करने के लिये और तीसरे से आम समाज से बात करने के लिये तीन-तीन मोबाइल टांगे होंगे।
मैं इन चीजों से बचने का प्रयास करता हूँ। केवल एक घण्टे सायंकाल समय देता हूँ और वह भी जब सक्रिय कार्यकर्ताओं को निर्देशन देना होता है या किसी कार्यकर्ता को मुझे कोई बात बताना जरूरी होता है। अगर आप लोग कोई बात बताते हैं या सूचना देते हैं तो सूचना तत्काल मुझ तक पहुंचायी जाती है। आप यह न सोचा करें कि हमारी सूचना गुरुदेव जी तक पहुंची होगी या नहीं। कई बार मैं फोन ऑन कराकर आप लोगों की बातें, आप लोगों की समस्यायें सुन लेता हूँ और फिर भी आप कहते हैं कि हमें गुरुदेव जी से बात करा दीजिये। जबकि शिष्य कहते रहते हैं कि भइया कोई बात हो तो बता दीजिये, हम गुरुदेव जी तक आपकी बात पहुंचा देंगे। मैं जानता हूँ कि मैं फोन उठा करके बात करने लगूंगा तो मैं जो दूसरा कार्य कर रहा होता हूँ, वह भी बाधित हो जायेगा और फिर तुम मुझसे एक घण्टे बात करोगे। जबकि वही बात शिष्यों के माध्यम से तुम मात्र एक मिनट में बता दोगे और मुझे जो आशीर्वाद देना होता है, वह मैं दे देता हूँ।
आपके पत्र आ जाते हैं। मैं किसी भी पत्र का वापसी जवाब नहीं देता। अनेकों पत्र आते हैं कि गुरुदेव जी हमने आपको चार पत्र भेजे, आप एक पत्र का जवाब दे दीजिये, हम आपके पत्र का इन्तजार करेंगे। मेरे पत्रों का इन्तजार करने की जरूरत नहीं है। आपके पत्र मेरे पास ही आते हैं और मेरे द्वारा ही खोले जाते हैं। आपकी समस्याओं पर मैं गहराई से ध्यान देता हूँ और मुझे जितना आशीर्वाद आपको देना होता है, उतना आशीर्वाद दे देता हूँ। मगर यदि मैं किसी के पत्र का जवाब लिखने में बैठ जाऊँगा तो मेरा वक्त इसी में निकल जायेगा। आप अपनी समस्यायें एक चेतनावान गुरु के पास लिखकर भेज देते हो तो आपका कर्तव्य पूर्ण हो जाता है। यहाँ से क्या निर्देशन मिलते हैं, उनमें केवल आपको अमल करने की जरूरत है। वर्ष में एक बार तुम आते हो, मुझसे मिलो या न मिलो, मुझसे अपनी समस्यायें बताओ या न बताओ, केवल माँ के मूलध्वज में जाकर अपनी जो भी समस्यायें हैं, वह माँ के चरणों में रख दो और मैं नित्य की साधनायें ध्वज में संकल्पित करता हूँ कि जो जिन समस्याओं को लेकर आता है तो उसकी समस्याओं के समाधान में मेरी जितनी ऊर्जा सहयोगी हो सके, सहयोगी बने।
माँ के चरणों में समस्यायें बता दोगे या मेरे पास आकर समस्यायें बता दो, बात एक ही है। शेष समय जब भी आप आते हो, मैं मिलने का समय बराबर देता हूँ। गरीब-अमीर सभी मेरे यहां आते हैं, सभी मेरे नजदीक आते हैं, मैं उन सबकी समस्यायें सुनता हूँ और उनका निदान देता हूँ जो कि मेरे लिये बड़ा कष्टदायी होता है। चूंकि साधक बहुत सीधी सपाट बात करता है और उसी तरह की बात सुनना चाहता है। मगर कई बार लोग आ जाते हैं कि एक बार नहीं, दस-दस बार वही बात दोहरायेंगे कि गुरुजी हमारा हाथ दर्द कर रहा है, हाथ दर्द का निदान बता दीजिये। गुरुजी हमारा पेटदर्द कर रहा है, गुरुजी हमारा सिरदर्द कर रहा है, गुरुजी हमारे पैरों में जलन होती है। अरे, एक बार बता दो जो तुम्हारे शरीर को कष्ट है किन्तु मानना ही नहीं है। कहते रहेंगे कि हमारे बेटे के साथ ऐसा हो रहा है, हमारे पड़ोसी के साथ ऐसा हो रहा है। मेरी बात वो सुनते ही नहीं हैं। सिरदर्द हो जाता है। मैं कहता हूँ कि उनका सिरदर्द दूर हो या न हो मगर मेरा सिर जरूर दर्द करने लगता है।
मेरे पास खड़े शिष्य अनेकों बार सुनते रहते हैं कि दस-दस बार उन्हें समझाया जाता है, किन्तु मैं क्या कह रहा हूँ वो सुनेंगे ही नहीं। बस एक के बाद दूसरी समस्या, दूसरी के बाद तीसरी और तीसरी के बाद चौथी समस्या बताते रहेंगे। मैं क्या बता रहा हूँ, वह उनके पल्ले कम पड़ता है। फिर भी मैं प्रयास करता हूँ कि मेरे पास कितनी साधनात्मक व्यस्तता होती है, फिर भी एक घण्टे, दो घण्टे, तीन घण्टे जितने सदस्य आते हैं, उनको मिलने का समय देता हूँ। मगर यह समय इस तरह बार-बार सदैव नहीं मिल सकेगा, क्योंकि मुझे अपना भविष्य ज्ञात है कि मुझे कितना शान्त, एकान्त के मार्ग को तय करना है। अतः आप लोग यह पहले से ही विचारधारा रखें कि मेरे सम्मुख आकर मानसिक रूप से अपनी कामनाओं को व्यक्त कर दिया करो और यह मान करके चला करो कि मैं उनको सुन लेता हूँ, समझ लेता हूँ और जितना आशीर्वाद मुझे देना होता है, उतना आशीर्वाद दे देता हूँ।
मेरे दर्शन नजदीक से करें चाहे दूर से करें, नजदीक से प्रणाम करें या दूर से प्रणाम करें, बराबर फल प्राप्त होता है। आप साधक हो और यदि इस विचारधारा को आत्मसात् करोगे तो आपको तृप्ति मिलेगी। जब समय मिला करे तो नजदीक से प्रणाम कर लिया करें, और जब समय न मिले तो दूर से प्रणाम कर लिया करें। मेरे कार्य करने के तरीके मैंने आपको बता दिये हैं कि मैं एक सिद्ध साधक हूँ, ऋषित्व का जीवन जीता हूँ और वह विचारधारा बना करके चलेंगे तो आप स्वतः जीवन की सत्यता का एहसास करेंगे, उन अनुभूतियों को प्राप्त करते चले जायेंगे। मैंने बताया था कि माँ की छवि में मैंने अपनी छवि के दर्शन कराये थे। अगर मैं कहता हूँ कि मेरे हृदय में हर पल माँ की छवि स्थापित रहती है तो मैंने माँ के हृदय में भी अपनी छवि स्थापित करके एहसास कराया था। कमलेश गुप्ता जी से मिल लें, उनको मालूम है जब मैंने सातवें महाशक्तियज्ञ में दिखाया था कि इतने समय देखना, तुम्हें माँ की छवि में मेरी छवि स्पष्ट नजर आयेगी।
आप लोगों ने कभी सिद्ध साधकों के साथ जीवन जिया ही नहीं, ऋषित्व का जीवन कैसा होता है उसको देखा ही नहीं, इसलिये वह विचार आप लोग गहराई से आत्मसात् नहीं कर पाते। कुछ समय की यात्रा तय करो, अपने अन्दर के अन्तःकरण को निर्मल बनाओ, निर्विकार जीवन जीने का प्रयास करो, फिर देखो कि अनेकों प्रकार की अनुभूतियाँ तुमको सहज रूप से स्वतः प्राप्त होती चली जायेंगी। यह आश्रम कितना चैतन्य हो चुका है, इसका एहसास तुम्हें स्वतः प्राप्त होता चला जायेगा। एक साधक के स्वरूप में रहा करो। उतावलापन न हो, जल्दबाजी न हो। यहाँ आप आये हैं तो मेरा आशीर्वाद आप लोगों के साथ हर पल जुड़ा रहता है। मेरा पूर्ण आशीर्वाद आप लोगों के साथ है। शेष निर्देशन शिष्य देते चले जायेंगे। आप सभी एकाग्रता एवं चैतन्यता से आरती करेंगे। अपने आपको रत् रखने का प्रयास करेंगे।
बोल जगदम्बे मातु की जय।