शक्ति चेतना जनजागरण शिविर, सिद्धाश्रम
बोलो माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बे मातु की जय!
आज नवरात्र के नवमी पर्व पर उपस्थित सभी आत्मीय शिष्यों, भक्तों एवं अनुयायियों का हृदय से स्वागत करता हुआ, उन्हें अपने हृदय में धारण करता हुआ, माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा का पूर्ण आशीर्वाद प्राप्त करता हुआ अपना पूर्ण आशीर्वाद समर्पित करता हूँ।
सौभाग्य के ये पल, जो हम आप सभी गुजार रहे हैं। यही एक-एक पल होते हैं, जो हमें जीवन की ऊँचाइयों और नीचाइयों पर लेजाते हैं। यदि हम सत्संग कर रहे होते हैं, सत्य की राह पर एक-एक पल गुजार रहे होते हैं, तो यही एक-एक पल हमारे सौभाग्यदायक बन जाते हैं, संस्कारों में परणित होजाते हैं और वही भाग्य का रूप धारण कर लेते हैं। और, वही जब एक-एक पल, जो हम निरर्थक नष्ट कर देते हैं, तो हमारे लिये दुर्भाग्यदायक बन जाते हैं और हम उन सौभाग्यों से वंचित होजाते हैं। जब हमारे साथ दुर्भाग्य चल रहा होता है, तो हम सौभाग्यशालियों से ईर्ष्या करने लगते हैं कि वह व्यक्ति बिना प्रयास इतना क्यों सफल होता जा रहा है? उसने तो ऐसा कुछ किया नहीं, फिर भी इतना धनाढ्य कैसे हो गया? राजगद्दियों को कैसे प्राप्त कर लिया? इन सभी के पीछे इसी प्रकार के एक-एक पल जुड़े होते हैं। आज अगर कोई ऊंचाइयों पर बैठा है, राजगद्दियों पर बैठा है, तो उसने भी कहीं न कहीं इसी प्रकार सत्संग कर-करके उन संस्कारों को अवश्य अर्जित किया होगा।
नवरात्र पर्व शक्तिसाधना के लिये सर्वाेपरि पर्व माना गया है। यदि लोग अपने घरों में साधनायें करते हैं, तो वे भी ‘माँ’ की पूर्ण कृपा और आशीर्वाद प्राप्त करते ही हैं। जो देवालयों में जाकर साधनारत रहते हैं, उनके सौभाग्य का वर्णन नहीं किया जा सकता और आप लोग एक ऐसे स्थल पर बैठे हुये हैं, जहाँ पर आपके गुरु के द्वारा व्यक्त किया जा चुका है कि इस धरती पर उस प्रकृतिसत्ता माता भगवती का मूल केन्द्र स्थापित होना है। आप स्वतः अनुभव कर सकते हैं कि आप कितने सौभाग्यशाली हैं! आपके यदि एक-एक क्षण यहाँ केवल शान्ति से बैठकर गुजर रहे हैं, तो वही आपके दुर्भाग्य को सौभाग्य में बदलने के लिये पर्याप्त हैं। बस, आप केवल शान्ति धारण करके अपने आपको एकाग्रचित्त कर लें।
मैं आत्मा के बारे में चिन्तन दूँगा। आत्मा का मूल स्वभाव क्या है? सर्वप्रथम यह समझना नितान्त आवश्यक है कि जब तक हम आत्मा के स्वभाव को नहीं समझेंगे, जानेंगे नहीं, तब तक उस विचारधारा में चल नहीं पायेंगे और जब तक हमारी वह दिशाधारा नहीं होगी, हम सत्य को कभी पकड़ नहीं पायेंगे। चूँकि सत्य को पकड़ने के लिये पहले हमें अपनी आत्मा के बारे में जानना नितान्त आवश्यक है और जब तक आत्मा के स्वभाव, रूप, रंग, चरित्र के बारे में नहीं जानेंगे, उसकी क्षमता के बारे में नहीं जानेंगे, तो हम आत्मा की यात्रा कैसे तय करेंगे? कैसे समझेंगे कि हम आत्मा को उस रूप में किस प्रकार जाग्रत् करें? और, आत्मा का जो मूल स्वभाव होता है, वह प्रेम का होता है। चूँकि आत्मा किसी का अंश है और जब मूल से कोई अंश निकलता है, तो उसका आकर्षण बरबस मूल की ओर होजाता है और पहले जो स्वभाव निर्मित होता है, वह प्रेम का होता है, लगाव का होता है। बच्चा जब से जन्म लेता है, बगैर बताये माँ के प्रति उसका प्रेम प्रगाढ़ होजाता है, लगाव होजाता है। यह क्रिया कोई सिखाता नहीं है। कोई बताता नहीं है। वह बच्चा माँ का अंश है, स्थूल शरीर। उसी प्रकार आपके अन्दर बैठी हुई आत्मा उस प्रकृतिसत्ता का अंश है और उसका भी मूल स्वभाव है प्रेम। और, प्रेम की परिणति है सेवा। इन्हीं रहस्यों में आत्मा के लक्ष्य की ओर बढ़ने का मूल रहस्य छिपा पड़ा है कि पहले हम समझें कि आत्मा का मूल स्वभाव है प्रेम और प्रेम करना सीखें, किससे? प्रकृतिसत्ता से, गुरु से, मार्गदर्शक से।
मैंने बार-बार कहा है कि गुरु केवल मार्गदर्शक है या उस शक्ति का एक द्वारपाल आप कह सकते हैं। मैं इस विचारधारा का विरोधी हूँ कि ‘गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूँ पाँय। बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो बताय।’ मेरा कहना यह है कि अगर गुरु और गोविन्द अर्थात् गुरु और वह प्रकृतिसत्ता कहीं आपकी निगाह में दोनों सामने खड़े नजर आजायँ, तो आपका कर्तव्य बनता है कि सर्वप्रथम उस प्रकृतिसत्ता के चरणों में गिरें, चूँकि गुरु से बढ़कर वह प्रकृतिसत्ता है। गुरु यही तो बतलाता है। अगर आपने इतना नहीं समझा, तो आपने गुरु को पहिचाना ही नहीं, जाना ही नहीं, चूँकि गुरु तो ज्ञान का स्वरूप होता है। गुरु का कोई आकार नहीं होता है। गुरु तो आपके बीच में अनेकों आकार में आ सकता है। कई बार हम जीव-जन्तुओं से अनेकों प्रकार की शिक्षायें प्राप्त कर लेते हैं, ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं। पता नहीं कौन से रूप में आकर गुरु हमें कौन सा ज्ञान देकर चला जाय? हमारे लिये ज्ञान बहुमूल्य होता है और उसी रास्ते पर बढ़ने के लिये आत्मा के स्वभाव को जानना हमें नितान्त आवश्यक है।
प्रेम सामान्य अवस्था का नहीं होना चाहिये। मैंने चिन्तन दिया है उस माँ का, जिस माँ के आप पुत्र हैं, उस माँ के प्रति जिस प्रकार का बचपन में आपका प्रगाढ़ लगाव होता है, उसी प्रकार जब तक वही अवस्था आपकी प्रकृतिसत्ता के प्रति नहीं आयेगी, उस आदिशक्ति के प्रति नहीं आयेगी, अपने गुरु के प्रति नहीं आयेगी, तब तक आत्मा के ज्ञान की प्रथम सीढ़ी आप तय ही नहीं कर सकते। चूँकि यह प्रेमभाव है और प्रेम पूर्णता का होना चाहिये। एक ऐसी ललक हो, एक ऐसा लगाव हो कि आज से हम गुरु के बिना रह ही नहीं सकते, हम उस प्रकृतिसत्ता के बिना रह ही नहीं सकते। हमको वे दूरियाँ तय करनी हैं, जितना हम दूर हैं। जिस तरह एक बच्चा जब शिशु होता है, चल भी नहीं पाता है और माँ को जब देख लेता है, तो बढ़ना चाहता है। उसको माँ की आवश्यकता महसूस होती है, तो दौड़ पड़ता है, चाहे वह गिर ही क्यों न पड़े। आपके अन्दर भी वही भाव आना नितान्त आवश्यक है। और, प्रेम के भाव में ही रहें, चूँकि प्रेम की परिणति है सेवा। पत्नी अपने पति से प्रेम करती है। आप स्वतः देखें, तत्काल वह सेवाभाव आजाता है। उसी प्रकार जिससे भी हम प्रेम करते हैं, हमारे पास है ही क्या उसकी सेवा करने के अलावा और हम कर ही क्या सकते हैं? जब तक हमारे अन्दर सेवाभाव जाग्रत् नहीं होगा, तब तक हम उधर बढ़ नहीं सकते, क्योंकि उस यात्रा के बीच हमें गुरु के मार्गदर्शन में चलना पड़ता है, क्योंकि सेवा से ही शिष्यत्व जाग्रत् होता है।
दीक्षा प्राप्त कर लेना मात्र ही शिष्यत्व प्राप्त कर लेने की निशानी नहीं है। मैंने कई बार चिन्तन दिया है कि मुझसे दीक्षा प्राप्त कर लेने का तात्पर्य यह नहीं है कि आप मेरे शिष्य बन ही गये। आप मेरे शिष्य बनना चाहते हैं, तो मैं आपको प्रवेश देता हूँ। मगर, यात्रा उसके बाद आपको तय करनी पड़ती है, जिस प्रकार एक स्कूल में प्रवेश मिलता है और पढ़ने के बाद ही डिग्रियाँ प्राप्त होती हैं। उसी तरह अध्यात्म क्षेत्र में भी गुरु प्रवेश देता है और शिष्यत्व तो आपको अपने अन्दर जाग्रत् करना पड़ेगा। आत्मा को माध्यम बनाकर और सेवाभाव से ही प्रेम आपको समझ में आयेगा। प्रेम के रहस्य में और प्रवेश करते जायेंगे, तो वह ललक और बढ़ती चली जायेगी और आप उस प्रकृतिसत्ता को समझ पायेंगे। उस प्रकृतिसत्ता को समझने के लिये आपको आत्मज्ञान प्राप्त करना नितान्त आवश्यक है ही। बिना आत्मज्ञान के आप न तो गुरु को समझ सकते हैं, न उस प्रकृतिसत्ता को समझ सकते हैं।
गुरुओं के बारे में भी मैंने चिन्तन दिया है कि गुरु अनेक प्रकार के होते हैं। माता-पिता भी गुरु होते हैं, विद्यालय में शिक्षा प्रदान करने वाले भी गुरु होते हैं और समाज के बीच अनेकों गुरु होते हैं। उनके बारे में चिन्तन दिया गया है कि हमको माता-पिता के अतीत में नहीं जाना चाहिये तथा विद्यालय में जो गुरु शिक्षा दे रहा हो, हमको पढ़ा रहा हो, उसके अतीत में जाने की आवश्यकता नहीं है। वह विद्यालय में जो पढ़ा रहा है, हमको केवल उस ज्ञान को पकड़ना है। अध्यापक विद्यालय में बच्चों को पढ़ाता है कि बड़ों का आदर करना चाहिये, बुराइयों से दूर रहना चाहिये और माता-पिता का सम्मान करना चाहिये। मगर, हो सकता है कि विद्यालय में पढ़ाने वाला वही अध्यापक रोज अपने माता-पिता को मारता हो। अतः विद्यालय में जो शिक्षा वह दे रहा है, उसको पकड़ना चाहिये। मगर, अध्यात्म क्षेत्र उससे बिल्कुल विपरीत है। अध्यात्म क्षेत्र में अगर आपको अपने गुरु को पकड़ना है, गुरु को जानना है, तो गुरु के अतीत में अवश्य जाना पड़ेगा। यदि आप अतीत में नहीं जा सके, तो आप वे सीढ़ियाँ तय ही नहीं कर सकेंगे, चूँकि गुरु के अतीत में ही जाकर आपको वे क्रम मिलेंगे कि किस प्रकार गुरु ने एक-एक सीढ़ी तय की है? गुरु का जीवन किस प्रकार से गुजरा है? कितने संघर्षों, कितने मान-अपमानों के बीच गुरु ने किस प्रकार से अपनी यात्रा तय की है? अध्यात्म क्षेत्र में आपको अपने गुरु के अतीत में जाना नितान्त आवश्यक है, मगर आत्मज्ञान प्राप्त करके, प्रेम पैदा करके, अपने अन्दर सेवाभाव पैदा करके, शिष्यत्व पैदा करके। आपके अन्दर शिष्यत्व आयेगा, आपकी आत्मा के अन्दर से अनेकों वे रहस्य मिलते चले जायेंगे और आपको ज्ञान होता चला जायेगा।
अभी चिन्तन दिया गया था कि गरुड़ स्वतः भ्रमित हो गये थे, जो सदैव हर पल भगवान् के चरणों में रहते हैं। इसी प्रकार गुरु अनेकों प्रकार की क्रियायें आपके बीच में करता नजर आ सकता है। मगर, आप जब गुरु के अतीत में जायेंगे, तो हर जगह वह सत्यता और पवित्रता का प्रतीक नजर आयेगा। जिस प्रकार एक जलती हुई अग्नि में कोई दाग नहीं होता, ज्योति में कोई दाग नहीं होता, उसी प्रकार अगर वह गुरु है, ‘परमहंस’ की स्थिति को प्राप्त किये हुये है, प्रकृति से एकाकार है, तो उसके अतीत पर भी कोई दाग नहीं होगा। और, आपके इस गुरु ने तो समाज को ही नहीं, शिष्यों तक को कहा है कि तुम्हारे लिये स्वतन्त्रता है गुरु के अतीत को जानने, पहिचानने और समझने की। उसे जानो, समझो और पहिचानो। तभी तुम्हारे अन्दर निष्ठा पैदा होगी। चूँकि आज अगर देश में, आज अगर समाज में, आज अगर धर्म में सबसे बड़ा संकट छाया है, तो वह आस्था का संकट है। जितनी भी परेशानियों का कारण है, वह आस्था है। यदि वह आस्था आजाये, वह निष्ठा आजाये, तो मनुष्य क्या नहीं कर गुजर सकता? आत्मावानों से ही यह धर्म और धरा टिकी हुई है। आत्मावान् क्या नहीं कर गुजर सकता? आत्मावान् बनें तो।
आत्मावान्, यही नहीं कि कोई नवयुवक ही बन सकता है। मेरी निगाह में आत्मावान् वह वृद्ध भी है, जिसने अपनी आत्मा को जाग्रत् किया है। युवक वही है, जो आत्मावान् है। अन्यथा, यह शरीर युवकों का लेकर भी आत्मावान् नहीं हैं, तो मेरी निगाह में आप वृद्ध हैं, बूढ़े हो चुके हैं। आपका शरीर विनाश की ओर बढ़ रहा है और अगर आप आत्मावान् हैं, तो आप वृद्धावस्था में भी वह कर गुजर सकते हैं, जो एक युवक नहीं कर सकता। पूरा इतिहास साक्षी है, आप उसे उठाकर देखें और समझें। इतिहास और अतीत पर मेरे जाने का कर्म नहीं है, शिष्यों का कर्म बनता है। चूँकि योगी और ऋषि अपना चिन्तन अतीत के मार्ग पर देता है, स्वतः एक मार्ग निर्धारित करता है। आपको उन क्रमों को पकड़ना है, उन रास्तों को तय करना है।
आत्मा को अगर जानना है, तो उस प्रकृति के प्रति प्रेम पैदा करो। हर चीज के लिये एक भाव बनाना ही पड़ता है। जब तक हम उस भावभूमि पर नहीं आयेंगे, हम वह कार्य कर ही नहीं सकेंगे। बाह्य क्षेत्रों में भी देखें, हर विभाग में नौकरी करने वालों को एक पोशाक दी जाती है। चाहे पुलिस विभाग हो, चाहे डॉक्टरी विभाग हो और चाहे नर्सों का विभाग हो, सबको एक वर्दी पहनाई जाती है। इससे उनका वैसा स्वभाव बनेगा कि माध्यम उनके पास होगा, तो उनके विचार उसी दिशा में घूमेंगे। उसी तरह आपको जब प्रेम पैदा करना होगा, तो प्रेममय वातावरण में उसी तरह का भाव लेना पड़ेगा, प्रकृति के प्रति विचार बनाने पड़ेंगे, वैसे ही चिन्तन अपने अन्दर ग्रहण करने पड़ेंगे और सेवाभाव पैदा करना पड़ेगा। चूैंकि हर सेवा का फल निश्चित होता ही है, मिलता ही है और वह सभी यात्रा सत्कर्मों से जुड़ी हुई होगी। साहसी पुरुष उसे भी कह सकते हैं, जो डकैतियाँ डालता है, हत्यायें करता है। मगर, वह आत्मावान् नहीं है। पूर्व कर्म संस्कारों से मिली हुई आत्मशक्ति का दुरुपयोग करने के क्षेत्र में उसका चिन्तन माना जा सकता है। आत्मावान् वह है, जो सतत सत्कर्मों में रत है। और, जब तक आप अपने आपको सत्कर्मों में लगायेंगे नहीं, रत नहीं करेंगे, अच्छे कार्यों में लगायेंगे नहीं, तब तक आपकी आत्मा कभी जाग्रत् नहीं हो सकती, चूँकि आत्मा का भोजन है सत्कर्म, अच्छे कार्य करना। उस विचारधारा में यदि आपको जाना है, तो आपको सत्कार्मों को पकड़ना ही पड़ेगा।
अपनी जीवनचर्या में निर्धारित करें कि हमारे अच्छे कार्यों का प्रतिशत हमेशा ज्यादा हो। जब तक आप उस पलड़े को सम्भालेंगे नहीं और दिनभर दुराचार करते रहें, दिनभर गलत मार्ग में रत रहें, तब तक आप कभी भी आत्मावान् बन ही नहीं सकते। आपके अच्छे कार्यों का पलड़ा ज्यादा होना ही चाहिये। इस पर आपको विचार करने की आवश्यकता है। और, उस आत्मज्ञान के लिये हमको योग के मार्ग को अपनाना नितान्त आवश्यक है। वह विचार लेना है और आपको योगमार्ग को भी अपनाना है। योग का मूल अर्थ आत्मा को परमात्मा से मिलाने को योग कहते हैं। तो, उसका कार्य तो मैंने बतला दिया कि आपके अन्दर क्या भाव आना चाहिये? किस प्रकार के विचार आने चाहियें? मगर, जिस परिस्थिति में आप जी रहे हैं, जिन कुसंस्कारों का प्रभााव आपके इस स्थूल शरीर पर पड़ रहा है, जो जड़ता आपके अन्दर आ चुकी है, उस जड़ता को दूर करने के लिये योगियों और मनीषियों ने कुछ यौगिक क्रियायें बताई हैं, कुछ नियम बतलाये हैं। उन कर्मों को भी करना नितान्त आवश्यक है कि आपके अन्दर एक निश्चित व्यवस्थित जीवन की जीवनचर्या आनी चाहिये।
प्रथम तो यह आवश्यक है। फिर गुरु के चरणों में बैठकर, गुरु के मार्गदर्शन में अपनी शारीरिक रचना के आधार पर उन यौगिक क्रियाओं का ज्ञान प्राप्त करना चाहिये कि हम किस प्रकार से बैठें, शरीर को किस प्रकार से मोड़ें, कौन सी ऐसी क्रियायें करें कि हमारी सुषुम्ना नाड़ी जाग्रत् होने में अगर कोई जड़ ग्रन्थियाँ हैं, तो दूर हों और चैतन्यता को प्राप्त करें। उस चैतन्यता को प्राप्त करने के लिये कुछ यौगिक क्रियाओं को अपनाना नितान्त आवश्यक है। अगर आप यौगिक क्रियाओं को ही गुरु मार्गदर्शन में रहकर वही प्रेमभाव और निष्ठा लेकर, अपनाने लगें, तो मेरा मानना है मात्र छः महीने ही पर्याप्त होते हैं किसी को सत्य की झलकियाँ पाने के लिये, कुछ अनुभूतियाँ पाने के लिये। और, जब वे अनुभूतियाँ मिलने लगती हैं, तो सभी रहस्य स्वतः एक के बाद एक खुलने लगते हैं। गुरु जो आपका मार्गदर्शक बनकर बैठा है, इस शरीर ने आपको कहा है कि आप यात्रा तय करें, हर सीढ़ी के आगे वाली सीढ़ी पर आप अपने गुरु को खड़ा हुआ पायेंगे।
जिन गुरुओं का अतीत दूषित होगा, जिन गुरुओं का अतीत भटका हुआ होगा, वे अपने किसी भी शिष्य की कुण्डलिनी चेतना जाग्रत् कर ही नहीं सकते, क्योंकि अगर उनके पास जाग्रत् करने की पात्रता है, तब भी इसलिये नहीं जाग्रत् करेंगे कि ये कहीं गुरु के अतीत को न देख लें, उन्हें कहीं किसी प्रकार की झलकियाँ न मिल जायें। मगर, जो सत्यता और पवित्रता का प्रतीक होगा, अग्नि का प्रतीक होगा, सत्य का प्रतीक होगा, वह चाहेगा, उसकी तड़प होगी कि शिष्य जल्दी से जल्दी जाग्रत् हों, उनको इतनी अनुभूतियाँ मिलें कि मेरे अतीत में जा सकें और देख सकें कि किन-किन परिस्थितियों में किस प्रकार साधना करके, कहाँ-कहाँ पर अखण्ड साधनायें करके, किन-किन संघर्षों को झेलकर और किन परिस्थितियों में जीवन जीकर गुरु ने आज इस अवस्था को प्राप्त किया है? तभी वह शिष्य उन रहस्यों को देखता हुआ और वही परिस्थितियाँ जब उस शिष्य के सामने आती हैं, तो देखता है कि गुरु ने इन परिस्थितियों में कैसे विचार बनाये थे? कैसे चिन्तन बनाये थे? किस प्रकार अपने जीवन को जिया था? और, वही परिस्थिति, उसी मार्ग पर चलकर शिष्य उस आत्मा को परमात्मा के नजदीक लेजाता है। गुरु होता ही इसीलिये है। आध्यात्मिक गुरु आपके बीच आता ही इसीलिये है कि जिस प्रकार उसने समाज के बीच जीवन जीकर अपनी एक-एक सीढ़ियाँ तय की हैं, उन सीढ़ियों को देखो, समझो और उसी प्रकार से यात्रा तय करो। गुरु तो उसी को कहा गया है कि जिस यात्रा से उसने प्रकृति को पाया है, उसी यात्रा का ज्ञान समाज को कराये, बतलाये। और, उसी यात्रा पर चलकर समाज का कल्याण हो सकता है।
गुरु को जानने, समझने के लिये आपको ध्यान व योग को पकड़ना नितान्त आवश्यक है। मैंने बार-बार कहा है कि अगर आप यौगिक क्रियायें नहीं कर सकते, तो ध्यान आपका सरल साधन है। आप मन्त्रजाप या चिन्तन जो भी कर रहे हों, उसके बाद कम से कम एकान्त या प्राकृतिक कोई स्थल मिल जाये, जहाँ आपके मन को शान्ति मिले, तो उस स्थल पर आप दस-पन्द्रह मिनट ध्यान की अवस्था में बैठना सीखें और गहराई में जाना सीखें। आप मन्त्रजाप चाहे जितना करते रहें, जब तक आप शारीरिक सन्तुलन नहीं बनायेंगे, तब तक वह मन्त्रजाप आपके लिये श्रेयस्कर नहीं होगा। कुछ न कुछ समय आप एकान्त में अवश्य बैठें। ध्यान की अवस्था में अपने आपको एकाग्र करें। उस ध्यान की अवस्था के लिये कोई नवीन बातें नहीं करनी पड़तीं। आप जिस आसन पर सही तरह से, सुविधा से बैठ सकें, उस आसन पर आप बैठ जायें। अगर आप बैठे हैं, तो आपकी मेरुदण्ड सीधी होनी चाहिये और अगर लेटे हैं तो आप पीठ के बल लेटे हों। शरीर सीधी अवस्था में हो और आप अपने आपको शून्यवत् करते चले जायें। अपने विचारों को रोकें। अनेकों योगी चिन्तन देते हैं कि यह स्वाभाविक क्रिया होती चली जाती है। विचार जो जहाँ आते हैं, जाते हैं, आने-जाने दीजिये। मैं कह रहा हूँ उनके विचारों पर या उन ग्रन्थों में लिखी हुई बातों पर कई जन्म गुजार देंगे, तब भी आप ध्यान की अवस्था को प्राप्त कर ही नहीं सकते। चूँकि उनका चिन्तन है कि विचार जो जहाँ जाते हैं, जाने दीजिये, तो मैं कह रहा हूँ आज का समाज जब ध्यान में बैठता है, तो उसका मन अपने बीवी-बच्चों और कुमार्ग के अलावा और कहीं नहीं जायेगा। उसको रोकने की आवश्यकता है, विराम लगाने की आवश्यकता है।
जब आप ध्यान में बैठें, तो अपने सामने वैसा वातावरण दें कि अच्छी बातें सोचने का आपको चिन्तन करना पड़े। चूँकि मैंने बार-बार कहा है कि किसी बिन्दु को पाने लिये उसका माध्यम नितान्त आवश्यक है। आप ध्यान में बैठें और अगर विचार इधर-उधर भटक रहे हैं, तो अपने आपको सन्तुलित करें, उनको झटका दें, उन रस्सियों की लगामों को खीचें, जो भग रही हैं और प्रकृति की ओर सोचना शुरू करें। आप अगर घर में भी बैठे हैं और घर में ‘माँ’ की कोई मूर्ति रखी है, तो उसके बारे में सोचें। गुरु के बारे में अपने विचारों को तुरन्त घुमाना शुरू कर दें। ‘माँ’ का ध्वज कहाँ-कहाँ लगा है? नवरात्र में कहाँ बैठे थे? गुरु के किस प्रकार के विचार सुन रहे थे? आपके विचार उस तरफ घूमने लगेंगे। ‘माँ’ का आश्रम कैसा था? आश्रम गये थे, तो किस प्रकार परिक्रमा कर रहे थे? दुर्गाचालीसा भवन किस प्रकार का बना हुआ है? वहाँ पर लोगों के किस प्रकार की बैठने की स्थिति थी? इस प्रकार अपने विचारों को घुमायें। बड़ी सरल क्रिया है। आपको ध्यान आता हो या न आता हो, आप केवल बैठ जायें और अपने विचारों को केवल गलत रास्तों से मोड़कर अच्छे मार्ग, जिनसे आप जुड़े हुये हैं, उन मार्गों से आप जोड़ना शुरू करेंगे, गुरु के बारे में चिन्तन करेंगे, तो लाभ होगा। ‘माँ’ का ध्वज कहाँ लगा हुआ है? कितना बड़ा ध्वज है, कैसा है? चालीसा भवन कैसा बना है? वहाँ का क्षेत्रफल क्या है? तब आप देखेंगे कि यदि यह क्रिया आप अपनाने लगेंगे, तो आपके विचार रुकने लगेंगे। आपके शरीर का भान खत्म हो जायेगा। आपका वही शरीर फूल जैसा नजर आने लगेगा, फूल के समान कोमल हो जायेगा। आप जिस आसन पर पाँच मिनट नहीं बैठ सकते, उस आसन पर आप घण्टों बैठे नजर आयेंगे। आपको पता ही नहीं चलेगा कि समय कैसे गुजर गया? और, वही अवस्था, जिसमें आपको पता न चले और समय गुजर गया, वही ध्यान की अवस्था कही जाती है।
पहले आप अपने विचार उन माध्यमों पर लेजायें। जब आप उन माध्यमों पर लेजायेंगे, तो उसी ध्यान की अवस्था में कई बार आपको प्रकृति की झलकियाँ मिल जायेंगी, प्रकृति के संकेत मिल जायेंगे और गुरु के विचार मिल जायेंगे। कई बार गुरु की आवाज गूँजती हुई नजर आयेगी। कई बार उसी ध्यान की अवस्था में गुरु अगर आपको चिन्तन देना चाहता होगा, तो वह चिन्तन की आवाज आपके कानों में सुनाई देगी। बड़ा आश्चर्य होता है उस समय, जब एकान्त में कोई साधक बैठता है और प्रकृति की आवाजों को सुनता है। उस प्रकार की आवाजें जब उसको बार-बार सुनाई देती हैं, तब उसको सत्य के रहस्य का भान होता है कि गुरु तो कण-कण में मौजूद है। हम किसी भी स्थान पर अगर बैठकर चिन्तन करें, तो प्रकृति की आवाजें हमारे पास सुनाई देती हैं। गुरु जब ध्यान में बैठता है, तो अपने समस्त शिष्यों का चिन्तन करता है, विचार करता है। और, जो परमहंस की अवस्था को प्राप्त किये रहता है, वह चाहे चिन्तन दे रहा हो, चाहे विचार दे रहा हो, चाहे प्रवचन दे रहा हो, चाहे साधना कर रहा हो, हरपल उसकी एक इन्द्रिय उससे जुड़े समाज के प्रति हमेशा जाग्रत् रहती है। कोई भी परिस्थिति आए, वह बिन्दु प्रभावित होने लगता है और तत्काल गुरु उस बिन्दु पर चिन्तन करता है। इन क्रियाओं में एक पल भी नहीं लगता है। पल का अगर करोड़वाँ हिस्सा कह दिया जाये, उतना लगता है। और, उन्हीं परिस्थितियों में होता है, जब हजारों-करोड़ों मील दूर कोई व्यक्ति किसी विकट परिस्थिति में ग्रसित होजाता है, दुर्घटना होने की अवस्था में होता है, मात्र एक पल का झटका जाता है और तत्काल वहाँ पर सहयोग मिल जाता है।
इन अलौकिक दिव्य क्षमताओं की ओर आपको बढ़ना है। समय लग सकता है, मगर यात्रा तो आपको एक न एक दिन तय करनी ही पड़ेगी। इस जीवन से ज्यादा अच्छा जीवन आपको क्या मिलेगा? मैंने कहा है समाज मुझे एक जीवन पूर्ण निष्ठा और विश्वास के साथ समर्पित कर दे, अन्यथा आपको न मालूम कितने जीवन इसी तरह संघर्षों में व्यतीत करने पड़ेंगे। मगर, आपको यह जीवन खुला मिल रहा है, खुले मार्ग मिल रहे हैं। आपका मार्गदर्शक आपको बार-बार कहता है कि आप आगे बढ़ो। आत्मा और परमात्मा के बीच के जिस रहस्य को आप जानना चाहते हैं, तो अपनी पात्रता को जाग्रत् करते जाओ, आगे का मार्ग गुरु आपको और बताता चला जायेगा। उसी तरह ध्यानयोग के बारे में मैंने बतलाया, प्रेम के बारे में चिन्तन दिया, निष्ठा, विश्वास और सेवा के बारे में चिन्तन दिया। चूँकि हर कर्म का फल निर्धारित है ही। आप अच्छा कर्म करें, तो भी उसका फल मिलेगा ही। दुनिया की कोई ताकत उस फल को काट नहीं सकती और बुरा कर्म करेंगे, तो उसका भी फल मिलेगा। और, अपने दुर्भाग्य को सौभाग्य में अपने कर्म के माध्यम से बदला जा सकता है। लोग कहते हैं कि दुर्भाग्य को बदला नहीं जा सकता, घटनाओं को टाला नहीं जा सकता, मगर मैं कहता हूँ कि हर घटना को टाला जा सकता है साधनाओं के माध्यम से, अध्यात्म क्षेत्र के माध्यम से और अपनी आत्मशक्ति को जाग्रत् करके। अरे, आप प्रयास करके तो देखें। ध्यानयोग की प्रारम्भिक क्रियाओं के माध्यम से, आप अपनी अनेकों प्रकार की बीमारियों को स्वतः दूर कर सकते हैं, अपनी आत्मशक्ति को जाग्रत् करने का प्रयास करें। इस आत्मशक्ति के बल पर तो अपाहिज और लँगड़ा भी चलने लगता है। नेत्रहीन भी नेत्र पा जाता है, चूँकि यह सामान्य अवस्था नहीं है।
वैज्ञानिक भी इन बातों को धीरे-धीरे स्वीकार करते जा रहे हैं। पराविज्ञान इसी का नमूना है। टेलीपैथिक क्रिया इसी का प्रमाण है। ऋषि-मुनियों ने तीन प्रकार के शरीर मनुष्य के अन्दर बताये हैं– एक स्थूल शरीर, दूसरा सूक्ष्म शरीर और तीसरा कारण शरीर। आपको प्रारम्भिक अवस्था के स्थूल और सूक्ष्म शरीर के रहस्यों को समझना है। जब स्थूल शरीर में इतनी क्षमतायें होती हैं कि स्थूल शरीर की क्षमता के बल पर मनुष्य क्या नहीं कर गुजर सकता? जो सोच लेता है, वह स्थूल शरीर की क्षमता के बल पर कर गुजरता है। और, विज्ञान, भौतिकतावाद इसी का प्रमाण है। यह स्थूल शरीर की ही क्षमता का प्रमाण है कि अणु बम और परमाणु बम बन चुके हैं। यह स्थूल का ज्ञान है, स्थूल की क्षमतायें हैं। स्थूल के अन्दर जो आपका ज्ञान भरा है, उसका परिणाम है पूरा विज्ञान और पूरा भौतिकतावाद, और अगर आप सूक्ष्म के पलड़े पर आजायें, अपने शरीर की सूक्ष्मता को जाग्रत् कर लें, तो उससे कई करोड़ गुना आपकी क्षमतायें बढ़ जायेंगी। विज्ञान बौना नजर आता है योगियों के सामने, उन क्षमताओं के सामने। वही तो कारण होता है कि एक विज्ञानी भी अगर उसके अन्दर कुछ क्षमतायें होती हैं, तो लाखों-करोड़ों की दिशाधारा काफी कुछ बदल देता है। उसी तरह जब कोई ऋषि जाग्रत् होता है और वह जनकल्याण का केवल एक भाव ले लेता है, एक कर्म निर्धारित कर लेता है, तो पूरे समाज की दिशा बदल देता है, धर्मों तक में परिवर्तन कर डालता है। उन धर्मों का निर्माण कर देता है, जो जनकल्याणकारी होते हैं।
ये क्षमतायें केवल सूक्ष्म की क्षमतायें हैं। सूक्ष्म के बल पर एक ऋषि करोड़ों मील दूर बैठा हुआ बड़ी से बड़ी घटनाओं को केवल अपने चिन्तन के माध्यम से टाल देता है। यह क्षमता तो आज विज्ञान के पास भी नहीं है। विज्ञान भी कई जगहों पर बौना नजर आता है और वह कहता है कि इसके आगे का मार्ग हमारे पास नहीं है। यह तो प्रकृति से ही अचानक ऐसा हो गया। विज्ञान की चरमसीमाओं पर पहुँचे हुये उन वैज्ञानिकों से पूछें कि क्या सब कुछ विज्ञान से सम्भव है? अगर सम्भव है, तो आज तक मनुष्य की तुलना में विज्ञान के पास दस प्रतिशत भी ज्ञान नहीं है। ऋषि-मुनियों ने तो हजारों-करोड़ों वर्ष पूर्व अतीत में भी सब कुछ वर्णित कर दिया था। अनेकों-अनेकों लोकों के बारे में वर्णन दे दिया था। शारीरिक क्षमता के बारे में वर्णन दे दिया था। नवीन रचना करके दे दिया था। हजारों प्रकार की बीमारियों को केवल अपने स्पर्श मात्र से चिन्तन के माध्यम से दूर कर दिया था। सब कुछ तो करने की क्षमतायें थीं। अतीत में हमारे एक से एक ऋषि-मुनि हुये हैं, जिनके इतिहास को हम देखें कि वे क्या कुछ कर गुजरने में सक्षम नहीं थे? उसी यात्रा को आपको तय करना है।
आपके गुरु ने आपको जहाँ सन्मार्ग में बढ़ाने का चिन्तन दिया है, वहीं हर जगह आपको प्रमाण भी देता जाता है। मैंने अपने आठ महाशक्तियज्ञों में इसीलिये अधिक से अधिक प्रमाण आपको दिये। यह चमत्कार नहीं होता। चमत्कार ऋषि के लिये वर्जित होता है। यह चमत्कार आपकी भाषा है। ऋषि अपना कर्म करता है, वह कर्म, जो आपके लिये हितकारी होता है। ऋषि कभी किसी से प्रभावित होकर कार्य नहीं करता। मगर, ऋषि जिस यात्रा से चलता है, वहाँ अनेकों चमत्कार अपने आप मिलते रहते हैं। और, आप जब इस यात्रा में चलते रहेंगे, तो अनेकों ऐसी घटनायें आपको मिलती चली जायेंगी कि आप देखेंगे कि यह अकस्मात् ऐसा हो कैसे जाता है? असाध्य से असाध्य बीमारी से पीड़ित व्यक्ति कैसे ठीक होजाता है। मृत्यु की शैय्या पर लेटा हुआ व्यक्ति केवल आज्ञाचक्र पर हाथ के स्पर्श मात्र से कैसे ठीक होजाता है? ये अनेकों प्रमाण आपको स्वतः मिलते चले जायेंगे। और, मैं कह रहा हूँ कि समाज अगर चाहे, तो मैं अपने किसी भी समर्पित शिष्य को खड़ा कर दूँ, तो किसी की भी असाध्य से असाध्य बीमारी को वह केवल अपने हाथ के स्पर्श से ठीक कर सकता है। इस तरह के शिष्य मात्र इस अन्तराल में भी मैंने तैयार किये हैं। चूँकि मैंने कहा है कि मैं उस मार्ग को नहीं तय कर रहा कि तुम केवल मुझसे लाभ प्राप्त करते रहो और बाद में फिर भटको। मैं चाहता हूँ कि मैं करोड़ों-करोड़ में बदलकर जाऊँ और यही तो मेरी यात्रा है। यही तो मैं करने आया हूँ कि अपने को करोड़ों-करोड़ों में बाँट दूँ और वे करोड़ों-करोड़ों और करोड़ों-करोड़ों में अपने आपको बाँट दें, तो कैसे परिवर्तन नहीं आयेगा? आज जब छोटे-छोटे बच्चे जाग्रत् होंगे, युवाशक्ति जाग्रत् होगी, तो कैसे परिवर्तन नहीं आयेगा? चूँकि जब वे सत्य का मार्ग पकड़ लेंगे, तो उनके आगे आने वाली पीढ़ी सत्य का मार्ग पकड़ेगी ही, चूँकि परिवार के संस्कारों का प्रभाव पड़ता है। उससे कोई बच नहीं पाता। उस यात्रा को आप लोगों को तय करना है।
अपने आपको आत्मावान् बनाना नितान्त आवश्यक है। तभी आप अध्यात्म की सीढ़ी तय कर पायेंगे। अगर आप सोच लें कि आपको इतने चालीसा पाठ करने हें, तो करें ही। अगर सोच लिया कि आपको एक घण्टा पूजा-पाठ करना है, मगर किसी कारण से पूजा का समय छूटता है, तो आगे किसी भी समय उसकी पूर्ति अवश्य करें। पूर्ति का तात्पर्य, साधना कोई खुराक पूरी करने की चीज नहीं है। मगर, जब आप अधिक समय देंगे, तो आपकी एकाग्रता अधिक आयेगी ही। इन सभी क्रमों को आप लोग अपनाकर चलें। तब आपकी सही दिशाधारा आपको मिलेगी और आप सन्मार्ग पर चल पायेंगे। और, यहीं विराम देता हुआ, आज का अपना पूर्ण आशीर्वाद आपको पुनः बारम्बार समर्पित करता हुआ, आपको माता अदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा की आरती करने की ओर अग्रसर कर रहा हूँ।
बोलो जगदम्बे मातु की जय !