शक्ति चेतना जनजागरण शिविर, सिद्धाश्रम, 26.09.2009
आज यहाँ उपस्थित अपने समस्त चेतनाअंशों, ‘माँ’ के भक्तों, श्रद्धालुओं एवं इस पूरी व्यवस्था में लगे हुये समस्त कार्यकर्ताओं को अपने हृदय में धारण करता हुआ तथा माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा का पूर्ण आशीर्वाद प्राप्त करता हुआ अपना पूर्ण आशीर्वाद आप समस्त लोगों को समर्पित करता हूँ। साथ ही इन क्षणों पर मैं अपने उन समस्त चेतनाअंशों, शिष्यों को भी अपना पूर्ण आशीर्वाद समर्पित करता हूँ, जो किसी कारणवश, परिस्थितिवश इस शिविर में यहाँ उपस्थित नहीं हो सके। उन समस्त शिष्यों को भी मेरा पूरा आशीर्वाद समर्पित रहेगा।
आज वर्तमान समय में समाज में जो विषमता है, जो भयावहता है, वह किस प्रकार से समाप्त होगी? इस विषय में अनेकों बार मेरे द्वारा चिन्तन दिये जा चुके हैं। सिर्फ और सिर्फ एक मार्ग है, मानवीय मूल्यों की स्थापना करना। सिर्फ एक मार्ग है, साधक प्रवृत्ति की स्थापना करना, जिस तरफ बार-बार समाज को खींचा जा रहा है। भगवती मानव कल्याण संगठन के माध्यम से, जिस दिशा में समाज का आवाहन किया जा रहा है, वह सिर्फ एक पथ है इन समस्त विषमताओं को दूर करने के लिये, समस्त संघर्षों से मुक्ति के लिये। नाना प्रकार के दैहिक, दैविक, भौतिक जो ताप हैं, इन सबसे मुक्ति के लिये सिर्फ और सिर्फ एक मार्ग है, मानवीय मूल्यों की स्थापना और उस प्रकृतिसत्ता की प्राप्ति का भी एक ही मार्ग है।
आप सभी माता भगवती के दर्शन प्राप्त करना चाहते हैं, माता भगवती की कृपा प्राप्त करना चाहते हैं। हर पल सान्निध्य चाहते हैं, उसके लिये भी सिर्फ एक मार्ग है अपने अन्दर मानवीय मूल्यों की स्थापना करना, उस मूल स्रोत को पकड़ लेना। कुछ सत्य ऐसे होते हैं, जो काल-परिस्थितियों के आधार पर कभी मिटते नहीं, सदा एक समान रहते हैं। जिस प्रकार से मेरे और आपके अन्दर जो आत्मा बैठी हुई है, वह अजर-अमर-अविनाशी है। कोई भी काल आजाये, हर काल में इसे अजर, अमर और अविनाशी ही रहना है। उसी प्रकार जिस तरह बतलाया गया है कि आत्मतत्त्व, गुरुतत्त्व और प्रकृतितत्त्व-इन तीन तत्त्वों के संयोग में ही सब कुछ सार छिपा हुआ है और इन तीन तत्त्वों की प्राप्ति के लिये सिर्फ और सिर्फ एक मार्ग है अपने आपको पहिचानना।
मैंने जब पहले ‘माँ’ शब्द का जयघोष किया और उसके साथ मैंने कहा ‘मैं’ को पहिचानों, तो उस समय नाना प्रकार की समाज में बातें उठना शुरू हो गईं कि ‘मैं’ शब्द अहंकार का होता है। आज उसी विचारधारा पर अनेकों धर्माचार्य, योगाचार्य उसी दिशा में धीरे-धीरे लोगों को बढ़ाने का प्रयास कर रहे हैं। इसके पहले देखा जाये, तो ‘मैं’ शब्द कहने की किसी में हिम्मत नहीं थी। ‘मैं’ शब्द को अहंकार की भाषा बोला जाता था। समाज को केवल कथाओं, कहानियों और किस्सों में उलझाकर रखा जाता था। आज समाज में जो एक जागृति पैदा हो रही है, वह सिर्फ ‘मैं’ शब्द की खोज पर हो रही है। सब कुछ सार उसी में छिपा है कि मैं कौन हूँ? इस तत्त्व को जान लेना, इस शब्द को पहिचान लेना और जितना आप अपने आपको पहिचान लेंगे, उतना आप गुरुतत्त्व को पहिचान लेंगे, उतना आप प्रकृतितत्त्व को पहिचान लेंगे। सिर्फ एक मार्ग है बड़ा सहज और सरल। इसके लिये बड़ी-बड़ी कथायें सुनने की आवश्यकता नहीं है। बड़े-बड़े पुराणों को सुनने की आवश्यकता नहीं है।
आप लोग जिस चीज को बार-बार पूछते हैं कि वह सहज और सरल मार्ग हमें मिले, वही सहज और सरल मार्ग बताया जा रहा है कि जब तक एक विचारधारा की स्थापना नहीं होगी, तो ये सभी धर्मग्रन्थ, पुराण सब निष्क्रिय पड़े रह जायेंगे। इनका कोई प्रभाव समाज पर नहीं पड़ सकेगा। मैं चाहता तो अपने जीवन में कथाओं, कहानियों का एक क्रम ले लेता, कथानक सुनाता रहता, रामायण, भागवत, गीता पर प्रवचन देता रहता। मगर, मैं जानता हूँ कि ये समस्त प्रवचन निःसार होते जा रहे हैं। मानवीय मूल्यों का ह्रास होता जा रहा है। मानसिक शक्ति क्षीण होती चली जा रही है। आत्मिक शक्ति पर आवरण पड़ते चले जा रहे हैं। जन्म-दर-जन्म मनुष्य सिर्फ और सिर्फ पतन के मार्ग पर बढ़ता चला जा रहा है। उस पतन के मार्ग पर विराम लगाने के लिये ही यह एक मार्ग प्रदान किया गया है।
जितने क्षण भी आप मेरे सान्निध्य में रहते हैं, मेरा मूल चिन्तन यही रहता है कि आपके अन्दर जागृति पैदा करूँ, आपके अन्दर एक चेतना पैदा करूँ। अपनी साधना तरंगों के माध्यम से, ‘माँ’ की कृपा के माध्यम से वह विचारशक्ति आपको दूँ, वह चेतना आपको दूँ कि भटकावों से आप दूर हो सकें। आप कुछ पल के लिये विचार कर सकें, कुछ कदम सत्यपथ पर चल सकें और सत्य के एक पल का सान्निध्य कभी निष्फल नहीं जाता। उसी का परिणाम है कि आप समस्त लोग, आज देश के करोड़ों लोग एक विचारधारा को अपनाकर ‘माँ’ की आराधना-भक्ति में डूबते चले जा रहे हैं, जो प्रत्यक्ष रूप से यहाँ सम्मिलित होते हैं और जो अप्रत्यक्ष रूप से एक-दूसरे के सम्पर्क में आ रहे हैं। क्या आज के पहले लोगों के घरों में यह प्रेरणा दी गई कि ‘माँ’ के ध्वज को घर में टँगवाओ, अपने ही घर को मन्दिर बना डालो?
मैं कौन हूँ? मेरी क्षमतायें क्या हैं? इनको जानने का प्रयास करना है और इसके लिये बड़ा सहज और सरल मार्ग है। अनेकों चिन्तन, अनेकों विचार अब तक दिये जा चुके हैं। कुछ बिन्दु हैं, जिन पर सदैव सोच और विचार करके चलना है। आप लोग अक्सर गाते रहते हैं- ‘गुरु का पार नहीं पाया जा सकता, ‘माँ’ का पार नहीं पाया जा सकता।’ मैं कह रहा हूँ आपकी आत्मा का पार नहीं पाया जा सकता। आपके अन्दर बैठी आत्मा अजर-अमर-अविनाशी सत्ता है। उसकी क्षमता का पार न आज तक कोई पा सका है, न कोई पार पा सकेगा। चूँकि वह परमसत्ता का अंश है और परमसत्ता के अंश का भी अंश यदि उस परमसत्ता से जुड़ा हुआ है, तो उसका पार पाया ही नहीं जा सकता। हम सिर्फ उसमें डूब सकते हैं। हम उसमें सिर्फ समा सकते हैं। हम सिर्फ उसका आनन्द प्राप्त कर सकते हैं। हमारे पास सुनहरा सौभाग्य है। नाना प्रकार की कथायें-कहानियाँ आप लोग सुनते रहते हैं कि कस्तूरी मृग की नाभि में बसती है और वह जंगल-जंगल भटकता रहता है। मगर, कभी आप लोगों ने विचार किया है, कभी किसी साधु-सन्त- संन्यासी ने यह विचार दिया है कि हजारों-करोड़ों कस्तूरियों से बढ़कर महाकस्तूरी, जो आपके शरीर के अन्दर बैठी हुई है, आप उसको भुलाकर कहाँ किसको खोज रहे हो? किस दिशा की ओर भागते जा रहे हो? आप एक बार विचार ही नहीं करना चाहते कि जिस सत्य से जुड़ना चाहते हो, उस सत्य का मूल स्रोत आपके अन्दर बैठा हुआ है और जब तक उस मूल स्रोत की ओर आप आकर्षित नहीं होगे, तब तक आप नाना प्रकार के भजन-कीर्तन, नाना प्रकार की स्थितियों की ओर आप बढ़ते चले जायें, अनेकों भागवत-पुराण करवा लें, अनेकों कथायें सुन लें, आप लाभ नहीं प्राप्त कर पायेंगे। आंशिक लाभ ही प्राप्त होता है।
एक बड़ा सरल और सहज मार्ग है कि अपने आचार, विचार और व्यवहार में परिवर्तन लायें। आज भगवती मानव कल्याण संगठन, जिस तीव्र गति से समाज में परिवर्तन डालता चला जा रहा है, उसके लिये वही प्रेरणा दी गई है कि खुद बदलो, समाज अपने आप बदलता चला जायेगा। ऐसी कौन सी प्रेरणा है, जो आपके अन्दर से कार्य कर रही है कि आप नाना प्रकार की समस्याओं से ग्रसित होने के बाद भी स्वतः अपने जीवन में परिवर्तन ला रहे हैं और समाज में जनजागरण के लिये बरबस आपके कदम बढ़ते जा रहे हैं? उस सत्य के पीछे माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा की कृपा जुड़ी हुई है। उसे समझने और जानने की जरूरत है। एक ऐसा प्रवाह चल रहा है, जो आज तक कहीं चल नहीं सका। एक जनजागरण की गति घर-घर फैलती चली जा रही है। उस ऊर्जा की शक्ति को और समझने की जरूरत है।
हरपल शोधन करो, हर पल अपने आपको जानने का प्रयास करो। बहुत कुछ परिवर्तन आपके अन्दर आ रहा है। जो पूर्व से जुड़े हुये शिष्य हैं, हर पल मैं महसूस करता हूँ, जो गति उनके अन्दर आती है, इस आश्रम में वो आकर जिस तरह से उस ऊर्जा को प्राप्त करते हैं, उनके अन्दर एक प्रवाह सा पैदा होता है। उनके अन्दर कुछ कर गुजरने की एक प्रेरणा सी पैदा होती है। यह प्रेरणा अगर इसी तरह से चलती चली गई, तो वह दिन दूर नहीं होगा, जिस दिन ‘माँ’मय वातावरण पूरे देश नहीं, विश्व में एक प्रवाह फैलायेगा। सिर्फ दस प्रतिशत परिवर्तन लाने की आवश्यकता है। मैंने कहा है कि मेरा एक-एक शिष्य सौ-सौ पर भारी पड़ेगा। उस चेतना शक्ति को, उस चेतना के प्रवाह को दुनिया का कोई भयावह वातावरण, कोई झंझावात रोक नहीं सकेगा। आपकी जो भी कामनायें हों, जो भी विचारधारायें हों, सिर्फ एक सोच बनाकर चलें कि हमारा सब कुछ मूल स्रोत अपने आपसे प्रारम्भ होता है, आत्मतत्त्व से प्रारम्भ होता है। हमें आत्मतत्त्व, गुरुतत्त्व और प्रकृतितत्त्व को स्वीकार करके हर पल एक शोधन करना है।
कुछ बिन्दुओं पर विचार करके चलना है। कुछ बातों पर विचार हर पल करना है कि मनुष्य का जीवन जो अनेकों अलौकिक क्षमताओं से परिपूर्ण है, दिव्य शक्तियों से परिपूर्ण है, उसमें यदि हम कुछ बातों पर विचार कर लें कि भाग्य और दुर्भाग्य, सत्कर्म और दुष्कर्म, विचार और कर्म, इन कुछ बातों पर हम हर पल कुछ शोधन करें। मैंने कहा कि ग्रन्थों से आपको सब कुछ प्राप्त नहीं हो सकेगा। यदि ग्रन्थों की विचारधारा में जायेंगे, तो आप उलझते चले जायेंगे। इसलिये मेरे द्वारा पूर्व में चिन्तन दिया गया था कि आज के कलिकाल के भयावह वातावरण में कुछ समय के लिये धर्मग्रन्थों को समेटकर एक कोने में रख देने की जरूरत है, चूँकि इसकी गहराई को आप समझ ही नहीं सकोगे। इतने आवरण समाज में पड़ चुके हैं कि उस सत्य के नजदीक नहीं जा सकोगे और धर्मग्रन्थों में इतना अधिक परिवर्तन कर दिया गया है कि जिसकी कोई कल्पना ही नहीं। वहाँ फिर आपको वहीं से प्रारम्भ करना है, एक उसी बिन्दु से आगे उठना है, जो वास्तविक सत्य का बिन्दु आपके अन्दर बैठा हुआ है। फिर से आपके अन्दर एक भक्तिभाव पैदा होना चाहिये।
भक्ति, ज्ञान और आत्मशक्ति की मैंने बात कही है। सब कुछ भुला दो कि आपको धन चाहिये, दौलत चाहिये, वैभव चाहिये। सब कुछ का सार उसी सार में छिपा हुआ है। यहाँ दौलत की कामना लेकर मत आओ, यहाँ दौलत नहीं मिलती। अरे, मैं कह रहा हूँ कि दौलत तो तुम्हारे पीछे-पीछे भागेगी। तुम पैर से ठोकर मारोगे और वह तुम्हारे पीछे-पीछे दौड़ेगी। मगर, तुम्हें जिसके पीछे दौड़ना है, उस तरफ तुम्हारे कदम बढ़ना तो शुरू हो जायें। तुम सत्यपथ पर चलना तो शुरू हो जाओ। ठण्ड लगी हुई हो, सूर्य की किरणों के समक्ष आकर खड़े हो जाओगे, तो ठण्ड तो आपकी अपने आप ही दूर भाग जायेगी। उसके लिये कुछ करने की जरूरत नहीं रहती, सोचने की जरूरत नहीं रहती कि मेरी ठण्ड दूर भग जाये। जो अजर-अमर-अविनाशी सत्ता है, आनन्द की खान है, उस अजर-अमर-अविनाशी सत्ता के हम अंश ही तो हैं। फिर उस आनन्द से हम दूर क्यों हैं? दूर सिर्फ इसलिये हैं कि हम दुर्भाग्य और सौभाग्य को जानते हुये भी उस पर अमल नहीं करना चाहते। हमारे अन्दर जो प्रकृतिसत्ता ने अलौकिक बुद्धि दी है, उसका हम उपयोग ही नहीं करना चाहते। इन छोटी-छोटी बातों पर आप लोग विचार करें।
जब भी आप बैठें, तो सोचें हमें करना क्या है? एक मजदूर के लिये भी वही आवश्यक है, एक कर्मचारी के लिये वही आवश्यक है, एक व्यवसायी के लिये वही आवश्यक है और एक राजा के लिये भी वही आवश्यक है। सभी के लिये समान भाव से यह मार्ग है कि विचारों में परिवर्तन लाया जाय। तुम जहाँ भी जिस जगह खड़े हो, ऊपर देखने की आवश्यकता नहीं है, वहीं से अपनी यात्रा को प्रारम्भ करो। तुम्हारे जीवन की जो समस्यायें होंगी, उन पर बार-बार सोचने की जरूरत नहीं है। जिस तरह मैंने कहा है कि एक व्यक्ति जो खड़ा होना ही न जानता हो, उससे कहा जाय कि थोड़ी दूर की यात्रा तय कर लो, तो घुटने के बल चलकर कितनी यात्रा तय कर सकेगा? और, जो पैरों से खड़ा हो जाय, वह लम्बे से लम्बे पथ को तय कर लेगा, एक दिन लक्ष्य तक पहुँच जायेगा। उसी तरह आपको कुछ करने की जरूरत नहीं, सिर्फ स्थिर करना है। अपने अन्दर की जो शक्तियाँ हैं, अपने अन्दर की जो विचारशक्ति है, अपने अन्दर की जो सोचशक्ति है, अपने अन्दर की जो बुद्धि है, अपने अन्दर की जो मनःशक्ति है, उसका उपयोग करना है। उसका दुरुपयोग न होने पाये।
हरपल एक विचार बनाकर चलना है कि भाग्य और दुर्भाग्य हैं क्या? आप किसी दूसरे पर दोषारोपण करते हो, कभी देवी-देवताओं पर दोषारोपण करते हो, तो कभी किसी पर दोषारोपण करते हो। आपके जीवन में कभी कोई घटना घटित हो जाय, आपके घर में कभी कोई खत्म हो जाय, आप देवी-देवताओं की आराधना-पूजन करना बन्द कर देते हो। भोजन करना आप लोग नहीं बन्द करते हो। अपनी सुख-सुविधाओं को आप लोग नहीं त्यागते हो। आपको इस स्थान पर भी बैठना था, आपको इस चीज का ज्ञान था कि शायद पण्डाल में हमें गर्मी लगेगी, इसलिये पंखा लेकर बैठना आवश्यक है। मगर, क्या कभी इस बात पर भी विचार करते हो कि हमारे जीवन की और जो आवश्यकतायें हैं, वो किस प्रकार से पूर्ण होंगी? मैंने एक सहज बात बतलाई है कि आपकी बुद्धि कार्य तो करती है, मगर वह कार्य आपके स्थूलशरीर के सुख तक ही सीमित है। और, मैंने कहा है कि काया महाठगिनी मैं जानी। मेरे द्वारा यह नहीं कहा जाता कि माया महाठगिनी मैं जानी। काया से बड़ी ठगिनी और कुछ भी नहीं है। इस काया का उपयोग करना है। इस काया का सदुपयोग करना है। इस काया के अन्दर बैठे अपने सूक्ष्म को जानना है। सूक्ष्म की शक्तियों को उजागर करना है, सूक्ष्म की शक्तियों को पहिचानना है। अपने अन्दर छिपी हुई अलौकिक शक्तियों को धीरे-धीरे करके जाग्रत् करना है और ज्यों-ज्यों आप उस सत्यपथ पर बढ़ते जाओगे, आपके अन्दर आनन्द, आपके अन्दर एक तृप्ति आती चली जायेगी। फिर नाना प्रकार के पक्वान्न जो आप खाते हैं, उनसे ज्यादा तृप्ति आपको नमक-रोटी खाने से प्राप्त हो जाएगी। आपका जीवन कम संसाधनों में भी सुख-शान्ति से रहने लग जायेगा। सिर्फ एक सोच पर ही तो सब कुछ छिपा हुआ है, विचार पर ही तो सब कुछ छिपा हुआ है। आप यदि समझ जायें कि भाग्य और दुर्भाग्य है क्या?
यह विज्ञान भी स्वीकार करता है कि आत्मा अजर-अमर-अविनाशी सत्ता है। मनुष्य बार-बार नवीन जीवन प्राप्त करता है। हमारे पूर्वजनित अच्छे कर्म भाग्य के रूप में हमारा साथ देते हैं और हमारे दुष्कर्म दुर्भाग्य के रूप में हमारे साथ जुड़ जाते हैं। मेरे द्वारा कहा गया है कि आत्मा कभी किसी के साथ भेदभाव नहीं करती। आपके शरीर के अन्दर वह जो सुपरकम्प्यूटर बैठा हुआ है, उस पर सदैव आपको सचेत रहने की आवश्यकता है। चूँकि प्रकृतिसत्ता कभी किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं करती। गुरूसत्ता कभी किसी के साथ भेदभाव नहीं करती। आत्मतत्त्व कभी किसी के साथ भेदभाव नहीं करता। वह अपने आपको भी समान भाव से दण्डित करता रहता है। यदि आप कोई अपराध करते हैं, तो आपके अन्दर ही वह फीड होता है कि इस अपराध का परिणाम कब, कहाँ और किस रूप में प्राप्त होना है? और, वह घटना उसी तरह से घटित होती है। एक बच्चे के जन्म लेते ही उसके हाथ की रेखायें, मस्तक की रेखायें, यह सब कुछ स्पष्ट कर देती हैं। पूर्व का भाग्य-दुर्भाग्य हर पल आपके साथ चलता है, मगर प्रकृतिसत्ता ने कर्मपथ सदैव आपके साथ खोल रखा है। आपके अन्दर एक बुद्धि दी है, विवेक दिया है कि आप अपने दुर्भाग्य को सौभाग्य में किस प्रकार बदलें? सौभाग्य को और अच्छे सौभाग्य में किस प्रकार बदलें? आज जो भी दुर्भाग्य आपके सामने खड़ा है, उसके लिये कोई दूसरा दोषी नहीं है। उसके लिये आप स्वतः दोषी हैं। इसलिये जिस चीज के लिये आप स्वतः दोषी हैं, तो उसमें वेदना शब्द को तो हटा ही देना चाहिये। बड़े ही सहज भाव से उसको भी स्वीकार करने का भाव अपने अन्दर लाओ कि यदि कोई दुर्भाग्य मेरे सामने आकर खड़ा हो गया है, तो उसमें मुझे रोना नहीं, बिलखना नहीं, तड़पना नहीं, बल्कि उसका सामना करना है, सहर्षभाव से स्वीकार कर लेना है।
अपने अन्दर की आत्मशक्ति के बल पर संघर्ष करने की क्षमता अपने अन्दर जाग्रत् करो। उस आत्मचेतना को प्रभावक बनाने का प्रयास करो। दुर्भाग्य धीरे-धीरे करके तुम्हारे सौभाग्य में बदलता चला जायेगा। सत्संग के सान्निध्य का जो लाभ प्राप्त होता है, अपनी आत्मा का जब आप संग करते हैं, अपनी आत्मा के जब आप नजदीक जाते हैं, तो उतनी चेतना तरंगें आपकी कोशिकाओं को जाग्रत् करती चली जाती हैं। काम-क्रोध-लोभ-मोह, ये सब कुछ जब आपके अन्दर विचारशक्ति पैदा होती है, तब आपके अन्दर उस प्रकार हावी होते चले जाते हैं। लाखों-करोड़ों-अरबों की सम्पदा बिखरी पड़ी हो, यदि आपके अन्दर लोभ प्रवृत्ति जाग्रत् नहीं होगी, तो आप उसके बगल से निकलते चले जायेंगे, आपको वह मिट्टी समान नजर आयेगी। आप उसको तभी उठायेंगे, जब आपके अन्दर लोभ प्रवृत्ति जाग्रत् होगी। आप किसी को एक तमाचा नहीं मार सकते, जब तक आपके अन्दर क्रोधभाव जाग्रत् नहीं होगा। आपके अन्दर जब तक कामभावना जाग्रत् नहीं होगी, तब तक आप विषय-विकारों की तरफ एक कदम आगे बढ़ा नहीं सकते। यह सब कुछ हमारी सोच पर आधारित है। हमारे अन्दर एक विचारशक्ति, हमारे अन्दर एक बुद्धिशक्ति, प्रकृतिसत्ता ने इतनी बहुमूल्य धरोहरें हमारे शरीर के अन्दर स्थापित कर रखी हैं। उसका सिर्फ उपयोग करने लगें कि जब हमारे सोचने से कामवासना जाग्रत् हो जाती है, हमारे अन्दर के भाव बनाने से क्रोध जाग्रत् हो जाता है, हमारे अन्दर के भाव बनाने से विषय-विकार जाग्रत् हो जाते हैं, हमारे अन्दर के भाव बनाने से हमारे अन्दर लोभ प्रवृत्ति जाग्रत् हो जाती है, तो क्यों न उस भावपक्ष को प्रभावक बनाने का प्रयास करें? अपने अन्दर छिपी हुई चेतनाशक्ति का सदुपयोग करने का प्रयास करें? अपने अन्दर विचारशक्ति को सही दिशा दें?
भाग्य-दुर्भाग्य को बदलने के लिये वर्तमान जो समय, मैंने कहा है कि समाज की जो सबसे बड़ी विडम्बना है कि या तो वह अतीत पर उलझा हुआ है या तो उसको भविष्य की चिन्ता खाये जा रही है कि भविष्य में क्या होगा? अतीत मेरा ऐसा है। अतीत मेरा वैसा है। अरे, मैं कह रहा हूँ न अतीत की चिन्ता करो, न भविष्य की चिन्ता करो। चिन्ता करना है, तो वर्तमान की चिन्ता करो। वर्तमान समय जो आपका गुजरता चला जा रहा है, उस वर्तमान समय का सदुपयोग कर लो। यदि तुम चाहते हो कि तुम्हारा दुर्भाग्य कभी तुम्हारे सामने न आये, सौभाग्य तुम्हारा पनपता रहे, तो उसके लिये सिर्फ और सिर्फ एक मार्ग है कि अपने आचार, विचार और व्यवहार में परिवर्तन लाओ। जिस प्रकार ‘माँ’ ने आपको भेजा था, वैसा सहज स्वरूप हासिल करने का प्रयास करो। सत्कर्म और दुष्कर्म को पहिचानने का प्रयास करो। कौन से कर्म सत्कर्म हैं और कौन से कर्म दुष्कर्म हैं? मेरे द्वारा कर्म की परिभाषा दी गई है कि मनुष्य द्वारा किया जाने वाला हर वह कर्म सत्कर्म है, जिससे आत्मा और परमसत्ता की नजदीकता प्राप्त होती है और वह हर कर्म दुष्कर्म है, जिससे आत्मा और परमसत्ता के बीच की दूरियाँ बढ़ती चली जाती हैं। हर पल एक सोच आपको बनाना है।
अन्तरात्मा की आवाज को सुनना सीखो। अन्तरात्मा की आवाज को पहिचानना सीखो, आप चूँकि इन छोटे-छोटे शब्दों को भूल चुके हो। कभी आप दूसरे की कमियों का ऐहसास कराना चाहते हो, उससे सही कहलाना चाहते हो, तो उससे कहते हो कि अपनी अन्तरात्मा की आवाज से बोलो। अपनी अन्तरात्मा की आवाज से क्या तुम सही कह रहे हो? उससे सत्य कहलवाना चाहते हो। वह अन्तरात्मा की आवाज क्या है? वही आपके अन्तर्मन में बैठी आपकी चेतना, आपका सूक्ष्म। जो कहीं स्थूल और सूक्ष्म की दूरियाँ बढ़ चुकी हैं, आप अपनी अन्तरात्मा की आवाज को सुन नहीं पाते, समझ नहीं पाते, जबकि शरीर के अन्दर हर पल आपको वह प्रेरित करती है सतोगुणी कर्म करने के लिये, सत्कर्म करने के लिये। उस आवाज को और गहराई से जानने-समझने का प्रयास करो और उसे जानने-समझने के लिये ही वे नियम हैं, जो भगवती मानव कल्याण संगठन की विचारधारा दी गई है कि अपने खान-पान में परिवर्तन लाओ। आपकी सोच में तभी परिवर्तन आयेगा, जब आप अपने दुष्कर्मों में कहीं न कहीं से विराम लगाओगे। आपने कल तक क्या किया, उसको भुला दो। आज से सिर्फ एक विचार ले लो कि आज से मुझे क्या करना है? जब मेरे कर्मों का फल ही भाग्य और दुर्भाग्य के रूप में मेरे सामने आकर खड़ा होता है, तो मुझे यदि अपने आपको सँवारना है, यदि मुझे अपने आपको दिशा देना है, तो मुझे अपने आपके द्वारा ही अपने कर्मौं में परिवर्तन लाना पड़ेगा। और, जिस दिन वह सोच आपकी गहराई से बैठ गई, उस दिन आपके अन्दर साधक प्रवृत्ति पैदा होने लगेगी।
मैंने कहा है कि मैं समाज में केवल शिष्यों का समूह नहीं तैयार कर रहा, भक्तों का समूह नहीं तैयार कर रहा। मेरे द्वारा समाज में साधक तैयार किये जा रहे हैं। जब तक समाज के अन्दर एक साधक प्रवृत्ति जाग्रत् नहीं होगी, तब तक मानवीय मूल्यों की न रक्षा की जा सकती है, न मानवीय मूल्यों की स्थापना की जा सकती है। जब-जब समाज में साधक प्रवृत्ति जाग्रत् हुई है, तभी भक्तिकाल आया है। भक्ति में शक्ति समाहित है और शक्ति में भक्ति समाहित है। हम जिस तरह का समाज चाहते हैं, जिस तरह समाज में परिवर्तन लाना चाहते हैं, उसके लिये हमको अपने आपमें परिवर्तन लाकर उन मूल्यों की स्थापना करनी पड़ेगी, जिन मूल्यों की स्थापना करने से धीरे-धीरे समाज में परिवर्तन आता चला जायेगा। धीरे-धीरे आपकी समस्याओं का निदान मिलता चला जायेगा। बड़े सहज और सरल मार्ग होते हैं कि एक-एक पल वर्तमान का जो आप गुजार रहे हैं, जिस तरह इस आश्रम में हैं, मेरे द्वारा बार-बार आपको सचेत किया जाता है कि जब इस आश्रम के परिसर के अन्दर आप प्रवेश कर जाया करें, तो इस चीज का ध्यान रखें कि आप मेरे सम्मुख बैठे हों या न बैठे हों, मेरी चेतना तरंगें हर पल आप लोगों के आसपास होती हैं। स्थूल से अधिक सूक्ष्मशरीर के माध्यम से मेरे द्वारा कार्य किया जाता है।
मैं स्वतः साधक का जीवन जीता हूँ और साधक ही समाज में तैयार करना चाहता हूँ। भगवे वस्त्रधारी साधु-सन्त-संन्यासियों का यदि मैं समूह तैयार कर रहा होता, तो आज हजारों-हजार लोग यहाँ दाढ़ी-बाल रखाये हुये साधु-सन्त-संन्यासी के रूप में नजर आते। आने वाले लोगों में जो दाढ़ी-बाल रखाये हुये होते हैं, उनके भी दाढ़ी-बाल बनवाकर एक साधक के रूप में मेरे द्वारा रखा जाता है कि आज उस मार्ग में जिस पक्ष को लेकर तुम तत्काल साधुवेश में जाना चाहते हो, अभी उसके बहुत पीछे खड़े हो। और, जिस दिन तुम अपने अन्दर साधक प्रवृत्ति को पैदा कर लोगे, उस दिन तुम साधु-सन्तों की श्रेणी से ऊपर खड़े नजर आओगे। आपका गुरु ऋषित्व का जीवन जीता है, साधक का जीवन जीता है और आपके अन्दर एक साधक के गुण ही पैदा करना चाहता है, एक सोच के माध्यम से, एक विचार के माध्यम से, उस सत्य को स्वीकार कर लेने के माध्यम से।
आप ‘माँ’ के भक्त बनना चाहते हैं, मगर मूल सत्य को स्वीकार तो करो। 101 प्रतिशत वह सत्य स्वीकार तो हो जाये कि हम उस परमसत्ता के अंश हैं। पहले इस सत्य को गहराई से अपने अन्दर संकल्पित कर लो। एक ठोस संकल्प आ जाये कि हम उस परमसत्ता के अंश हैं, इसमें अंशमात्र भी भेद नहीं है। दुनिया के चाहे जो झंझावात आयें, मगर उनसे हमारी इस विचारशक्ति में कोई फर्क नहीं पड़ेगा। मगर, आप उस सत्यतत्त्व को भुला देते हैं। छोटे-छोटे झंझावात आये, छोटी सी परेशानियाँ आपके अन्दर आईं और आपके अन्दर तुरन्त ऐसे भाव आजाते हैं कि उन चीजों पर आपके विचार भटकने लग जाते हैं। आप कई बार देवी-देवताओं को नकारने लग जाते हो। साधक का जीवन एक घड़े के समान होता है। जिस तरह घड़े में पूरा पानी भरा हुआ हो और एक बार लुढ़का दिया जाये, तो घड़ा पूरा का पूरा खाली हो जाता है। कई बार मैं देखता हूँ कि शिष्य एक भावपक्ष को लेकर काफी लम्बे अन्तराल तक जाते हैं और जिस समय वे लाभ के बिन्दु के आसपास पहुँचते हैं, उनके जीवन की कोई न कोई घटनायें उनको भटकाकर दूर कर देती हैं।
वह ठोस निर्णय लो कि आप उस गुरु के शिष्य हो, जो आपको चेतनाअंश के रूप में तैयार कर रहा है। मैंने कहा है कि दुनिया का कोई भी झंझावात हो, मुझे कोढ़ियों, अपाहिजों, नेत्रहीनों का जीवन दे दिया जाय, तब भी माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा और मेरे बीच जो सम्बन्ध हैं, उसमें अंशमात्र भी कहीं फर्क नहीं आयेगा। उस सत्य को उस गहराई तक स्वीकार तो करो। आनन्द आपको उसी क्षण से प्राप्त होने लग जायेगा, जिस क्षण सत्य आपने स्वीकार कर लिया कि हम आत्मा हैं और उसी अविनाशी परमसत्ता के अंश हैं और जब परमसत्ता, अविनाशीसत्ता के अंश हैं, तो परमसत्ता कभी हमारे साथ कुछ गलत नहीं कर सकती। वह हमारे साथ अच्छाई कर रही हो, हमारे साथ बुराई कर रही हो, हमको उसको सहर्ष भाव से स्वीकार करके वर्तमान कर्म पर ध्यान रखने की आवश्यकता है कि इन परिस्थितियों में मेरा कर्म और मेरा धर्म क्या बनता है? और, इसी कर्म और धर्म को बताने के लिये सद्गुरु की आवश्यकता पड़ती है। आत्मतत्त्व हमारा जाग्रत् हो सके, उसी के लिये एक सद्गुरु की आवश्यकता पड़ती है कि जिसके बताये हुये मार्ग पर साधक नित्यप्रति चलते हुये उस सत्यपथ पर अपने आपको बढ़ाते चले जायें।
आपको बहुमुखी विचारधारा दी गई है कि आप उस सोच को जाग्रत् करो। अपनी एक विचारशक्ति पर एक शोधन करना शुरू कर दो। महीने-पन्द्रह दिन के लिये शोधन तो करो। एक सोच बना लो कि जब विचार पर सब कुछ आधारित है कि मेरे अन्दर के विचार जिस तरह बनने लग जाते हैं, उसी तरह की क्रियायें मेरा शरीर करने लग जाता है, तो क्यों न इसे सतोगुणी बनाकर उस आत्मतत्त्व में जो आवरण पड़े हुये हैं, उन आवरणों को हटाने का प्रयास किया जाये? दिनभर एक सोच बनाने का प्रयास करो। दिनभर में लाखों प्रकार के विचार आपके अन्दर आते रहते हैं और जाते रहते हैं। मैंने उसके लिये आपको ध्यान की प्रक्रिया का ज्ञान दिया है कि उन विचारों में मत उलझकर रह जाओ। विचारों को अपनी बुद्धि के बल पर एक सही दिशा दो, एक सोच दो कि जब भी आप गलत बातों पर सोच रहे हों, गलत विचारों में जा रहे हों, तो उनको रोकने का प्रयास करो। आप घण्टे-आधे घण्टेभर पूजन करते हो और दिनभर कभी किसी के बारे में बुरा सोचते रहोगे कि उसका अहित हो जाये, उसका अनर्थ हो जाये। इसने गलत किया, इसके साथ ऐसा हो जाये। उससे थोड़ा सा कहीं न कहीं विचार को विराम दो और अच्छी बातें सोचना शुरू करो। सद्विचार अपने अन्दर लाना शुरू करो। एक सोच को बनाने का प्रयास करो कि हम विचारों का हर पल शोधन करेंगे। नित्य विचारों को एक सही दिशा देंगे।
नित्य जब सायंकाल सोने जाओ, तो एक विचार अपने अन्दर मन में लाओ। सोचो कि आज दिनभर मेरे विचार कहाँ-कहाँ भटकते रहे? कितने बार मैंने गलत करने के बारे में सोचा? कितने बार मेरे अन्दर ईर्ष्याभाव आया? कितने बार सोच भटकी? क्या मैं इन भटकी हुई सोचों को रोक नहीं सकता था? मैं यदि उस समय का सदुपयोग कर लेता, तो कितना अच्छा होता? भाग्य और दुर्भाग्य की मैं बात कह रहा हूँ। सोचने मात्र का फर्क पड़ता है आपके जीवन में। आप यह न सोचें कि आप किसी शत्रु की हत्या करने के बारे में सोचते रहे या उसके अहित के बारे में सोचते रहे और आपने उसका अहित नहीं किया, तो आप यह न सोचें कि बस हम तो केवल सोचते रहे और इससे हमारे जीवन में कुछ फर्क नहीं पड़ेगा। अरे, सोचने मात्र का आपके जीवन में विपरीत फर्क पड़ता है। उसका विपरीत प्रभाव आपके जीवन में पड़ता है। आप नित्य सोचें कि मैंने जो समय निरर्थक बातों में गवाँ दिया, जो निरर्थक सोचों में गवाँ दिया, उसके दुष्परिणाम मेरे साथ कहीं न कहीं जरूर आकर जुड़ेंगे। अतः नित्य सोचें कि मैं कम से कम जब दूसरे दिन का जीवन प्रारम्भ करूँगा, तो दिनभर अच्छी बातें ही सोचूँगा, आत्मकल्याण के विषय में सोचूँगा, जनकल्याण के विषय में सोचूँगा और सत्कर्म करने के विषय में सोचूँगा।
हर पल विचारों को सही दिशा देने का प्रयास करो। एक लोभी प्रवृत्ति से अपने आपको हटाने का प्रयास करो। आज समाज के अन्दर एक भटकाव आता चला जा रहा है। आप अपनी जो समस्यायें हैं, उनसे व्यथित नहीं हो। आप अभावों का जीवन जी रहे हो, इससे आपके अन्दर व्यथा नहीं है। दूसरा सम्पन्नता का जीवन जी रहा है, इसलिये आप व्यथित हो। आप पैदल चल रहे हो, इसकी तकलीफ आपको नहीं है। तकलीफ तब होती है, जब आप देखते हो कि दूसरा मोटरसाइकिल से जा रहा है और मेरे पास मोटरसाइकिल नहीं है, दूसरा कार से जा रहा है, मेरे पास कार नहीं है। विचारों में बहुत कुछ छिपा हुआ है। विचार आपके पूरे जीवन को बदल देते हैं। विचार दानव को भी मानव बना देते हैं और मानव को दानव बना देते हैं। अगर सच्चा सुख आपको प्राप्त करना है, तो सच्चा सुख आपको प्राप्त होगा सदैव अपने से नीचे देखने में, जो अभावों का जीवन जी रहा है, संघर्षौं का जीवन जी रहा है, उसकी अपेक्षा प्रकृतिसत्ता ने मुझको बहुत कुछ दे रखा है और मैं इस पर भी सन्तोष नहीं प्राप्त कर पाता!
आज से पच्चीस साल, पचास साल पीछे जाकर देखो। आपके बाबा-दादा कितने अभावों के बीच रहते थे, मगर उनकी शारीरिक क्षमतायें आप लोगों से ज्यादा थीं। वे आप लोगों से ज्यादा स्वस्थ थे। आपसे ज्यादा शारीरिक क्षमता उनके अन्दर थी। आपसे ज्यादा समय उनके पास सुख और आनन्द के लिये निकल आता था। बच्चों के पास बैठने का समय निकल आता था। आपको पाँच किलोमीटर चलने में नाना-नानी सब याद आजाते हैं और, बाबा-दादा आपके पचास-पचास किलोमीटर की यात्रा एक-एक दिन में तय करते थे। एक-एक कुण्टल, दो-दो कुण्टल, पाँच-पाँच कुण्टल का बोझ सहज भाव से उठा लेते थे। आज वह घटता चला जा रहा है। आज वह पल्लेदार भी पहले जो एक-एक कुण्टल के बोरा सहज भाव से उठाते थे, ट्रकों में लाद देते थे, अब उनको पचास-पचास किलो का कर दिया गया है। कितना घटाते चले जाओगे? बोरियों के घटा देने से कुछ नहीं होगा, बल्कि सोच पैदा करो कि मैं कल एक कुण्टल का बोरा उठाता था, आज क्यों नहीं उठा पा रहा? मेरे बच्चे कमजोर क्यों होते जा रहे हैं? कमजोर इसलिये होते चले जा रहे हैं कि आपके विचार भटक गये हैं। आपका खान-पान भटक गया है।
आपके अन्दर जो सन्तोष की भावना होनी चाहिये, वह सन्तोष की भावना आपके अन्दर की समाप्त हो गई है। सन्तोष से बड़ा कोई धन नहीं होता। सन्तोष से बड़ी कोई तृप्ति नहीं होती। जिस दिन आप इन शब्दों पर समाहित होने लग जायेंगे, इन शब्दों के सार को समझने लग जायेंगे, तो आप नमक-रोटी खायेंगे, आपके शरीर में ज्यादा तृप्ति मिलेगी और ज्यादा चैतन्यता प्राप्त होगी, आपके शरीर के अन्दर ज्यादा कार्य करने की क्षमता प्राप्त होगी। इन छोटी-छोटी बातों पर विचार करो। छोटी-छोटी बातों पर चिन्तन करो। आप ईर्ष्या मत करो कि दूसरा क्या कर रहा है? उसके संस्कार उसको उस बिन्दु तक पहुँचा रहे हैं और आज तो संस्कारों की भाषा भूल जाओ। उनके दुष्कर्म उनको वह सब वैभव दिला रहे हैं। आज जिस तरह समाज में अनीति- अन्याय-अधर्म फैला हुआ है, जिस तरह दुराचार फैला हुआ है, आज हजारों, लाखों और करोड़ों में खेल रहे हैं, वे अनीति-अन्याय-अधर्म के अन्यायी लोग हैं। सादा जीवन और उच्च विचार की भावना अपने अन्दर पैदा करो। सहज भाव से आप लखपति बन जाओ, करोड़पति बन जाओ, अरबपति बन जाओ, वह आपका सहज विकास है। सहज विकास में आपके अन्दर आत्मकल्याण और जनकल्याण की भावना पनपेगी। मगर, आज यहाँ तो करोड़ों-अरबों की सम्पदा देश से लेकर विदेशों में जमा की जा रही है। अरबों-खरबों की सम्पत्ति में सुख और शान्ति नहीं है। अतः वह ईर्ष्या का भाव छोड़कर आप जहाँ पर खड़े हो, सहजता का जीवन जियो। आपका गुरु भी सहजता का जीवन जीता है। मैंने भी एक किसान परिवार में जन्म लिया है। मेरे जीवन का एक-एक पल मेरे शिष्यों के सामने आइने की तरह साफ रहता है। मैं क्या खाता हूँ? कितने समय सोता हूँ? कितने समय उठता हूँ? कितने समय बैठता हूँ? मेरा जन्म कहाँ हुआ? मेरी वहाँ से आज तक की यात्रा क्या है? मेरे सभी शिष्य इन सभी बातों से अवगत रहते हैं।
मैंने भी वहाँ से एक प्रारम्भ की यात्रा तय की है, एक-एक क्षण का सदुपयोग करके। इस काया को हर पल ठगिनी मानकर कि इस काया का उपयोग करना है। मैं आपसे कहता हूँ कि आप सूर्याेदय से पहले उठ जाया करें। कम से कम सूर्याेदय के पहले स्नान कर लें। मेरे द्वारा तो नित्य प्रातः ढाई बजे उठा जाता है। सूर्योदय से पहले-पहले मेरी अपनी ध्यान-साधना-योग की क्रियायें सभी कुछ पूर्ण हो जाती हैं और उनको पूर्ण करने के बाद सूर्योदय के आसपास आप सब लोगों के लिये मैं चालीसा भवन में आरती-पूजन करके मूलध्वज में पहुँचता हूँ। उसके बाद मिलने का जो समय रहता है, ग्यारह-बारह बजे तक एक क्रम जो चलता रहता है, नवरात्रि के क्रमों को छोड़कर या विशेष परिस्थितियों को छोड़कर, नित्य कोई गरीब-अमीर जो भी पहुँचते हैं, ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है, जिसको मिलने का समय न मिलता हो। उस समय जो भी समय लग जाता है, बराबर मिलने का समय चलता रहता है। उसके बाद दोपहर में जाकर चार घण्टे, छः घण्टे, दो घण्टे, एक घण्टे जब भी जैसा समय रहता है, उस समय मजदूरों के साथ खड़े होकर यहाँ के कार्य करवाता हूँ। सायंकाल पुनः पूजन में, आराधना में बैठ जाता हूँ और सायंकाल की आरती के समय आपके समक्ष आता हूँ। रात्रि को ग्यारह बजे तक मेरे कार्य चलते रहते हैं। इतनी बड़ी व्यवस्था, यह देशस्तर पर जो संगठन चल रहा है, उसके लिये अनेकों प्रकार के कार्य होते हैं। रात्रि ग्यारह बजे विश्राम करने को मिलता है और रात्रि में मैं स्वतः, सभी को मालूम है, एक बार उठकर कुल्ला आदि करने के लिये जाता हूँ और पुनः ध्यान में बैठता हूँ। रात्रि में ढाई-तीन घण्टे का जो समय मिलता है, उसमें भी ध्यान और नींद की सभी क्रियाओं को पूर्ण करना पड़ता है। महीने में दस-पाँच दिन कभीकभार ऐसा होता है कि दोपहर को ऐसा समय मिल जाये कि मुझे आधे, एक घण्टे का विश्राम मिल जाये।
शरीर को विश्राम देने से चेतना नहीं मिलती। शरीर को चेतना मिलती है आपकी सोचों से, आपके विचारों से, कि आपके अन्दर विचार क्या पनप रहे हैं? आपके अन्दर यह सोच आत्मकल्याण और जनकल्याण की होजाये। आपके अन्दर यदि सोच यह होजाये कि हर पल हमें इस जीवन का सदुपयोग करना है, यह जीवन हमें कुछ उपयोग करने के लिये मिला हुआ है, इसका हमें सदुपयोग करना है और इसका दुरुपयोग न होने पाये, तो आप सजग हो जायेंगे, सचेत हो जायेंगे। विचारों-कुविचारों का बहुत बड़ा फर्क पड़ता है। जैसी सोच होगी, जैसे आपके सत्कर्म और दुष्कर्म होंगे, वैसा भाग्य और दुर्भाग्य आपके साथ होगा। आपने जैसा कूड़ाकरकट अपने दिमाग में भर रखा है, वैसे विचार आपके बनने लगते हैं। उन विचारों को रोकने के लिये ही सत्संग की जरूरत पड़ती है।
जिस प्रकार यदि किसी घने जंगल में एक कोई छोटी सी कुटिया बनी हो, वहाँ से बढ़िया नदी बह रही हो, बिल्कुल शान्त-एकान्त घनघोर जंगल के बीच हो और वहाँ तीन प्रकार के व्यक्ति पहुँचें। यदि वहाँ कोई साधक पहुँचेगा, तो उस मनोरम स्थल को देखकर, घने जंगल को देखकर, छोटी सी बनी हुई कुटिया को देखकर और एक बहती हुई नदी को देखकर उसका मन वहाँ स्थिर होजाएगा और जम जायेगा। उसे लगेगा, यह स्थान सौभाग्य से मुझे प्राप्त हो गया। साधना करने के लिये मुझे इससे अच्छा कोई दूसरा स्थान नहीं मिल सकता। इस जगह मैं अगर ध्यान लगाऊँगा, तो मेरा मन एकाग्र हो जायेगा। यह कोलाहल से दूर है, यहाँ कोई मुझे डिस्टर्ब नहीं कर सकेगा। मुझे आनन्द में डूबने का मौका मिल जायेगा। उसका मन वहाँ बरबस लगने लग जायेगा। और, वहीं पर यदि एक चोर पहुँच जाये। स्थान एक है, वातावरण एक है, मगर जब एक चोर उस स्थान पर पहुँचेगा, तो उसे लगेगा, अच्छा सुन्दर स्थान मिल गया। इतने अच्छे घने जंगल में मुझे अच्छा स्थान मिल गया छिपने का। बाहर रहकर अच्छे से चोरी करूँगा, डाका डालूँगा और यहाँ कुटिया में आकर छिपकर बैठ जाऊँगा। यहाँ मुझे अपने उपयोग के सारे संसाधन भी मिल जायेंगे, मुझे कोई पकड़ नहीं पायेगा। मैं बढ़िया आराम से चोरी करता रहूँगा और धन छिपाने का मुझे अच्छा एक अड्डा मिल गया। उसकी सोच तत्काल इस पर जायेगी। और, उसी स्थान पर यदि एक कामी व्यक्ति पहुँच जाये, तो सोचेगा, कितना सुन्दर स्थान मिल गया, एकान्त स्थान! यदि इस समय मेरी प्रेमिका होती, तो मुझे यहाँ कोई डिस्टर्ब नहीं कर सकता। इससे ज्यादा सुन्दर और कोई दूसरा स्थान प्रेम करने के लिये मुझे मिलेगा ही नहीं। उसकी सोच उधर भटक जायेगी। एक स्थान, एक वातावरण, मगर तीनों प्रकार के लोगों की सोच अलग-अलग है। इसलिये प्रकृति में बाहर जो कुछ फैला हुआ है, उसमें कोई भेद नहीं, सब एक समान हैं। आपकी सिर्फ निगाहें बदल गई हैं। आपके विचार बदलते ही आपकी निगाहें बदल जाती हैं। आपकी सोच बदलने लग जाती है, उसे थोड़ा सा स्थिर करो। जब सोच बनाना है, तो सत्य के साथ चलने की सोच बनाओ। हर पल आत्मकल्याण का भाव अपने अन्दर लेकर चलो। सोच-सोच में बहुत कुछ फर्क पड़ता है।
यहाँ शिष्य आते हैं, भक्त आते हैं, उन्हें तृप्ति मिलती है, आनन्द मिलता है, उनका मन एकाग्र हो जाता है और यहीं कुछ अधर्मी-अन्यायी अगर आते हैं, तो उनके अन्दर हलचल मचने लग जाती है। उस सत्य को समझकर अपने अन्दर मानवीय मूल्यों की स्थापना करो। तुम्हारी समस्त समस्याओं का समाधान उसी एक बिन्दु पर छिपा है। नाना प्रकार के कथानक-भागवत सुन लेने से, महापुराणों के सुन लेने से कुछ भी हासिल नहीं कर सकोगे। सिर्फ अपने शरीर का शोधन करना शुरू करो। उस प्रकृतिसत्ता से केवल भक्ति, ज्ञान व आत्मशक्ति मांगने का भाव रखो। निष्ठा और अटूट विश्वास रखो। वह सम्पूर्ण जगत् की जननी हैं। वह हमसे कितना प्रेम और स्नेह करती हें! उनके नजदीक जाकर उन चेतना तरंगों को पकड़ने का प्रयास तो करो। अपने आपकी आवाज को समझ नहीं पाते हो। अपनी अन्तरात्मा की आवाज को सुन नहीं पाते हो और एक क्षण में चाहते हो कि प्रकृतिसत्ता हमारे सामने आकर खड़ी हो जायें। उसके लिये बहुत लम्बी यात्रा तय करनी पड़ेगी। यह असम्भव नहीं है, सम्भव है। जब आपके गुरु ने देखा है और जब जहाँ चाहता है, ‘माँ’ के साक्षात् दर्शन प्राप्त करता है, तो आप क्यों नहीं प्राप्त कर सकते? मगर, उस रास्ते को तय करना पड़ेगा। एक जन्म नहीं, दो जन्म नहीं, दस जन्म नहीं, एक लम्बी यात्रा है। आत्मा अजर-अमर-अविनाशी है।
एक बार उस पथ पर बढ़़ चलो। हर पल धीरे-धीरे करके तुम्हारे अन्दर दिव्यता आती चली जायेगी। तुम्हारे अन्दर के संस्कार बदलते चले जायेंगे। तुम्हारे कार्य करने की क्षमतायें जाग्रत् होती चली जायेंगी। अन्तरात्मा की आवाज को तो छोड़ दो, हर एक छोटी-छोटी बात पर आपका शरीर संकेत देता है। अरे, हमारे ऋषि-मुनियों ने तो अनेकों चीजें बताई हैं कि कोई घटना घटित होने वाली होती है, तो सियार रो रहा होगा, कुत्ते रो रहे होंगे, बिलखते होंगे, बिल्ली रोती होगी। उन जीव-जन्तुओं को सब कुछ दिखाई दे जाता है। आपके साथ कल क्या होने वाला है? आपको यही नहीं पता चलता। सोचो, कुछ जाग्रत् करो, अलौकिक सम्पदा तुम्हारे अन्दर भरी पड़ी है, जिसकी कोई कीमत आँकी नहीं जा सकती है। अपने आपको कंगाल मत मानो। जो कुछ जितना है, उसमें सन्तोष धारण करो और धीरे-धीरे कर्मपथ को प्रभावक बनाकर आगे बढ़ो। आगे बढ़ने के लिये मना नहीं किया गया। सन्तोष के धन को धारण करो। नशामुक्त-मांसाहारमुक्त जीवन जियो और ‘माँ’ की ममता को देखो।
छोटी-छोटी घटनाओं को देखा करो। कुछ समय पहले मैंने कहा था कि मनुष्यों को आप लोग भूल जाओ कि मनुष्यों के माँ-बाप का प्रेम क्या होता है? एक जीव-जन्तु, कीट-पतंगों को भी देखा करो। अपने-अपने बच्चों को कितने प्रेम से चाव से, अपनी चोंच से अन्न के दाने खिलाते हैं! कितना प्रेम और स्नेह करते हैं! अरे, उनको जिन्हें भैंस-भैंसा कहा जाता है, अल्पमस्तिष्क का कहा जाता है, उनकी ममता देखो। अभी एक घटना टी. वी. सीरियल में प्रसारित हुई थी आज से डेढ़-दो साल पहले कि जंगली भैंसों का एक झुण्ड था, जो झुण्ड और समूहों में रहना पसन्द करते हैं। शेरों के एक झुण्ड, समूह ने उनको देख लिया। एक भैंस का बच्चा, जो शायद साल-डेढ़ साल का रहा होगा, वह दौड़ने में थोड़ा सा पीछे रह गया। शेरों के समूह ने उसे पकड़ लिया। उसको जन्म देने वाली भैंस तत्काल, चूँकि माँ की ममता कुछ अलग ही रहती है, उसने ज्यों ही देखा कि पंजे में शेर ने उसे पकड़ लिया, उसने परवाह नहीं की और तत्काल पलट पड़ी शेरों के झुण्ड की ओर और चीखी, चिल्लाई, पुकारी, जैसे मदद के लिये पुकार रही हो। भैंसा भी पूरे झुण्ड के समूह को मोड़ लाया। भैंस ने परवाह नहीं की और जिसे अल्पबुद्धि कहा जाता है, जिस भैंस जाति को एक हेयभाव से माना जाता है, उस माँ की ममता देखो, वह पलट पड़ी और शेरों के झुण्ड से टकरा गई और तब तक टकराती रही, जब तक शेर के पंजे से अपने बच्चे को छुड़ा नहीं लिया और भैसों के पूरे समूह ने आकर शेरों के पूरे समूह को खदेड़ कर भगा दिया।
यह एक वह ममता है, फिर उस परमसत्ता की ममता का, उस दिव्य सत्ता का कुछ तो ऐहसास करो कि उस परमसत्ता की विराट्ता क्या है? दिव्यता क्या है? अरे, वह अनन्त लोकों की जननी है। उसकी कृपादृष्टि हमारे ऊपर बरसती रहे, यही बहुत कुछ है और यदि उसे प्राप्त करना चाहते हो, तो हर पल सिर्फ एक साधनापथ का मार्ग है। ऋषित्वपथ की कामना हो। देवत्वपथ की भी कामना करोगे, तो मैंने कहा कि देवत्व का पद मेरे लिये पैर से ठोकर मारने के बराबर है। मैं ऋषि था, ऋषि हूँ और ऋषित्व का ही जीवन जीता हूँ। एक सोच अपने अन्दर पैदा करो। जिस दिन तुम्हारे अन्दर वह प्रेमभाव आजायेगा, निष्ठाभाव आजायेगा, उस दिन ‘माँ’ के सच्चे भक्त बन जाओगे। अन्य चीजों की परवाह मत करो। सिर्फ एक सोच बनाओ, एक विचार अपने अन्दर लो कि नित्यप्रति तुम्हें अपने आपका शोधन करना है। नित्यप्रति तुम्हें अपने आपको अनीति-अन्याय-अधर्म से सही दिशा में लेजाना है और उसके लिये जो ध्यान का मार्ग है, उसके लिए मैंने अनेकों बार बीच-बीच में संकेत दिये हैं। ध्यान से आप लोग अपनी चेतना को प्रभावक बना सकते हो। किस तरह उस तरह के विचार बनायें? किस तरह के समय का आप लोग उपयोग करें? हर पल अपने आचार-विचार-व्यवहार में परिवर्तन लाओ। खाने में सन्तोष से भोजन किया करो। असात्त्विक भोजन से अपने आपको दूर हटाओ।
आज जिस तरह मिलावट हो रही है कि सब अतृप्त हैं। पैसे की भूख ने लोगों को पागल कर दिया है। असुरत्व उनके ऊपर हावी हो चुका है। हर चीज में मिलावट हो रही है। घी में मिलावट, दूध में मिलावट, खाने-पीने की हर चीज में मिलावट। सोचो, अब मनुष्य कितना अधर्मी बन चुका है! उसे ऐहसास ही नहीं कि लोग व्रतों-उपवासों में दूध पीते हैं। दुधमुहे बच्चों को दूध पिलाते हैं। उनमें यूरिया और सोडा से दूध तैयार किया जाता है। हड्डियों को गलाकर घी बनाया जाता है। अट्ठारह- अट्ठारह टैंकर, दो-दो हजार, दस-दस हजार लीटर दूध एक-एक फैक्ट्री में पकड़ा जा रहा है। गाय-भैंसें सब कट रही हैं, उन्हें नष्ट किया जा रहा है और दूध आपको कितना चाहिये? हजारों टन घी का आर्डर दे दें, वह आपके घर, आपके दरवाजे पर पहुँच जायेगा। हजारों कुण्टल आप खोवा मँगा लें, तो आपके यहाँ पहुँच जायेगा। सब जगह मिलावट है। उन अधर्मी-अन्यायियों का कितना पतन हो चुका है कि वो पैसे के लिये कुछ भी कर गुजरने में चूकते नहीं हैं। वह दुधमुहे बच्चे को, कोई किसी को नेत्रहीन बना रहा है, किसी को कैंसर का शिकार बना रहा है। जरा सोचो कि जब यूरिया और सोडा, जिससे आप कपड़े धुलते हो, उस पाउडर को किसी बच्चे को खिला दिया जाये, तो उस पर क्या प्रभाव पड़ेगा? जितना दूध समाज में बिक रहा है, जितना घी समाज में बिक रहा है, नब्बे प्रतिशत मिलावट का बिक रहा है। यहाँ आश्रम में काफी समय से अधिक से अधिक शुद्धता का ध्यान दिया जाता था। इस साल से मैंने आश्रम में भी रोक लगा दी है कि शुद्धता का जो प्रसाद होगा, वही प्रसाद चढ़ाया जायेगा, जो आश्रम से निर्मित होता है। इसलिये आप लोगों को मेरे द्वारा बार-बार पहले भी निर्देशित किया गया है कि अपने घरों में जो भी कोई अनुष्ठान करायें, उसमें हलुवे के प्रसाद के चढ़ाने की प्रक्रिया को बन्द कर दें, रोक दें, जिससे कहीं कोई अपराध न हो जाये या जिससे आप ‘माँ’ के सामने गलाई हुई हड्डियों के घी से बने हलुवे प्रसाद का भोग न लगायें। इससे ज्यादा अच्छा है कि आप रेवड़ी दाने का भोग लगाया करें। फल चढ़ा दें, पुष्प चढ़ा दें, वह ज्यादा उचित होगा।
समाज में जागृति लाने की जरूरत है। समाज को जगह-जगह पर जगाओ। संगठन की शक्ति को दिन दूना, रात चौगुना बढ़ाने का प्रयास करो। हमारे पास सिर्फ एक रास्ता है ‘माँ’ की ऊर्जा। ‘माँ’ की ऊर्जा से हम एक न एक दिन समाज में परिवर्तन लाकर मानेंगे। ये जो अधर्मी-अन्यायी रोज पकड़े जा रहे हैं, यह सब कहीं न कहीं ‘माँ’ की कृपा ही है, नहीं तो यह तो सैकड़ों- सैकड़ों वर्षों से होता चला आया है। पहले डालडा में किसी समय आवाज उठी थी, मगर फिर दबा दी गई। आज तो कम से कम मीडिया है, वे चीजें उभरकर सामने आजाती हैं। आप सभी लोग देखते हो। पैसे के पीछे समाज पागल हो चुका है। उसको ऐहसास ही नहीं, वह किस दिशा में जा रहा है? अतः भगवती मानव कल्याण संगठन के सदस्यों से कम से कम मैं हर पल अपेक्षा करता हूँ कि सादा जीवन और उच्च विचार की भावना अपने अन्दर स्थापित करो।
इस आश्रम में जब आया करो, तो कुछ न कुछ अपने संकल्पों को और दृढ़ता दिया करो। अपने विचारों को सही दिशा दो। सोच में परिवर्तन लाओ। श्री दुर्गाचालीसा का अखण्ड पाठ जो चल रहा है, उसका अधिक से अधिक लाभ लेने का प्रयास करो। इस आश्रम में आकर रात्रि में, दिन में कहीं भी बैठकर मन्त्र जाप करो। एक भी पल बेकार न जाने पाये, एक क्षण बेकार न जाने पाये, चूँकि उसी मार्ग में मैं आपको बढ़ा रहा हूँ कि मैं जिस प्रकार का जीवन स्वयं जीता हूँ और उस प्रकार का जीवन बचपन से आज तक जीता चला आया हूँ। मैंने भी युवावस्था पाई है, मैंने भी उस तरह का जीवन जिया है। मैं भी चाहता तो समाज में भटकाव का रास्ता तय कर सकता था। मैं भी चाहता तो अनीति-अन्याय-अधर्म का रास्ता तय कर सकता था। मैं भी चाहता तो अपनी सुख-सुविधाओं के अम्बार लगा सकता था। मगर, मैंने कहा कि मैं समाज के दिये हुये दान के एक भी पैसे का उपयोग नहीं करना चाहता। कहीं मुझे लगता है कि एक रुपया लग गया, तो उसको दूसरी तरह से दस रुपये करके मैं समाज के बीच लगाता हूँ। उस तरह का जीवन जियो। जितना तुम्हारे पास है, उसको प्रकृति की कृपा मानो और धीरे-धीरे करके आगे बढ़ो। एक न एक दिन आपकी सामर्थ्य अपने आप बढ़ती चली जायेगी।
मैंने एक रामगोपाल का उदाहरण दिया है। यह एक नौकर की तरह कार्य करता था। संस्कारों से उसे मेरा सान्निध्य प्राप्त हुआ। आज वह एक गाँव का प्रधान है। धीरे-धीरे उन्नति अपने आप होती चली जाती है, यदि आप सन्मार्ग पर चलोगे। फिर हमें तो उस पथ पर चलना है कि जहाँ हमें देखना ही नहीं कि हमारी उन्नति हो रही है या नहीं। बल्कि हमें ‘माँ’ की कृपा मिल रही है या नहीं, केवल उस भाव को स्थापित करो। हर पल ‘माँ’ के रंग में रंग जाओ। आँखें खोलो, तो ‘माँ’ का ध्यान हो। आँखें बन्द करो, तो ‘माँ’ का ध्यान हो। सुबह उठो, तो ‘माँ’ का ध्यान करके उठो। शाम को विश्राम करो, तो ‘माँ’ का ध्यान करके विश्राम करो। खाना खाओ, तो ‘माँ’ का ध्यान करके खाना खाओ। कोई कार्य करने जाओ, तो ‘माँ’ का ध्यान करके निकलो। घर से कदम आगे बढ़ाओ, तो ‘माँ’ का ध्यान हो। घर में प्रवेश करो, तो ‘माँ’ का ध्यान हो। हर पल ‘माँ’ के विचारों में रम जाओ। इसी को भक्ति कहते हैं। केवल पूजा-पाठ में चार-चार घण्टे बैठ लेने को ही भक्ति नहीं कहते। सबसे पहले विचारों में परिवर्तन लाओ। फिर तुम्हारे वे मन्त्र किस तरह फलीभूत होंगे, तुमको खुद ऐहसास होता चला जायेगा, आनन्द की अनुभूति होती चली जायेगी। बड़ी-बड़ी समस्यायें आयेंगी और तिनके के समान उड़ती हुई तुमसे दूर भागती चली जायेंगी। हजारों साल से किसी कोठरी में अन्धकार का साम्राज्य रहा हो, एक सुराख केवल कर दो। प्रकाश की केवल एक किरण आते ही सारा अन्धकार भग जाता है। अपने अन्दर भी प्रकाश की एक किरण पहुँचाकर तो देखो, एक बार उस रंग में रंगकर के तो देखो कि एक बार वैसा रंग रंगलो कि दुनिया की कोई ताकत फिर उस रंग को धुल न सके। फिर देखो तुम्हारे अन्दर कैसा आनन्द आता है! तुम्हें किस प्रकार अपने गुरुकी झलकियाँ अपने घर पर बैठे हुये दिखाई देती हैं! वे कार्य मेरे द्वारा एक बार नहीं, अनेकों बार किये जा चुके हैं।
इस आश्रम में आने के बाद मैंने संकल्प ले रखा है, इसलिये मैं कुछ मर्यादाओं से बँधा हुआ हूँ। मगर, जब तक इस आश्रम में प्रवेश नहीं किया था, इस प्रकार की सभी अनुभूतियाँ दी हैं कि देश के एक कोने में रहकर विदेश में कहाँ क्या हो रहा है, इस तरह की घटनाओं की जानकारियाँ मेंने दी हैं। इन्द्रपाल आहूजा वगैरह अनेकों लोग ऐसे बैठे हैं और यहाँ पर कमलेश गुप्ता बैठे होंगे, जहाँ पर एक यज्ञ में मैंने ‘माँ’ की छवि में अपनी छवि का दिग्दर्शन कराया था। मेरे हृदय में ‘माँ’ बसती हैं और ‘माँ’ के हृदय में मेरा वास है। इस सत्य को भी देखना हो, तो थोड़ा साधक बनकर देखो। तुम्हें भी उनके दिग्दर्शन दिखाई देंगे। यह हाड़-मांस का जो शरीर आपके सामने बैठा है, इस शरीर की सीमायें इतने से नहीं जुड़ी हुई हैं। इन सीमाओं को आँकने की क्षमता हो, तो साधक बनना सीखो और विज्ञान के पास जो छोटी-मोटी क्षमताएं हैं, तो उनके लिये मैंने हर पल चुनौती दे रखी है और भविष्य में एक रास्ता ऐसा तय करने का प्रयास जरूर करूँगा कि किसी समय कम से कम विश्वस्तर का नहीं, तो राष्ट्रस्तर का एक सम्मेलन तो हो, जहाँ कहीं न कहीं सत्य को समाज एक न एक दिन देखेगा, समझेगा और पहिचानेगा।
तीन दिनों की दिव्य महाआरतियाँ, जो आपको यहाँ प्राप्त र्हुइं, जिनके लिये आप लालायित रहते हैं, उन महाआरतियों में मन को बिल्कुल एकाग्र करके, तन्मय करके आप जहाँ पर हैं, जैसे हैं, जिस स्थिति में हैं, एक-एक आरती आपके जीवन की दिशाधारा को बदलने की सामर्थ्य रखती है। एक क्षण, एक पल ही पर्याप्त होता है। हमारे मन की एकाग्रता हुई नहीं कि मैंने कहा है कि जहाँ भी शक्ति चेतना जनजागरण शिविर होते हैं, जहाँ मंच पर मेरी उपस्थिति होती है, वहाँ पर माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा की उपस्थिति होती है। उस कृपा को प्राप्त करने के लिये एक तन्मय विचार, एक भाव, एक निष्ठा, उस भाव को लेकर बैठें और जो भी इसके पहले मैंने कहा है कि यदि आपमें नशे आदि के अवगुण रहे हों, उनके त्यागने का भाव यदि आज इन क्षणों पर ले लेंगे, तो इससे अच्छा उत्तम समय और क्षण नहीं होगा कि आज की आरती का आपको पूरा लाभ प्राप्त हो सकेगा। चूँकि मेरा संकल्प वही रहता है कि मेरी ऊर्जा का लाभ वही प्राप्त कर सकेंगे, जो नशामुक्त और मांसाहारमुक्त जीवन जीने का संकल्पित जीवन जियेंगे। सोच पर सब कुछ आधारित है। सोच बदली, सब कुछ बदल जाता है। एक बार उस विचारधारा पर छोटी-छोटी बातों पर अमल करते हुये अपने अन्दर दृढ़ता को लेकर आगे बढ़ो। एक सोच को लेकर आगे बढ़ो।
प्रकृति कण-कण में व्याप्त है। उसके ममता के सागर में सिर्फ डुबकी लगाना सीख लो। हर पल आनन्द से भर जाओगे। हर खौफ से बेखौफ हो जाओगे। एक सोच, एक विचार तुम्हारे जीवन की समस्त समस्याओं का समाधान तुम्हें दे देगा। इस आश्रम में सौभाग्य से आने का मौका तुम्हें मिला है। आज, कल और परसों के जो तीन दिन हैं, उन तीन दिनों को अपने दिन बना लो। ये तीन दिन आपके जीवन की दिशाधारा को बदलते चले जायेंगे। हर पल आपके अन्दर परिवर्तन आ रहा है, मगर हर पल और परिवर्तन लाना है। कभी सन्तुष्ट नहीं होना। इसीलिये ऋषित्व का मार्ग कहा गया है। इसलिये साधक का मार्ग कहा गया है कि हर पल हमें सुधार के मार्ग में चलना है, और चलते रहना है। हमें रुकना नहीं, हमें विश्राम नहीं करना। आराम हमारे लिये हराम होना चाहिये। एक-एक पल का सदुपयोग करना है। सिर्फ उस दिशा में बढ़ते चले जाओ। एक दिन तुम्हें आनन्द मिलने लगेगा और अपने अन्दर भक्ति, ज्ञान व आत्मशक्ति का ऐहसास होने लगेगा। एक न एक दिन तुम्हें अनुभूतियाँ मिलने लगेंगी। एक न एक दिन तुम्हारी समस्याओं का समाधान सोचने मात्र से मिलने लगेगा। फिर सभी समस्याओं का समाधान शक्तिजल में समाहित है। शक्तिजल का पान करो और ‘माँ’ के गुणगान में रत रहना सीखो।
आरती का समय नजदीक आता चला जा रहा है। कार्यकर्ता व्यवस्था भी करेंगे। उन आरतियों में मेरुदण्ड को सीधा करके पूर्ण चैतन्यता के साथ बैठें। उच्चारण के क्रम शिष्यों द्वारा जिस तरह से कराये जायेंगे, उन क्रमों की ओर आप सभी बढ़ेंगे और इन्हीं शब्दों के साथ मैं आज का अपना पूर्ण आशीर्वाद पुनः एक बार आप समस्त लोगों को समर्पित करता हूँ। आज की यह जो होने जा रही दिव्य आरती है, यह आपके लिये फलीभूत हो, आपकी समस्याओं के समाधान में सहायक सिद्ध हो, माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा के चरणों में ऐसी ही प्रार्थना है।
बोलो जगदम्बे मातु की जय!