शक्ति चेतना जनजागरण शिविर, फूलबाग, कानपुर (उ.प्र.), दिनांक-25.02.2007
इस शक्ति चेतना जनजागरण शिविर में यहाँ उपस्थित अपने समस्त शिष्यों, ‘माँ’ के भक्तों एवं शिविर व्यवस्था में लगे हुये समस्त कार्यकर्ताओं को अपने हृदय में धारण करता हुआ माता आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा का पूर्ण आशीर्वाद प्राप्त करता हुआ अपना पूर्ण आशीर्वाद आप समस्त लोगों को समर्पित करता हूँ।
देवाधि-देवों के द्वारा पूजित, अजन्मा, अविनाशी, जन-जन की जननी माता आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा जिनकी एक कृपा, एक दिव्य किरण, जिनकी एक दिव्य दृष्टि दानव को भी मानव बना देती है। वह शक्ति जो अनन्त लोकों की जननी है, अनेकों बह्मा, विष्णु, महेश की जननी है। केवल वही एक जो अविनाशी सत्ता है, वह माता आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा जिनका हम आप सभी इस शिविर के माध्यम से स्मरण कर रहे हैं, चिन्तन कर रहे हैं।
अध्यात्म की प्रथम सीढ़ी यदि आप चढ़ना चाहते हैं, तय करना चाहते हैं, तो सबसे पहले अपने ‘मैं’ को पहचानना पड़ेगा कि मैं कौन हूँ। ‘मैं’ शब्द से मैं का विस्तार नहीं होता। चूँकि मेरे द्वारा शिविर के प्रथम दिवस ‘मैं’ शब्द पर चिन्तन दिया गया, उस पर विवेचना करने वाले अनेकों लोगों ने विवेचना करके प्रकाशन करना शुरू कर दिया। वे फिर भटक जायेंगे। सूर्य को केवल सूर्य शब्द से सम्बोधित कर देने से सूर्य की विराटता की व्याख्या नहीं हो सकती। मैं एक सम्बोधन शब्द है, उस विराट आत्मचेतना का, जो परम विराटसत्ता का एक अंश है। जिस तरह सूर्य को हम केवल एक सूर्य शब्द से सम्बोधित करते रहें और सूर्य की हम कुछ भी व्याख्या कर दें या सूर्य का नाम बदलकर कोई दूसरा नाम दे दें, तो इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। मगर जब उसका सूर्य शब्द से सम्बोधन किया जा रहा है, तो उस विराटसत्ता के बारे में कहा जा रहा है जिस विराट सूर्य को हम देखते हैं।
जब समाज को ज्ञान कम था, तब केवल सूर्य के प्रकाश को आम मनुष्य केवल इतना ही समझता था कि सूर्योदय हो गया, दिन निकल आया। और, आगे कुछ ज्ञान हुआ, तो सूर्य से कुछ लोग आँच लेने लगे कि हमें ठण्ड लग रही है तो अगर सूर्य के प्रकाश में हम खड़े हो जायें, इससे हमारी ठण्ड कुछ दूर हो जायेगी। और, आगे जाने पर लोग सूर्य की उन्हीं किरणों से विद्युत का लाभ लेने लगे, बल्ब जलाने लगे, रोशनी करनेे लगे। सूर्य की तरंगों से नाना प्रकार के और कार्य किये जाने लगे। विज्ञान और ज्ञान तो उसका उपयोग कर रहा है। ज्ञान तो सूर्य की साधना करके सूर्य की अलौकिक शक्तियों को प्राप्त कर रहा है। इसके प्रमाण अतीत में हमारे ऋषि-मुनियों ने दिये हैं। आने वाले समय में सूर्य की किरणों के माध्यम से असाध्य से असाध्य रोगों के निदान के रास्ते विज्ञान निश्चित रूप से निकाल लेगा। सूर्य की रोशनी से केवल प्रकाश और बल्ब जलाने का ही कार्य नहीं हो सकता, ईधन का ही कार्य नहीं हो सकता, बल्कि सूर्य की गहराई, सूर्य की दिव्यता क्या है? इसका पाँच प्रतिशत भी वर्तमान में मानव उपयोग नहीं कर पा रहा है।
प्रकृति में बहुत कुछ भरा पड़ा है। कलिकाल का वातावरण है, प्रकृतिसत्ता हमारी सहायता भी करती हैं, प्रकृतिसत्ता हमारी परीक्षा भी लेती हैं, मगर इन सभी परिस्थितियों में हमें सम रहना चाहिये, वही साधक होता है। चूँकि मैंने साधक का जो परिचय दिया कि समाज के बीच मेरी जो बात मैं पर आ जाती है, वह कहीं अहंकार से नहीं आती है। मैंने बार-बार कहा है कि मेरे अन्दर ‘माँ’ के प्रति एक तड़प है, एक भाव है। मेरे मन के अन्दर की निर्मलता कि अगर मैं कहूँ कि मेरा मन निर्मल है, तो इसे भी समाज मेरे अहंकार के रूप में ले लेगा। मगर मैंने कहा है कि चौबीस घण्टे असन्तुलन के वातावरण में रह करके भी एक पल, एक क्षण मुझे लगता है अपनी आत्मचेतना को एकाग्र करके उस प्रकृतिसत्ता के चरणों के दर्शन करने में।
शिविर के इन तीन दिनों में मैं केवल आप लोगों की भ्रान्तियों को मिटाने का कार्य कर रहा हूँ। प्रश्न तो नाना प्रकार के हैं, प्रश्न तो अनेकों उठते रहेंगे और निश्चित है कि प्रश्न जितने आप लोगों के जिज्ञासापूर्ण उठें, उन समस्त प्रश्नों का समाधान मैं समय के साथ कभी न कभी देता चला जाऊँगा। जिज्ञासायें जाग्रत् करनी चाहिएं, मगर तर्क और कुतर्क नहीं होना चाहिए। सत्य को सत्य के रूप में समझने का प्रयास करना चाहिये। यह नहीं सोचना चाहिये कि जो कुछ चल रहा है या जो कुछ मेरे द्वारा कहा जा रहा है, वह सत्य होगा या असत्य होगा। मैं केवल कहता मात्र नहीं हूँ, मैं अपने जीवन को उस रूप में ढालता भी हूँ और समाज को उसके प्रमाण भी देता हूँ।
अगर कानपुर नगर के निवासी इस कानपुर नगर का गौरव चाहते हैं, चूँकि इस औद्योगिक नगरी को मैं ‘माँ’मय नगरी बनाने का संकल्प ले चुका हूँ और भविष्य में ‘माँ’मय नगरी के रूप में यह पहचानी जायेगी कि कानपुर नगर में अधिक से अधिक ‘माँ’ के भक्त हैं। अगर मैं चाहता तो यह चिन्तन दिल्ली में भी जा करके दे सकता था, मैं चाहता तो यह चिन्तन अपने आश्रम मध्यप्रदेश में भी दे सकता था, मगर मेरा जन्म उत्तरप्रदेश प्रान्त में हुआ है। मेरा जन्म यहाँ से हुआ है और यहीं से मैं अपनी आध्यात्मिक चुनौती भी पेश कर रहा हूँ। अपेक्षा करता हूँ बुद्धिजीवी समाज से, अपेक्षा करता हूँ मीडिया से कि मुझे अहंकारी मान करके मेरे अहंकार को तोड़नेे वाला कोई व्यक्ति तो इस धरती पर पैदा करो। हो सकता है मैं अहंकारी हूँ। मैं भी जानना चाहता हूँ, चूँकि मेेरा अहंकार तो उस बिन्दु तक है कि यदि माता भगवती आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा में कोई शक्तिसामर्थ्य है, तो मुझे अध्यात्म से, मेरी भक्ति जो ‘माँ’ से जुड़ी हुयी है, मुझे ‘माँ’ अपने चरणों से अलग करके देखें। अगर मैंने अपने अस्तित्व को मिटाया है, अगर मुझमें कोई कमी रह गयी है, तो एक पल भी मैं ‘माँ’ से जुड़ा रहना भी नहीं चाहता।
मैंने कभी कायर बन करके, असमर्थ बन करके, अपाहिज बन करके माता आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा से कोई आशीर्वाद मांगा भी नहीं। हर पल यही मांगा है कि ‘माँ’ मुझे वह ज्ञान दो, वह तपस्या का मार्ग बताओ जो कठिन से कठिन क्यों न हो, हजारों साल तपस्या क्यों न करना पड़े, मुझे वह मार्ग बताओ कि मैं वह पात्रता हासिल कर सकूँ और उस पात्रता के फल का अगर मैं अधिकारी बनूं, तभी मुझे वह अधिकार देना। मेरी कुण्डलिनी चेतना जाग्रत् है और माता आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा की कृपा के बिना किसी भी मानव की कुण्डलिनी चेतना जाग्रत् हो ही नहीं सकती और अगर उस बिन्दु को मैंने हासिल किया है, तो उस बिन्दु के विषय में अगर मैं गर्व और घमण्ड से कहूंगा नहीं, तो मेरा जीवन ही बेकार होगा।
इस उत्तरप्रदेश प्रान्त से यह चुनौती विश्वआध्यात्मजगत् के लिये है। केवल हिन्दुस्तान के लिये नहीं, केवल हिन्दू धर्म के लिये नहीं, बल्कि जितने भी धर्म इस भूतल पर हैं उन समस्त धर्मों के धर्माचार्यों को ससम्मान आदर देता हुआ मैं अपनी चुनौती पेश करता हूँ और इस कानपुर नगर से मेरी चुनौती पहुंचायी जाए कि मेरे आध्यात्मिक, साधनात्मक तपबल का सामना करने की सामर्थ्य यदि इस भूतल पर किसी भी मानव के पास है, तो मेरा सामना करे। कोई भी एक विश्वस्तर का ऐसा आयोजन कराया जाय, जिसमें समस्त धर्मों के धर्माचार्य इकट्ठे हों और बुद्धिजीवी समाज, मीडिया किन्हीं दो प्रकार के एक समान कार्य ला करके समाज के बीच रख दें, एक नहीं तीन-तीन, चार-चार कार्य ला करके रख दिये जायें और देखें कि उन कार्यों को मैं कर गुजरता हूँ या वे सब मिलकर कर गुजरते हैं।
दूसरा परीक्षण का एक और रास्ता है ब्रेनमैपिंग। विज्ञान के पास संसाधन हैं। अनेकों विकास की ओर विज्ञान की बात करते हैं, धर्माचार्य करते हैं, योगाचार्य करते हैं, योग और विज्ञान को जोड़ने की बात करते हैं। मैं कहता हूँ कि समस्त धर्माचार्यों, योगाचार्यों को यह सोचना चाहिये कि पहले तुम अपने आपको विज्ञान की कसौटी में कसो, फिर योग और ज्ञान को विज्ञान की कसौटी में कसने की बात कहो कि वास्तव में जो हम कह रहे हैं, वह सत्य है या नहीं? हमने अपने इष्ट के दर्शन प्राप्त किये हैं या नहीं? हम झूठ बोल रहे हैं या सही बोल रहे हैं? हमने अपनी कुण्डलिनी चेतना को जाग्रत् किया है या नहीं? हम झूठ बोल रहे हैं या सही बोल रहे हैं? विज्ञान इस सबका परीक्षण कर सकता है और ऐसा आयोजन होना चाहिये।
वर्तमान में जिस तरह कलिकाल का भयावह वातावरण चारों तरफ ताण्डव नृत्य कर रहा है। अधर्मियों-अन्यायियों का साम्राज्य फल-फूल रहा है। राजनीति को जिसे प्रजातन्त्र कहा जा रहा है, वह अपराधतन्त्र, गुण्डों और माफ़ियाओं का तन्त्र बनकर रह गया है। मन्त्री हों, मुख्यमन्त्री हों, धर्माचार्य हों, योगाचार्य हों, केवल धन की लोलुपता में भटकते चले जा रहे हैं, पतन के मार्ग में बढ़ते चले जा रहे हैं। क्या कभी कोई नहीं रोकेगा इन्हें? आप कहते हैं कि अनीति-अन्याय-अधर्म को प्रकृतिसत्ता क्यों नहीं रोकती? मैं कह रहा हूँ प्रकृतिसत्ता ही रोक रही है इन शब्दों के माध्यम से। प्रकृतिसत्ता ही चुनौती दे रही है इन शब्दों के माध्यम से। प्रकृतिसत्ता की ही चुनौती इस शरीर के माध्यम से समाज के बीच उपस्थित हुई है। अगर किसी के पास सामर्थ्य है, तो इस चुनौती का सामना करे। अन्यथा, मेरे भगवती मानव कल्याण संगठन के सदस्य जो जनचेतना फैला रहे हैं, जगह-जगह श्री दुर्गाचालीसा पाठ और आरतियों के माध्यम से उन अधर्मियों-अन्यायियों के नीचे से धरातल खिसकते चले जायेंगे और उन्हें पता ही नहीं चलेगा।
मैं अपनी बात कोई गर्व या घमण्ड से नहीं कह रहा। मेरे मैं शब्द में भी व्याख्या करनी शुरू कर दी गयी। मैं उस ‘मैं’ शब्द की बात कह रहा हूँ कि जिस तरह मनुष्य अपने मस्तिष्क का दस प्रतिशत भी उपयोग नहीं कर पाता। बड़े-बड़े वैज्ञानिक भी दस-पन्द्रह प्रतिशत से ज्यादा अपने मस्तिष्क का उपयोग नहीं कर पाते और भौतिक जगत् में भौतिक प्रवाह के क्षेत्र में चाहे वैज्ञानिक हों, चाहे डॉक्टर हों, वे चाहें तो भी अपने मस्तिष्क का पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर ही नहीं सकते। पूर्ण मस्तिष्क का ज्ञान केवल एक योगी ही प्राप्त कर सकता है। चूँकि हमारा पूर्णत्त्व स्वरूप क्या है? एक व्यक्ति दस कदम छलांग लगा पाता है, वहीं एक दूसरा जो अभ्यास करता है वह पन्द्रह-पन्द्रह, बीस-बीस फिट छलांग लगा लेता है, ऊंचाई में जम्प कर लेता है। अगर मैं अहंकारी हूँ, मैं कह रहा हूँ कि मानव की अलौकिक क्षमता है, तो समाज बतायेगा कि मानव की क्षमता क्या है या तो समाज मानव की क्षमता को बांध दे कि इसके ऊपर मानव की क्षमता है ही नहीं? तो फिर कार्य करने की क्षमता किसी के शरीर में कम है, किसी के शरीर में ज्यादा है, यह भेद क्यों है? क्या इस पर समाज कभी विचार नहीं करेगा?
क्या अनीति-अन्याय-अधर्म समाज में इसी तरह फलता-फूलता रहेगा, इसमें क्या कभी रोक नहीं लगेगी? लगेगी और अवश्य लगेगी। रावण का भी अहंकार टूटा है। समाज में बड़े-बड़े आततायी, बड़े-बड़े राक्षस, बड़े-बड़े दानव पैदा हुये हैं, उन सभी का अस्तित्व मिटा है, जिन्होंने देवत्व को भी ललकारा है, देवत्व को भी चुनौती दी है, मगर आने वाले समय में उस चीज के प्रमाण मिले हैं कि देवत्व सदैव विजयी हुआ है। सत्य सदैव विजयी हुआ है। असत्य सदैव ठुकराया गया है और वर्तमान में भी यह मन्थन होना है। समाज के बीच अनेकों धर्माचार्य जो भगवे वस्त्रधारी हैं, उन भगवे वस्त्रधारियों के पास क्या कोई शक्ति-सामर्थ्य है? क्या उन्होंने अपने इष्ट को देखा है? मैं बुद्धिजीवी वर्ग के समाज का चिन्तन बार-बार उस दिशा में मात्र इसलिये खींचना चाहता हूँ कि आप उनका आदर, मान-सम्मान करते हैं, उनके चरणों में अपना शीश झुकाते हैं, उनके चरणों में अपना अस्तित्व झुकाते हैं, उनके चरणों का पूजन इस भाव से करते हैं कि उनके चरणों में समस्त तीर्थों का वास है, तो क्या अधर्मी-अन्यायियों के सामने हमारी बहन-बेटियाँ सिर झुकाती रहेंगी? क्या कभी यह निकलकर नहीं आयेगा कि उनमें सत्य है या नहीं?
सत्य हर काल में रहता है और समाज को सत्य तलाशना भी चाहिये। अगर सत्य को समाज तलाश लेगा और सत्य के मार्गदर्शन में समाज चलेगा, तो कलिकाल का भयावह वातावरण कम से कम समय में हटता चला जायेगा। धनबल से कभी सत्य को खरीदा नहीं जा सकता। मैंने पूर्व में चिन्तन दिया था कि अगर मैं चाहता तो अरबों की सम्पत्ति अब तक इकट्ठा कर सकता था। जिस तरह के मैंने कार्य किए, चूँकि मैं किसी को जीवनदान भी दे सकता हूँ। इस तरह का प्रमाण मैंने सामने खड़ा करा करके दिया था कि जिसको डॉक्टरों ने स्पष्ट कह दिया था कि अब इसको जीवित नहीं किया जा सकता, इसकी साँस रुक चुकी है, उसको मैंने आज्ञाचक्र के स्पर्श के माध्यम से जीवनदान दिया था। इस तरह की एक घटना नहीं है, कम से कम मैं पचासों घटनायें यहाँ उपस्थित कर सकता हूँ। अनेकों लोगों को असाध्य से असाध्य रोगों में लाभ दिया गया है। मगर यह मेरे जीवन का लक्ष्य नहीं है। केवल यह तुम्हारी अनुभूतियों के लिये है कि तुम्हारी आस्था, तुम्हारे चिन्तन, तुम्हारे जीवन का हर क्रम बरकरार रहे।
मेरे जीवन का यह लक्ष्य नहीं है कि मैं आये दिन पानी रोकूँगा और आये दिन पानी बरसाऊँगा। मगर मेरी शक्ति-सामर्थ्य को यदि इस रूप में भी देखना है, तो जहाँ पर वैज्ञानिक यह कह दें कि यहाँ इस समय वर्षा नहीं हो सकती, वहाँ मैं अपने एक ही यज्ञ अनुष्ठान के अर्न्तगत वर्षा करा सकता हूँ और चलती हुयी भीषण बरसात को भी रोक सकता हूँ। मगर मेरे जीवन का यह लक्ष्य नहीं है। यही जीवन की पूर्णता होती है। यही तो एक साधक की तृप्ति होती है। यही तो साधक का एक लगाव होता है उस प्रकृतिसत्ता से, यही तो सामर्थ्य होती है कि हमारे सामने अंगूर फैले पड़े हों और फिर भी हमें खाने की इच्छा न हो रही हो। ऐसे तो अनेकों लोग समाज में पड़े हैं कि अंगूर मिल नहीं रहे, तो अंगूर खट्टे हैं। मैं त्याग और वैराग्य का जीवन जीता हूँ। अगर मैं चाहता तो करोड़ों-अरबों की सम्पत्ति का वैभवशाली जीवन जी रहा होता। मेरे आश्रम में आ करके देखो। उस आश्रम में श्री दुर्गाचालीसा का अखण्ड पाठ निरन्तर चल रहा है। चूँकि मैं जानता हूँ कि भवनों से कोई चेतनातरंगें नहीं निकलतीं। चेतनातरंगें निकलती हैं हमारे कर्मपक्ष से और प्रकृतिसत्ता के साथ जो हमारा सम्बन्ध जुड़ा रहता है।
पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम में समाजकल्याण के लिये, जनहित के लिये एक छोटे भवन में पिछले दस वर्षों से अखण्ड श्री दुर्गाचालीसा का पाठ चल रहा है। ‘माँ’ की अखण्ड ज्योति वहाँ जलती रहती है। इसीलिये मैं समाज को कहता हूँ कि जो मैं करता हूँ, वह अपने घर में कम से कम एक श्री दुर्गाचालीसा का पाठ नित्य करो। तुम्हें इसका लाभ मिलेगा और उस दिव्य स्थल का भी लाभ मिलना शुरू हो जायेगा।
श्री दुर्गाचालीसा के चौबीस-चौबीस घण्टे के अनुष्ठान करो। उन अनुष्ठानों का फल तुम्हें प्राप्त होगा और बड़ी-बड़ी जो कथायें सुनते हो, भागवत-पुराण सुनते हो, तो मैं धर्मग्रन्थों का अनादर नहीं करता, मगर पूर्व में मेरे द्वारा कहा गया था कि आवश्यकता है इस कलिकाल में कि कुछ समय के लिये उन धर्मग्रन्थों को समेट करके रख दिया जाए और आत्मग्रन्थ का अध्ययन किया जाए। यद्यपि धर्मग्रन्थों की अपनी पात्रता है, लेकिन इन धर्मग्रन्थों को रट्टू तोते की तरह पढ़ने वालों ने आज तक समाज को दिया क्या है? उन्होंने सुनाया, अपनी दक्षिणा ली, उनका वैभव तो पनपता-फूलता गया और आप लोग एक कान से सुनते हैं और दूसरे कान से निकल जाता है। कुछ क्षण के लिये बस आपके अन्दर भावपक्ष जाग्रत् होता है। इन कथावाचकों ने उन धर्मग्रन्थों को इतना भटका करके रख दिया है कि थोड़ी देर तो साधना की जानकारी देंगे और शेष बस रास-विलास, नृत्य, राधा का नृत्य, कहीं किसी का नृत्य और आज तो बड़े-बड़े अधिकारी हाथ में चूड़ियाँ पहनकर, साड़ियाँ पहनकर नृत्य कर रहे हैं। क्या हमारा धर्म समाज के मर्दों को नामर्द बनाना चाहता है? क्या महिलाओं के अन्दर की शक्ति को क्षीण करना चाहता है? यह शक्ति जाग्रत् कैसे होगी? क्या इसी तरह कहानियों और किस्सों से, इसी तरह राधा बन-बन करके नाचने से? मेरे चिन्तन बार-बार इस दिशा की ओर इसीलिये जाते हैं, क्योंकि इससे हमारे समाज का कल्याण नहीं होगा।
समाज का कल्याण तब होगा, जब हम पुनः अपने अतीत की ओर देखेंगे कि हमारे ऋषि-मुनियों में नये स्वर्ग की रचना करने तक की सामर्थ्य थी। वे दिव्य अस्त्रों से युक्त रहते थे। उन्होंने ही तो राम को दिव्यास्त्र दिये, कृष्ण को वह ज्ञान दिया, राम की चेतना को जाग्रत् किया, कृष्ण की चेतना को जाग्रत् किया। योगियों के पास अलौकिक क्षमतायें होती हैं। मेरे लिये असम्भव नाम का शब्द नहीं है। मगर इसका तात्पर्य यह नहीं कि जगह-जगह जाकर चमत्कार दिखाता फिरूंगा। यह मेरे जीवन की तृप्ति है, यह मेरे जीवन का आनन्द है। इसीलिये मैं कह रहा हूँ कि करोड़ों-अरबों की सम्पदा मेरे लिए पैर से ठोकर मार देने के बराबर है। लोगों के अन्दर कई बार चिन्तन आ जाते हैं कि कहीं गुरुदेव जी चुनाव तो नहीं लड़ना चाहते। अरे, इस भूतल पर कौन सा ऐसा पद है जिसकी तुलना उस माता भगवती आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा के चरणों की कृपा से की जा सके। इस तरह के अनेकों ब्रह्माण्डों का पद भी मुझे दे दिया जाए, तो पैर से ठोकर मार देने के बराबर है। मगर जहाँ मैं धर्म और राजनीति को जोड़ने की बात कह रहा हूँ, वह इसलिये कि जिस तरह राजनेता आज भटक रहे हैं, तो उनके अन्दर कहीं न कहीं वह ज्ञान की कमी है।
मुझसे भी मन्त्री जुड़े हैं, राजनेता जुड़े हैं, विधायक जुड़े हैं, सांसद जुड़े हैं, मेरे शिष्य हैं। मीडिया क्षेत्र से भी जुड़े लोग मेरे शिष्य हैं। न्यायपालिका क्षेत्र से जुड़े लोग मेरे शिष्य हैं, यहाँ बैठे हैं। अगर मैं चाहता तो उनको खड़ा कराकर एक-एक का माल्यार्पण कराता, यहाँ बीस-पच्चीस सोफासेट सजा देता, तो आप लोग देखते कि गुरुदेव जी के इस तरह के शिष्य हैं, मगर क्या उस वैभव से तुम मेरी बात को मानोगे? क्या अगर मैं दस लोगों से अपना माल्यार्पण कराऊँगा, तो उससे तुम्हारे गुरु का मान-सम्मान बढ़ेगा? मेरे हर कार्य करने के तरीके अलग हैं। इसलिये समाज के लोग कहने लगते हैं कि ये गुरुदेव जी तो दूसरे प्रकार के हैं! उल्टा समाज खड़ा हो और अगर मुझे उल्टा देख रहा है, तो यह दुर्भाग्य उनका है। अगर उल्लू दिन में नहीं देख पाता, तो दोष सूर्य का नहीं है। मुझसे सभी तरह के लोग जुड़े हुये हैं, मगर किसी भी व्यक्ति को मैंने कभी धन की कामना से नहीं जोड़ा। मुझसे जुड़े हुये अनेकों लोग जानते हैं कि मुझे पता भी चल जाता है कि यदि वे किसी कार्य को करने में जरा सी भी न्यूनता बरत रहे हैं, तो मैं तत्काल उन्हें ठुकरा देता हूँ।
कष्टों और संघर्षों को सह लो, मगर अनीति-अन्याय-अधर्म से समझौता मत करो। धीरे-धीरे कन्ट्रोल करो। उसी दिशा में मैंने भी तो अपने जीवन को ढाला है। मैंने भी अपना बचपन गुजारा है, मैंने भी अपनी युवावस्था गुजारी है। मैं भी चाहता तो मेरे अन्दर भी वही कामना होती, मगर मैं अपने कर्मबल के माध्यम से अगर कुछ धन एकत्रित भी करता था, तो केवल इसलिये कि कुछ पैसा अगर एकत्रित हो जायेगा, तो मैं पुनः एक बार बैठ करके साधना कर लूँगा। इसलिये मैं कह रहा हूँ कि चौदह वर्ष की उम्र के बाद से मैंने अपने साधनात्मक जीवन में जो कुछ साधनायें की हैं, अनुष्ठान किये हैं, तो कभी मेरे ऊपर न परिवार का कर्ज रहा है और न समाज का कर्ज रहा है। आज भी अगर जीवन जीता हूँ तो अपना भोजन, अपना वाहन, अपने रहने का, अपने परिवार का जीवकोपार्जन अपने कर्म से उपार्जित धन से करता हूँ, न कि समाज के दिये हुये लोगों के दान से करता हूँ।
आप अनेकों कथावाचाकों के चेहरे को देखें, उनके गाल चढ़े होंगे, चेहरे चमक रहे होंगे। आपके यहाँ कथा सुनाने आयेंगे, तो दस दिन में मोटे-तगड़े होकर जायेंगे, दो-चार किलो वजन उनका बढ़ जायेगा। विज्ञान शोध करके देखे कि मैं भी समाज के बीच आता हूँ। मैं तो किसी से मिलता भी नहीं हूँ, तनाव भी कुछ नहीं रहता। चूँकि मैं कह रहा हूँ कि मैं जितना तनावमुक्त रहता हूँ कि विज्ञान के पास मशीनें हैं, मशीन लगा करके मेरे मस्तिष्क को देख सकते हैं कि गुरुदेव जी चिन्तन देने के बाद अगर एक पल के लिये बैठते हैं, अपने ध्यान चिन्तन में चले जाते हैं, शवासन में चले जाते हैं, अपने सूक्ष्म में चले जाते हैं, तो उनका मन कितना एकाग्र रहता है। कभी उनका परीक्षण करके देखें कि अगर किसी शिष्य के यहाँ कोई धर्मगुरु आयेगा, दस दिन वहाँ रुकेगा, तो उसका एक-दो किलो वजन बढ़ेगा और मैं जब शिविर में आता हूँ आश्रम से निकलता हूँ, तो मेरा वजन करा लिया जाए और जब समाज से वापस जाता हूँ, तो एक-दो किलो वजन इस शरीर का कम ही हुआ होगा।
यह चेतनातरंगों का प्रभाव होता है कि शरीर से जब व्यक्ति अपना कुछ लुटाता है, तो कुछ न कुछ घटता जरूर है। उसका प्रभाव स्थूल शरीर में ही पड़ता है, उसका प्रभाव उन चेतनातरंगों में नहीं पड़ता। यहाँ सात हजार से अधिक लोगों ने गुरुदीक्षा प्राप्त की। आज अगर ये कह दें कि इस शिविर का लाभ क्या है? तो कथावाचक कथा सुना करके चले जाते हैं और कितने लोगों को लाभ होता है? मगर आज कम से कम इतने लोगों ने नशामुक्त और मांसाहारमुक्त जीवन जीने का संकल्प तो लिया। मैं बाध्य होकर समाज में इसीलिये आता हूँ।
मैं कथावाचकों की बुराई इसलिये नहीं कर रहा कि मुझे उनसे कोई ईर्ष्या है। अनकों ऐसी कुछ संस्थाएं हैं, जो समाज में कुछ अच्छा कार्य भी कर रही हैं। मगर कथावाचकों को कहीं न कहीं सोचना अवश्य पड़ेगा कि जिस तरह सत्यनारायण की कथा का आज अनादर किया जा रहा है, पण्डितों का अनादर हो रहा है। चूँकि ब्राह्मण अपने ब्राह्मणत्व से नीचे गिरते चले गये। पहले ब्राह्मणों में अलौकिक क्षमता हुआ करती थी, तपस्वी हुआ करते थे, साधनायें किया करते थे, शोध किया करते थे, धर्मनिष्ठ होते थे, अष्टांग योग का पालन किया करते थे। स्वतः समय से उठना, सुबह कितने समय पूजन करना है, कितने समय भोजन करना है, कितने समय क्या काम करना है? लेकिन धीरे-धीरे सब घटता चला गया। धीरे-धीरे केवल घर कमाये जाने लगे। वही व्यवस्था शुरू हो गयी कि हमारे इतने शिष्य हो गये, हमारा इतना बड़ा सम्प्रदाय हो गया!
मुझसे भी कई बार पूछा जाता है कि आप किस अखाड़े के स्वामी हैं? धर्म में भी अखाड़े बन रहे हैं। मैं मानवता का एक प्रतीक हूँ। एक मानवता के रूप में अपने आपको ढाल रहा हूँ। मेरा अपना कोई अखाड़ा नहीं है। मैंने भगवती मानव कल्याण संगठन का जो गठन किया है, वह ‘माँ’ की ऊर्जा को समेटकर जनकल्याणकारी कार्यों में लगाने के लिये है। यही संगठन की शक्ति होती है, सामर्थ्य होती है और मैं अपने द्वारा ही सब कुछ कार्य नहीं करना चाहता। मेरे पास समय भी नहीं है। मैंने पूर्व में जानकारी दी है कि मेरे द्वारा 108 महाशक्तियज्ञों का जो संकल्प चल रहा है, उनमें आठ यज्ञों को समाज के बीच मेरे द्वारा पूर्ण किया जा चुका है और शेष 100 यज्ञ पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम में होने हैं। मेरा अधिकांश समय उस प्रज्वलित अग्नि के समक्ष ही गुजरना है। मगर मैं अपनी चेतनातरंगों के माध्यम से समाज को इतना जाग्रत् करना चाहता हूँ, शिष्यों के अन्दर इतनी सामर्थ्य देना चाहता हूँ कि मेरे द्वारा दिये जा रहे प्रवाह श्री दुर्गाचालीसा, आरती, पूजन को घर-घर पहुंचायेंगे, हर घर में ‘माँ’ का ध्वज लगवायेंगे, तो समाज धीरे-धीरे नशामुक्त और मांसाहारमुक्त होता चला जायेगा।
समाज के पतन के मूल दो कारण हैं- नशा और मांस का भक्षण करना। नशा पतन का मूल कारण है। अनेकों साधु, सन्त, संन्यासी हैं, जो दिन में राम-राम कहते हैं और रात में पउआ चढ़ाते हैं। यह मेरे द्वारा कोई नई बात नहीं कही जा रही, मगर इसके लिए आवाज कौन उठायेगा? समाज तो धर्मभीरु होता चला जा रहा है। चूँकि गीता का ज्ञान दे करके भगवान् कृष्ण ने समाज के अन्दर अर्जुन की तो पहचान बना दी, मगर आज इतने धर्माचार्य, इतने कथावाचक होकर भी, अर्जुन की सेना में जिस तरह के सेनानी थे, समाज में उस तरह के सेनानी ही तैयार कर दिये होते? राम ने वानरों में इतनी शक्ति-सामर्थ्य भर दी कि रावण के शक्तिशाली साम्राज्य को भी नष्ट करने के लिये वे आगे बढ़ गये। उसके अस्तित्व को मिटाने में सहायक सिद्ध हुये। असम्भव कुछ भी नहीं होता और उसी जैसे असम्भव को सम्भव करने के लिए प्रकृतिसत्ता माता भगवती ने भगवती मानव कल्याण संगठन का गठन करके यह रास्ता प्रशस्त किया है। मैं उसका उसी तरह एक सदस्य हूँ, कार्यकर्ता हूँ, जिस तरह आप सदस्य हैं, कार्यकर्ता हैं। मेरा समय अधिकांशतः पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम में ही गुजरेगा, ‘माँ’ के चरणों में गुजरेगा, समाज में बहुत कम समय मेरे द्वारा दिया जायेगा। मगर मेरी एकान्त की चेतनातरंगें, जिनके लिए मैंने कहा है कि अगर सात तहखाने के अन्दर भी मुझे बन्द करके डाल दिया जाय, तो मैं जिस कोने में जहाँ जैसा चाहूँ, वैसा चिन्तन वहाँ प्रवाहित कर सकता हूँ।
अनेकों भविष्यवाणियों को तलाशें, चूँकि समाज मुझे जानना चाहता है, समझना चाहता है। पूर्व का मेरा पन्द्रह वर्ष का समय समाज के बीच आध्यात्मिक क्रम से ही गुजरा है। मैं चाहता तो जब पहले मैंने समाज में प्रवेश किया था, तो उद्योगपतियों को पकड़ सकता था, करोड़पतियों को पकड़ सकता था। मैं आज भी कह रहा हूँ और पूर्व में जब कानपुर आया था तब भी कहा था, कि चुनाव नजदीक आ रहे हैं और मुझे किसी राजनीतिक पार्टी से कोई उम्मीद नहीं है कि मैं किसी राजनीतिक पार्टी को बुलाऊँ, बल्कि मैं व्यक्ति विशेष को महत्त्व देता हूँ, मगर फिर भी यदि समाज का हित हो, तो जो प्रमुख चार पार्टियां हैं, समाजवादी पार्टी है, कांग्रेस है, बहुजन समाज पार्टी है, भारतीय जनता पार्टी है, इन प्रमुख चार पार्टियों में से किसी पार्टी का प्रमुख व्यक्ति जो अपने आपको मुख्यमन्त्री बनने का दावेदार कहता हो, अपनी पार्टी की सहमति ले करके आये और मेरे 11 सूत्रीय कार्यों का संकल्प ले कि जनहित में हम 11 सूत्रीय कार्य जारी करेंगे। मैं कह रहा हूँ कि चुनाव के लिए एक महीना रह गया है और मैं एक महीने में उसे इतनी सामर्थ्य दे दूँगा कि वह अपनी मुख्यमन्त्री की गद्दी स्थापित कर लेगा। असम्भव कुछ भी नहीं है। अनेकों आज ऐसे विधायक, सांसद हैं, जो आकर मुझसे मिले और जहाँ उनके जीतने के आसार नहीं थे, वहाँ उनको जिताया गया। चूँकि जनचेतना का प्रवाह मोड़ देना मेरे लिए कोई बड़ी बात नहीं है।
यहाँ कमलेश गुप्ता भी बैठे होंगे, जिनके माध्यम से मैंने अपना पहला यज्ञ सम्पन्न कराया था। उन्होंने देखा है कि यज्ञवेदी की लपटें मेरे शरीर को स्पर्श कर रही थीं, ‘माँ’ की प्रतिमा को स्पर्श कर रही थीं, मगर फिर भी वह किसी बिन्दु को जला नहीं रही थीं। अग्नि भी साधक के वशीभूत होती है, मगर आएदिन यही चीज की जाने लगे कि कहीं छोटी सी आग लग जाये, तो मैं अपनी शक्ति का उपयोग करने लग जाऊंगा, तो ऐसा सम्भव नहीं है। क्या कभी अतीत में भी ऐसा हुआ है? चूँकि वह चमत्कार कहलाएगा।
साधक के पास जो भी रिद्धियाँ-सिद्धियाँ आती रहती हैं, इसका तात्पर्य यह नहीं है कि वह उनका उपयोग करने लग जाए, अगर वह भी उसी मार्ग में चला गया, तो रावण और राम में कोई फर्क नहीं रह जायेगा। चूँकि रावण भी यही करता था। रावण योग्य था, ज्ञानी था, बस उसके पास जो शक्ति-सामर्थ्य आ गयी थी, उसका केवल वह दुरुपयोग करने लग गया था। भटकाव वहाँ से आने लगा था। हमारे ऋषि-मुनियों ने माध्यम भी बनाया है, तो राजपुत्रों को माध्यम बनाया है कि मेरे पास जो शक्ति-सामर्थ्य है, उसका उपयोग करके तुम सभी आगे बढ़ो। चूँकि साधक की यदि शान्ति भंग हो गयी, साधक यदि शान्ति भंग करके उस तरह के कार्य में लग गया, तो जिस तरह के हम कार्य करते हैं, उसका फल भी हमें मिलता है। हर मनुष्य के लिये एक कर्म निर्धारित होता है। साधक का कर्म अलग निर्धारित है, तपस्वियों का कर्म अलग निर्धारित है, ऋषियों का कर्म अलग निर्धारित है और राजधर्म का कर्म अलग निर्धारित है।
आज समाज की सबसे बड़ी बिडम्बना है कि हम जहाँ खड़े हैं कि यदि हम उद्योगपति हैं, तो पूरे समाज को लूट करके अपने अन्दर समेट लेना चाहते हैं, कोई दूसरा उद्योगपति आगे न बढ़ने पाये और पूरे समाज का भान भूल जाते हैं कि समाज का एक गरीब व्यक्ति किस तरह घर में भूखा पड़ा होगा, किस तरह भूखा लेटा होगा, सो रहा होगा, किस तरह बदहाल होगा? एक-एक रात की पार्टी में इतने रुपए लुटा दिये जाते हैं कि जितने में पूरे एक गांव का कायाकल्प किया जा सकता है।
परिवर्तन की सब बात करेंगे, मगर कोई बात उठाई नहीं जायेगी। यदि कोई आवाज उठाये, तो वह अहंकारी है। जो आवाज उठाता है, क्या वह अपने आपको पुजवाना चाहता है? अगर पुजवाना चाह रहा होता, तो पन्द्रह साल के अन्तराल से मेरी यह यात्रा चल रही है, मगर कभी उस रास्ते को मैंने तय नहीं किया कि समाज में मैं अपने आपको पुजवाऊँ, बार-बार चरणपूजन करवाऊँ। उस रास्ते से समाज का हित भी नहीं है और धर्मक्षेत्र से बढ़कर दूसरा कोई स्थान नहीं है। मैं ऋषित्व का जीवन जीता हूँ और इसलिये मैं समाज से कह रहा हूँ कि मुझे मन्त्रियों-राजनेताओं से कोई भेद नहीं है, चूँकि वे भी मेरे शिष्य हैं। मैं बार-बार जो टीका टिप्पणी करता हूँ, चूँकि उनकी ये कमियां हैं। उन्हें इन स्थानों को ग्रहण भी नहीं करना चाहिये। परिस्थितियां हो जायें, कोई ऐसी परिस्थितियां हों कि कोई सफर तय कर रहे हों और मज़बूरियां हों कि उनके बगल में बैठने की बाध्यता हो जाये, तो वह एक अलग बात है।
किसी धार्मिक मंच में राजनेता और धर्म के किसी व्यक्ति को साथ में बैठना नहीं चाहिये। मैं धर्म और राजनीति को जोड़ने की बात कह रहा हूँ, मगर यह कि धर्म के मार्गदर्शन में राजनीति चले। यह नहीं कि धर्म और राजनीति एक बगल में बैठ करके धर्म चोर और राजनीति चोर, दोनों मौसेरे भाई-भाई बन जायें। हम भी लुटेरे, तुम भी लुटेरे और लूटो समाज को जितना लूट सको! मैं इसीलिये बार-बार कह रहा हूँ कि अनेकों धार्मिक आयोजन होते रहते हैं और जब भी प्रसारण हुआ करे, उनको देखा करो। अभी एक प्रसारण कुछ समय पहले मैं देख रहा था। एक धार्मिक आयोजन चल रहा था, जिसमें देश के कोने-कोने से अनेकों तथाकथित बड़े-बड़े धर्माचार्य बुलाये गये थे। सभी अपने-अपने स्थानों पर सजे-संवरे बैठे थे। पहले तो एक-दूसरे की बड़ाई करते रहे, घण्टों यही चलता रहा, एक दूसरे का माल्यार्पण करते रहे, एक दूसरे की चाटुकारिता करते रहे। उनमें भी एक अध्यक्ष बनकर बैठ गये कि ये हमारे मंच के अध्यक्ष हैं और उनके संचालन में यह सब चल रहा है। थोड़ी देर बाद उद्घाटन करने के लिये एक मुख्यमन्त्री आये और सभी धमाचार्य अपनी-अपनी गद्दियों से उछलने लगे। गद्दियां खिसक गयीं और दौड़ पड़े माला लेकर। कितना थोथापन है, कितना उथलापन है, कितनी उच्छृंखलता है? ये उनका हल्कापन है कि एक मुख्यमन्त्री आ गया और जितने धर्माचार्य हैं, उसके पैरों की रजकण पाने के लिये दौड़ पड़े कि शायद हमें भी मुख्यमन्त्री की नजदीकता मिल जायेगी, थोड़ा उनका सहयोग मिल जायेगा, तो हमारे संस्थान बड़ी सरलता से बन जायेंगे। फर्क सिर्फ इतना है उनमें और मुझमें कि मैं इस तरह की भावना को पैर से ठोकर मारता हूँ। मैं भी आदर, मान-सम्मान करता हूँ कि अगर मुख्यमन्त्री भी आये तो चल करके भक्तिभाव से आये, बैठे तो उसी भाव से बैठे। व्यवस्था होजाती है। सामाजिक कार्यकर्ता हैं, जनप्रतिनिधि हैं, कोई आगे बैठना चाहता है, तो उनको व्यवस्था यहाँ भी मेरे द्वारा दे दी जाती है। कोई समाज का प्रशासनिक अधिकारी है, तो उसको महत्त्व मिलना चाहिये, मगर कहाँ मिलना चाहिये? इस मंच में नहीं, भक्तों के समक्ष मिलना चाहिये, समाज के समक्ष मिलना चाहिये। अन्यथा, वही हो रहा है कि सभी संकल्प लेते हैं कि हम समाज को सुधारेंगे, मगर कर क्या रहे हैं? यह समाज देखे और समझे। मेरे द्वारा बार-बार उनको इंगित इसीलिये किया जा रहा कि कहीं न कहीं उनको उन बिन्दुओं पर सोचना ही पड़ेगा।
भगवती मानव कल्याण संगठन का गठन इसीलिए किया गया है। मेरे द्वारा जो एक प्रवाह डाला जा रहा है कि जगह-जगह श्री दुर्गाचालीसा के पाठ, हर घर में ‘माँ’ का ध्वज लगे, सभी जाति-धर्म-सम्प्रदाय को एक भाव से लेकर चलने की बात, कि मुसलमान भी मेरे दीक्षित शिष्य हैं और यहीं पर बैठे हैं। मेरे जन्म स्थान से जुड़े हुये मुस्लिम सम्प्रदाय के मेरे दीक्षाप्राप्त शिष्य हैं, मगर किसी को मैं धर्म बदलने की बात कभी नहीं कहता। उनसे कह रहा हूँ कि जो अच्छाईयां तुम्हें यहाँ नजर आयें, उनको भी स्वीकार किया करो और अपने धर्म में भी जो अच्छाईयां मिलें, उनको भी बड़ी तत्परता से उसी तरह स्वीकार किया करो। मगर हिन्दू धर्म में, सनातन धर्म में जो सत्यता है कि अन्य धर्मों में अलग-अलग पथ जरूर बट गये, मगर सब कहीं न कहीं उसी धर्म की शाखाएं हैं।
यदि हम गहराई में, अतीत में जायेंगे, तो समाज को यह ज्ञान होगा और यदि कोई दूसरा धर्म इस तरह की सत्यता रखता है, तो मैंने समस्त धर्मों को चुनौती दी है और यह चुनौती अहंकार के वशीभूत नहीं है। एक बार आयें और यदि उनके पास कोई सत्यता निकल आयेगी, तो मैं कह रहा हूँ कि नाक रगड़ करके उनका सेवक बन जाऊंगा, उनका दास बन जाऊंगा। पांच साल का बच्चा भी यदि मेरे साधनात्मक तपबल को पराजित कर देगा, तो मैं उसका शिष्यत्व ग्रहण कर लूंगा, आजीवन उसकी गुलामी करूंगा। मगर समाज में यदि यह नहीं होगा, तो समाज में सत्य निकल करके आयेगा कैसे? समाज में परिवर्तन आयेगा कैसे? कलिकाल का भयावह वातावरण छटेगा कैसे? उसके लिये हम और आप सबको मिल करके प्रयास करना पड़ेगा। इसीलिये मैं नशामुक्त, मांसाहारमुक्त जीवन जीने की बात कह रहा हूँ। राजनीति और धर्म को जोड़ने की बात इसीलिये कह रहा हूँ।
धर्म के मार्गदर्शन में यदि राजनेता रहेंगे, तो सही मार्ग में ज्यादा चलेंगे, अन्यथा अपराध बढ़ता चला जा रहा है। इस अपराध को कैसे रोका जायेगा? केवल धर्म ही एकमात्र ऐसा माध्यम है। धर्म और राजनीति को अलग करने की आवश्यकता नहीं है, सिर्फ आवश्यकता है कि धर्माचार्यों को चुनाव नहीं लडऩा चाहिये, बल्कि उन्हें मार्गदर्शन करना चाहिये, चिन्तन देना चाहिये, दिशा देनी चाहिये। मगर खुद चुनाव लड़ें, खुद की कभी मन्त्री बनने की ख्वाहिश हो जाये, तो मैं उनको धर्माचार्य मानता ही नहीं हूँ, भले ही वह भगवे वस्त्रधारी बनकर बैठे हों। मगर धर्म और राजनीति को जोडऩा नितान्त आवश्यक है।
योग और धर्म का समन्वय नितान्त आवश्यक है। कुछ लोग योग को अलग मानते हैं। कुछ लोग योग को केवल बीमारियों के निदान का साधन मानते हैं। चूँकि उनको योग के पूर्णत्त्व का ज्ञान नहीं है कि योग के पूर्णत्त्व का स्वरूप क्या है? भटकाव केवल इतना है। योग का तात्पर्य केवल उछलकूद करना या कुछ आसन, व्यायाम, कपालभाति, अनुलोम-विलोम नहीं है। योग का तात्पर्य है, ‘आत्मा को परमसत्ता से जोडऩा तथा शरीर, मन और श्वासों पर नियन्त्रण प्राप्त करना।’ योग की कुछ क्रियायें हैं, जिस तरह कुछ योगाचार्यों द्वारा करायी जाती हैं। हो सकता है कि समाज के कुछ लोगों का स्वास्थ्य ठीक हो जाये, कुछ पेट कम हो जाये, कुछ बीमारियों में थोड़ा लाभ मिल जाये। चूँकि बीमारियों में लाभ मिलता है और हमारे अतीत के ऋषियों-मुनियों ने हर आसनों का शोध केवल इसीलिये किया है। केवल अध्यात्म में बढऩे के लिये ही नहीं किया गया था। मनुष्य अपने मानवता के पूर्णत्त्व को तभी प्राप्त कर सकता है, जब उसकी पूर्ण कुण्डलिनीचेतना जाग्रत् हो। हर मानव दृश्य और अदृश्य में सम्बन्ध स्थापित करने की क्षमता रखता है और उस क्षमता में यदि कमी आ जाये, तो योग की क्रियाओं के माध्यम से उस क्षमता को पुनः प्राप्त किया जा सकता है।
योग के कुछ व्यायाम, कुछ क्रियायें ऐसी होती हैं, जिनसे प्राणवायु जाग्रत् होती है। यदि उसको सही दिशा नहीं दी जायेगी, यम और नियमों का पालन करने का ज्ञान नहीं सिखाया जायेगा, किसी योग्य गुरु का मार्गदर्शन नहीं होगा कि तुम्हारे योग करने के बाद मानसिक स्थिति क्या बन रही है? तो इसका ज्ञान वैज्ञानिक मशीनों से प्राप्त नहीं किया जा सकता। एक चैतन्य योगी, जिसने उस मार्ग को तय किया हो, वही बता सकता है कि तुम्हारे मन में इस तरह की स्थितियाँ आ रही हैं, विचारों में इस तरह की स्थितियाँ आ रही हैं, तो तुमको अब क्या करना चाहिये? कितने समय योग करना चाहिये, कितने समय ध्यान करना चाहिये, कितने समय शवासन में जाना चाहिये, किस तरह का भोजन करना चाहिये? अन्यथा प्राणवायु जब जाग्रत् होगी, तो आप नाना प्रकार के विकारों से ग्रसित हो जायेंगे। यदि आप सच्चे योगी के मार्गदर्शन में न हों, तो अधिकांशतया लोग भोगी बन जाते हैं।
आचार्य रजनीश का पूरा जीवन देखें। संभोग से समाधि का मार्ग क्या है? चूँकि यदि किसी व्यक्ति का एक मूलाधार चक्र केवल जाग्रत् हो जाए, तो एक बहुत बड़े समाज को जिस दिशा में मोडऩा चाहे, उस दिशा में मोड़ सकता है और भटका सकता है। मगर यह एक बहुत बड़े विस्तार का चिन्तन है। अगर मैं चाहूंगा, तो भी इतने कम समय में यहां दे नहीं सकता। धर्म, ज्ञान, योग, विज्ञान, अध्यात्म, आत्मा और परमात्मा के बीच का ऐसा कोई रहस्य नहीं है, जिसको समाज जानना चाहे और मैं बता न सकूं। आवश्यकता है, तो केवल उस दिशा में बढऩे की। आवश्यकता है उस भेदभाव को दूर करने की, कि मानव-मानव में भेद समाप्त कर दो। जो असन्तुलन समाज में है, जब तक वह दूर नहीं होगा, तब तक शान्ति आयेगी नहीं। एक बेचारा भूखों मर रहा है और एक अरबों की सम्पत्ति पर कुण्डली मारे बैठा है। हर मनुष्य को अपना कर्त्तव्य समझना पड़ेगा। जो इस वक्त जहां पर है, वह केवल इसलिये जीवित नहीं कि अपने हित में वह मानवता का पूर्ण स्वरूप हासिल कर ले, तो उसे ज्ञान हो जाये कि मेरे पास धन सम्पदा आ रही है, तो उसका उपयोग मुझे किस प्रकार करना चाहिये या किस प्रकार नहीं करना चाहिये? अगर वह धर्म की राह में खुद नहीं जाता, तो इसीलिये गुरु की शरण में जाने की बात कही गयी है।
मनुष्य सर्वशक्तिमान है, मगर यदि उसे सद्गुरु का मार्गदर्शन न मिले, तो वह पशुओं और कीड़े-मकोड़ों से भी बदतर होता है। वह तो चलना भी नहीं सीख सकता है। कीड़ों-मकोड़ों को तो ज्ञान होता है, जो अपनी वंश परम्परा से माता-पिता से हट जायें, तो भी वह उसी प्रकार चलेंगे, जिस प्रकार उसकी प्रजाति के अन्य कीड़े-मकोड़े, पशु चलते हैं। मगर एक मनुष्य का बच्चा यदि जंगली जानवरों के बीच पल जाये, तो जानवरों की तरह चलने लगेगा। माता-पिता भी गुरु होते हैं। हम सब कुछ सीखते हैं केवल एक गुरु परम्परा के माध्यम से और गुरु से हमें ऊर्जा मिल पाये, इसके लिये हमारे अन्दर शिष्यत्व आना नितान्त आवश्यक है। यदि धरती की गहराई में जल है और हम खोदेंगे, तो पानी निश्चित रूप से मिल जायेगा। हमारे अन्दर शिष्यत्व आये, हमारे अन्दर वह भावपक्ष आये, हमें सद्गुरु की प्राप्ति निश्चित रूप से हो जायेगी।
यदि हम भटकाव का जीवन खुद जी रहे हैं, दिन भर खुद अनीति-अन्याय-अधर्म करते हैं और थोड़ी देर के लिये पूजा-पाठ करते हैं और सोच रहे हैं कि हमें सद्गुरु की प्राप्ति हो जाये, तो यह सम्भव नहीं है। अतः भटकाओं का जीवन छोड़ दो। सद्मार्ग पर चलो। अच्छाइयों को अपने अन्दर धारण करो। सदैव याद रखो कि हम बदलेंगे, जग बदलेगा। इस बात को सदैव याद रखो। यदि वास्तव में कलिकाल को बदलना चाहते हो, तो सबसे पहले हमें अपने आपको बदलना पड़ेगा। तभी यह समाज बदल सकेगा, अन्यथा आज का वर्तमान समाज भटक रहा है, वर्तमान समाज ठगा जा रहा है, लूटा जा रहा है। वही बातें मेरे द्वारा कही जा रही हैं कि उन्हें कौन चुनौती देगा, कौन उन्हें टोकेगा?
उन्हीं मंचों पर मन्त्री उनकी जय-जयकार करते हैं, जा-जा करके बैठते हैं, माल्यार्पण करते हैं। उनको लाखों, करोड़ों, अरबों का सहयोग दे रहे हैं, तो कहीं जमीन आवंटन कर रहे हैं। गरीब बेचारा एक झोपड़ी के लिये तरस रहा है और जिनके पास अरबों-खरबों की सम्पत्ति आ रही है, उन्हें फ्री में जमीन दी जा रही है कि हाँ, तुम यहां ऐश्वर्य का अपना बड़ा संस्थान खोल लो। योग के नाम पर, आयुर्वेद के बड़े-बड़े संस्थान चलाये जा रहे हैं। धर्म के नाम पर आडम्बर रचा जा रहा है। लोगों को ठगा जा रहा है। प्रचार व विज्ञापनों को देखें कि कहा जा रहा है बस एक रुद्राक्ष खरीद लो, आपको सब कुछ हासिल हो जायेगा। एक रुद्राक्ष से आपको रिद्धियाँ-सिद्धियाँ सब कुछ प्राप्त हो जायेंगी! इससे हम रुद्राक्ष का भी अपमान करते हैं। हर चीज की अपनी एक सामर्थ्य होती है। गरीबों को चाहे जितना लूटा जा रहा है! बेचारा कोई बेरोजगार है और उससे कह दोगे कि रुद्राक्ष धारण कर लोगे तो तुम्हारी तुरन्त नौकरी लग जायेगी, तो बेचारे के माता-पिता ने वैसे भी कर्ज ले-ले करके पढ़ाया और वे अपने बच्चे के लिए वह रुद्राक्ष भी खरीद लेंगे। हमारे राजनेताओं ने ऐसी अव्यवस्था समाज में फैला रखी है कि बेचारे गरीब और गरीब होते चले जा रहे हैं।
दुःख-दर्द समझना है, तो उन बेरोजगारों के घरों में जाओ, जिनके माता-पिता रोज भगवान् की पूजा करते हैं, कर्ज लेकर और अपना पेट काट-काटकर उनको पढ़ाते हैं और जब वह डिग्री लेकर आता है, तो सोचते हैं शायद कहीं नौकरी लग जायेगी। रोज इण्टरव्यू के लिये भेजते हैं, आज यहाँ भेजते हैं, कल वहाँ भेजते हैं। आशा लगी रहती है कि वहाँ हमारा बच्चा परीक्षा देकर आया है, शायद वहाँ उसकी नौकरी लग जायेगी। उन व्यथाओं को सोचो, जरा विचार करो। जब उसकी नौकरी नहीं लगती, तो समाज में अपराध और असन्तुलन क्यों नहीं बढ़ेगा? एक बार, दो बार और जब बेरोजगार दस-दस बार यहाँ-वहाँ भटकेगा, धन नहीं रहेगा, तो उसके पास जीवकोपार्जन के लिये रास्ता बचेगा क्या?
राजनीति लुटेरों की तरह कार्य कर रही है। धर्माचार्य उन्हें ज्ञान नहीं दे रहे हैं। धर्माचार्य उन्हें धैर्य का पाठ नहीं पढ़ा रहे हैं कि धैर्य रखो, भूखे मर जाओ, मगर अनीति-अन्याय-अधर्म से समझौता मत करो। अन्यथा, आज तुम बेरोजगार हो, कल हो सकता है तुम पढऩे लायक भी न बचो। उस प्रकृतिसत्ता पर विश्वास रखो। अगर आज तुम बेरोजगार हो, तो हो सकता है, उसके पीछे तुम्हारा ही कुछ कारण होगा। भले राजनेता लूट रहे हैं, तो तुम लुट इसलिये रहे हो कि कहीं न कहीं तुम्हारे भी कर्म होंगे। अपने कर्म को सुधारो और आवाज उठाओ। कर्म केवल पूजा-पाठ को ही नहीं कहते बल्कि अनीति-अन्याय-अधर्म के खिलाफ अपनी आवाज को उठाओ।
युवाओं में इतनी बड़ी शक्ति है कि राजनीति को बदल करके रख सकते हैं। आवश्यकता है कि अन्यायियों-अधर्मियों को अपने वोटों से उनको वह अधिकार मत दो। अपने-अपने क्षेत्र से ऐसे व्यक्ति को चुनो, जो तुम्हारे लिये जनकल्याणकारी कार्य करे। ऐसे धर्माचार्यों के सामने सिर झुकाओ, जिनके अन्दर अपनी पात्रता हो, जो चुनौती दे करके कह सकें कि हाँ मैंने अपने इष्ट को देखा है। इसलिये मैं आपको अपने इष्ट से जोडऩा चाहता हूँ। अन्यथा, ये लोग परमहंस, धर्मसम्राट् ऐसे शब्दों को लगाना भूल जाएं। मुझसे भी पूछा गया कि गुरुजी आप धर्मसम्राट् सम्बोधन क्यों लगवाते हैं? मुझे धर्मसम्राट् कहने से तृप्ति नहीं मिलती, मगर ये शब्द भी तुम्हें कहीं पिंच करें कि यदि अपने आपको धर्मसम्राट् कहलाता हूँ, तो मैं चुनौती भी दे रहा हूँ कि अगर कोई दूसरा धर्मसम्राट् है, तो मेरा सामना करे। चूँकि एक सत्य से बड़ी सरलता से पूरे समाज के कल्याण के रास्ते प्रशस्त हो सकते हैं।
यदि समाज में केवल एक सत्य उजागर हो जाये कि वास्तव में आज आध्यात्मिक शक्ति किसके-किसके पास है? तभी हमारे हिन्दू धर्म की रक्षा होगी। तभी हम दूसरे धर्मों का भी मान-सम्मान कर सकेंगे, अन्यथा हम भटकाव में भटकते चले जायेंगे। समाज पतन के मार्ग में चला जायेगा। अपने बच्चों को समझाओ, उन्हें सुधारो और वह ज्ञान दो। चूँकि जिस तरह बच्चे दूसरों को देखते हैं, तो उन्हें लगता है कि शायद वे ज्यादा वैभवशाली रासरंग कर रहे हैं, पार्टियाँ दे रहे हैं। चूँकि चाहे न्यूज चैनल खोलो, चाहे जो चैनल खोलो, उसमें आम व्यक्ति की आवाज कम उठायी जाती है। कहीं किसी पार्टी का प्रचार दिया जा रहा है, तो कहीं किसी फिल्मी अभिनेत्री का जो कम वस्त्र पहने होगी, उसका विज्ञापन किया जा रहा है, उनकी वार्तायें दिखाई जा रही है। मगर एक आम व्यक्ति कह दे, अगर मैं कह दूँ कि मैं विश्वस्तर की एक चुनौती दे रहा हूँ, तो मैं अगर अपनी बात कहने को कह दूँ कि दस मिनट का समय आप मुझे दो, मेरे विचार वहाँ तक पहुँचा दो, तो समय नहीं मिलेगा। मगर यदि कोई अभिनेत्री कम वस्त्र पहनकर एक बार कोई डान्स कर दे, तो जहाँ उसका विरोध करना चाहिये, वहाँ उसके बदले उसको अपने स्टूडियो में बुला लिया जायेगा, ससम्मान बैठाया जायेगा। ऐसी चन्द होंगी, जो महिलाओं के नाम पर कलंक हैं। उन कलंकों को समाज से दूर रखना चाहिये।
हम पूरे नारी समाज को दोष नहीं दे सकते। हमारा समाज कितना बड़ा है, उसका आकलन करें और ये चन्द लोग, जो गिने-चुने लोग हैं, समाज को, मानवता को पतन की ओर खींच रहे हैं। मैं उन कलेण्डरों की बात कह रहा था, जिस कलेण्डर पर नारी की नग्न तस्वीरें लगाई जाती हैं कि जनवरी महीने में इस तरह की देखो, फरवरी महीने में इस तरह की देखो। उससे आपके अन्दर कामवासना जाग्रत् होगी और उसका बड़ा प्रसारण किया जाता है, मगर कोई आवाज नहीं उठाता। समाज में विषमताएं भरी पड़ी हैं।
एक कोई अपराधी हजारों तरह के अपराध करता है, अगर उसके पास धनबल है तो वह सब जगह बच जाता है, गवाह बदल जाते हैं। न्यायपालिका से निर्णय भी वह अपने अनुरूप करवा लेते हैं। चूँकि न्यायपालिका को तो सबूत चाहिये और सबूत पहले ही बिक जाते हैं, चूँकि समाज बिकाऊ बन चुका है। हमारे बड़े-बड़े धर्माचार्य बिक रहे हैं। जब हमारी नींव ही बिक जाए, हमारा धर्म ही बिकाऊ हो जायेगा, तो समाज में जो उनके शिष्य हैं, वे तो बिकाऊ होंगे ही। इसलिये सबसे पहले अपने धर्म की रक्षा करो। सिर वहीं झुकाओ, जहाँ तुम्हारी अन्तरात्मा स्वीकार कर ले और कम से कम वर्तमान में आवश्यकता है कि अपने उन धर्मगुरुओं से कहो कि यदि किसी से तुम जुड़े हुये हो, तो उन्हें बताओ कि एक किसान परिवार में जन्मा व्यक्ति पूरे विश्वअध्यात्मजगत् को चुनौती दे रहा है। यदि आपके पास कुछ हो, तो उस चुनौती को आप स्वीकार कर लें।
समाज को आवश्यकता है नशामुक्त और मांसाहारमुक्त जीवन जीने की, अपने आचार, विचार और व्यवहार में परिवर्तन लाने की। जब तक हम अपने आचार, विचार और व्यवहार में परिवर्तन नहीं लायेंगे, तब तक हमारे जीवन में परिवर्तन नहीं आयेगा। मुझसे पूछा जा रहा था कि जिस तरह जगह-जगह योग के शिविर लगाये जाते हैं, क्या इस तरह शिविर लगाये जाने चाहिये? मैंने कहा कि योग के शिविरों की नितान्त आवश्यकता है। जगह-जगह नहीं, घर-घर शिविर लगाये जायें तो अच्छी बात है, मगर योग को व्यवसाय न बनाया जाए। योग का ज्ञान समाज को निःशुल्क देना चाहिये। योग का कोई शुल्क नहीं लेना चाहिये। अगर वे योग का शुल्क लेते हैं, तो मैं कहता हूँ कि वे योग के लुटेरे हैं। वे हमारे धर्म के लुटेरे हैं। चूँकि अतीत में हमारे ऋषियों-मुनियों ने अपनी पूरी सामर्थ्य जिन साधनाओं, जिन यौगिक क्रियाओं को सीखने में लगाई और उनका ज्ञान अपने शिष्यों को सदैव निःशुल्क ही दिया और सदैव कहा है कि उसे समाज में बांटो, कभी उन्होंने नहीं रोका। ऐसा नहीं है कि समाज में विस्तार नहीं हुआ, मगर उनके पास जो संसाधन थे, उनके अनुरूप विस्तार हुआ।
आज ऐसे अन्यायियों, अधर्मियों, भूमाफियाओं और लुटेरे कुछ योगाचार्यों को देखें। अनेकों ऐसे हैं, जिनके साथ अधिकांश वही समाज जुड़ा होगा, जिनके पास अरबों-खरबों की सम्पत्ति नाजायज तरीके से आयी होगी। उन्हीं को सम्मान मिल रहा है और मैं इसलिये चुनौती के साथ कह रहा हूँ कि अब तक उनके मंचों में जितने लोग सम्मान पा चुके हैं, केवल उनकी ब्रेनमैपिंग करा ली जाए, तो हजार में नौ सौ निन्यानवे व्यक्ति यही कहेंगे कि हाँ हमने बेईमानी से धन कमाया हैं। हम अधर्मी हैं, अन्यायी हैं। इसमें कहीं न कहीं रोक लगनी चाहिय, कहीं न कहीं विराम लगना चाहिये और विराम आप लोग ही लगायेंगे और वह विराम तब लगायेंगे, जब आपको अपने आप पर विश्वास होगा, अपनी आत्मशक्ति पर विश्वास होगा।
समाज को तो हमने बहुत कुछ देख लिया, समाज ने हमें क्या दिया? मगर हमारे अन्दर वह आत्मतत्त्व बैठा हुआ है, अलौकिक ऊर्जा बैठी हुयी है। अब हम उसकी ओर देखना शुरू करें। अब हम उसकी प्रार्थना करें, अब हमको जो कुछ हासिल करना है, उससे हासिल करना है और उसी के लिये अपने आचार, विचार और व्यवहार में परिवर्तन लाओ। नित्य साधना करो। सूर्योदय के पहले उठना सीखो। जब आप इन नियमों का पालन करेंगे, सूर्योदय के पहले उठेंगे, अपने कार्यों में परिवर्तन लायेंगे और थोड़ा सा त्याग की भावना अपने अन्दर लायेंगे, तो धीरे-धीरे आपको ‘माँ’ की कृपा मिलती चली जायेगी, धीरे-धीरे वह ऊर्जा आपके अन्दर आती चली जायेगी और आप स्वतः सामर्थ्यवान बनते चले जायेंगे। चूँकि जितने आपके संस्कार जाग्रत् होंगे उतना फल आपको निश्चित रूप से प्राप्त होगा। आपके बच्चों में भी सद्भाव और संस्कार पैदा होंगे।
आप लोग सुबह आठ-नौ बजे तक सोकर उठते हो और इसके बाद भी बच्चों को देखते हैं, तो एक चद्दर और ओढ़ा देते हैं कि बेटा और लेटे रहो थोड़ी देर! मैं अगर याद करूँ तो शायद साल-छः महीने के बाद से ऐसा कोई दिन नहीं गया कि मेरी तीनों पुत्रियां सूर्योदय के बाद उठी हों। यदि कभी एक आध दिन बीमार नहीं रहीं हों। आदत डलाओ, सुख-शान्ति आयेगी कैसे? आप कहते हैं कि हमारे परिवार में दो बच्चे हैं और दोनों ही हमें अशान्त किये रहते हैं, हमारे बच्चे हमारे कहने में नहीं चल रहे। मैं कह रहा हूँ कि मैं किसलिये सुखी हूँ? ऐसा नहीं है कि मेरे पास धन-सम्पदा का अम्बार लगा हो। मैं तीनों बच्चियों से आवश्यकता से अधिक सन्तुष्ट हूँ और मेरे घर में सुख-शान्ति रहती है। मैं अपनी पत्नी से सन्तुष्ट हूँ, अपनी बच्चियों से सन्तुष्ट हूँ। आप लोग पुत्रों की कामना करते हैं, जबकि मैंने माता भगवती के चरणों में आराधना की थी, चूँकि मुझे गृहस्थ में रखा गया है और अगर मैं निःसन्तान रह करके कार्य करता, तो यही कहते कि गुरुदेव जी निःसन्तान हैं, इसलिये ऐसी बातें कहते हैं। इसलिये मैंने ‘माँ’ के चरणों में चिन्तन किया था कि अगर मेरे घर में आना है, मेरे परिवार में जन्म लेना है, तो केवल पुत्रियों का ही जन्म हो। पुत्र और पुत्रियों में भेद छोड़ दो। चूँकि यही तो समाज के भटकाव हैं। जिस दिन तुम पुत्र और पुत्रियों में भेद छोड़ दोगे, उस दिन तुम्हारे अन्दर शान्ति पैदा होने लगेगी। चूँकि यही वे छोटे-छोटे कर्म हैं, जो हमारे अन्दर असन्तुलन और अशान्ति पैदा करते हैं। पुत्रों की लालसा में पांच-पांच, छः-छः पुत्रियां होती चली जाती हैं, फिर भी पुत्रों की कामना है और बाद में भुखमरी के शिकार होते हैं वे परिवार। अरे, तुम्हारा बच्चा पैदा हो करके जो छोटी सी क्रिया कर्म कर देगा, उससे तुम्हारी मुक्ति नहीं होगी। मुक्ति के लिये तुम ऐसे कर्म करो कि अपने जिन्दा रहते हुये उस अवस्था को प्राप्त कर लो कि तुम्हारा शरीर अगर सड़ने गलने लगे, उनको बदबू लगे, तो वे जहां चाहें वहां फेंक दें। अपनी मुक्ति के लिये बच्चों का सहारा लेते हो। अगर सेवा के लिये सहारा लेते हो, तो मान लिया जाये। मगर यह भ्रान्ति उन्हीं कथावाचकों ने, धर्माचार्यों ने पैदा कर दी है कि जिसके पास पुत्र नहीं है या जिसके कोई सन्तान नहीं हुयी है, उसकी मुक्ति नहीं होगी। मैं कह रहा हूँ कि मेरे पास पुत्र नहीं हैं, मगर मैं हर पल मुक्त हूँ। व्यक्ति चाहे तो मुक्त पुरुष स्वतः बन सकता है। मेरे लिये किसी कर्मकाण्ड की जरूरत नहीं है, मैं हर काल में मुक्त हूँ। तुम तो हर काल में मौजूद हो। कौन किसकी वंश परम्परा चला रहा है? अपनी दस पीढ़ियों के आगे के नाम पूछो बाबा दादा या किसी के। जब तुम्हें याद नहीं, तो तुम्हारे बच्चे क्या नाम याद रखेंगे किसी का? आने वाली दस पीढिय़ाँ तुम्हें क्या याद रखेंगी? तो किस वंश परम्परा के लिये अपने परिवारों का इतना विस्तार करते चले जा रहे हो? अतः परिवारों को सीमित रखो।
हर काल परिस्थितियों के आधार पर हमें जीवन जीना चाहिये। दो या तीन बच्चों से ज्यादा अपने परिवार में जन्म लेने की स्थितियां न निर्मित करो। घर में सुख-शान्ति के लिये एक बेडरूम की संस्कृति को समाप्त करो। चूँकि नित्य पति-पत्नी एक बिस्तर में, एक बेडरूम में सोते हैं और यही उनकी अशान्ति का कारण बनता है। पति-पत्नी के बिस्तर अलग-अलग होने चाहिये। परिवारिक वंश परम्परा को चलाने के सम्बन्ध के जो योग निर्मित होते हैं, वह क्षणिक योगों का समय होता है। आप लोगों के बीच कभी ऐसी स्थिति नहीं निर्मित होनी चाहिये कि पति-पत्नी रात भर एक ही बिस्तर पर सोयें। उससे चेतनातरंगे बाधित होती हैं। हमारी प्राणवायु बाधित होती है। आपस में एक-दूसरे के प्रति लगाव को जो स्थिति होती है, वह क्षीण होती है और वही कमी धीरे-धीरे अशान्ति की स्थिति बनायेगी और उसी तरह जो माँ के गर्भ में बच्चा होगा, वह भी अशान्तपूर्ण वातावरण ले करके पैदा होगा। चूँकि जिस तरह का माता-पिता का जीवन होगा, उसी तरह बच्चे का विकास और विचार पैदा होंगे। मानसिक असन्तुलन की स्थिति में यदि कोई व्यक्ति है, तो कभी भी सन्तान उत्पत्ति के बारे में सोचे नहीं। अन्यथा उसके अपंग बच्चे पैदा होंगे, असन्तुलित बच्चे पैदा होंगे। इसलिये अधिकांशतः हो भी रहा है कि जिस तरह अनीति-अन्याय-अधर्म से पैसा कमा रहे हैं, वहाँ कहीं न कहीं असन्तुलन की स्थिति पैदा हो रही है, भटकाव की स्थिति पैदा हो रही है। उन भटकावों को दूर करने के लिये हमें सबसे पहले अपने आपको सुधारना होगा।
प्रकृतिसत्ता पर विश्वास करना है, अपने इष्ट पर विश्वास करना है और हम जिस धर्म में हैं उस धर्म पर विश्वास करना है। एक दूसरे के धर्म परिवर्तन करने की बात नहीं करना। यह अधर्म होता है। किसी के धर्म को दूसरे धर्म में परिवर्तन करना और प्रलोभन देकर परिवर्तन कराना तो महाअधर्म होता है। अपने धर्म पर विश्वास करो, अपने आप पर विश्वास करो, अपने गुरु पर विश्वास करो और अपनी इष्टशक्ति पर विश्वास करो और नित्य साधना करो। सदैव भक्ति, ज्ञान और आत्मशक्ति की कामना करो और सदैव सजग रहो। भले कथावाचक कहते हों कि माया महाठगिनि मैं जानी, जबकि स्वयं माया में लिप्त रहते हैं। किसी कथावाचक को देखो कि समाज में कहेंगे कि माया में मत लिप्त रहो, माया में मत लिप्त रहो, मगर यदि आपने दक्षिणा पहले से तय करके उनकी नहीं दे दी, तो कथा सुनाने के लिये मंच में नहीं आते। मगर मैं कह रहा हूँ कि माया के साथ चाहे जैसा रहो, मगर काया से सजग रहो। काया महाठगिनि मैं जानी। चूँकि साधक काया को जानता है। काया आपको हर पल ठग रही है। आप कोई भी अपराध करते हैं, उसका मूल कारण आपकी काया है। अगर आप चोरी भी करते हैं, तो इसी काया के अन्दर आपके विचार पैदा होते हैं और आप चोरी करते हैं। आप किसी की हत्या करते हैं, तो आपके अन्दर सबसे पहले विकार पैदा होते हैं, तब आप किसी की हत्या करते हैं। अतः सबसे पहले आप अपने शरीर से सजग रहो कि शरीर तो लोभी है, शरीर तो सुख चाहता है और यदि चेतनावान् बनना है, तो शरीर के अन्दर बैठी आत्मा की आवाज को सुनो, उसका सान्निध्य प्राप्त करो।
जब तक अपने स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर को आपस में समाओगे नहीं, यौगिक क्रियाओं के माध्यम से, चेतनातरंगों के माध्यम से जोड़ोगे नहीं, तब तक तुम अपराधों से अलग नहीं हो सकते। जितना तुम सम्बन्ध जोड़ लोगे उतना ही अपराधों से अलग रहोगे। अन्यथा जितना तुम्हारा तमोगुणी जीवन होगा, जितना तुम सत्य से दूर होगे, उतना ही तुम अपराध करते चले जाओगे। धर्म से अलग हट करके, योग से अलग हट करके, अध्यात्म से अलग हट करके विकास की बात कहना ही अधर्म की बात है। चूँकि विकास भी एक पतन का मार्ग है। आज अमेरिका, संयुक्त राष्ट्रसंघ, सोवियत संघ को देखो जो अपने आपको सर्वशक्तिमान कहते थे, सम्प्रभुतासम्पन्न राष्ट्र कहते थे। उनके यहाँ आज किस तरह अशान्ति है?
अमेरिका के राष्ट्रपति अनेकों देशों में केवल अपना वर्चस्व कायम करने के लिए एक के बाद एक आक्रमण करते चले जा रहे हैं। किसी ने सौ दो सौ हत्यायें करवायी होंगी, तो उसे फाँसी में टंगवा रहे हैं और खुद लाखों-करोड़ों को अपाहिज बना रहे हैं! उसमें उनका विवेक नहीं जाता, उस पर उनका ज्ञान नहीं जाता कि दूसरे रास्ते भी हो सकते हैं परिवर्तन डालने के। पहले खुद अपराधी बनायेंगे और फिर कहेंगे कि आक्रमण करके हम उन अपराधों को दूर कर रहे हैं। एक ओसामा बिल लादेन को पकड़ नहीं पाते और निर्दाेष लाखों-करोड़ों जनता को मार गिराते हैं। यह विकृति है। मेरे द्वारा पहले यज्ञ में कहा गया था कि अमेरिका में ऐसा बवाल मचेगा, अमेरिका में एक ऐसी घटना घटेगी, जबकि उस समय तक कोई हमले नहीं हुये थे। कभी किसी ने सुना नहीं था कि कभी कोई बाहरी आक्रमणकारी वहाँ जाकर किसी तरह की बमवर्षा किया हो जिस तरह आज हो रहा है। कमलेश गुप्ता यह भविष्यवाणी खुद लिख करके जबलपुर के एक समाचार पत्र में प्रकाशित कराने के लिए ले गये थे, तो वहाँ उसको नकार दिया गया था कि इस तरह की भविष्यवाणी तो हम खुद बना लेते हैं। तब मेरे द्वारा कहा गया था कि अमेरिका में भी ऐसे हमले होंगे जिससे अमेरिका अपने आपको बचा नहीं पायेगा। ऐसी घटना घटित होगी, जिससे विश्व दहल कर रह जायेगा और वह घटना वहाँ घटित हुयी।
हमारे आस-पास जो अपराध फल-फूल रहे हैं, उनको रोकने का हमारे पास एकमात्र मार्ग है कि हम अपने अध्यात्मपथ पर बढ़ें। आत्मज्ञान को हासिल करें। हमारी शिक्षा व्यवस्था में सुधार हो। शिक्षा केवल भौतिक धन अर्जन का साधन न बने। शिक्षा हमें कर्मवान् बनाये, हमें धर्मवान् बनाये। शिक्षा के साथ-साथ हमें धर्म की भी शिक्षा लेनी चाहिये। शिक्षा ऐसी होनी चाहिये कि कोई बेरोजगार न हो, अन्यथा अनेकों लोगों को शिक्षित बनाकर, बेरोजगार बनाकर उनको ज्ञानवान अपराधी बना रहे हो। ज्ञान देते हो कि तुम ज्ञानवान अपराधी बनो। सरकारों के पास सामर्थ्य है, मगर उसका उपयोग नहीं करते। सरकार चाहे तो सब कुछ कर सकती है, मगर उस तरह के रास्ते नहीं तय करती है। खुद समाज को शराबी बनायेगी और फिर नशामुक्त अभियान में खर्च करके दोनों तरह से लूटती है। सरकार के द्वारा पहले शराब के ठेके उठाये जायेंगे, फिर शराब उन्मूलन के कार्यक्रम चलाये जाते हैं और फिर शराब से कई बीमारियां पैदा हो जाती हैं, तो उनके निदान के लिये अनुदान भी दिया जाता है।
अधिकोश योजनायें तो इसलिये बनती हैं कि किस योजना के संचालन में उन्हें कितना कमीशन मिल जायेगा? सांसद, विधायक अपना चाहे जितना वेतन बढ़ा लें, मगर एक अकेले चपरासी का वेतन कितने वर्षों में बढ़ता होगा? आप लोग सोचें कि यह भेदभाव क्यों किया जाता है। कोई विरोध नहीं होता। महिलाओं के आरक्षण की बात हो, चाहे किसी आरक्षण की बात हो दसियों साल से बिल पड़े हैं, कोई निर्णय नहीं हो रहा। मगर उनका अपना वेतन बढ़ाना हो, तो निर्विरोध सभी पार्टियां एक सहमति से एक घण्टे भी नहीं लगता और बिल पास होजाता है। यह क्या असन्तुलन नहीं है? यह क्या समाज के साथ अच्छा व्यवहार किया जाता है, किस तरह सुधार होगा? कभी न कभी तो आवाज उठाना ही पड़ेगा। कभी न कभी तो अपनी बात को उठानी ही पड़ेगी। कभी न कभी तो हमें त्यागपूर्ण जीवन जीना ही पड़ेगा कि समस्त राजनेता क्यों न मेरे खिलाफ होजायें, मगर करना मुझे वही है, जो मैं चाह रहा हूँ और जो प्रकृतिसत्ता चाहती है। चूँकि मेरी चुनौती सभी क्षेत्रों के लिये है और यदि मेरी बातें कड़वी लगती हैं, तो एक आयोजन कराने में आगे बढ़ो और मैंने बार-बार कहा है कि मैं जिसे चाहूँ, उसे जीवनदान दे सकता हूँ। किसी के शरीर की असाध्य से असाध्य बीमारी को अपने शरीर में खींच सकता हूँ। जिसे चाहूँ नेता बना सकता हूँ, जिसे चाहूँ धूल चटा सकता हूँं और ये कार्य भी मैंने किये हैं। अनेकों ऐसे सांसद और विधायक हैं, जिन्हें मेरे द्वारा सांसद, विधायक बनाया गया और ऐसे भी लोग हैं जिन्हें मैंने एक बार कह दिया कि इसके बाद ये चुनाव नहीं जीत पायेंगे, तो उसके बाद वे चुनाव कभी नहीं जीते।
साधक के पास अलौकिक क्षमतायें होती हैं, मगर उनका सदुपयोग कहाँ करना है? चूँकि मैंने कहा कि मैं संकल्प ले चुका हूँ कि मेरी अधिकांश ऊर्जा आप लोगों की चेतनातरंगें जाग्रत् करने में जायेंगी, आपको चेतनावान् बनाने में जायेंगी कि आप चेतनावान् बनें। मैं जो स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर की बात कह रहा हूँ, तो कहीं न कहीं मेरी चेतना सहायक हो और तुम उस तथ्य की ओर थोड़ा नजदीक जा सको। उसी के लिये ये क्रम चलाये जाते हैं। मेरे द्वारा जो निर्देशन दिये जाते हैं कि हर घर में ‘माँ’ का ध्वज टंगाओ, माथे में कुंकुम का तिलक लगाओ। शक्तिजल, जो मेरे द्वारा दिया जा रहा है उन्हीं साधनात्मक क्रमों से मेरे द्वारा चैतन्य करके दिया जा रहा है। आज तो नाना प्रकार के हज़ार-हज़ार, लाख-लाख कुण्डीय यज्ञ हो रहे हैं, मगर मैं कह रहा हूँ कि जो लोग यज्ञ कराते हैं, उनको एक भी यज्ञ कराने की पात्रता नहीं है। जब तक कर्ता, क्रिया और कर्म एक बराबर न हों, जिस इष्ट का वह यज्ञ करा रहा है, उस इष्ट से वह एकाकार न हो, तब तक वह यज्ञ समाज के लिये फलीभूत हो ही नहीं सकता, चाहे आप लाख-लाख कुण्डीय यज्ञ कराओ।
मेरे द्वारा भी यज्ञ कराये जाते हैं। मैं स्वतः ‘माँ’ की ओर बैठकर यज्ञ करता हूँ। समाज का कोई व्यक्ति सहभागी नहीं होता। एक यज्ञ में ग्यारह दिन लगते हैं। उस यज्ञ के लिये मैंने कहा था कि मैं तो सात-सात, आठ-आठ घण्टे निराहार रहकर एक आसन पर बैठता हूँ, मगर कोई दो घण्टे भी बगल में बैठकर दिखा देगा, तो अपना सिर काट करके उसके चरणों में चढ़ा दूँगा। अनेकों लोग यहाँ मौजूद हैं, जिन्होंने प्रयास किया और साक्षी हैं हज़ारों लोग, जिन्होंने प्रयास किया कि हम बैठकर देखें दस-पन्द्रह मिनट कि आखिर होता क्या है? यह उनसे पूछो कि होता क्या है और उन यज्ञों के माध्यम से किस प्रकार के लाभ लिये, उसका भी मैंने समाज को दिग्दर्शन कराया है? सत्य सब जगह है तुम देखो और तुम मुझे मानो, या न मानो अपने आपको मानने लगो। तुम रत्नों को धारण करते हो, कभी रुद्राक्षों के पीछे पड़ जाते हो, कभी अंगूठियाँ धारण करने लगते हो। जितने भी नेता, अभिनेता होंगे, देखें उनकी सभी अंगुलियों में रत्न जड़े होंगे। लाभ सभी चाहते हैं, मगर धर्म को अपनाना नहीं चाहते और न ही सत्कर्म करना चाहते हैं। तुम्हारा सबसे बड़ा रत्न तुम्हारे अन्दर बैठा है। उस रत्न के ऊपर पड़े हुये आवरणों को केवल हटा दो। जिस दिन तुम्हारे अन्दर बैठे हुये उस रत्न के, उस आत्मचेतना पर पड़े हुये आवरण हट गये, उस दिन तुम चेतनावान् बन जाओगे, सामर्थ्यवान् बन जाओगे। तुम्हारे लिये शेष कुछ नहीं रह जायेगा। सब कुछ अपने आप मिलने लग जायेगा, अन्यथा तुम्हारा शोषण होता ही रहेगा। कोई धर्म के नाम पर शोषण करेगा, कोई राजनीति के नाम पर तुम्हारा शोषण करेगा। यदि उस शोषण से बचना चाहते हो, तो अपने आपको जगाओ, अपने आपको चेतनावान् बनाओ और अपने आपको सामर्थ्यवान् बनाओ। तपस्यात्मक जीवन जियो, अन्यथा नाना प्रकार की विषमतायें समाज में आ रही हैं, असन्तुलन की स्थिति आ रही है, दुर्घटनायें घट रही हैं। ये कार्य उसी तरह होते रहेंगे।
प्रकृति को समझो, अपने आपको समझो, उस प्रकृतिसत्ता की आराधना करो। उसी में तुम्हारा कल्याण होगा। इसी में समाज का हित होगा। इसी से समाज में छाया हुआ असन्तुलन छटेगा, हटेगा। सभी को मालूम है कि जब मेरी अन्तर्चेतना में थिरकन होती है, तो जब मैंने अपना पहला यज्ञ किया था, मैंने कहा था कि आठ यज्ञ अलग-अलग स्थानों में सम्पन्न करूँगा, अलग-अलग मौसमों में करूँगा। कमलेश गुप्ता मौजूद हैं, इन्द्रपाल आहूजा मौजूद हैं, रणधीर सिंह मौजूद हैं और कई ऐसे लोग मौजूद हैं जिनके माध्यम से एक-एक यज्ञों का संचालन करवाया गया। मैंने पहले यज्ञ में कहा था कि मेरे हर यज्ञ में बरसात जरूर होगी और यदि मेरे किसी यज्ञ में बरसात नहीं होती, तो यह मान लेना कि मेरे पास ‘माँ’ की कोई शक्ति नहीं है और मैं पूरा जीवन समाज को त्याग करके एकान्त स्थान में चला जाऊँगा। शोध करना है, तो शोध करो। मेरे आठ यज्ञ अलग-अलग प्रान्तों में अलग-अलग जगहों पर हुये हैं, अलग-अलग मौसमों में हुये हैं और हर यज्ञ में बरसात हुयी है। मेरी चेतना की जब थिरकन होती है, तो मैं पूरी प्रकृति का आवाहन करता हूँ और इसीलिये कह रहा हूँ कि इस चुनौती को भी देखना हो कि क्या यह सम्भव है? तो मैं कह रहा हूँ कि एक यज्ञ के आयोजन की व्यवस्था दो और देखो कि भीषण गर्मी में भी मेरा यज्ञ होगा और चूँकि यज्ञ के पूर्णत्व के लिये जिस तरह मैंने आठ यज्ञ तक प्रमाण दिये थे, तो मैं वहाँ भी बरसात करवा दूँगा।
साधक की पात्रता क्या होती है, इसका समाज को ज्ञान ही नहीं है? समाज को तो केवल इतना ही ज्ञान है कि विश्वामित्र ने कह दिया कि मैं एक नये स्वर्ग की रचना कर सकता हूँ। अरे, साधक चाह ले, तो एक स्वर्ग तो क्या अनेकों स्वर्गों की रचना कर सकता है, मगर उस दिशा की साधना-तपस्या करनी पड़ेगी। लक्ष्य निर्धारित करना पड़ता है। साधक के पास वाक्शक्ति होती है। मैं कह रहा हूँ और भविष्यवक्ताओं को भी चुनौती दे रहा हूँ कि शोध करें, गणनायें करते रहें, मैं एक सांस में यदि हज़ार बात बोलता चला जाऊँगा, तो मेरी नब्बे प्रतिशत बातें सत्य होंगी। चूँकि दस प्रतिशत के लिए मैं इसलिये कह रहा हूँ कि मैं उस प्रकृतिसत्ता का एक रजकण हूँ। प्रकृतिसत्ता कहीं भी कोई भी परिवर्तन डाल सकती है। इसलिये मैं दस प्रतिशत के लिए सदैव कहता हूँ कि दस प्रतिशत ऐसा हो सकता है कि मैं किसी के लिये कुछ कहूँ और वह भक्तिभाव और अपने कर्मपक्ष से इतना प्रकृतिसत्ता को प्रसन्न कर ले कि कोई परिवर्तन प्रकृतिसत्ता डाल दे। मगर किसी भविष्यवाणी को मैं चिन्तन में ले लूँ, शोध करके कह दूँ कि ऐसा होगा, तो वह निश्चित रूप से होता है।
एक योगी, एक साधक के लिए कुछ भी कर गुजरना असम्भव नहीं होता और एक नहीं अनेकों कार्य समाज के बीच जनहित के लिए किये गये हैं। एक घटना मेरे आश्रम की ही है। मध्यप्रदेश से आये भूपत सिंह यहाँ सपरिवार बैठे हैं। उनकी बच्ची को डॉक्टरों ने कह दिया था कि अब इसे नहीं बचाया जा सकता। ग्लूकोस की बोतल निकाल करके रख दी कि बस ले जाओ, कभी भी यह बच्ची मर सकती है। वह परिवार मुझसे जुड़ा हुआ था। उस समय कोई होश नहीं था, मृत होना केवल बाकी था। डॉक्टर कह चुका था कि अब यहाँ हमारे पास से ले जाइये, चाहे जहाँ ले जाइये, अब यह बच्ची नहीं बचेगी। उसका प्राणान्त घोषित कर चुके थे। मेरे आश्रम में लेकर आये। मैं इसलिये नहीं कह रहा कि आपके अन्दर जाग्रति आ जायेगी, इच्छा आ जायेगी कि कोई बीमार हो, तो मेरे पास ले करके दौड़ा आ जाये। इसलिये मैंने कहा कि उन सभी धर्माचार्यों ने मिलकर एक भी उस तरह का काम नहीं किया, जो मैंने अब तक किये हैं। वह परिवार यहाँ बैठा है। मीडिया चाहे तो उनसे मिल सकता है, जान सकता है।
ब्यौहारी का अस्पताल था और वहाँ से आये हुये सैकड़ों लोग हैं यहाँ, उनसे भी मिलें कि यह घटना घटित हुई थी या नहीं? उस बेसुध लड़की को मेरे आश्रम में ले करके आये। उनकी पत्नी का भी चिन्तन कहीं न कहीं आश्रम से था, जबकि उसका परिवार ठाकुर समाज से बहुत बड़ा परिवार है और आजकल तो मैंने बार-बार कहा है कि ब्राह्मण अपने ब्राह्मणत्व में भटक रहा है, ठाकुर अपने ठकुरत्व में भटक रहा है और बस बोतल चढ़ाये हों, तो सबसे बड़े ठाकुर हैं! पचहत्तर प्रतिशत लोग शराब पीते थे। अब तो अधिकांशतया छोड़ चुके हैं। ‘माँ’ की उस यात्रा में जुड़ चुके हैं। उस बच्ची को लेकर मेरे पास आये। उस समय मैंने आश्रम की केवल स्थापना की थी। उस बच्ची को मैंने उसके आज्ञाचक्र के स्पर्श के माध्यम से ठीक कर दिया। मैं शब्द इसलिये कि मैं जो कुछ करता हूँ, वह सब ‘माँ’ की कृपा से करता हूँ, मगर तरंगें तो इसी शरीर के माध्यम से आयीं, इसलिये मुझे मैं शब्द ही कहना पड़ेगा। केवल आज्ञाचक्र का स्पर्श करने मात्र से मात्र पांच मिनट में उस लड़की को चैतन्य करके हाथ पकड़ा करके चालीसा भवन में ले करके गया था।
योगियों के लिये ऐसा कोई कार्य असम्भव नहीं है। इस तरह के एक नहीं, अनेकों कार्य मेरे द्वारा किये गये हैं। मगर इसका तात्पर्य यह नहीं है कि कल को आप लोग ऐसे लोगों को मेरे पास ले करके आने लग जायें। मैं यह प्रमाण इसलिये कह रहा हूँ कि एक प्रमाण को गलत साबित कर दो, तो मैं उसी तरह के दस नये कार्य कर दूंगा, अन्यथा यह मेरे कार्य करने का तरीका नहीं है। चूँकि मैं इस तरह के कार्य करने लगूंगा, तो समाज मेरी जै-जैकार करने लगेगा और मैं ‘माँ’ की जैकार चाहता हूँ कि तुम मुझसे जुड़ते हुये, मुझे माध्यम बनाते हुये ‘माँ’ की ओर बढ़ सको। एक योगी के लिये कुछ भी असम्भव नहीं है, वह किसी को भी जीवनदान दे सकता है, किसी की भी असाध्य से असाध्य बीमारी को अपने शरीर में खींच सकता है।
आनन्द और तृप्ति क्या होती है, एक साधक के पास आ करके देखो। समाज में पति-पत्नी और प्रेमी-प्रेमिका के मिलन को ही सबसे बड़ा सुख, सबसे बड़ा आनन्द माना जाता है। इसे आनन्द का मार्ग समाज मानता तो है, मगर यह पतन का मार्ग है। सबसे बड़ा आनन्द तो वह है जिस दिन तुम्हारी चेतना की एक किरण तुम्हारे सहस्रार चक्र को स्पर्श कर लेगी। एक बार तुम्हारा सूक्ष्म शरीर जाग्रत् हो जायेगा, तो उस दिन से तुम इस तुच्छ सुख को पैर से ठोकर मारने लग जाओगे। चूँकि जिस तरह प्रेम शब्द भटक गया, क्योंकि तुम प्रेम की गहराई में गए ही नहीं, प्रेम को तुमने समझा ही नहीं। प्रेम में पति-पत्नी के मिलन को प्रेम कह दिया गया या प्रेमी-प्रमिका के मिलन को! प्रेम शब्द आया नहीं कि बस प्रेमी-प्रेमिका के प्रेम के विचार मन में आने लगते हैं। अरे, प्रेम ‘माँ’ से करना सीखो। हमारा पहला सच्चा प्रेम तो हमारे माता-पिता सिखाते हैं। सच्चा प्रेम तो हमारे माता-पिता करना सिखाते हैं। जो माता-पिता का प्रेम होता है, उससे बढ़कर भौतिक जगत् में कोई प्रेम नहीं होता है। मगर हम पतन के मार्ग में जाते-जाते माता-पिता के प्रेम से भी वंचित होजाते हैं। मगर सच्चा सुख क्या है? साधक की सच्ची तृप्ति क्या है? वह जब ध्यान में बैठ जाता है, एकाग्रता में बैठ जाता है और अपने शरीर को शून्यवत् लेजाता है, तो त्रिभुवन का सुख भी पैर से ठोकर मार देने के बराबर होजाता है।
त्याग उसे कहते हैं, ब्रम्हचर्य उसे कहते हैं, वैराग्य उसे कहते हैं कि सब कुछ है, फिर भी त्यागपूर्ण जीवन है, वैरागी जीवन है। अन्यथा ढ़ोंगी, पाखंडी, ब्रम्हचारी एक से एक समाज में पैदा होंगे। एक से एक हैं, जो समाज में आपने आपको ब्रम्हचारी कहते फिर रहे हैं कि ब्रम्हचर्य का यह फल होता है। अरे, वह कितना भोगी है? मैं कहता हूँ कि उसकी ब्रेन का मैपिंग कराएं कि कितने बार उनको रात में स्वप्नदोष की शिकायत होती है? कौन आवाज उठायेगा इस चीज की। ब्रम्हचारी बन करके अपने आपको पुजवाते हैं। और एक साधक की भी ब्रेनमैपिंग करवा करके देखें कि साधक के अन्दर सन्तुलन क्या होता है, तृप्ति क्या होती है, आनन्द क्या होता है? इस पकड़ को तुम सीखोगे कैसे? मैंने भी एक किसान परिवार में जन्म लिया है, मेरे पास भी तुमसे ज्यादा कमजोर शरीर है, मगर जो चेतनाशक्ति बैठी है, वह चेतनाशक्ति तुम भी पैदा कर सकते हो। उसके रास्ते तय करने पड़ेंगे। अटूट विश्वास पैदा करना पड़ेगा। प्रकृतिसत्ता पर दृढ़ विश्वास पैदा करना पड़ेगा। त्यागपूर्ण जीवन जीना पड़ेगा। लोभ, मोह और लालच से अपने आपको अलग करना पड़ेगा। धन की आवश्यकता पड़ती है, लेकिन इतना भी नहीं कि धन के पीछे पागल होजाओ, धन के पीछे असन्तुलित होजाओ। धन उतना कमाओ, जितना तुम्हारे लिए आवश्यक है। इसका तात्पर्य यह नहीं कि हमारे लिए आवश्यक धन आ गया, तो इसके बाद हम कार्य करना बन्द कर दें। हमको हर पल कर्मवान् होना चाहिए। जितना हमारे लिए आवश्यक है, उसके बाद तो गरीबों के लिए लुटाओ, गरीबों की सेवा में लगाओ, जनकल्याणकारी कार्यों में लगाओ। देखो, तुम्हें ज्यादा सुख-शान्ति मिलेगी। चूँकि कर्म से जन्म-दर-जन्म हमारी आत्मा अजर-अमर-अविनाशी है। सोचो, यह जीवन तो आते-जाते गुजरजायेगा।
आज अगर मैं किसी शक्ति को लेकर बोल रहा हूँ, तो केवल इसी जन्म की साधनायें नहीं हैं। आज अगर मेरे पिताजी दण्डी संन्यासी हैं, तो उसके पीछे कहीं न कहीं वह चक्र होगा कि मेरे शरीर में जो खून भी दौड़ रहा है, तो वह किसी चेतनावान् व्यक्ति का है। आज ये दण्डी संन्यासी का जीवन जी रहे हैं, तो इसके बारे में मैंने चिन्तन दिया था कि बचपन में जब शायद दस-बारह साल या आठ-दस साल का था, तो कुछ सन्त वहाँ भदबा ग्राम में आये थे। उस ग्राम का शोध करके देखें, आज भले ही असन्तुलन का वातावरण रहता है, अपराधी प्रवृत्ति सब जगह पैदा होगई है, मगर आज से पच्चीस-तीस वर्ष पहले वहाँ पर गाँव के हर तरफ चारों ओर कुटियां बनी हुईं थीं। साधु-सन्त आ आकरके रुकते थे, डेरा डालते थे। अनेकों साधु-सन्त कुछ ऐसे आए थे, जिनके पास कुछ अपनी देखने की शक्ति थी, समझने की शक्ति थी। उन्होंने बचपनमें मुझे मांगने का प्रयास किया था कि इस बच्चे को हमें दे दो, इस बच्चे के योग तो अध्यात्म के नजर आते हैं। मगर माता-पिता ने प्रेमवश, मोहवश स्पष्ट मना कर दिया। यह मेरा रास्ता प्रकृतिसत्ता ने पहले ही तय कर रखा था।
कोई माता-पिता अपने बच्चों को इस तरह साधु-सन्तों को समर्पित नहीं कर सकता। पिताजी किसान थे। मगर मेरी अन्तर्चेतना और जो संस्कार थे उसी तरह ‘माँ’ की ओर खींचते रहे। मैं अपनी पढ़ाई के अलावा एक घण्टे का समय जो खेल-कूद का होता था, उससे निकल जाया करता था और वहीं पर जो कुटिया नजदीक थी, साधु-सन्त आया करते थे, वहाँ रुकते थे। मैं वहाँ जाकर उनके पास बैठ जाया करता था और उनकी बातें सुना करता था। मुझे लगता था कि कोई मुझे ऐसा व्यक्ति मिल जाए, जो मुझे एकान्त स्थान में ले जाए, हिमालय पर्वतों में ले जाए, जंगलों में ले जाए, वहाँ बैठकर मैं साधना करना चाहता हूँ। एक दिन पिताजी को जानकारी मिल गई, पहुँचे वहाँ और थोड़ी बहुत मेरी खिंचाई की, कुछ पिटाई भी की, जो माता-पिता का एक धर्म होता है। यह अलग बात थी कि मैं उनके कहने में नहीं, बल्कि जहाँ प्रकृतिसत्ता मुझे खींच रही थी, मैं वहाँ जा रहा था। मैं रात भर बहुत रोया था कि मेरे अन्दर इतनी तड़प प्रकृतिसत्ता के प्रति है, वह पिताजी के अन्दर क्यों नहीं है? कि आज भी मैं तुम्हारे सामने उसी तरह रो रहा हूँ और उस रात भी बहुत रोया था कि ‘माँ’ मेरे अन्दर जो तड़प है इसके लिये यह भौतिकवाद क्यों? यह समाज ज्यादा से ज्यादा शादी करा देगा, चार बच्चे पैदा कर लूँगा और उसी तरह मैं भी कार्य करूंगा, जिस तरह समाज कर रहा है और मुझे बचपन में सब अशान्त नजर आते थे।
बचपन में अगर किसी के साथ कोई घटना घटित होने वाली होती थी, तो मेरे मन के अन्दर वह भाव आ जाता था कि इसके साथ यह घटना घटित होने वाली है और जब वह घटना घटित होती थी, तो वह उसी प्रकार घटित होती थी। प्रकृतिसत्ता मेरी सहायता करती थी। जिस सूक्ष्म के बारे में आज बड़े-बड़े योगाचार्य नहीं जानते कि सूक्ष्म शरीर जाग्रत् होता है? उन्हें ज्ञान ही नहीं है और वे सूक्ष्म शरीर को कहानियाँ और कल्पना मानते हैं। बचपन में मेरा सूक्ष्म शरीर जाग्रत् होता था और भ्रमण करता था तथा उन स्थानों में भ्रमण करता था, आज जहाँ मैं स्थान बनाये बैठा हूँ। तेरह-चौदह साल की उम्र में मैंने देख लिया था कि मेरा दिव्य स्थान कहाँ बनेगा? रात भर मैंने ‘माँ’ के चरणों में प्रार्थना की थी कि ‘माँ’ जो व्यथा मुझे है, वह व्यथा मेरे पिताजी को क्यों नहीं हो रही? और, ‘माँ’ का ऐसा प्रभाव रहा कि साल-छः महीने के अन्दर-अन्दर ऐसा कुछ हुआ कि पिताजी के अन्दर वैराग्यभाव जाग्रत् हुआ और कुछ दिन तक गाँव में वहीं रहकर, अलग से एक कमरा बना था, उसी में साधनायें करते रहे और उसके बाद जाकर दण्डी संन्यासी बन गये। पच्चीस-तीस वर्षों तक समाज का भ्रमण किया। अनेकों संस्थाओं को देखा, अनेकों धर्मगुरुओं से मिले, पूरे देश का भ्रमण किया। एक जगह अपनी कुटिया बनाकर नहीं रहे, यह उनका अपना जीवन था। चूँकि मैंने बार-बार कहा है कि मैं अपने जीवन से सन्तुष्ट रहता हूँ और आज यदि यहाँ सत्य न होता, तो मैं झुककर वहाँ गया वे बढ़कर मेरे पास न आये होते यह प्रमाण है।
पिता के रूप में मैं उनका आदर, मान-सम्मान करता हूँ, मगर इस मंच का भी सम्मान करता हूँ। इस मंच से जब मैं उतरकर जाता हूँ, तो एक पुत्र के भाव से उनके चरणस्पर्श करता हूँ। पुत्र कितना भी महान क्यों न बन जाये, मगर पिता के सामने पुत्र ही रहता है। मगर उसी तरह जिस तरह मैं पिता के सामने पुत्र हूँ, उसी तरह इस पद पर भी बैठने की मेरी अपनी कुछ मर्यादायें हैं। चूँकि धर्म की रक्षा करना भी मेरा एक धर्म है। चूँकि मेरे पिता ही नहीं, मैं समाज के सभी धर्माचार्यों को भी कहता हूँ, तो इसीलिये कहता हूँ कि वास्तव में यदि कुण्डलिनी चेतना के चक्रों को जाग्रत् करना चाहते हो, तो बढ़ करके आओ, अपने अहंकार को त्याग दो या मेरे अहंकार को तोड़ दो। मैं हर पल लालायित रहता हूँ कि अगर मुझमें कोई ज्ञान शेष बचा है, तो मैं उसे प्राप्त कर लूँ। तुम जीवन में सुख-शान्ति मांगते हो और मैं जीवन में संघर्ष मांगता हूँ। हर पल ‘माँ’ के चरणों में प्रार्थना करता हूँ कि जितने समाज के बीच कभी संघर्ष न डाले गये हों, ‘माँ’ उतने संघर्ष मेरे जीवन में डालें। चूँकि जब मेरे जीवन में संघर्ष आयेंगे, तभी तो मैं उनसे पार जाने का ज्ञान ‘माँ’ के चरणों में मांगूंगा। यदि मेरे सामने एक छोटा सा नाला आ जायेगा और मैं छलांग लगाने की क्रिया नहीं सीखूंगा, तो कभी छलांग लगा ही नहीं सकूंगा। संघर्षों से तुम मत घबराओ।
प्रकृति से सुख-सुविधायें मत मांगो। प्रकृति से वह मांगो कि जिससे हम सामर्थ्यवान् बन सकें, हम चेतनावान् बन सकें। हम प्रकृतिसत्ता की नजदीकता को प्राप्त कर सकें, आवश्यकता उसकी है। विकारों का एक जीवन तो त्याग दो फिर तुम्हारी नींव पड़ जायेगी। अजर-अमर-अविनाशी आत्मा का जीवन जियो। शरीर का जीवन मत जियो। कथावाचक भी कहते हैं, धर्माचार्य भी कहते हैं कि यह नाशवान शरीर है, मगर विचार वह भी नहीं कर पा रहे और विचार आप भी नहीं कर पा रहे हैं। साधक बनो, थोड़ा वैराग्यपूर्ण जीवन जियो। अपने विकारों से धीरे-धीरे अलग हटो। तभी तुम्हारे अन्दर सुख और शान्ति आयेगी, अन्यथा किसी बलात्कारी को फांसी पर लटका देने से क्या होगा?
आज समाज में नाना प्रकार की ऐसी स्थितियाँ पैदा की जा रहीं हैं कि हमारी आने वाली पीढ़ी में सभी बलात्कारी पैदा होंगे। शराब पिलाकर सारी युवाशक्ति को ही नष्ट किया जा रहा है। विकास की बात कर रहे हैं, मगर बढ़ रहे हैं विनाश की ओर। शक्ति क्षीण होती जा रही है मनुष्य की। जन्म-दर-जन्म मनुष्य की आयु में कमी आती जा रही है। मैं कह रहा हूँ कि दुनिया के पास कोई शक्तिसामर्थ्य नहीं है कि जब तक मैं अपने लक्ष्य की पूर्ति नहीं कर लूँगा, तब तक मेरे शरीर को कोई नष्ट नहीं कर सकता। मैं अपनी इच्छा से अपनी मृत्यु को ग्रहण करूँगा और यह इसलिये कह रहा हूँ कि दूसरों को मैं एक नहीं यहाँ सैकड़ों ऐसे प्रमाण दे दूँगा। आप कभी भी आश्रम आयें चूँकि वहां समय इतना रहता है। मैं उनके पते दे दूँगा, जिनको मैंने सालों पहले बताया था कि इनकी मृत्यु कब और कहाँ होगी, मेरी मृत्यु काल के कुचक्र के अनुसार नहीं? और मैं जहां, जैसा और जिस रूप में चाहूंगा, उसके अनुसार अपने शरीर का त्याग करूंगा। यह साधक के पास सामर्थ्य आ जाती है।
तुम सब लोग जो कहते हो असम्भव है। यह असम्भव शब्द आया कहां से? चूँकि तुमने अपने आपको पहचाना नहीं। अपने आपको पहचानो, तो बहुत कुछ इसके अन्दर भरा पड़ा है। नहीं तो मैंने ‘माँ’ और ऊँ के मन्थन की बात कही थी, तो ऊँ के बारे में तुरन्त शोधकर्ता शोध प्रकाशित करने लगे थे। मैंने कहा था कि मैं ‘मैं’ की बात बोलूंगा, तो उसमें भी शोध करके समाज उसे भटकाकर दूसरे मार्ग में ले जायेगा। मेरी बात समाज तक कम पहुंचेगी, उनकी बात ज्यादा मान ली जायेगी और समाज फिर भटक जायेगा। ‘मैं’ की गहराई क्या है? चूँकि ‘मैं’ शब्द एक सम्बोधन है उस आत्मतत्त्व की गहरायी की बात कहने के लिये। अपनी बात कहने के लिये ‘मैं’ का तात्पर्य, आत्मा की भाषा सीखो, सतोगुण की भाषा सीखो। तुम तीन शरीर का जीवन जीते हो। तुम्हारे अन्दर केवल स्थूल शरीर ही नहीं है। इसके अन्दर एक सूक्ष्म शरीर बैठा है, उस सूक्ष्म शरीर के अन्दर कारण शरीर बैठा है और कारण शरीर के अन्दर बैठी है वह दिव्यचेतना। इन तीनों शरीरों का ज्ञान प्राप्त तो करो।
चेतनावान् बनो, सामर्थ्यवान् बनो। पूजा-पाठ भी करो, मगर अनीति-अन्याय-अधर्म के खिलाफ आवाज़ उठाना सीखो और जो जगह-जगह साधु, सन्त, संन्यासी, कथावाचक सिखाया करते हैं और अगर मेरी बात में जायेंगे तो अनेकों कथावाचकों के चिन्तनों में सुनेंगे, तो कहते हुये मिलेंगे कि वे तो अहंकारी हैं। सन्त को तो शान्त होना चाहिये। साधु का तो साधुस्वभाव होना चाहिये। मैं कह रहा हूँ कि तुम साधुस्वभाव के हो और मैं तुम्हारे एक गाल में तमाचा मार रहा हूँ, दूसरा गाल भी सामने कर दो, तो जूता उतार करके मारता हूँ। देखता हूँ तुम कब तक शान्त रहोगे? उदारवादी हो, तो रास्ता वह बताओ जो अन्तिम बिन्दु तक एक समान जाता हो। अन्यथा, चाटुकारिता की बातें मत करो। धर्म हमारा यह नहीं सिखाता।
हमारे किन्हीं देवी-देवताओं ने यह नहीं सिखाया कि तुम सिर्फ सद्भावना की बात ले करके एक पक्ष में जाओ। साधक के पास दोनों पक्षों की सामर्थ्य होनी चाहिये। समाज के पास दोनों पक्षों की सामर्थ्य होनी चाहिये। यही हमारे ऋषियों ने, देवी-देवताओं ने सिखाया है। अतीत में भी होता आया है, नहीं तो राम को रावण का वध करने की आवश्यकता क्या होती? कृष्ण को कंस का वध करने की आवश्यकता क्या होती? और, हम इतिहास को नकार दें, जिनको हम भगवान् मानते हैं, उन्होंने जो आचरण किया, उस आचरण को हम कह दें कि यह गलत है और हम नया आचरण सिखायें कि यह आचरण सही है! यदि शक्तिसामर्थ्य आयी है, तो उसे दोनों भागों में बाँटो, उसे दोनों भागों में विभक्त करो, तभी सन्तुलन आयेगा।
हमारे देश को आजादी महात्मा गाँधी ने भी दिलाई है और स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियों ने भी दिलाई है, जो क्रान्तिकारी थे, जो गोली खाना भी जानते थे और गोली खिलाना भी जानते थे। दोनों पक्षों में सन्तुलन हर काल में आवश्यक है। उसमें हर व्यक्ति को कहा जाता है कि शक्तिसामर्थ्य हासिल करो, मगर उसका दुरुपयोग मत करो। इसीलिये मैं बार-बार हिन्दू समाज को कहता हूँ शक्ति जरूर हासिल करो, इतनी हासिल करो कि तुम्हारा कोई अहित कर ही न पाये। मगर ऐसे विचार मत पनपाओ कि छोटी सी बात आ जाये, तो उसे दंगे में बदल दो। चूँकि यदि हम अपने बच्चों को, अपने शिष्यों को, अपने समाज को दंगाई बना देंगे तो उनके अन्दर कभी शान्ति नहीं स्थापित हो सकेगी।
यदि कोई अपराधी है, तो उसे तलाश करो और कटघरे के अन्दर कराओ और यदि कानून दण्ड नहीं दे पाता, तो तुम उसे दण्ड देने के लिये स्वतन्त्र हो। मगर जो अपराधी है, दण्ड केवल उसे ही मिलना चाहिये। किसी निरीह, निरापराधी व्यक्ति को दण्ड नहीं मिलना चाहिये। वह चाहे किसी भी धर्म को मानने वाला हो। अपराधी हिन्दुओं के बीच में भी हो सकते हैं, अपराधी इस्लाम धर्म को मानने वालों के बीच में भी हो सकते हैं, अपराधी सिक्ख धर्म में भी हो सकते हैं और इसाई धर्म के बीच भी हो सकते हैं। मगर यदि कोई अपराधी है, तो दण्ड केवल अपराधी को मिलना चाहिये, किसी निरीह को नहीं। किसी धर्म के द्वारा दंगे नहीं फैलाने चाहिये। छोटे-छोटे बच्चों का क्या अपराध है? जो जलते हैं, काट दिये जाते हैं। किसी के हाथ काट दिये जाते हैं, किसी के पैर काट दिये जाते हैं, किसी को कुचल दिया जाता है, किसी के साथ बलात्कार किया जाता है और किसी को आग में झोंक दिया जाता है। ऐसा करने के पहले विचार करो कि यदि मेरा बच्चा होता, मेरा बच्चा जल रहा होता, तो मुझे क्या तड़प होती?
देश के कोने-कोने में जहाँ भी संगठन का गठन है वहाँ पर महाआरती होती है। वहाँ आप पहुंचा करें। संगठन के माध्यम से मेरे विचार समाज तक जाते रहते हैं। जगह-जगह जो श्री दुर्गाचालीसा पाठ और आरतियों के क्रम होते रहते हैं, वहाँ पर पहुंचा करें। वहाँ शिष्यों के माध्यम से मेरे सन्देश पहुंचते रहते हैं। मैंने कहा है कि मैं बार-बार आपके बीच बैठकर उतना आपका कल्याण नहीं कर पाऊंगा, जितना एकान्त साधना करके उन चेतनातरंगों को तुम्हारे अन्दर भर करके कर सकता हूँ।
अनेकों शिष्य कहते हैं कि गुरुदेव जी हम आपके पास भेंट ले करके आये हैं कुछ समर्पित करना चाहते हैं, तो मैंने कहा है कि सबसे पहले मैं आपके अवगुणों की भेंट चाहता हूँ। प्रथम भेंट जो चाहता हूँ तथा आप लोग जो नये शिष्य हैं, वे यदि आज यह संकल्प ले लें कि आज के बाद से हम नशामुक्त और मांसाहारमुक्त जीवन जियेंगे, तो मैं कह रहा हूँ कि इस जीवन में इन दुष्कर्मों की वजह से जो दुष्परिणाम इस जीवन में या अगले जीवन में मिलने वाले होंगे, उन पापों से अपनी साधना के माध्यम से उन्हें मुक्त कर दूँगा। और, इस आरती का फल उन समस्त शिष्यों को भी मिले, जो किसी कारणवश यहाँ उपस्थित नहीं हो सके। अनेकों लोग मजबूरीवश यहाँ नहीं आ पाये तो वे भी ‘माँ’ के आशीर्वाद से वंचित न रहें। आज की आरती का फल उन्हें भी मिल सके, अतः मैं अपना पूर्ण आशीर्वाद आप समस्त लोगों को समर्पित करता हूँ।
बोलो जगदम्बे मातु की जय।