प्रवचन शृंखला क्रमांक -141 चेतना केन्द्र, रीवा (म.प्र.)
माता स्वरूपं माता स्वरूपं, देवी स्वरूपं देवी स्वरूपम्।
प्रकृति स्वरूपं प्रकृति स्वरूपं, प्रणम्यं प्रणम्यं प्रणम्यं प्रणम्यम्।।
आज गुरुवार के दिन इस स्थान पर उपस्थित अपने समस्त शिष्यों का, ‘माँ’ के भक्तों का, जिज्ञासुओं का हृदय से स्वागत करता हुआ ‘माँ’ का आशीर्वाद लेता हुआ उपस्थित समस्त भक्तों को ‘माँ’ का आशीर्वाद प्रदान करता हूँ।
जैसा कि मैंने कहा है कि बहुत कुछ भ्रान्तियाँ या भटकाव जो आप लोगों के या हमारे हिन्दुत्त्व धर्म के बीच आ गये हैं, उन भटकाओं से हम कैसे दूर हो सकें, कैसे उस मूल सत्य को पकड़ सकें? इन समस्त क्रमों की जानकारी आप लोगों को मिलती चली जायेगी और एक नवीन रास्ता आप लोग स्वत: खोजेंगे। एक ऐसा रास्ता, जिस रास्ते पर यदि आप लोग बढ़ लेंगे, तो जो शान्ति, आत्मतृप्ति आप लोगों को मिलेगी, उस आनन्द की, उस सुख की तुलना अन्य किसी वस्तु से कर नहीं सकेंगे।
कभी भी किसी के आशीर्वाद में पलना उचित नहीं रहता। आप पात्र न हों और आशीर्वाद की कल्पना करते रहें, कामना करते रहें और केवल आशीर्वाद माँगते रहें! बल्कि, आप अपने आपको इतना पात्र बना लें कि आपको माँगना न पड़े और आशीर्वाद स्वत: मिलता रहे। वही जीवन की पूर्णता होती है। कभी भी अपने आपको गुरु के चरणों में भी अपाहिज बना करके नहीं डालना चाहिये। हमारा हिन्दुत्त्व जो भटक रहा है, आज का समाज जो भटक रहा है, चूँकि अधिकतर यही जानकारियाँ दी गयी हैं कि यदि आप समस्याओं से ग्रसित हों, तो साधु-सन्तों के पास जायें और उनके चरणों में नमन करें, उनसे निवेदन करें, तो आपकी समस्याओं का निदान हो जायेगा! लेकिन, जहाँ तक मेरा अनुभव है कि यदि आप पात्र नहीं हैं, तो एक क्षेत्र से जो आशीर्वाद मिलेगा, दूसरे क्षेत्र में कहीं न कहीं उतनी ही क्षति आपकी हो जायेगी।
यह समाज पूर्व के कुसंस्कारों के फलों से बचना चाहता है, तो कब तक बचेगा? जो बोयेगा, काटना उसी को पड़ेगा। इस प्रकृति में एक पत्ता भी बिना विधि के विधान के हिल नहीं सकता। हम और आप इस समय जो बैठे हैं, तो यह भी पूर्व के संस्कारों के फलस्वरूप ही है। हम जो कुछ भी करते हैं, जो कुछ भी वर्तमान में घटित हो रहा है, सर्वप्रथम इस सत्य को समझना नितान्त आवश्यक है कि भाग्य और कर्म हमारे जीवन के रथ के दो पहिये हैं। अगर हम चाहें कि हम पूर्णतया भाग्य पर आश्रित हो जायें, तो फिर हम नहीं चल सकेंगे। अगर हम चाहें कि पूर्णतया कर्म पर आश्रित हो जायें, तो भी नहीं चल सकेंगे। कर्मवान् लोगों को भी आप लोग देखते हैं कि दिन-रात मेहनत करते हैं, परिश्रम करते हैं, फिर भी दस-बीस रुपये ही मिलते हैं। भाग्यवान् लोगों को भी देख रहे हैं कि कर्म नहीं करते और बढ़ते चले जाते हैं। अत: इनमें इन दोनों तथ्यों को समझने की नितान्त आवश्यकता है।
आज अनेकों लोग कहते हैं कि पूजा-पाठ करने की हमको क्या ज़रूरत है, मन्त्रजाप करने की हमको क्या ज़रूरत है? हम कर्म करेंगे, तो सब कुछ मिल जायेगा। मैं समझता हूँ कि कोई भी कर्म के माध्यम से वर्तमान की भौतिकता का सुख अर्जित नहीं कर सकता, अगर उसके साथ भाग्य नहीं है। इस प्रकृति का विधान एक नियमित चक्र के अनुसार चल रहा है। वर्तमान में हम जो कुछ क्रियायें कर रहे हैं, उसका वर्तमान में भी पड़ रहा है तथा निर्धारित प्रभाव हमारे संस्कारों के क्षेत्र में भी पड़ता चला जा रहा है और उन्हीं के फलों से आज का वर्तमान समाज प्रभावित है। कोई अपाहिज हो रहा है, कोई बीमारियों से ग्रसित है, कोई किसी अन्य समस्या से ग्रसित है। सर्वप्रथम आपको यह समझने की ज़रूरत है कि न तो आप भाग्य के भरोसे चल सकते हैं और न ही कर्म के भरोसे। इन दोनों तथ्यों को जब आप बराबर ग्रहण करेंगे, तभी सत्य समझ सकेंगे।
अनेकों लोग कह देते हैं कि हमने आने वाला अगला जीवन तो देखा नहीं, उसके लिये क्या करेंगे? अगला जीवन किसने देखा है? उसके लिये हमको कुछ करने की क्या ज़रूरत है? मैं कह रहा हूँ कि अगला जीवन, पिछला जीवन अनेकों लोगों ने देखा है और आप भी देख सकते हैं। अगर उन चिन्तनों के माध्यम से नहीं देख सकते, तो वर्तमान समाज की परिस्थितियों से भी देख सकते हैं कि अगर यहाँ सब कुछ समकक्ष होता, तो गरीबी और अमीरी न होती। कोई अपाहिज न होता और कोई राजकुमार न बन रहा होता। समाज की ये जो विषमतायें हैं, यह सब कर्मसंस्कारों से जुड़ी हुयी हैं।
एक बच्चा जब जन्म लेता है, तो हाथ की रेखायें ले करके आता है कि उसके कैसे कर्मसंस्कार हैं? आज मैं आप लोगों के बीच बैठा हूँ और यदि कोई हस्तरेखा विशेषज्ञ हो, तो कभी भी मेरे हाथों की रेखायें देख सकता है। मैं इस जीवन का जो कर्म कर रहा हूँ, वह भी मेरे साथ है और पूर्व जीवन के जो कर्मसंस्कार हैं, वह भी मेरे साथ हैं। मैं अपने हाथों की रेखाओं के माध्यम से भी बता सकता हूँ कि मेरी यात्रा कहाँ से कहाँ तक है? मुझको कोई रोक नहीं सकता। मगर यदि हाथों की रेखाओं के बल पर ही चलता चला जाऊँ और कर्म को रोक दूँ, तो फिर मेरा भोगवाद शुरू हो जायेगा। वर्तमान में मैं भी कर्म कर रहा हूँ।
जिस गुरुवार को आप केवल गुरु का वार समझते हैं, गुरु का दिन समझते हैं और गुरु के लिये ही आप व्रत और उपवास रखते हैं, तो मैं समझता हूँ कि यह पूर्ण नहीं है। जो व्यक्ति गुरुवार को पूर्णता से गुरु का दिन मानते हैं और केवल गुरु के लिये ही गुरुवार का व्रत रखते हैं, वे भटक रहे हैं और शायद यह भटकाव ही उनको पूर्णता नहीं दे पा रहा है। चूँकि गुरु कोई शरीरधारी नहीं होता। गुरु ज्ञान को कहते हैं और ज्ञान उस लिंक से जुड़ा हुआ होता है, जिसके माध्यम से वह गुरु बनता है। इस पूर्ण प्रकृति में केवल एक ही गुरु है, अनेकों नहीं है और जो उस गुरु में अपने आपको लीन कर चुका है, विसर्जित कर चुका है, केवल वही गुरु है। गुरु अनेक नहीं होते, गुरु हज़ारों नहीं होते, गुरु लाखों नहीं होते। वेदनिहित गुरु सिर्फ एक होता है। इस प्रकृति का, इस ब्रह्माण्ड का गुरु केवल एक है और उस गुरु के प्रवाह में, उस गुरु के सागर में, उस गुरु की नदी में जिसने अपने आपको समर्पित कर दिया, जिसने अपने इस स्थूल के अस्तित्व को मिटा दिया और उस प्रवाह के ज्ञान को प्रवाहित करने लगा, वही गुरु है।
जिस शरीर को आप देख रहे हैं, अगर इस शरीर को आप गुरु मान लेंगे, तो यह भी गुरु नहीं है। यह शरीर तो आप लोगों जैसा है। यह जो ज्ञान दे रहा है, जो विचार दे रहा है, जो चिन्तन दे रहा है, अदृश्य क्रियाओं के माध्यम से जो आशीर्वाद दे रहा है, वह इसके स्थूल के माध्यम से नहीं चल रहीं। वह अदृश्य जो ज्ञान है, वह गुरु का ज्ञान है और क्या आप लोग बतलायेंगे कि वह जो ज्ञान है, क्या वह मेरा है? अगर वह ज्ञान मेरा होगा, तो मेरा भटकाव होगा और अगर गुरुओं का वह ज्ञान उस पूर्ण सत्ता से जुड़ा हुआ है, उस प्रकृतिसत्ता से जुड़ा हुआ है, तो वह ज्ञान और वह दिन उस सत्ता का मानना चाहिये, न कि गुरु का। अत: आने वाले समय में गुरुवार का दिन और आने वाले हज़ारों वर्ष का जो आगे समय आयेगा, बहुत कुछ स्पष्ट होता चला जायेगा। चूँकि जो चिन्तन दिये जा रहे हैं, वे चिन्तन आज से कई सौ वर्ष पहले दिये जा चुके हैं कि किन क्षणों पर ये रहस्य उद्घाटित होंगे? कौन सा नक्षत्र किस स्थिति में होगा, ग्रहों की क्या स्थितियाँ होंगी, तब एक नवीन प्रवाह किस स्थान से प्रवाहित होगा, प्रथम चेतना केन्द्र की स्थापना कहाँ पर होगी, गुरुवार का चिन्तन किस दिन दिया जा रहा होगा?
गुरु का दिन, गुरुवार का दिन ‘माँ’ का दिन होता है। माता आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा का अतिमहत्त्वपूर्ण दिन केवल गुरुवार होता है। गुरुवार का दिन ही ‘माँ’ का दिन होता है। वैसे तो ‘माँ’ के दिन समस्त होते हैं, मगर जो दिन गुरुवार का है, ज्ञान की पूर्णता का दिन है, वही दिन ‘माँ’ का दिन है। आप उस पूर्णता के दिन को पकड़ लें, पूर्णता के दिन के चिन्तन को पकड़ लें और उस दिन गुरु का सिर्फ आशीर्वाद लेते हुये, गुरु के सिर्फ विचारों को लेते हुये उस माता आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा के चरणों में समर्पित हो जाएं। गुरु तो आपके साथ है ही। गुरु का तो आप कभी भी पूजन कर सकते हैं। गुरु का तो आप कभी भी चिन्तन कर सकते हैं, लेकिन यदि गुरु के ज्ञान के मूल क्षणों को आप समझ जायें कि कौन सा दिन अतिमहत्त्वपूर्ण है और जिस दिन गुरु के ऊपर उस शक्ति की कृपा रहती है, गुरु अपने अस्तित्व को मिटाये रहता है, उस दिन उसी जुड़ाव में जिस तरह गुरु अपने आपको समर्पित किये हुये है, गुरु अपने आपको विसर्जित किये हुये है, अपने अस्तित्व को मिटाये हुये है, अगर उस अस्तित्व में आप भी अपने अस्तित्व को जरा सा मिटा देंगे, तो आप लोग भी उसी धारा में जुड़ जायेंगे और उस धारा में जुडऩे पर जो आप लोगों के कर्मसंस्कार निर्मित होंगे, उनकी तुलना अन्य किसी वस्तु से नहीं की जा सकती। उसी क्रम में जुड़ करके आप लोग जो कर्म करेंगे, वही आप लोगों के साथ जायेंगे। अत: यह जो मैं जानकारी दे रहा हूँ कि गुरुवार के दिन को केवल गुरु का दिन मत मानें। यह गुरु के ज्ञान का दिन है और यह ज्ञान का दिन जिस शक्ति से जुड़ा हुआ है, वह इस प्रकृति पर, इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड पर मूल शक्ति केवल एक हैं माता आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा। प्रकृति की रचना करने वाली, अनन्त लोकों की मालकिन, हम सबकी और जन-जन की माँ। अत: गुरुवार के दिन गुरु का आप केवल आशीर्वाद लें, गुरु का चिन्तन लें, गुरु के चरणों पर आशीर्वाद प्राप्त करें कि हमको वह आशीर्वाद प्राप्त हो कि आज हम भी कुछ क्षण ‘माँ’ का स्मरण कर सकें, कुछ क्षण ‘माँ’ का चिन्तन कर सकें और हम भी ‘माँ’ के आशीर्वाद के भागीदार बन सकें।
आप लोगों को आज यह चिन्तन लेना है कि जो भी शिष्य हों, जो भी मेरी विचारधारा को मान सकें वे गुरुवार का व्रत रखें। गुरुवार का व्रत गुरु और ‘माँ’, दोनों के भावों को लेते हुये रखें। गुरु का चिन्तन मात्र इसलिये कि ‘माँ’ के चरणों में विसर्जित होने के लिये गुरु से हमको आशीर्वाद लेना है और पूर्ण चिन्तन हो कि आज के दिन हम ‘माँ’ की आराधना के लिये व्रत रह रहे हैं, ‘माँ’ के चिन्तन के लिये व्रत रह रहे हैं। और, व्रत रहना क्यों आवश्यक है? इसलिये कि वर्तमान और वैसे तो यह समय-समय पर सभी कालों पर आवश्यक रहा है, चूँकि आपका यह मानवशरीर इतना जड़ बन चुका है, नाना प्रकार के खान-पान से ऐसी स्थितियाँ निर्मित हो चुकी हैं कि अगर यह शान्ति से चिन्तन करना चाहे, तो चिन्तन नहीं कर सकता।
चिन्तन स्थूल के माध्यम से नहीं होता। चिन्तन अंतरंग योग के माध्यम से होता है। उस प्रकृति का चिन्तन स्थूल के माध्यम से नहीं हो सकता। अपने अन्दर की कुछ ग्रन्थियों को हिलाना पड़ता है, उनको कुछ प्रभावित करना पड़ता है। उनके माध्यम से ही उस प्रकृतिसत्ता की अराधना हो सकती है और जो हम उपवास रहते हैं, तो उपवास का तात्पर्य है अधिक नज़दीक रहना। किसके नज़दीक रहना? जिसके लिये हम व्रत रह रहे हैं, जिसकी हम आराधना कर रहे हैं। उसके अधिक नज़दीक रह सकें, उसका अधिक से अधिक चिन्तन कर सकें। हमारा पेट खाली होगा, तो हमारे अन्दर जड़ता नहीं होगी। निश्चित है कि जिनकी आदत नहीं है और यदि वह प्रारम्भिक दिनों में व्रत रहेंगे, तो उनको तकलीफ होगी और लगेगा कि हमको भूख लग रही है, तो हम भगवान् का स्मरण क्या करें? आप व्रत रहेंगे, तो आपको भूख लगेगी, मगर वह भूख लगना नितान्त आवश्यक है। चूँकि जिस प्रकार से हम शरीर के ऊपर कोई चिपकाने वाला टेप चिपका लें तथा वह गहराई से चिपक जाये और यदि उसको उधेड़ेंगे, तो कुछ तकलीफ अवश्य होगी। मगर जब हम उसको उधेड़ देंगे, तो हमारी जो सही स्थिति है, वह नज़र आयेगी। उसी तरह हमारे अन्दर की जो स्थिति है, उस पर इतना आवरण चढ़ा हुआ है कि उस आवरण को बिना तकलीफ के हम नहीं हटा सकते।
जिस प्रकार से ध्यानयोग के बारे में यदि कुछ लोगों को जानकारी होगी और जब वे आज्ञाचक्र पर ध्यान लगाते हैं, तो उन्हें भयंकर तकलीफ से गुज़रना पड़ता है और जिन लोगों को जानकारी नहीं होती है, उसी तकलीफ में वे पागल होजाते हैं, सहस्रार भेदन तो आम लोगों की कल्पना की भी बात नहीं है। अगर सक्षम गुरु नहीं है, तो सम्भव ही नहीं है। मात्र आज्ञाचक्र की बात कर रहा हूँ। यदि आप अपनी अंगुली आज्ञाचक्र के पास ले जायें या कोई लकड़ी ले लेंगे और आज्ञाचक्र के सामने ले जायेंगे, तो आज्ञाचक्र उस चीज को महसूस कर लेता है, वहां आपको खिचाव होगा, वेदना होगी। चूँकि यह ज़रूरत से ज़्यादा बहुत ही कोमल व प्रभावक केन्द्र है। इसके अन्दर जो तीसरा नेत्र स्थापित है, उसमें उस वेदना को सहना पड़ता है, जो लोगों की कल्पना के बाहर है और उसी वेदना में कई लोग इसे बीच में ही छोड़ देते हैं। मगर यदि वेदना न सही जाये, उस तकलीफ को न सहा जायेगा, तो वहाँ इस प्रकार लगेगा कि जैसे सुई को चुभो दिया गया हो, फाड़ दिया गया हो और उस तकलीफ को जो सह गया, जो उससे निकल गया, तो उन क्रियाओं को और बढ़ाते हुये वही उस आवरण को हटा करके एक ऐसा स्थान पाता है, जिसे तीसरा नेत्र कहा जाता है। जो ध्यानयोग के माध्यम से जिस जगह का चिन्तन करना चाहता है, उस जगह की छवियाँ देखता है।
इसी तरह प्रारम्भिक स्थिति में हमारा जो नाभिचक्र है, वह महत्त्वपूर्ण चक्र है। बच्चा जब पैदा होता है, तब भी उसकी नाल जो माँ से जुड़ी रहती है, इसी नाभिचक्र से जुड़ी रहती है और नाभिचक्र को जब तक हम स्पन्दित नहीं करेंगे, तब तक कुछ भी सम्भव नहीं है और उसके लिये नितान्त आवश्यक है व्रत रहना। अत: सप्ताह में कम से कम एक दिन व्रत रहना नितान्त आवश्यक है। आप लोग जितना कर सकें, अवश्य करें। प्रारम्भ में धीरे-धीरे कुछ फलाहार ले सकते हैं, तरल पदार्थ ले सकते हैं। फिर प्रयास यह करें कि जितना कम करते जायें, उतना अच्छा होगा।
मैं व्रत का भी चिन्तन जो दे रहा हूँ, तो उसके पीछे यह नहीं है कि व्रत रहने से हमको कोई बहुत बड़ा आशीर्वाद प्राप्त होजाता होगा। आशीर्वाद तब प्राप्त होता है, जब व्रत रहने से हमारे अन्दर की जो क्रियायें होती हैं और उन क्रियाओं को करने के लिये बहुत बड़ा कठिन व्रत रखने की आवश्यकता नहीं रहती, जैसे तीजा में आप लोगों की मातायें-बहनें सब व्रत रहती हैं और इस तरह का कठिन व्रत करती हैं कि दूसरे दिन बीमारी की स्थिति आ जाती है। वे ज़रूरत से ज़्यादा कठिन व्रत रहती हैं! अत: मैं ऐसे व्रत की जानकारी नहीं दे रहा हूँ कि आपको इतनी अधिक कठिनाइयों से होकर गुज़रना पड़े। आवश्यक से अनावश्यक आडम्बर कहला जाता है, निरर्थक कहला जाता है। उसका प्रभाव नहीं, कुप्रभाव पडऩे लगता है। वर्तमान में आप जिन परिस्थितियों में जी रहे हैं, उन परिस्थितियों में कितना आवश्यक है, उतना ही करना चाहिये।
माता पार्वती तो हज़ारों साल व्रत रह सकती थीं। मगर आम स्त्रियों के लिये वर्तमान में एक दिन भी रहना कठिन है। उसी तरह गुरुवार के लिये मैं अपने शिष्यों और भक्तों को यह चिन्तन प्रदान कर रहा हूँ। गुरुवार को प्रात:काल से व्रत रखें। बुधवार की मध्यरात्रि से कोई भोजन न लें और बिना स्नान किये चाय भी न लें। आदत छोड़ें। जिनकी यदि आदत है कि बेड छोड़ते ही चाय पी लेते हैं, ऐसे लोग धीरे-धीरे उस आदत को छोड़ें। मैं वे जानकारियाँ दे रहा हूँ, जिनका पालन करना नितान्त आवश्यक है।
बह्ममुहूर्त में उठें। ब्रह्ममुहूर्त का क्या महत्त्व है, यह मैं विस्तार से जानकारी देता रहूँगा। आप समस्त लोग फिलहाल बहुत कुछ जानते हैं कि सुबह अगर हम ब्रह्ममुहूर्र्त में उठते हैं, तो उस समय का जो वातावरण रहता है, वह हमारे अन्तर्मन को प्रभावित करता है और उस वातावरण में यदि हम प्रकृति के उसी वातावरण का चिन्तन करें, चूँकि अगर हम दूसरे वातावरण में आ गये, तो इस वातावरण से निकल करके फिर सूक्ष्म के वातावरण का चिन्तन कर पाना असम्भव है, कठिन है, दुर्लभ है।
ब्रह्ममुहूर्त का समय सुबह तीन बजे से ले करके सूर्योदय तक का रहता है। उस समय हमारे अन्तर्मन में और बाह्य वातावरण में सूक्ष्म की तरंगें रहती हैं। ओजोन किरणें इस प्रकार हमारे शरीर में पड़ रही होती हैं कि हम शान्ति स्थापित कर सकते हैं। उन किरणों से, बाह्य वातावरण से, प्रकृति से हमारा अन्तर्मन जुड़ा हुआ होता है, कोलाहल से कटा हुआ होता है। अत: प्रयास करें और मेरा कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि तीन बजे रात्रि से ही उठना है, बल्कि जो सूर्योदय के बाद उठते हैं, वे प्रयास करें कि सूर्योदय के पहले उठें और धीरे-धीरे प्रयास करें कि कम से कम चार या पाँच बजे प्रात: उठने की आदत डालें। गुरुवार के दिन तो निश्चित रूप से पाँच बजे तक बिस्तर छोड़ दें और उठ करके सर्वप्रथम ‘माँ’ का स्मरण करें। इसके बाद अपनी नित्य की क्रियायें करें और नित्य की क्रियायें करने के बाद अपने घरों पर ‘माँ’ की जो छवि रखी हो, जिन देवी-देवताओं की छवियाँ रखी हों, उनका पूजन करें, साधना करें। जिनको जिन मन्त्रों की जानकारियाँ हों, जिन मन्त्रों का अनुष्ठान या जाप करते हों, जाप करें और उसके बाद ही चाय या फलाहार लें। जो कर सकते हैं, वह फलाहार आदि भी न लें, तो ज़्यादा अच्छा होगा। आज मैं स्वत: आप लोगों के समक्ष बैठा हूँ, तो सुबह से मैंने भी कुछ नहीं लिया।
मैंने बताया था कि महाशक्तियज्ञ के बाद जिन वेदनाओं से मुझे अपने शरीर को गुज़ारना पड़ता है, उसकी कल्पना भी आप लोगों को नहीं है। मैं आप लोगों के समक्ष बैठा हूँ और रीवा के जो डॉक्टर हैं, यदि चाहें तो मेरे शरीर का परीक्षण कर लें। कम से कम बीसों बीमारियाँ मेरे शरीर में निकल आयेंगी। इधर बीस-पच्चीस दिन से क्या भोजन कर रहा हूँ? जो मेरे साथ हैं, उनको जानकारी है। सुबह बुखार था, फिर भी आप लोगों के सम्मुख बैठा हूँ। चूँकि मुझे स्थूल से मतलब नहीं रहता, सूक्ष्म से मतलब रहता है। दृढ़ बैठा हूँ, इसी जगह बैठा हूँ। आप चाहेंगे, तो दिन-रात बैठा रह सकता हूँ। इन क्रियाओं को आप लोगों को देखना है, समझना है। चूँकि उससे ही आप लोगों को सत्य का एहसास होगा कि हमारा स्थूल शरीर पूर्ण नहीं होता कि इस शरीर को हमें बहुत मोटा या तन्दुरस्त करने की ज़रूरत हो। हमको तन्दुरस्त करना है उसे, जो हमारे अन्तर्मन में बैठा है, जो सूक्ष्म शरीर है, जो छाया पुरुष है, जिसको जाग्रत् करने के लिये अनेकों योगी परेशान रहते हैं, जो स्वप्न के माध्यम से घूमता रहता है और जो प्रकृतिसत्ता का अंश है। हमको केवल उसको चैतन्य करना है। आपका सूक्ष्म शरीर चैतन्य कब होगा? जब अपने अन्तर से कुछ क्रियायें करेंगे। उन क्रियाओं के अन्तर्गत व्रत रहना नितान्त आवश्यक है। कष्ट हो, तो उस तकलीफ से होकर गुज़रना है और मात्र सायंकाल तक।
कठिन व्रत करने की ज़रूरत नहीं है कि हम कहीं रास्ते में हैं, सफर में हैं और जानकारी नहीं है, तो हमने ‘माँ’ की आरती नहीं की है, ‘माँ’ का पूजन नहीं किया है, तो अब हम दूसरे दिन तक व्रत ही रहें। व्रत रहना है केवल सूर्यास्त तक और ‘माँ’ का चिन्तन करते हुये, ‘माँ’ के मन्त्रों का सतत् जाप करते हुये व्रत रहना है। अन्तरंग योग नितान्त आवश्यक है। एक साथ कई क्रियायें होती हैं। मैं आप लोगों के विचार भी ले रहा होता हूँ, विचार दे भी रहा होता हूँ और मन्त्रजाप भी चल रहा होता है। पूजन चल रहा है और आप लोगों को आशीर्वाद दे रहा होता हूँ। एक पल भी मेरा बेकार नहीं जाता और जो समय का सदुपयोग होता है, वही ऊर्जा मेरे पास है। अत: आप लोग भी मन्त्रों का जाप सतत् करें। गुरुवार का दिन, ‘माँ’ का दिन है। आप लोगों को गुरुवार का व्रत रहना नितान्त आवश्यक है।
आज हमारा हिन्दुत्व इस्लाम का विरोधी बना हुआ है। किसी धर्म में कोई कमी नहीं होती है। जो व्यवस्थायें हैं, उनमें न्यूनतायें हो सकती हैं। वे व्यवस्थायें किसी को उग्र बना सकती हैं, इसके साथ उनमें और भी कमियाँ हो सकती हैं, मगर यदि हम कुछ सीखना चाहें, तो बुराइयों के बीच से भी कुछ सीख सकते हैं। बुरी से भी बुरी पिक्चर देख करके भी अच्छाई निकाल सकते हैं और मैं कह रहा हूँ कि इस्लाम को जितना बुरा आप लोग समझते हैं, उसमें एक महत्त्वपूर्ण खूबी है कि यदि उस खूबी को आप लोग अपने अन्दर उतार लें, तो शायद जो हिन्दुत्व का मूल स्वरूप है, वह बहुत शीघ्र उपस्थित हो जाये। जिस सतयुग की कामना की जाती है, वह सतयुग बड़ी जल्दी आ जायेगा।
इस्लाम धर्म को मानने वाले, उनके अनुयायी, उन्हें चाहे कितना भी आवश्यक से आवश्यक कार्य हो, वे कितना भी व्यस्त हों, चाहे वह गरीब हो या अमीर हो, चाहे क्लास वन अधिकारी हो, वे अपनी जुमा की नमाज़ नहीं छोड़ते। जुमा की नमाज़ पर सभी एक साथ एक स्थान पर उपस्थित होते हैं। उस दिन अपने आपको कोई छोटा या बड़ा नहीं समझता और सब कुछ छूट जाये, मगर जुमा की नमाज़ नहीं छूट सकती। दुकान में ग्राहक बैठा होगा, वे उसको छोड़ देंगे। इसीलिए कहा गया है कि ‘एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध। तुलसी संगत साधु की, हरे कोटि अपराध।’ जिस तरह साधु की संगत है, उसी प्रकार अगर वह संगत प्रकृतिसत्ता से हो जाये, तो आनन्द ही आनन्द है। मेरे कहने का तात्पर्य है कि लाखों का व्यापारी या लाखों का खरीददार ही सामने क्यों न बैठा हो, जुमा की नमाज़ का समय हुआ नहीं, उन्होंने घड़ी को देखा नहीं कि बस उस स्थान के लिये चल देंगे। वह जुमा की नमाज़ नहीं छोड़ सकते।
लेकिन, हमारा हिन्दुत्व अपने आपमें बड़ा गर्व करता है, अपने आपको पूर्ण मानता है और वह करता क्या है? वह तो पाँच मिनट के लिये भी एक स्थान पर एकत्रित नहीं होता है। उसके जीवन में ऐसा कौन सा दिन है, जिस दिन को वह महत्त्वपूर्ण मानता है? चूँकि हिन्दुत्व में केवल कहने की बातें रह गई हैं, करने की नहीं! आप लोग कहते हैं कि गुरुवार महत्त्वपूर्ण दिन है, गुरु का दिन सबसे महत्त्वपूर्ण दिन है, मगर आप गुरुवार को करते क्या हैं? आज हिन्दुत्व में कुछ माताओं और बहनों को छोड़ करके अन्य कोई गुरुवार का व्रत नहीं रहता। बहुत ही कम लोग ऐसे होंगे और वह भी गुरुवार का चिन्तन मात्र इसलिये किया जाता है कि हम केवल आर्थिक लाभ प्राप्त करेंगे! जब आर्थिक समस्यायें होती हैं, तो जिनको जानकारी होती है, वे कह देते हैं कि गुरुवार का व्रत रहो। अरे, गुरुवार का व्रत इतना साधारण व्रत नहीं है। इतनी साधारण एक छोटी सी चीज भौतिकतावाद की उपलब्धि के लिये नहीं है। उस दिन को आप पूर्णता से जोड़ें, तभी आप कुछ प्राप्त कर सकेंगे।
घटनायें किस प्रकार बदली जा सकती हैं, संस्कार किस प्रकार बदले जा सकते हैं? हज़ारों साधु, सन्त, संन्यासी न जाने कब से चिल्ला रहे हैं, हमारे वेद-पुराण न जाने कब से चीख-चीख करके चिल्ला रहे हैं और जिनमें शोध करके उन्होंने कुछ सत्य निकाला है कि इस्लाम धर्म को बहुत पहले नष्ट हो जाना चाहिये था। इस्लाम धर्म में जो उग्रता आयी थी, जो उनमें भटकाव आया था, उग्ररूप आया था, वह विनाश की ओर लिये जा रहा था। मगर विनाश क्यों नहीं हुआ? मात्र जुमा की नमाज के लिये और आज भी वे जो दिन-रात माथा रगड़ते हैं, वह निरर्थक नहीं जा सकता। वे कुछ भी हों, मगर कुछ क्षणों के लिये जो माथा रगड़ते हैं, उसका फल स्थाई है और मैंने कहा है कि प्रकृतिसत्ता किसी को भी निष्फल नहीं करती और वह जो जुमा की नमाज़ पढ़ रहे हैं, जो क्रियायें कर रहे हैं, तो उनकी इतनी क्रियायें होजाती हैं कि वह इतना गलत करने के बाद भी सन्तुलन बनाये हुये हैं और मैं समझता हूँ कि हमारा हिन्दुत्व तो इतना असन्तुलित नहीं हुआ, उग्र नहीं हुआ और अगर वह गुरुवार को अपना ले, गुरुवार की चेतना को गहराई से अपने अन्दर उतार ले, तो वह ऐसा कुछ कर सकता है, जिसकी कल्पना उसने नहीं की है और जब आप लोग कुछ करेंगे, तभी आप लोग कुछ प्राप्त कर सकेंगे।
मेरे कार्य करने का तरीका अलग है। मेरी यात्रा कहाँ से कहाँ तक है? मेरे पास भी एक निर्धारित ऊर्जा है। मैं किसी को भी कुछ आशीर्वाद दे सकता हूँ, चूँकि मैंने कहा है कि मैं जो ऊर्जा लिये बैठा हूँ, वह एक निर्धारित मार्ग से गुज़रते हुये जाने की है। जिस तरह से आप लोगों को मालूम है कि अगर एक बैटरी चार्ज है, फुल चार्ज है, तो यह छ: घण्टे-सात घण्टे तक चलेगी, तो अगर उसको रीवा से शहडोल तक जाना है, तो उतना वह उसी क्रम से चलाता जायेगा कि मैं शहडोल तक पहुँच जाऊँ, बीच में न रुक जाऊँ। अत: मैं जितना कार्य आप लोगों का करने आया हूँ, उसमें न्यूनता न आने पाये, इसीलिये उतने ही कदम आप लोगों के साथ उठाता हूँ, जितने कदम आवश्यक होते हैं। यज्ञों के माध्यम से आप लोगों को लाभ देता हूँ, चूँकि मैंने कहा है कि अगर भुनाने के मूड में आप लोग आ जायेंगे, तो मैं भुनाने नहीं दूँगा। मैं जो कर्मसंस्कार कर रहा हूँ, अपनी साधनाओं के माध्यम से आपके संस्कारों पर जोड़ रहा हूँ, जिसका लाभ आप समय के साथ प्राप्त कर सकेंगे।
आप जो कर्म करेंगे, वही तो आपके साथ जायेगा, न कि यह स्थूलवाद या भौतिकतावाद। अत: गुरुवार का व्रत रखें, माता का चिन्तन रखें और वर्तमान की जो भयावहता है, अभी आपने अन्तिम चरण की भयावहता नहीं देखी! चूँकि अभी एक चरण बकाया है। काल के कुचक्र का जो अन्तिम चरण है, उस चरण को समाज बर्दाश्त नहीं कर सकेगा। अत: बर्दाश्त करने की सीमायें, बर्दाश्त करने की क्षमतायें अपने अन्दर उपस्थित कर लें, तो ज्यादा अच्छा होगा।
चेतना, बार-बार चेतना शब्द का सम्बोधन आता है, अनेकों लोगों ने जानना चाहा है कि यह चेतना क्या है? चेतना हमारी पावर है, क्षमता है। कौन सी क्षमता? प्रकृति की क्षमता, ‘मैं’ शब्द की क्षमता। हमारे अन्दर अचेतन में एक ऐसी ग्रन्थि है, एक ऐसी बैटरी है, एक ऐसा सेल है, जिसको चार्ज करना है। किसके माध्यम से? उस पूर्णसत्ता के माध्यम से। चूँकि हम चेतनावान् नहीं हैं। स्थूल को जीने वाले मनुष्य चेतनावान् नहीं हैं। मैं उनको अचेतन मानता हूँ। जब वे अपने अन्दर बैठी हुयी उस आत्मा को, उस केन्द्रबिन्दु को इतना चार्ज कर लेंगे कि वे चेतन हो जायें, चैतन्य हो जाये, तब वे चेतनावान् कहलायेंगे।
आपका अन्तर्मन मरा हुआ है, अचेतन अवस्था में है, उसमें उतनी ऊर्जा नहीं है, उसमें उतना प्रकाश नहीं है कि वह दृढ़ता से कुछ कर सके, दृढ़ता से कुछ सोच सके, कार्य करने की क्षमता बढ़ सके, आप संस्कारवान् बन सकें, आप चेतनावान् बन सकें। अत: चेतना, जो हमारे अन्दर वह केन्द्रबिन्दु है, वह सेल है और उसको सिर्फ चार्ज करना है। हमारे अन्दर कुछ नहीं है, मात्र वही सेल, वही बिन्दु, उस प्रकृतिसत्ता का अंश, जो चार्ज नहीं है और उसको चार्ज करने के लिए ही ये मन्त्रजाप, जप, तप, योग, क्रियायोग समस्त क्रियायें होती हैं। इन समस्त क्रियाओं के माध्यम से हम उसको चार्ज करते हुये चैतन्य बनाते हैं।
हमारे अन्दर अनेकों सेल अचेतन अवस्था में पड़े हुये हैं। यदि उनको चार्ज कर लें, तो हमारे अन्तर्मन का जो प्रकाश फैलता है, उस प्रकाश को जो एहसास करते हैं, उसी में खो जाते हैं। मानवशरीर के अन्दर शिव और शक्ति के, दोनों शरीर समाहित हैं। जितना बड़ा आनन्द भौतिकतावाद में नहीं है, उतना बड़ा आनन्द आपके अन्दर बैठा है। आवश्यकता है उसे तलाशने की, उसे खोजने की। उस आनन्द में आप लीन हो जायेंगे। जहाँ मैंने बतलाया है कि मेरा लक्ष्य है 108 महाशक्तियज्ञों का पूर्ण करना, जिन्हें आप लोगों के लिये समाहित कर देना, समर्पित कर देना और उन संस्कारों के माध्यम से एक नवीन परिवर्तन ला देना है।
मैं बहुत बड़ा चमत्कार अपने माध्यम से नहीं करना चाहता, बल्कि आप लोगों के माध्यम से करना चाहता हूँ। चूँकि मुझमें क्षमता है कि वही क्रियायें आप लोगों के माध्यम से करा दूँ। अगर मैं सब कुछ केवल अनुभव कराता चला गया कि मैं यह कर सकता हूँ, मैं वह कर सकता हूँ, मैंने यह कर दिया और वह आप लोगों के अन्दर उतर न सका, आप लोगों की झोली फटी की फटी रही, तो मैं चाहे जितना डालूँगा, वह गिरता चला जायेगा। आप डालते देखेंगे, क्षणिक अहसास करेंगे और फिर गायब हो जायेगा। बड़ी-बड़ी अनुभूतियाँ होती हैं और अनेकों लोगों ने यज्ञ में अनुभूतियाँ प्राप्त कीं, मगर वे सब समय के साथ क्षीण होजाती हैं।
मैं शक्तिजल तैयार करके देता हूँ और मेरे पास कम से कम सैकड़ों पत्र आये हैं कि शक्तिजल के प्रभाव से असम्भव से असम्भव कार्य हुये हैं। अनेकों लोगों को मृत्यु के अन्तिम क्षणों पर शक्तिजल दिया गया और वे बच गये हैं। अभी सागर की एक घटना है, जिसका कल मुझे पत्र प्राप्त हुआ है कि किसी बच्चे को सर्प ने काट लिया था और जब झाड़-फँूक से वह ठीक नहीं हुआ, तो उसे अस्पताल ले गये, जहाँ पर डॉक्टरों ने उसे मृत घोषित करके घर वापस भेज दिया था। जिस घर में बच्चे को सर्प ने काटा था, मेरे यज्ञ में पहुँचा हुआ एक व्यक्ति, जिसने मुझसे दीक्षा प्राप्त की थी, ‘माँ’ की कृपा से वहाँ पर पहुँच गया और उसने जब देखा कि साँप ने काट लिया है तो भावावेश में, लेकिन मैं चाहता हूँ कि ऐसा भावावेश न आये और उसकी भी जानकारी मैं इसीलिये यहाँ दे रहा हूँ, चूँकि आप लोग जो मेरे शिष्य हैं कि यदि कभी भी विषम परिस्थितियों पर ‘माँ’ का चिन्तन करके, ‘माँ’ की छवि का चिन्तन भी करके यदि किसी कार्य को करने का निर्णय ले लेंगे, तो वह पूर्ण अवश्य होगा। जिस तरह मैं कह सकता हूँ कि मैं किसी को जीवनदान दे सकता हूँ, तो आपकी भावनायें भी किसी को जीवनदान दिला देंगी। मगर, उससे यह शरीर प्रभावित होता है और जिस तरह नये-नये शिष्यों में एक प्रवाह होता है, तो उस शिष्य ने जो कुछ सुना था कि शक्तिजल को यदि मृत्यु के अन्तिम क्षणों पर भी पिला दिया जाये, तो व्यक्ति एक बार जी उठता है, एक बार चेतनावान् होजाता है, तो उसने कह दिया कि हमारे गुरुदेव जी ने एक शक्तिजल तैयार किया है और यदि उसको इसे पिला दिया जाये, तो यह निश्चित ही ठीक हो जायेगा। मरते को अगर कोई यह कह दे कि मैं तुमको जिन्दा कर सकता हूँ, तो कौन यह कहेगा कि तुम्हारी आवश्यकता नहीं है? सभी लोगों ने दबाव डाला, शक्तिजल मँगाया गया और मात्र दो बूँद जल पिलाया गया, जिससे वह बच्चा पूरी तरह से ठीक हो गया।
सागर की घटना है और वे लोग मुझसे अभी तक नहीं मिल सके, मगर एक पत्रवाहक के माध्यम से उन्होंने मेरे पास तक पत्र भेजा था कि हमारे साथ ऐसी घटना घटी थी। ऐसे सैकड़ों पत्र और उन तथ्यों की जानकारी मैं दे रहा हूँ। आज आप लोगों को बुलाया हूँ, यहां बिठाया है, तो विचारात्मक चिन्तन देने के लिये, न कि प्रवचनात्मक। आप लोगों के विचारों में उथल-पुथल मचती है कि यह ऐसे कैसे है, वह ऐसे कैसे है? उन समस्त पक्षों की जानकारी देता जा रहा हूँ कि आप भी किसी दूसरे को समझा सकें, बता सकें।
अनकों भक्त कहते हैं कि शक्तिजल से हमने पूरा लाभ प्राप्त नहीं किया या फिर कुछ समय तक लाभ प्राप्त हुआ और हमको दस दिन तक दवाई नहीं लेना पड़ा। ऐसे अनेकों पत्र पहुँचे कि हमको बीस-पच्चीस दिन तक बिल्कुल ही दवा नहीं लेनी पड़ी और पूरी तरह से ठीक हो गये, तो मैं शक्तिजल पर समभाव से एक प्रयोग करता हूँ और उसको निर्धारित चैतन्य करता हूँ। जिस तरह से मैंने यदि एक गिलास शर्बत बना दिया है व उसमें निर्धारित शक्कर डाली है और सब लोग यदि अलग-अलग गिलास लिये हुए हों और मैं वही मीठा सबमें डालना शुरू करूँ, तो सबको चूँकि एक-एक चम्मच ही दे रहा हूँ, मगर यदि किसी ने पहले से ही अपने गिलास में नमक-मिर्च मिला रखा है, तो मेरा एक चम्मच कारगर सिद्ध नहीं होगा, कुछ ही परिवर्तन कर सकेगा। और, जो निर्मल जल लिये बैठा है, शुद्ध जल लिये बैठा है, तो वह एक ही मीठा चम्मच पूरे गिलास को मीठा कर देगा और उसको शर्बत का अहसास होगा। वही अन्तर आप लोग महसूस करते हैं। अत: यह अन्तर भी न रह जाये, उसके लिये नितान्त आवश्यक है कि आप लोग अपने आपको पात्र बनायें, निर्मल बनायें और अवगुणों से दूर रहेंं।
दूसरी चीज, कर्म से भागें नहीं, भाग्य से भागें नहीं। समस्यायें आ जाती हैं, तो आप लोग तुरन्त उन समस्याओं के निदान के लिये परेशान होने लगते हैं कि हमारा यह निदान होजाये, हमारी यह समस्या दूर होजाये और मैं यह कह रहा हूँ कि ये समस्यायें तो आप लोगों की बोई हुई हैं। जब आप लोगों ने ही बोया है, तो काटने के लिये क्यों नहीं तैयार होते? उसको काटें और अगर वे काटने में बुरी लग रही हैं, कड़वी लग रही हैं, ज़हर समान लग रही हैं, बर्दाश्त नहीं हो रही हैं, तो उससे नसीहत ले करके अच्छी फसल बोना शुरू कर दें। आने वाले समय में वह भी पक करके आप लोगों के सामने आयेगी। चूँकि यदि आज कोई अपाहिज हो रहा है, कोई लँगड़ा हो रहा है, किसी के साथ कुछ गलत भी हो रहा है, तो वह उसके कर्मसंस्कार हैं। मेरे कहने का तात्पर्य यह नहीं, कि आप उनसे निजात नहीं पा सकते, उनसे फुर्सत नहीं पा सकते। आप उनसे भी मुक्ति पा सकते हैं, यदि अपने वर्तमान को आप चेतनावान् बनायें। हम आशीर्वाद लेते हुये अगर अपने आपको चेतनावान् बनायें, तो हमारे बाहर की भी स्थितियाँ बदलती चली जायेंगी। अगर हमारे अन्दर से प्रकाश फूटेगा, तो बाहर भी प्रभावित करता चला जायेगा। अगर आप एक डाली का पुष्प बनना चाहते हैं, वास्तविक पुष्प बनना चाहते हैं, तो आपको उस डाली में खिलना पड़ेगा और अगर आप दिखावे का पुष्प बनना चाहते हैं, तो प्लास्टिक के पुष्प में अगर सेण्ट डाल दिया जाये, तो निर्धारित समय में उसकी महक समाप्त हो जायेगी। हमारा जो स्थूल है, यह दिखावे का पुष्प है। इसमें अगर किसी का आशीर्वाद भी पड़ जायेगा, तो निर्धारित समय तक महक रहेगी।
आपके अन्दर जो एक सूक्ष्म बैठा है, वह भी एक शरीर है ‘सूक्ष्मधारी शरीर।’ उसको जब आप उस पुष्प के समान प्रकाशवान बनायेंगे और उसकी जब सुगन्ध फैलेगी, तो उसमें बाहर से किसी सुगन्ध को डालने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। वह जहाँ से पैदा हुआ है, जिस डाल से जुड़ा हुआ है, वह डाल अपने आप उसको वह तत्त्व देती चली जायेगी कि उसकी महक फैलती चली जायेगी और जब वह सूखेगा भी, बिखरेगा भी, तो बेकार नहीं जायेगा, बल्कि अनेकों बीज पैदा करके जायेगा। हमारा स्थूल बिखरेगा, तो कुछ नहीं कर सकता और अगर आपने अपने सूक्ष्म का निर्माण कर लिया है, तो हज़ारों को चेतना दे सकता है। अत: आप लोगों को चेतनावान् बनना है। आप लोगों को खुद उन क्रियाओं को करना है, जिन क्रियाओं को यदि आप लोग करना सीख जायें, तो आपको किसी से जाप या अनुष्ठान कराने की ज़रूरत नहीं है। अत: अभी से अभ्यास करें, प्रयास करें और जो मैं कह रहा हूँ, वह घटित होगा।
आज अगर किसी के घर में दो बेरोजगार हैं, तो आने वाले समय में चार बेरोजगार खड़े नज़र आयेंगे, चूँकि परिस्थितियाँ ऐसी चल रही हैं और इन परिस्थितियों को आशीर्वाद के माध्यम से नहीं रोका जा सकता। जब आप लोगों के बीच से क्रान्ति उठेगी, जब आप लोगों के बीच से चेतना उठेगी, परिवर्तन तब हो सकेगा। मैं आप लोगों के साथ हूँ। किस तरह से चेतना जाग्रत् होना है, वह जानकारी दे सकता हूँ। आप लोगों के साथ रह सकता हूँ, विषम से विषम परिस्थितियों में रहकर आप लोगों का साथ देता हूँ। अनेकों घटनाओं को टालने का भरसक प्रयास करता हूँ और अपने शरीर को जितनी तकलीफें दे सकता हूँ, देता हूँ। आपने हज़ारों साधु, सन्त, संन्यासियों को देखा होगा, जिनका बहुत बड़ा मोटा तगड़ा शरीर होगा और शायद आपकी यह कामना मेरे इस शरीर से पूरी न हो सकेगी। चूँकि अगर आप देख सकेंगे, तो मेरा सूक्ष्मशरीर बलवान् नज़र आयेगा, चेतनावान् नज़र आयेगा, मगर स्थूल शायद कभी चेतनावान् नज़र नहीं आयेगा और वह इसलिये कि मैं इसे खपाने पर लगा रहता हूँ, इसका उपयोग करने पर लगा रहता हूँ।
जिस तरह मैंने कहा है कि यह काया ही सबसे बड़ी ठगनी है, माया ठगनी नहीं है। इस काया का उपयोग करें और मैं स्वत: कर रहा हूँ। जो मैं करता हूँ, वही आप लोगों को कहता हूँ, मगर आप लोगों की तकलीफों को देखकर मेरा स्थूल अवश्य प्रभावित होता है और अगर आप मेरे शरीर को भी तन्दुरस्त देखना चाहते हैं, तो यह आप लोगों के हाथ में है, मेरे हाथ में नहीं। चूँकि स्थूल को मैंने आप लोगों पर छोड़ रखा है और सूक्ष्म को मैंने अपने आप में पकड़ रखा है। चूँकि आप लोगों की वेदनायें जितना ले सकता हूँ, इस स्थूल शरीर के माध्यम से ले रहा हूँ। आप लोगों के लिये क्रियाओं में इतना लीन रहता हूँ कि चाह करके भी नींद नहीं ले पाता। सतत् उन चिन्तनों में लीन रहता हूँ, जिससे यह शरीर प्रभावित होता है। यज्ञ में जितना अपने आपको खपा सकता हूँ, उतना खपाने का प्रयास करता हूँ और उसके बाद भी कहता हूँ कि यदि मौत के अन्तिम क्षणों पर भी होऊंगा, तब भी आप मेरी चेतना को समझना चाहेंगे, तो विश्व में कोई भी ऐसा शरीरधारी नहीं होगा, जो मेरी चेतना के समान बैठ सके। चाहे बुखार में रहूँगा, चाहे जिस अवस्था में रहूँगा, उस सूक्ष्म के बल पर मैं अखण्ड बैठने की क्षमता प्राप्त किये हुये हूँ। मैंने अपने सूक्ष्म को पकड़ा है और उसी सूक्ष्म का स्पन्दन आप लोगों को देना चाहता हूँ। उसके लिये आप लोगों को क्रियायें करना पड़ेगा और उन्हीं क्रियाओं पर नित्य आपको बैठना है।
सप्ताह में एक दिन का समय अपने आपको भौतिकतावाद से निकालकर अध्यात्मवाद के लिये निश्चित रूप से दें। समय निकालें और उन क्रियाओं को करें, तभी आप कुछ प्राप्त कर सकेंगे, तभी आप आत्मशान्ति प्राप्त कर सकेंगे, तभी आप चेतनावान् बन सकेंगे, तभी आप कुछ करने में सक्षम हो सकेंगे।
बोल जगदम्बे मात की जय।