नशामुक्ति महाशंखनाद

प्रवचन शृंखला क्रमांक -149
शक्ति चेतना जनजागरण शिविर (नशामुक्ति महाशंखनाद)
जम्बूरी मैदान, बी.एच.ई.एल. भोपाल (मध्यप्रदेश), दिनांक 17 फरवरी 2015

माता स्वरूपं माता स्वरूपं, देवी स्वरूपं देवी स्वरूपम्।
प्रकृति स्वरूपं प्रकृति स्वरूपं, प्रणम्यं प्रणम्यं प्रणम्यं प्रणम्यम्।।

यहां इन क्षणों पर उपस्थित अपने समस्त शक्तिसाधकों, शिष्यों, माँ के भक्तों, श्रद्धालुओं एवं इस शिविर व्यवस्था में लगे हुए समस्त कार्यकर्ताओं को व जो जिस भावना से इस शिविर परिसर पर उपस्थित हुआ है, उन सभी को अपने हृदय में धारण करता हुआ माता आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा का पूर्ण आशीर्वाद प्राप्त करता हुआ अपना पूर्ण आशीर्वाद आप समस्त लोगों को समर्पित करता हूँ।

माता आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा की कृपा से ही इस तरह के शुभ अवसर प्राप्त होते हैं कि जहां पर उस परमसत्ता का स्मरण-चिन्तन करने से उनकी कृपा समाज को सहज ही प्राप्त होजाती हैं। सत्संग का तात्पर्य ही है- सत्य का संग। सत्य की विचारधारा को प्राप्त करने का यदि अपने अन्दर भाव भी बनने लगे, तो वहां से ही हमारा सत्य का संग प्रारम्भ होजाता है। आवश्यकता होती है कि हमें जीवन में जो क्षण प्राप्त हो रहे हैं, उन क्षणों का हम कितना सदुपयोग कर पाते हैं? माता आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा की कृपा से हमें जो क्षण प्राप्त हो रहे होते हैं, उन क्षणों को हम कितना आत्मसात करके अपने अंत:करण को कितना निर्मल बना पाते हैं? माता आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा, जो समस्त देवों की जननी हैं, समस्त लोकों की जननी हैं, हम आप सभी की जननी हैं, सभी आत्माओं की जननी हैं, जो हरपल हम पर कृपा बरसाती रहती हैं, उनकी साधना से सरल, सहज, सुगम और कोई दूसरी साधना नहीं है।

शिविर में नया समाज उपस्थित होता है और उन्हें उस सत्य का अवश्य अहसास कराना चाहूंगा कि किस विचारधारा को लेकर आप बैठें, किस विचारधारा को लेकर आप ‘माँ’ की आराधना करें? चूंकि यदि हमारी विचारधारा सही होगी, हमारा लक्ष्य सही होगा, तो हमें सफलता अवश्य प्राप्त होगी। आप लोग नाना प्रकार की कामनाओं-भावनाओं को लेकर उपस्थित होते हैं। जीवन में किसी की कोई समस्या है, किसी की कोई समस्या है। नाना प्रकार की कामनाएं-भावनाएं उस परमसत्ता के चरणों में, गुरुसत्ता के चरणों में समर्पित करते रहते हैं। मैंने तीन शब्दों में आपकी सभी कामनाओं को समाहित कर रखा है कि कहीं भी, किसी भी देवस्थान में जाएं, केवल और केवल सफलता की मूल कुंजी उन तीन शब्दों से जुड़ी हुई है कि यदि आपको मांगना है, तो भक्ति मांगो, ज्ञान मांगो और आत्मशक्ति मांगो। इन तीन शब्दों में दुनिया का समस्त वैभव, सुख-शान्ति, समृद्धि और उस परमसत्ता की प्राप्ति छिपी हुई है। ये तीन भाव जिस मनुष्य के अन्दर, जिस साधक के अन्दर समाहित होजाते हैं कि मुझे जीवन में कुछ नहीं चाहिए, उस परमसत्ता से मुझे यदि कुछ चाहिए तो परमसत्ता की भक्ति चाहिए, ज्ञान चाहिए, आत्मशक्ति चाहिए और यदि इस विचारधारा पर आपने अपने आपको समाहित कर दिया, तो विश्वास मानो कि आप जो घंटों की साधना करते हो, वह आपकी पांच मिनट की साधना, घंटों की साधना से ज़्यादा श्रेष्ठ बन जाएगी।

सब कुछ विचारों का खेल है। ग्रंथों, पुराणों, शास्त्रों, उपनिषदों का ज्ञान लाखों प्रकार से प्राप्त कर लीजिए, सभी को रट लीजिए, सभी को कंठस्थ कर लीजिए, मगर यदि सही विचारधारा ज्ञात नहीं है, तो सबकुछ निष्फल हो जाता है। यदि हमें सूर्य का प्रकाश चाहिए, तो हमें खिड़की को खोलना ही पड़ेगा, सूर्य के प्रकाश के समक्ष जाना ही होगा। हम शान्त-एकान्त छाया में बैठ करके सूर्य का ताप प्राप्त नहीं कर सकते। आपके विचारों की दिशा ही तो भटकी हुई है, यदि विचारों की दिशा सुधर जाए, विचारों की दिशा सही दिशा में आ जाए, तो समाज का पतन सहज भाव से रुक जाएगा। मैं यदि शिविरों का आवाहन करता हूँ, शिविरों का आयोजन करता हूँ, तो मैं चाहता हूँ कि शक्तिसाधकों का, समाज का एक पल भी निरर्थक न जाए। मैं अपने समय को कहानियों-किस्सों और नाना प्रकार की चीजों में न ले जा करके, बल्कि आपको किस विचारधारा को प्राप्त करना है, आपको किस पथ पर चलना है, आपको क्या करना है और क्या नहीं करना है? इस पर विचार देता हूँ। चूंकि अगर आप इस पथ पर बढ़ गये, इस सत्य का ज्ञान आपने प्राप्त कर लिया कि यह जो मानवशरीर मिला है, इसके द्वारा हमें क्या करने योग्य है और क्या करने योग्य नहीं है, हमारा हित किसमें छिपा हुआ है और अहित किसमें छिपा हुआ है? इस सत्य को यदि आप आत्मसात कर लें, तो आपका पथ, आपका एक-एक कदम सत्यपथ की ओर बढ़ता चला जायेगा।

कण-कण में वह परमसत्ता व्याप्त है, आवश्यकता है कि हम उस परमसत्ता की ओर देखने का प्रयास करें, उसका स्मरण करने का प्रयास करें। क्या हम सच्चे मन से, क्या हम निष्काम भावना से उस परमसत्ता का स्मरण करते हैं? नाना प्रकार की कामनाओं में उलझ करके आप लोग हरपल तनावग्रस्त रहते हो। हमें उस परमसत्ता का अगर आशीर्वाद चाहिए, कृपा चाहिए, तो मनमस्तिष्क को शान्त करके उस परमसत्ता की आराधना करनी होगी और मनमस्तिष्क को शान्त करने के लिए सद्विचारों की आवश्यकता होती है, सद्ज्ञान की आवश्यकता होती है। यदि उन विचारों पर हम अमल करने लग जाएं, तो हमारा पूरा जीवन धीरे-धीरे करके रूपान्तरित होता चला जायेगा।

साधकों को संकल्पवान्, पुरुषार्थी बनना चाहिए। यदि आप संकल्पवान् नहीं हैं, पुरुषार्थ आपके जीवन में नहीं है, तो सतत आपका पतन होता चला जाएगा और यदि जीवन में आपने दो बातों का संकल्प ले लिया है कि मैं अपने संकल्प पर दृढ़ रहूंगा और जो संकल्प मैं एक बार ले लूंगा, उस संकल्प को जीवन की अंतिम श्वास तक नहीं तोड़ूंगा। संकल्प तो वही होता है, जहां पर संकल्प में दूसरा कोई विकल्प न आए। सच्चा संकल्प वही होता है और सच्चा शक्तिसाधक वही होता है, जिसके संकल्प पर दूसरा कोई विकल्प न हो। हम अजर-अमर-अविनाशी आत्मा का जीवन जीते हैं। हमारे अन्दर निर्भीकता होनी चाहिए, हमारे अन्दर निडरता होनी चाहिए, हमारे अन्दर चेतना का संचार होना चाहिए, हम संकल्पवान् बनें और पुरुषार्थी बनें।

यदि हमारे अन्दर का पुरुषार्थ जाग गया, यदि हमारे अन्दर की चेतनाशक्ति जाग गई, तो हर मनुष्य के अन्दर वह आत्मशक्ति बैठी हुई है, हर मनुष्य के अन्दर वह चैतन्यशक्ति बैठी हुई है, जिस आत्मशक्ति की तुलना किसी दूसरी शक्ति से नहीं की जा सकती। उससे बड़ी कौन शक्ति हो सकती है, जो परमसत्ता माता आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा का अंश हो? उस छोटे से अंश में, आत्मशक्ति में इस ब्रह्माण्ड का सबकुछ सार समाहित है। उस परमसत्ता की कृपा का अहसास करना चाहिए, उस परमसत्ता से हम और क्या मांगेंगे? उस परमसत्ता से हम और क्या चाहते हैं? उस परमसत्ता ने हमें क्या नहीं दे रखा है? एक अलौकिक चेतना, एक ऐसी आत्मशक्ति, जिस पर निखिल ब्रह्माण्ड की समस्त शक्तियां समाहित हैं, समस्त ज्ञान समाहित है, समस्त वैभव समाहित है, समस्त सुख-शान्ति-समृद्धि समाहित है। आवश्यकता यह है कि हम उसे जानें-पहचानें और उस पर अमल करें। केवल जान लेने से कुछ नहीं होता, जब तक हम उस पर अमल नहीं करेंगे, तब तक उसका लाभ प्राप्त नहीं होगा।

आप पूरी गीता रट डालिए, पूरी रामायण रट डालिए, अगर उसमें लिखी हुई बातों को आपने अपने जीवन में उतारा नहीं है, उस पर आपने अमल नहीं किया है, तो आपके हाथ कुछ नहीं लग सकेगा। अत: जीवन में एक-एक पल को व्यर्थ नष्ट मत होने दो। चल पड़ो उस दिशा पर, जिधर गीता और रामायण संकेत दे रहे हैं, जिस ओर हमारे शास्त्र-उपनिषद संकेत दे रहे हैं, जिस तरफ हमें वेद बढ़ाना चाह रहे हैं, मगर दुर्भाग्य है इस समाज का, दुर्भाग्य है उन धर्माधिकारियों का, जिन्होंने पूरे समाज को दिशाभ्रमित करके रख दिया है। कथायें, नाच-गाने, रासरंग, यही धर्म का आवरण बन करके रह गया है। धर्म के वास्तविक स्वरूप से समाज को भटका दिया गया है। धर्म क्या कहता है, धर्म किसे कहते हैं? इस सत्य से वे धर्माधिकारी स्वत: दूर हो चुके हैं, कथावाचक दूर हो चुके हैं! बस उन पुस्तकों को रट लेना और सुना देना तथा मनोरंजन का वातावरण बना देना, नाच-गाना करा देना, यही आज धर्म का स्वरूप बन गया है। समाज के पतन का मूल कारण यही है। अगर हम मूल को पकड़ लें कि हमारे पतन का मूल क्या है और उस मूल को संवारना शुरू कर दें, तो सबकुछ अपने आप सुधर जाएगा।

किसी पेड़ को यदि हरा-भरा करना है, तो सबसे पहले हमें उसकी जड़ों पर निगाह रखना पड़ता है कि जड़ें खोखली न होने पाएं और जड़ों को अच्छी खाद, अच्छा पानी मिल रहा है या नहीं? अगर अच्छी खाद व पानी मिलता रहेगा और छोटे-मोटे पत्ते कोई तोड़ता भी रहेगा, छोटी-मोटी टहनियां कोई तोड़ता भी रहेगा, तो कोई एक टहनी तोड़ेगा, वहीं दस नई कोपें उसमें फूट पड़ेंगी। उसी प्रकार हमारा यह मानवतन है, हमारा मानवजीवन है। इसको तुम्हें स्वयं संवारना होगा, स्वयं के द्वारा स्वयं को संवारो। पुरुषार्थी बन करके, संकल्पवान् बन करके स्वयं को संवारो। स्वयं के द्वारा स्वयं को संवारा जा सकता है। यही कार्य तो आप लोग कर रहे हो, मगर किस दिशा में? विनाश की दिशा में, विकास की दिशा में नहीं! तुम स्वयं को संवारना जानते हो, अपने द्वारा अपने आपको संवारना जानते हो, मगर तुम संवार किसे रहे हो? अपने इस नाशवान तन को!  ध्यान किस पर दे रहे हो? इस नश्वर शरीर पर! इसे स्वयं के द्वारा ही तो संवारते हो, इसे शुद्ध एवं अच्छा भोजन देते हो, अच्छे कपड़े पहनते हो, तेल लगाते हो, स्नान करते हो। अपने द्वारा अपने आपको संवारने का ज्ञान तुम्हें है। तुम यह नहीं कह सकते कि हमें इस बात का ज्ञान नहीं है कि अपने द्वारा ही अपने को कैसे संवारें? मगर जिस चीज़ का तुम्हें अभ्यास होजाता है, वह सहज भाव से तुम्हारे स्वभाव में ढल जाती है। कपड़े में थोड़ा सा दाग लग जाएगा, उसको तुरन्त झाड़ दोगे, गंदा हो गया, उसे धुल दोगे, हाथ में मक्खी-मच्छर बैठ जाएगा, उसे तुरन्त झटक करके हटा दोगे। सबकुछ करने का तुम्हें ज्ञान है, मगर यह सब किसके लिए कर रहे हो, इस नश्वर शरीर के लिए!

एक बार विचार करके देखो कि शरीर को कौन संचालित कर रहा है? वह आत्मा, अजर-अमर-अविनाशी आत्मा संचालित कर रही है। एक ऐसी दिव्य आत्मा, कि जिसने भी उसका सान्निध्य पाया, वह योगी बन गया, ऋषि बन गया, महापुरुष बन गया, समाजसेवक बन गया। अपना ही नहीं, बल्कि लाखों-करोड़ों का कल्याण कर दिया उन ऋषियों-मुनियों ने, जिन्होंने नये स्वर्ग की रचना कर दी थी। उन तपस्वी साधिकाओं ने ब्रह्मा, विष्णु, महेश जैसे देवताओं को भी बच्चे बनाकर पालने पर झूलने के लिए मज़बूर कर दिया। वे किसी दूसरे लोक के नहीं थे, बल्कि इसी धरती के मानव थे, पुरुष थे, महिलाएं थीं, नर थे, नारियां थीं। हमारा पूरा इतिहास भरा पड़ा है, किन्तु क्या हम कभी उस इतिहास को देखना चाहते हैं? क्या कभी हम उस सत्य को जानना चाहते हैं कि हमारा कल्याण किसमें छिपा हुआ है? हम किन ऋषियों-मुनियों की सन्तानें हैं? हमें अपने पुरुषार्थ को किस तरफ लगाना चाहिए? अपने बच्चों को किस तरफ बढ़ाना चाहिए? कौन से मार्ग हंै, जिससे हमारा अपना कल्याण हो सकता है? कौन सा वह मार्ग है, जिससे हम अपने बच्चों का कल्याण कर सकते हैं? ज्ञान होने के बाद भी अज्ञानी बन रहे हो, इसलिए कि तुम उस दिशा में विचार ही नहीं करना चाहते।

हर व्यक्ति जानता है कि मेरे इस शरीर की अधिकतम उम्र कितनी है और मैं कितना जिऊंगा? पहले दो सौ, तीन सौ, पांच सौ साल लोग जीते थे। कुछ समय पहले वह आंकड़ा सौ साल के बीच का आकर रह गया। आज तो हर व्यक्ति यह भी नहीं कह सकता कि मैं सौ साल जीवन जिऊंगा। वह साठ साल, सत्तर साल, अस्सी साल के बीच आकर सिमट गया है। इतने सालों के जीवन के लिए आप किस तरह का जीवन जीते हो? क्या करते हो? अपना समय कितना नष्ट करते हो? केवल एक कार्य करते हो- धन कमाना, वैभव लाना। वह धन और वैभव चाहे सत्यमार्ग से आ रहा हो, चाहे असत्य मार्ग से आ रहा हो। एक भूख बन गई है, एक ऐसा स्वभाव बन चुका है कि वह धरोहर जो आपके अन्दर भरी पड़ी है, उस तरफ निगाहें न उठा करके उस नाशवान धरोहर की तरफ देख रहे हो। यह जानते हुए भी कि लाखों-करोड़ों की सम्पत्ति इकट्ठा कर लेने के बाद भी तुम्हारे साथ कुछ नहीं जाएगा!

सिकन्दर का जीवन देखो, सम्राट् अशोक का जीवन देखो, उन राजा-महाराजाओं का जीवन देखो, जो बड़े-बड़े वैभवशाली भवनों में रहते थे। जहां एक आम व्यक्ति जूते पहन करके एक पग नहीं रख सकता था, आज उनके महलों की क्या स्थितियां हैं? वहां गीदड़ और उल्लू लटक रहे हैं! जहाँ पर एक आम व्यक्ति को पहुंचने का अधिकार नहीं होता था, आज वहां सैनिकों के बूटों की टापें गूंज रही हैं। क्या तुम भी ऐसा जीवन चाहते हो? क्या तुम भी ऐसा महल खड़ा करना चाहते हो? अगर नहीं, तो सजग हो जाओ! एक ऐसा महल खड़ा करो, आत्मा का महल, चेतना का महल, संकल्प का महल, पुरुषार्थ का महल, जिस पुरुषार्थ के बल पर तुम जो चाहो, वह कर सकते हो। हमारे ऋषियों-मुनियों ने ऐसा करके दिखाया है। तुम असमर्थ नहीं हो, तुम असहाय नहीं हो, तुम पूर्ण हो, परिपूर्ण हो। उस पूर्णत्त्व की पूर्ण आत्मा को जानो-पहचानो। उसके नज़दीक जाओ, स्वयं के द्वारा स्वयं के आवरणों को हटाओ। वे आवरण, जो अनेक जन्मों से आपके ऊपर पड़ते चले गये हैं। उस दिशा पर नित्य विचार करना पड़ेगा, सच्चे मन से ‘माँ’ की आराधना करनी पड़ेगी। आत्मा पर पड़े हुए आवरणों को, कुविचारों को, कुसंस्कारों को, काम-क्रोध-लोभ-मोह, इन सभी को धीरे-धीरे हटाना पड़ेगा और जब इन आवरणों को हटाने में तुम सफल हो जाओगे, तब तुम्हें अपनी दिव्यता का अहसास होगा, तब तुम्हें अपनी चैतन्यता का अहसास होगा, तब तुम्हें अपने अन्दर के आनन्द का अहसास होगा।

आपका गुरु क्यों कहता है कि मेरी आत्मा के इस सुख के बदले यदि कोई मुझे त्रिभुवन का सुख भी देना चाहे, तो भी त्रिभुवन का वह सुख पैर से ठोकर मार देने के बराबर है। एक अलौकिक आनन्द, एक अलौकिक तृप्ति, एक अलौकिक शान्ति, एक अलौकिक सन्तोष प्राप्त कर सकते हो, मगर उसके लिए आवश्यकता होती है पुरुषार्थ करने की, पुरुषार्थी बनने की, कर्मवान् बनने की। उसके लिए एक के बाद एक संकल्पों से अपने आपको बांधना होता है। जिस तरह पानी का प्रवाह, कि यदि आप नाली बनाकर पानी को अपने खेत तक ले जाना चाहते हो, किन्तु यदि जगह-जगह पर वह नाली कटी हुई होगी, तो आपके खेत तक पानी कभी नहीं जाएगा। उस पानी को पहुंचाने के लिए आप मेड़ को सुव्यवस्थित तरीके से बांधते हो। उसी तरह आपके अपने जीवन के जितने छिद्र हैं, जितने भी विकार के रास्ते हैं, उन विकारों के रास्तों को संकल्प के साथ बांधो, जहां तुम यह कह सको कि हाँ मैं संकल्पवान् शक्तिसाधक हूँ। संकल्प हमारा जीवन होना चाहिए, पुरुषार्थ हमारा जीवन होना चाहिए।

भीष्म पितामह की प्रतिज्ञा टल सकती है, मगर योगीराज शक्तिपुत्र की प्रतिज्ञा आज तक कभी नहीं टली और न कभी भविष्य में टल सकेगी। विश्वामित्र का ब्रह्मचर्य व्रत खंडित हो सकता है, मगर योगीराज शक्तिपुत्र के ब्रह्मचर्य व्रत को खंडित करने की सामथ्र्य त्रिभुवन में किसी के पास नहीं है। मैं भी वैसा जीवन आपके बीच जीता हूँ, मैं भी वैसा जीवन गृहस्थ में रहकर जीता हूँ। मैंने भी गृहस्थ का जीवन जिया है। मेरी पत्नी सामने बैठी हुई हैं, मेरी तीनों बच्चियां बैठी हैं। समाज के बीच ज्ञान देने के लिए और जो मेरी जन्म-मरण की परम्परा थी, उसको आगे बढ़ाने के लिए तीन बच्चियों के बाद जिस दिन सत्य का, एक मिनट के लिए भी अहसास हुआ कि मुझे और किसी सन्तान की आवश्यकता नहीं है, उस दिन से ब्रह्मचर्य का संकल्प लेने के बाद सपत्नीक ब्रह्मचर्य का जीवन जीता हूँ। दुनियादारी का एक भी आंशिक विचार मन मेंं नहीं आया। त्रिभुवन में किसी की ताकत, किसी की क्षमता नहीं है, जो अंशमात्र उसमें दाग भी लगा सके। संकल्प हो तो ऐसा हो। संकल्प हमारा जीवन है, संकल्प हमारा आधार है। सुख, भोग-विलास हमारे लिए विष के समान होने चाहिए।

यह परमसत्ता की व्यवस्था है। हम काम, क्रोध, लोभ, मोह किसी को नष्ट नहीं कर सकते, मगर उसे अपने वशीभूत तो कर सकते हैं। ये हमारे जीवन के अंग हैं, हमारे जीवन के विचार हैं और यदि हम अपने जीवन को, अपने जीवन के विचारों को अपने द्वारा नियंत्रित न कर पाये, तो इसका तात्पर्य है कि हम कायर हैं, कमज़ोर हैं और नपुंसक हैं! तन से नपुंसक, नपुंसक नहीं होता, मगर जो अपने विचारों पर लगाम न लगा सके, अपने आप पर स्वयं विजेता न बन सके, असली नपुंसक तो वह होता है। अत: पुरुषार्थी जीवन जियो, स्वयं के द्वारा स्वयं का उद्धार करो, स्वयं के विजेता बनो। दूसरों पर विजय प्राप्त करके, पूरे विश्व का साम्राज्य हासिल करके भी तुम सुख-शान्ति और समृद्धि नहीं प्राप्त कर सकते। इतिहास साक्षी है कि दूसरे पर विजय प्राप्त करने वाले को सिर्फ वीर कहा जाता है, मगर जो अपने आप पर विजय प्राप्त कर सके, उसे महावीर कहा जाता है। यदि तुमने अपने आप पर विजय प्राप्त कर ली, तो त्रिभुवन पर विजय सहज भाव से प्राप्त हो जाएगी। चूंकि पूरा त्रिभुवन तो तुम्हारी आत्मा में समाहित है। तुम जैसा चाहोगे, वैसी व्यवस्थाएं सामने निर्मित होती चली जायेंगी। तुम्हारा जीवन परोपकारी बन जायेगा, तुमको एक अलौकिक आत्मशान्ति प्राप्त हो जायेगी।

आज तुम निरीह हो और तुम्हें लग रहा है कि हमारा जीवन कैसे चलेगा? इसलिए तुम सत्य की ऊर्जा को हासिल नहीं करना चाहते। समाज उससे विमुख है। आवश्यकता है कि एक बार उस परमसत्ता के चरणों पर आओ, उस परमसत्ता का सच्चे मन से स्मरण करो, माता आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा का सच्चे मन से ध्यान करो, अबोध शिशु बन करके प्रार्थना करो। जिस तरह छ: महीने का एक अबोध शिशु सिर्फ अपने माता-पिता को पहचानता है और उसे किसी की पहचान नहीं होती। उसे अच्छे से अच्छे खिलौने दे दो, अच्छी से अच्छी खाने की चीजें दे दो, मगर माता-पिता के बदले वह सबकुछ ठुकरा देता है कि नहीं माता की गोद से मुझे दूर मत करो, पिता की गोद से मुझे दूर मत करो और वह सब चीजों को फेक देता है। जिस दिन उस शिशु के समान तुम्हारे भाव ‘माँ’ की भक्ति में आ गये, उस दिन तुम्हें कोई पतन के मार्ग पर बढ़ा नहीं सकता। उसी दिन से तुम्हारे सत्यपथ की यात्रा प्रारम्भ होजाती है। एक बार, एक जीवन इस मार्ग पर बढ़ करके देखो। एक बार विचारों की स्थिति पर आ करके खड़े हो जाओ।

तुम्हारे अपने अन्दर के विचार हैं और अगर तुम अपनी बुद्धि से उनके ऊपर लगाम नहीं लगा पाते हो, तो यह तुम्हारी सबसे बड़ी कमजोरी है। तुम किससे लाभ चाहते हो? जगह-जगह माथा टिकाने से, जगह-जगह सिर झुकाने से कोई लाभ तब तक नहीं प्राप्त हो पायेगा, जब तक तुम सबसे पहले अपना सिर अपनी आत्मा के चरणों पर नहीं झुकाओगे। अपने आपको नमन नहीं करोगे, जो तुम्हारे अन्दर दिव्य आत्मा बैठी हुई है। इसीलिए मेरे द्वारा हमेशा कहा जाता है कि स्वयं की आत्मा, गुरुसत्ता और उस परमसत्ता पर भेद मानने वाला कभी भी सत्य का ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता। आपकी अपनी आत्मा, आपका गुरु और आपकी परमसत्ता, इन तीनों में कोई भेद नहीं है। तीनों एक समान हैं।

आप कहीं से जुड़े हुए हों, किसी भी गुरुसत्ता से जुड़े हुए हों। आप अपने गुरु को बहुत ज़्यादा सम्मान देते हों, समस्त समर्पण करने के लिए तत्पर रहते हों। जिस देवी-देवता की आराधना करते हों, उसको सर्वस्व समर्पित करने के लिए तत्पर रहते हों और वही तत्परता जिस दिन तुम्हारे अन्दर अपनी आत्मा के प्रति आ जायेगी कि मेरे अन्दर भी गुरुतत्त्व बैठा हुआ है, मेरे अन्दर भी आत्मतत्त्व बैठा हुआ है और इस आत्मतत्त्व को मुझे निखारना है। इस आत्मतत्त्व के माध्यम से गुरुतत्त्व कार्य करेगा, इस आत्मतत्त्व के माध्यम से परमसत्ता कार्य करेंगी। मुझे तो अपने द्वार खोलने ही पड़ेंगे। मैं उस परमसत्ता का आवाहन करके उसे बिठाऊंगा कहां? हमारे पास बिठाने के लिए हमारी आत्मा है, हमारा अपना अंत:करण है। क्या हम उसको निर्मल और पवित्र बना पाते हैं? प्रयास करो, सबकुछ सम्भव है। आपके गुरु ने भी वही यात्रा तय की है। बचपन से लेकर आज तक पूरा समाज और मेरे नज़दीक रहने वाले सभी जानते हैं कि मैंने अपना अधिकांश समय साधना में व्यतीत किया है। तब भी वही रास्ता था और आज भी वही रास्ता है, आज भी वही मार्ग है। मैंने सबकुछ त्याग दिया, मगर अपने साधनापथ का कभी त्याग नहीं किया। मुझे किसी चीज की कामना नहीं है, बस उस परमसत्ता का सान्निध्य प्राप्त होता रहे, वह आनन्द प्राप्त होता रहे।

अपने आपका अनुसंधान करो, अपनी आत्मा की शक्ति को प्राप्त करने का प्रयास करो, आिखर आपके गुरु ने भी उसी पथ पर कदम बढ़ाए हैं। बचपन से लेकर वह यात्रा चल रही थी और आज भी वही चल रही है। आज भी ढाई से तीन घण्टे से अधिक विश्राम नहीं करता हूँ। ध्यान-साधना या मानवता की सेवा के कार्य पर ही मेरा अधिकांश समय व्यतीत होता है। मुझे किसी चीज की कामना नहीं, नमक रोटी भी मिल जायेगी, तो उससे भी तृप्त हूँ। जो मेरे पास है, वह भी छिन जाये, उससे भी संतुष्ट हूँ, मगर मेरा जो लक्ष्य है, मेरा जो कर्म है, उससे एक पल के लिए भी अलग हो जाऊँ, यह मुझे मंजूर नहीं। तुम वैसा जीवन जियो, तुम शक्तिसाधक हो। निश्चित ही जो लोग मुझसे जुड़े हुए हैं, उनमें बहुत कुछ परिवर्तन आ रहा है। आप गलत रास्तों से हटकर सही रास्ते पर अपने आपको बढ़ा रहे हो। कुविचारों को कहीं न कहीं दूर कर रहे हो। आप नशे-मांस से मुक्त चरित्रवान्, चेतनावानों का जीवन जी रहे हो, मगर अभी बहुत कुछ परिवर्तन की आवश्यकता है। आज परिवर्तन चल रहा है, मगर उस परिवर्तन के चक्र को और बढ़ाने की आवश्यकता है। हम ज्यों-ज्यों समाज को बदलना चाहते हैं, उतना ही अधिक हमें अपने आपको बदलते रहना पड़ेगा। हम जितना अपने आपको संवार लेंगे, समाज अपने आप संवरता चला जायेगा। यदि कोई भी पुष्प सुगंधित होजाता है, तो उसके आसपास से गुज़रने वाले लोग उसकी सुगंध को नकार नहीं सकते, उससे प्रभावित ज़रूर होंगे।

आपके पास आत्मा के समान एक सुन्दर पुष्प है। उसको विकसित करो, उसको सुगन्धित होने दो, उस पर पड़े हुए आवरणों को हटा दो। सद्विचारों को ले करके यह कार्य तो तुम्हीं को करना पड़ेगा। बड़े-बड़े ग्रन्थों का अध्ययन कर लेने मात्र से परिवर्तन नहीं आता और इसीलिए कहा गया है कि ज्ञानी सर्वदा भटकता है। आपके गुरु ने किसान परिवार में जन्म लिया है और सामान्य सा जीवन जीता हूँ। पिता के साथ कृषिकार्य में भी मैंने पूरा परिश्रम किया है और उसी तरह अपने साधनाक्रमों में परिश्रम किया है, उसी तरह मानवता की सेवा में मैंने समय दिया है। परिवर्तन निश्चित आता है। किसी समय मैंने भी भगवती मानव कल्याण संगठन को एक-एक, दो-दो कार्यकर्ताओं से प्रारम्भ किया था और आज दस लाख से अधिक दीक्षाप्राप्त शिष्य हैं, जो नशे-मांस से मुक्त चरित्रवान्, चेतनावान् जीवन जीते हैं। उनमें से एक लाख से अधिक उन कार्यकर्ताओं को मैंने समाजसेवा के मार्ग पर बढ़ाया है, जो स्वयंसेवी जीवन जीते हुए समाजसेवा के कार्य में लगे हुए हैं।

एक करोड़ से अधिक लोगों से व्यक्तिगत मिलकर करके उन्हें नशे-मांस से मुक्त चरित्रवान् जीवन जीते हुए ‘माँ’ की आराधना के पथ पर प्रशस्त किया है। कह देने मात्र से नहीं, बल्कि उनको मैंने समय दिया है। व्यस्ततम समय में से भी समय निकाल-निकाल करके नित्यप्रति सिद्धाश्रम आने वाले लोगों को मिलने का समय दिया है। निश्चित है कि एक साधक के लिए यह बहुत कठिन कार्य होता है, फिर भी मेरे आश्रम में जो भी आते हैं, अमीर हों, गरीब हों, सबको एक समान समय दिया है, एक बार भी मैंने भेद नहीं आने दिया। एक बार अमीर को तो मैंने दरवाजे पर रोक दिया है, लेकिन गरीब को पहले प्रमुखता दी है। मंत्री को रोका जा सकता है, मगर एक आम नागरिक को मेरे दरवाजे पर कभी नहीं रोका जाता। मैं जैसा कहता हूँ, वैसा जीवन जीता हूँ। चंूकि आज मेरी आवश्यकता पहले किसे है? आज जिसे मेरी आवश्यकता ज़्यादा है, सबसे पहले मेरे लिए वह प्रिय है। आज यही वह समाज है, जिस समाज को हमेशा नज़रअंदाज किया जाता था, जिनमें से अनेकों लोग आत्महत्या करने के लिए तत्पर थे, जिनमें से अनेकों लोग अपने जीवन से निराश हो चुके थे, उसी निराशा में आशा का संचार किया गया है। चूंकि मेरे पास जो तपबल है, मैंने उस पथ से कार्य करना प्रारम्भ किया है कि अपनी चेतनातरंगों के माध्यम से समाज की चेतनातरंगों को प्रभावक बनाता हूँ, यही मेरे जीवन का मूल सार है और सत्य को दुनिया की कोई ताकत नकार नहीं सकती।

लोग जानना चाहते हैं कि गुरुदेव जी आपके कहने से यह परिवर्तन कैसे आ जाता है? कैसे लोग नशे-मांस से मुक्त होजाते हैं? मैं उन्हें कहता हूँ आओ, मेरे आश्रम में आ करके देखो कि लोग अपने घरों, अपने परिवार को नहीं संवार पाते, नहीं सुधार पाते, नशे से मुक्त नहीं करा पाते और मेरे सिद्धाश्रम में ऐसा कौन सा आकर्षण है कि वहां नशा करने वाले बरबस बढ़ करके आते हैं और कहते हैं कि गुरुदेव जी हम नशा छोड़ने आये हैं। उनके साथ कोई होता नहीं है। वे समूह के समूह आते हैं और मेरा हमेशा के लिए संकल्प है कि मेरे सान्निध्य में आने वाला यदि एक क्षण भी मेरे साथ गुज़ार लेगा, तो सौ में से नब्बे प्रतिशत व्यक्ति नशे से मुक्त होकर ही जायेंगे। चूंकि मैं वैसी चेतनातरंगें प्रवाहित करता हूँ।

विज्ञान के लिए भी मैंने चुनौती रखी है कि विज्ञान आये और देखे कि एक शक्तिसाधक के ऊर्जात्मक आभामण्डल का क्या प्रभाव होता है? अगर उसके अन्दर रोम-रोम में सत्य है, रोम-रोम में परोपकार है, यदि मानवता की सेवा के लिए उसने अपने जीवन का सर्वस्व समर्पित किया है, अंशमात्र भी कोई भाग शेष नहीं बचा है, तो वे चेतनातरंगें किस प्रकार से कार्य करती हैं? अगर मैं स्वत: नशे-मांस से मुक्त चरित्रवान् जीवन जीता हूँ, तो समाज भी नशे-मांस से मुक्त चरित्रवान् जीवन जियेगा ही, यह सत्य का विधान है। मैं समाज को निर्देशन देने के पहले अपने जीवन को वैसा ढालता हूँ, स्वत: तपस्यारत रहता हूँ। रात्रि को ग्यारह बजे से पहले विश्राम नहीं और प्रात: ढाई बजे से लेकर पौने तीन बजे के बीच नित्यप्रति जगने की प्रक्रिया है। आज की नहीं, पच्चीस-तीस वर्षों की मेरी यात्रा को देख लो। एक दिन का कोई अन्तर नहीं डाल सकता। मैं कहीं पर भी हूँ, मेरे अपने निश्चित नियम हैं।

जिसके जीवन में नियम नहीं होते, जो अपने जीवन में कोई संकल्प नहीं लेता, जो अपने जीवन को परमसत्ता के नियमों से नहीं बांधता, वह पशु के समान कहा गया है। पक्षियों को भी देखो, वे ब्रह्ममुहूर्त में चहचहाने लगते हैं, जग जाते हैं। पशु-पक्षियों से भी कुछ सीखो, मगर मानव पशुओं से भी बदतर हो चुका है। ब्रह्ममुहूर्त कब हुआ, सूर्योदय कब का हो गया और उनके खर्राटे बज रहे हैं। सुबह के आठ बजे-नौ बजे-दस बजे तक जानवरों के समान, बल्कि उनसे भी बदतर जीवन जीते हुए पड़े सोते रहते हैं। यही तो राक्षसी प्रवृत्ति है। राक्षसी प्रवृत्ति कहते किसको हैं? तुम्हें कहां से ज्ञान प्राप्त करना है? देवी-देवताओं के मन्दिरों में सिर झुकाकर तुम क्या पाना चाहते हो? तुम मानव हो, पहले मानवता के पथ पर आकर खड़े तो हो जाओ। वेदों, शास्त्रों, उपनिषदों का तुम क्यों न कितना ही ज्ञान प्राप्त करलो, मगर तुम्हारे कदम यदि मानवता के पथ पर नहीं चल रहे हैं, तो सबकुछ बेकार है। छोटी-छोटी कडिय़ां, जो तुम्हारे स्वरूप व स्वभाव में होनी चाहिएं, कार्यों में परिणित होनी चाहिएं और जब तक तुम उनमें परिवर्तन नहीं करोगे, तो सबकुछ बेकार है। 

 भगवती मानव कल्याण संगठन का गठन इसीलिए किया गया है, मैंने तीनों धाराओं का गठन इसीलिए किया है कि हमें एक क्षेत्र से नहीं, अनेकों क्षेत्रों से धर्मयुद्ध लड़ना पड़ेगा। प्रथम अपने आपके ऊपर, अपने आपके द्वारा अपने आपसे लड़ना पड़ेगा कि हमारे ऊपर अनीति-अन्याय-अधर्म की एक भी विचारधारा स्थापित न होने पाये। हमारा शरीर नष्ट हो जाये, तो नष्ट हो जाये, मगर हम किसी अनीति-अन्याय-अधर्म से समझौता नहीं करेंगे। सच्चा धर्मयोद्धा वही होता है, जो पहला युद्ध अपने आपसे लड़ता है। शरीर तो नाशवान है ही, लेकिन हमारी आत्मा नाशवान नहीं है, हम उसका जीवन जीते हैं और हम उस पर दाग नहीं लगने देंगे। हमारा सर्वस्व नष्ट होजाये, मगर उस पर दाग नहीं लगने देंगे। हमारा यह संकल्प होना चाहिए और हम वैसे ही धर्मयोद्धा बनें।

दूसरा पथ, जो आज समाज में अनीति-अन्याय-अधर्म फैला है। मैं जिस पथ पर हूँ, उसी पथ को सबसे बड़ा दोषी मानता हूँ कि आज समाज का सबसे बड़ा शोषण धर्मगुरुओं के द्वारा हो रहा है। सबसे ज़्यादा अगर पतन हुआ है, तो धर्मगुरुओं का हुआ है। सबसे ज़्यादा पतन हुआ है, तो कथावाचकों का हुआ है। उनका जीवन आम भक्तों के समान भी नहीं है। आम भक्त तो अपने घर में थोड़ी देर पूजा-पाठ करता है, सच्चे मन से आरती करता है, ‘माँ’ के दर में उपस्थित होकर सच्चे मन से हाथ जोड़ता है। भले ही वह ऐसा कामनाओं को ले करके करता हो, मगर कथावाचकों का जीवन, अरे उनके नज़दीक जा करके तो देखो। मैंने तो ध्यान चिंतन के माध्यम से समाज को गहराई से पकड़ा है। उन कथावाचकों का जीवन आपसे भी गिरा और घटिया स्तर का है। अगर सभी कथावाचकों का आकलन कर लिया जाये, तो सौ में निन्यानवे प्रतिशत कथावाचक चरित्रहीन मिलेंगे।

कथावाचक स्वत: भयग्रस्त हैं, उनके हाथों में देखो। कथावाचक आपको तो बड़ी-बड़ी कथायें सुनायेंगे कि भागवत पर विश्वास करो, भागवत ऐसी है, कृष्ण ऐसा कर सकते हैं, राम ऐसा कर सकते हैं, मगर अधर्मियों तुमने कभी विश्वास हासिल किया? अगर विश्वास है, तो तुम्हारे हाथों की अंगुलियों में वे रत्न और अंगूठियां क्यों होती हैं? उन्हें भी भय है, उन्हें अपने इष्ट पर विश्वास नहीं है, उन्होंने अपने हृदय में राम को, कृष्ण को धारण नहीं किया। यदि उन्होंने राम-कृष्ण को अपने हृदय में धारण किया होता, तो उन्हें रत्न और अंगूठियां धारण करने की आवश्यकता न पड़ती। हज़ार में नौ सौ निन्यानवे कथावाचक ऐसे मिलेंगे, जो कोई न कोई यन्त्र, कोई न कोई नग अपने हाथों में डाले होंगे। किसलिए? इसलिए कि समाज को लूट सकें, समाज से और वैभव इकट्ठा कर सकें। उन्हें अपने इष्ट पर विश्वास नहीं कि हमने हृदय में अपने इष्ट को अगर धारण कर रखा है, तो हमारे लिए ये रत्न, ये अंगूठियां मिट्टी के समान हैं, धूल के समान हैं। चूंकि रत्नों की रचयिता यदि हमारे हृदय में हैं, तो सभी रत्न हमारे वशीभूत होते हैं। हम उन तरंगों को अपनी आत्मशक्ति की चेतनातरंगों के बल पर कब किस ग्रह की ऊर्जा की हमें आवश्यकता है, हम उस ग्रह की ऊर्जा को आकर्षित कर सकते हैं और यही होता है तपबल। समाज को यह समझना होगा।

आज अगर कह दिया जाये, तो बड़े-बड़े मठों में बैठे हुए मठाधीशों में से किसी के पास समाधि का ज्ञान नहीं है, किसी ने अपने सूक्ष्मशरीर को जाग्रत् नहीं किया और वास्तविकता में जब धर्म का यह स्वरूप होगा, तो समाज को दिशा कैसे मिलेगी? समाज का पतन सुनिश्चित है, चूंकि जब वे स्वत: जाग्रत् नहीं हैं, तो वे फिर समाज को जाग्रत् नहीं कर सकते और उससे भी बड़ा अपराध यह है कि तुमने अपने आपको जाग्रत् नहीं किया और समाज को जाग्रत् करने का दावा करते हो, अपने आपको परमहंस कहते हो, अपने आपको योगीराज कहते हो, तो तुमसे बड़ा अपराधी और कौन हो सकता है? तुम व्यासपीठ पर बैठ करके, गुरुपद पर बैठ करके असत्य की वाणी बोलते हो और जो असत्य वाणी बोलता हो, उसके पास क्या पात्रता होगी? वह समाज को क्या दे सकेगा? इसीलिए मेरे द्वारा कभी किसी गर्व और घमण्ड में नहीं, बल्कि मानवता की रक्षा के लिए, अपने धर्म की रक्षा के लिए पूरे विश्वअध्यात्मजगत् को आध्यात्मिक तपबल की चुनौती दी गई है और यह चुनौती पिछले कई वर्षों से सतत देता चला आ रहा हूँ।

मैं एक सामान्य सा जीवन जीता हूँ। किसान परिवार में मेरा जन्म हुआ है। मैं सादगी का जीवन जीता हूँ, सरलता का जीवन जीता हूँ और ‘माँ’ की आराधना करता हूँ। ‘माँ’ ही मेरी इष्ट हैं, मेरा सर्वस्व हैं और उन्हीं ‘माँ’ की कृपा और ऊर्जा के फलस्वरूप कहता हूँ कि विश्व में एक भी ऐसा साधक, योगी नहीं है, जो मेरी साधनात्मक क्षमता को झुका सके। आज विज्ञान में वह पात्रता है कि परीक्षण किया जा सकता है कि कौन सत्य बोल रहा है और कौन झूठ बोल रहा है? इसका आकलन मशीनें कर सकती हैं और इसीलिए मैंने कहा है कि चमत्कारों के लिए नहीं, मगर धर्मरक्षा के लिए एक बार हमारे शंकराचार्यों को चाहिए, एक बार हमारे धर्मप्रमुखों को चाहिए कि एक बार ऐसी एक जगह पर उन लोगों को इकट्ठा करें, जो अपने आपको परमहंस कहते हों, जो अपने आपको पूर्ण कहते हों और उनका एक बार परीक्षण होजाये। यह परीक्षण होजाये कि किसके पास वे क्षमतायें हैं और किसके पास नहीं हैं? मानवता का उद्धार अपने आप हो जायेगा। बुद्धिजीवीवर्ग के कुछ लोग इकट्ठे हों, मीडिया इकट्ठा हो और एक खुला आयोजन हो। उसमें लोगों को कार्य दिये जायें, लोगों की वाक्शक्ति की क्षमता देखी जाये! वे एक स्थान पर बैठकर दूसरे स्थान की जानकारी बताने की क्षमता रखते हैं या नहीं? अपने स्पर्श के माध्यम से असाध्य से असाध्य बीमारी को ठीक करने की पात्रता रखते हैं या नहीं? यह शक्ति किसी के पास है या नहीं, या फिर धर्म में ही सबकुछ खोखला चल रहा है? और, मैंने कहा है कि यदि कोई मेरी साधनात्मक क्षमता को झुका देगा, तो मैं अपना सिर काटकर उसके चरणों में चढ़ा दूंगा।

कोई गर्व नहीं, कोई अभिमान नहीं, बल्कि सत्य के साथ, दृढ़ प्रतिज्ञा के  साथ कहता हूँ कि हाँ, मैंने अपने सूक्ष्मशरीर को जाग्रत् किया है, मैंने अपनी कुण्डलिनीचेतना को जाग्रत् किया है और मेरे लिए कोई भी कार्य असम्भव नहीं है। मैंने अपनी इष्ट माता आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा के दर्शन प्राप्त किए हैं और जब चाहूँ, जहाँ चाहूँ, वहां पर उस माता की कृपा से दर्शन प्राप्त कर सकता हूँ। मुझे किसी रत्न, अगूंठियों की ज़रूरत नहीं है। मेरे पास सभी ग्रंथों का मूल सार उस ‘माँ’ शब्द में समाहित है। विचार करने की आवश्यकता है कि ये खोखले कथावाचक और खोखले धर्मगुरु, आज पूरे समाज को लूट रहे हैं, उससे छल कर रहे हैं, उसे भटका रहे हैं। हमें उस दिशा में भी युद्ध छेडऩा पड़ेगा और युद्ध का तात्पर्य अस्त्र-शस्त्र लेकर नहीं, बल्कि हमारे पास आत्मबल है, हमारी चेतनातरंगों का साथ है कि बिना किसी अस्त्र-शस्त्र के हम अपने आत्मबल के माध्यम से अनीति-अन्याय-अधर्म को पराजित करके रहेंगे।

हमें अपनी आत्मचेतना को जगाना है, मानवता की सोई हुई चेतना को जगाना है और उन्हें संकल्पवान् बना करके, पुरुषार्थी बना करके कर्मपथ की ओर आगे बढ़ा देना है। अगर समाज पुरुषार्थी बन गया, तो वह अपने कर्म से इतना ज़रूर उपार्जित कर लेगा कि उसे रोटी-कपड़ा और मकान की व्यवस्था निश्चित मिल जायेगी। मैं भी समाज के बीच शिविर करने आता हूँ और इसलिए पहले दिन शुरु में ही विचारधारा व्यक्त कर देता हूँ कि अगर कोई भ्रम ले करके बैठेगा, तो मेरी चेतनातरंगों का लाभ भी प्राप्त नहीं कर सकेगा। मैं भी शिविरों में आता हूँ, एक दिन पहले उपस्थित होता हूँ और केवल एक कक्ष में बन्द हो करके रह जाता हूँ। न मैं शहर के किसी उद्योगपति को एक सेकण्ड का समय देता हूँ और न किसी राजनेता को एक सेकण्ड का समय देता हूँ, वह चाहे करोड़ों की सम्पत्ति क्यों न देने के लिए तैयार बैठा हो। मैं किसी के भी दरवाजे पर नहीं जाता हूँ। केवल दो-चार कार्यकर्ता, जो व्यवस्था देख रहे होते हैं, उन्हें केवल निर्देशन लेने के लिए मेरे पास आना पड़ता है। मैं अधिकांश अपना समय ध्यान, चिंतन और एकांत साधना में देता हूँ कि जिस समाज के कल्याण के लिए मैं आया हूँ, तो मैं जितना शान्त रहूंगा, जितना एकांत रहूंगा, उतनी ऊर्जातरंगों के माध्यम से ‘माँ’ के चरणों पर निवेदन करके उनके आत्मकल्याण का मार्ग प्रशस्त कर सकूंगा, उनके कुविचारों को, उनके अवगुणों को दूर भगा सकूंगा।

मैं जब मंच पर आता हूँ, तो मुझे किसी समाज के स्वागत की आवश्यकता नहीं होती। मेरे लिए सभी प्रिय हैं। मैं अपने विचारों में प्रवेश करने के पहले सभी को अपने हृदय में धारण करता हूँ। सभी का स्थान मेरे हृदय पर है, मगर किसी से माल्यार्पण कराऊं कि ये उद्योगपति हैं, ये राजनेता हैं, ये मंत्री जी हैं, तो मैं इन परम्पराओं से कोसों दूर रहा हूँ और जीवन की अन्तिम सांस तक रहूंगा। उनकी भावनाएं ही मेरे लिए पर्याप्त हैं। रह गई पूजन की बात, तो चरणों के पूजन के लिए भी मैंने जिन तीनों शक्तिसाधिकाओं को, जो मेरी तीनों पुत्रियां हैं, पूजा, संध्या, ज्योति, जिनको मैंने पात्र बनाया है, जिनको मैंने बचपन से एक-एक क्षण सतमार्ग पर बढ़ाया है, शिविरों में उन्हें ही चरणपूजन करने का अवसर देता हूँ। वे तीनों बच्चियां ही मेरा चरणपूजन करती हैं। वे मेरी अपनी बच्चियां हैं और केवल इसीलिए उनसे चरणपूजन कराता हूँ कि समाज की भावनाओं को आघात न पहुंचे। जबकि, अधिकांश मंचों में यही होता है कि भावना लिए हुए एक से एक लोग नीचे बैठे रहते हैं, वहीं कोई कितना बड़ा शराबी क्यों न हो, माला लिए चला आता है और गुरुजी को माला डाल रहा है। जूता पहले चला आ रहा है, पान खाये चला आ रहा है और स्वागत कर रहा है, इसीलिए कि उनका कोई कार्य कर रहा होगा या तो उनको दान दे रहा होगा!

मुझे किसी के ऐसे सहयोग की ज़रूरत नहीं है और दानियों के लिए हर मंच से कहता हूँ कि यदि तुम्हारी हज़ार बार की गर्ज हो, तो तुम बढ़ करके आना और मेरे जनकल्याणकारी कार्यों में सहयोग करना, अन्यथा तुम्हारे जैसे दानियों को मैं पैर से ठोकर मारता हूँ। भावना एवं संस्कारों से समर्पित किए हुए एक रुपए को भी हृदय से स्वीकार करता हूँ और वहीं अहंकार से दिये हुए करोड़ों-अरबों की सम्पत्ति को पैर से ठोकर मारता हूँ, चंूकि मुझे किसी चीज की आवश्यकता नहीं है। मैं अपना जीवकोपार्जन, अपने बच्चों का जीवकोपार्जन अपने कर्म से उपार्जित धन के माध्यम से करता हूँ, समाज के दिये हुए किसी पैसे से नहीं करता हूँ। प्रारम्भ से स्वत: ऐसा जीवन जीता रहा हूँ और अपनी पुत्रियों को भी वह जीवन दिया है कि तुम समाज पर कभी आश्रित होकर नहीं, बल्कि समाज के लिए कुछ कर सको, ऐसी पुरुषार्थी बनना।

तुम सच्चे समाजसेवक तभी कहलाओगे, जब समाज के दिये हुए पैसे से अपना जीवकोपार्जन नहीं करोगे। जिस तरह मैं समाज को कहता हूँ कि सत्यपथ की ओर बढ़ो, तो उसी तरह मैंने अपने बच्चों को ढाला है, अपनी तीनों बच्चियों को उसी दिशा में ढाला है। आज समाज पुत्रों की कामना करता है, वहीं मैंने माता आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा के चरणों पर प्रार्थना की थी कि यदि मुझे गृहस्थ का जीवन जीना ही है, तो मेरे परिवार में केवल बच्चियां ही जन्म लें, मुझे पुत्रों की आवश्यकता नहीं है। यही सत्य का जीवन है, चूंकि जिसे तुम भोगविलास मानते हो, वह सत्य का जीवन नहीं है, बल्कि पतन का जीवन है। हमारे कर्म जिस क्षेत्र से जुड़े हुए हों, उनको पूर्ण करने के बाद केवल अपने सत्यपथ की ओर बढ़ते रहो। आपका गुरु संकल्पित ब्रह्मचर्य व्रत का पालन सपत्नीक करता है और समाज को भी वही दिशा देता है। मैं नहीं कहता हूँ कि तुम ब्रह्मचारी बन जाओ, मगर कम से कम हर मंच से यह संकल्प अवश्य कराता हूँ कि तुम एक संकल्प दृढ़ता से ले लो, जिसे जीवन की अंतिम सांस तक न तोड़ो। तुम कल तक कैसा जीवन जीते थे, कल तक तुम चरित्रहीन थे, सैकड़ों गलतियां कीं, सैकड़ों अपराध किये, लेकिन जब मेरे शिविर में उपस्थित होजाओ, मेरे शिष्य बन जाओ और यदि मेरे मार्ग में तुम्हें बढ़ना हो, तो कम से कम एक बात का संकल्प ले लो कि तुम नशे-मांस से मुक्त चरित्रवान् जीवन जियोगे, एकपत्नी/एकपतिव्रत धारण करोगे। शादी के पहले कोई भी परिस्थिति आ जाये, तुम्हारा किसी के प्रति कैसा भी लगाव क्यों न हो, मगर शारीरिक चरित्रहीनता का कदम बढ़ा देना सबसे बड़ा अपराध होगा।

हमारा धर्म क्या है? हम जिस इष्ट की आराधना करते हैं, यदि हम उस ‘माँ’ की पवित्रता, दिव्यता, ममता, दया, करुणा पाना चाहते हैं, तो ‘माँ’ हमसे क्या चाहती हैं? ‘माँ’ हमें कैसा बनाना चाहती हैं? ‘माँ’ हमें कैसा चलाना चाहती हैं, तो हम उस दिशा पर बढ़ चलें। यही सच्चा धर्म है, यही हमारी सच्ची भक्ति है। भक्ति का तात्पर्य केवल सुबह-शाम का पूजन नहीं है कि हमने सुबह-शाम पूजन कर लिया, फुरसत हो गये। हर क्षण रत रहो। सुबह-शाम पूजन करने का जो सौभाग्य प्राप्त होता है, अच्छी बात है, इससे बड़ी परमसत्ता की और दूसरी कृपा नहीं हो सकती, मगर चौबीस घंटे साधक का जीवन जियो। एक भी कुविचार मन के अन्दर आये, तो तुरन्त सजग होजाओ कि यह कुविचार मेरा शत्रु है। मुझे सच्चा धर्मयोद्धा बनना है, इसलिए इस कुविचार को दूर भगा देना है और जिस क्षण उस कुविचार को दूर भगा दोगे, सत्य की बातें सोचने लगोगे, तो जान लेना कि एक शत्रु को तुमने पराजित कर दिया। हर क्षण बुद्धि आपको सजग करती है, उस बुद्धि की अन्तर्मन की आवाज़ सुनो। कभी भी मन के अन्दर कुसंस्कार के भाव आ जायें, विषय-विकार के भाव आ जायें, लोभ-लालच के भाव आ जायें और उस अन्तर्आत्मा की ज़रा भी अगर आवाज़ सुनाई दे, तो उस अपनी आवाज़ को मानना, उसे अपनी आत्मा की आवाज़ मानना, उसे अपने गुरु की आवाज़ मानना, उसे उस परमसत्ता की आवाज़ मानना।  तुम यदि परमसत्ता के सच्चे भक्त हो, गुरु के सच्चे भक्त बनना चाहते हो, तो केवल और केवल उस आवाज़ को सुनना, उस आवाज़ में अमल करना। वह आवाज़ तुम्हें आत्मबल देगी, वह आवाज़ तुम्हें कुसंस्कारों के मार्ग पर जाने से रोक देगी। एक बार उन विचारों को पकडऩा सीखो।

अपनी छठी इन्द्रिय को जाग्रत् करो। सच्चे धर्म का अनुयायी बनना है, तो प्रतिपल सजगता का जीवन जियो। यदि नशे-मांस से मुक्त चरित्रवान् जीवन जियोगे, कुविचारों से अपने आपको अलग कर ले जाओगे, तो तुम सच्चे शक्तिसाधक बनोगे, सच्चे धर्मयोद्धा बनोगे, फिर वही विचारधारा तुम्हारी रगों में समाहित होने लगेगी और जब तुम्हारे परिवारों में बच्चों का जन्म होगा, तो बच्चे बीमार नहीं होंगे, बच्चे कुविचारी नहीं होंगे, अपितु वे बच्चे संस्कारवान् होंगे, चेतनावान् होंगे, वे अनीति-अन्याय-अधर्म के सामने घुटने टेकने वाले नहीं होंगे और वे अपने आत्मबल के साथ अपना सिर उठा करके चलेंगे। कम से कम अपने लिए नहीं, तो अपनी आगे आने वाली पीढ़ी के लिए सजग हो जाओ। क्या तुम चाहते हो कि तुम्हारे बच्चे सिर झुका करके जीवन जियें? आज जिस तरह अनीति-अन्याय-अधर्म के सामने तुम घुटने टेक रहे हो, क्या उसी तरह तुम्हारे बच्चे घुटने टेकें? हर माता-पिता चाहते हैं कि मेरा बच्चा सम्मान का जीवन जिये और यदि उन्होंने सम्मान का जीवन देना चाहते हो, तो अपने रोम-रोम में सत्य को धारण करो, धर्म को धारण करो, धन को धारण मत करो।

धन आवश्यक है, लेकिन इतना अधिक आवश्यक नहीं है, जितना तुम मान बैठे हो। निश्चित रूप से यदि एक आम व्यक्ति के लिए कह दिया जाये कि दो-तीन दिन के लिए उसका भोजन छूट जाये, तो उसका शरीर छूट जायेगा। तीन-चार दिन में ऐसा लगेगा कि जैसे वह बीमार हो गया है और यदि खाना नहीं खायेगा, तो वह मर जायेगा। मेडिकल साइंस भी मानती है कि यदि दस-पन्द्रह दिन तक किसी को खाना न दिया जाये, तो उसका जीवन समाप्त होजाता है, लेकिन आत्मबल में इतनी क्षमता है कि आप आजन्म निराहार रहना चाहो, तो निराहार रह लोगे, आपका शरीर नष्ट नहीं होगा। उन रास्तों को तय किया जा सकता है। आप लोगों के बीच ही दस-दस, पन्द्रह-पन्द्रह दिन लोग व्रत रह लेते हैं, लेकिन शरीर में कुछ फर्क नहीं पड़ता। अगर सत्य है, तो सबकुछ है।

सत्य की मूल चीज़ों को पकड़ो, उन छोटी-छोटी बातों को पकड़ो, जिनको तुम छोड़ते चले जा रहे हो। तुम एक दिन में दिव्य बनना चाहते हो, एक दिन में ‘माँ’ के दर्शन प्राप्त करना चाहते हो, एक दिन के अन्दर तुम अपनी सब सुख-सुविधायें जुटा लेना चाहते हो। अरे, उसके लिए कर्म तो करो। कर्म केवल पूजा-पाठ कर लेना ही नहीं है। सबसे पहला कर्म होता है, अपने आपको पात्र बनाना। परमसत्ता बहुत कुछ देना चाहेगी, मगर तुम कुपात्र हो, तो वह चाहकर भी नहीं दे सकेगी। स्वयं को पात्र बना लोगे और यदि मांगोगे भी नहीं, तो मिल जायेगा। ऋषियों-योगियों के समक्ष रिद्धियां-सिद्धियां दौड़ती हैं। उन्हें कुछ भी मांगने की आवश्यकता नहीं होती, वे सहायक बन जाती हैं, जिस पथ पर ऋषि-मुनि-योगी चलते हैं, उस पथ पर वे फूल बरसाती हुई जाती हैं। सुख-शान्ति-समृद्धि उनके चारों तरफ नाचती हुई नज़र आती है। आवश्यकता है कि सत्यपथ के राही बनो, जबकि आज तो तुम छोटी-छोटी चीज़ों के लिए भूखे हो, छोटी-छोटी चीज़ों के लिए प्यासे हो।

आपका गुरु कहता है कि अगर मुझे रेगिस्तान पर भी बिठा दिया जाये, तो मैं वहां भी लाखों-करोड़ों लोगों को भोजन करा सकता हूँ। बचपन से मैंने वही यात्रा तय की है। जब मैं सामान्य सा जीवन जीता था, तब भी साधक का जीवन जीता था। मेरे घर में कोई अतिथि आता था, तो बिना भोजन किए कभी नहीं जाता था और जब से मैंने आश्रम की स्थापना की है, तो एक नहीं चाहे जितने लोग आना चाहें, आज वहां नि:शुल्क आवास और नि:शुल्क भोजन की व्यवस्था सदैव दी जाती है। यह स्वभाव दिखाने के लिए नहीं होना चाहिए। आज तो आप लोगों के घर में कोई अतिथि आ जाये, तो टालते रहोगे कि कितनी जल्दी चला जाये! खाने का समय हो रहा है, कहीं हमें उसे खाने के लिए तो नहीं पूछना पड़ेगा? चाय भी पिलाना चाहोगे, तो पूछोगे! चाय बना दें क्या? चाय पियोगे क्या? क्योंकि वास्तविकता में तुम उसे चाय पिलाना ही नहीं चाहते, इसलिये ऐसे पूछते हो। पीने वाला बहुत ही बेशरम होगा, तभी कह देगा, बना लो, अन्यथा कह देगा, नहीं! नहीं! कोई ज़रूरत नहीं है। तुम वास्तव में यही सुनना चाहते हो। यही तो पतन है कि आप अतिथि का सत्कार भूल चुके हैं और अतिथि भी वैसे नहीं रह गये, मगर नहीं रह गये, तो इसका तात्पर्य है कि हम सुधारेंगे कहां से? हम अपने आपसे सुधारेंगे। आप अपने घर को अतिथिगृह बना लें। कोई भी आ रहा है और यदि नशे-मांस से मुक्त चरित्रवान् व्यक्ति आ रहा है, तो हमें स्वागत करने में आपत्ति नहीं होनी चाहिए और अगर गलत रास्ते का व्यक्ति है, तो उसे समझाकर सुधारने का मार्ग प्रशस्त करें।

आपको धर्म के क्षेत्र पर भी युद्ध लड़ना पड़ेगा और सबसे बड़ा युद्ध आपको लड़ना है उन राजनेताओं के विरुद्ध, जो अनीति-अन्याय-अधर्म में ग्रसित हैं। लड़ने का तात्पर्य होहल्ला मचाना नहीं, लड़ने का तात्पर्य बड़े-बड़े धरने-प्रदर्शन नहीं, बल्कि हमारी विचारशक्ति ही हमें उस बिन्दु पर विजय दिला देगी। भगवती मानव कल्याण संगठन पच्चीसों वर्षों से समाज के बीच कार्य कर रहा है, जिसका इतिहास गौरवान्वित करने वाला है। देश ही नहीं, विश्व के अन्दर एक भी ऐसा संगठन नहीं मिलेगा, जो यह दावा कर दे कि जिसके साथ करोड़ों लोगों का समूह हो और एक लाख शक्तिसाधक अपने गुरु की एक आवाज़ में चलने वाले हों, मगर आज तक भगवती मानव कल्याण संगठन किसी भी साम्प्रदायिकता के दंगे में न सम्मिलित हुआ होगा और न किसी जगह भी तोडफ़ोड़ की होगी। एक भी उदाहरण कोई नहीं दे सकता। हम नशामुक्त समाज का निर्माण कर रहे हैं, नशे-मांस के विरुद्ध समाज को जगा रहे हैं और आज हमारे लाखों शक्तिसाधक क्यों न हों, मगर आज तक किसी भी दुकान में जाकर तोडफ़ोड़ नहीं की! हम नशे के व्यवसाय को रोकना चाहते हैं, मगर हमने आज तक सरकार के दिये हुए किसी भी ठेके में जाकर विरोध प्रदर्शन नहीं किया। जहां नाजायज़ व्यवसाय चल रहे हैं, हमने वहीं पहल की है और सबको जगाया है। कहीं पर भी हमारे द्वारा विरोध प्रदर्शन नहीं किया गया, किसी भी शराब की दुकान में हमने तोडफ़ोड़ नहीं की। हमने समाज को संवारा है, हमने समाज को जगाया है। हम सरकार और कानून के विरुद्ध कभी नहीं खड़े हुए और चाहते भी हैं कि कभी न खड़ा होना पड़े। हम समाज को जगा करके सुधार करना चाहते हैं और जो गलत कर रहा है, उसे कानून के दायरे में लाते हैं।

 मध्यप्रदेश सरकार ने भी उतने अवैध शराब के प्रकरण एक साल के अन्दर न पकड़े होंगे, जितने भगवती मानव कल्याण संगठन ने पकड़े हैं और अवैध शराब सहित आरोपियों को कानून के हवाले किया है, मगर अब परेशानियां आने लगी हैं। हम एक को शराब से मुक्त कराते हैं, सरकार दस को शराबी बना देती है। हम नाजायज़ नशे के व्यवसाय को रोक सकते हैं, मगर यदि सरकार ही लग जाये कि नहीं, हमें तो सबको शराबी बनाना है, तो मार्ग क्या बचता है? या तो दूसरे संगठनों के जैसा मार्ग अपनाते, मगर हमने कभी वह भी नहीं किया! हमारा यह लक्ष्य ही नहीं है। हम संकल्पबद्ध हैं कि हम कभी भी वह रास्ता नहीं अपनायेंगे, जैसा कि आज यदि किसी के साथ सौ-दो सौ कार्यकर्ता खड़े होजाते हैं, हज़ार, पांच सौ का समूह हो जाता है, तो वे धरने-प्रदर्शन, सरकार के विरुद्ध प्रदर्शन आदि प्रारम्भ कर देते हैं। आज तक हमारे भगवती मानव कल्याण संगठन ने केवल धरातल में रह करके ही कार्य किया है और हम सदैव धरातल में ही बने रहना चाहते हैं। हम नीव के पत्थर बनना चाहते हैं और हम अपना सर्वस्व गवा करके भी इस मानवता को उच्च शिखर पर पहुंचाना चाहते हैं।

 पूरा देश नशे से ग्रसित है। इसमें कैसे सुधार आए? कैसे इसे संवारा जाए? एक तरफ हम समाज को नशे से मुक्त करायेंगे और दूसरी तरफ जो समाज के ठेकेदार हैं, जो शासन व्यवस्था पर बैठे हुए हैं, वे समाज में शराब का ज़हर फैलाना चाहते हैं। वे चाहे किसी प्रदेश की सरकारें हों, मैं किसी एक सरकार की बात नहीं करता। चूंकि ये परम्परा चली आ रही है कि अंग्रेज़ तो चले गये, मगर अंग्रेज़ों की मानसिकता से मुक्त नहीं हो पाये। अंग्रेज़ों ने जो नशे का व्यवसाय प्रारम्भ कर रखा था, सरकारें भी उन्हीं नीतियों पर चलती चली गईं। सरकारें बदलती गईं, शराब के ठेके बढ़ते गये। किसी सरकार ने इस दिशा में सोचा ही नहीं।

ज़रा तुम स्वयं बताओ कि अगर कोई माता-पिता अपने बच्चों को ज़हर पिलायें, तो क्या आप उन्हें सच्चे माता-पिता कहोगे? नहीं कहोगे न! उसी तरह अगर कोई राजा अपनी प्रजा को ज़हर पिलाये, तो उसे आप क्या कहोगे? क्या उसे सच्चा राजा कह सकते हो? जब नहीं कह सकते हो, तो निश्चित है कि हमें कहीं न कहीं से आवाज़ उठानी ही पड़ेगी, कहीं न कहीं उन राजसत्ताओं के कानों तक वह आवाज़ पहुंचानी ही पड़ेगी कि जिसके लिए तुम राजसत्ता में बैठे हो, जिन संस्कारों के फलस्वरूप तुम्हें उन पदों पर जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है, तो तुम्हारा कत्र्तव्य क्या है? धर्मगुरुओं का कत्र्तव्य है कि उस कत्र्तव्य का उन्हें पाठ पढ़ायें। उन्हें वह ज्ञान दें कि आप हज़ारों योजनाएं क्यों न चला लो, सबकुछ बेकार है। यदि तुम समाज को ज़हर पिलाते रहे, समाज को नशा पिलाते रहे, तो समाज का कभी भी कल्याण और समाज का कभी भी उद्धार हो ही नहीं सकता।

समाज में आज जितने भी प्रकार के अपराध हैं, उनमें से पचास प्रतिशत अपराध केवल नशे के व्यवसाय के कारण होते हैं। जितने आतंकवादी हमला करके लोगों को न मारते होंगे, उससे हज़ारों गुना ज़्यादा लोग नशे की वजह से मर रहे हैं। बीमारियों से जितने लोग मरते हैं, उससे ज़्यादा लोग नशे से मर रहे हैं। नशे से मनुष्य मानसिक रूप से, शारीरिक रूप से, बौद्धिक रूप से कमज़ोर होता चला जा रहा है, नाना प्रकार की बीमारियों से ग्रसित होता चला जा रहा है और पतन के मार्ग पर बढ़ता चला जा रहा है।

सभी कह रहे हैं कि बलात्कारियों को फांसी दे दो और मैं कह रहा हूँ कि बलात्कारियों को फांसी ही नहीं, फांसी से भी और कोई बड़ी सज़ा हो, तो दे दो, उनको बीच चौराहे में खड़ा करके उनके अंग-अंग पर कील ठोक दो, तब भी आप बलात्कार के मामलों को कम नहीं कर पाओगे और यदि आजमाना है, तो आजमाकर देख लो। हर चौराहे पर बलात्कारियों को ला-लाकरके खड़ा करो और समाज को दिखाओ कि देखो, बलात्कार करने वाले को हम किस तरह से कील ठोक रहे हैं और मौत भी दे रहे हैं, तो तड़पा-तड़पाकर मौत दे रहे है, मगर फिर भी समाज नहीं सुधरेगा। एक बलात्कारी को कीलें ठोकोगे, दस नये बलात्कारी तैयार होंगे। कितने बड़े-बड़े आन्दोलन हुए? निर्भयाकाण्ड हो या अन्य अनेक मामलों में देखो। समाज खड़ा हुआ और सबकुछ हुआ, लेकिन उन खड़े होने वालों से मैं पूछता हूँ कि जितने लोग तुम इस समाज के लिए खड़े हुए हो, आवाज़ उठाने के लिए खड़े हुए हो, तो अपनी गिरहबान में झांक करके देखना कि तुममें से कितने बलात्कारी खुद हैं, तुममें से कितने चरित्रहीन खुद हैं और क्यों हैं, क्योंकि समाज का पतन हो रहा है! जब तक पेड़ की जड़ों को खोखला होने से नहीं बचायेंगे, तब तक बाहर कोई भी ट्रीटमेंट करते रहो, कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। भले ही बड़ी से बड़ी सजायें उनके लिए बना दो।

आज अधिकांश अपराध नशे व इसके व्यवसाय की वजह से हो रहे हैं, भ्रष्टाचार की वजह से हो रहे हैं। लाखों-करोड़ों जिनके पास हैं, वे पैसे के मद में चूर हो करके अपराध कर रहे हैं और जिनके पास नहीं हैं, वे नशे-मांस से ग्रसित हैं। वे मानसिक रूप से इतने विकलांग हो चुके हैं कि विषय-विकारों को रोक ही नहीं पायेंगे, उनका पतन होगा ही और पतन का यही मूल कारण है। इस दिशा में सुधार के लिए सिर्फ एक मार्ग है कि राजनेता कुछ निर्णय लें। देश को अगर हम धर्मगुरु बनाना चाहते हैं, देश को अगर हम स्वच्छ-साफ बनाना चाहते हैं, तो हमें देश को सबसे पहले नशामुक्त बनाना होगा। इस दिशा में राजनेताओं को एक बार सोचना होगा। मुझे आज तक किसी समस्या ने विचलित नहीं किया, मगर जब इस बिन्दु पर सोचता हूँ, तो सिर चकराने लगता है कि आिखरकार राजनेताओं के पास कौन सा मस्तिष्क है? वे मानसिक रूप से कितना कमज़ोर हो चुके हैं? राजनेताओं के मस्तिष्क में यह विचार क्यों नहीं आता कि हम अपने समाज को नशे की दुकानें खोल-खोलकर नशा पिला रहे हैं? यह जानते हुए भी कि उन नशे की दुकानों से छोटे-छोटे बच्चे भी शराब की बोतलें ले-लेकर नशा कर रहे हैं। हर घर तबाह हो रहा है, हर घर बरबाद हो रहा है, बच्चे-बच्चियां बरबाद हो रहे हैं, उनकी युवावस्था बरबाद हो रही है, उनका पुरुषार्थ बरबाद हो रहा है, बच्चियों का मान-सम्मान चौराहों पर बिक रहा है।

एक घर में यदि एक व्यक्ति नशा करने लगता है, तो उस घर की दुर्दशा को जाकर देखो और समझो। मैं उन पीड़ाओं के बीच जीवन जीता हूँ, उन परिवारों से मिलता हूँ, उनकी व्यथाओं को सुनता हूँ। उन बच्चों के दर्द को सुनो, जो मेरे पास आकर मुझसे कहते हैं, ‘गुरुजी, हमारे पिताजी की शराब छुड़वा दो, हमारे पिताजी नशा करते हैं, हमारी माता जी नशा करती हैं, वे हमें गालियां देते हैं, हमें पढऩे के लिए फीस के पैसे नहीं देते। गुरुजी, मैं पढऩे में क्लास में सबसे अच्छा हूँ, मगर मेरे पास फीस की व्यवस्था नहीं है। पिताजी जितना वेतन पाते हैं, शराब में नष्ट कर देते हैं।’ कितना दुर्भाग्यपूर्ण है और मेरी समझ में नहीं आता कि यह दर्द भरी आवाज़ राजनेताओं के कानों तक क्यों नहीं पहुंचती? वे क्यों नहीं समझ पाते? और, कितनी बड़ी विडम्बना है कि अनेक योजनाएं घोषित की जायेंगी, कि हम समाज के लिए यह करेंगे, हम समाज के लिए वह करेंगे। अरे तुम कुछ मत करो, समाज असमर्थ नहीं है, समाज के अन्दर इतना पुरुषार्थ है कि वे अपने लिए रोटी, कपड़ा और मकान सब व्यवस्थायें कर सकते हैं। यदि कुछ कर सकते हो, तो समाज के ऊपर केवल एक अहसान कर दो कि देश के अन्दर चल रहे सभी नशे के ठेकों को, जो सरकार दे रही है, सरकार चला रही है, उन नशे के ठेकों को बन्द कर दो। अगर ये नशे के ठेके बन्द हो गये, तो समाज अपने आप सुधर जायेगा।

 भोपाल में मेरा आगमन भी इसी लक्ष्य को लेकर हुआ है कि हम शासन से आग्रह करेंगे और कल मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान जी का भी यहां आवाहन किया गया है और उन्होंने अपने आने की स्वीकृति दे दी है। हमारा कोई विरोध नहीं है और आप प्रदेश के मुख्यमंत्री हो, पूर्ण बहुमत की आपकी सरकार है, आप जो चाहो कर सकते हो। समाज की मांग केवल सुन लो कि समाज आपसे क्या चाहता है? सभी प्रदेशों में यह अभियान चल रहा है और हम विरोध कहीं नहीं करते, हम आगाह करते हैं, मांग करते हैं कि केवल नशामुक्ति का यह एक कार्य कर दो। बहुत अच्छा लगा, जब मुख्यमंत्री ने एक अभियान चलाया, ‘बेटी बचाओ अभियान’। मैंने कहा कि बहुत अच्छी सोच है, मगर यह सोच किस दिशा में जायेगी? जब तक नशे का कारोबार बन्द नहीं करते, तब तक बेटी बचाओ अभियान कभी सफल हो ही नहीं सकता। जब तक लड़के नशा करते रहेंगे, तो एक बेटी को अगर शराबी पति मिलेगा, तो आप किस बेटी का मान-सम्मान बचा पाओगे? चूँकि दोनों तो एक पहलू से जुड़े हैं। मैं कह रहा हूँ कि बेटियों की तरफ कुछ मत सोचो, बेटियों की तरफ सोचने की ज़रूरत ही नहीं है, वे तो शक्तिस्वरूपा हैं। वे अगर धरती पर आती हैं, तो अपने संस्कारों को लेकर आती हैं, लेकिन यदि सुधार सकते हो, तो पुरुषों को सुधार दो। सुधार सकते हो, तो युवाओं को सुधार दो। उन्हें नशामुक्त करा दो, तो ‘बेटी बचाओ अभियान’ सफल हो जायेगा।

हम समाज को किस तरफ से दिशा दे सकते हैं? और, रह गई राजस्व की बात, तो साल भर में 300 करोड़ के आसपास राजस्व आ जाता होगा! मैं सरकार से कहता हूँ कि एक-एक सम्भाग को लेकर प्रयास करो। मैं नहीं कहता कि एक दिन के अन्दर सब बंद कर दो। एक-एक सम्भाग की जिम्मेदारी देदो। तुम नशे के ठेके देते हो, मुझे नशामुक्ति का ठेका देदो और विश्वास करके देख लो। तुम राजस्व की प्राप्ति के लिए एक सम्भाग में जितने ठेके देते हो, उन ठेकों को बन्द कर दो और उतने ठेकों से सरकार की जितनी आय होती होगी, मैं उससे ज़्यादा राजस्व, उससे ज़्यादा आमदनी, उस सम्भाग के लोगों से सहर्ष दिलवाता जाऊंगा।

नशामुक्ति टैक्स लगा दो और मैं इस मंच से मध्यप्रदेश सरकार को वचन देता हूँ कि तुम मुझे एक-एक सम्भाग सौंप दो, भगवती मानव कल्याण संगठन के स्वयंसेवी कार्यकर्ताओं को सौंप दो और उस जि़ले के सभी नशे के व्यवसाय व ठेकों को बन्द कर दो, बस एक टैक्स का अधिकार देदो। जि़ले में केवल एक कार्यालय बना दो। ग्राम पंचायतों तक आपका नेटवर्क है। उतनी रसीदें लोग कटा लेंगे और गांव-गांव हर घर में जा-जा करके हमारे लाखों कार्यकर्ता अलख जगायेंगे, लोगों को सचेत करेंगे कि यह टैक्स नहीं, हमारे लिए वरदान है। मैं सरकार को वचन देता हूँ कि जितना राजस्व जिस सम्भाग से मिलता होगा, उससे सवाई राजस्व सरकार को दिला दूंगा।

मैं अपने लिए कुछ मांग सकूं या न मांग सकूं, मगर मानवता की रक्षा के लिए, नशे से समाज की मुक्ति के लिए अगर मुझे घर-घर जाकर उस टैक्स को मांगना पड़े, तो संकोच नहीं करूंगा और यदि सरकार चाहे, तो मैं पहले से पचहत्तर प्रतिशत लोगों के हस्ताक्षर करके दिला सकता हूँ। सौ प्रतिशत की स्वीकृति इसलिए नहीं देता हूँ, क्योंकि पच्चीस प्रतिशत ज़रूरत से ज़्यादा नशे-मांस, भ्रष्टाचार, बेईमानी में लिप्त हैं और उनसे अपेक्षा करना भी बेकार होगा। जिस तरह कुत्ते की पूंछ टेढ़ी होती है और उसे पुंगड़ी में भी डाल दो, दस साल भी पड़ी रहे, जब बाहर निकालोगे, टेढ़ी की टेढ़ी ही निकलेगी, तो उनसे अपेक्षा नहीं की जा सकती, मगर मैं पचहत्तर प्रतिशत समाज से अपेक्षा करता हूँ। पचहत्तर प्रतिशत समाज ही उससे सवाई पूर्ति कर देगा। समाज में वह क्षमता है और समाज चाहता है कि उसे सम्मान का जीवन जीने को मिले।

एक चौराहे पर अगर कोई एक शराबी खड़ा होता है, तो दस ईमानदार व्यक्ति सिर झुका करके निकल जाते हैं कि वह हमें कुछ कह न दे, कहीं हमें अपमानित न कर दे। लड़कियां, बच्चियाँ सिर झुका करके निकलती हैं। मैं वह दिन देखना चाहता हूँ कि बच्चियाँ अपना सिर उठा करके चलें, सीना तान करके चलें और अगर कोई अधर्मी-अन्यायी आँख उठाने की हिम्मत करे, तो वे उनकी आँखें निकालने की क्षमता रखें। मैं समाज में वह क्षमता भरना चाहता हूँ, वह चेतना भरना चाहता हूँ।

मेरा त्याग, मेरी तपस्या कभी निष्फल नहीं जायेगी। मैं विज्ञान को भी इसीलिए चुनौती देता हूँ कि आओ और परीक्षण करके देखो कि ध्यान की मेरी गहराई क्या है, ध्यान की मेरी चरमसीमायें क्या हैं, मेरी चेतना का आभामण्डल क्या है? यह प्रमाणित करने के लिए मैं हरपल तत्पर हूँ और इसीलिए मैंने एक आयोजन की बात कही है कि एक आयोजन हो, नहीं तो पूरी तरह समाज को ठगा जा रहा है, छला जा रहा है, लूटा जा रहा है। राजनेता कार्य कर रहे हैं, मगर आज राजनीति का जो स्वरूप है, वह किसी से छिपा हुआ नहीं है। मगर केवल विरोध करके नहीं, हमें रचनात्मक कार्यों में अपनी शक्ति-सामथ्र्य को लगाना है।

कल जब भोपाल शहर में मेरी यात्रा आ रही थी, तो यहां के भी शासन-प्रशासन को थोड़ा सा भय था कि कितने लोगों का समूह जुटा हुआ है, इतनी दूर तक पंक्तिबद्ध लोग लगे हुए हैं, गुरुजी आयेंगे, तो लोग एकदम से असन्तुलित हो जायेंगे और आगे जहां इस्लाम धर्म के लोगों की दुकानें लगी हुईं हैं, जहां मांस आदि का व्यवसाय करते हैं, तो वहां इनके कार्यकर्ता कहीं उपद्रव न मचा दें! मैं यहां के भी शासन-प्रशासन को कहना चाहता हूँ कि भगवती मानव कल्याण संगठन एक ऐसा संगठन है, जो सभी धर्मों का समान भाव से सम्मान करता है। आज तक धर्म के आधार पर हमारे संगठन ने कभी कोई विध्वंसक कदम नहीं उठाया और हमारे लिए हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, सभी एकसमान हैं। हम सभी के लिए एकसमान कार्य करते हैं। हम नशे के व्यवसाय पर रोक लगाने के लिए कार्य कर रहे हैं, हम मांसाहार से मुक्ति के लिए भी कार्य कर रहे हैं, मगर आज तक हमारे संगठन ने किसी एक भी शराब या मांस की दुकान में जाकर तोडफ़ोड़ नहीं की होगी और न भविष्य में कभी करेगा।

भगवती मानव कल्याण संगठन पूर्ण मर्यादित है, पूर्ण संतुलित है, पूर्ण अनुशासित है। जहां छोटी-मोटी कमियां हैं, मैं उन्हें हरपल सुधारता रहता हूँ और हरपल संगठन के कार्यकर्ताओं को मर्यादा का ही तो पाठ पढ़ाता हूँ कि तुम्हें एक ऐसा संगठन खड़ा करना है, जो आने वाली मानवता के लिए, आने वाले समाज के लिए उदाहरण हो। हमें मान-अपमान से ऊपर उठ करके मानवता की रक्षा के लिए कार्य करना है। हमें नीव का पत्थर बनना है और हम अपना सर्वस्व न्यौछावर करके भी अगर समाज को दिशा देने में सफल होजायें, तो यह हमारे जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि होगी, चूँकि हमें जो कुछ प्राप्त करना है, उस परमसत्ता से प्राप्त करना है। परमसत्ता से हमें चेतनाशक्ति प्राप्त करना है। हमारे हाथ जुडं़े, तो उस परमसत्ता के सामने जुड़ें। अत: वैसा जीवन जियो, परोपकारियों का जीवन जियो, पुरुषार्थियों का जीवन जियो, नशे-मांस से मुक्त चरित्रवान् जीवन जियो, तभी तुम चेतनावान् बन पाओगे।

आज इतना बड़ा समाज सहज भाव से क्यों अपने आप नशे-मांस से मुक्त होता चला जा रहा है? आप लोगों के द्वारा किया जाने वाला ऊर्जात्मक जयघोष, आप लोगों के द्वारा की जाने वाली नित्य की साधना, मेरी एकान्त की साधनायें, मेरे आश्रम में चल रहा पिछले अट्ठारह वर्षों से अखण्ड श्री दुर्गाचालीसा का पाठ, यह सब मानवता के कल्याण के लिए दिन-रात अनवरत चल रहे हैं। अखण्ड श्री दुर्गाचालीसा का पाठ समाज की समस्याओं के समाधान के लिए अनन्तकाल के लिए चल रहा है और उस ऊर्जा को दुनिया की कोई ताकत नकार नहीं पायेगी। उस दिव्यधाम से होने वाला जयघोष, आप लोगों के द्वारा सतत की जा रही माता आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा की आराधना और देश के कोने-कोने में नित्यप्रति, ऐसा कोई दिन नहीं जाता, जिस दिन हज़ारों-हज़ार स्थानों पर श्री दुर्गाचालीसा पाठ के अनुष्ठान या आरतीक्रम मेरे शिष्यों व स्वयंसेवी कार्यकर्ताओं के द्वारा न करवाये जाते हों। देश में ही नहीं, बल्कि दूसरे देशों में भी ये क्रम हो रहे हैं।

हमें अंशमात्र भी विचार नहीं करना है कि परिवर्तन आयेगा कि नहीं? यह सोचना ही नहीं है। सत्य है, सत्य हर काल में रहा है, वर्तमान में भी है और भविष्य में भी रहेगा। हम जिसे बदलना चाहें, हम उसे बदल करके रहेंगे, चूंकि हम पर परमसत्ता की कृपा है, हम सत्यपथ के राही हैं, हमने अपना रोम-रोम मानवता की सेवा के लिए समर्पित किया है। इसी को तो त्याग और तपस्या कहते हैं, मगर आज इसी त्याग-तपस्या में अच्छे-अच्छे धर्माचार्यों को नानी याद आ जाती है। उनसे कह दो कि एक घंटे, दो घंटे साधना में बैठ जाओ, तो झूमते नज़र आयेंगे, नींद में चले जायेंगे! उनसे कह दो कि एक घंटे अपनी मेरुदण्ड को सीधा करके बैठ जाओ, तो शायद गश खाकर गिर जायेंगे! अच्छे-अच्छे योगाचार्यों को देखो, सबसे ज़्यादा ढीला-ढाला, शिथिल शरीर उन्हीं का दिखता होगा, जबकि उनके आसपास बैठे लोग चैतन्य बैठते होंगे।

योग के नाम पर पूरे देश को लूट लिया गया और सरकारें मौन बैठी रहीं। टैक्स लगा-लगाकर लूटा गया, टिकट बेच-बेचकर लूटा गया, बैंकों से टिकट बेचे गये, पोस्टऑफिसों से टिकट बेचे गये और सरकारें आंख बंद करके बैठी रहीं। एक व्यक्ति नौकरी करता है और यदि दस-बीस हज़ार रुपये भी पाता है, तो उसे टैक्स देना पड़ता है। डॉक्टर हो, इंजीनियर हो, यदि वह थोड़ा सा भी वेतन पाता है, तो उसे भी टैक्स देना पड़ता है, मगर टिकट बेच-बेच करके, पैसा वसूल करके, योगपीठ के नाम पर पैसा ले करके आयुर्वेद पीठ तैयार कर दी गई, व्यवसायों के बड़े-बड़े संस्थान तैयार कर दिये गये और कहीं कोई जांच नहीं! सरकारों को सत्य की रक्षा करनी चाहिए और मैंने स्वत: कहा है कि सरकारें कुछ सही दिशा में कार्य कर भी रहीं हैं, लेकिन उन्हें और सही दिशा में ले जाने का कार्य समाज को करना है। हमारा कार्य रचनात्मक है और हमें अपना कार्य मानवता के बीच करते रहना है, समाज को जगाते रहना है, समाज में परिवर्तन डालते रहना है, समाज के युवाओं को तैयार करते रहना है।

आज का युवा आगे जा करके अच्छे पदों पर बैठेगा। कोई अच्छी नौकरी करेगा, कोई समाजसेवक बनेगा, कोई राजनीति के क्षेत्र में जायेगा, तो परिवर्तन निश्चित रूप से आयेगा। अगर आप अपने बच्चों को संकल्पवान् बना दोगे कि भ्रष्टाचार कभी न करना, नशे-मांस में कभी लिप्त न रहना, तो उसे कौन भ्रष्टाचारी बना सकता है? आज मज़बूरियाँ हो सकती हैं और मेरे द्वारा हर मंच से कहा जाता है कि रिश्वत देना तो आपकी मज़बूरी हो सकती है कि आपका काम अटका है, पैसा दिए बिना आपका काम नहीं हो रहा है, तो जहां तक हो सके कुछ क्षति उठाकर वहां से भी बचो, मगर फिर भी अगर वह आपकी मज़बूरी हो सकती है, तो माना जा सकता है। आपका बेटा बेरोज़गार है, नौकरी लगवाने के लिए पैसे की मांग आ रही है, आपके अन्दर थोड़ा लालच आ जाता है और आप कजऱ् में दबकर भी थोड़ा-बहुत देने का निर्णय कर लेते हो। मैं कहता हूँ कि उसका भी विरोध करो, मगर आज कुछ समय के लिए, जब तक भ्रष्टाचार जड़ से समाप्त नहीं होता, तो कुछ समय तक तो यह आपकी मज़बूरी हो सकती है, मगर यदि आज खुद पैसा ले रहे हो, तो यह आपकी मज़बूरी नहीं हो सकती। आप अपने बच्चों को सचेत करो कि वे चाहे कितनी भी अच्छी पोस्ट पर क्यों न हों, उन्हें यह समझाओ कि बेटा नमक-रोटी खा लेना, मगर भ्रष्टाचार का पैसा, अनीति-अन्याय-अधर्म का पैसा घर में मत आने देना। अनीति-अन्याय-अधर्म का पैसा घर में आयेगा, तो उसका दुष्परिणाम घर में अवश्य आयेगा।

प्रकृति का यही तो विधान है। धर्म और अधर्म का यही तो विधान है। मैं कर्म की बात छोड़ भी दूँ, यदि अधर्म का हम सोचते मात्र हैं, तो हमारे विचारों का भी अच्छा-बुरा प्रभाव पड़ता है। अगर हमारे मन में कुविचार भी आते हैं, तो उसका दुष्परिणाम हमारे जीवन के साथ जुड़ता है। अत: कम से कम तुम सजग हो जाओ कि यदि तुम ऐसी पोस्ट पर हो, ऐसी जगहों पर हो, तो भ्रष्टाचार करना बन्द कर दो। नमक-रोटी खा लेना श्रेष्ठ है। किसके लिए भ्रष्टाचार कर रहे हो? अपने लिए? कितना जीवन तो तुमने गुज़ार दिया, नौकरी पाते-पाते युवावस्था निकल जाती है और अगर तुम कहते हो कि अपने बच्चों के लिए कर रहे हो, तो क्या तुम अपने बच्चों को इतना कुसंस्कारी मानते हो, इतना असमर्थ मानते हो कि वे अपना पेट नहीं भर पायेंगे। अगर तुम्हारे बच्चे इतने असमर्थ हैं, तो तुम अरबों की सम्पत्ति क्यों न लाकर रख दो, वे उसे भी नष्ट कर डालेंगे और यदि तुम्हारे बच्चे चेतनावान् हैं, सामथ्र्यवान् हैं, तो दुनिया की कोई ताकत उनके विकास के पथ को रोक नहीं सकती, अत: वैसा जीवन जियो।

मैंने वैसा जीवन जिया है। मैंने अनीति-अन्याय-अधर्म से कभी समझौता नहीं किया और आपसे भी अपेक्षा करता हूँ कि कम से कम अपने बच्चों को भ्रष्टाचारी मत बनाओ, आप स्वत: भ्रष्टाचारी मत बनो। जिस दिन से आप भ्रष्टाचार का त्याग कर दोगे और आपके पास कोई व्यक्ति किसी काम के लिए आयेगा तथा आप उसका काम तत्काल कर दोगे, तो वह आपको सैकड़ों दुआयें देकर जायेगा। गरीबों की मदद करना शुरू कर दो। अमीर तो आपको पैसा देकर खरीद लेगा, मगर अमीर के करोड़ों रुपये वह कार्य नहीं करेंगे, जो एक गरीब तुम्हें दुआएं देकर जायेगा। वे दुआएं उस अमीर के उन करोड़ों रुपये से कहीं अधिक बलवान होंगी।

आज इसी तरह समाज में देखो कि बड़ी-बड़ी पार्टियां दी जाती हैं और आप हर रोज़ टीवी न्यूज़ में देखते होंगे कि आज इतने लड़के-लड़कियां पकड़े गए, नशे की पार्टी में लाखों-करोड़ों रुपये ज़ब्त किये गये। ये किन घरों के रईसज़ादे हैं? ये उन घरों के हैं, जिन्होंने उन्हें संस्कार नहीं दिये। क्या तुम भी यही चाहते हो? क्या ऐसे धनवान बनना चाहते हो कि तुम्हारे बच्चे कुसंस्कारी बन जायें, तुम्हारे बच्चे व्यभिचारी बन जायें, तुम्हारे बच्चे किसी की बहन-बेटियों को छेड़ें? तुम ऐसा कभी नहीं चाहोगे और अगर नहीं चाहोगे, तो अपने बच्चों को संस्कारवान् बनाओ। आपके बच्चे जब बड़े होने लगें, तो उनके साथ मित्रवत व्यवहार करो। उन्हें बैठा करके समझाओ कि किसमें उनका हित है, किसमें अहित है, उन्हें क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए?

हमें धर्म की पूंजी इकट्ठी करनी चाहिए, हमें सत्कर्मों की पूंजी इकट्ठी करनी चाहिए, हमें सद्विचारों की पूंजी इकट्ठी करनी चाहिए और अगर वह पूंजी हमारे पास है, तो चाहे हमारा सबकुछ छिन जाये, लेकिन यदि सत्य हमारे साथ है, यदि हमारा धर्म हमारे साथ है, यदि हमारी इष्ट हमारे साथ हैं, यदि हमारा गुरु हमारे साथ है, तो हमें सबकुछ प्राप्त हो जायेगा। वैसा जीवन जियो। असमर्थ, असहायों का जीवन न जियो। यही तो धर्म का पाठ है, यही तो सत्य का पाठ है, यही तो रामायण चाह रही है, यही तो गीता चाह रही है, यही तो वेद हमसे चाह रहे हैं।

हम वेदपाठी बन जायें, वेद यह हमसे कभी नहीं चाहते, रामायण के पाठी बन जायें, रामायण यह हमसे कभी नहीं चाहती, गीता के वक्ता बन जायें, गीता यह हमसे कभी नहीं चाहती। ये सब हमें जिस पथ पर बढ़ाना चाहते हैं, हम उस पथ के राही बन जायें, हम उस लक्ष्य की ओर बढ़ना शुरू कर दें, जिस लक्ष्य की ओर ये सभी हमको ले जाना चाहते हैं, तभी हम राम के सच्चे भक्त होंगे, तभी हम कृष्ण के सच्चे भक्त होंगे, तभी हम शिव के सच्चे भक्त होंगे, अन्यथा सब ढोंग है, सब पाखण्ड है। कुछ भी करते रहो, सब निष्फल जायेगा। किसी रेगिस्तान में हम फसल बो रहे हैं, किन्तु उस ज़मीन को तैयार नहीं कर रहे हैं, बंजर ज़मीन पर बीज फेंक रहे हैं और कह दें कि फसल तैयार हो जायेगी, तो सिर्फ निराशा ही हाथ लगेगी!

आज महाशिवरात्रि का दिन है और मैं इस महाशिवरात्रि के दिन पर भी यहां उपस्थित होने वाले अपने समस्त भक्तों-शिष्यों को, माता जगदम्बे के भक्तों को आशीर्वाद प्रदान करता हूँ। जो लाभ शिव के दर्शन करने से तुम्हें प्राप्त होगा, शिव के मंदिर में जाकर तुम्हें प्राप्त होता, वह लाभ इस शिविर पण्डाल पर बैठकर आपको प्राप्त हो रहा है। आज तो शिवभक्तों का पूरा समूह ही भटका हुआ है। शिव के नाम पर नशे का व्यवसाय चल रहा है, शिव के नाम पर भांग और धतूरा चढ़ाया जा रहा है, शिव के नाम पर लोगों को भंगेड़ी बनाया जा रहा है! भांग चढ़ायेंगे, भांग पियेंगे और अपने आपको सबसे बड़ा शिवभक्त कहेंगे! अरे अधर्मियों, शिवभक्त कहलाने वाले ढोंगियों और पाखण्डियों! क्या तुमने कभी देखा है कि शिव ने कभी भांग या धतूरे का सेवन किया है?

शिव तो वह पवित्र देव हैं, जो पवित्रता के प्रतीक हैं, दिव्यता के प्रतीक हैं, चेतना के प्रतीक हैं। समाज में विष का प्रभाव न पड़े, इसलिए उस हलाहल को भी पीकर उसे केवल अपने कण्ठ तक ही स्थापित कर लिया, कण्ठ के नीचे हृदय तक भी नहीं जाने दिया, चूंकि हृदय में मानवता वास करती है और आज उन्हीं शिव की भक्ति के लिए उनके शिवभक्त गांजा चढ़ा रहे हैं, धतूरा चढ़ा रहे हैं, भांग चढ़ा रहे हैं! यह कैसी शिवभक्ति है? उन्हें भांग भेंट कर रहे हैं कि तुमने हलाहल पी लिया था, हम और भांग लेकर आ रहे हैं, हम और धतूरा लेकर आ रहे हैं, हम और विष लेकर आ रहे हैं! धिक्कार है ऐसे पुजारियों को, जो शिव के नाम पर गांजा, धतूरा, भांग चढ़वाते हैं और इसीलिए मैंने चुनौती दी है कि अगर इस धरती पर कोई भी शिवशक्तिसाधक हो, तो मेरी शक्तियों का सामना करे। मैं उन्हें चुनौती देता हूँ कि शिवभक्ति से तुमने यदि कुछ हासिल किया है, तो आओ। एक तरफ तुम बैठो और एक तरफ मैं बैठता हूँ। विज्ञान के पास मस्तिष्क परीक्षण करने की क्षमता है। चाहे ध्यान की गहराईयों को देख लिया जाये, चाहे तुम्हारी पात्रता को देख लिया जाए?

मैं उन समस्त शिवभक्तों को कहता हूँ कि वे समस्त शिवभक्त एक पलड़े पर खड़े होजायें और मैं ‘माँ’ शब्द की भक्ति को लेकर बैठूंगा तथा दो कार्य समाज के बीच दे दिये जायें। चाहे किसी असाध्य से असाध्य रोगी को लाकर खड़ा कर दिया जाये और देखा जाये कि वे सब शिवभक्त मिल करके उसे ठीक कर पाते हैं या नहीं और मैं उसे ठीक कर पाता हूँ या नहीं? समाज देखे। एक स्थान पर रह करके हज़ारों-करोड़ों मील दूर कहाँ पर क्या हो रहा है, इसकी जानकारी के लिए वे हज़ारों शिवभक्त एक तरफ बैठ जायें और मैं अकेला बैठूंगा। वे सही बता पाते हैं या ‘माँ’ का एक छोटा सा रजकण मैं बता पाता है? मैंने वह यात्रा तय की है और समाज के बीच 108 महाशक्तियज्ञों के आठ यज्ञ सम्पन्न करने तक ऐसा कोई क्षेत्र नहीं रहा, जिस क्षेत्र की मैंने जानकारी न दी हो।

शेष यज्ञों का संकल्प मूलध्वज में लेने के बाद वही ऊर्जा मानवता की सेवा में लगा रहा हूँ, चूँकि चमत्कार साधक का लक्ष्य नहीं रहता, मगर आज भी कहता हूँ कि धर्मरक्षा के लिए एक बार वे कहीं आयोजन करें, मैं जाने के लिए तैयार हूँ या मैं उनका पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम में आवाहन करता हूँ, वे वहां आयें। मैं ससम्मान सभी के रहने व भोजन की नि:शुल्क व्यवस्था कर दूंगा। वे जिन भक्तों को लेकर आयेंगे, उनकी भी व्यवस्था कर दूंगा। अत: धर्मरक्षा के लिए आएं, एक बार ऐसे मंच पर खड़ें हों। समाज देख तो सके कि जिन धर्मगुरुओं को हम अपना सर्वस्व न्यौछावर कर रहे हैं, उनके अन्दर की पात्रता क्या है? क्या हमारा धर्म आज उन्हीं ऋषि-मुनियों की परम्परा को कायम किए है कि नहीं? प्राचीनकाल में विश्वामित्र, वशिष्ठ, पुलस्त, कणाद जैसे ऋषि थे और क्या धर्मक्षेत्र उनसे नीचे के स्तर पर गिर चुका है? इसका परीक्षण होना चाहिए। समाज समझ सकेगा, समाज जान सकेगा और मैं स्वयं कहता हूँ कि अगर साधनात्मक क्षमता में कोई व्यक्ति मुझसे आगे खड़ा नज़र आ जायेगा, तो मैं पूरी जि़न्दगी उसकी गुलामी करूंगा और अगर वह कह देगा, तो अपना सिर काटकर उसके चरणों में चढ़ा दूंगा या वह जीवनपर्यन्त के लिए मुझे जो कार्य दे देगा, उसे मैं अपना सिर झुकाकर सर माथे रख लूंगा। मैं ज्ञान का सम्मान करता हूँ, ज्ञान का आराधक हूँ। सत्य का सम्मान करता हूँ और यदि पांच साल का बच्चा भी सत्य लेकर मुझसे आगे खड़ा होगा, तो मैं सिर झुकाकर उसको दण्डवत करने के लिए तैयार हूँ।

यदि बहुत बड़े समूह भी हों, बहुत बड़े मठाधीश भी हों और अगर वे समाज व मानवता को छल रहे होंगे, तो इस स्थान से योगीराज शक्तिपुत्र की चुनौती है कि मैं उनके रहस्यों को उजागर करके मानूंगा। एक आसाराम बापू नहीं, अनेकों बापू अभी समाज के बीच हैं, जिनका पर्दाफास सहज भाव से होता चला जायेगा। अनेकों इच्छाधारी हैं, अनेकों भूमानन्द हैं, उनकी पूरी लिस्ट है, जो समाज के अन्दर ढोंग और पाखण्ड का मार्ग प्रशस्त कर रहे हैं। कुछ को अलग-अलग प्रदेशों में राजनीतिक संरक्षण मिल रहा है, मगर वह संरक्षण ज़्यादा समय तक कार्य नहीं करेगा। सत्य का प्रवाह चल चुका है और अभी हरियाणा में भी लोगों ने संत रामपाल को देखा होगा। उसकी क्या गति थी और उसके क्या रहस्य निकले? इस तरह के अनेक रामपाल पड़े हुए हैं और भगवती मानव कल्याण संगठन को उन्हें भी खोज-खोज करके समाज के सामने उनके रहस्यों को रखना है।

आज समाज का पतन हर क्षेत्र से हो रहा है। हमें अपने आपको भी संवारना है और समाज को आगाह भी करना है। इस विचारधारा का मैं समर्थक नहीं हूँ कि बुराई को मत देखो, बुराई को मत सुनो और बुरा मत कहो। मैंने हमेशा कहा है और मैं गांधी जी के तीन बन्दरों का जो अर्थ जानता हूँ, उस अर्थ को स्वयं अमल करता हूँ तथा उसी अर्थ का ज्ञान आप सबको भी देता हूँ।

गांधी जी के तीन बन्दरों को आपने देखा होगा कि बुराई को मत देखो, आंख बन्द कर लो, बुराई मत सुनो, कान बन्द कर लो और बुरे को भी बुरा मत कहो, मुंह बन्द कर लो। मैं कहता हूँ कि अगर बन्दर हो, तब तो ऐसा कर लो, चूंकि गांधी जी ने भी यही संदेश दिया है और अगर गांधी जी ने इसके विपरीत संदेश दिया होता, तो इन्सानों को बैठा करके दिखाते, बन्दरों का स्वरूप नहीं दिखाते, तो अगर बन्दर हो या बन्दर की औलाद हो, तो बुराई सामने हो रही हो, तो आंखें बन्द कर लो, उसे मत देखो। बन्दर हो या बन्दर की औलाद हो, तो करुणक्रन्दन तुम्हें पुकार रहा हो, तो कान बन्द कर लो, उसे मत सुनो। अगर बन्दर हो या बन्दर की औलाद हो, तो मुह बन्द कर लो, बुराई के विरुद्ध आवाज़ मत उठाओ। किन्तु, यदि इन्सान हो, ऋषि-मुनियों की परम्परा के संवाहक हो, मानव हो, तो खुली आंखों से बुराई को देखो, खुले कानों से करुणक्रन्दन को सुनो और यदि परमसत्ता ने मुख दे रखा है, तो उसका पुरज़ोर विरोध करो, अगर हाथ दे रखे हैं, तो उसका पुरज़ोर विरोध करो।

अगर तुम बुराई को देखोगे नहीं, तो किसी की मदद क्या करोगे? बुरे को बुरा नहीं कहोगे, तो फिर आतंकवादियों को आने दो देश में, उनके विरुद्ध कुछ मत करो! कैसा पाठ, कैसा संदेश? एक व्यक्ति कहीं किसी बहन-बेटी की इज्जत लूट रहा हो, तो कह दो कि हम तो आंख बन्द कर लेंगे और हमें तो साधु-सन्त यही सिखाते हैं कि किसी की बुराई मत करो, दूसरे के अन्दर बुरा मत देखो, अपने अन्दर देखो! आप सबसे पहला पाठ यही पढ़ते हो कि अपने अन्दर की बुराई को देखो, मगर उस पहले पाठ को पढऩे के साथ ही हमारा दूसरा पाठ यही है कि बुरे को बुरा कहना सीखो। जो बुरे को बुरा नहीं कह सकता, वह इन्सान नहीं बन्दर है, बन्दर की औलाद है। जिस दिन तुम उस राह पर चल पड़ोगे, तो तुम्हारे एक-एक, दो-दो हाथ करोड़ों हाथ बन जायेंगे। आज किसी को मदद की ज़रूरत होती है, तो मदद के लिए दो हाथ नहीं मिलते हैं। अत: उस विचारधारा को लेकर चलो।

गांधी जी कहते थे कि तुम्हारे एक गाल में कोई तमाचा मार दे, तो दूसरा गाल उसकी ओर कर दो और इतना मैं भी मानता हूँ। एक बार मौका दे दो कि यदि एक बार तुम्हारे गाल में कोई तमाचा मार दे, तो तुम उसे समझा दो कि तुमने गलती की है, दुबारा गलती मत करना। एक बार हम माफ करते हैं, लेकिन यदि दुबारा हाथ उठाया, तो हाथ तोड़ देंगे। यह मेरा आदेश है कि फिर वह तुम्हारे तमाचा मारने के योग्य ही न बचे। अगर यह रास्ता तय नहीं करोगे, तो इस कलिकाल में तुम कभी आगे नहीं बढ़ पाओगे और बड़ा से बड़ा अपराध भी करके, तुम्हारे किसी सगे-सम्बन्धी की हत्या करने के बाद भी अगर वह प्रायश्चित करके माफी मांग ले, तो उसे निश्चित क्षमा कर देना, चूंकि यही हमारा धर्म है। हमारा इतिहास साक्षी है कि हमारे ऋषि-मुनियों ने, राजा-महाराजाओं ने अपने धर्म के पालन के लिए अपना राजपाट तक न्यौछावर कर दिया है और माफी मांगने वाले बड़े से बड़े शत्रु को भी माफ अवश्य किया है।

हमारा धर्म कहता है कि अगर कोई माफी मांगे, तो उसे माफ कर दो और अगर माफी मांगने का भाव उसके अन्दर नहीं है, तो उसका विरोध ज़रूर करो। प्रत्येक कार्य कानून के दायरे में रहकर करो और उस दिशा में आपको कार्य करना है। विचारों का जीवन जियो, चेतना का जीवन जियो, सामथ्र्य का जीवन जियो और विषय-विकारों से ऊपर उठ करके जीवन जियो। तभी तुम ‘माँ’ के चरणों पर जब दो मिनट बैठोगे, तो तुम्हारा मन एकाग्र होगा, तुम्हारा मन शान्त होगा। मैं विज्ञान को चुनौती देता हूँ कि आये और देखे, मैं चौबीस घंटे क्यों न व्यस्ततम जीवन जी रहा हूँ, लोगों को चिन्तन दे रहा हूँ, विचार दे रहा हूँ, चाहे जिस प्रवाह में दे रहा हूँ और वहीं एक क्षण लगता है, एक क्षण में मैं अपने मनमस्तिष्क को शान्त कर सकता हूँ, उस गहराई में डूब सकता हूँ। स्वयं के स्वरूप को जाग्रत् करो, स्वयं को जानो, स्वयं को पहचानो। यदि तुम स्वयं को जानने में सफल हो गये, तो कुछ भी जानना शेष नहीं रह जायेगा। तभी तुम सच्चे भक्त बन सकोगे, तभी ‘माँ’ के सच्चे भक्त कहलाओगे और नशे-मांस से मुक्त चरित्रवान् जीवन अपनाकर चेतनावान् बनोगे। 

यह तीन दिन के शिविर का कार्यक्रम है और कल के महत्त्वपूर्ण समय पर हम नशामुक्ति का महाशंखनाद करेंगे। दिल्ली, सागर के शिविरों में शंखनाद के पश्चात्  पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम में दो साल पहले आपने ‘युग परिवर्तन का महाशंखनाद’ किया। नशामुक्ति के लिए अपने पच्चीस साल हमने लगाये हैं। धरातल को मज़बूत करने के लिए, समाज के लाखों-लाख लोगों को बचाने के लिए हमने कार्य किया है और जो घातक से घातक नशे के शिकार थे, जो चल नहीं पाते थे, जब उनसे नशा छोड़ने की बात कही जाती थी और जब वे नशा छोड़ते थे, तो उनके शरीर में कम्पन आने लगता था, मुँह में झाग आने लगती थी, ऐसे लाखों-लाख लोगों को हमने नशामुक्त किया है। नशामुक्त करने के बाद, करोड़ों लोगों को दिशा देने के बाद हम कल ‘नशामुक्ति का महाशंखनाद’ करेंगे। एक ऐसा महाशंखनाद, जिसके साथ सत्य की ऊर्जा होगी और आपके शंखनादों के साथ मेरा भी शंखनाद जुड़ा हुआ होगा। शब्द जो गुंजायमान होंगे, वह शक्तिसाधकों का शंखनाद होगा, जिसकी ऊर्जा, जिसका स्वर समाज में सहजभाव से परिवर्तन डालता चला जायेगा। हमारी यात्रा उस बरसात के समान है कि तत्काल उतना पता चले या न चले, मगर आने वाले समय में पता चलता है कि जिस तरह किसी सूख रही फसल पर बरसात होती है, तो तुरन्त वह पौधा बड़ा नहीं होजाता, मगर वह बरसात तत्काल भी राहत देती है और जड़ों को भी सींच करके धीरे-धीरे उनको हराभरा करती चली जाती है। इसीलिए जहां पर भी मेरे शिविर होते हैं, उसके बाद वहां पर एक परिवर्तन चल पड़ता है। ‘माँ’ के भक्त, नशे-मांस से मुक्त चरित्रवान् बनने के लिए लोग बढ़-बढ़कर आश्रम में आकर नशे से मुक्त होते हैं।

विज्ञान को अगर सबसे बड़ा चमत्कार देखना है, तो पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम आकर देखे। मैं लोगों को कोई दवा नहीं देता। आज दवा देने वाले अनेक केन्द्र बने हुए हैं। बिना किसी दवा के मैं अपने सान्निध्य से, अपने विचारों से उनके जीवन में परिवर्तन लाता हूँ और अपने द्वारा तैयार किए गये शक्तिजल का उनको पान कराता हूँ। शक्तिजल का पान करने से किसी भी प्रकार के नशा करने वाले कितने ही बड़े नशेड़ी क्यों न हों, नब्बे प्रतिशत व्यक्ति निश्चित रूप से नशामुक्त होते हैं और दस प्रतिशत शेष व्यक्ति भी यदि दो-चार बार आश्रम आते हैं, तो नशामुक्त होजाते हैं। दो-चार दिन मेरे सान्निध्य में रह लें, तो निश्चित रूप से नशामुक्त होकर जाते है। सरकारें आकर देखें। आज अनेक नशामुक्ति केन्द्र बने हुए हैं, मगर सरकार की सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि एक तरफ नशे की दुकानें और दूसरी तरफ नशामुक्त अभियान! ऐसी व्यवस्था के बारे में सोचकर मेरा सिर चकराने लगता है। यदि कोई व्यक्ति तुम्हारे पास आये व तुम्हें चाकू मार दे और कह दे कि मुझसे मलहम लेकर लगा लो। क्या तुम उसके हाथ का मलहम लोगे? आज सरकारें वही कर रही हैं कि एक तरफ तुम्हें शराबी बना रहीं हैं और दूसरी तरफ शराबमुक्त अभियान के केन्द्र बनाये जा रहे हैं। हर साल नशामुक्ति की तरफ पचास-साठ लाख रुपये से ज़्यादा खर्च किया जा रहा है, मगर सब केवल रिकॉर्ड में हो रहा है। मैं गारण्टी देता हूँ तथा परीक्षण करने के लिए कोई भी संस्था आकर खड़ी हो कि मेरे द्वारा जितने लोगों को नशामुक्त किया गया है, भारतवर्ष के अन्दर एक भी ऐसा संस्था, एक भी ऐसा नशामुक्ति केन्द्र नहीं है, जिसने इतने कम समय में इतने लोगों को नशामुक्त कराया हो, अपराधों से मुक्त कराया हो, मांस से मुक्त कराया हो, चरित्रवान् बनाया हो। परीक्षण करके देखें। यह सब ‘माँ’ की कृपा से हो रहा है।

सत्य हर काल में जीवित रहता है, बस आवश्यकता है कि हम उस विचारधारा पर चलें। मैं भोपाल नगर के नगरवासियों का आवाहन करता हूँ कि यदि तुम्हारे घर में भी कोई नशा करता हो, तो एक बार उसे पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम में लेकर आओ और वहां पर ‘माँ’ के अखण्ड श्री दुर्गाचालीसा पाठ के समक्ष ले जाकर उसे बिठाओ, मेरे सम्मुख उसे लाओ, मैं नित्यप्रति सुबह-शाम मिलने का समय सभी के लिए देता हूँ, केवल माह में एक बार कृष्णपक्ष की अष्टमी के दिवस की प्रात:कालीन बेला को छोड़कर, चूंकि उस पूरे दिन मैं साधनारत रहता हूँ, लेकिन उस दिन भी सायंकाल मिलने का समय देता हूँ। जबकि, दिनभर की साधना के बाद मेरे पास ऐसी स्थिति नहीं रहती कि मैं समाज को मिलने का समय दे सकूँ, क्योंकि साधनात्मक क्रमों के कारण शरीर की स्थितियां कुछ दूसरी होती हैं, फिर भी उस दिन भी आने वाले हर भक्त से मैं मिलता हूँ, अत: नशे से ग्रस्त लोगों को वहां लायें। आपके परिवार के लोग किसी नशामुक्ति केन्द्र में जाकर नशामुक्त हुए हों या न हुए हों, किन्तु सिद्धाश्रम में आकर निश्चित रूप से नशामुक्त हो जायेंगे।

कल वह महाशंखनाद होगा और मैं चाहता हूँ कि कल जो भक्त गुरुदीक्षा प्राप्त करेंगे, वे भी मेरे शिष्य बन करके नशामुक्ति महाशंखनाद में सम्मिलित होने का सौभाग्य प्राप्त करें। कल गुरुदीक्षा का कार्यक्रम रहेगा और मैं सामूहिक शक्तिपात के माध्यम से, चेतनातरंगों के माध्यम से सभी अमीर-गरीब को एक साथ बिठाकर दीक्षा प्रदान करता हूँ। कोई भी हो, किसी भी जाति का हो, किसी भी धर्म का हो, मेरे लिए सभी एकसमान हैं। समय पर जो भक्त उपस्थित होजाते हैं, उन्हें दीक्षा प्रदान कर देता हूँ और इसके बाद अगर कोई करोड़ों रुपये भी देना चाहे, तो सम्भव नहीं है। अत: जब मेरे शिविर होते हैं, उन शिविरों में ही मेरे द्वारा दीक्षा दी जाती है, अन्यथा आश्रम में भी आओगे, लाखों देना चाहो, करोड़ों देना चाहो, दुनियाभर की सम्पत्ति डाल देना चाहो, तब भी तुम मुझसे दीक्षा चाहो, तो मैं बीच में किसी को दीक्षा नहीं देता।

मैं दान में सिर्फ तुम्हारे अवगुण मांगता हूँ कि जो कुछ तुम्हारे अवगुण हैं, वे अपने गुरु को समर्पित कर दो कि आजतक जो हमसे अपराध हुए, वे सब गुरु के चरणों पर समर्पित हैं और आज के बाद हम ऐसा कोई अपराध नहीं करेंगे। अगर आपने यह दृढ़ संकल्प ले लिया, तो मैं आपको वचन देता हूँ कि आजतक हुए उस तरह के सभी अपराधों से जो भी दण्ड परमसत्ता से आपको मिलने वाला होगा, उस समस्त दण्ड से आपको बचा लूंगा। यह मेरा आपसे वचन है, मेरा आशीर्वाद है और मेरे ये आशीर्वाद थोथले नहीं होते। मैंने समाज को प्रमाण दिये हैं। असाध्य से असाध्य रोगियों को अपने हाथों के स्पर्श से ठीक किया है, एक स्थान पर रहकर करोड़ों मील दूर की मैंने जानकारी दी है, अपाहिज से अपाहिज व्यक्ति के शरीर पर चेतना का संचार किया है। अनेक ऐसे साधु-संत-संन्यासी रहे हैं, जिनके अहंकार को मैंने चकनाचूर किया है। जब जिस तरह के मौसम में मैंने बरसात करानी चाही, तब बरसात कराई है, जब जिस तरह के मौसम में बरसात रोकनी चाही, तो मैंने कहकर वहां बरसात रोकी है तथा मैंने वे प्रमाण आठ महाशक्तियज्ञों के माध्यम से दिये हैं। वे प्रमाण समाज के पास रिकॉर्डेड हैं और इसी तरह के मंचों से हैं। मेडिकल डॉक्टरों के रिकॉर्ड पड़े हुए हैं, जिनको मैंने चुनौती देकर कहा था कि यह बीमार व्यक्ति बैठा है, अगर इसका इलाज मेडिकल साइंस कर देगा, तो उसके लिए जो खर्च होगा, मैं देने के लिए तैयार हूँ और वहीं दूसरी तरफ देखेंगे कि बिना किसी इलाज के, उस मरीज को बिना कुछ दिये हुए मैं अपने सान्निध्य में बिठाकर उसे ठीक करके भेजूंगा। उस तरह के मैंने कार्य किए हैं।

हरियाणा के इन्द्रपाल आहूजा यहां बैठे हुए हैं, उनसे मिलें और आप यही तो जानना चाहते हो। मैं जब एक बार हरियाणा गया हुआ था और बहुत सामान्य साधक का जीवन जीता था। उस समय सफेद वस्त्र धोती और कुर्ता पहनता था और जो आप रक्षाकवच डालते हैं, मैं भी गले में रक्षाकवच डालता था, चंूकि मैं सदैव साधक के परिवेश में ही जीवन जीता रहा हूँ। बचपन से युवावस्था तक पढ़ाई के समय के जो वस्त्र थे, उनको छोड़कर सदैव मेरा परिवेश साधक का ही था, मगर कोई ऐसा नहीं था कि किसी के द्वारा मुझे प्रेरित किया गया हो, बल्कि मैं स्वत: ही वैसा जीवन जीता रहा। परमसत्ता ही मेरी गुरु हैं, परमसत्ता ही मेरी इष्ट हैं, परमसत्ता जगत् जननी ही मेरी सर्वस्व हैं और उस पथ पर मैं स्वत: बढ़ता हूँ।

वहां हरियाणा में एक संत थे। उनके अन्दर एक अहंकार था और गांव के सभी लोग उनको नतमस्तक हुआ करते थे, प्रणाम किया करते थे। एक दिन वहां मैं बैठा हुआ था। वे सन्त आये और सभी ने उनको प्रणाम किया, नमन किया। उन्होंने आंखें तरेर करके मेरी तरफ देखा, चूंकि मैं उसी तरह बैठा रहा था, क्योंकि मेरा हमेशा एक लक्ष्य रहता है और अगर उनके पास ज्ञान होता, तो वे मेरे समक्ष नतमस्तक होते। ज्ञान केवल वस्त्रों से नहीं होता और अगर वस्त्रों को देखकर लोग नतमस्तक होते हैं, तो उनसे बड़ा दुर्भाग्यशाली कोई दूसरा नहीं है।

वे आंखें काढ़कर मेरी तरफ देखते रहे और सरपंच जी से पूछा कि ये कौन हैं? सरपंच जी ने मेरे बारे में बताया। तब कथित संत बोले कि इन्होंने प्रणाम नहीं किया। तत्काल मैंने कहा कि आपकी दिशा भटकी हुई है और अगर आपके पास ज्ञान होता, तो आप मुझे दण्डवत नमन कर रहे होते। वे अपनी बातें कहने लगे और बोले कि शाम को आप हमारे यहां आइये। मैंने कहा ठीक है, बिल्कुल आ जाऊंगा। मैं उस समय वहां कुरुक्षेत्र में ब्रह्मसरोवर जाता था और आकरके सरपंच जी के यहां ठहरता था। सरपंच जी ने मुझे मना किया कि आप उनके यहां मत जाओ। वह बड़ा तंत्र-मंत्र करता है, कोई विवाद न हो जाये। मैंने कहा कि मैं अच्छे-अच्छे विवादों को ही तो शान्त करने के लिए आया हूँ।

मैं वहां गया और कुछ चर्चाएं चलती रहीं तथा वे अपनी डींग मारते रहे, मैं सुनता रहा। मैंने सोचा कि अगर मैं यहां अकेले में इनको कुछ अहसास करा दूंगा, तो ये उसे स्वीकार नहीं करेंगे। मैंने कहा कि हाँ ठीक है, आप बहुत सही कह रहे हो, तो ऐसा करो कि आज शाम को वहीं सरपंच जी के यहां आ जाओ। उन्हें लगा कि ये हमारे कुछ समर्थक बन रहे हैं, तो वे बोले कि हाँ, आ जायेंगे। उन्हें लगा कि वे सरपंच जी के यहां पहुंच करके दिखा देंगे कि देखो ये सिर नहीं झुका रहे थे, हमने झुकवा लिया। मैंने वहां उनको बुलाया और तब तक गांव के कुछ लोग इकट्ठे हो चुके थे व परिवार के लोग भी इकट्ठे थे। मैंने कहा कि आप यहां आ गये और अब मैं आपसे कहता हूँ कि मैं कुछ पूछना चाहता हूँ, या तो तुम बता दो, या तो तुम कुछ पूछो, मैं बताने के लिए तैयार बैठा हूँ। तो जब उनके पास कुछ था ही नहीं, तो बताएंगे क्या? इसलिये उन्होंने कहा कि हम जो पूछेंगे, आप बता देंगे? मैंने कहा कि तुम जो पूछना चाहो, पूछ लो!

धर्म की रक्षा के लिए आठ महाशक्तियज्ञों तक परमसत्ता ने जो मुझे स्वतंत्रता दे रखी थी कि मैं जहां भी बैठता था, कोई न कोई ऐसा वातावरण निर्मित कर देता था कि लोगों को सत्य का अहसास हो और समाज सत्य को समझ सके। आठ यज्ञों तक परमसत्ता से मुझे अनुमति मिली हुई थी और उन आठ यज्ञों को पूर्ण करने के बाद शेष सौ यज्ञ वहां सिद्धाश्रम पर संकल्पित हैं। मैंने उनसे कहा कि एक मौका देता हूँ कि दुनिया की कोई रहस्यपूर्ण बात पूछ लो या कहीं की बात पूछ लो, मेरे द्वारा जानकारी दे दी जायेगी। मुझे तुमसे कुछ पूछने की ज़रूरत नहीं है और उसके बाद तुम क्या निर्णय लेते हो, यह तुम जानना। उन्होंने मुझसे कहा कि जो पूछेंगे, बता दोगे? मैंने कहा कि हाँ यह निश्चित बता दूंगा। उन्होंने कहा कि तीन-चार वर्षों से हमारे गुरुजी से हमारा सम्पर्क नहीं हो पा रहा कि हमारे गुरुजी कहाँ हैं? हमें इसका ज्ञान नहीं है और हमने बड़ा प्रयास किया, किन्तु उनका पता नहीं चल पाया।

मुझे बड़ी व्यथा हुई और मैंने सोचा कि मैंने इनको एक मौका दिया था और उस एक मौके को भी धूर्तता की वजह से इसने गंवा दिया। मैंने कहा था कि दुनिया का कोई रहस्य पूछ लो, जिससे तुम्हें सत्य का अहसास हो और इतनी छोटी सी बात तो कोई भी बता सकता था। तंत्र-मंत्र की छोटी-मोटी विद्यायें जानने वाले भी जो कुछ सिद्धियां प्राप्त कर लेते हैं, वे बता देते हैं। मैंने कहा कि तुम धूर्त के धूर्त ही रहोगे और जो तुम पूछना चाहते हो, उसका पता इस समय तुम्हारी जेब के अन्दर पड़ी डायरी में लिखा हुआ है कि तुम्हारे गुरु कहां पर हैं? मैंने कहा कि सबकी उपस्थिति में मैं यह जानकारी देता हूँ कि तुम्हारे गुरु इस समय विदेश के इस शहर में बलात्कार के केस में जेल की सलाखों के अन्दर हैं। मैंने उससे कहा कि कुछ और बताऊं? तुम्हारे बारे में बताना शुरू कर दूँ कि तुम इस गांव में कैसा जीवन जीते हो? उसी समय सबके देखते-देखते उन्होंने तुरन्त मेरे चरणों पर हाथ लगा दिया और बोले कि गुरुजी बस, और कुछ नहीं जानना है। यह प्रमाणित घटना है।

मैं अपने परिवार में साधनात्मक जीवन जीने के साथ ही ‘माँ’ की आराधना-पूजा में रत रहता था। चूंकि मैं छह भाइयों में सबसे छोटा था, तो परिवार के लोग बार-बार कहते थे, कि ‘माँ’ की आराधना-पूजा के अलावा आपको कुछ दिखता ही नहीं है। हम लोग चाहते हैं कि आप कोई बड़ा से बड़ा बिजनेस कर लो, कोई बड़ा से बड़ा व्यवसाय कर लो। सभी लोग नौकरी कर रहे हैं, तुम नौकरी कर लो। मैंने कहा कि जो मैं कर रहा हूँ, उसमें मैं संतुष्ट हूँ। मेरा सबसे बड़ा जो कार्य है, परमसत्ता ने जो कार्य दे रखा है, मैं उसी पथ पर लगा हुआ हूँ। वे बोले कि इससे आपको मिलेगा क्या? मैंने कहा कि मुझे मिलता है आनन्द, मुझे मिलती है तृप्ति और मुझे मिलता है वह सुकून, जो एक अबोध शिशु को अपनी माँ की गोद में मिलता है।

मैंने एक बार कहा कि मैं परिवार की जानकारी के लिए भी चाहता हूँ कि तुम मुझसे कुछ पूछ लो, जिससे तुम लोगों को यह लगे कि यह बात सत्य के द्वारा ही बताई जा सकती है। घर में मैं ही एक ऐसा था, जिसने ‘माँ’ की आराधना बचपन से ही शुरू कर दी थी, जबकि मेरे घर में सभी विष्णु की आराधना करते थे। घर में नित्य सुबह-शाम आरती हुआ करती थी और उस आरती में मुहल्ले के लोग इकट्ठे हुआ करते थे। ब्राह्मण परिवार में मेरा जन्म हुआ था और मैंने जब से आंखें खोलीं, घर में सदैव पूजा-पाठ का क्रम होता था। ‘माँ’ की कृपा से ऐसा परिवार मिला, जहां पिता जी पूजा-पाठ किया करते थे, माता जी पूजा-पाठ किया करती थीं। घर में सुबह-शाम आरती हुआ करती थी और सायंकाल की सामूहिक आरती में सब लोग आते थे। हमारे घर में हर साल के अन्त में 31 दिसम्बर और 01 जनवरी को रामचरितमानस का अखण्ड पाठ हुआ करता था। हमारे परिवार का कोई भी सदस्य कहीं भी रहे, चाहे कोई कहीं नौकरी कर रहा हो, तो जहां तक हो सकता था, वह प्रयास करता था कि 31 या 01 तारीख को घर ज़रूर पहुंचता था।  

मैं उस समय मध्यप्रदेश में रह रहा था और घर गया हुआ था। घर पहुँचकर मैंने अपना सामान रखा और बाहर आ गया। वहीं घर के बाहर अन्य लोग बैठे हुए थे, मैं भी वहीं पर बैठ गया। सामने एक कुआं था और वहीं से पानी लेकर कुल्ला करके बैठा ही था कि तुरन्त चर्चा  छिड़ गई। जैसे कि पूजापाठ करने के कारण सहज भाव से होजाता है व मेरा सौभाग्य रहा है कि मुझे प्रारम्भ से ही मेरे सभी बड़े भाईयों से जो आदर, मान-सम्मान, प्रेम व स्नेह मुझे मिला है, शायद ही किसी को मिल पाये। मैं वहीं पर बैठा ही था कि चर्चा चल पड़ी। एक सज्जन बोले कि हम कैसे मान लें कि आपके पास सब जानकारी है? मैंने उनसे कहा कि आप जो कुछ भी जानना चाहो, पूछ लीजिए, मैं बता दूंगा और केवल एक बार मौका देता हूँ, एक बार के अलावा दुबारा मौका नहीं दूंगा। पहले वे मुझसे छोटी-मोटी बातें पूछने लगे, तो मैंने उनसे कहा कि कोई ऐसी बात पूछो, जिससे आप लोगों को अहसास हो कि जो बात मैं सामान्य तौर पर नहीं बता सकता। जहां पर मैं बैठा था, वहीं से लगभग 500 मीटर दूर से गांव के इकबाल सिंह चले आ रहे थे। यहां शिविर पण्डाल में राजेन्द्र सिंह भदौरिया बैठे होंगे, वे उनके भाई थे, जो अब दिवंगत हो चुके हैं। उस समय वे सामने से चले आ रहे थे।

परिवार के मेरे बड़े भाई स्वर्गीय रामखेलावन शुक्ला जी, इकबाल सिंह के मित्र थे। उन्होंने तत्काल एक प्रश्न पूछ लिया और सब लोगों ने समर्थन भी दे दिया। वे बोले कि सामने से जो इकबाल सिंह चले आ रहे हैं, इनको इस समय क्या तकलीफ है, आप यह बता दीजिये? मैंने कहा कि बहुत छोटी सी चीज आपने पूछ ली है, तो उन्होंने कहा कि बस यही बता दीजिये। उनको लगा कि शायद ये टालना चाहते हैं, बताना नहीं चाहते और जानते नहीं होंगे, इसलिए मना कर रहे हैं। चूंकि उनको पता था कि मध्यप्रदेश से अभी-अभी चले आ रहे हैं। तभी मैंने कहा कि इनका ऑपरेशन हुआ है और ऑपरेशन की तकलीफ से ही प्रताडि़त हैं। यह सुनकर सभी लोग सन्न रह गये। मैंने कहा कि बड़ी सामान्य सी बात आपने पूछ ली और यह बताना मेरे लिए कोई मायने नहीं रखता।

एक नहीं, सैकड़ों घटनाएं समाज में मैंने प्रत्यक्ष रूप से बताईं हैं। काल का कोई भी पक्ष मुझसे छिपा हुआ नहीं है। मैंने जब पहला यज्ञ प्रारम्भ किया था, तब मैंने भविष्यवाणी की थी कि मेरे आठ यज्ञ प्रमाण के लिए समाज के अलग-अलग स्थानों पर किये जायेंगे और ये यज्ञ मैं अलग-अलग मौसमों में करूंगा, अलग-अलग क्षेत्रों में करूंगा और यदि मेरे किसी यज्ञ में बरसात न हो, तो मान लेना कि मेरे पास कोई साधनात्मक क्षमता नहीं है। मैं एकान्त स्थान में चला जाऊंगा और पुन: तब तक तपस्या करूंगा, जब तक परमसत्ता से वह पात्रता प्राप्त नहीं कर लूंगा। मेरे द्वारा किए गये आठ यज्ञ अलग-अलग स्थानों पर हुए और चाहे थोड़ी देर के लिए ही बरसात हुई हो, आठ यज्ञों में सभी जगह बरसात हुई है।

एक नहीं, हज़ारों घटनाएं प्रमाणिक रूप से की गईं हैं और जो मैंने युवावस्था से लेकर उस पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम के मूलध्वज की स्थापना तक की ही यात्राएं तय कीं हैं, उनके प्रमाण देने लगूंगा, कि किस तरह की घटनाएं वहां घटित हुईं, किस तरह लोग लाभ उठा रहे हैं, किस तरह से नाना प्रकार की परेशानियों से लोग लाभ उठा रहे हैं, तो पूरा एक ग्रंथ तैयार हो जायेगा। मैं पग-पग पर अपना स्वत: परीक्षण करता हुआ आगे बढ़ता हूँ। पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम पर शेष सौ महत्त्वपूर्ण महाशक्तियज्ञ पूर्ण होने हैं।

इन क्षणों पर आरती का समय हो चुका है, अत: उसी दिशा में मैं बढ़ रहा हूँ और उसके पहले आप सभी लोगों से सिर्फ एक अपेक्षा करता हूँ कि पूर्व में जो गलतियां हो चुकीं, वे हो चुकीं, मगर कम से कम बार-बार वे गलतियां न दोहराई जायें। आज इन क्षणों से ज़्यादा सुन्दर समय नहीं मिलेगा, क्योंकि आप शान्तचित्त होकर बैठे हुए हैं और आपका मन एकाग्र है। अत: इन क्षणों पर अपने संकल्प को प्रभावक बना लो और सभी लोग एक साथ हाथ उठा करके संकल्प करेंगे कि नशे-मांस से मुक्त चरित्रवान् जीवन जियेंगे। सभी का एक संकल्प होना चाहिए कि हम नशे-मांस से मुक्त चरित्रवान् जीवन जियेंगे। यह है शक्तिसाधकों का वह समूह, यह है वह संकल्प और इस तरह के संकल्प जब साधक लेते हैं, तब यही होता है वह परिवर्तन, जिसे मैं चाहता हूँ कि आम जनता भी देखे, शासन-प्रशासन भी देखे कि यह संकल्प होता है। आप सबका लिया हुआ यह संकल्प मेरा संकल्प है कि मेरे हज़ार में से नौ सौ निन्यानवे साधक कभी उस संकल्प को तोड़ते नहीं हैं, यह वह संकल्प है।

आप हाथ उठाकर अपने आपको संकल्पबद्ध करें और आप सभी अपने सच्चे मन से बोलते हुए संकल्प करें कि ‘मैं संकल्प करता हूँ कि आज से मैं नशे-मांस से मुक्त चरित्रवान् जीवन जिऊंगा। धर्मरक्षा, राष्ट्ररक्षा और मानवता की सेवा के लिए मेरा सर्वस्व जीवन समर्पित रहेगा।’ यही संकल्प लेकर आपको जीवन जीना है। यह संकल्प आपको चेतनावान् बना देगा। मेरा संकल्प ही है कि मैं अपनी तपस्या को जन-जन में बांट दूंगा, अपने रोम-रोम को विसर्जित कर दूंगा। तुम पात्र बनो, तुम्हारा पात्र कभी खाली नहीं होगा। तुम मेरी वाणी बोलोगे, मेरे विचार बोलोगे, मेरे समान चेतनावान् बनोगे। उस दिशा पर बढ़ चलो, उस संकल्प को लेकर बढ़ो और संकल्प में कोई विकल्प न आने पाये। इस संकल्प की भावना को लेकर उस परमसत्ता की आराधना, उस परमसत्ता की स्तुति, उस परमसत्ता की वन्दना, उस आरती की ओर बढ़ोगे, तो आपको परमसत्ता की पूर्ण कृपा की प्राप्ति होगी। यही सच्ची भक्ति है कि हम पहले अपने आपको पात्र बनायें और उस परमसत्ता की आराधना करें, वह पात्र हमारा और निखरता जायेगा, वह पात्र हमारा और भरता चला जायेगा। मनमस्तिष्क को एकाग्र करके उस दिशा में बढ़ना शुरु करें।

इस समय जो आरती होने जा रही है, वह पूजा, संध्या और ज्योति के द्वारा की जाती है। ये आप सभी की प्रतिनिधि बनकर वह दिव्य आरती करती हैं। आप सभी लोग बैठकर और अपने मन में यह भाव लेकर आरती करेंगे कि आप सभी वह आरती कर रहे हैं। मैं इन क्षणों पर चाहूंगा कि आप लोग आरती की ओर बढ़ें और एक बार पुन: माता आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा का पूर्ण आशीर्वाद प्राप्त करते हुए अपना पूर्ण आशीर्वाद आप सबको प्रदान करता हूँ।

बोलो आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बे मात की जय!

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