प्रवचन शृंखला क्रमांक -153
शक्ति चेतना जनजागरण शिविर (नशामुक्ति महाशंखनाद)
जम्बूरी मैदान, बी.एच.ई.एल. भोपाल (मध्यप्रदेश), दिनांक 18 फरवरी 2015
माता स्वरूपं माता स्वरूपं, देवी स्वरूपं देवी स्वरूपम्।
प्रकृति स्वरूपं प्रकृति स्वरूपं, प्रणम्यं प्रणम्यं प्रणम्यं प्रणम्यम्।।
शिविर के द्वितीय दिवस पर यहां उपस्थित अपने समस्त चेतना अंशों, शिष्यों, ‘माँ’ के भक्तों, श्रद्धालुओं एवं इस शिविर व्यवस्था में लगे हुए समस्त कार्यकर्ताओं को व जो जिस भावना से इस परिसर पर उपस्थित हैं, उन समस्त लोगों को अपने हृदय में धारण करता हुआ माता आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा का पूर्ण आशीर्वाद प्राप्त करता हुआ अपना पूर्ण आशीर्वाद आप समस्त लोगों को प्रदान करता हूँ।
‘माँ’ शब्द एक बहुत छोटा सा शब्द प्रतीत होता है, लेकिन इसमें पूरे जीवन का सार, पूरे जीवन का आनन्द समाहित है। ‘माँ’ शब्द ही प्रकृति का मूल शब्द है, भले ही समाज ‘ॐ’ शब्द को प्राथमिकता देता हो। मेरा मानना है कि पहले ‘माँ’ हैं और बाद में ‘ॐ’। हम ‘माँ’ शब्द तो अनेक बार बोलते रहते हैं, जन्म से लेकर वृद्धावस्था तक जननी के रिश्ते से जुड़े रहते हैं, मगर इस शब्द में इतनी गहराई है कि इस पर गम्भीरता से विचार करने की आवश्यकता है। ‘माँ’ शब्द एक ऐसा बीजमंत्र है और इस शब्द में इतनी ताकत है कि यदि हम इसकी गहराई में डूबने लगें, तो अपनी पूरी कुण्डलिनीचेतना को जाग्रत् कर सकते हैं।
इस कलिकाल के बाह्य वातावरण में जहां चारों ओर अनीति-अन्याय-अधर्म व्याप्त है, वहीं हर मनुष्य का अंत:करण दूषित हो चुका है और कहीं न कहीं उसकी सुषुम्ना नाड़ी बाधित हो चुकी है। जिस चेतना की शक्ति पर मनुष्य चलता है, बोलता है, खाता है, पीता है, जीवन की अंतिम सांस तक कर्म करता है, उस मूल नाड़ी को वह स्वत: बाधित करता जा रहा है। आत्मा के सुलझे हुए रहस्यों को उलझाता जा रहा है और ज्यों-ज्यों उन सुलझे हुए रहस्यों को उलझाता जा रहा है, त्यों-त्यों मनुष्य नास्तिक बनता जा रहा है, अनास्थावादी बनता जा रहा है, सत्य से दूर होता जा रहा है।
मनुष्य जैसे-जैसे सत्य से दूर होता जा रहा है, वैसे-वैसे उसकी मन:शक्ति, बौद्धिक क्षमता और शारीरिक क्षमता संकुचित होती जा रही है। जिस तरह किसी पौधे की जड़ पर कोई कीड़ा या बीमारी लग जाती है और जड़ को खाद-पानी नहीं मिलता है, तो वह पेड़ धीरे-धीरे सूखने लगता है, उसी तरह वर्तमान में मानवता का भी स्वरूप है। आज मनुष्य का स्वरूप संकुचित होता जा रहा है और वह उचित निर्णय करने के योग्य बचा ही नहीं! मानव यह निर्णय ही नहीं कर पाता कि उसके सामने जो विषम परिस्थितियां हैं, इनसे वह मुक्ति कैसे पा सकता है? और, वह एक के बाद एक दूसरा अपराध करता चला जाता है।
आज का मनुष्य विषय-विकारों, काम-क्रोध-लोभ-मोह से इतना ग्रसित हो चुका है कि उसकी सत्य की कोशिकाएं सुषुप्त हो गईं हैं। आखिर इन विषम परिस्थितियों से निकलने का मार्ग क्या है? कहीं न कहीं से तो इनसे निकलने का प्रयास करना ही होगा, अन्यथा समाज का सतत पतन होता चला जायेगा।
वेद, पुराण, उपनिषद, रामायण व गीता, ये ग्रन्थ हमसे चाहते क्या हैं? ये ग्रन्थ हमसे करवाना क्या चाहते हैं? ग्रन्थ कभी नहीं कहते कि तुम मुझे पढ़ते रहो, रटते रहो और ग्रन्थज्ञानी बन जाने से तुम महान बन जाओगे! मेरा मानना है कि कोई भी ग्रन्थज्ञानी आज तक न महान बन सका है और न भविष्य में बन सकेगा। एक शराबी, कुविचारी, कुसंस्कारी, अपराधिक मानसिकता का भी व्यक्ति ग्रन्थों का ज्ञानी बन सकता है, ग्रन्थ को पढ़ सकता है, रट सकता है, किन्तु इससे उसके विचारों में परिवर्तन नहीं आयेगा, लेकिन जिसने ग्रन्थों के ज्ञान के अनुसार अपने जीवन को ढाल लिया है, ग्रन्थ जिस दिशा में समाज को बढ़ाना चाहते हैं, उस दिशा में जिनके कदम बढ़ चुके हैं, उन्हीं का वास्तविक कल्याण होता है।
शास्त्र, उपनिषद, ये सभी धर्मग्रन्थ हमसे यही चाहते हैं कि हम उनमें निहित विचारों पर अमल करें। इन्हें केवल रट लेने से जीवन का उद्धार नहीं होगा! इनकी कुछ बातों को ही यदि मनुष्य पकड़ ले, तो भी उसका कल्याण हो जायेगा। वैसे भी कहा गया है कि ग्रन्थों में कभी भी मूल सार समाहित किया ही नहीं गया! मूल सार सदैव ऋषि-मुनियों की परम्परा से एक क्रम के अनुसार चलता चला आया है, मगर ऋषि-मुनियों की वह परम्परा भी कलिकाल में बाधित हो चुकी है और समाज उस अहसास को भूल चुका है। धर्म का स्वरूप भटककर कहीं से कहीं पहुंच चुका है। पहले समाज में यदि कर्मकाण्डी ब्राह्मण भी होता था, तो संध्यावंदन करता था, साधनात्मक जीवन जीता था, सद्विचारों का जीवन जीता था और उसके पास भी कुछ न कुछ वाक्शक्ति हुआ करती थी। वह नियमों का पालन करता था, ब्रह्ममुहूर्त में जगता था, प्रकृति के विधानों के अनुसार अपने जीवन को ढालता था और फिर जब वह किसी के लिए पूजा-पाठ करता था, तो वे क्रम फलीभूत होते थे। यदि समाज को यह ज्ञान नहीं होगा, तो वह सत्य के रास्ते पर बढ़ नहीं सकेगा।
हज़ारों वर्षों से भटकती हुई परम्परा आज इस कलिकाल में धर्म के उस स्वरूप में खड़ी हो गई है कि धर्म एक व्यवसाय का माध्यम बन गया है, धन कमाने का माध्यम बन गया है! कथावाचक हों, मठाधीश हों, धर्मप्रमुख हों, समाजसेवी संस्थाएं हों, चाहे मानवता के कल्याण के लिए चल रही संस्थाएं हों, चाहे विकलांगों के कल्याण के लिए चल रही संस्थाएं हों, चाहे नारीसम्मान के नाम पर चल रही संस्थाएं हों, सब जगह स्वलाभ ही जुड़ा हुआ है और अधिकांशत: दिखावा है, चूंकि उनके जो प्रमुख हैं, उनके अन्तर्मन में परोपकार की भावना ही नहीं है। उन्होंने अपने अन्तर्मन को निर्मल किया ही नहीं है और जब तक मनुष्य अपने अन्तर्मन को निर्मल नहीं करता, वह सत्कर्म कर ही नहीं सकता।
आज मनुष्य की आयु मात्र सत्तर-पचहत्तर वर्ष की रह गई है, जिसमें कुछ अवस्था बचपन में निकल जाती है तथा कुछ वृद्धावस्था में निकल जाती है। शेष जीवन में वह अपना जीवकोपार्जन करेगा या ग्रन्थों का अध्ययन करेगा और ग्रन्थों में कौन से ग्रन्थों का अध्ययन करके ज्ञान प्राप्त करेगा? एक से एक शास्त्र हैं तथा एक शास्त्र कुछ कह रहा है, तो दूसरा शास्त्र कुछ और कह रहा है, कोई किसी चीज़ का खण्डन कर रहा है, तो कोई किसी अन्य चीज़ का खण्डन कर रहा है! समस्त शास्त्रों का ज्ञान ‘माँ’ ने मुझे प्रदान किया है और मैंने यह अनुभव किया है कि यदि ग्रन्थों का ज्ञान समाज को देना प्रारम्भ कर दिया जायेगा, तो समाज सिर्फ सुनता रहेगा, क्योंकि उनको अमल करने के योग्य समाज बचा ही नहीं है।
‘माँ’ के चरणों पर अनेक बार बैठकर जिस मार्ग का निर्धारण मैंने बचपन की अवस्था में किया था, तो यह ‘माँ’ की कृपा ही थी कि बचपन से ही मेरा रुझान उनकी आराधना की ओर था। जीवन का कोई लक्ष्य नहीं था, कोई कामना नहीं थी और मेरे जीवन का सौभाग्य है कि मैंने ‘माँ’ की आराधना किसी स्वलाभ के लिए की ही नहीं। पूर्व जीवन के संस्कार थे कि सिर्फ और सिर्फ परमसत्ता की आराधना करना ही एक लक्ष्य था। उस परमसत्ता की कृपा की प्राप्ति, उस परमसत्ता के चरणों के दर्शन, उस परमसत्ता के निर्देशन में अपने जीवन को समर्पित कर देना तथा जीवन को इस योग्य बना देना कि एक बार उस परमसत्ता के चरणों पर ऐसा समर्पण होजाये कि अध्यात्म के क्षेत्र में वे मुझे नम्बर एक पर खड़ा होने का सौभाग्य प्रदान करें और इन्हीं भावों के साथ बचपन से मेरी यह यात्रा चलती रही।
मेरे परिवार के लोग भी यहां पर बैठे हुए हैं, मेरे बड़े भाई भी यहाँ पर बैठे हुए हैं और बचपन से उन्होंने मेरी यात्रा को देखा है। मुझसे बड़े होने के बावजूद आज वे मेरे शिष्य बनकर आध्यात्मिक जीवन जी रहे हैं। मेरे पिताजी वृद्धावस्था में दण्डी संन्यासी हुए और वे विष्णु जी के आराधक थे। पिता जी श्रीराम की आराधना करते थे और घर में नित्यप्रति आरती-पूजन का क्रम हुआ करता था, मगर मेरे अन्त:करण में तो परमसत्ता माता भगवती बसती थीं। बचपन से ही मेरी दिशा माता भगवती की आराधना की ओर मुड़ती चली गई। साधना-आराधना तथा अखण्ड अनुष्ठानों के क्रम बढ़ते चले गये। मैंने कभी हिमालय, कन्दराओं की बात नहीं की और जंगलों में जाकर साधना नहीं की। परमसत्ता के द्वारा दिये गए पूर्व के संस्कार थे कि बचपन से वह यात्रा घर-परिवार के बीच ही रहकर तथा जहाँ भी खाली जगह मिलती थी, वहीं मेरे अखण्ड अनुष्ठानों के क्रम सतत चलते चले गए।
अपनी पूर्व की अवस्था को प्राप्त करने के बाद सिर्फ मानवता के कल्याण का एक लक्ष्य था और मानवता को दिशा देने के संकल्प के बाद चिंतन में आया कि लोगों के अन्त:करण का परिवर्तन किया जाए। यदि उनको बाह्य व्यवस्थाओं में उलझाकर रख दिया जायेगा, तो उनके जीवन में कभी परिवर्तन नहीं आ पायेगा तथा मैंने ‘माँ’ के चरणों पर ऐसा संकल्प लिया, जो आज तक किसी ने नहीं लिया होगा। लोग धन तो आसानी से दान कर सकते हैं, छोटे-मोटे आशीर्वाद आसानी से दे सकते हैं, मगर कोई भी ऋषि अपनी तपस्या का दान समभाव से नहीं करता है, चूंकि तपस्या के माध्यम से उपार्जित की हुई वह चेतनाशक्ति प्राप्त करना हर एक के लिए सहज भी नहीं है।
मैंने संकल्प किया कि मैं अपनी चेतनातरंगों के माध्यम से चेतनावान् समाज का निर्माण करता चला जाऊंगा। समाज यदि दो कदम चलेगा, तो दस कदम बढ़करके मैं उसे अपनाऊंगा और दस कदम की ऊर्जा प्रदान करूंगा। मैंने उस पथ का चयन किया। मैंने अपने आपको और भी अधिक साधनात्मक क्रमों में बढ़ाना प्रारम्भ किया। अनुष्ठानों के बाद अनुष्ठानों का क्रम चलता चला गया। हर पल सिर्फ यही था कि रोम-रोम को उस अवस्था तक तपाकर ले जाऊं, जहां से मेरा एक-एक रोम मानवता की सेवा में विसर्जित होने के लिए तत्पर हो, व्याकुल हो। केवल मनमस्तिष्क ही नहीं, शरीर का रोम-रोम सिर्फ परोपकार की तरंगें फैला रहा हो। उस साधनात्मक पथ का जीवन मैंने जिया है और उसके प्रमाण मैंने समाज को दिये हैं।
समाज में किसी प्रकार का कोई भी ऐसा कार्य नहीं बचा, जिसको मैंने अपने आठ महाशक्तियज्ञों के द्वारा साधनात्मक क्रम के माध्यम से प्रमाणित न किये हों। एक स्थान से दूसरे स्थान की जानकारी देने की बात रही हो, किसी रोगी को निरोगी कर देने की बात रही हो, कहीं पर हो रही भीषण बरसात को रोक देने की बात रही हो, भीषण धूप में बरसात करा देने की बात रही हो या किसी के अन्दरूनी रहस्यों की जानकारी देने की बात रही हो, मैंने समाज को सभी प्रमाण दिए हैं। उन आठ यज्ञों तक प्रकृतिसत्ता ने मुझे स्वतंत्र कर रखा था और तब तक समाज ने जिस प्रकार के मुझसे प्रश्न किए, धर्मरक्षा के लिए उन प्रश्नों का मेरे द्वारा समाधान किया गया और समाज को दिशा दी गई।
समाज के बीच मैंने एक-एक कदम को प्रमाणिकता से उठाया है। 108 महाशक्तियज्ञों के जो प्रारम्भिक आठ यज्ञ थे, उनको मैंने जब समाज के बीच सम्पन्न किया, तो मैंने पहले यज्ञ में कहा था कि मैं प्रत्येक यज्ञ अलग-अलग मौसमों में, अलग-अलग स्थानों में करूंगा और यदि मेरे किसी एक भी यज्ञ में बरसात नहीं होगी, तो मैं आध्यात्मिक जीवन छोड़कर पुन: एकान्त स्थान पर चला जाऊंगा और तब तक साधनारत रहूंगा, जब तक कि उस पात्रता को हासिल नहीं कर लूंगा। प्रकृतिसत्ता के चरणों पर मानवता के कल्याण के लिए यदि कोई निवेदन किया जाये, तो वह निवेदन अक्षरश: सिद्ध होता है। वे आठ यज्ञ समाज के बीच किये गए हैं तथा उनकी रिकॅार्डिंग हैं, प्रमाण हैं और पहले यज्ञ में कहे हुए मेरे शब्द हैं। इन सभी आठों यज्ञों में बरसात हुई है, जबकि सभी यज्ञ अलग-अलग मौसमों में, अलग-अलग प्रदेशों में, अलग-अलग क्षेत्रों में किये गए तथा उन यज्ञों के माध्यम से भी अनेक प्रकार की जानकारियां समाज को दी गईं।
उसके बाद तीन धाराओं का जो एक लक्ष्य था, उन तीनों धाराओं के गठन की प्रक्रिया आगे बढ़ाई गई। उस पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम की स्थापना की गई, जहां ‘माँ’ का अखण्ड श्री दुर्गाचालीसा का पाठ पिछले अट्ठारह वर्षों से अनवरत अनन्तकाल के लिए चल रहा है और जो मानवता के कल्याण के लिए समर्पित है। वहां आने वाले भक्तों को, आज की व्यवस्थाओं के अनुसार ठहरने की एवं भोजन की नि:शुल्क व्यवस्थाएं प्रदान की जाती हैं।
सत्य के द्वारा नीव डालना बहुत ही कठिन है, लेकिन असम्भव नहीं है। अनीति-अन्याय-अधर्म के माध्यम से तो अनेक आश्रम देखते ही देखते बन जाते हैं, मगर सत्य की स्थापना कठिन है। मैं वहां सिद्धाश्रम में सतत साधनारत रहता हूँ। गरीब-अमीर कोई भी पहुंचता है, वहां उसे नित्यप्रति मिलने का समय दिया जाता है। मेरे लिए सभी लोग एक समान हैं और वहीं से समाज को एक दिशा, एक ऊर्जा प्राप्त हो रही है।
मैंने श्री दुर्गाचालीसा का, ‘माँ’ की साधना का सरलतम मार्ग समाज को दिया है। यदि आपको ‘माँ’ की स्तुति-वन्दना करना है और आपको किसी चीज़ का ज्ञान नहीं है, तो निष्ठापूर्वक यदि श्री दुर्गाचालीसा का पाठ करना प्रारम्भ कर दोगे, तो आपको अपनी साधना का भी लाभ मिलेगा और आश्रम में चल रहे अखण्ड अनुष्ठान का भी लाभ मिलना प्रारम्भ हो जायेगा।
अन्त:करण को निर्मल करने के लिए मेरे द्वारा समाज को ‘माँ’ और ‘ॐ’ दो बीजमंत्र प्रदान किये गए हैं। ये महत्त्वपूर्ण बीजमंत्र आपकी सुषुम्ना नाड़ी का मन्थन करते हैं। आपने समुद्रमंथन की कथा तो सुनी होगी कि उससे अनेक रत्न, अमृत और विष उत्पन्न हुयेे थे, मगर असली मन्थन तो आपके अन्दर हो सकता है। जिस तरह समुद्रमन्थन से तत्त्व निकले, उसी तरह आपकी सुषुम्ना नाड़ी का मन्थन करने के लिए बीजमंत्रों में केवल ये दो मंत्र ही हैं और इनके अलावा अन्य कोई मंत्र उस सुषुम्ना नाड़ी का मन्थन नहीं कर सकते।
आप अपने भक्तिभाव से, साधना स्तुति से चैतन्यता तो प्राप्त कर सकते हैं, मगर वह लम्बी प्रक्रिया है तथा उसको और सुगम-सरल बनाने के लिए ‘माँ’ की आराधना की स्तुतियाँ और अनेक मंत्र हैं एवं अलग-अलग कामनाओं के लिए अनेक मंत्र हैं, मगर आत्मकल्याण के लिए हम अपनी सुषुम्ना नाड़ी का मन्थन किस प्रकार से कर सकें, उसके लिए ‘माँ’ और ‘ॐ’ दो बीजमंत्र हैं। गरीब-अमीर सभी इन बीजमंत्रों का जाप कर सकते हैं। जो जाप कर रहे हैं, वे चेतनाशक्ति का अनुभव प्राप्त कर रहे हैं। आप भी करके देखो कि कैसे इससे अन्त:करण निर्मल और पवित्र होता जाता है? हमारी सुषुम्ना नाड़ी जितना सहस्रार का स्पर्श करती चली जायेगी, आप विवेकवान् बनते चले जाओगे, आप धैर्यवान् बनते चले जाओगे, आप धर्मवान् बनते चले जाओगे, आपकी नास्तिकता आस्तिकता में बदलती चली जायेगी। केवल शांतचित्त होकर ‘माँ’-‘ॐ’ बीजमन्त्रों का जाप करने की ज़रूरत है।
समाज के बीच अधिकांशत: यही बातें होती हैं कि हम साधना करते हैं, लेकिन साधना में हमारा मन नहीं लगता। मैं कहता हूँ कि आप 5-10 मिनट का समय निकालना प्रारम्भ तो करो। पूजनस्थल पर बैठकर समय मिल जाये, तो बहुत अच्छा है या किसी अन्य स्थान पर समय मिल जाये, तो उसी स्थान पर शान्तचित्त होकर बैठो। प्रकृतिसत्ता का ध्यान-चिन्तन-स्मरण करते हुए एक बार ‘माँ’ का, फिर एक बार ‘ॐ’ का धीरे से उच्चारण करो और इस क्रम को बढ़ाते चले जाओ। आप दीर्घस्वर में भी उच्चारण कर सकते हो या लघुस्वर में भी कर सकते हो, मगर उसकी ध्वनि आपको अपने कानों में सुनाई दे। किसी भी मंत्र को आगे-पीछे कर सकते हैं, चूँकि जब आप मंत्रजाप प्रारम्भ कर दोगे, तो दोनों में से कोई भी आगे-पीछे हो सकता है।
जब ‘माँ’ मंत्र का उच्चारण करें, तो यह भावना हो कि हम अपने अन्त:करण की ऊर्जाशक्ति को बाहर की ओर निकालना चाहते हैं, जिस तरह सामान्यतया ‘माँ’ कहकर पुकारते हैं। चूँकि उसका ज्ञान सभी को है कि ‘माँ’ शब्द के उच्चारण का अर्थ है कि हम किसी को पुकार रहे हैं, किसी को बुला रहे हैं। इसके अलावा ‘माँ’ शब्द कभी बोला ही नहीं जाता। इस शब्द में एक आकर्षण है।
प्राणशक्ति सर्वोच्च शक्ति है तथा आपके शरीर में प्राणशक्ति ही जीवन का सार है। प्राणशक्ति ही जीवन का मूल है और इन दोनों बीज मंत्रों ‘माँ’ और ‘ॐ’ का जाप करने से प्राणशक्ति जाग्रत् होती है, प्राणशक्ति चैतन्य होती है, अन्त:करण निर्मल और पवित्र होता है। आप सभी सुषुम्ना नाड़ी का जीवन जी रहे हो तथा जिस दिन सुषुम्ना नाड़ी बाधित होजाती है, उसी दिन मनुष्य का जीवन समाप्त होजाता है और जिस अंग में प्राणवायु संकुचित होजाती है, वहाँ कहीं लकवा मार जाता है, शरीर कमज़ोर होजाता है, कोई बीमारी पकड़ लेती है। अत: जितना आप प्राणवायु को सक्रिय कर लेंगे, उतना आपका जीवन निरोगी बन जायेगा।
‘माँ’ शब्द के उच्चारण के माध्यम से ऊर्जाशक्ति को बाहर निकालने का भाव और ‘ॐ’ के उच्चारण के माध्यम से अपने बाहर फैल रही तरंगों को अंत: करण के शून्य में ले जाने का प्रयास करना है। हमारे अन्दर मूलाधार चक्र पर जो आत्मतत्त्व बैठा हुआ है, उस पर अपने आपको केन्द्रित करने का प्रयास करना है। इसके लिए हरपल आज्ञाचक्र को माध्यम बनाना है।
आज कुण्डलिनीजागरण के लिए अनेक पुस्तकें समाज में फैली हुईं हैं, मगर मेरा मानना है कि सिर पटक दोगे, पूरी जिन्दगी गवां दोगे, फिर भी कुण्डलिनीचेतना उन क्रियाओं से जाग्रत् नहीं हो सकेगी, जो क्रियाएं उन पुस्तकों में बताई गईं हैं। उन पुस्तकों में दिशाभ्रमित किया गया है। लिखने वाले तो पैसे के लिए पुस्तकों के ऊपर पुस्तकें लिखते चले जा रहे हैं, जबकि उनको ज्ञान ही नहीं है कि किस प्रकार की साधना-तपस्या और किस प्रकार के विचारों से सुषुम्ना नाड़ी प्रभावक होती है?
आप मन को एकाग्र करके 5-10 मिनट इन बीजमंत्रों ‘माँ’ एवं ‘ॐ’ का उच्चारण करके देखो, आपके विचार धीरे-धीरे बदलते चले जायेंगे और यह करके जब आप ‘माँ’ की आराधना-स्तुति-वन्दना करोगे, तो ‘माँ’ की भक्ति में आपका मन अधिक से अधिक लगेगा और यदि आप तनावग्रस्त होगे, तो तनावमुक्त हो जाओगे, चूँकि इसके माध्यम से प्राणों का मन्थन होता है। ‘माँ’ के माध्यम से ऊर्जाशक्ति को बाहर की ओर लाने का प्रयास करें और ‘ॐ’ के माध्यम से शान्ति की ओर बढ़ें। धीरे-धीरे सुषुम्ना नाड़ी में प्राणवायु अपने आप कार्य करना प्रारम्भ कर देगी।
ध्यान के लिए हमारा माध्यम आज्ञाचक्र होना चाहिए, क्योंकि यह सातों चक्रों का राजाचक्र है, अन्यथा पुस्तकों में लिखा मिलेगा कि मूलाधार में ध्यान करो, यहां का ध्यान करो, वहां का ध्यान करो! निश्चित है कि कोई गतिविधि हमारे चक्र में होती है, तो वहां संक्षिप्त ध्यान होना चाहिए कि हम सबसे पहले मूलाधारचक्र को जाग्रत् करने का प्रयास करते हैं, मगर वहां भी संक्षिप्त ध्यान हमें आज्ञाचक्र के माध्यम से ही करना चाहिए। आज्ञाचक्र मूल चक्र है, जो सभी चक्रों को अपने नियंत्रण में रखता है। अत: जब भी ध्यान करो, तो आज्ञाचक्र में ही ध्यान लगाओ। धीरे-धीरे अभ्यास करो और उस परमसत्ता से मांगना है, तो भक्ति, ज्ञान और आत्मशक्ति मांगो। इन तीन शब्दों में मैंने पूरा सार समाहित किया है।
आप के अन्दर यदि उस परमसत्ता की भक्ति आ गई, ज्ञान आ गया, आत्मशक्ति आ गई, तो फिर कुछ शेष बचता ही नहीं है। भक्ति, ज्ञान और आत्मशक्ति को प्राप्त करने के लिए बहुत सहज और सरल मार्ग है। आवश्यकता है, तो केवल नित्यप्रति उन नियमों का पालन करने की और सत्य को स्वीकार करते हुए आप सभी देवी-देवताओं का आदर, मान-सम्मान करें। मन्दिर जायें, मस्जि़द जायें, गुरुद्वारे जायें, सभी का आदर, मान-सम्मान करें, मगर आपकी आत्मा की जो मूल जननी हैं, वह अजर-अमर-अविनाशी माता भगवती आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा हैं। अनन्त लोक हैं, अनेक ब्रह्मा, विष्णु, महेश हैं, मगर अनन्त लोकों की जननी, अनेक ब्रह्मा, विष्णु, महेशों की जननी वह माता आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा हैं, जिसके हम-आप सभी अंश हैं और असंख्य अंशों के माध्यम से उनकी ऊर्जाशक्ति मानव ही नहीं, बल्कि समस्त जीव-जन्तु, पेड़-पौधे सभी में समाहित है, कण-कण में उनकी शक्ति समाहित है। अत: हम उन माता भगवती आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा को अपनी आत्मा की जननी मानकर चलें, स्वीकार करके चलें।
आप जब सत्य को स्वीकार करके चलोगे, तो आपकी दिशा सही मार्ग पर चलती चली जायेगी और आपकी साधना फलीभूत होगी। आपने अनेक देवी-देवताओं की साधना-आराधना की होगी, मगर जब ‘माँ’ की आराधना करोगे, तो अपनेपन का अहसास होगा। चूँकि वही आपकी आत्मा की जननी हैं और हम जितना अपनी आत्मा की जननी से दूर होजाते हैं, उतना हमारा पतन होजाता है तथा जितना अपनी आत्मा की जननी के नज़दीक होजाते हैं, उतना हमारा कल्याण होना प्रारम्भ होजाता है, हमारी समस्याओं का समाधान होना शुरू होजाता है तथा हमारे अन्दर चेतनाशक्ति आती चली जाती है।
मेरे द्वारा धर्म-अधर्म की परिभाषा दी गई है कि मनुष्य द्वारा किया गया प्रत्येक वह कर्म धर्म है, जो आत्मा को परमसत्ता के नज़दीक ले जाता हो। हर कर्म के कुछ अच्छे-बुरे परिणाम होते हैं तथा जिस कर्म के परिणाम अच्छे हों, तो निश्चित है कि वे संस्कारों के माध्यम से परमसत्ता की चेतना की ओर बढ़ाएंगे। इसलिए हर वह कर्म धर्म है, जिससे आपकी आत्मा परमसत्ता के नज़दीक जाती हो और हर वह कर्म अधर्म है, जिससे आत्मा और परमसत्ता के बीच की दूरियां बढ़ती हों। निर्णय आपको करना है कि धर्मपथ पर चलना है या अधर्म के पथ पर चलना है। जहां तक मैं सोचता हूँ, तो हर मनुष्य यह चाहता है कि मैं धर्म के अनुकूल जीवन जिऊँ , धर्मपथ पर चलूँ, मगर सोचने भर से कार्य नहीं होगा, बल्कि कर्म करना पड़ेगा। इस कलिकाल के भयावह वातावरण में आपको उस दिशा में साधक बन करके जीवन जीना पड़ेगा।
एक बार विचार करना पड़ेगा कि मैं भौतिक जगत् में भाग रहा हूँ, धन-दौलत चाह रहा हूँ, आरोग्यता चाह रहा हूँ, परिवार में सुख चाह रहा हूँ, बच्चों का खुशहाल जीवन चाह रहा हूँ, बच्चों को संस्कारवान् बनाना चाहता हूँ, मगर मैं कुछ नहीं कर पा रहा हूँ! एक मार्ग है कि इस सोच को त्याग दो और सत्यपथ की ओर बढ़ चलो, साधक बन जाओ, प्रकृति के नियमों का पालन करना शुरू कर दो, सूर्योदय से पहले उठना प्रारम्भ कर दो, ‘माँ’ की आराधना करना प्रारम्भ कर दो, नशे-मांस से मुक्त चरित्रवान् बन जाओ, पुरुषार्थी बनो, कर्म से उपार्जित धन को ही अपना मानो, अनीति-अन्याय-अधर्म के धन को अपने से दूर रखो और जिस दिन तुम्हारे अन्दर यह भावना आ जायेगी, तुम्हारा जीवन रूपान्तरित होता चला जायेगा।
धर्मभीरु बनकर नहीं, बल्कि विवेकवान् बन करके जीवन जिओ। एक अबोध शिशु का भाव लाकर आप ‘माँ’ की आराधना करके तो देखो। मगर, साधना-आराधना का जीवन केवल इतना ही नहीं होना चाहिए कि हमने सुबह-शाम पूजन कर लिया, इसी से हमारा कल्याण हो गया! आपको विचारों का एक जीवन जीना है। चौबीस घण्टे, हर पल यह ध्यान रखो कि कहीं आपके मनमस्तिष्क में कुविचार तो नहीं आ रहे हैं? क्योंकि, ये कुविचार सहज भाव से हर मनुष्य के अन्दर आते हैं। आप एक क्षण के लिए भी खाली रहते हो, तो मन न जाने कितनी अच्छी-बुरी बातें सोच लेता है। जब भी आपको लगे कि मेरे मनमस्तिष्क में कुविचार आ रहे हैं, तो उन्हें शत्रु के समान मानो और दूसरी सात्विक बातें सोचने लगो। धीरे-धीरे अभ्यास करते-करते नकारात्मक विचारधारा से आप हमेशा के लिए हट जाओगे तथा आपके अन्दर सात्विकता आ जायेगी, पवित्रता आ जायेगी।
एक सोच लेकर जीवन जिओ कि वर्तमान में मेरे साथ अच्छा या बुरा जो भी हो रहा है, वह सब मेरे कर्मों के परिणामस्वरूप है, अत: उससे व्यथित मत हो। चूँकि यदि आप व्यथित भी होंगे, तो भी वह समस्या उसी तरह आयेगी और यदि सजग हो जाओगे, तो उस समस्या के निदान का रास्ता प्रशस्त होता चला जायेगा। सजग होने से आपकी कार्यक्षमता बढ़ जायेगी। इसलिए हमेशा ध्यान रखो कि आज तुम्हारे साथ अच्छा या बुरा जो हो रहा है, उसमें कभी परेशान मत हों, बल्कि वर्तमान को संवार लो, तो सबकुछ संवरता चला जायेगा।
हर व्यक्ति अपने भाग्य को कोसता रहता है। अरे, अपने भाग्य को क्यों कोसते हो? परमसत्ता कभी किसी के साथ अन्याय नहीं करतीं, परमसत्ता तो सभी का कल्याण करना चाहती हैं। पूर्व में तुमने जो किया है, वह आज तुम्हारे सामने अच्छे या बुरे रूप में उपस्थित हो रहा है और अगर इस सत्य को जानते हो कि यह सब हमारे ही कर्मों का परिणाम है, तो केवल अपने वर्तमान को संवार लो। वर्तमान तुम्हारे हाथ में है और जो समय बीत चुका है, उसको तुम दुबारा प्राप्त नहीं कर सकते हो। वर्तमान को यदि संवार लोगे, वर्तमान में यदि सत्यपथ के राही बन जाओगे, सत्कर्म करना प्रारम्भ कर दोगे, तो तुम्हारे पूर्व के जो कुसंस्कार हैं, वे बड़ी से बड़ी घटनाएं सामान्य बनकर निकल जायेंगी। ज्यों-ज्यों तुम्हारे सत्कर्मों का पलड़ा भारी होता चला जायेगा, आने वाला यह जीवन और अनेक दूसरे जीवन दिव्यता और ऊर्जा से परिपूर्ण होते चले जायेंगे।
ज्ञान कभी मिटता नहीं है, अत: वह धन कमाओ, जो सदा तुम्हारा अपना हो। बाहर का धन तो सीमित जीवन गुज़ारने के लिए है, वह हमारा मूल सार नहीं हो सकता। आध्यात्मिक धन, आध्यात्मिक संस्कार ही हमारी पूंजी हैं, जो इस जीवन में तो हमारे साथ रहनी ही हैं और अनेक जन्मों में हम उस पूंजी को अपने साथ लेकर चल सकते हैं। तो क्यों न हम ऐसी पूंजी को कमाएं, जो हरपल हमारे अन्त:करण में समाहित रहे। हम कहीं भी जन्म लें, हमारी वर्तमान की कमाई हुई आध्यात्मिक पूंजी हमारे साथ जायेगी, उसे हमसे कोई छीन नहीं सकता है। जबकि, आप सबके भौतिक जगत् के बड़े-बड़े महल, अरबों- खरबों के बैंक-बैलेंस यहीं के यहीं धरे रह जायेंगे।
आज आपका गुरु यदि यहां पर बैठा हुआ है, तो उसके पीछे भी उसके पूर्व के संस्कार हैं और वर्तमान का जीवन है। मेरी बच्चियाँ पूजा, संध्या, ज्योति यहाँ पर बैठी हुर्इं हैं और ये भी इनके संस्कार हैं कि बचपन से उन्हें वह रास्ता प्राप्त हुआ, बचपन से उन्हें वह भाव प्राप्त हुआ। आप सभी मेरे शिष्य हैं और आपको मुझसे गुरुदीक्षा प्राप्त हुई है, इसके पीछे भी आपके संस्कार हैं। कलिकाल के भयावह वातावरण में सत्यपथ पर कितने लोग चलना चाहते हैं? कौन सा समाज है, जो नशे-मांस से मुक्त चरित्रवान् जीवन जीते हुए परोपकार के रास्ते पर चल रहा है? सबके अन्दर स्वार्थ की भावना कूट-कूट करके भरी हुई है। अत: जो विचारधारा चल रही है, उसके अनुसार अपनी निष्ठा, विश्वास और आत्मबल को प्रभावक बनाओ। आपका जीवन स्फटिक के पत्थर के समान बन जाना चाहिए, कि उसका श्वेत रंग होता है, परन्तु उसके पास में किसी अन्य रंग की वस्तु को रख दो, तो वह उस रंग के समान दिखने लगता है। वह समान दिखता अवश्य है, मगर उसका रंग कभी नहीं बदलता है।
भगवती मानव कल्याण संगठन के समस्त कार्यकर्ताओं को मैं उसी अवस्था में ले जाना चाहता हूँ कि तुम्हारा अपना एक स्वस्वरूप हो, तुम्हारे अन्दर की एक दिव्यता हो, तुम्हारे अन्दर की एक पात्रता हो और फिर तुम परोपकार की दिशा में बढ़ो। पहले अपने आपको बदलो, जग निश्चित रूप से बदलेगा। जब तुम अपनी पात्रता के साथ बढ़ोगे, तो तुम्हारा पतन नहीं होगा और तुम्हारी ऊर्जातरंगें दूसरे को लाभान्वित करेंगी। इसलिए स्फटिक पत्थर के समान दूसरे के साथ घुल-मिल करके कार्य करो। तुम्हें शराबी भी अपना माने, अन्य जातियों के लोग भी तुम्हें अपना मानें, हिन्दू भी तुम्हें अपना माने, मुस्लिम भी तुम्हें अपना माने, सिख भी तुम्हें अपना माने और ईसाई भी तुम्हें अपना माने। जब सभी धर्मों के लोग तुम्हें अपना मानेंगे, तभी वे तुम्हारी बात को मान सकेंगे।
भगवती मानव कल्याण संगठन को वह दिशा और पात्रता दी जा रही है कि हिन्दू हों, मुस्लिम हों, सिख हों, ईसाई हों या समाज का कोई भी हो, सभी उस परमसत्ता के अंश हैं। हमें समता का भाव लेकर आगे बढऩा है और सभी धर्मों का सम्मान करना है। हमें परमसत्ता ने जो क्षमता दी है, उस पर गर्व करते हुए, उस परमसत्ता से भक्ति, ज्ञान और आत्मशक्ति की कामना को लेकर सत्यपथ पर आगे बढ़ते रहना है। जिस प्रकार से प्रकाश की एक किरण आते ही अन्धकार दूर होजाता है, उसी प्रकार इस कलिकाल के भयावह वातावरण को दूर करने के लिए सिर्फ और सिर्फ यही एक मार्ग है और अन्य कोई मार्ग नहीं है।
तुम तपस्वी बन जाओ, तुम परोपकारी बन जाओ, तुम पुरुषार्थी बन जाओ, तुम नशे-मांस से मुक्त चरित्रवान् बन जाओ और फिर देखो कि यह जग बदलता है या नहीं बदलता? आपके अन्दर इस कलिकाल के भयावह वातावरण को नष्ट करने की क्षमता आ जायेगी, आपके अन्दर निर्भीकता आ जायेगी, आपके अन्दर निडरता आ जायेगी। जिस समय आप नशे-मांस से मुक्त होकर चरित्रवान् बनोगे, तपस्वी बनोगे, साधक बनोगे, उस परमसत्ता के भक्त बनोगे, तो आपके अन्दर ऊर्जाशक्ति कार्य करने लगेगी, आपकी सतोगुणी कोशिकाएं प्रभावक हो जायेंगी तथा तमोगुणी कोशिकाएं, सतोगुणी कोशिकाओं के आधीन हो जायेंगी, रजोगुणी कोशिकाएं, सतोगुणी कोशिकाओं के आधीन हो जायेंगी और यह क्षमता हमारे अन्दर है।
परमसत्ता ने सबकुछ तो दे रखा है। उसने कहाँ किसी के साथ कोई भेदभाव किया है? उसने सबको समान रूप से आत्मा के रूप में अपना अंश दिया है। गलतियां आप सबने की हैं और जो गलतियाँ हुईं हैं, यदि उन्हें सुधारकर रास्ता बदल लोगे, तो अपने आप समाज में परिवर्तन आता चला जायेगा। अत: सिर्फ एक मार्ग है कि अपने आपको साधक प्रवृत्ति में ढालो। केवल इतना ही नहीं कि किसी कथा पण्डाल में चले गये, कथा सुन ली, नाचा-गाया और वापस लौटकर फिर अनीति-अन्याय-अधर्म के रास्ते में लग गये! एक घंटे सुबह-शाम पूजापाठ कर लिए और फिर गलत रास्ते पर बढ़ गये! प्रतिपल आपके मनमस्तिष्क में यह सोच बनी रहनी चाहिए कि मैं उस परमसत्ता का अंश हूँ तथा इस कलिकाल के भयावह वातावरण से मुझे सबसे पहले अपने आपको बाहर निकालना है और जब मैं कलिकाल के भयावह वातावरण से अपने आपको बाहर निकालने में सफल हो जाऊंगा, तो निश्चित ही मैं दूसरों को भी निकालने में सफल हो जाऊंगा।
घर का कोई मुखिया नौकरी क्यों करता है? इसलिए कि वह अपने परिवार को खुशहाल रख सके, लेकिन यदि वह अपने बच्चों से, अपनी पत्नी से बहुत प्रेम करता हो और चौबीसों घंटे बस उनके पास बैठा रहे, तो करेगा क्या? अपने बच्चों को भी भूखों मारेगा, परिवार को भी भूखों मारेगा। एक किसान अगर खेतों में जाकर काम न करे और घर में बैठकर केवल यह सोचे कि मैं किसान हूँ, मेरे पास इतनी खेती है, किन्तु यदि वह कुछ उपार्जित नहीं करेगा, तो अपने परिवार और समाज को देगा क्या? इसी तरह मेरे पास भी एक मार्ग है कि मैं अधिक से अधिक अपने आपको अखण्ड साधनाओं में रत रखूँ और जितना मैं एकान्त साधनाओं में रत रहूंगा, परमसत्ता की उतनी कृपा समाज को लुटा सकूंगा।
मेरे द्वारा अपना अधिकांश समय एकान्त साधनाओं में दिया जाता है। वर्ष में मात्र दो या तीन शिविरों से ज़्यादा समय नहीं देता हूँ, मगर फिर भी मेरा जो प्रवाह है कि जिस तरह दुर्गाचालीसा का अखण्ड पाठ आश्रम में चल रहा है और एक-एक दिन में सैकड़ों नहीं, बल्कि हज़ारों-हज़ार स्थानों में दुर्गाचालीसा के अखण्ड पाठ होते हैं। पांच सौ, हज़ार, पांच हज़ार से लेकर दस-दस हज़ार तक लोग उन कार्यक्रमों में इकट्ठे होते हैं और उससे लाभ उठाते हैं। मैंने शक्तिसाधक तैयार किये हैं। वे कल तक कैसा जीवन जीते थे, कि गरीब थे, अमीर थे, कुसंस्कारी थे, मगर उस सबसे निकाल करके मैंने उन्हें संस्कारवान् बनाया है, उन्हें परोपकार का ज्ञान दिया है, उनके अन्दर पात्रता भरी है, उनके अन्दर चेतना भरी है कि वे आज लाखों की संख्या में स्वयंसेवी कार्यकर्ता के रूप में समाज में जनजागरण कर रहे हैं, दरवाजे-दरवाजे पर जाकर ‘माँ’ की आराधना का ज्ञान बता रहे हैं, दुर्गाचालीसा के अखण्ड अनुष्ठान कर रहे हैं, समाज को नशे-मांस से मुक्त चरित्रवान् बना रहे हैं और मेरे द्वारा समयानुसार आयोजित शिविरों में उपस्थित भक्तों में नवऊर्जा का संचार किया जाता है। आश्रम में होने वाले शिविरों के माध्यम से समाज को आध्यात्मिक ऊर्जा दी जाती है।
मैं समाज के उस समूह को नहीं खड़ा करना चाहता कि लाखों-करोड़ों आओ, मेरे आश्रम में इकट्ठे होजाओ और वहाँ से आपको मालामाल कर दूंगा! मैं तो आवाहन करता हूँ कि सिद्धाश्रम में ‘माँ’ का दरबार है, आप आओ और वहाँ आपकी अधिकांश कामनाओं की पूर्ति होती है, मगर मैं कहता हूँ कि आओ और उस ध्वज के नीचे एक बार खड़े होकर संकल्प करो कि अपना यह एक जीवन आप सत्यधर्म को समर्पित करेंगे और देखो कि तुम किस शक्ति से मालामाल होते हो? कौन सी अलौकिक ऊर्जा तुम्हें उस स्थान से प्राप्त होती है? दुनिया के समस्त आश्रमों में घूम-टहल लो, समस्त धार्मिक स्थानों में जाकर और वहाँ बैठकर देख लो, वहाँ भी अनुभव करके देखो तथा विज्ञान को भी परीक्षण करने की चुनौती देता हूँ कि सभी स्थानों की ऊर्जातरंगों को पकड़ करके देखे और पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम, जहाँ ‘माँ’ का अखण्ड गुणगान चल रहा है, वहाँ का परीक्षण करके देखे।
पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम में तो अभी निर्माण का प्रारम्भिक चरण है, लेकिन वहाँ पर पांच-दस मिनट कोई बैठकर देखे कि उसे कितनी आत्मशान्ति मिलती है, कितनी तृप्ति मिलती है? चूँकि वहाँ मेरी अखण्ड साधनाएं चल रही हैं, वहाँ ‘माँ’ का अखण्ड गुणगान चल रहा है, वहाँ से परोपकार की एक भावना प्रवाहित है, वहाँ साधकों का समूह इकट्ठा होता है और पात्र साधक वहाँ साधनारत रहते हैं। वह रास्ता समाज को दिया गया है और उस मार्ग पर आपको सतत बढ़ते रहना है। उस पवित्र स्थान पर भी आकर आप वहाँ से मिलने वाले लाभ को देखो कि ‘माँ’ की कृपा क्या होती है, ‘माँ’ का आशीर्वाद क्या होता है, ‘माँ’ की पात्रता क्या होती है, ‘माँ’ के नज़दीक बैठने का लाभ क्या होता है तथा हमें किस प्रकार आनन्द मिलता है? वह दिव्यधाम जो सतत तैयार किया जा रहा है, मैं जिसके निर्माण में सतत लगा हुआ हूँ। मेरा लक्ष्य है उस स्थान के कण-कण को चैतन्य करना कि आप आश्रम में पहुंचकर वहाँ के किसी स्थान पर बैठ जायें और आप अनुभव करके देखें कि एक अलग शान्ति होगी। लोग अपनी व्यथाएं लेकर आते हैं, तनाव से ग्रसित होकर आते हैं और वहां आते ही कहते हैं कि गुरुदेव जी हमें यहाँ विशेष शान्ति मिलती है तथा हम इस परेशानी से ग्रसित थे, लेकिन यहां आते ही चौबीस घंटे के अन्दर हमें लाभ मिल गया।
जहाँ सत्य होता है, वहाँ सहज भाव से लाभ प्राप्त होता चला जाता है। आप लोग एक विचारधारा का जीवन जियो, अपने मनमस्तिष्क को एकाग्र रखो। आप लोग जिस लक्ष्य व कार्य के लिए यहाँ उपस्थित हुए हो, आपका मन उस पर ही एकाग्र होना चाहिए। आप यहाँ पर अपने साधनात्मक पक्ष, अपने अन्तर्मन को निर्मल और पवित्र बनाने आये हो। अन्य व्यवस्थाएं अपनी जगह हैं, परन्तु आप अपने मनमस्तिष्क को सत्यपथ पर एकाग्र करने का प्रयास करो। शिविरों का एक-एक पल महत्त्वपूर्ण होता है, अत: मनमस्तिष्क को एकाग्र करके एक-एक क्षण का सदुपयोग करो। आप सत्यपथ के राही हो, इसलिए मनमस्तिष्क को एकाग्र करके सत्यपथ पर सतत बढ़ने का प्रयास करो। तुम्हारे कर्म ही तुम्हें सत्यपथ की ओर बढ़ाएंगे।
मध्यप्रदेश के माननीय मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान जी यहां पर उपस्थित हुए हैं, भगवती मानव कल्याण संगठन उनका हृदय से सम्मान करता है और मेरा आशीर्वाद उनके साथ जुड़ा हुआ है। भगवती मानव कल्याण संगठन के एक-एक कार्यकर्ता को तैयार करने के लिए मैंने बीसों वर्ष गुज़ारे हैं। पच्चीस वर्षों से मेरे साथ जो शिष्य रह रहे हैं, उनमें से किसी एक से मिलकर देखो। चौबीस घंटे में मात्र दो से ढाई घंटे की नींद मैंने ली है, विश्राम किया है, बाकी समय या तो एकान्त की साधनाएं या तो समाज के मार्गदर्शन में गुज़ारा है। उस एक-एक पल का प्रभाव समाज में सहज भाव से पड़ता है। आज उस पवित्र दिव्यधाम सिद्धाश्रम पर श्री दुर्गाचालीसा का पाठ पिछले अट्ठारह वर्षों से अखण्ड रूप से चल रहा है, जहां पर मैं स्वत: एकान्त साधना में रत रहता हूँ। समाज के बीच मेरे द्वारा मात्र दो या तीन शिविर ही दिये जाते हैं, मगर ऐसा कोई दिन नहीं जाता कि देश के सैकड़ों नहीं, हज़ारों-हज़ार स्थानों पर श्री दुर्गाचालीसा के अखण्ड पाठ न किये जा रहे हों।
एक लाख से अधिक स्वयंसेवी कार्यकर्ता, जिनके पास अपनी कोई पात्रता नहीं थी, गरीब परिवारों से थे, असमर्थ व असहाय थे, उनमें से अनेक लोग तो आत्महत्या करने की सोच चुके थे, उनके अन्दर मैंने चेतना भरी है, उनके अन्दर प्रेरणा भरी है और उनके अन्दर की आत्मशक्ति को मैंने जगाया है। मैंने उन्हें वह पात्रता दी है, जिस पात्रता को लेकर वे आज समाज को दिशा दे रहे हैं, मानवता को दिशा दे रहे हैं। वे स्वयं नशे-मांस से मुक्त होकर, चरित्रवान् जीवन जीते हुए माता भगवती आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा की आराधना करते हैं और जन-जन को उस आराधना का मार्ग बताते हैं, घर-घर जाकर लोगों को नशे से मुक्त होने का मार्ग बताते हैं, चरित्रवान् बनने का मार्ग बताते हैं तथा सभी लोगों को सद्भावना का पाठ पढ़ाते हैं।
भगवती मानव कल्याण संगठन ही एक ऐसा संगठन है कि पच्चीस वर्षों से समाज के बीच कार्य करने के बाद भी समाज का एक भी व्यक्ति उंगली नहीं उठा सकता कि इस संगठन ने एक मिनट भी साम्प्रदायिकता के लिए अपना समय दिया है या कहीं पर संगठन ने कोई तोडफ़ोड़ की हो! हम नशामुक्त अभियान चलाते हैं, मांसाहारमुक्त अभियान चलाते हैं, मगर आज तक हमारे लाखों-लाख कार्यकर्ताओं ने किसी दुकान को बन्द कराने के लिए तोडफ़ोड़ नहीं की है। नशे का उपयोग करने वालों को हम समझाते हैं और प्रेरित करते हैं कि आप नशामुक्त होजाओ। समाज का हित किसमें है? इसका मार्ग बताते हैं।
परमसत्ता माता आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा, हम आप सबकी जननी हैं। उन्हें निष्ठा-विश्वास से जननी मान करके उनकी नित्य आराधना करने की आवश्यकता है। मैंने आपको जो तीन तत्त्व बताये हैं कि आपका अपना आत्मतत्त्व, गुरुतत्त्व और परमसत्ता के तत्त्व में कोई भेद मत मानो। जिस तरह तुम गुरु का सम्मान करते हो, जिस तरह अपनी इष्ट का सम्मान करते हो, उसी प्रकार जिस दिन तुम अपनी आत्मा का सम्मान करना सीख जाओगे, उस दिन तुम्हारा सहजभाव से कल्याण हो जायेगा।
जिस तरह तुम अपने गुरु को कभी नशा नहीं समर्पित करते हो तथा गुरु को शुद्ध सात्विक भोजन ही समर्पित करना चाहोगे और गुरु के सामने स्वच्छता से पहुंचते हो, मन्दिरों में सफाई से पहुंचते हो, उसी प्रकार यदि तुमको यह अहसास हो जायेगा कि सबसे पहले अपनी आत्मा के समक्ष पड़े आवरण को हटाना है एवं यदि आत्मा के नज़दीक पहुंचना है, तो कुसंस्कारों व कुविचारों से दूर हटना ही होगा, सद्विचारों को ग्रहण करना ही होगा। जब तक अपनी आत्मा पर पड़े हुए आवरण को हटाने में सफल नहीं होगे, तब तक न अपना कल्याण कर सकते हो, न किसी गुरु के सच्चे शिष्य हो सकते हो और न ही किसी इष्ट के सच्चे भक्त बन सकते हो। अपनी इष्ट, ‘माँ’ का सच्चा भक्त बनने के लिए सबसे पहले अपनी आत्मा को निर्मल बनाओ और उसके लिए सबसे पहला कदम है कि नशे-मांस से मुक्त होकर चरित्रवान् बनो, एक पति/एक पत्नीव्रत धर्म का पालन करो तथा शादी के पहले कुछ भी होजाये, जीवन नष्ट करना श्रेष्ठ है, मगर चरित्रहीनता का कदम उठाना सबसे बड़ा अपराध है।
समाज में परिवर्तन केवल कहने मात्र से नहीं आयेगा, बल्कि परिवर्तन के लिए कर्म करना पड़ेगा, साधक बनना पड़ेगा, संस्कारवान् बनना पड़ेगा। अगर कोई पुष्प सुगन्धित होजाता है, तो उसके आसपास का पूरा वातावरण महकने लगता है और मैंने अपने साधकों को पारसमणि से बढ़कर बनाने का कार्य किया है। पारसमणि सिर्फ एक कार्य करती है कि उसके सान्निध्य में अगर लोहा आयेगा, तो वह उसको सोना बना देगी, मगर मेरे साधकों के अन्दर वह पात्रता, वे क्षमताएं हैं कि उनके सान्निध्य में जो आयेगा, वह उनके समान बन जायेगा। त्याग-तपस्या कभी निष्फल नहीं जाती। जिस तरह मैं समाज से कहता हूँ कि तुम नशे-मांस से मुक्त चरित्रवान् जीवन जियो और उसका पालन सबसे पहले तुम्हारा गुरु करता है। नित्य ढाई बजे से जगकर प्रात: की आराधना-साधना का क्रम रहता है और रात्रि ग्यारह बजे के पहले कभी विश्राम नहीं होता। मध्यरात्रि को भी कुछ समय के लिए मेरी ध्यान-साधना का कुछ क्रम रहता है। आप स्वत: आकलन कर सकते हो कि चौबीस घंटे में मेरी कितनी नींद होती होगी?
मेरे सभी क्रम सतत अपनी व्यवस्था से चलते रहते हैं और लम्बे अन्तराल से ऐसे ही चल रहे हैं। ब्राह्मण परिवार में जन्म लेने के बाद भी बचपन की अवस्था से आज तक कोई एक भी व्यक्ति नहीं कह सकता कि मैंने छुआछूत को महत्त्व दिया हो, जातीयता को महत्त्व दिया हो। उत्तरप्रदेश में मेरा जन्म हुआ था और वहाँ छुआछूत को बहुत महत्त्व दिया जाता था। फिर ब्राह्मण परिवार में तो आवश्यकता से ज़्यादा छुआछूत को महत्त्व दिया जाता था। कुएं की जगत में कोई उच्च जाति का व्यक्ति पानी भर रहा है और यदि कोई निम्न जाति का व्यक्ति केवल पैर रख देता था, तो पानी की भरी हुई बाल्टी पलट दी जाती थी! उस समय यह सब देखकर बड़ा दु:ख होता था और ज्यों-ज्यों थोड़ा समझने लगा, मैंने उसका विरोध करना शुरू किया। सबसे पहले अपने घर से उस विरोध को प्रारम्भ किया और धीरे-धीरे घर के सभी लोग मानने लगे तथा सभी जाति के लोग मेरे साथ बैठकर भोजन करते थे।
वर्तमान में भी जहां मेरा अधिकांश साधनात्मक जीवन है, मैं समस्त जाति-धर्म-सम्प्रदाय का छुआ हुआ, बना हुआ भोजन कर लेता हूँ और आज तक कभी मेरा धर्म नष्ट नहीं हुआ। अत: वही सीख अपने शिष्यों-भक्तों को भी देता हूँ। नशे-मांस से मुक्त चरित्रवान् बन करके जातीयता, छुआछूत और साम्प्रदायिकता से ऊपर उठ जाओ। तुम्हें इन्सानों का जन्म मिला है, इस धरती माँ की पुकार को सुनो। इस पुकार का तात्पर्य है कि इस धरती पर जीवन जीने वाले अपने समान उन मनुष्यों की चीखों को सुनो, जो गांवों में रह रहे हैं, गरीबी में रह रहे हैं, जो अपने बच्चों की पढ़ाई की फीस नहीं जमा कर पाते, बच्चों को वस्त्र नहीं पहना पाते, जिनके पास एक झोपड़ी भी नहीं है, जो एक समय का भोजन नहीं कर पाते और सोचते हैं कि हम और हमारे बच्चे सायंकाल का भोजन कैसे करेंगे? उनके दर्द को समझो, उनके दु:ख-दर्द को अपने हृदय में समाहित करो, फिर देखो कि तुम्हारे कदम परोपकार की दिशा की ओर बढ़ते चले जायेंगे।
आज तुम्हारे पास जो भी सामथ्र्य है, तुम्हारे सद्कर्मों के फलस्वरूप है। मानवता तड़प रही है, कराह रही है। एक बार जागने जी ज़रूरत है। तुम्हें जागना होगा, तुम्हें अपने कत्र्तव्यों का निर्वहन करना पड़ेगा, धर्मगुरुओं को और राजसत्ताओं पर बैठे हुए लोगों को भी अपने कत्र्तव्यों का निर्वहन करना पड़ेगा। तीन पद बड़े सौभाग्य से प्राप्त होते हैं- न्यायपालिका में बैठा हुआ न्यायाधीश, धर्मपद पर बैठा हुआ धर्मगुरु और राजसत्ताओं के शिखर पर बैठा हुआ कोई राजपुरुष। ये पद केवल वर्तमान कर्मों के फलस्वरूप प्राप्त नहीं होते, बल्कि पूर्व जन्मों के संस्कारों का पलड़ा जब एक व्यापक स्वरूप धारण कर लेता है और वर्तमान कर्मों की दिशा भी जब आगे बढ़ती है, तब कोई व्यक्ति कहीं उन पदों पर पहुंच पाता है। यदि हम यह अहसास कर लें कि हम क्या लेकर आए हैं और क्या लेकर जाएंगे और हमारा कत्र्तव्य क्या है? तो हमारे पास जो पात्रता है, वह जन्म-जन्मांतर तक बनी रहेगी। प्रकृति के मूल रहस्यों को समझो, उस सत्य को समझो कि कर्म की पूंजी ही हमारा साथ देगी, अत: उस सत्कर्म में लगो और फिर देखो कि तुम्हें आनन्द मिलता है कि नहीं मिलता, तृप्ति मिलती है कि नहीं मिलती? परोपकार को जीवन का अंग बना लो।
पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम में जो युग परिवर्तन का महाशंखनाद किया गया था, उसी कड़ी में आज नशामुक्ति का महाशंखनाद करना है। मेरा आश्रम मध्यप्रदेश में बना है, इसलिए मेरा चिन्तन था कि मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में पहुंचकर अपने लाखों शक्तिसाधकों के समक्ष वहां से महाशंखनाद करूँ और मैं चाहता था कि यदि प्रदेश की सत्ता पर बैठे हुए माननीय मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान जी उपस्थित होंगे, तो निश्चित है कि वह प्रवाह और गति पकड़ेगा। चूँकि जिस अभियान में आप लोग लगे हुए हो और जो आप लोगों की भावनाएं हैं, उनको मैं अपने शब्दों में मुख्यमंत्री जी के समक्ष रखना अवश्य चाहूंगा।
मैं माननीय मुख्यमंत्री जी को बताना चाहूँगा कि हमारा भगवती मानव कल्याण संगठन वह संगठन है, जो केवल परोपकार के कार्यों में लगा हुआ है। इस संगठन के सदस्य नशे-मांस से मुक्त चरित्रवान् जीवन जीते हैं, ‘माँ’ की आराधना स्वयं करते हैं और घर-घर जाकर ‘माँ’ की आराधना करवाते हैं। निश्चित है कि ये गरीब हैं, असमर्थ हैं, बहुत सामान्य सा जीवन जीते हैं, मगर इनके ऊपर परमसत्ता का आशीर्वाद है। आज तक संगठन ने कभी भी, किसी प्रकार से राजसत्ताओं का सहयोग लेने का प्रयास नहीं किया है। हमारा प्रारम्भ से लक्ष्य था कि संगठन के सदस्यों, कार्यकर्ताओं को पहले उनके कत्र्तव्यों का पाठ पढ़ायें। हम हर चीज़ को राजसत्ता पर थोपकर कार्य नहीं कर सकते।
आज इसी संगठन ने देश के लाखों-लाख लोगों को नशे-मांस से मुक्त कराया है। कम से कम एक लाख से अधिक वे लोग थे, जो पूरी तरह से नशे से ग्रसित थे और उन्होंने अपने घर को तबाह कर दिया था, घर की सम्पत्ति बेच डाली थी, ऐसे लाखों लोगों को बिना किसी दवा, बिना किसी इलाज़ के ‘माँ’ की कृपा से, ‘माँ’ की आराधना को उनके साथ जोड़ करके पूणरूपेण नशामुक्त कराने में यही संगठन सफल हुआ है। निश्चित है कि समाजसेवा के इस कार्य में यह संगठन संघर्ष कर रहा है और अनेक वेदनाओं को सह भी रहा है।
नशामुक्ति अभियान के लिए हमारा संगठन सभी प्रदेशों में कार्य कर रहा है और प्रदेशों में वर्तमान की जो समस्यायें आ रहीं थीं, उसके लिये मेरे अन्दर विचार था कि काश! यदि राजसत्तायें भी थोड़ा बढ़ करके समाज में कार्य कर रहे इन कार्यकर्ताओं का सहयोग कर दें, तो निश्चित ही पूरे देश को नशामुक्त बनाया जा सकता है। मात्र एक साल के अन्दर भगवती मानव कल्याण संगठन ने मध्यप्रदेश में इतने अवैध शराब, गांजा, भांग और विस्फोटक ज़ब्त कराए हैं कि शायद शासन के द्वारा भी इतनी सक्रियता से कार्य नहीं किया गया होगा! सबके रिकॉर्ड और दस्तावेज भी उपलब्ध हैं। हम कार्य कर रहे हैं और कुछ स्थानों पर निश्चित है कि प्रशासन का सहयोग मिलता है, कुछ जगह पर सहयोग नहीं मिल पाता, मगर फिर भी हमारा संकल्प है कि हम दु:ख-तकलीफों को सह करके भी उस सत्यपथ की ओर बढ़ते चले जायेंगे। यहां बैठे गुरुभाई-बहन उन दु:ख-तकलीफों को लेकर आगे बढ़ रहे हैं और इन क्षणों पर मैं वह व्यथा भी आपके सम्मुख रखना चाहूँगा, चूँकि हम आज नशामुक्ति का महाशंखनाद कर रहे हैं।
वर्तमान में मेरे दस लाख से अधिक दीक्षाप्राप्त शिष्यों एवं एक लाख से अधिक सक्रिय कार्यकर्ताओं का इस महांशखनाद में संकल्प होगा कि जीवन की अन्तिम सांस तक नशे-मांस से मुक्त चरित्रवान् जीवन जियेंगे और समाज को भी नशे-मांस से मुक्त चरित्रवान् बनायेंगे। इनमें से मेरे ऐसे अनेक शिष्य बैठे हुए हैं, जिन्हें नशामुक्ति अभियान में न जाने कितनी तकलीफों को सहना पड़ा है। अनेक शिष्यायें ऐसी हैं, जिनके ऊपर खौलता हुआ तेल डाला गया है, उन्हें जलाया गया, महीनों अस्पतालों में तड़पती रहीं, मगर शासन-प्रशासन की कोई मदद नहीं मिल पाई और संगठन ने थोड़ा-बहुत प्रयास करके जो कुछ हो सका, उनका इलाज कराया, आगे दिशा दी गई। आज भी उनके शरीर में वे दाग देखे जा सकते हैं। अनेक ऐसे शिष्य-साधक यहां बैठे हुए हैं, जिन्हें उल्टा टांगकर पीटा गया, क्योंकि वे नशामुक्ति अभियान में कार्य कर रहे थे। उल्टा टांग करके इतना पीटा गया कि वे महीनों बैठ नहीं पाये, चल फिर नहीं पाये। अनेक शिष्यों के ऊपर फजऱ्ी मुकदमें दर्ज करा दिये गए, मगर उसके बाद भी संगठन कार्य कर रहा है। हमें कोई व्यथा नहीं है, हमें कोई शिकायत नहीं है, चूँकि हमने संकल्प ही यही लिया है कि हम समाज को जगाएंगे।
आज हमारा संगठन समाज को नशामुक्त करता जा रहा है, मगर एक व्यथा है और जिसके लिए मेरा चिन्तन था कि निश्चित है मुख्यमंत्री जी प्रदेश के ऐसे मुख्यमंत्री हैं, जिन्हें इस प्रदेश की जनता ने तीन बार पूर्ण बहुमत से जिताकर मुख्यमंत्री बनाया है तथा यह एक सौभाग्य है, जो सहजता से नहीं प्राप्त होता कि जनमत साथ खड़ा हो। इसलिए हमारे संगठन की एक अपेक्षा है कि एक बार माननीय मुख्यमंत्री जी जो कर सकते हैं, वह शायद दूसरा कोई मुख्यमंत्री निर्णय न ले सके। हम हज़ारों कार्य समाज के लिए क्यों न करते चले जायें और हो सकता है कि वे कार्य याद न किये जायें। आज लोगों को लाभ मिल रहा है, कल को भूल जायेंगे, मगर आज समाज का जो सबसे बड़ा पतन हो रहा है, सबसे ज़्यादा जो समाज में अपराध फैल रहे हैं, उसके मूल में केवल नशा है। हर घर तबाह हो रहा है और यदि घर का एक भी व्यक्ति नशा करने लगता है, तो पूरे घर में तनाव होजाता है। माँ-बहन-बेटियों की इज्जत तार-तार होने लगती है। जिस चौराहे में एक शराबी खड़ा होजाता है, वहां पर बहन-बेटियां सिर झुकाकर निकलती हैं। अच्छे से अच्छे सम्मानित व्यक्ति भी शराबियों से बोलने में डरते हैं कि वह हमें कुछ कह न दे! आज लोग जितना बीमारियों से नहीं मर रहे हैं, उतना नशे से मर रहे हैं।
किसी जि़ले में यदि नशे की एक दुकान चल रही है, तो उस दुकान से सौ दुकानें बट जाती हैं और हर गांव में उनके अलग से ठेके खुल जाते हैं। शासन को बेवकूफ बनाते हैं। एक स्थान का एक करोड़ में ठेका लेते हैं और मैं कहता हूँ कि शासन द्वारा सर्वे करा लिया जाये, एक-एक दुकान की सौ-सौ दुकानें चल रहीं हैं। हर गांव में वे अपना एक केन्द्र खोल देते हैं और केन्द्र खोल देना ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि वहां गुण्डे और अपराधिक प्रवृत्ति के लोगों को संरक्षण दिया जाता है। खुली जीपों में बन्दूकों के साथ शराब की पेटियों को रखकर सप्लाई करते हैं और देखते हैं कि हमें कौन पकड़ता है? जब अपराधिक मानसिकता के गैंग के गैंग तैयार होते चले जाते हैं, तो वे शराब बेचने के अलावा अन्य अपराध भी करने लगते हैं।
आज मानवता यदि सबसे ज़्यादा पतन के मार्ग पर जा रही है, तो केवल नशे के व्यवसाय की वजह से और गौहत्या की वजह से। मेरे संगठन के कार्यकर्ता मुझे सूचित करते हैं और मुझे जानकारी मिलती रहती है। मैं केवल मध्यप्रदेश की बात नहीं कर रहा हूँ, बल्कि देश के अधिकांश जि़लों एवं क्षेत्रों से महीने में एक बार कटने के लिए गायों का एक ट्रक लदता है और हर थानों से या कुछ ऐसे स्वयंसेवी संगठन हैं, जो गौसंरक्षण की बात करते हैं, वहीं उनके द्वारा पांच-पांच हज़ार रुपये लेकर ट्रकों को छोड़ दिया जाता है। एक तरफ गौहत्या का व्यवसाय बढ़ रहा है और दूसरी तरफ नशे की अवैध दुकानें बढ़ती जा रहीं हैं। माननीय मुख्यमंत्री जी के द्वारा निश्चित है कि एक आश्वासन दिया गया कि अब समाज में नये ठेके नहीं खोले जायेंगे। एक सत्ता की अपनी सोच हो सकती है, क्योंकि अनेक प्रकार से उनको अपनी कार्य व्यवस्था को देखना है, मगर मानवता की मांग है और मेरी अपेक्षा है कि मध्यप्रदेश नशामुक्त प्रदेश बने।
किसी राजसत्ता का कोई उनका मंत्री, कोई धर्मगुरु यदि चापलूसी की बात करने लगे, स्वलाभ की बात करने लगे, तो वह उस सत्ता का सहयोगी नहीं हो सकता। धर्मपथ पर बैठा हुआ व्यक्ति यदि सत्य की बात रखता है, तो वही उस राजसत्ता का सबसे बड़ा सहयोगी होता है। हम संगठन के विचारों और भावनाओं को लेकर अपेक्षा करते हैं और निर्णय आपकी सरकार के ऊपर है। निश्चित है कि आप दिन-रात कार्यों में लगे हुए हैं और सैकड़ों कार्य कर रहे हैं, तभी समाज ने आपको तीन बार उस पद तक पहुंचाया है, मगर यदि एक बार आत्मबल के साथ इस कार्य का निर्णय आप ले लें कि सत्ता रहे या जाये, तो मैं इस अवसर पर वचन देता हूँ कि आपकी सत्ता को कोई डिगा नहीं पायेगा। मैं जो कहता हूँ, वह करता हूँ। इसके लिए मैंने बचपन से आज तक का साधनात्मक जीवन जिया है और इसके भी प्रमाण मैंने समाज के बीच दिये हैं।
एक बार यदि आप एक अभियान के तहत एक निर्णय ले लें कि इस मध्यप्रदेश के समस्त ठेके, जो सरकार के द्वारा दिये जा रहे हैं, वे एक भी ठेके नहीं दिये जायेंगे और यदि आप यह एक ठोस निर्णय ले लें, तो शायद यह एक ऐतिहासिक व सबसे बड़ा निर्णय होगा। हम अनेक योजनाओं को रोक सकते हैं और हो सकता है कि गांव में हम सड़क न बनवायें, बिजली न पहुंचा पायें, अन्य व्यवस्थायें न दे पायें, तो शायद समाज उतनी शिकायत नहीं करेगा, किन्तु यदि प्रदेश को नशामुक्त कर दिया जायेगा, तो समाज सदैव अभारी रहेगा। रह गई राजस्व की बात, तो उस राजस्व के लिए यदि मध्यप्रदेश में एक नया नशामुक्ति टैक्स ही लगा दिया जाये, तो मेरा मानना है कि प्रदेश की जनता शायद नशे के राजस्व से ज़्यादा टैक्स हर साल सरकार को देने के लिए तैयार हो जायेगी।
मैं वचन देता हूँ कि मैं अपने लाखों कार्यकर्ताओं को मध्यप्रदेश में उतार दूँगा और सरकार के समर्थन में खड़ा करके उन्हें कहूंगा कि जनजागरण करो तथा सरकार को जितना राजस्व मिलता है, उससे सवाई टैक्स देकर सरकार को कार्य करने के लिए सामथ्र्यवान् बनाओ। हमारी कोई कामना नहीं है, हम अपनी समस्याओं का समाधान अपने तरीके से कर लेंगे, हम और भी गरीबी का जीवन जी लेंगे, हम और नमक-रोटी खा लेंगे, हम और अंधेरे में रह लेंगे, यह सबकुछ हम स्वीकार कर लेंगे, मगर इस मानवता के लिए तथा यदि हम अपने देश को धर्मधुरी बनाना चाहते हैं, धर्मगुरु बनाना चाहते हैं, राजहंसों का देश बनाना चाहते हैं, तो देश को केवल एक बार नशामुक्त कर दिया जाये और इस कार्य का प्रारम्भ प्रदेशों से ही हो सकता है। मेरा अभियान सभी प्रदेशों में चल रहा है और सभी प्रदेशों से मेरी यही मांग रहेगी। यदि एक साथ नहीं हो सकता, तो एक-एक संभाग को नशामुक्त करके देखा जाये।
नशामुक्ति टैक्स लगाया जा सकता है और निश्चित ही लोग नि:स्वार्थ भाव से टैक्स देने के लिए तैयार होंगे। मैं यहां बैठे हुए समस्त लोगों से पूछता हूँ कि यदि सरकार नशामुक्ति टैक्स लगाती है, तो आप लोग देने के लिए तैयार हो? और यदि तैयार हो, तो अपने हाथ उठाकर समर्थन दो। मुख्यमंत्री महोदय, आप स्वत: देखें कि यह समाज की मांग है और आज समाज चाह रहा है कि हमारा प्रदेश नशामुक्त हो। छोटे-छोटे बच्चे मेरे पास आते हैं, तड़पते हैं कि गुरुदेव जी हमारे पिताजी का नशा छुड़वा दीजिये, पिताजी जो वेतन पाते हैं, पूरा नशे में गवां देते हैं। उस तड़प को सुनकर व्यथा होती है।
मेरे द्वारा जो समाज सुधार के क्रम एवं जो भी आध्यात्मिक चिन्तन चल रहे हैं, उनमें सबसे ज़्यादा मैंने नशामुक्ति के लिए कार्य किया है और मैं स्वत: भी वैसा जीवन जीता हूँ। ये मेरा परिवार बैठा है, पत्नी बैठी हैं, तीनों बच्चियां बैठी हैं। तीनों बच्चियों के जन्म लेने के बाद, वंश परम्परा की एक प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के बाद, जब मुझे यह चिन्तन आया कि अब मुझे और किसी परिवार की ज़रूरत नहीं है, तो उसी दिन से संकल्प लेने के बाद, कि यदि मैं समाज को नशे-मांस से मुक्त चरित्रवान् बनाता हूँ, तो मैं स्वत: नशे-मांस से मुक्त चरित्रवान् जीता हुआ एकपत्नी/एकपति व्रतधर्म का पालन करते हुए गृहस्थ में रहता हुआ सपत्नीक पूर्ण ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करता हूँ। मैं हरपल अपने शरीर को तपाता हूँ। मेरे साथ रहने वाले लोग देखते हैं कि मैं पच्चीस सालों से 24 घण्टे में मात्र ढाई-तीन घण्टे से अधिक विश्राम नहीं करता हूँ।
आज किसी के पास सौ-दो सौ लोगों का संगठन होता है, तो होहल्ला मचाते हैं, शासन के विरुद्ध आवाज़ उठाते हैं, लेकिन हम शासन के सहयोगी रहे हैं और भविष्य में भी सहयोग ही करेंगे। हमारा लक्ष्य है कि समाज में परिवर्तन आये और इसके लिए हम सदैव कार्य करते रहेंगे।
शासन के द्वारा कितने भी आदेश भेजे जायें और आज किसी भी थाने में जाइये, गरीबों की कोई सुनने वाला नहीं है। मैं कहता हूँ कि पुलिस विभाग के ही 50 प्रतिशत लोग नशे का सेवन करते हैं। यदि रक्षक ही नशे का सेवन करेंगे, तो नशामुक्त समाज का निर्माण कहाँ से करेंगे? आज़ादी के बाद से जो कांग्रेस की देन है, आज भी वही व्यवस्था चलती चली जा रही है। कहीं न कहीं किसी न किसी को तो आगे आना ही पड़ेगा, किसी न किसी को तो आवाज़ उठानी ही पड़ेगी। प्रदेश को केवल नशामुक्त कर दें, तो सारी व्यवस्थाएं अपने आप सुधर जायेंगी। हमारे कार्यकर्ताओं ने दु:खों को झेला है और जब वे थानों में जाते हैं, तो देखते हैं कि कई अधिकारी नशे में टुन्न पड़े रहते हैं। अधिकारी-कर्मचारी बात भी करते हैं तो यह कि ”हाँ, क्या? आपने शराब क्यों पकड़ी? पीने दो उनको! वे बेच रहे हैं, तुम्हारा क्या ले रहे हैं?’’ ऐसी बातों से बेचारे कार्यकर्ता निराश होकर चले आते हैं।
शासन आदेश पर आदेश देता है कि समाजसेवा में रहो, सुरक्षा में लगो, मगर कई थानों में तो शाम को छह-सात बजे के आसपास चले जाओ, तो पचहत्तर प्रतिशत पुलिस के लोग शराब पिये हुए मिलेंगे। जहां नौकरी का डर होगा, वहां तो नहीं, मगर अधिकांश जगहों की यही स्थिति है। यदि एक बार समाज को नशामुक्त करा दिया जाये और पुलिस विभाग को आदेश दे दिया जाये कि जिस तरह चौराहों पर गाड़ी चलाने वाले आम लोगों की चेकिंग होती है कि कहीं वह नशा करके गाड़ी तो नहीं चला रहा है, उसी तरह पुलिसवालों का नित्य चेकअप कराया जाये कि कहीं वे नशा तो नहीं कर रहे हैं! क्योंकि, सरकार की सभी योजनाओं को ये लोग धराशायी कर देते हैं, चूँकि क्षेत्र में सुरक्षा या अन्य व्यवस्थायें इन्हीं को देखनी होती हैं। इसलिए यदि एक बार माननीय मुख्यमंत्री महोदय एक ठोस निर्णय ले लें, तो निश्चित ही यह एक ऐतिहासिक निर्णय होगा। यद्यपि किसी भी सरकार के लिए शराबबन्दी जैसा निर्णय लेना कठिन होता है, क्योंकि सरकार की बहुत बड़े राजस्व की आय इससे जुड़ी हुई है, मगर एक लाख से अधिक मेरे सक्रिय कार्यकर्ता हैं, दस लाख से अधिक मेरे वे शिष्य हैं, जो सक्रिय कार्यकर्ता के रूप में ही हैं, मगर एक लाख ऐसे पंजीकृत शिष्य हैं, जिनको जब जहां बुलाया जायेगा, जिस सेवा में लगाया जायेगा, उस कार्य में लगने को तैयार बैठे हैं।
हम सरकार के साथ मिलकर समाज को जगायेंगे और जिस प्रकार जगह-जगह बिना किसी की मदद के हम नशामुक्ति अभियान चला रहे हैं, उसी प्रकार सरकार द्वारा लगाए जाने वाले नशामुक्ति टैक्स के लिए दरवाज़े-दरवाज़े जाकर समाज को प्रेरित करेंगे कि यदि सरकार आपके लिए इतना अच्छा कार्य कर रही है, तो आपका कत्र्तव्य है कि जो राजस्व सरकार को मिलता था, उससे ज़्यादा आप सरकार को टैक्स दिलाओ। जितने ठेकेदार हैं, वे तो सरकार का अहित करते हैं। सरकार की यदि किसी जगह से एक करोड़ की आमदनी होती है, तो वे ठेकेदार वहां से दस करोड़ का फायदा उठाते हैं। इस प्रकार अनीति-अन्याय-अधर्म और अत्याचार भी उन्हीं के द्वारा होता है, उनके अन्दर अपराधिक प्रवृत्ति पनप जाती है, कोई उनके िखलाफ आवाज़ नहीं उठा सकता और जिन गावों में उनके ठेके खुल जाते हैं, वहां के गरीब लोग उनके िखलाफ आवाज़ नहीं उठा सकते और उनके द्वारा गरीबों का शोषण किया जाता है।
माननीय मुख्यमंत्री महोदय स्वत: समझ सकते हैं कि आज इतना बड़ा संगठन चल रहा है, मंत्री गोपाल भार्गव जी भी बैठे हुए हैं, अनेक क्षेत्रों के विधायक और सांसद भी यहां बैठे हुए हैं और कुछ लोग आश्रम जाकर वहां अनवरत चल रहे ‘माँ’ के अखण्ड पाठ को भी देख चुके हैं। यहां पर सुधा मलैया जी भी बैठी हुई हैं, वह भी आश्रम जा चुकी हैं और सभी जानते हैं कि वहां जाने वाले एवं वहाँ रह रहे मेरे सभी शिष्य नशे-मांस से मुक्त चरित्रवान् हैं, ब्रह्मचर्य व्रत एवं एकपत्नी/एकपति व्रतधर्म का पालन करते हैं।
हमें अपनी समस्याओं के लिए सरकार से कोई सहयोग नहीं चाहिए। हम बार-बार आग्रह कर रहे हैं और फिर से इस आसन से वचन देता हूँ कि यदि एक बार सरकार प्रदेश को नशामुक्त करने का निर्णय कर ले, तो मैं अपने पूरे संगठन के लाखों-लाख कार्यकर्ताओं को, सरकार जो भी निर्देश देगी, उस निर्देश में लगाने के लिए तैयार हूँ।
हम महाश्ंाखनाद की ओर बढ़ रहे हैं तथा जिसमें मेरी अपेक्षा भी थी कि मुख्यमंत्री जी भी इस महाशंखनाद में सम्मिलित होते, आज के दिव्य आरतीक्रम में सम्मिलित होते, मगर फिर भी शासन की व्यवस्थाएं होती हैं व उनके अनुसार जो भी व्यवस्थाएं होंगी, उसी के आधार पर ही आगे कार्य किए जायेंगे।
हमारा संगठन अनेक दु:ख-तकलीफों को सहता हुआ आज समाज के बीच कार्य कर रहा है। इसलिए हम कभी मीडिया आदि में प्रचार न चाहते हुए धरातल में समा करके कार्य करना चाहते हैं और उसी का परिणाम है कि मेरे एक-एक कार्यक्रम में पच्चीस से पचास हज़ार लोग दीक्षा प्राप्त करते हैं और सभी नशे-मांस से मुक्त चरित्रवान् बनने का संकल्प लेते हैं। इसके बाद भी आप प्रदेश के मुखिया होते हुए स्वत: देख सकते हैं कि हमारे संगठन ने मध्यप्रदेश में कोई आन्दोलन, कोई धरना आज तक न किया होगा। हम सदा रचनात्मक कार्यों में अपन समय देना चाहते हैं और समाज का एक पल भी हम व्यर्थ नहीं करना चाहते हैं, क्योंकि हर मनुष्य का एक-एक पल महत्त्वपूर्ण हैं। हम समाज को उसी दिशा में बढ़ाना चाहते हैं कि मुझसे जुड़ा हुआ संगठन का हर व्यक्ति और समाज का हर व्यक्ति नशे-मांस से मुक्त चरित्रवान् जीवन जिये, भ्रष्टाचारमुक्त जीवन जिये तथा आत्मकल्याण और जनकल्याण की दिशा में बढ़े।
प्रदेश के मुखिया माननीय मुख्यमंत्री हैं, जो निश्चित है कि एक युवा हैं, समाज में बहुत ज़्यादा सक्रियता से कार्य करने में लगे हुए हैं और मैंने कहा है कि सब कार्य एक तरफ हो जायेंगे, यदि सरकार एक कार्य के निर्णय के लिए एक बार हिम्मत जुटा ले। कार्य कठिन ज़रूर है और मैं बार-बार कह रहा हूँ कि प्रारम्भ में तो सरकार को राजस्व की क्षति नज़र आयेगी, मगर सरकार चाहे तो मैं दूसरा रास्ता बता रहा हूँ कि जिस प्रकार सरकार नशे के ठेके देती है, उसी प्रकार सरकार के द्वारा भगवती मानव कल्याण संगठन को एक-एक संभाग को नशामुक्ति का ठेका दे दिया जाये। एक-एक संभाग सौंप दें और उस सम्भाग से जितनी आय हो रही होगी, मैं इस स्थान से वचन देता हूँ कि उस सम्भाग के गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोगों को छोड़कर उससे ज़्यादा आय नशामुक्ति टैक्स के माध्यम से सरकार को दिलाने में संगठन सफल होगा और जितना सरकार को राजस्व मिलता है, उससे सवाई आमदनी होगी। मैंने कार्यकर्ताओं को इसके लिए ही तैयार किया है कि समाज में रचनात्मक कार्य किये जायें। समाज में वह कार्य किया जाये कि हम रहें न रहें, आगे आने वाली पीढ़ी सम्मान का जीवन जी सके।
केन्द्र में भी भारतीय जनता पार्टी की सरकार है और माननीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी के द्वारा भी अनेक समाजकल्याणकारी कार्यों को करने का आश्वासन दिया गया है और उस दिशा में कदम उठाये जा रहे हैं। इसलिए यदि मध्यप्रदेश की भारतीय जनता पार्टी की सरकार प्रदेश को नशामुक्त करने का निर्णय ले लेगी, तो यह मानवता के लिए बहुत बड़ा कदम होगा। मैं आज ही निर्णय लेने की बात नहीं कह रहा हूँ, बल्कि विचार करके अपनी कैबिनेट की मीटिंग करके निर्णय लिया जाए कि यदि यह निर्णय ले लिया गया, तो शायद इस कार्य को मानवता कभी नहीं भूल पायेगी। मैं राजस्व की क्षति नहीं होने दूंगा, इसके लिए मैं अपनी पूरी सामथ्र्य लगाने के लिए तैयार बैठा हूँ, पूरे कार्यकर्ताओं को लगाने के लिए तैयार बैठा हूँ। इसके बदले हमारी कोई अपेक्षा या आकांक्षा नहीं है।
मैंने आठ महाशक्तियज्ञ समाज के बीच अलग-अलग स्थानों पर किए हैं और मुझे अभी शेष 100 यज्ञ करना है, जिनमें से एक यज्ञ में ग्यारह दिन, आठ-नौ घण्टे प्रतिदिन अग्नि के समक्ष एक आसन पर बैठना पड़ता है। मेरा अधिकांश समय अग्नि के समक्ष साधनारत रहने में ही व्यतीत हो जायेगा। न मुझे किसी सुख की कामना है और न ही किसी वैभव की आकांक्षा है। मानवता की सेवा के लिए मैंने माता जगदम्बे के चरणों पर संकल्प लिया है और उस सेवा में मैंने अपने आपको, अपने जीवन को समर्पित किया है, उस सेवा में मैंने अपने संगठन व अपनी बच्चियों का पूरा जीवन समर्पित किया है।
आप निर्णय लेने के लिए एक बार सोचने का प्रयास करें और मैं उससे ज़्यादा अपेक्षा करता हुआ आपका आवाहन भी करूंगा, आपको निमंत्रण भी देना चाहूँगा कि एक बार आप अपनी पूरी कैबिनेट के साथ उस पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम में पहुंचें, जहां पिछले अट्ठारह वर्षों से दिन-रात ‘माँ’ का अखण्ड गुणगान चल रहा है, जिसकी वजह से देश के कोने-कोने में जनजागरण हो रहा है। यह जो आज समाज नशे-मांस से मुक्त चरित्रवान् बन रहा है, उन्हीं क्रमों से बन रहा है। एक बार वहां बैठेंगे, तो निश्चित है कि ‘माँ’ की कृपा से आप स्वत: निर्णय लेने में सक्षम होंगे। कहीं न कहीं परमसत्ता से आपको वह विचार प्राप्त हो सके और कैबिनेट के साथ चर्चा करके आप यह निर्णय अवश्य लें। इस दिशा में यदि कहीं से भी शुरुआत की जाये, छोटे स्तर से भी यदि शुरुआत कर दी जाये, तो निश्चित है कि समाज को कहीं न कहीं एक आश्रय सा नज़र आयेगा। समाज को लगेगा कि हमारे अभियान में सरकार हमारा साथ देने के लिए तत्पर है।
आज हम महाशंखनाद की ओर बढ़ रहे हैं। अत: मैं अपने भगवती मानव कल्याण संगठन के कार्यकर्ताओं से कहता हूँ कि संकल्प ही हमारा जीवन है एवं जीवन नष्ट हो जाये, मगर हमारा संकल्प कभी न टूटे। हमें जातीयता और साम्प्रदायिकता से अपने संगठन को बिल्कुल निकाल करके रहना है। हमें सिर्फ अपनी रक्षात्मक प्रणाली को प्रबल करना है। हमारी शक्ति का कभी दुरुपयोग न होने पाये, हमारे संगठन की शक्ति से एक छोटा सा भी व्यक्ति कभी प्रताडि़त न होने पाये, मगर अनीति-अन्याय-अधर्म के विरुद्ध पूरी आत्मशक्ति से आवाज़ उठाने की ज़रूरत है। अनीति-अन्याय-अधर्म के विरुद्ध कभी घुटने मत टेकना, क्योंकि यही हमारा जीवन है।
आपके शरीर के अन्दर दो प्रकार की कोशिकाएं हैं। एक ओर जहां भय की कोशिका है, वहीं निर्भयता की कोशिका भी है, तो क्यों न हम ऐसी कोशिका को जगायें, जो हमें निर्भयता प्रदान करती हो। आत्मा अज़र-अमर-अविनाशी है और यह शरीर तो नाशवान है ही। इसलिए मैंने आप लोगों को कहा है कि भले साधु-सन्त-संन्यासी कहते हों कि ‘माया महाठगिनी मैं जानी’, मगर वे माया में ही लिप्त रहते हैं। मेरे द्वारा कहा जाता है कि माया उतनी ठगनी नहीं है, बल्कि ‘काया महाठगिनी मैं जानी’। सबसे बड़ी आपकी यह काया महाठगिनी है, जो आपको सुख-सुविधाओं, विषय-विकारों की ओर लेजाती है। यह जो काया मिली हुई है, इस काया को तुम ठग डालो, इसका तुम उपयोग कर डालो, क्योंकि इसको तो नष्ट हो ही जाना है। तुम अज़र-अमर-अविनाशी आत्मा हो, इसलिए आत्मावानों का जीवन जियो। अपनी काया को परोपकार, तपस्या, साधना, दृढ़ संकल्प का जीवन जीने में नष्ट होने दो।
सच्चाई, ईमानदारी की नमक-रोटी खा लेना श्रेष्ठ है, जबकि अनीति-अन्याय-अधर्म करके अर्जित पैसे से आपके घर में भोजन न बने और यही आपका संकल्प होना चाहिए। मैं स्वत: वैसा जीवन जीता हूँ। धर्मक्षेत्र से होकर भी समाज के दिये हुए समर्पण से न तो अपना जीवकोपार्जन करता हूँ और न ही अपने परिवार का जीवकोपार्जन करता हूँ। मैं जब से साधनात्मक पक्ष में था, तब से मैंने अपने साथ ऐसे व्यवसाय जोड़ रखे थे, जिनसे इतनी आय होजाती है कि मेरे परिवार का जीवकोपार्जन होजाता है और समाजसेवा के कार्यों में भी कुछ न कुछ लगाने में सफल होजाता हूँ। यह क्रम जीवन की अन्तिम सांस तक रहेगा। मैं आश्रित होकर जीवन नहीं जीना चाहता। मैंने बचपन से यही यात्रा तय की है।
मैंने किसी गर्व और घमण्ड में आध्यात्मिक क्षेत्र को चुनौती नहीं दी थी, चूँकि मैं जानता हूँ कि यदि आज अध्यात्म क्षेत्र सुधर जाये, तो पूरा जग सुधर जायेगा, मगर धर्मक्षेत्र आज खोखला हो चुका है। एक किसान परिवार में मेरा जन्म हुआ है, सामान्य सा जीवन जीता हूँ, मगर ‘माँ’ की कृपा के फलस्वरूप एक ओर जहां मानवता की रक्षा के लिए मेरा यह अभियान चल रहा है, वहीं धर्मरक्षा के लिए भी मैंने पूरे विश्वअध्यात्मजगत् को आध्यात्मिक तपबल की ससम्मान चुनौती दी है कि वर्तमान में यदि कोई शक्तिसाधक है, तो मेरी साधनात्मक क्षमताओं की चुनौती का सामना करे।
वहां मीडिया, वैज्ञानिक, प्रशासन उपस्थित हों और दो-चार-छह ऐसे कार्य दिये जायें कि एक स्थान पर बैठकर हज़ारों किलोमीटर दूर की जानकारी बताने की पात्रता आज किसके पास है? अपने स्पर्श के माध्यम से किसी भी असाध्य रोगी को ठीक कर देने की पात्रता किसी के पास है या नहीं? किसी की कुण्डलिनीचेतना जाग्रत् है या नहीं? किसी के पास ध्यान-समाधि में जाने की पात्रता है या नहीं? किसके अन्दर मस्तिष्क को नियंत्रित करने की क्षमता है, इसका परीक्षण विज्ञान भी कर सकता है? कौन अपने सूक्ष्मशरीर को जाग्रत् कर सकता है? वह जो बोल रहा है, उसकी वाणी सत्य है या असत्य, इसका परीक्षण करने की भी विज्ञान के पास क्षमता है। इसका एक परीक्षण धर्मरक्षा के लिए होना चाहिए और मैं स्वत: उसमें उपस्थित होने के लिए तत्पर हूँ। यदि कोई मुझे अपनी साधनात्मक क्षमता से झुका देगा, तो अपना सिर काटकर उसके चरणों में चढ़ा दूंगा और यदि वह कहेगा, तो आजीवन उसकी गुलामी करूंगा। वह नाली, बाथरूम साफ करने का काम देगा, तो जिन्दगी भर सिर झुकाकर करूंगा। मेरा कोई गर्व-घमंड नहीं है, बल्कि मैं चाहता हूँ कि धर्म की रक्षा हो।
आज भी वह ऋषित्व जीवित है, जो मानवता की रक्षा के लिए साधनात्मक तपबल के माध्यम से किसी भी असम्भव को सम्भव कर सकता है। वर्तमान में हज़ारों धार्मिक संस्थाएं होकर भी समाज में परिवर्तन इसलिए नहीं कर पा रहीं हैं, क्योंकि उनके अन्दर न्यूनता है। अधिकांश कथावाचकों को देखो कि समाज को तो ज्ञान देंगे, लेकिन उनके हाथों में देखो, तो स्वयं रत्न-अगूंठियां धारण किए होंगे। उनको खुद भय है, उन्हें भगवान् पर विश्वास ही नहीं है और यदि वे राम-कृष्ण को हृदय में धारण किये होते, शिव को धारण किए होते, ‘माँ’ को धारण किए होते, तो वे रत्नों के गुलाम न होते!
आज एक ठोस निर्णय लेने की आवश्यकता है कि हम बदलेंगे, जग अवश्य बदलेगा और यह ध्रुव सत्य है। अत: अपने आपको बदल डालो और आत्मकल्याण व परोपकार की दिशा में अपनी पूरी सामथ्र्य को झोंक दो। यह सामथ्र्य एक दिन तो नष्ट हो ही जानी है। सोचते-समझते तो आधी उम्र गुज़र जाती है और जो शेष उम्र बची है, उसे एक बार मानवता की सेवा में लगा दो, फिर देखो कि किस प्रकार जग बदलता चला जाता है?
समय के आधार पर हम आरती के पहले महाशंखनाद भी करेंगे, मगर इस समय हमारे प्रदेश के मुखिया माननीय मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान जी यहां उपस्थित हैं, वे आप लोगों को सम्बोधित करेंगे तथा उनके विचार महत्त्वपूर्ण होंगे। वे ‘माँ’ के भक्त हैं और ‘माँ’ की आराधना करते हैं। अपेक्षाएं हमारी बहुत हैं, मगर उस दिशा में यदि कुछ भी आश्वासन एवं प्रेरणा इन भक्तों को मिलेगी, जो दिन-रात नशामुक्ति के लिए कार्य कर रहे हैं, तो निश्चित है कि उन्हें एक सहारा मिलेगा।
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान जी का सम्बोधन-
‘आत्मनो मोक्षार्थं जगत् हिताय च’ आत्मा के मोक्ष और जगत् के हित के लिए, जिन्होंने यह देह धारण की है, मैं ऐसे परम श्रद्धेय सद्गुरु जी महाराज के चरणों में प्रणाम करता हूँ। वैसे तो ये हम सबके और सब उनके हैं, लेकिन आज ये राजधानी भोपाल में विद्यमान हैं, इसलिए मेरा प्रथम सेवक होने के नाते यह कत्र्तव्य बनता है कि मध्यप्रदेश की साढ़े सात करोड़ जनता की ओर से मैं उनका हृदय से अभिनन्दन करूँ, उनका हृदय से स्वागत करूँ!
मेरी बहनों और भाइयों! जब मैं महाराज जी से मिलने आ रहा था, तो सोच रहा था कि महाराज जी से जाकर क्या मांगूंगा? कुछ न कुछ तो मांगना चाहिए न! तब तीन चीज़ें मेरे ध्यान में आईं कि महाराज जी, एक तो सद्बुद्धि देना, क्योंकि पद पर पहुंचने के बाद बुद्धि बहुत जल्दी बिगड़ती है, ज़मीन पर कम चलते हैं, आसमान में ज़्यादा उडऩे लगते हैं, अत: सद्बुद्धि बनी रहे। दूसरा सन्मार्ग पर चलाना, क्योंकि राजनीति की राहें बड़ी रपटीली होती हैं, कदम-कदम पर फिसलने का खतरा होता है तथा कई बार तो खुद ही फिसल जाते हैं और कई बार तो फिसलाने वाले भी बहुत आ जाते हैं। अत: सन्मार्ग पर चलते रहें और तीसरा यह सामथ्र्य देना कि स्वयं को झोंककर जो कुछ हो सके, मध्यप्रदेश की जनता का बेहतर से बेहतर कल्याण करने की कोशिश कर सकें। आज मेरा प्रथम मिलन है, लेकिन ऐसा लगा नहीं कि पहली बार मिला हूँ, बल्कि जनम-जनम का साथ है।
मानवजीवन का अन्तिम लक्ष्य है, परमात्मा की प्राप्ति। अब परमात्मा को किसी भी रूप में देख लें, जगत् जननी माँ भगवती के रूप में देखें या और किसी रूप में देखें, लेकिन वे मिलेंगी कैसे? जैसा महाराजश्री कह रहे थे और हमारे संतों ने आज से नहीं, हज़ारों वर्षों से हमें तीन मार्ग बताएं हैं- एक ज्ञानमार्ग, दूसरा भक्तिमार्ग और तीसरा कर्ममार्ग। अब ज्ञानमार्गी वह, जो हमें ठीक रास्ता बताये कि सत्य क्या है, जीवन क्या है, आत्मा क्या है, परमात्मा क्या है, क्या करना चाहिए, क्या नहीं करना चाहिए, कर्म, अकर्म क्या है, विकर्म क्या है? जो हमें सत्यज्ञान दे, जैसे हमें महाराजश्री दे रहे थे। ये ज्ञानमार्गी हैं। जैसे शंकराचार्य महाराज जी कहते थे कि ‘ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव नापर:’ ब्रह्म सत्य है, संसार मिथ्या है। किसी ने कहा, तो दिखाई क्यों देता है? तो उन्होंने कहा कि जैसे नींद में जब सपना आता है, तो सपना ही सच दिखाई देता है। सपने में यदि लॉटरी लग गई, तो खटिये पर ही लोटपोट होजाते हैं, लेकिन जब नींद खुलती है, तो पता चलता है कि यह तो सपना था। जैसे नींद में सपना देखते हैं, तो सपना ही सच लगता है, वैसे ही माया की नींद में यह जगत् सच लगता है, जबकि यह सच नहीं है, सच केवल परमपिता परमात्मा हैं। जो हमें ज्ञान प्रदान करें, वे ज्ञानमार्गी हैं।
महाराज की तरह सब ज्ञानमार्गी तो हो नहीं सकते, तो कुछ ने दूसरा मार्ग बात दिया, भक्तिमार्ग। इस मार्ग पर चलने वाला भगवान् की भक्ति में पागल होता है। ‘माँ’ की जो साधना-उपासना करते हैं, जैसे रामकृष्ण परमहंस जी माँ काली के उपासक थे। एक दिन अड़ गये कि रोज़ भोग लगाता हूँ, लेकिन खाती नहीं हैं, अब तो जब तक नहीं खाओगी, तब तक मानूंगा नहीं। परमहंस अड़ गये कि प्रकट हो और भोजन करो। मइया नहीं आईं, तो जो मइया के हाथ में खड्ग रखा था, उन्होंने उसी को निकाला और कहा कि यह जीवन व्यर्थ है और यदि मेरे कहने से ‘माँ’ नहीं आतीं, तो मैं जीकर क्या करूंगा? और, जैसे ही अपनी गर्दन पर वार करने को तैयार हुए, तो ‘माँ’ ने प्रकट होकर हाथ पकड़ लिया। यह भक्तिमार्ग है।
भगवान् रामचन्द्र जी का दरबार लगा था और वहाँ मइया सीता, भइया लक्ष्मण, भरत-शत्रुघ्न, नल-नील, अंगद, जामवन्त, हनुमान सब बैठे थे। अचानक सीता जी बोलीं कि, ‘वैसे तो मुझे सभी पुत्र बहुत प्यारे हैं, लेकिन पुत्रों में पवनपुत्र अत्यन्त श्रेष्ठ हैं और मैं इससे बहुत स्नेह करती हूँ।’ यह कहते हुए मइया ने अपने गले से मोतियों की एक माला निकाल ली और हनुमान जी की गोद में डाल दी और कहा कि, ‘बेटा, अयोध्या की यह सबसे कीमती मोतियों की माला तुझे भेंट करती हूँ।’ हनुमान जी ने माला उठाई, उसे उलटा-पलटा, देखा, फिर माला तोड़ दी। माला तोड़कर एक मोती निकाला, उसे तोड़ा, देखा और फेंक दिया, फिर दूसरा मोती निकाला, तोड़ा, देखा और फेंक दिया, तीसरा मोती निकाला, तोड़ा, देखा और फेंक दिया और इस तरह एक-एक मोती निकालते जायें, तोड़ते जायें, देखते जायें, फेंकते जायें। दरबार आश्चर्यचकित हो गया कि बजरंग को हो क्या गया है? मइया ने इतने स्नेह से मोतियों की माला दी और ये तोड़-तोड़कर फेंक रहा है। सीता जी बोलीं, ‘बेटा! बात क्या है? इतनी कीमती माला मैंने तुझे भेंट की, तू तोड़कर फेंक रहा है!’ बजरंग मुस्कुरा दिये, ‘मइया तू भी झूठ बोलती है!’ दरबार चकित हो गया कि हनुमान जी सीता जी से कह रहे हैं कि मइया तुम भी झूठ बोलती हो! सीता जी बोलीं, ‘बेटा, मैंने क्या झूठ बोला?’ हनुमान जी बोले ‘मइया तू तो कहती थी कि यह माला अयोध्या की सबसे कीमती माला है’। सीता जी बोलीं, ‘हाँ, अब भी कहती हूँ कि यह माला अयोध्या की सबसे कीमती माला है।’ तब बजरंग बोले- ‘अरे, मेरे लिए तो कीमती वह है, जिसमें मेरे भगवान् श्रीराम और मइया सीता रहती हों। मैं तो इन मोतियों को तोड़-तोड़कर देख रहा हूँ, न कहीं भगवान् राम दिखाई देते हैं, न कहीं मइया सीता दिखाई देती हैं। इसलिये बेकार समझकर फेंक रहा हूँ।’ पहले भी जलने वाले लोग हुआ करते थे। दरबार में खड़े होकर एक ने बोला कि बजरंग बता, ‘तू अपने शरीर से प्यार करता है कि नहीं!’ बजरंग ने कहा, ‘हाँ, सब करते हैं, मैं भी करता हूँ।’ तो उसने कहा कि, ‘बता तेरे शरीर में भगवान् श्रीराम और मइया सीता हैं कि नहीं?’ तब हनुमान जी ने सीना चीर दिया और सारे दरबार ने देखा कि हनुमान जी के हृदय में भगवान् श्रीराम और मइया सीता विराजमान् थे। यह भक्तिमार्ग है, लेकिन यदि कोई भक्तिमार्ग पर भी न चल सके, तो तीसरा मार्ग बताया- कर्ममार्ग।
कर्ममार्ग का मतलब क्या है? जो काम परमपिता परमात्मा ने, जगत् जननी मइया ने आपके लिए तय कर दिया, उसको मेहनत और ईमानदारी से करते चलो। यदि शिक्षक हो, तो ईमानदारी से पढ़ा लो और भक्तिपूजा करते बने, तो करो, नहीं बने, तो नहीं करो, तुम्हें परमपिता परमात्मा मिल जायेंगे। किसान हो, खूब खाद्यान्न पैदा करो, परमपिता परमात्मा मिल जायेंगे। डॉक्टर हो, तो इलाज के अभाव में किसी गरीब को दम न तोड़ने दो, परमपिता परमात्मा मिल जायेंगे। इंजीनियर हो, भवन बनाओ, पुल-पुलिया, सड़क बनाओ, लेकिन सीमेंट की जगह रेत मत मिलाओ, ईमानदारी से काम करो, परमपिता परमात्मा मिल जायेंगे। नेता हो, तो हवाला, घोटाला और बेईमानी मत करो, ईमानदारी से जनता की सेवा कर लो, परमपिता परमात्मा मिल जायेंगे।
भक्ति, ज्ञान और कर्म, ये तीन मार्ग हैं, लेकिन गुरुदेव जी, तीनों मार्गों का त्रिवेणी संगम यदि मैंने कहीं देखा है, तो वह आज आपमें देखा है। आप ज्ञानमार्गी भी हैं, क्योंकि हमें सत्य का रास्ता बता रहे हैं। आप भक्तिमार्गी भी हैं, क्योंकि ‘माँ’ की साधना और उपासना करते हैं और साथ ही कर्ममार्गी भी हैं, क्योंकि आप नशामुक्ति का महाशंखनाद करने निकल पड़े। लोगों के मन में जो कुविचार हैं, वे बाहर जायें, सद्विचार अन्दर आयें, तपस्या, साधना करके जीवन को पवित्र बनायें, जीवन को उद्देश्यपूर्ण बनायें, इस अभियान में आप लगे हुए हैं। मैं मध्यप्रदेश की साढ़े सात करोड़ जनता की ओर से आपको धन्यवाद देता हूँ, आपके चरणों में प्रणाम करता हूँ कि इस पवित्र कार्य में आप लगे हुए हैं और यदि देखा जाये, तो धर्म का यही सच्चा मार्ग है।
मानवजीवन का अंतिम लक्ष्य क्या है? क्या हम इसलिये आये हैं कि हम केवल अपना पेट भरते रहें। मैं आज आपके समक्ष कहना चाहता हूँ कि मैं भी नर्मदा के तट पर पैदा हुआ, बचपन से अध्यात्म मेरा वेश रहा और यदि राजनीति में मैं आया, तो यही सोचकर आया कि राजनीति के माध्यम से व्यापक जनकल्याण का कार्य किया जा सकता है और महाराज जी तीसरे कार्यकाल तक आपके आशीर्वाद से जो कुछ बना, पूरी मेहनत और ईमानदारी से कार्य करने की कोशिश की है। प्रयास में कभी कोई कसर नहीं रखी है, कभी कोई कमी नहीं छोड़ी है तथा जो कुछ अच्छा बना है, उसे करने की लगातार कोशिश कर रहा हूँ। बाधाएं व व्यवधान आते हैं, रास्ते रोके जाते हैं, कई तरह के आरोप लगाये जाते हैं, लेकिन मानवजीवन की सार्थकता इसी में है कि मानवजीवन दुनिया के कल्याण के काम में आ जाये, तो इससे बेहतर जीवन और क्या हो सकता है और सच में जनता की सेवा करके धन्य महसूस करने की कोशिश करता हूँ।
महाराज जी, अभी कई क्षेत्रों में गरीब और भूखे लोगों की बात कर रहे थे और हमने जब एक रुपया किलो गेंहू और चावल की बात की, तो कई लोगों ने बहुत विरोध किया और कहा कि टैक्सपेयर का पैसा है, सस्ता बांटे जा रहे हो, लुटाये जा रहे हो, क्या केवल आपका है? मैंने कहा कि भगवान् ने धरती बनाई, तो सबके लिए बनाई, पानी बनाया, तो सबके लिए बनाया, खाद्यान्न बनाया, तो सबके लिए बनाया, हवा बनाई, तो सबके लिए बनाई, लेकिन सबकुछ सबके पास तो नहीं है। इसलिए जिनके पास है, उनसे टैक्स लेते हैं और जिनके पास नहीं है, उनको सस्ता बांटने का प्रयास करते हैं, तो हिसाब-किताब बराबर होजाता है।
महाराज जी, मुझे लगा कि रोटी-कपड़ा-मकान और पढ़ाई-लिखाई-दवाई का तो हर व्यक्ति का मौलिक अधिकार है, बुनियादी अधिकार है। सस्ता राशन मिल जाये, शिक्षा में पैसा न लगे, नि:शुल्क इलाज़ होजाये, बेटा-बेटी की शादी में पैसा न लगे, इस तरह के अनेक प्रयास में लगा हूँ। मैं उपलब्धियां बखान करने नहीं आया और उसका औचित्य भी नहीं है, आवश्यकता भी नहीं है तथा आप तो जानते हैं, त्रिकालदर्शी हैं, लेकिन आम आदमी की जिन्दगी में कैसे खुशहाली आये, उसके प्रयास लगातार होते रहे हैं।
महाराज जी, शिक्षा का स्तर कैसे सुधरे? शिक्षा में नागरिकता के संस्कार देने का भाव कैसे आये? इसलिये हमने पूरी ताकत के साथ यह फैसला किया कि हम योग, अध्यात्म और गीता की शिक्षा का ज्ञान मध्यप्रदेश की पाठ्य-पुस्तकों में देने का कार्य करेंगे। मैं जानता हूँ कि केवल भौतिक पक्ष मनुष्य को कभी सुखी नहीं कर सकता। सुख की तलाश में यदि हम भटकते हैं, तो केवल बंगला, गाड़ी, धन-धान्य, भौतिकता के अकूत भण्डार के लिए, जो हमें कभी भी पूर्णरूप से सुखी नहीं कर सकते। यदि हमें सुखी होना है, तो केवल शरीर नहीं, बल्कि मन के सुख की, बुद्धि के सुख की और आत्मा के सुख की व्यवस्था भी करनी पड़ेगी। इसलिए केवल भौतिक सुख से काम नहीं चलेगा। महाराज जी, जैसा आपने उपदेश दिया है कि अध्यात्म का सुख जब तक नहीं आयेगा, संस्कार नहीं आयेंगे, तब तक मानव पूरी तरह से सुखी नहीं रह पायेगा और मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ, क्योंकि आज तो आपके चरणों में आया हूँ, मैं अपनी तरफ से राजसत्ता को उस दिशा में ले जाने में कोई कसर नहीं छोड़ूंगा।
महाराज जी, मेरे मन में एक विचार आया कि जब मैं मुख्यमंत्री बना, तो मुझे लगा कि मध्यप्रदेश में भावनात्मक एकता नहीं है। वैसे तो सारी दुनिया एक परिवार है, आप मानते हैं और भारत के लिए कहा भी गया है- ‘अयं निज: परो वेति गणना लघुचेतसाम्। उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्।।’ ये मेरा, ये तेरा, ऐसी सोच छोटे दिलवालों की होती है, लेकिन जो विशाल हृदय के होते हैं, जो उदार हृदय के होते हैं, वे तो कहते हैं कि सारी दुनिया ही एक परिवार है। आपने ही कहा है कि धर्म की जय हो! अधर्म का नाश हो! प्राणियों में सद्भावना हो और विश्व का कल्याण हो! यह हमारे देश का दर्शन है और आप ही हैं, जिन्होंने कहा है ‘सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया:। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दु:ख भाग्भवेत्।।’ सब सुखी हों, सब निरोगी हों, सबका मंगल-कल्याण हो। यह भाव यहीं आपके पास से जाता है, सन्तों के माध्यम से जाता है और इसी भाव को जाग्रत् करते हुए काम करने का प्रयास करता हूँ। मुझे लगा कि मध्यप्रदेश में भावनात्मक एकता होनी चाहिए, तो हमने मध्यप्रदेश गीत बनाया, फिर मैंने अपने स्तर पर एक अभियान शुरू किया कि ‘आओ बनाएं अपना मध्यप्रदेश।’
मैं जनता से पांच चीज़ें हमेशा कहता हूँ। कुछ लोगों ने मुझे अलग-अलग स्थानों पर सुना होगा और मैं कहता हूँ कि नागरिक कत्र्तव्य के नाते प्रत्येक मनुष्य पांच चीज़ों का ज़रूर पालन करे। प्रथम, वर्ष में कम से कम एक पेड़ अवश्य लगायें, क्योंकि बिना पेड़ के मनुष्य और जीव-जन्तुओं की जिन्दगी सम्भव नहीं है। हम पानी को बचाने का काम करें, हम बिजली व्यर्थ न जाने दें, हम अपने गांव को साफ और स्वच्छ रखें तथा हम बेटी बचायें, बेटी पढ़ायें। इसलिए बेटी बचाओ अभियान पूरे मध्यप्रदेश में चलाया और हर जगह मैंने जाकर कहा कि हम नशा छोड़ें, क्योंकि यह नशा नाश की जड़ है, यह हमें तबाह और बरबाद कर देता है।
महाराज जी, जो भाव आपने बड़ी प्रखरता के साथ व्यक्त किए, उसके लिए मैं भी लगातार कोशिश करता रहता हूँ। एक विचार मेरे मन में ज़रूर आता था कि नशामुक्ति का जो अभियान है, इसमें जब तक लोग स्वेच्छा से नशा नहीं छोड़ेंगे, तब तक पूरी तरह सफलता सम्भव नहीं है। यह भी विचार बार-बार आता था कि कुछ ऐसे प्रान्त हैं, जहां नशामुक्ति है, किन्तु वहां भी अवैध शराब आती है और उसके कारण कई तरह की दिक्कतें पैदा होती हैं। लेकिन महाराज जी, दो फैसले मैं पहले ही कर चुका हूँ तथा मेरी कैबिनेट के सदस्य यहां बैठे हैं, गोपाल भार्गव जी हैं। हर साल तीन-चार सौ नई शराब की दुकानें मध्यप्रदेश की धरती पर खोली जाती थीं। विभाग प्रस्ताव लेकर आता था कि साहब बहुत दूर है दुकान, ज़रा और पास होजाये, नहीं तो इधर-उधर से अवैध बिकती है, नई दुकान खोल दो। मैंने पूरी दृढ़ता के साथ एक फैसला किया कि अब मध्यप्रदेश की धरती पर कोई नई शराब की दुकान नहीं खुलने दूंगा और लगातार उसका पालन कर रहे हैं। इस कैबिनेट में भी बहस हुई, लेकिन मैंने कहा कि नहीं, अब कोई नई दुकान नहीं खुलेगी। दूसरा, आपकी कृपा से मैंने यह तय किया कि मध्यप्रदेश में शराब बनाने के कारखाने नहीं खोलने दिये जायेंगे और यह फैसला हमने दृढ़ता के साथ लिया।
आपने जो बात कही, उसमें सच्चाई है। कई जगह अवैध शराब बिकती है। एक दुकान होती है और वहाँ से दूसरी जगह बेचने का काम शुरू होजाता है। मैं आज आपको आश्वस्त करता हूँ कि पूरी क्षमता से अवैध शराब के प्रचलन को रोकने में कोई कसर नहीं छोड़ी जायेगी और इसमें जो लोग बाधा बनेंगे, उनको दण्डित करने का कार्य किया जायेगा। संगठन के कार्यकर्ता, जो नशामुक्ति के अभियान में लगे हैं, उन्हें कई जगह तकलीफें हुईं हैं और एक-दो जगह की मेरे पास भी जानकारी आई है। आज आपके चरणों में हूँ और मैं यह कहना चाहता हूँ कि ऐसे हर कार्यकर्ता को प्रशासन पूरी तरह से संरक्षण और सहयोग देने का काम करेगा। हम मिलजुलकर काम करेंगे और मैं यह भी कहता हूँ कि शिवराज सिंह चौहान के हर भाषण में नशामुक्ति का संदेश रहेगा। मैं प्राणप्रण से साथ हूँ। साथ ही, मध्यप्रदेश में हमने यह तय किया है कि बाकी सब चीज़ें हम निर्यात करेंगे, लेकिन मीट एक्सपोर्ट (मांस निर्यात) को मध्यप्रदेश से नहीं होने देंगे।
कई बार अवैध रूप से गौमाता का वध भी होजाता है। मध्यप्रदेश की धरती पर हमने एक कानून बनाया है कि गौवंश का जो भी वध करेगा, वह एक बड़ा अपराध है, लेकिन इसके बाद भी कुछ घटनाएं होती हैं, किन्तु हम उन्हें रोकने की चेष्टा भी करते हैं। हमने प्रत्येक जि़ले में गोवंश के परिवहन को रोकने के लिए एक-एक अलग अफसर तय कर रखा है, रोकने के प्रयास भी होते हैं, लेकिन कई जगह खोटे सिक्के भी होते हैं, जिससे कानून के कारण भी कई बार दिक्कतें आती हैं, उसको हम और सक्रियता से लेंगे।
महाराज जी, नशामुक्त समाज बने और मैं तो शाकाहारी हूँ ही, मैं और मेरी पत्नी तो लहसुन-प्याज भी कभी ग्रहण नहीं करते, हमारा परिवार ऐसा है। भगवान् की कृपा और आपके आशीर्वाद से हम लोगों ने एक सात्विक परिवार बनाने की कोशिश की है। मांस का प्रचलन समाप्त हो और लोग मांस न खायें, क्योंकि मैं मानता हूँ कि स्वाभाविक रूप से मनुष्य का जो शरीर बना है, वह फलों, सब्जियों, दूध, अन्न आदि खाने के लिए है, मांस खाने के लिए नहीं है, इसलिए हमने तय किया है कि कम से कम मीट एक्सपोर्ट तो किसी भी हालत में नहीं होगा।
तीसरी महत्त्वपूर्ण बात जो आपने कही है, उस पर पूरी गम्भीरता के साथ हम विचार करेंगे, लेकिन मन में यह लगता है कि केवल बन्द करने से क्या शराब बन्द हो जायेगी? लेकिन हम यह प्रयोग ज़रूर कर सकते हैं कि कहीं छोटे से क्षेत्र से अगले साल शुरू करें और उसके बाद उसको आगे बढ़ाते-बढ़ाते व्यापक पैमाने पर ले जायें। आपके साथ चर्चा करके एक प्रयोग प्रारम्भ करेंगे तथा उस प्रयोग के कैसे परिणाम निकलते हैं, उससे फिर आगे की रणनीति तय करेंगे। लेकिन महाराज जी, मैं आपके पास आकर और आपके विचारों को सुनकर धन्य हुआ। मैं सम्पर्क में रहूंगा, हम लोग मिलजुलकर कार्य करेंगे, आश्रम भी आऊंगा और धीरे-धीरे कोशिश करेंगे कि ऐसा रास्ता बनाते जायें, जिससे नशामुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता जाये। जनता के मन में यह संकल्प उत्पन्न करके कि स्वाभाविक रूप से संकल्प करलें कि हम नशा नहीं लेंगे। यह विचार ज़्यादा प्रबल होता गया, तो दुकानें बन्द हो जायेंगी, लेकिन आज मेरे मन में यह दूसरा भाव पैदा हुआ है कि चर्चा करके कहीं न कहीं से एक प्रयोग ज़रूर आरम्भ करेंगे और उसकी सफलता के आधार पर हम आगे बढ़ाने का कार्य करेंगे। नई दुकानें हम पहले ही नहीं खुलने देंगे और अवैध को हम पहले ही रोकेंगे।
महाराज जी राजस्व की चिन्ता मुझे नहीं है, आये या न आये, आता-जाता रहता है। सारे काम कम हो जायेंगे, चलेगा, लेकिन यदि इंसान बरबादी से बच गए, परिवार बरबादी से बच गये, तो मानवता के कल्याण का इससे बड़ा वरदान कोई हो नहीं सकता। इसीलिए आपके सान्निध्य में आपके आशीर्वाद से इस दिशा में बढ़ने की कोशिश करेंगे और हम सब मिलकर साथ चलेंगे। आज नहीं तो कल हिन्दुस्तान बदलेगा, मध्यप्रदेश बदलेगा, मानवता के कल्याण का नया मार्ग प्रशस्त होगा और शिवराज उसी में तेरा मानवजीवन सफल, सार्थक और धन्य होगा। यही निवेदन करते हुए, आपके चरणों में प्रणाम करते हुए मैं अपनी बात को समाप्त करता हूँ। बोलिये धर्म की जय हो! अधर्म का नाश हो! प्राणियों में सद्भावना हो! विश्व का कल्याण हो! प्रणाम! नमस्कार!
परमहंस योगीराज श्री शक्तिपुत्र जी महाराज का उद्बोधन-
मुख्यमंत्री महोदय को मैं अपना आशीर्वाद प्रदान करता हूँ और निश्चित है कि यदि हमें सरकार का थोड़ा भी साथ मिला, तो समाज में एक बहुत बड़ा परिवर्तन किया जा सकेगा। वैसे आश्रम आने का मुख्यमंत्री जी ने आश्वासन दिया ही है, तो वहां अन्य चर्चाएं होती ही रहेंगी। आप सभी लोगों ने प्रदेश के मुखिया के विचार सुने। निश्चित है कि मुख्यमंत्री महोदय के हृदय में भी वही भावनाएं हैं और मैं आश्वस्त भी था कि जब हमारा अभियान भोपाल की तरफ पहुंचेगा, तो मुख्यमंत्री महोदय उपस्थित होकर इस अभियान में अपना सहयोगी रुख अवश्य अपनायेंगे। माननीय मुख्यमंत्री महोदय ने वह आश्वासन दिया, जो कि आप सभी लोगों की सेवाओं का परिणाम है। एक के बाद एक कडिय़ां जुड़ रही हैं और यह अभियान अब और तीव्र गति से चलेगा। गौवंश के संरक्षण के लिए भी कार्य किए जायेंगे।
हम सभी को मिलकरके सक्रियता, लगन, निष्ठा व विश्वास के साथ कार्य करना है कि परमसत्ता की नित्यप्रति आराधना का मार्ग न बिगड़ने पाये और जितना अपना आत्मकल्याण करें, उतना ही हम-आप सभी को परोपकार की दिशा में सतत बढ़ते रहना है। चूँकि समय हो चुका है और मुख्यमंत्री महोदय भी उपस्थित हैं, तो इन्हीं क्षणों पर नशामुक्ति का महाशंखनाद करेंगे।
जो जहां जिस व्यवस्था में बैठे हैं, जहां जिसको जिस कार्य की व्यवस्था दी गई है या जिन व्यवस्थाओं में जहां भी लगे हैं, जिनके पास शंख है, वे शंखध्वनि करेंगे और जिनके पास शंख नहीं है, वे पूरे मनोयोग से बैठ करके शंखध्वनि का श्रवण करेंगे एवं हरपल अपने आत्मबल की भावना को लेकर निवेदन करेंगे कि परमसत्ता हम पर इतनी कृपा प्रदान करें कि हमारे द्वारा जो शंखनाद किया जा रहा है, यह ध्वनि समाज में परिवर्तन डाले, सद्विचार दे। जिस तरह से हम नशे-मांस से मुक्त चरित्रवान् हैं, उसी तरह यह ध्वनि जिसको भी स्पर्श करे, वह भी नशे-मांस से मुक्त चरित्रवान् बने, चेतनावान् बने, तभी समाज में परिवर्तन आ सकेगा। उस दिशा में भी हमें अपनी सोच को लेकर चलने की ज़रूरत है। जिस समय से मेरा शंखनाद प्रारम्भ होगा, तीन मिनट तक क्रमश: सतत शंखनाद करते रहेंगे। मैं स्वत: आप लोगों के साथ शंखनाद करूंगा और आप लोगों को भी उसी तरह शंखनाद करना है। उसके साथ ही कार्यकर्ता आरती की व्यवस्था कर लेंगे, क्योंकि शंखनाद के पश्चात् हम परमसत्ता माता आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा की दिव्य आरती की दिशा में बढ़ेंगे।
मनमस्तिष्क को एकाग्र करके पूरे मनोयोग से उस परमसत्ता माता भगवती आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा का स्मरण चिन्तन करते हुए, इन क्षणों पर हम नशामुक्ति के लिए वह महाशंखनाद कर रहे हैं। हम सबसे पहले इस शंखनाद से स्वयं संकल्प लेंगे कि जीवन की अंतिम सांस तक नशे-मांस से मुक्त चरित्रवान् जीवन जियेंगे और हमारे अन्दर जो सामथ्र्य होगी, उससे हम समाज को नशे-मांस से मुक्त चरित्रवान् बनाने का प्रयास करेंगे।
बोलो जगदम्बे मातु की जय!