प्रवचन शृंखला क्रमांक – 161
शक्ति चेतना जनजागरण शिविर, दमोह (म.प्र.), दिनांक 18 अप्रैल 2015
माता स्वरूपं माता स्वरूपं, देवी स्वरूपं देवी स्वरूपम्।
प्रकृति स्वरूपं प्रकृति स्वरूपं, प्रणम्यं प्रणम्यं प्रणम्यं प्रणम्यम्।।
बोलो माता आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बे मात की जय।
इस शक्ति चेतना जनजागरण शिविर में यहाँ उपस्थित अपने समस्त शिष्यों, ‘माँ’भक्तों, श्रद्धालुओं एवं इस शिविर व्यवस्था में लगे हुए समस्त कार्यकर्ताओं को व जो जिस भावना से इस स्थल पर उपस्थित हैं, उन सभी को अपने हृदय में धारण करता हुआ, माता आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा का पूर्ण आशीर्वाद प्राप्त करता हुआ अपना पूर्ण आशीर्वाद आप समस्त लोगों को समर्पित करता हूँ।
एक छोटा सा शब्द ‘माँ’ बोलने मात्र से ही अलौकिक शान्ति की अनुभूति होती है, अपनेपन का अहसास होता है। एक ऐसा शब्द, जिसकी गहराई अथाह है, शान्ति अथाह है, शक्ति अथाह है और जिस शब्द की गहराई आज तक न कोई पा सका है, न कोई पा सकेगा। इस ‘माँ’ शब्द में अलौकिक सामथ्र्य है। यदि मनुष्य इस ‘माँ’ शब्द के पूर्णत्व के स्वरूप को समझ जाता और ‘माँ’ शब्द की गहराई में डूब जाता, तो आज समाज असहाय, असमर्थ, निरीहता का जीवन नहीं, बल्कि चैतन्यता का जीवन जी रहा होता।
‘माँ’, जिनके विषय में मेरे द्वारा आपको पूर्व से जानकारी दी गई है कि मेरी, आपकी, हम सभी की, समस्त जीवों की मूलसत्ता, हमारी आत्मा की जननी, समस्त जीवों की जननी, माता आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा ही हैं। ब्रह्मा, विष्णु, महेश, इन समस्त देवों की जननी भी माता आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा हैं। यदि हम अपनी आत्मा की जननी के सम्बन्ध की गहराई को समझ जायें, तो हमारी समस्त समस्याओं का समाधान हमें सहजभाव से प्राप्त हो सकता है। हर एक की आत्मा एक समान है तथा हर एक की आत्मा के अन्दर अलौकिक शक्ति है। हमारे वेद-पुराण, शास्त्र, उपनिषद, योगी, ऋषि-मुनि सभी ने चीख-चीख करके कहा है कि हमारी आत्मा में निखिल ब्रह्माण्ड समाहित है।
आत्मग्रंथ से बड़ा दुनिया का कोई ग्रंथ नहीं है, आत्मज्ञान से बड़ा दुनिया में कोई ज्ञान नहीं है। हमारे चारों वेद आत्मा का एक छोटा सा अंशमात्र हैं। आत्मा की दिव्यता, आत्मा की चैतन्यता, आत्मा की सामथ्र्य, आत्मा का ज्ञान, जिसमें एक नहीं अनेक ब्रह्माण्ड समाहित हैं, उस आत्मा का शोधन हमारे ऋषि-मुनियों ने किया है और उस आत्मज्ञान की ओर बढ़कर, जिसने जितना प्राप्त किया, वह ज्ञान समाज को प्रदान किया है। इसी भूतल पर हमारे अनेक ऋषि-मुनि हुए हैं, जिनकी परम्परा को आज आप भूल चुके हैं। जिनके अन्दर वाक्शक्ति थी और उसके बल पर वे कुछ भी करने में सामथ्र्यवान् थे। उन ऋषियों-मुनियों में आशीर्वाद देने की सामथ्र्य थी, वे नये स्वर्ग की रचना करने की सामथ्र्य रखते थे और उनके समक्ष देवत्व भी झुकता था। यही वह भारतभूमि है, जहाँ नारियों के अन्दर इतना सशक्त तपबल रहता था कि ब्रह्मा, विष्णु, महेश को शिशु बनाकर पालने पर झूलने के लिए मज़बूर कर देतीं थीं। यह सामथ्र्य इसी देश के वासियों के अन्दर थी।
इस भारतभूमि में अनेक ऋषि-मुनि हुए, अनेक सिद्ध साधिकाएं हुईं, अनेक सती हुईं, जिनके पास अलौकिक सामथ्र्य थी, जबकि आज का समाज असमर्थता का जीवन जी रहा है। हम ‘माँ’ के उस अटूट रिश्ते को महसूस ही नहीं कर पा रहे हैं कि ‘माँ’ ने हमे इतना दे रखा है कि हमको और कुछ मांगने की आवश्यकता ही नहीं है, हम फिर भी केवल मांगते चले जा रहे हैं।
आत्मसत्ता, गुरुसत्ता और प्रकृतिसत्ता, इन तीनों सत्ताओं को एक समान मान करके चलना चाहिए। जब आप अपनी आत्मा की साधना कर रहे होते हैं, तब भी गुरु एवं ‘माँ’ की आराधना कर रहे होते हैं, चूंकि आत्मा उस परमसत्ता का अंश है और परमसत्ता के अंश के किसी भी क्रम से जुड़ करके जब हम आगे की ओर बढ़ना प्रारम्भ कर देते हैं, तो हमें वह ज्ञान प्राप्त होता चला जाता है।
आत्मज्ञान से बड़ा दूसरा कोई ज्ञान नहीं है। आत्मज्ञान की ओर बढ़ने के लिए मेरे द्वारा बहुत ही सहज-सरल मार्ग बताए गए हैं। आज वेद, पुराण, शास्त्रों का अध्ययन किसलिए किया जाता है? उनका अध्ययन करके हमको यही मार्ग तो मिलता है कि हम कैसा जीवन जिएं, हमारा आचार-विचार कैसा हो, हमारा व्यवहार कैसा हो, प्रकृतिसत्ता के साथ हमारा सम्बन्ध कैसा हो, इष्ट के साथ कैसा सम्बन्ध हो, गुरु के साथ कैसा सम्बन्ध हो? इस प्रकृति में जो कुछ भी हम जड़, चेतन देख रहे हैं, इसके साथ हमारा कैसा व्यवहार हो, कैसा कर्तव्य हो? इन कत्र्तव्यों का ज्ञान ही तो वेद, पुराण, शास्त्र कराते हैं, मगर आज धर्म की पूरी दिशा भटकती चली जा रही है।
ग्रंथज्ञानी अनेक हैं, मगर वे आत्मज्ञानी नहीं हैं और यदि वे आत्मज्ञानी होते, तो समाज का पतन न होता। ग्रंथज्ञानियों की कोई कमी नहीं है। अनेक लोग तो वेद, पुराण, शास्त्र, उपनिषद, रट्टू तोते के समान रट लेते हैं और इसी को अपनी तृप्ति मान लेते हैं। एक इंजीनियर यदि केवल किसी मकान को बनाने का पूरा ज्ञान प्राप्त करले कि वह नीव से लेकर महल तक खड़ा करने का पूरा ज्ञान रखता है और इसी में तृप्त होकर बैठ जाए, तो वह भवन का आनन्द कभी नहीं प्राप्त कर सकता। ज्ञान है, मगर भवन का निर्माण नहीं किया, तो वह भवन का सुख प्राप्त नहीं कर सकता और न ही भवनों का सुख दूसरों को दे सकता है और आजकल यही गति हमारे ग्रंथज्ञानियों की हो रही है, जो अपना पूरा जीवन ग्रंथों के अध्ययन में और फिर लोगों को सुनाने में लगा देते हैं। उनका ज्ञान व्यवसायिक बन गया है, वे समाज के बीच जाकर एक सौदागर बन जाते हैं और समाज का पतन यहीं से शुरू होता है। समाज को कैसा जीवन जीना है, समाज क्या कर्म करे? इससे समाज कोसों दूर होता जा रहा है, क्योंकि वे ग्रंथज्ञानी समाज को मूल बातों का ज्ञान करा ही नहीं पाते! एक सौदागर की तरह समाज को उपदेश देना व समाज से अर्थ अर्जन करना ही उनका ध्येय बन चुका है, किन्तु आपका गुरु इससे कोसों दूर है।
आपके गुरु ने शिखर से शून्य की यात्रा तय की है। मेरा समाज से रिश्ता आत्मा का है, धन-सम्पदा का नहीं है। 20-25 वर्षों से मेरी एक समान यात्रा चलती चली आ रही है कि मेरे लिए गरीब, अमीर सब एक समान हैं। लाखों-करोड़ों रुपये देकर भी यदि कोई चाहे कि मुझसे एक मिनट का समय प्राप्त करले, तो वह एक मिनट का समय प्राप्त नहीं कर सकता। मैं हर शिविर में यदि पहले से आ जाता हूँ, तो मानवता एवं समाज के कल्याण के लिए और जो यहां उपस्थित होते हैं, उनके लिए एकान्त में साधनारत रहता हूँ। अनेक साधु-सन्त-संन्यासी, कथावाचक आते होंगे और आने के बाद उनके एक-एक मिनट का उपयोग समाज से सौदागिरी करने में लगता है कि कौन इस नगर का सबसे बड़ा धनाढ्य सेठ है, कौन सबसे बड़ा अधिकारी है, किसको हम अपने पास बुला लें, जो धन से हमारा सहयोग कर देगा, हमारी व्यवस्थाओं में सहयोग कर देगा तथा एक भी बड़ा उद्योगपति एवं धनाढ्य व्यक्ति उनसे छूटने नहीं पाता है। एक-एक मिनट का, एक-एक पल का मैं भी उपयोग करता हूँ, मगर आपका गुरु ‘माँ’ के चरणों में आपके कल्याण के लिए साधनारत रहता है।
किसी भी शिविर में जाने के महीनों पहलेे से वहाँ के कल्याण के लिए, मानवता के हित के लिए मेरी एकान्त की साधनाएं प्रारम्भ होजाती हैं और इसी का परिणाम है कि मेरे सामने उपस्थित होने वाला कोई भी व्यक्ति कभी खाली हाथ नहीं जाता, उसके जीवन में परिवर्तन अवश्य आता है। चूंकि मैंने जीवन को उस दिशा में ढाला है, एक-एक पल की साधना, एक-एक पल का जीवन मैंने समाजकल्याण के लिए समर्पित किया है और उसमें अंशमात्र भी दाग नहीं लगने देता। चाहे उस पवित्र आश्रम में रह रहा हूँ, चाहे समाज के बीच आता हूँ और जब आपके बीच आता हूँ, तब दो या तीन कार्यकर्ताओं से ज़्यादा मुझसे मिलने का समय कोई प्राप्त नहीं कर सकता है। शिविर के बाद केवल एक दिन रुकता हूँ और उसमें कुछ लोगों को ही मिलने का समय देता हूँ, और उसके बाद पुन: मेरी साधनात्मक यात्रा रहती है।
वर्ष में दो या तीन शिविरों का ही अवसर दिया जाता है। वैसे तो यह जानकारी सभी भक्तों को हैं, मगर नए भक्तों को जानकारी करा देना मेरा कर्तव्य है, क्योंकि जैसी मानसिकता लेकर बैठोगे, वैसा फल यहाँ से प्राप्त करोगे। यदि आप घर से चले हो, तो आपके एक-एक पल को भी मैं ऋण मानता हूँ। यही मेरे लिए आपका समर्पण है, चूंकि हो सकता है कि इस समय आप कोई दूसरा कार्य कर रहे होते, हो सकता है कि आप कहीं परिश्रम कर रहे होते। आपने वह जो समय दिया है, वही मेरे लिए ऋण है एवं इसके बदले मेरे पास जो साधनात्मक तपबल की ऊर्जा रहती है, उसे मैं आपको और समाज को समर्पित करता हूँ। मेरा नित्य का संकल्प रहता है तथा मैं आपके साथ बात करूँ या न करूँ, आपके समक्ष बैठूँ या न बैठूँ, मैं एकान्त स्थान से ही जिस क्षेत्र में जैसा चिन्तन डालना चाहता हूँ, वैसा प्रभाव वहाँ पड़ता है और इसका अनुभव मुझसे जुड़े हुए शिष्य हरपल करते हैं।
मेरे द्वारा कभी भी अपने शिष्यों से स्वागत नहीं कराया जाता है और मेरा चरणपूजन भी मेरी तीनों बच्चियाँ पूजा, संध्या व ज्योति ही करती हैं और उन्हें भी यह करने का सौभाग्य केवल इन शिविरों में ही प्राप्त होता है तथा बीच में भी कई बार निवेदन करती हैं, आग्रह करती हैं, तब भी मैं उन्हें चरणपूजन करने का सौभाग्य प्रदान नहीं करता हूँ। इन बच्चियों का जीवन भी मैंने मानवता के कल्याण के लिए समर्पित किया है। न मैं किसी से माल्यार्पण कराना पसंद करता हूँ, न स्वागत कराना पसंद करता हूँ। मैं एक सामान्य सा जीवन जी करके आपको ऊपर की ओर बढ़ाने आया हूँ। मैं उस परम शिखर से आपके बीच आया हूँ कि आपको अपनी ऊर्जातरंगों का प्रवाह देकर उस शिखर की ओर बढ़ा सकूँ, उस परमसत्ता के चरणों की ओर बढ़ा सकूँ। इसलिए हरपल मेरी एकान्त की साधनाएं चलती रहती हैं। मैं जिस लक्ष्य के लिए आया हूँ, जिस कार्य के लिए आया हूँ, परमसत्ता ने मुझे जो कार्य सौंपा है, उसको पूरी सच्चाई, ईमानदारी, ज्ञान व सामथ्र्य के अनुसार करता हूँ और उसमें अंशमात्र भी न्यूनता नहीं आने देता हूँ।
चौबीस घण्टे में से मात्र ढाई से तीन घण्टे की नींद या विश्राम करता हूँ और पच्चीसों वर्षों से मेरे साथ रहने वाले लोग देखते हैं, फिर भी मेरी चैतन्यता में कभी कमी नहीं आई। जब मैं अपने लिए साधना करता था, उसी निष्ठा, विश्वास, लगन के साथ करता था और आज जब समाजकल्याण के लिए साधनाएं करता हूँ, तो भी उसी निष्ठा, विश्वास, लगन के साथ करता हूँ। ढाई बजे रात्रि से जगकर रात्रि के ग्यारह बजे तक विश्राम नहीं रहता है। उसके बाद भी मैं मध्यरात्रि में कुछ न कुछ समय ध्यान-साधना में बैठता हूँ, यह भी सभी को मालूम है। अब आप स्वयं आकलन कर लें कि मुझे कितनी देर की नींद मिलती होगी और पच्चीसों सालों से यह यात्रा समाज के बीच समर्पित है।
एक आस है, एक अपेक्षा है और मेरा संकल्प है कि मैंने अनेक मार्गों पर बहुत विचार करके उस परमसत्ता के सौंपे कार्य को गति प्रदान किया है। मैं चाहता तो दूसरा मार्ग अपना सकता था, धनवानों को, राजनेताओं को पकड़ रहा होता, धन-सम्पदा के माध्यम से समाज के बीच कार्य कर रहा होता, मगर मैंने सबसे ज़्यादा असमर्थ, असहाय, निरीह लोगों को सहारा देने का कार्य किया है और सहारा भी ऐसा कि आज तक किसी ऋषि-मुनि, योगी, यति ने उस मार्ग को नहीं अपनाया। मैं अपने जो शब्द कहता हूँ, तो हमेशा विज्ञान को चुनौती देने के लिए तत्पर रहता हूँ। मैं अपनी साधनात्मक ऊर्जातरंगों के माध्यम से कार्य करता हूँ और आज विज्ञान के पास वे क्षमताएं हैं कि उन तरंगों एवं आभामण्डल का वैज्ञानिक परीक्षण किया जा सकता है।
भगवती मानव कल्याण संगठन को इसी दिशा में कदम दर कदम आगे बढ़ाया जा रहा है। शिष्यों के द्वारा जब समाज में जानकारी दी जाती है कि हमारे गुरुदेव जी की कुण्डलिनीचेतना पूर्णरूपेण जाग्रत् है, सातों चक्र जाग्रत् हैं, तो समाज के कुछ नये लोगों में एक भ्रान्ति आती है कि क्या इस कलिकाल में भी यह सम्भव है? हाँ, इसी काल में सम्भव है, यह कर्म करने का काल है। ‘माँ’ का युग आ चुका है और इस काल में सबकुछ सम्भव है। अनुभव करके देखना हो, तो मैंने विज्ञान को चुनौती दी है कि भूतल पर एक भी कोई ऐसा इन्सान लाकर खड़ा कर दो, जिसमें मेरी जितनी साधनात्मक ऊर्जा हो! यदि मैं ध्यान में चला जाऊं और उसके बाद यदि कोई भी मेरे शरीर का स्पर्श मात्र भी करता है, तो उसे करंट के झटके लगते हैं। ये ऊर्जातरंगें सामान्य नहीं होतीं और इन ऊर्जातरंगों को पचाना सामान्य नहीं है, मगर यह कुण्डलिनीचेतना के पूर्णत्त्व का सहज स्वरूप है कि अपनी चेतनातरंगों के माध्यम से समाज में जहाँ जैसा परिवर्तन डाला जाए, वहाँ वैसा परिवर्तन होता चला जाता है, मगर जब मन-वचन-कर्म से एकरूपता होती है। मैंने बचपन से ही एकान्त साधनाओं का रास्ता अपनाया है।
परमसत्ता की कृपा से मैं एक सामान्य सा जीवन जीता हूँ, एक किसान परिवार में मेरा जन्म हुआ है, आप लोगों से भी कम भोजन करता हूँ और मुझे समाज से किसी चीज़ की आवश्यकता नहीं है। मैंने समाज को जो तीन धाराएं प्रदान की हैं, वे समाजकल्याण के लिए ही प्रदान की हैं। मैंने कहा था कि वर्ष 2015, मेरे शिष्यों के लिए महत्त्वपूर्ण वर्ष है और इसी वर्ष से मैंने तीनों धाराओं की जि़म्मेदारी पूजा, संध्या और ज्योति को समर्पित कर दिया है, समस्त शिष्यों को समर्पित कर दिया है, जिससे मैं सभी बंधनों से ऊपर उठकर समभाव से कार्य कर सकूँ।
मुझे समाज के किसी भी पद, मान, प्रतिष्ठा की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि परमसत्ता ने जो स्थान मुझे दे रखा है, उस स्थान के समकक्ष दूसरा कोई स्थान नहीं है। मैं एक ऋषि का जीवन जीता हूँ और नये भक्तों को यह अवगत कराना मेरा कर्तव्य होता है कि मैं किसी भी देवी-देवता का अवतार नहीं हूँ। मैं ऋषि था, ऋषि हूँ और ऋषि रहूंगा। ऋषित्व का जीवन ही पूर्णत्व का जीवन है और यही जीवन प्राप्त करने के लिए तो देवता भी तरसते हैं। चूंकि यही वास्तविक मुक्ति का मार्ग है, यही उच्चता का मार्ग है, यही पूर्णत्त्व का मार्ग है। ऋषित्व के मार्ग पर चलकर ही एक व्यक्ति उस परमसत्ता के दर्शन प्राप्त कर सकता है, उस परमसत्ता की कृपा को प्राप्त कर सकता है। आवश्यकता है कि उस विचारधारा पर चला जाए।
‘माँ’ की कृपा, प्रेम और भक्ति से प्राप्त होती है तथा इसके लिए आपको बहुत बड़ा ज्ञानी बनने की आवश्यकता नहीं है। आपके अन्दर अटूट प्रेम व भक्ति होनी चाहिए और जो भक्ति व प्रेम से प्राप्त किया जा सकता है, वह ज्ञानियों को प्राप्त नहीं हो पाता है। उस परमसत्ता से हमको प्रेम और भक्ति का रिश्ता ही तो जोडऩा है। आप सभी के पास वह सामथ्र्य है, फिर भी आप किन चीज़ों में भटकते रहते हो? आपके पास कोई संसाधन न हों, आपके पास बहुत बड़ा भवन नहीं है, आपके पास बहुत बड़ा पूजनकक्ष नहीं है, तो दीवार में ‘माँ’ की छवि लगा लो और यदि छवि टांगने के लिए भी व्यवस्था नहीं है, तो आँख बंद करके ‘माँ’ का ध्यान अपने हृदय में कर लो। केवल सच्चे मन से उस ‘माँ’ को पुकारना सीख लो, केवल ‘माँ’ शब्द कहना सीख लो और यह तभी सीख पाओगे, जब अपने आचार-विचार-व्यवहार में परिवर्तन ले आओगे तथा आपके जो अवगुण हैं, उनसे जब अपने आपको दूर कर लोगे, तो ‘माँ’ शब्द में एक अलग लय आ जायेगी, एक अलग गहराई प्राप्त हो जायेगी।
परमसत्ता ने हमको इतना कुछ दे रखा है, जिसकी कोई कल्पना नहीं है। आिखर हम क्या मांगना चाहते हैं? परमसत्ता ने सब सम्पदा हमारे अन्दर दे रखी है। आवश्यकता है कि हम उधर निगाहें मोड़कर देख लें और अपने ऊपर पड़े आवरणों को हटाते चले जायें, अपने एक-एक अवगुणों को, अपने एक-एक विकारों को हटाते चले जायें तथा काम-क्रोध-लोभ-मोह से धीरे-धीरे ऊपर उठते चले जायें। हर दिन विचार करें कि ऐसे कौन से नकारात्मक विचार मेरे मनमस्तिष्क में आते हैं, जो मेरे लिए विकार पैदा करते हैं, जिसमें मेरी ऊर्जा का क्षय होता है। उन विचारों से अपने आपको हटाओ और अपनी सोच को बदलो। हो सकता है कि परिस्थितियाँ तुम्हारे अनुकूल न हों, हो सकता है कि परिस्थितियों को तुम न बदल सको, मगर विचार तो तुम्हारे अपने हैं, विचारों को तो सही दिशा दे सकते हो। एक बार संकल्प लेकर वैसा जीवन तो जी सकते हो कि मैं नशे-मांस का सेवन नहीं करूंगा और चरित्रवानों का जीवन जिऊंगा।
समाज की पचहत्तर प्रतिशत समस्यायें मात्र नशे-मांस और चरित्रहीनता, इन तीनों बुराइयों में छिपी हुई हैं। यदि समाज इन तीनों बुराइयों से स्वयं को अलग कर ले, तो समाज की सामथ्र्य आज कई गुना अधिक हो सकती है। हमारा देश विश्व की धर्मधुरी बनकर धर्मगुरु कहला रहा होता और इसके लिए करना क्या है? जो विकार हैं, अवगुण हैं, उन्हें दूर करना है। सोचो, विचार करो कि नशा मेरे लिए कितना हानिकारक है और यदि मैं नशा करूंगा, तो मेरा जीवन बरबाद हो जायेगा तथा मेरे सातों चक्र कभी भी चैतन्य नहीं हो पायेंगे और मेरी प्राणवायु सक्रिय नहीं हो पायेगी!
कथा, भागवत, रामायण सुनने मात्र से आपका कल्याण नहीं होगा, बल्कि भागवत क्या कह रही है, रामायण क्या कह रही है, उसके अनुसार स्वयं को ढालने पर कल्याण होगा, उन विचारों पर चलने से कल्याण होगा और चलना बहुत सहज-सरल है। जब यह कर्मप्रधान सृष्टि है तथा कर्म का फल हर मनुष्य को भोगना पड़ता है, तो क्यों एक निर्णय नहीं ले लेते हो कि जो बीत गया सो बीत गया, वह हमारे हाथ में नहीं है, मगर वर्तमान हरपल हमारे हाथ में है और वर्तमान को हम संवार लें। वर्तमान को संवारने का आप संकल्प ले लो कि आज से मुझसे कोई न्यूनता नहीं होगी, आज से मैं कभी नशे का सेवन नहीं करूंगा, आज से मैं कभी मांस का सेवन नहीं करूंगा और आज से मैं चरित्रवानों का जीवन जिऊंगा। एक बार संकल्प लेकर देखो, एक अलग आनन्द की अनुभूति होगी, एक अलग तृप्ति की अनुभूति होगी।
मैं यदि हर बार आपको नशे-मांस से मुक्त रहने का संकल्प कराता हूँ, तो मैं स्वत: कभी नशे-मांस का सेवन नहीं करता हूँ। आपको चरित्रवान् बनाता हूँ कि आप शादी से पहले कोई चरित्रहीनता का कदम न उठाएं और शादी के बाद एकपत्नी/एकपति व्रतधर्म का पालन करें, तो मैं शादी के बाद भी शादी को केवल अपने कर्तव्य के रूप में मान करके तथा तीनों बच्चियों के जन्म के बाद जिस दिन से विचार आया कि मुझे और किसी सन्तान की आवश्यकता नहीं है, उस दिन से सपत्नीक पूर्ण ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करता हूँ। मैं समाज को कहने से पहले स्वयं अपने जीवन में वैसी क्रियायें ढालता हूँ। गृहस्थ जीवन में रहकर भी ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करके, सपत्नीक रह करके इस भूतल पर जितना मेरा गृहस्थ जीवन सुखी है, उतना किसी का गृहस्थ जीवन सुखी नहीं होगा।
तुम पुत्रों के लिए लालायित रहते हो और मैंने उस परमसत्ता के चरणों पर प्रार्थना की थी कि मेरे परिवार में पुत्रियाँ ही जन्म लें और आज मैं गर्व से कहता हूँ कि जो कार्य इस धरती पर पुत्र नहीं कर सकते, वह सामथ्र्य मेरी पुत्रियों में है। माता-पिता से जितना प्रेम पुत्रियाँ करती हैं, मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि उतना प्रेम पुत्र कभी नहीं करते हैं। अत: छोटी सोच से ऊपर उठो।
‘माँ’ को समझो। तुम्हारे अन्दर प्रेम की शक्ति है। माता-पिता जब अपने अबोध बच्चे से प्रेम करते हैं, तो उसके लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने के लिए तत्पर रहते हैं, उसके लिए अपनी जान भी दे सकते हैं कि वह हमारा पुत्र है, उसकी देखरेख कैसे करना है, उसकी रक्षा कैसे करना है? ज़रूरत पड़ जाये, तो पुत्र के लिए अपनी जान भी दे देंगे। इसका तात्पर्य है कि आप चाहे नर हों या नारी हों, सबके अन्दर प्रेम करने की सामथ्र्य है। अत: तुम अपने बच्चे से जिस तरह प्रेम करते हो, उसी तरह अपनी जननी से भी प्रेम करना सीख लो। जिस तरह छह महीने, साल भर का बच्चा अपने माता-पिता से कभी अलग नहीं होना चाहता, तो केवल उसी अवस्था का भाव उस परमसत्ता के साथ स्थापित कर लो। अरे, वह इस जगत् की जननी हैं, कण-कण में व्याप्त हैं, हर कण के अंशमात्र में भी ऐसी कोई जगह नहीं है, जहाँ उस परमसत्ता की ऊर्जा व्याप्त न हो और फिर भी हम उस परमसत्ता का अहसास नहीं कर पाते हैं। जिस दिन तुम विकारों से मुक्त होकर उस परमसत्ता को अपनी इष्ट मान लोगे और नशे-मांस से मुक्त होकर, चरित्रवान् बनकर उनकी आराधना करने लगोगे, तो एक अलग आनन्द, एक अलग शान्ति की अनुभूति होगी।
यदि आपको कुछ प्राप्त करना है, तो ‘माँ’ से मांगने के लिए मैंने तीन रास्ते बताए हैं और जो मेरे शिष्य पहले से जुड़े हुए हैं, वे सभी जानते हैं। आप नाना प्रकार की मांगें, नाना प्रकार की कामनाएं समाज के बीच रखते रहते हो और मैं नए भक्तों के लिए भी इस स्थान से जानकारी देना चाहूँगा कि अगर आप किसी इष्ट से या किसी देवी-देवता से जुड़े हुए हो, तो केवल तीन चीजें मांगो- भक्ति, ज्ञान और आत्मशक्ति। इन तीन चीजों में पूरी दुनिया की सामथ्र्य समाहित है। अगर आपको आपकी इष्ट की भक्ति प्राप्त हो गई, इष्ट का ज्ञान प्राप्त हो गया और इष्ट की शक्ति, आत्मशक्ति के रूप में प्राप्त हो गई, तो जीवन में और कुछ प्राप्त होना शेष नहीं रह जायेगा।
परमसत्ता से नाना प्रकार की कामनाएं मत रखा करो और यदि इस कलिकाल में कुछ क्षण उस परमसत्ता की आराधना-साधना के लिए मिल जाएं, तो उनसे मांगो कि हे माँ आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा, हमें आप अपनी कृपा दे दो, अपनी भक्ति दे दो, अपना ज्ञान दे दो और अपनी वह आत्मशक्ति दे दो, जो आत्मा आपने हमारे अन्दर स्थापित की है। अगर आपको वह शक्ति प्राप्त हो गई, तो शेष बचता क्या है? आपको फिर और कुछ मांगने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। आप केवल अपने जीवन को संवारना शुरू कर दो और इसीलिए मेरे द्वारा कहा जाता है कि जीवन में अपनी शान्ति को प्राप्त करलो, अपनी शक्ति को प्राप्त करलो।
हर मनुष्य का कर्तव्य है शान्ति और शक्ति को प्राप्त करना तथा इन दो शब्दों में सब कुछ समाहित है। अपनी आत्मा की अन्तिम शान्ति की कौन सी अवस्था है, जहाँ हम चरम शान्ति को प्राप्त कर सकें, जहाँ अशान्ति नाम की कोई चीज न हो, कोलाहल नाम की कोई चीज न हो। उस शान्ति को भी प्राप्त करलें एवं उस शक्ति को भी प्राप्त करलें। चूंकि केवल शान्ति से आपका कल्याण नहीं हो सकता, बल्कि शान्ति के साथ शक्ति अत्यंत आवश्यक है। चूँकि जहाँ शान्ति हो, किन्तु यदि वहाँ शक्ति नहीं है, तो आप निष्क्रिय बन जाओगे, अकर्मण्य बन जाओगे और अनीति-अन्याय-अधर्म फलने-फूलने लग जाएगा।
वर्तमान में अभी सज्जन पुरुषों की कमी नहीं है, मगर सज्जन पुरुष निष्क्रिय हैं और यदि वे सक्रिय होते, तो आज समाज का इस तरह पतन न हो रहा होता। अत: आप अपने अन्दर निष्क्रियता को हावी मत होने दो। अपने आचार-विचार-व्यवहार में परिवर्तन लाते हुए उस परमसत्ता की भक्ति करो, उस भक्ति के आनन्द में डूबो। आपको बहुत सरल व सहज जो साधना बताई गई है, उस साधना को नित्यप्रति करो। अपने अन्दर की शान्ति को खोज लो और उसे कहीं दूर खोजने जाने की ज़रूरत नहीं है। आप अमीर हो, गरीब हो, किसी अवस्था में हो, आपके तन में कपड़े न हों, आप एक समय का भी भोजन नहीं कर पाते हो, तब भी आप शान्ति तलाश सकते हो, खोज सकते हो।
तुम्हारी आत्मा की अंतिम शान्ति क्या है और इस आत्मा की शक्तियाँ कौन-कौन सी हैं? अपनी आत्मा की शक्तियों को जानना शुरू करो और जानने के लिए गहराई में डूबना शुरू करो। इसके लिए आपको ‘माँ’ और ú की साधना दी गई है। करोगे नहीं, तो प्राप्त नहीं कर सकोगे और करोगे, तो कोई खाली हाथ रह नहीं सकेगा। आपको वे बीजमंत्र दिये गए हैं, जिनसे आप अपनी सुषुम्ना नाड़ी का मंथन कर सकते हो। एक बार ‘माँ’ और एक बार ú का सस्वर उच्चारण करो। सामूहिक हो, तो सस्वर कर सकते हो और अगर अकेले कर रहे हो, तो उसका गुंजरण आपके कानों तक सुनाई दे। एक बार ‘माँ’ और एक बार ú का क्रमिक कुछ देर तक उच्चारण करो, फिर देखो कि शान्ति और शक्ति, दोनों ऊर्जा आपके अन्दर उत्पन्न होती चली जायेंगी।
कुण्डलिनीचेतना को चैतन्य करना बहुत सहज है। इतना अवश्य है कि उसकी पूर्ण चेतना को प्राप्त करना थोड़ा कठिन है। यह लम्बी यात्रा है, मगर उसकी ऊर्जा को प्राप्त करना, अपने सातों चक्रों तक प्राणवायु सक्रिय करना कोई भी असम्भव कार्य नहीं है। लेकिन, आपके खून में वंश परम्परागत, जन्म-दर-जन्म अनीति-अन्याय-अधर्म का साम्राज्य स्थापित होता चला जा रहा है, तथापि उस साम्राज्य को समाप्त करना पड़ेगा। आपके खून में ऐसा साम्राज्य स्थापित हो रहा है कि जन्म लेते ही बच्चा विकारी होजाता है, कुसंस्कारी होजाता है। आपको स्वयं को संवारना होगा तथा अपने आपको निर्मल और पवित्र बनाओ, चेतनावान् बनाओ, अपने अन्दर पुरुषार्थ को पैदा करो। एक बार संकल्प ले लो कि मैं अपने जीवन को बिल्कुल स्थिर कर दूंगा, मैं अवगुणों से अपने आपको दूर कर लूंगा, विकारों से अपने आपको दूर कर लूंगा और फिर देखो, तुम्हारे घरों में जो संतानें जन्म लेंगी, वे चेतनावान् संतानें होंगी, वे पुरुषार्थी संतानें होंगी, वे कर्मवान् संतानें होंगी, वे धर्मरक्षा, राष्ट्ररक्षा व मानवता की सेवा को समर्पित संतानें होंगी और वे अनीति-अन्याय-अधर्म के सामने घुटने टेकने वाली नहीं होंगी।
आपका गुरु भी वैसा ही जीवन जीता है। बचपन से लेकर आज तक मैंने कभी अनीति-अन्याय-अधर्म से समझौता नहीं किया, अनीति-अन्याय-अधर्म के सामने कभी भी अपना सिर नहीं झुकाया, वह चाहे राजसत्ता हो, चाहे धनवानों की सत्ता हो। सत्य के पथ से मैं कभी विचलित नहीं हुआ। मैंने विचारों की एक यात्रा तय की है। एक विचारधारा का जीवन, एक शान्ति का जीवन, एक ऐसी चेतना का जीवन, कि जिसे यदि आप जीना प्रारम्भ कर दोगे, तो आपके अन्दर आत्मबल जाग्रत् होगा, आपके अन्दर का पुरुषार्थ जाग्रत् होगा। गीता हमें यही संदेश तो देती है कि कर्मवान् बनो, पुरुषार्थी बनो, मगर आप गीता तो पढ़ते चले जा रहे हैं, लेकिन जीवन में परिवर्तन नहीं ला पा रहे हैं।
जीवन में परिवर्तन लाने के लिए अपने अन्दर के पुरुषार्थ को जगाओ, कर्मवान बनो, धर्मवान बनो, अनीति-अन्याय-अधर्म से समझौता मत करो, एक अभियान के लिए अपने जीवन को समर्पित करो और उस परमसत्ता की आराधना करो, जो आपकी जननी हैं। हमारी आत्मा की जननी कौन हैं? जो हमारी आत्मा की जननी हैं, वही हमारी मूल इष्ट हैं। वह अनेक ब्रह्मा, विष्णु, महेश की जननी हैं। हमारे धर्मग्रन्थ यही कहते हैं कि अनेक ब्रह्मा, विष्णु, महेश हैं, एक नहीं अनेक सौरमण्डल हैं, एक नहीं अनेक राम हैं और इन सभी को जन्म देने वाली वह माता आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा हैं, जो समस्त देवों की भी जननी हैं। जब देवता भी असमर्थ और नि:सहाय होजाते हैं, तो वे भी माता आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा को पुकारते हैं।
आज इस कलिकाल में, यदि तुम अपनी जननी को नहीं पुकार सके, इस काल में भी यदि अपनी जननी से सम्बन्ध स्थापित नहीं कर सके, तो पतन सुनिश्चित है और यदि पतन को रोकना है, तो मैं पूरे समाज का आवाहन करता हूँ कि आओ, भगवती मानव कल्याण संगठन की जो विचारधारा है, जिसके लिए मैंने अपने जीवन को समर्पित किया है, जीवन की एक-एक पल की साधना को समर्पित किया है, उस भगवती मानव कल्याण संगठन के अभियान के साथ जुड़कर ‘माँ’ के सच्चे भक्त बन जाओ और धर्मरक्षा, राष्ट्ररक्षा और मानवता की सेवा के लिए अपने जीवन को समर्पित करो।
कोई भी धर्म हमें दूसरे धर्म का पतन करना नहीं सिखाता। धर्म का आचरण है सभी धर्मों का सम्मान करना, मगर आज धर्म के नाम पर भी बड़ी-बड़ी खाईयाँ खोदी जा रही हैं। कोई किसी तरह का चिन्तन दे रहा है, तो कोई किसी तरह का चिन्तन दे रहा है। हमारा सबसे बड़ा धर्म है ‘मानवता का धर्म।’ उस धर्म को अपनाओ, अपने पुरुषार्थ को जाग्रत् करो, चेतनावान् बनो और यदि चेतनावानों के पथ पर चलना है, तो ‘माँ’ और ú की साधना करनी ही होगी, अपने आचार-विचार-व्यवहार में परिवर्तन लाना ही होगा।
आपका भोजन शुद्ध और सात्विक होना चाहिए, चूंकि ‘माँ’ की भक्ति के लिए संयम, साधना और सेवा ज़रूरी है। संयम का तात्पर्य है कि आपका पूरा जीवन ही संयमित हो, अन्यथा ‘माँ’ की आराधना कर रहे हो, स्तुति कर रहे हो, वन्दना कर रहे हो, दुर्गासप्तशती का पाठ कर रहे हो और यदि दिनभर अनीति-अन्याय-अधर्म का रास्ता अपनाओगे, तो तुम्हारा सुधार कभी नहीं हो सकेगा, तुम ‘माँ’ की चेतनातरंगों को कभी भी प्राप्त नहीं कर सकोगे, अपने अन्त:करण की ऊर्जा का कभी अहसास नहीं कर सकोगे। जब वह ऊर्जा जाग्रत् होती है, तो बड़ी से बड़ी समस्यायें सहजभाव से दूर होती चली जाती हैं। मंदिर, मस्जि़द, गुरुद्वारे, गिरिजाघर कहीं भी जाओ, श्रद्धा हो, विश्वास हो, नमन भाव हो, मगर जितना नमन उन स्थानों की तरफ हो, उतना नमन अपनी आत्मा की तरफ भी हो और वहाँ से भी मांगो, तो यही मांगो कि मैं अपने अवगुणों से ऊपर उठ सकूँ, अपने विकारों से मुक्ति पा सकूँ, उस परमसत्ता का सच्चा भक्त बन सकूँ। आज उस रास्ते पर चलने की ज़रूरत है।
आज पूरे धर्म की दिशा भटकाई गई है, समाज को सत्य का मार्ग नहीं दिया गया है। समाज को केवल ज्ञान के मार्ग में उलझाने का रास्ता देकर अनेक लोगों ने यह कहना शुरू कर दिया कि ‘माया महाठगिनी मैं जानी, माया महाठगिनी मैं जानी’, मगर आज जितने अधर्मी-अन्यायी, धूर्त साधु-सन्त-संन्यासी हैं, वे सब माया में लिप्त हैं। बड़े-बड़े मठों पर बैठे लोग केवल माया में लिप्त पड़े हुए हैं। तुम्हें अपनी आंखें खोलना पड़ेगा, अपने विवेक को जाग्रत् करना पड़ेगा, तुम्हें सोचना होगा कि तुम्हें कहाँ सिर झुकाना है और कहाँ सिर नहीं झुकाना है?
यह विचार करने का वक्त है, यह समझने और जानने का वक्त है कि जो धर्म को माध्यम बनाकर धन के सौदागर होते हैं, उनके पास कभी चेतनात्मक शक्ति नहीं होती है। इसीलिए मैंने किसी गर्व और घमण्ड से नहीं, बल्कि एक किसान परिवार में जन्म लेकर सामान्य सा जीवन जीते हुए पूरे विश्वअध्यात्मजगत् को अपने साधनात्मक तपबल की चुनौती दी है कि यदि इस भूतल पर एक भी कोई सिद्ध साधक है, तो मेरी साधनात्मक क्षमताओं का सामना करे, चाहे वह बड़ा से बड़ा योगी हो, चाहे बड़े से बड़े मठों में बैठे हुए मठाधीश हों। आज अधिकांश लोग चेतना से विहीन हैं, उनको ध्यान की गहराई का ज्ञान नहीं है, समाधि की प्रारम्भिक अवस्था का ज्ञान नहीं है, मगर ज्ञान समाधि का देंगे, ज्ञान ध्यान का देंगे! वे अन्दर से खोखले हैं, एक आवरण मात्र हैं और आवरणों के चक्रव्यूह में उलझ करके यह समाज स्वत: पतन के मार्ग पर जा रहा है।
एक शंकराचार्य ने 32 वर्ष की अवस्था में चार-चार मठों की स्थापना कर दी, अपने सूक्ष्मशरीर का भी अहसास कराया, परकाया प्रवेश का भी अहसास कराया, मगर क्या आज हमारे किसी भी शंकराचार्य में अपने सूक्ष्मशरीर को जाग्रत् करने की सामथ्र्य है? सत्य कड़वा होता है, मगर मुझे उस सत्य को बोलने से कोई नहीं रोक सकता। आज किसी भी शंकराचार्य में अपने सूक्ष्मशरीर को जाग्रत् करने की क्षमता नहीं है, न ही उनमें समाधि की गहराई में डूबने की सामथ्र्य है और इसलिए हमारे समाज का पतन हो रहा है। साधु-सन्तों की तो बात ही छोड़ दीजिए, वह चाहे बड़े से बड़ा कोई योगाचार्य हो, भले ही वे समाज को ध्यान-योग का ज्ञान सिखाते हों, सब साधना से शून्य हैं।
कुण्डलिनीचेतना का ज्ञान सिखाने वाले सैकड़ों लोग हैं, मगर किसी की कुण्डलिनीचेतना जाग्रत् नहीं है। चूंकि मैं देख सकता हूँ, जान सकता हूँ, महसूस कर सकता हूँ, किसी की गहराई में डूब सकता हूँ और यदि ऐसा कोई है, तो मैं ससम्मान चुनौती देता हूँ कि आप मेरे आश्रम में आओ और आप जैसा चाहोगे, वैसी व्यवस्था कर दूंगा। आप अपने दस-बीस या पचास हज़ार शिष्यों को लेकर आओ, उनकी भी व्यवस्था कर दूंगा। एक बार इस समाज के सामने बुद्धिजीवीवर्ग के लोग इकट्ठे हों, मीडिया के लोग इकट्ठे हों, जिनके पास ज्ञान हो, वे वैज्ञानिक उपस्थित हों तथा कुछ क्षेत्रों की जानकारी, जो विज्ञान भी समझ सकता है, मीडिया भी समझ सकता है, बुद्धिजीवी लोग भी समझ सकते हैं कि किसके पास साधनात्मक क्षमता है व किसके पास साधनात्मक क्षमता नहीं है? कहीं न कहीं से तो आवाज़ उठनी ही चाहिए।
आज अनेक ऐसे मठ हैं, जहाँ स्वयं शराब परोसी जाती है, विदेशियों के लिए बियर लाकर दी जाती है, शराब की बोतलें लाकर दी जाती हैं। दिन में राम-राम और रात में पउवा चढ़ाए जाते हैं, अय्याशी के अड्डे बने हुए हैं। क्या समाज अब भी नहीं जागेगा? एक आसाराम बापू नहीं, अनेक आसाराम बापू आज भी समाज में मौज़ूद हैं। समाज को कहीं न कहीं समझना पड़ेगा, अन्यथा समाज एक ऐसी अन्धी खाईं की ओर बढ़ता चला जा रहा है, जहाँ से निकल पाना उसके लिए मुश्किल होगा। शिष्यों की भावनाओं को आघात लगता है और वह आघात न लगे, इसके लिए सबसे पहले अपनी आत्मा को जानना सीखो। यदि तुम अपनी आत्मा को जानने के पथ पर बढ़ोगे, तो तुम्हें कोई ठग नहीं सकेगा, तुम्हें कोई लूट नहीं सकेगा, तुम्हें कोई दिशाभ्रमित नहीं कर सकेगा, चूंकि तुम विवेकवान् बनोगे, ज्ञानवान् बनोगे और तुम्हारे अन्दर निर्णय लेने की क्षमता होगी। अत: उस दिशा की ओर बढ़ना प्रारम्भ करो और उसके लिए सरल चिन्तन है कि अपने आचार-विचार और खानपान में परिवर्तन ले आओ, नशे-मांस से मुक्त रहो, चरित्रवानों का जीवन जियो।
‘माँ’ की साधना-आराधना के लिए जो क्षण मिल जायें, तो नित्य सर्वप्रथम श्रद्धा-विश्वास से उन्हें नमन करो, प्रणाम करो कि हे जगत् जननी, हे करुणामयी माँ, आपकी कृपा से मुझे ये क्षण प्राप्त हो रहे हैं तथा आज जब इन क्षणों पर अधिकांश समाज भटक रहा है, आपने मुझे अपने सम्मुख बिठा लिया है, आपने अपनी छवि के सम्मुख बैठने का मुझे सौभाग्य दे दिया है, तो हे ‘माँ’, ये एक-एक क्षण मेरे लिए सार्थक होजायें। हो सकता है कि मैं आपके पूजन-पाठ की विधि को न जानता हूँ, आपकी स्तुति-वन्दन को न जानता हूँ, मगर आपकी कृपा से आपके सम्मुख आपने मुझे बिठा तो लिया है, मैं आपको देख तो सकता हूँ। हो सकता है कि मेरे नेत्र विकारी हों, हो सकता है कि मेरे नेत्रों में देखने की क्षमता न हो, पर ‘माँ’ आप तो मुझे देख रही हैं, मैं आपके सम्मुख तो बैठा हूँ। हे ‘माँ’, आप मुझ पर कृपा कर दो, मेरे विकारों से मुझे मुक्त कर दो, हे ‘माँ’, मुझे अपनी भक्ति दे दो, हे ‘माँ’, मुझे अपनी आत्मशक्ति दे दो, हे ‘माँ’, मुझे अपना ज्ञान दे दो। सच्चे मन से उस ‘माँ’ को पुकार करके देखो, सच्चे मन से उनकी प्रार्थना करके देखो, तुम्हारी पांच मिनट की साधना तुम्हारे जीवन को आनन्द से भर देगी।
बड़ी-बड़ी स्तुतियों में वह सामथ्र्य नहीं है, जो आपके द्वारा सच्चे मन से की गई प्रार्थना में है। जिन क्षणों पर आप किसी मन्दिर में पहुंच जाओ, तो अपने आपको सबसे बड़ा सौभाग्यशाली मानो, जिस समय किसी सात्विक स्थान पर पहुंच जाओ, जिस समय अपने घर के पूजनकक्ष में बैठ जाओ, जिस समय आपको ‘माँ’ की साधना करने का, मन्त्रों को जाप करने का सौभाग्य प्राप्त हो रहा हो, जिस समय आपको अपने टूटे-फूटे शब्दों से ‘माँ’ की स्तुति, वन्दना करने का सौभाग्य मिल रहा हो और हो सकता है कि आपकी स्तुति में वह स्वर न हो कि आप ‘माँ’ को प्रसन्न कर सको, मगर आप अपने मन की भावनाओं को तो जाग्रत् कर लो कि हे ‘माँ’, आपकी कृपा से यह ज्योति हमारे हाथ में है, आपकी कृपा से हम आरती कर रहे हैं। आपकी आरती करने की सामथ्र्य भला हमारी क्या हो सकती है? जिनकी स्तुति, वन्दना बड़े-बड़े ब्रह्मा, विष्णु, महेश, ऋषि-मुनि भी नहीं कर सकते हैं, हम सामान्य से मानव, हम निरीह असहाय मानव, हम अवगुणों से ग्रसित मानव आपकी क्या स्तुति कर सकते हैं, आपकी क्या आरती कर सकते हैं, आपकी क्या वन्दना कर सकते हैं? हमारे ये जो स्वर फूट रहे हैं, हमारी ये जो सांसें चल रही हैं, ये आपकी ही दी हुई हैं और जो आपकी ही दी हुई चीज़ है, वह आपकी स्तुति, वन्दना क्या कर सकती है?
हे ‘माँ’ आप तो अपने स्वयं के स्वभाव में प्रसन्न हो, आप ममतामयी हो, आप करुणामयी हो, आप दयामयी हो और हे ‘माँ’, हम आपके चरणों पर पड़े हुए हैं, हमें सिर्फ विकारों से मुक्त कर दो। एक बार इस भावना से उस परमसत्ता की स्तुति करके देखो, तुम्हें जो आनन्द मिलेगा, जो शान्ति मिलेगी, जो तृप्ति मिलेगी, वह और कहीं भी प्राप्त नहीं कर सकोगे। इस भूतल के भौतिक जगत् का कोई भी सुख ‘माँ’ की स्तुति की गहराई से बराबरी नहीं कर सकता है। ‘माँ’ की स्तुति करने से आपका अन्तर्मन आनन्द से भर जायेगा और वही आनन्द आपकी जड़ कोशिकाओं को जाग्रत् कर देगा। आपके अन्दर कोशिकाएं हैं, मगर सुप्त पड़ी हुई हैं। वही एक पल आपकी ऊर्जा को जाग्रत् कर देगा और जब आपकी सात्विक तरंगें, सतोगुणी प्रवृत्ति और सतोगुणी स्वभाव जाग्रत् होने लगेगा, तो तमोगुणी और रजोगुणी विकार धीरे-धीरे करके नष्ट होने लग जायेंगे और वही ऊर्जा आपके विकारों को नष्ट कर देगी तथा आपकी कोशिकाओं को चैतन्य कर देगी। एक बार सच्चे मन से ‘माँ’ से रिश्ता जोड़कर तो देखो।
दस साल, बीस साल, पच्चीस साल की यात्रा का फल नहीं प्राप्त होता। सच्चे मन से एक क्षण नित्य पुकारना सीख तो लो, दो-चार मिनट ‘माँ’ की स्तुति करना सीख तो लो और जब आपका हृदय द्रवित होजाये, आपका हृदय रोमांचित होजाये, आपका अन्त:करण ‘माँ’ की तरफ आकर्षित होजाये, उस प्रकृतिसत्ता को पुकारने लग जाये कि हे ‘माँ’, हम आपके अंश हैं, हमें अपने से दूर मत करो, तब यही तो ‘माँ’ की सच्ची साधना है। जिस तरह एक अबोध शिशु पुकारता है कि वह अपनी माँ से दूर नहीं होना चाहता है। त्रिभुवन का सब सुख उसके सामने लाकर डाल दो, बड़े-बड़े खिलौने दे दो, खूब मिष्ठान्न, पकवान्न उसके सामने रख दो, मगर जब उसके माता-पिता से उसको दूर कर दो, तो वह सबकुछ ठोकर मार देता है।
जब आपकी वह अवस्था आ जाये कि भौतिक जगत् का सुख पैर से ठोकर मार देने के बराबर हो तथा यह भाव हो कि ‘माँ’ की भक्ति, ‘माँ’ की कृपा के बदले और कुछ नहीं लेना चाहता हूँ, यदि लेना चाहता हूँ तो ‘माँ’ की भक्ति लेना चाहता हूँ, ‘माँ’ का ज्ञान लेना चाहता हूँ, ‘माँ’ की आत्मशक्ति लेना चाहता हूँ! उस अवस्था में डूब करके भक्ति करना तो सीखो, एक अलग आनन्द मिलेगा और आपकी तरंगें, आपका आभामण्डल व्यापक होता चला जायेगा, आपके आवास में सात्विक तरंगें प्रवाहित होती चली जायेंगी। निष्ठा, विश्वास और समर्पण से भरा हुआ एक सच्चा प्रयास करके तो देखो।
‘माँ’ के सामने प्रार्थना करो, स्तुति करो, वन्दना करो, सच्चे मन से मन्त्र जाप करो, मगर आज तो समाज में बिल्कुल इसके विपरीत हो रहा है। सुबह आठ बजे तक सोएंगे, फिर जगेंगे, तो जल्दी-जल्दी करेंगे कि लेट हो रहा है और यदि पूजन में भी बैठेंगे, तो इतना जल्दी-जल्दी करेंगे कि पूरे समय का एडजस्टमेंट पूजन के समय पर ही करेंगे। एक माला का जप करना है, तो ऐसे करेंगे, जैसे कोई खदेड़ रहा हो कि हम कितनी जल्दी माला जप कर लें! आपकी एक माला पूरी हो या न हो, आप प्रतिदिन 108 मंत्र जाप करते हो और यदि किसी दिन समय कम हो, तो ग्यारह मंत्र जप कर लो, पाँच मंत्र जप कर लो, मगर जप सच्चे मन से ही करो तथा एकाग्र मन से जप करके देखो, आपके 108 मंत्र जप करने से वह फल प्राप्त नहीं होगा, जो सच्चे मन से पांच या ग्यारह जप किए हुए मंत्रों से प्राप्त हो जायेगा। आपको केवल अपनी कार्यप्रणाली में परिवर्तन लाना है, लेकिन पांच मिनट के लिए भी पूजन में बैठोगे, तो आप नाना प्रकार की कामनाएं, नाना प्रकार की प्रार्थनाएं रखना प्रारम्भ कर दोगे!
उस ‘माँ’ से क्या मांगना, जो अनन्त लोकों की जननी हों, जो जन-जन की जननी हों, क्या वह हमारे बारे में जानती नहीं कि हमें क्या चाहिए और क्या नहीं चाहिए? क्या हम जैसे अबोध बच्चों के बारे में वह इतना भी ज्ञान नहीं रखतीं? आप सच्चे मायने में उनकी भक्ति करने के योग्य ही नहीं हो, उनकी भक्ति की पात्रता ही आपके अन्दर नहीं है, चूंकि आप ‘माँ’ को मानते हैं, किन्तु इससे आपका कल्याण नहीं होगा, बल्कि आप ‘माँ’ को कितना जानते हो, इससे आपका कल्याण होगा। यदि ‘माँ’ को मानते रहोगे, तो यही होता रहेगा कि ‘माँ’ हमारा यह पूरा कर दो, ‘माँ’ हमारी वह इच्छा पूरी कर दो, बल्कि ‘माँ’ को जानना शुरू कर दो कि ‘माँ’ कितनी कृपालु हैं, कितनी दयामयी हैं, कितनी करुणामयी हैं। अरे, ‘माँ’ हमारी आत्मा की जननी हैं और हमारे कल्याण के लिए कण-कण में व्याप्त हैं। यह प्रकृति, ये पर्वत, ये हवाएं, सूर्य का यह प्रकाश और ये जो हम श्वासें प्राप्त कर रहे हैं, ये सब किसके दिए हुए हैं? हमारी आँखें, जो इस जगत् को देख रही हैं, हमारे कान, जो यह सबकुछ सुन रहे हैं, हमारे हाथ, जो कर्म कर रहे हैं, हमारा यह हृदय, जो धड़क रहा है, ये सब किसके दिये हुए हैं?।
हमारा ऐसा कौन सा अंग है, जिसपर परमसत्ता ने अलौकिकता न भर दी हो और यदि ध्यान करने लगो, तो प्रतीत होगा कि ‘माँ’ ने हमें सर्वस्व दे रखा है। फिर भी यदि तुम्हें कुछ मांगना है, तो भक्ति, ज्ञान और आत्मशक्ति मांगो। ‘माँ’ ने तुम्हें किस रूप में भेजा था और तुम किस तरह कुरूप बन गए? ‘माँ’ ने तुम्हें सात्विकता का जीवन दिया था, इन्सानों का जीवन दिया था, मनुष्य का जीवन दिया था और जिसके लिए कहा गया है कि मानवजीवन प्राप्त करने के लिए देवता भी तरसते हैं, तो क्या ऐसे अधर्मी-अन्यायियों का जीवन जीने के लिए, ऐसे नशेडिय़ों का जीवन जीने के लिए, ऐसे शराबियों का जीवन जीने के लिए, ऐसे मांसाहारियों का जीवन जीने के लिए और ऐसा जीवन, जिससे दूसरों का शोषण हो रहा हो, जो धर्म पर आस्था विश्वास न रखते हों, जो दूसरे के धर्म को नष्ट करने के लिए तुले बैठे हों, जो जातीयता की खाईं खोद रहे हों? क्या ‘माँ’ ने आपको इसलिए भेजा था, क्या आपको इसलिए तैयार किया है कि आप भ्रष्टाचारी बन जाओ, आप अधर्मी-अन्यायी बन जाओ? तुम सिर्फ अपने आपको सुधार लो, ‘माँ’ तुम्हें तुम्हारे हृदय में बैठी नज़र आएंगी।
मैंने अपनी एक-एक यात्रा को प्रमाणिकता के साथ आगे बढ़ाया है। मैंने अपने 108 महाशक्तियज्ञों के आठ यज्ञ समाज के बीच सम्पन्न किए हैं। रणधीर सिंह, कमलेश गुप्ता जैसे अनेक भक्त यहाँ बैठे हैं, समाज के लोग उनसे मिलें, मीडिया के लोग उनसे मिलें। मैंने जो आठ यज्ञ समाज के बीच सम्पन्न किए, उनमें मैंने कई प्रकार के प्रमाण दिए और मैंने कहा था कि यदि मेरा कहा हुआ एक भी शब्द प्रमाणित नहीं होगा, तो मैं एकान्त स्थानों पर पुन: चला जाऊंगा और तब तक ‘माँ’ की साधना करता रहूंगा, जब तक ‘माँ’ मुझे वह पात्रता नहीं देंगी कि समाज में परिवर्तन डालने की पात्रता मेरे अन्दर आ जाये। मैंने पहले यज्ञ में कहा था कि मैं ये आठ महाशक्तियज्ञ अलग-अलग मौसमों में, अलग-अलग स्थानों पर समाज को जगाने के लिए करूंगा और मेरे हर यज्ञ में बरसात अवश्य होगी और यदि एक यज्ञ में भी बरसात न हो, तो मान लेना कि मेरे अन्दर प्रात्रता नहीं है, फिर मेरे विचारों के अनुरूप तुम मत चलना। मेरे आठ यज्ञ हुए और आठों यज्ञों में बरसात हुई है।
सातवां यज्ञ चल रहा था। कमलेश गुप्ता के अलावा एक-दो और भक्त थे, उन्होंने कुछ अनुभूतियों के लिए आग्रह किया। कुछ लोग जड़ प्रतिमाओं का अनादर करते हैं, चूंकि उस समय अनेक लोग कहते थे कि प्रतिमाओं में कुछ नहीं होता और मैंने कहा था कि जिसको अहसास कराना हो, तो प्रतिमाएं बहुत बड़ा स्वरूप होजाती हैं। अरे, हर कण में प्रकृतिसत्ता मौज़ूद है और इसका अहसास तो भक्त प्रहलाद ने भी कराया था, इसका अहसास तो रामकृष्ण परमहंस ने भी कराया था कि वे माँ काली को अपने हाथों से भोजन कराते थे। मैंने कहा है कि मैं वह समय भी दिखाऊंगा कि पुत्र ने ‘माँ’ को भोजन कराया तो क्या कराया, ‘माँ’ स्वत: आकर पुत्र को भोजन कराएंगी, इस सत्य का भी अहसास कराऊंगा।
सातवें यज्ञ में भक्तों के आग्रह करने के बाद मैंने उन्हें कहा कि जब मेरा यज्ञ चल रहा हो, तो मेरी जिस समय चरम अवस्था की एकाग्रता होती है, आप उस समय के बीच में आकर मुझसे बीस-पच्चीस फीट दूर बैठ जाना और यदि मैं कहता हूँ कि मैं अपने हृदय में ‘माँ’ का वास रखता हूँ, तो ‘माँ’ के हृदय में भी मेरा वास है। तुम उस परमसत्ता को नहीं देख सकते, मगर यज्ञ में मैं जिस मूर्ति को माध्यम बनाता हूँ, एक निर्धारित समय पर मुझसे दूर बैठकर उस मूर्ति को एकाग्र मन से देखना, यदि तुम्हें ‘माँ’ की छवि में मेरी छवि न दिखे, तो यह मान लेना कि मेरे पास कोई पात्रता नहीं है। ये भक्त आज भी इस शिविर परिसर में बैठे हैं और जो न जानते हों, वे उनसे मिल सकते हैं।
जिस समय भीषण धूप थी और शिष्यों-भक्तों ने कहा कि गुरुदेव जी, यदि थोड़ी बरसात होजाए, तो मौसम अच्छा हो जायेगा, वहाँ मैंने मात्र दस-पन्द्रह मिनट में बरसात कराई है। यहाँ शिविर के इस मंच को बनाने वाला दिनेश चक्रवर्ती, जो कि कलकत्ता का कलाकार है और इन्द्रपाल आहूजा का दामाद है, इन सब लोगों ने अपना जीवन ऐसे ही समर्पित नहीं कर रखा है। जब आठवें यज्ञ की तैयारियाँ बिन्दकी, फतेहपुर, उत्तरप्रदेश में चल रही थीं और मेरा यज्ञ संकल्पित होता है कि किस समय से किस समय के बीच यज्ञ सम्पन्न करना है। उस समय भीषण बरसात हो रही थी और दिनेश परेशान था कि हम यज्ञस्थली के निर्माण की व्यवस्था कर ही नहीं सकते हैं। मात्र दो या तीन दिन का समय शेष बचा था और मेरा संकल्प था कि यदि निर्धारित समय पर मैं यज्ञ नहीं कर सका, तो मेरा यज्ञ खण्डित हो जायेगा और यदि मेरा यज्ञ खण्डित हुआ, तो मैं अपने आपको उस यज्ञ के पात्र न मान करके इसी यज्ञस्थल से एकान्त स्थान पर चला जाऊंगा और समाज को अपना मुख कभी नहीं दिखाऊंगा।
साधना चमत्कारों के लिए नहीं, अपने धर्म की रक्षा के लिए होती है और वह मेरे अपने अनुष्ठान थे। मैंने दिनेश से कहा कि तुम मुझसे बताओ कि तुम चाहते क्या हो? मगर मुझे यज्ञ का यह स्थान इतने दिनों के अन्दर ही चाहिए और यदि स्थान तैयार करके न दे सके, तो मेरा यज्ञ खण्डित हो जायेगा! उसने कहा कि गुरुदेव जी, भीषण बरसात हो रही है और जब तक पानी नहीं रुकेगा, हम करेंगे क्या? मैंने कहा कि तुम स्थल पर पहुंचो, मैं एक घण्टे के अन्दर बरसात को रोकता हूँ और फिर तैयारी होने तक उस परिसर पर बरसात नहीं होगी। प्रमाण है बिन्दकी का वह शहर, वहाँ के लोग, जाओ और सम्पर्क करो। मैं हिमालय पर्वतों की बात नहीं करता और मेरा जो यज्ञस्थल था, उससे केवल दो सौ फीट के दायरे में पानी नहीं गिर रहा था, बाकी पूरे सप्ताह तक पानी गिरता रहा। वहां उस यज्ञस्थल पर एक बूंद पानी नहीं गिरा और रातों-रात उस यज्ञस्थल का निर्माण कराया गया। साधक और साधनाएं आज भी जीवित हैं, खुली आँखों से देखना सीखो। यज्ञस्थल की वह भूमि तैयार हुई और ‘माँ’ का वह यज्ञ भी सम्पन्न हुआ।
मैं एक आसन पर आठ-आठ घण्टे बैठकर, बिना एक शब्द बोले हुए, बिना एक बूंद जल ग्रहण किए उन यज्ञों में आहुति देता हूँ। जहाँ एक बार सामग्री लेकर बैठ जाता हूँ, तो फिर अन्य किसी सामग्री की आवश्यकता नहीं होती और उसी से उस यज्ञ को पूर्ण करना होता है। आज तो बड़े-बड़े हज़ारकुण्डीय, लाखकुण्डीय यज्ञ हो रहे हैं। यह सामान ले आओ, वह सामान ले आओ और स्वाहा! कैमरा हमें देख रहा है कि नहीं देख रहा है, तुम यहाँ बैठो, तुम वहाँ बैठो, तुम आग जला दो, तुम लकड़ी ला दो! अरे अधर्मियों-अन्यायियों, आज अधर्म के द्वारा किए जा रहे इन यज्ञों का परिणाम ही है, जो समाज का पतन हो रहा है। जब तक कर्ता-क्रिया-कर्म एक समान न हों, तब तक यज्ञ कभी पूर्ण नहीं होता।
हमारे शास्त्रों में उल्लेख है कि यज्ञवेदी की भूमि का प्रभाव क्या होता है कि यदि वहाँ का एक कण भी प्राप्त होजाये, तो हमारा जीवन संवर जाये। केवल दिखावे व प्रदर्शन के लिए और धन इकट्ठा करने के लिए आज बड़े-बड़े यज्ञ हो रहे हैं। मैंने आठ महाशक्ति यज्ञ समाज के बीच किए हैं और उस यज्ञस्थल का निर्माण जब आश्रम में हो जायेगा, तो उसके बाद शेष सौ यज्ञ होंगे तथा आने वाला समाज उनके प्रमाणों को भी देखेगा। आठ यज्ञों के समय जो उनमें उपस्थित रहे, उन्होंने देखा है कि उन यज्ञों का प्रभाव क्या होता है? एक बार जब मैं बैठ जाता हूँ, तो मेरा लक्ष्य रहता है कि ‘साधना पूर्ण होगी या शरीर नष्ट होगा।’ यही मेरा संकल्प होता है और उन आठ यज्ञों में मैंने सभी प्रमाण दिए हैं, असम्भव से असम्भव कार्य किए हैं।
रीवा के यज्ञ का एक घटनाक्रम है। रीवा के मेडिकल कॉलेज एवं इलाहाबाद के अस्पताल से एक मरीज को वापस भेज दिया गया था कि इसे घर ले जाओ, अब यह ठीक नहीं हो सकता और जितने दिन सेवा करना हो, कर लो। आज भी उनके परिजन दीपू यहाँ पर बैठे हुए हैं, उनसे सम्पर्क करें। सातवें यज्ञ में मैंने उनसे कहा था कि उन्हें यहाँ यज्ञ में ले आओ। मैं कोई दवा नहीं दूंगा, स्पर्श भी नहीं करूंगा, बस बीस-पच्चीस फीट की दूरी पर बिठाऊंगा और ग्यारह दिन मेरा यज्ञ चलता है, मैं अपने यज्ञ के माध्यम से ही उन्हें पूरी तरह स्वस्थ और चैतन्य करके भेजूंगा।
रीवा मेडिकल कॉलेज में मैंने सूचना दी कि डॉक्टर आयें तथा चेक कर लें और यदि कोई डॉक्टर इस मरीज को ठीक कर देगा, तो पूरे इलाज का खर्च मैं दे दूंगा और पचास हज़ार रुपये अलग से इनाम दे दूंगा, अन्यथा देखें कि यज्ञभूमि का क्या प्रभाव होता है कि यज्ञभूमि के नज़दीक बैठने मात्र से लाभ प्राप्त होता है। जिस मरीज को दो लोग उठाते-बिठाते थे, चम्मच से दलिया खिलाते थे, जिसकी लार बहती रहती थी, जिसके नज़दीक बैठने में लोग घिन करते थे, ग्यारह दिनों के अन्दर-अन्दर वह व्यक्ति स्वस्थ व चैतन्य होकर सात-आठ किलोमीटर की यज्ञ के विसर्जन की यात्रा में खुद लोगों को पानी पिलाता हुआ पैदल गया। मैं इन चमत्कारों से दूर रहता हूँ, मगर आज के अधर्मी-अन्यायी उस सत्य को नहीं समझ पा रहे है कि आज भी समाज में सत्य जीवित है, आज भी समाज में धर्म जीवित है और आज भी यदि अनुभव करना हो, तो ऋषित्व की एक कड़ी मौज़ूद है, जो जिसको चाहे, उस सत्य का अहसास करा सकता है। एक बार धर्मसम्मेलन तो हो, एक बार समाज देख तो सके।
मैंने एक स्थान पर रहकर, दूसरे स्थान पर कहाँ क्या हो रहा है? इसकी जानकारी भी दी है। आठ यज्ञों तक मैंने सभी प्रमाण दिए, मगर मेरा लक्ष्य चमत्कार करना नहीं है। समाज के लिए एक समय था, मैं वह समय दे रहा था और जिस तरह आज ऊर्जातरंगें बांटता हूँ, एक समय के बाद यह भी मेरे द्वारा रोका जायेगा, चूंकि मेरा अधिकांश समय यज्ञवेदी पर अग्नि के समक्ष बैठकर गुज़रना है। एक यज्ञ में ग्यारह दिन लगते हैं और शेष सौ यज्ञ पड़े हैं, आप स्वत: समय का आकलन करलें कि ग्यारह दिन तक मुझे किसी बात को करने या बोलने का मौका ही नहीं मिलता है। अखण्ड साधना में रहकर उन यज्ञों को पूर्ण करना पड़ता है। सौ यज्ञों को पूर्ण करने में मेरा अधिकांश समय अग्नि के समक्ष ही गुज़रना है तथा मैं अग्नि की उस तपिश के बीच में रहता हूँ कि जहाँ पहले यज्ञ में मैंने कहा था कि मैं तो दो-ढाई फीट दूर ही बैठता हूँ और यदि कोई मेरे यज्ञस्थल पर चार-पांच फीट दूर भी दो घण्टे ही बैठकर दिखा देगा, तो मैं अपना सिर काटकर उसके चरणों में चढ़ा दूंगा।
आठ यज्ञों में मैंने प्रमाण दिए और अनेक लोगों ने प्रयास किया, मगर पन्द्रह मिनट से आधे घण्टे तक ही यज्ञस्थल पर बैठ सके। या तो वे आलस्य में चले गये या तो उठकर चले गए। सत्य के समक्ष बैठ पाना इतना आसान नहीं होता है। कमलेश गुप्ता यहाँ पर बैठे हुए हैं, जिनके यहाँ मैंने पहला यज्ञ किया था। वहाँ पर यज्ञवेदी और पूजन के लिए ज़गह बहुत ही कम थी, मगर मुझे यज्ञ पूर्ण करना था। यज्ञ की लपटें मेरे शरीर का स्पर्श कर रहीं थीं और उस अवस्था में ग्यारह दिनों तक यज्ञ चलता रहा, मगर अग्नि की लपटों ने मेरे एक भी रोम को नहीं जलाया था।
एक बार नहीं, अनेक बार, एक स्थान से दूसरे स्थान की जानकारी दी गई और असम्भव से असम्भव कार्य सम्भव करके दिखाए गए। मैंने कहा है कि यदि मैं आज यहाँ बैठा हूँ, तो सामान्य अवस्था लेकर नहीं बैठा हूँ और मैं उच्चता नहीं चाहता, मैंने तो सबकुछ समाज को दे रखा है, मैंने अपना तन-मन-धन, एक-एक रोम, एक-एक साधना समाजकल्याण के लिए समर्पित की है। बस उस विचारधारा को सहजभाव से समझ जाओ, एक बार उस विचारधारा से अपने आपको जोड़कर देखो, तुम्हारा एक पल भी निरर्थक नहीं जायेगा, एक पल भी व्यर्थ नहीं जायेगा।
सत्य की उस यात्रा का ही तो परिणाम है कि जो असमर्थ, असहाय हो गए थे, आत्महत्या करने की सोच रहे थे, जिनके घर में भोजन नहीं था, पहनने के लिए कपड़े नहीं थे, आज वही हज़ारों-लाखों लोग असमर्थ होने के बाद भी उस यात्रा पर दौड़ पड़े हैं। जो अपने लिए मज़बूर थे, आज दूसरे मज़बूरों को भी दिशा दे रहे हैं। जिन्हें कोई ज्ञान नहीं देता था, जिन्हें नज़दीकता नहीं दी जाती थी, आज वही आत्मबल के साथ, चैतन्यता के साथ अच्छे से अच्छे ज्ञानियों को भी ज्ञान दे रहे हैं।
मेरा शिष्य गरीब हो सकता है, धनविहीन हो सकता है, भवनविहीन हो सकता है, वाहनविहीन हो सकता है, मगर चेतना से विहीन नहीं हो सकता है। मेरे एक-एक शिष्य की चेतना समाज के अन्य लोगों पर भारी पड़ेगी। मैंने वह मार्ग दिया है कि मैं अपनी सेवाएं नहीं कराता, बल्कि मैं कहता हूँ कि स्वयं आत्मकल्याण एवं जनकल्याण के पथ पर बढ़ो। जनकल्याण से बड़ा और कोई कर्म नहीं है। धर्मरक्षा, राष्ट्ररक्षा और मानवता की सेवा, यही तो हर मनुष्य का धर्म और कर्तव्य हैं। आज समाज इनसे विहीन होता चला जा रहा है। केवल इस विचारधारा में अपने आपको समाहित कर लो, इस विचारधारा में अपने आपको डालकर तो देखो। कर्म करना शुरू कर दो और सत्कर्म करने के लिए बहुत बड़े ज्ञान की आवश्यकता नहीं है, बहुत बड़ा धनवान बनने की ज़रूरत नहीं है।
ऊपर की ओर मत देखो। भौतिक जगत् में देखना है, तो अपने नीचे देखो और यदि अध्यात्म जगत् में देखना है, तो अपने से ऊपर खड़े व्यक्ति को देखो। भौतिक जगत् में देखना है, तो देखो कि मुझसे भी गरीब कितने लोग हैं? मैं जूते पहन लेता हूँ, वहीं आज समाज में कितने लोग हैं, जो जूते नहीं पहन पाते! मैं अपने बच्चों की स्कूल फीस जमा कर लेता हूँ, मगर आज समाज में बहुत से ऐसे लोग हैं, जो अपने बच्चों की फीस न जमा कर पाने की वजह से स्कूलों से अपने बच्चों के नाम कटवा लेते हैं। तुम्हारे पास तो घर है, छप्पर ही सही, अनेक लोगों के पास तो छप्पर भी नहीं है। अनेक लोग प्लेटफॉर्म में तुम्हारी फेंकी हुई पत्तल से दाने उठाकर खा लेते हैं। तुम्हारे पास बहुत सामथ्र्य है, उस सामथ्र्य को पहले जान लो, पहचान लो कि ‘माँ’ ने जो कुछ तुम्हें दे रखा है, वह करोड़ों लोगों के पास नहीं है और तुम उन करोड़ों लोगों से ऊपर हो। अत: जो तुम आगे के लोगों से चाहते हो, पहले वह तुम स्वयं से पीछे खड़े करोड़ों लोगों को देना शुरू कर दो, ‘माँ’ तुम्हें देना शुरू कर देंगी। कितना आगे बढ़ोगे? तुम्हारे पास साइकिल है, किसी के पास मोटरसाइकिल है, किसी के पास गाडिय़ाँ हैं, किसी के पास हेलीकॉप्टर है! आिखर कितना आगे बढ़ोगे?
आज जो करोड़ों की सम्पदा के मालिक हैं, उनकी नीव ही बेईमानी पर टिकी हुई है। बेईमानी पर बहुत बड़ा साम्राज्य खड़ा कर लेना आसान है, कठिन नहीं है, मगर इसी तरह के लोग जब अगला जन्म लेते हैं, तो कोई सुअर बन करके विष्ठा को खा रहा होता है, कोई रोड पर पड़ा हुआ गिड़गिड़ा रहा होता है। हर पापकर्म का फल मनुष्य को अवश्य भोगना पड़ेगा, उससे कोई नहीं बच सकता। अत: कितना आगे बढ़ना चाहोगे? कभी तृप्ति नहीं मिलेगी।
मैं किसी का विरोधी नहीं हूँ, मगर स्वयं खुली आंखों से देखो। योग के नाम पर समाज को किस तरह से बेवकूफ बनाया गया? टिकट बेचकर योग शिविर किए गए, पैसा लिया गया और अमीर आगे बैठेगा, गरीब पीछे बैठेगा, इस तरह पूरे देश से लूटा गया। टिकट बेची गईं, बैंकों से बेची गईं, कार्यालय खोलकर बेची गईं, बुकिंग की गई और बेईमान राजनेता संरक्षण देते चले गए, एक भी टैक्स नहीं वसूला गया। एक डॉक्टर, एक इंजीनियर, एक कर्मचारी, एक प्रशासनिक अधिकारी, एक पुलिस अधिकारी अपने पैसे से टैक्स देता है, वहीं टिकट बेचकर शिविर कराए गए और योग का कितना बड़ा संस्थान खड़ा कर दिया गया? योग के नाम पर लोगों से आवाहन किया गया और आज बड़े-बड़े व्यवसायिक संस्थान खड़े हैं! योग का संस्थान कहीं नज़र आया?
मेरे पास हज़ारों घण्टों की रिकॉर्डिंग रखी है और यदि मैं किसी संस्था पर बोलता हूँ, तो प्रमाण के साथ अपनी अध्यात्मिक चेतना से आकलन करके और बाह्य प्रमाणों को लेकर बोलता हूँ। किसी समय करनाल के शिविर में उन्होंने कहा था कि ‘सूक्ष्मशरीर नाम की कोई चीज़ ही नहीं होती है। हिमालय पर तो कुछ है ही नहीं, कोई लोक नहीं है, यह सब आडम्बर है और सूक्ष्मशरीर होता ही नहीं है! कर्म करो और कर्म का फल प्राप्त करते रहो। कोई अदृश्य सत्ता है, जो चला रही है और इसीलिए हमने अपने किसी स्थान पर मंदिर का निर्माण नहीं किया है। मैंने जब देवी-देवताओं को देखा ही नहीं, तो किस मंदिर का निर्माण करा दूँ? मंदिर, मस्जि़द, गुरुद्वारों में जाने से कुछ लाभ नहीं मिलेगा!’
लोगों के सामने हाथ जोड़ते थे और किसी को भी माता जी, पिताजी बना लेते थे। कोई उद्योगपति आ जाता था और यदि उससे पैसा मिलना हो, तो उसकी पत्नी को माँ बना लेते थे और उसको पिता बना लेते थे। इस तरह की एक नहीं, सैकड़ों रिकॉर्डिंग हैं। एक मुख्यमंत्री आ जाये, तो उछल पड़ते थे, आसन छोड़कर भी दौड़ पड़ते थे। यदि धर्मगुरु, योगगुरु अपनी गरिमा को भूल जाये, तो यह धर्म का अपमान करना कहलाता है और आज समाज में यही हो रहा है। इन्हीं संस्थाओं के नाम पर लोगों से पैसा लेंगे कि हम यह कर देंगे, हम वह कर देंगे, किन्तु कुछ नहीं किया गया और जब राजनीतिक लाभ की आकांक्षा जाग्रत् हुई, तो नि:शुल्क शिविर शुरू हो गए तथा तब तक व्यवसायिक संस्थान खड़े कर लिए गए। हर चैनलों में, न्यूज़ चैनलों में बड़े-बड़े विज्ञापन आते हैं।
अध्यात्म क्षेत्र का रिश्ता गुरु और शिष्य से जुड़ा रहता है। आज मैं यहाँ आपके बीच आया हूँ और यदि अचानक अदृश्य हो जाऊं या मुझे कुछ होजाये, तो क्या आप शान्त बैठोगे? नहीं बैठ सकते। वहीं जिसके पास इतनी बड़ी संस्था हो, मीडिया हो, प्रचार साधन हों, क्या उसने एक भी विज्ञापन दिया कि मेरे धर्मगुरु खो चुके हैं? उनका पता लगाने के लिए किसी इनाम की घोषणा नहीं की गई! आज हमारे समाज का आम से आम व्यक्ति बिना भोजन के नौ-नौ दिन व्रत रहता है। कोई एक लौंग लेता है और कोई मात्र जल लेता है। कुछ लोग तो दो-तीन महीने निराहार रहते हैं और अनेक लोगों को मैं जानता हूँ, जो बीसों साल से निराहार रह रहे हैं। वहीं पाँच-सात दिन में तुम्हारा क्या हाल हुआ था? जहाँ पाँच-सात दिनों तक तुम पानी भी पी रहे थे और उसके बाद तुम्हें अस्पताल में एडमिट होना पड़ा। वह चेहरा आप सभी ने देखा होगा। क्या वह एक योगी का चेहरा था?
अन्नमयकोश के साथ हमारा प्राणमयकोश होता है। जब अन्नमयकोश असमर्थ होने लगता है, तो हमारा प्राणमयकोश जाग्रत् होता है और ऊर्जा देता है। मैं जब तक चाहूँ, बिना भोजन के रह सकता हूँ और जिस चैतन्यता से आज बैठा हूँ, उससे भी ज़्यादा चैतन्यता के साथ रह सकता हूँ। समाज की आँखें कब तक नहीं खुलेंगी? लोग कहते हैं कि उन्होंने योग तो सिखाया और मैं कहता हूँ कि अच्छी बात है, मैं भी बुराई नहीं करता, मगर आज अनेक योगाचार्य हैं। एक कर्म के बदले आप अनेक अनीति-अन्याय-अधर्म के कर्म कर रहे हो और कहते हो कि मैं झूठ नहीं बोलता। मैं कहता हूँ कि वे एक बार मेरा सामना करें, मैं उनके एक हज़ार झूठ गिनवा दूंगा कि उन्होंने कहाँ पर क्या-क्या बोला और बाद में बदल गए। किसी समय कहते थे कि मैं कोई गुरु नहीं हूँ, मेरी पूजापाठ न करना और यदि कोई महिलाएं आ जायें, तो वे खुद उनके चरणस्पर्श करने लगते थे, उनके सामने हाथ जोडऩे लगते थे कि मेरे चरणस्पर्श मत करो, मेरी पूजा न करना। पहले बोले कि मैं योग सिखाता हूँ, फिर बोले कि आचार्य के प्रति श्रद्धा रखो, जो तुम्हें सिखा रहा है, उसके प्रति श्रद्धा रखो, फिर कहा कि गुरु के प्रति श्रद्धा रखो और गुरु बन बैठे। तो क्या धन-सम्पदा के बल पर कोई गुरु बन सकता है या आत्मचेतना के बल पर कोई गुरु बन सकता है?
यदि समाज में कुछ गलत हो रहा है, तो क्या कोई आवाज़ नहीं उठाएगा? हो सकता है कि कोई आवाज़ न उठाए, मगर मैं समाज में इसी कार्य के लिए आया हूँ कि अनीति-अन्याय-अधर्म के विरुद्ध आवाज़ उठाऊंगा और मुझे किसी का भय नहीं है। मेरी यात्रा को रोकने की सामथ्र्य किसी के पास नहीं है। हज़ार तहखाने के अन्दर डाल दोगे, तो भी मेरे प्रवाह को रोकने की सामथ्र्य किसी के पास नहीं है। आज उस तरह का उनका जीवन है। समाज को दिशाभ्रमित करना कि हम समाज के लिए बहुत कुछ कार्य कर रहे हैं, किन्तु अन्दर कुछ और बाहर कुछ! यह बहुत बड़ा अन्तर है और मैं किसी को अपमानित नहीं कर रहा हूँ, सभी का सम्मान करता हूँ, मगर कहता हूँ कि या तो सुधर जाओ, अन्यथा यह समाज तुम्हें ज़रूर सुधारेगा।
बीजमंत्रों के नाम पर पूरे समाज को ठगा जा रहा है और सरकारें आँख बंद करके सोई रहती हैं। कोई कृपावर्षा के नाम पर ठग रहा है, कोई निर्मल दरबार लगाकर ठग रहा है, मगर कोई आवाज़ उठाने वाला नहीं है। लोगों की भावनाएं ठगी जा रही हैं, लोगों को असहाय बनाया जा रहा है और जब समाज कुछ प्राप्त नहीं कर पाता, तो वह नास्तिक बन जाता है और नास्तिक समाज कभी भी देश का कल्याण नहीं कर सकता। आज उस समाज को दिशा देने की ज़रूरत है। अत: अपने आपको पहचानो।
रामपाल जैसे लोगों का क्या हश्र हुआ? यह आप लोगों ने देखा। आसाराम बापू का क्या हश्र हुआ? यह आप लोगों ने देखा और इस तरह के अनेक लोग अभी समाज में हैं। धीरे-धीरे उनका भी पर्दाफाश होता चला जायेगा, किन्तु अधर्मी-अन्यायियों को केवल वोटबैंक के लिए राजसत्ताएं भी सहयोग देना प्रारम्भ कर देती हैं, उन्हें सम्मानित करना प्रारम्भ कर देती हैं। राजसत्ता में बैठा हुआ व्यक्ति यदि वोटबैंक के लिए अधर्म को सम्मानित करता है, तो सबसे बड़ा अधर्मी वही है। मैं किसी राजसत्ता का विरोधी नहीं हूँ, लेकिन यदि वे अनीति-अन्याय-अधर्म करते हैं, तो मैं हर राजसत्ता का विरोधी हूँ और मैं उनका कभी सम्मान नहीं करता, चाहे वे मेरे लिए जो कदम उठाएं।
आज़ादी के बाद से लेकर आज तक पूरे समाज को ठगा गया, लूटा गया, छला गया। आज यदि देश असमर्थ और असहाय है, तो इन राजनीतिक पार्टियों की वजह से है। पूरे देश को रसातल में भेज दिया गया। दस-दस हज़ार करोड़ की ठगी की गई! कब तक समाज को लूटते रहोगे, कब तक समाज को ठगते रहोगे, कब तक अधर्मियों-अन्यायियों का साम्राज्य स्थापित करते रहोगे? जो बईमान हैं, उनको पुरस्कार दोगे, उनको सम्मानित करोगे! वहीं आज पूरी जनता कराह रही है, तड़प रही है, बिलख रही है। असमर्थ व असहाय लोगों को कितना सताया जा रहा है, किन्तु कोई आवाज़ उठाने वाला नहीं है। केन्द्र में भी बैठे हो और अनेक प्रदेशों में भी तुम्हारी सरकारें हैं, फिर भ्रष्टाचार के विरुद्ध सकारात्मक रुख क्यों नहीं अपनाया जाता है? नशामुक्ति के लिए सकारात्मक रुख क्यों नहीं अपनाया जा रहा है?
भोपाल में माननीय मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान जी से भी बात हुई थी और उन्होंने कहा था कि लगता है कि हमारा और आपका जन्म-जन्म का रिश्ता है, तो मैं भी मानता हूँ कि यदि आप प्रदेश को नशामुक्त घोषित करोगे, तो निश्चित ही हमारा और आपका जन्म-जन्म का रिश्ता होगा, नहीं तो यह रिश्ता तब भी कायम रहेगा, लेकिन वह विरोध का रिश्ता होगा। मैंने प्रेम के हाथ फैलाये हैं, प्रेम से अपने हृदयपटल को खोला है कि तुम अपने प्रदेश को नशामुक्त कर दो और मैं अपने लाखों-लाख कार्यकर्ता भारतीय जनता पार्टी के समर्थन में उतार दूंगा। मैंने कहा है कि एक-एक सम्भाग से शुरू कर दो तथा मुझे कुछ नहीं चाहिए और यदि प्रदेश को नशामुक्त नहीं किया गया, तो एक ऐसे आन्दोलन का स्वरूप प्रदान करूंगा कि तुम्हारी जड़ें उखड़ जायेंगी, तुम्हारा अस्तित्व समाप्त हो जायेगा और वह दिन दूर नहीं होगा। मेरा जीवन समाज के लिए समर्पित है और मैं समाज के लिए कार्य चाहता हूँ, परिवर्तन चाहता हूँ तथा देखना चाहता हूँ कि सरकारें वह कार्य कर रही हैं कि नहीं कर रही हैं।
आज नशे से पूरे समाज का पतन हो रहा है, लोगों के लाखों-करोड़ों रुपये हर शहर से बरबाद हो रहे हैं। एक ज़ायज दुकान के नाम पर शराब की सौ-सौ नाज़ायज दुकानें चल रही हैं, जिसके चलते हर गांव में हर गरीब व्यक्ति नशे की लत का शिकार हो रहा है। हमारे संगठन के कार्यकर्ता एक व्यक्ति का नशा छुड़वाते हैं और वे बेईमान, जो जगह-जगह दुकानें खोलकर नाज़ायज व्यवसाय कर रहे हैं, वे दूसरों को फिर शराबी बना देते हैं। हम अवैध शराब पकड़वाते हैं और शराब की खेपें ट्रकों में चली आ रही हैं। उसका परिणाम सब जगह व्याप्त है। आज राजनेता शराबी हैं और शराब नहीं छोड़ना चाहते हैं। मैं केवल एक प्रदेश की बात नहीं कर रहा हूँ, बल्कि देश के हर प्रदेश का आकलन करके देख लो, आधे विधायक-सांसद शराब के नशे में धुत होंगे, भ्रष्टाचार में रत होंगे और दस प्रतिशत लोग ही ईमानदार मिलेंगे। आिखर, हम कब तक सहते रहेंगे? यदि पेट भर गया हो, तो अब भी ईमानदारी के रास्ते पर आ जाओ और हम पुरानी जड़ें नहीं उखाड़ेंगे, यदि आज समाज का हित होना शुरू होजाये।
बड़ी ईमानदारी से बेईमानी की सौदेबाज़ी होती है। पूरे पुलिस प्रशासन में भ्रष्टाचार व्याप्त है और हर ठेकेदार निर्धारित कमाई देता है। मात्र दस-पन्द्रह प्रतिशत ही ऐसे ईमानदार अधिकारी मिलेंगे, जो शराब के व्यवसायियों से एक रुपया भी नहीं लेते। मेरे शिष्य अनेक प्रदेशों में कार्य कर रहे हैं और वहाँ के अनेक अधिकारियों की सराहना भी करते हैं कि ‘गुरुदेव जी, एक नए अधिकारी आये हैं, उनका बड़ा सहयोग मिल रहा है तथा वे खुद कहते हैं कि तुम लोग अवैध शराब पकड़वाओ और आधी रात को फोन करो, हम आधी रात में भी खड़े नज़र आयेंगे।’ मगर, अधिकांश जगहों पर भ्रष्टाचार व्याप्त है और वे करें भी तो क्या करें? यदि किसी व्यक्ति की पुलिस विभाग में भर्ती होती है, तो पाँच-दस लाख रुपये देकर ही वह भर्ती हो पाती है। नब्बे प्रतिशत भर्तियाँ इसी तरह होती हैं और पैसा कहाँ जाता है? नेताओं तक। यदि यह भ्रष्टाचार बंद होजाये, माँ-बाप अपनी ज़मीन बेचकर अपने बच्चों की नौकरी न लगवाएं, तो निश्चित रूप से वे अपने बच्चों से कहेंगे कि बेटा, भ्रष्टाचार मत करो। कहीं न कहीं से तो रोकना ही पड़ेगा।
सभी विभागों में भ्रष्टाचार व्याप्त है। पी.डब्ल्यू.डी. विभाग को देख लो, तहसीलों में चले जाओ, थानों में चले जाओ और अब तो न्यायालयों का भी यही हाल है कि न्यायालयों में भ्रष्टाचार की वजह से कई जजों को नौकरियों से निकाला जाता है, मगर तब तक ऐसे जजों ने उस भ्रष्टाचार की बदौलत कितने मुकदमों का सत्यानाश किया होगा, कितने अपराधियों को छोड़ दिया होगा? इसका कोई आकलन ही नहीं होता है? सब जगह अनीति-अन्याय-अधर्म व्याप्त है, जिससे ग्रसित लोग तड़प रहे हैं। देश के किसी कोने में चले जाओ, कोई भी शहर देख लो, शहर के बड़े-बड़े भूखण्ड उद्योगपतियों के होंगे, राजनेताओं के होंगे और वहीं गरीबों को अपनी झोपडिय़ों के लिए भी दस बाई दस की जगह नहीं मिलती है। जब तक यह चलता रहेगा, तब तक समाज में असामंजस्य की स्थिति बनी रहेगी।
धर्म, समाजसेवा व राजनीति में मेरे विचार समान भाव से रहते हैं। मैंने राजनीतिक पार्टी ‘भारतीय शक्ति चेतना पार्टी’ का गठन इसलिए नहीं किया कि कोई राजसत्ता का सुख भोगे, बल्कि हम किसी भी सत्ता का सहयोग करने के लिए तैयार हैं, यदि वे समाजकल्याण के लिए उभर करके आ जायें। हम किसी भी राजनेता का साथ देने के लिए तैयार हैं, लेकिन वह समाज में नशामुक्ति के लिए कार्य तो करे, हम उसके साथ खड़े हैं।
मैं किसी राजनीतिक पार्टी का पदाधिकारी नहीं हूँ। मैं सभी पदों से अलग रहकर एक ऋषि के रूप में कार्य कर रहा हूँ। मैंने तीन धाराओं का गठन किया है। धर्म के लिए ‘पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम’ की स्थापना की गई है कि यदि समाज को कोई भी रास्ता न दिख रहा हो, कोई अशान्त हो, तो उस पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम में आकर बैठे, उसे शान्ति की अनुभूति होगी, चेतना की प्राप्ति होगी। वहाँ श्री दुर्गाचालीसा का अखण्ड पाठ पिछले अट्ठारह वर्षों से दिन-रात अनन्तकाल के लिए चल रहा है। वहाँ रहने और भोजन की जो भी प्रारम्भिक स्तर की व्यवस्थाएं हैं, वे सभी नि:शुल्क हैं। मुझसे मिलने का या मुझसे दीक्षा प्राप्त करने का कोई शुल्क नहीं है और गुरुदीक्षा तो मैं शिविरों के अलावा कभी देता भी नहीं हूँ, चाहे कोई करोड़ों रुपये लाकर डाल दे। केवल शिविरों में ही समभाव से दीक्षा देता हूँ।
भगवती मानव कल्याण संगठन का गठन समाजसेवा के लिए किया गया है तथा आज आवश्यकता है कि तुम अपने आपको संवार लो, लेकिन यदि समाज को संवारने में विफल हो गए और समाज पतन के मार्ग पर चलता चला जायेगा, तो तुम भी एक न एक दिन पतन के मार्ग पर चले जाओगे। क्या तुम नहीं चाहते हो कि तुम्हारा अगला जन्म एक ऐसे परिवार में हो, जिस परिवार में माता-पिता नशा न करते हों, वे चेतनावान् हों, ‘माँ’ की आराधना एवं भक्ति करते हों और उनको आत्मचेतना प्राप्त हो? शहरों में देखो, जब पढऩे वाली बच्चियां अपने घरों से जाती हैं, तो चौराहों आदि स्थानों पर गुण्डों, लोफड़ों का मज़मा लगा रहता है कि वे अपना सिर उठाकर भी नहीं देख पातीं तथा सिर झुकाए हुए घर से स्कूल, कॉलेज जाती हैं और सिर झुकाए हुए वापस घर आती हैं। मैं वह दिन देखना चाहता हूँ कि हमारे देश की बहन-बेटियाँ अपना सिर उठाकर चल सकें और यदि कोई उनको गलत निगाहों से देखे, तो उसकी आँख निकालने की क्षमता उनके अन्दर हो।
मैं गांधी जी का समर्थक हूँ, मगर गांधी जी का यह संदेश नहीं है कि बुराई को मत देखो, बुराई को मत सुनो और बुरा कर्म करने वालों के विरुद्ध मत बोलो। गांधी जी ने संदेश दिया था कि यदि तुम बन्दर हो, बन्दर की औलाद हो और बुराई हो रही हो, तो उसे आंखों से मत देखो; बंदर हो, बंदर की औलाद हो और यदि कोई करुणक्रन्दन तुम्हें पुकार रहा हो, किसी बहन-बेटी की इज्जत लूटी जा रही हो, वह तुम्हें मदद के लिए पुकार रही हो, तो अपने कान बन्द कर लेना; यदि बन्दर हो, बन्दर की औलाद हो, तो अधर्मियों-अन्यायियों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने की बजाय अपने मुख को बन्द कर लेना, लेकिन यदि इन्सान हो, इन्सान की औलाद हो, तो अपने आंख-कान खुले रखो, मुंह खुला रखो और ज़रूरत पड़े, तो अपने हाथ भी खुले रखो।
गलत को यदि नहीं देखोगे, तो गलत के ख़िलाफ़ कभी आवाज़ भी नहीं उठा सकोगे। अरे बेकार हैं वे कान, जो अनीति-अन्याय-अधर्म की पीड़ा से उत्पन्न करुणक्रन्दन को न सुन सकें; बेकार हैं वे हाथ, जो उनकी मदद के लिए न बढ़ सकें। अत: आगे बढ़ो और यदि कोई अधर्मी-अन्यायी अपराध करे और माफी मांगे, तो उसे एक बार चेतावनी देकर माफ कर दो। कोई आपके एक गाल पर तमाचा मार दे और आप दूसरा गाल आगे कर दो, तो मैं ऐसी विचारधारा का समर्थक नहीं हूँ और न ही अपने शिष्यों को यह सिखाता हूँ। एक गाल पर कोई तमाचा मार दे, तो उसे चेतावनी दे दो, समझा दो कि एक बार गलती किए हो और यदि माफी मांगते हो, तो हम तुम्हें माफ करते हैं। फिर भी यदि वह दोबारा हाथ उठाए, तो उसका हाथ तोड़ दो, जिससे कि न तो वह तुम्हें मार सके और न ही किसी दूसरे को मारने के लायक बचे।
हम शान्ति के आराधक हैं, मगर शक्ति के उपासक हैं और हमारे कोई भी देवता अस्त्र-शस्त्रों से विहीन नहीं हैं। आपके अन्दर चाहे जितनी भी बड़ी शक्ति आ जाये, लेकिन आपसे एक भी ऐसा व्यक्ति प्रताडि़त न हो, जो उस प्रताडऩा का अधिकारी न हो। कभी शक्ति का दुरुपयोग न करो और अपनी शक्ति का उपयोग रचनात्मक कार्यों में करो तथा अपनी रक्षात्मक शक्ति को प्रबल करो, मगर रक्षात्मक शक्ति को प्रबल करने का तात्पर्य यह नहीं है कि अधर्मी-अन्यायी तुम्हारा कुछ भी करते चले जायें और तुम उनका विरोध भी न करो। तुम्हें आगे आना पड़ेगा, समाज को आगे आना पड़ेगा और यदि समाज आगे आकर खड़ा होजाये, तो निश्चित है कि समाज से पतन रुकने लग जायेगा। लोग कहते हैं कि बलात्कारियों को फांसी दे दो। अरे, कितनों को फाँसी दोगे? मेरा मानना है कि आज समाज के नब्बे प्रतिशत लोग बलात्कारी मानसिकता के हैं और यदि मौका मिले, तो वे सबकुछ कर सकते हैं। चूंकि ऐसा परिवेश डाल दिया गया है। समाज को इस परिवेश से निकालकर शुद्ध व सात्विक परिवेश देना है, उसे क्षुद्र मानसिकता से निकालना है।
सजाएं कुछ नहीं कर सकतीं हैं। बड़ी-बड़ी सजाएं दी जाती हैं, फिर भी एक की बजाय चार घटनाएं और सामने आ जाती हैं। यदि समाज को बदलना है, तो समाज को नशे-मांस से मुक्त चरित्रवान् बनाना पड़ेगा और जब हम समाज को चरित्रवान् बना देंगे, तो परिवर्तन सुनिश्चित है, उसे कोई रोक नहीं सकेगा। जब बच्चे नशे-मांस से मुक्त होंगे, चरित्रवान् होंगे, तो कभी अनीति-अन्याय करेंगे ही नहीं, किसी को गलत निगाहों से देखेंगे ही नहीं। जब उनके नेत्र पवित्र होंगे और जिस तरह अपनी बहन-बेटियों को मानते हैं, उसी तरह दूसरे की बहन-बेटियों को मानेंगे, शादी के पहले ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करेंगे, शादी के बाद एकपत्नी/एकपति व्रतधर्म का पालन करेंगे, तो अनीति-अन्याय-अधर्म अपने आप छटता चला जायेगा। इसीलिए मेरे द्वारा कहा जाता है कि तुम दूसरों को जीतने का प्रयास मत करो, बल्कि स्वयं को जीतने का प्रयास करो, यदि तुमने स्वयं को जीत लिया, तो दुनिया तुम्हारे साथ खड़ी नज़र आयेगी, तुम्हें दुनिया को जीतने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी। अत: अपने विकारों से स्वयं को बचालो।
स्वयं पर विजय हासिल करो, तभी तो तुम ‘माँ’ के चरणों के समक्ष बैठ सकोगे, ‘माँ’ की स्तुति कर सकोगे कि ‘माँ’ आपकी कृपा से मैं नशे-मांस से मुक्त चरित्रवान् हूँ, आपकी करुणामई कृपा से, आपकी ममतामई कृपा से, आपकी दयामई कृपा से आपने मुझे निर्मल बनाया है, मेरे नेत्रों में निर्मलता दी है, मेरे नेत्रों में पवित्रता दी है, मेरे विचारों में पवित्रता दी है कि मैं नशे-मांस से मुक्त चरित्रवान् हूँ और तभी आप सच्चे मन से ‘माँ’ की भक्ति कर सकोगे, तभी नेत्रों से ‘माँ’ की छवि को देख सकोगे, अन्यथा सिर झुकाकर बैठोगे। अत: उस अवस्था को प्राप्त करो।
”नारी तुम शक्तिस्वरूपा हो,
निज शक्ति को पहचानो।
ममता, करुणा की मूरत हो,
रणचण्डी भी कहलाती हो।
हुंकार भरो फिर से ऐसी,
दिल दहल उठे असुरों के।।’’
ऐसी अवस्था लाकर खड़ी कर दो कि तुम्हारी एक हुंकार से अधर्मियों-अन्यायियों के कलेजे दहल उठें। तुम्हें सिर झुकाने की ज़रूरत नहीं है। अनुसुइया, लक्ष्मीबाई, पन्नाधाय के बाद कॉपी कोरी है, उस पर अपना भी तो नाम लिखो। उन्होंने भी आपके जैसा ही शरीर पाया था। सतीत्व की प्रतिमूर्ति, तपस्या की प्रतिमूर्ति अनुसुइया, क्या दूसरी नहीं बन सकती? पन्नाधाय के समान त्यागमयी, क्या दूसरी नारियां नहीं बन सकतीं हैं? लक्ष्मीबाई के समान वीर साहसी, क्या दूसरी नहीं बन सकतीं? तुम्हें अस्त्र-शस्त्र तलवार लेकर युद्ध नहीं लड़ना, बल्कि तुम्हारे अस्त्र-शस्त्र हैं ‘माँ’ का नाम, तुम्हारे घर में फहराने वाला ‘माँ’ का ध्वज, तुम्हारे माथे पर कुंकुम का तिलक, तुम्हारे मुख से निकलने वाला जयघोष, तुम्हारे अन्दर का आत्मबल और तुम्हारे अन्दर समाई हुई गुरु की कृपा, तुम्हारे अन्दर समाई हुई ‘माँ’ की कृपा। उन शक्तियों को लेकर चलो और एक-एक व्यक्ति के अन्दर के अनीति-अन्याय-अधर्म को पराजित करते चले जाओ।
नशेड़ी को नशामुक्त कर दो, चरित्रहीन को चरित्रवान् बना दो। किसी की हत्या करने की अपेक्षा उसके अवगुणों से उसको मुक्त करा दो, यही सबसे बड़ा युद्ध है। सेवा और साधना के लिए अपने जीवन को समर्पित कर दो। धर्म, राष्ट्र, मानवता के हित के लिए एक जीवन तो बलिदान करो, एक जीवन तो त्यागमय जियो, पुरुषों के समान कंधे से कंधा मिलाकर चलो, फिर देखो कि समाज में परिवर्तन आता है कि नहीं आता है? ‘माँ’ की भक्ति करो और अपने कत्र्तव्यों का पालन करो एवं धर्मवान और कर्मवान बनो। यदि धर्मवान और कर्मवान बन गए, तो चेतनावान् बनने से तुम्हें कोई रोक नहीं पायेगा। तुम ‘माँ’ की कृपा के पात्र बन जाओगे, निर्भीकता का जीवन जियोगे, निडरता का जीवन जियोगे, अनीति-अन्याय-अधर्म के सामने कभी घुटने नहीं टेकोगे। अत: उस तरह का जीवन जियो।
संघर्ष तो सब जगह आते हैं। मेरे जीवन की यात्रा में भी अनेक संघर्ष आए और जब मैंने नशामुक्ति अभियान का क्रम चलाया, तो मेरे आश्रम में भी कुछ लोग शराबियों को भेज देते थे। तब मेरे पास दोनों रास्ते थे, सुधारने का भी और शक्ति का भी। मैंने कभी घुटने नहीं टेके और अनेक राजसत्ताओं से भी टकराव हुआ, अनेक राजनेताओं ने अहित करने की कोशिश की, मगर एक रोयां भी इधर से उधर नहीं हिला सके। संघर्ष आयेंगे, मगर उन संघर्षों से मत घबराओ, धनवानों के सामने घुटने मत टेको तथा धर्मवान का सम्मान करो। हमारा विरोध किसी से नहीं है, मगर यह निश्चित है कि जो धन मानवता की सेवा में नहीं लग रहा है तथा अनीति-अन्याय-अधर्म से कमाकर भी जो मानवता की सेवा की तरफ नहीं बढ़ रहे हैं, तो उन सभी से हमारा विरोध है। मैंने आवाहन किया है कि मैं सम्मान का भूखा नहीं हूँ तथा इस भूतल पर जितने भी अधर्मी-अन्यायी हों, वे किसी दूसरे से न टकराएं, बल्कि मुझसे टकराएं, मेरे भगवती मानव कल्याण संगठन से टकराएं, तभी उन्हें मुंहतोड़ जवाब प्राप्त होगा।
मैंने जीवन में सुख मांगा ही नहीं, मैंने ‘माँ’ से मांगा है कि जितने संघर्ष किसी और के जीवन में न डाले गए हों, उतने संघर्ष मेरे जीवन में डाले जायें, चूंकि मैं इसका रहस्य जानता हूँ। जब जीवन में संघर्ष आयेंगे, तब उनसे पार जाने की शक्ति ‘माँ’ से ही प्राप्त होगी। यदि आपने कभी दो फुट की नाली कूदकर पार नहीं की होगी, तो कभी चार-पांच फुट का नाला सामने आ जायेगा, तो छलांग नहीं लगा पाओगे। यदि आपने दो-तीन फुट की नाली में छलांग लगाने का प्रयास किया है, तो हो सकता है कि आप एक-दो बार गिरे हों, लेकिन उसके बाद उससे भी चौड़ी नाली पर छलांग लगाने की सामथ्र्य आ गई होगी। अत: आवश्यकता है निर्भीकता की, आवश्यकता है निडरता की तथा आवश्यकता है अपने गुरु और इष्ट पर विश्वास की। आत्मशक्ति के बल पर, विश्वास के बल पर, निष्ठा और समर्पण के बल पर कोई भी कार्य असम्भव नहीं है। इसका अहसास आपका गुरु हरपल करता है। किसी समय एक-एक, दो-दो व्यक्तियों को दिशा देकर मैंने संगठन की शुरुआत की थी और आज देश के अन्दर करोड़ों-करोड़ लोग नशे-मांस से मुक्त चरित्रवान् जीवन जी रहे हैं, लाखों-लाख लोग भगवती मानव कल्याण संगठन के सक्रिय व समर्पित कार्यकर्ता बन करके द्वार-द्वार जाकर समाज को नशे-मांस से मुक्त चरित्रवान् साधक बना रहे हैं तथा यह परिवर्तन सतत चल रहा है।
युग परिवर्तन का महाशंखनाद किया जा चुका है। आगे बढ़ो, अपने कर्म को पहचानो, अपने घर को पवित्र बनाओ, घर में ‘माँ’ का ध्वज लगाओ, नशे-मांस से मुक्त चरित्रवान् बनो और यदि मुझे कुछ दे सको, तो अपने अवगुणों की भेंट दे दो। मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि इस जीवन में किए गए किसी भी अवगुण से, जिसका तुम संकल्प कर लो कि यह मेरी बुराई थी, आज के बाद मैं यह नहीं करूंगा और जीवनपर्यन्त वह बुराई दोबारा न करो, तो इस जीवन में प्रकृतिसत्ता से मिलने वाले उस बुराई के फल से तुम्हें मुक्त करा दूंगा। मेरी दिन-रात की, एक-एक पल की साधना, मैंने मानवता की रक्षा के लिए समर्पित की है, समाज की सेवा के लिए समर्पित की है। आओ, सच्चे मन से अपने हृदय के पटल को खोलो, उस ‘माँ’ को अपने हृदय में बिठाओ तथा ‘माँ’ का ध्यान करो, चिन्तन करो, स्मरण करो।
अपने आपको कमज़ोर व असहाय मत समझो। आत्मशक्ति सर्वोच्च शक्ति होती है, उसे जाग्रत् करो। निश्चित है कि जब तुम इस यात्रा में चलोगे, तो तुम्हें हर जगह फूलों की सेज नहीं मिलेगी, कांटों पर चलना सीखना होगा, मगर कांटों से होने वाले हर घाव पर मरहम लगाते हुए आपको आपका गुरु और प्रकृतिसत्ता दृष्टिगत होंगे। चूँकि वह कांटा आपको नहीं लग रहा होता है, वह कांटा गुरु को लग रहा होता है, परमसत्ता को लग रहा होता है, क्योंकि परमात्मांश आपकी आत्मा है, गुरु आपकी आत्मा में समाहित है। गुरु ही आपके और परमसत्ता के बीच की कड़ी है तथा गुरु का अपना स्वयं का तो अस्तित्व कुछ होता ही नहीं है। गुरु तो एक विचारधारा है और तुम उस विचारधारा से जुड़े हुए हो तथा गुरु की कडिय़ाँ आपकी इष्ट और आपके बीच जुड़ी हुईं हैं। अत: उस विचारधारा का जीवन जियो।
छोटी-छोटी बातों में न्यूनता मत करो। अज्ञानता में इस विचारधारा से अलग हट करके यदि तुम चाहोगे कि तुम्हें सुख-शान्ति-समृद्धि का जीवन मिल जायेगा, तो वह कभी भी नहीं प्राप्त हो सकेगा। ‘माँ’ की साधना में जो शान्ति है, अनुभूति है, आनन्द है, वह और कहीं पर भी नहीं है। दुनिया भर में घूम लो, वह शान्ति नहीं मिलेगी, जो शान्ति सच्चे मन से ‘माँ’ की आराधना करने से मिल जायेगी। तुम्हारे जीवन में अच्छे-बुरे जो भी परिणाम चल रहे हैं, उनके जन्मदाता तुम्हीं हो। तुमने पूर्व में जैसे कर्म किए हैं, आज तुम्हें वैसी ही परिस्थितियों का सामना करना पड़ रहा है। आज से अच्छे कर्म करने लगो, धीरे-धीरे बुराइयों को पलड़ा हल्का होता चला जायेगा और अच्छाई का पलड़ा भारी होता चला जायेगा। जब आपके सत्कर्म प्रभावक होते चले जायेंगे, तो बड़ी से बड़ी घटनाएं सामान्य बनकर निकल जायेंगी।
मैंने विश्वअध्यात्मजगत् को चुनौती ऐसे ही नहीं दी है। आओ, एक बार ऐसा सम्मेलन तो करो। मैं बहुत सामान्य सा जीवन जीता हूँ। एक बार देखो कि ‘माँ’ की शक्ति का प्रभाव क्या होता है, कुण्डलिनीचेतना का प्रभाव क्या होता है? समाधि में जाने वाला व्यक्ति अपनी किस अवस्था में पहुंच जाता है, अपनी वाक्शक्ति से वह क्या करने की सामथ्र्य रखता है? क्या वह कभी भी बारिस करवा सकता है या चल रही भीषण बरसात को रोकने की सामथ्र्य रखता है? एक स्थान से ही दुनिया के किसी भी स्थान पर क्या घटित हो रहा है, इसको बताने की सामथ्र्य रखता है? अपने हाथ के स्पर्श से और नेत्रों की दिव्यदृष्टि से क्या किसी की असाध्य से असाध्य बीमारी को दूर कर सकता है? इस तरह के दो-चार कार्य समाज के बीच रखे जायें और देखें कि बड़े-बड़े मठों में बैठे लोग, बड़े-बड़े मठाचार्य, बड़े-बड़े योगाचार्य, बड़े-बड़े बीजमंत्रों को बेचने वाले, कृपावर्षा करने वाले, बड़े-बड़े निर्मल दरबार लगाने वाले वह कार्य कर पाते हैं या सामान्य सा शरीर लिए हुए यह एक किसान परिवार में जन्म लेने वाला, एक कमरे में आज भी सामान्य सा जीवन जीने वाला कर पाता है?
मेरे पास सिर्फ ‘माँ’ शब्द का बल है, मगर मैंने ‘माँ’ शब्द में समस्त वेदों का सार समाहित किया है तथा उस आत्मज्ञान को प्राप्त किया है, जिस आत्मज्ञान में समस्त वेदों का ज्ञान समाहित है और वही मार्ग समाज को दे रहा हूँ। आओ एक बार, या तो सत्य का परीक्षण करो या सत्य को स्वीकार करो। मुझे कुछ नहीं चाहिए। मुझे न तो मान की भूख है और न सम्मान की, मेरा रास्ता अग्नि का है और मैं उसी रास्ते पर चल रहा हूँ। मैंने कहा है कि इस भूतल पर मुझसे बड़ा कोई अमीर नहीं है और मैं इन अमीरों के साम्राज्य को धूल में मिलाने की सामथ्र्य रखता हूँ। मैं वह शक्ति लिए बैठा हूँ और उस शिखर से आया हूँ। मैं सच्चिदानन्द का अवतार हूँ, शक्तिपुत्र के नाम से सम्बोधित हूँ, सच्चिदानन्द की पूर्ण शक्ति को लेकर समाज के बीच आया हूँ और ऋषित्व का जीवन जीता हूँ। मैं शिखर से शून्य की यात्रा तय करने आया हूँ कि शून्य में रहकर अपने अस्तित्व को मिटा दूंगा और इस तड़पती हुई, कराहती हुई मानवता के लिए अपने समान एक-दो नहीं, करोड़ों-करोड़ ऐसे शक्तिसाधक तैयार कर दूंगा, जो सिर कटा सकते हैं, मगर सिर झुका नहीं सकते! मैं उस यात्रा का जीवन जीता हूँ।
मेरा साम्राज्य है मेरी आत्मा, मेरा साम्राज्य है ‘माँ’ की कृपा, मेरा साम्राज्य हैं ‘माँ’ के चरणकमल और मेरे इस साम्राज्य को मुझसे कोई नहीं छीन सकता। यह तन छिन सकता है, मगर आत्मा में बैठी उस चेतना को हटाने की सामथ्र्य किसी में नहीं है। मैं उस धन-सम्पदा को लिए बैठा हूँ। मैं अकेला ही नहीं, मेरी ग्यारह दिव्य चेतनाएं कार्य कर रहीं हैं। जब मैंने इन वस्त्रों को धारण किया था, तब मैंने उस समय भविष्यवाणी की थी, तब मैंने किसी एक शिष्य को भी दीक्षा नहीं दी थी। मेरा स्वयं प्रत्यक्ष जो स्वरूप चल रहा है, यह अपनी एक अलग विशेषता लिए हुए है, मगर इसके अलावा मुझसे बिल्कुल पृथक रहकर इस समाज में परिवर्तन और युग परिवर्तन के लिए मेरी ग्यारह चेतनाएं कार्य कर रहीं हैं, जो अलग-अलग रूपों में समाज के बीच अलग-अलग कार्य कर रहीं हैं।
समाज में परिवर्तन आना सुनिश्चित है और वह कार्य बराबर चल रहा है। तुम अपने आपको पहचानो, अपने आपको सुधारो और यदि तुम बदल जाओगे, तो जगत् अपने आप बदलता चला जायेगा। अत: उस दिशा में बढ़ो। आत्मावानों का जीवन जियो, चेतनावानों का जीवन जियो और अपने बच्चों को चेतनावान् बनाओ। इसीलिए मेरे द्वारा पुरुषवर्ग से बार-बार कहा जाता है कि नशे-मांस से मुक्त चरित्रवान् जीवन जिओ, पुरुषार्थी बनो और नारियों से भी कहता हूँ कि अपने सतीत्व की रक्षा करते हुए अपने जीवन को चैतन्य करो। ऐसी सन्तानों को जन्म दो कि यह धरती, यह अम्बर तुम पर गर्व करे और यदि ऐसा करने में तुम सफल हो गए, तो वास्तव में हमारा देश धर्मगुरु कहलायेगा। वह कार्य तुम्हें ही करना है, अत: सच्चे मन से ‘माँ’ के भक्त बनो, सच्चे मन से ‘माँ’ की आराधना करो।
मेरे आश्रम में कोई दानपात्र नहीं रखा है तथा समाज के लोग जो सहयोग देते हैं, वह सहयोग समाजसेवा के कार्यों में लगता है। खुली आँखों से देखें और मेरे द्वारा हर मंच से कहा जाता है कि यदि तुम्हारी हज़ार बार की गरज हो, तो उस अभियान में सहयोगी बनो। एक रुपये समर्पित करने की इच्छा हो, तो एक रुपया ही समर्पित करना और देखना कि यदि तुम्हारा एक रुपया सही कार्यों में लग रहा है, तभी आगे समर्पित करना, अन्यथा मेरे किसी भी शिष्य को कभी प्रायश्चित न हो कि मेरे द्वारा दिये गये रुपये का दुरुपयोग हुआ है! मैं अपने संसाधन, अपना भवन और अपना वाहन, किसी के दान के दिए हुए पैसे से लेकर नहीं चलता हूँ। मैं स्वत: तीनों धाराओं में स्वयं से उपार्जित धन का सहयोग कर रहा हूँ और बचपन से लेकर आज तक मानवता की सेवा में सहयोग करता चला आया हूँ।
मेरे दर से कोई अतिथि कभी भूखा नहीं गया। मैं सादा भोजन करता हूँ और सभी जाति-धर्म-सम्प्रदाय के लोगों का छुआ हुआ भोजन करता हूँ, सभी का बनाया हुआ भोजन करता हूँ, मगर भोजन में सात्विकता और पवित्रता रखता हूँ। मैंने बचपन से जब से होश संभाला, छुआछूत को कभी महत्त्व नहीं दिया। जहाँ तक हो सके, मैं इन्जेक्शन लगाई हुई सब्जियों को नहीं खाना चाहता हूँ, चूंकि जैसा भोजन करोगेे, वैसे विचार बनते हैं। मेरा भोजन कोई भी बना सकता है, मैंने सभी को छूट दे रखी है और आश्रम में भी सभी लोग भोजन बनाते हैं। आश्रम में जिस किचन में मेरा भोजन बनता है, वहाँ भी सभी लोग आते-जाते हैं और यदि किसी को विश्वास न हो, तो वह कभी भी आ जाये।
मैं केवल शुद्धता और सफाई का पक्षधर हूँ कि स्नान करो तथा स्वच्छ कपड़े पहनो और जाति मेरे लिए मायने नहीं रखती है। किसी के भी घर का बना हुआ भोजन करने के लिए मैं हरपल तैयार रहता हूँ, मेरा धर्म कभी नष्ट नहीं हुआ और न भविष्य में कभी होगा। जाति कभी भी बाधक नहीं है, केवल अपनी मानसिकता को बदल लो। छुआछूत की भावना पालना सबसे बड़ा जघन्य अपराध है। केवल सफाई और स्वच्छता का ध्यान रखो। भगवती मानव कल्याण संगठन हरपल सफाई अभियान को बराबर लेकर चलता है।
गोसेवा, गंगा की स्वच्छता, ये सब अभियान हमारे जीवन के अंग हैं। आज गौ का संरक्षण करने वाली हिन्दुत्ववादी संस्थाएं ही स्वत: गायों का व्यापार करती हैं। मैंने भोपाल में मुख्यमंत्री महोदय के सामने बात रखी थी कि अनेक ऐसी संस्थाएं हैं, जो गौ-संरक्षण के नाम पर गठित हैं, अपने आपको हिन्दुत्व का बड़ा संरक्षक मानती हैं और वही अनेक लोग गौ-मांस का व्यवसाय करते हैं। पुलिस से साठगांठ करके पांच-पांच हज़ार रुपये लेकर ट्रक के ट्रक पार करा देते हैं और उनके लोग हर जगह लगे रहते हैं। अभी मेरे आश्रम के बगल में ही ब्यौहारी में ऐसी संस्था के लोग पकड़े गए हैं। अभी कुछ ही महीने पहले शिष्यों ने मुझे जानकारी दी थी कि गुरुजी, हर महीने यहाँ से एक-दो ट्रक गायें जाती हैं। मैंने भोपाल में सांकेतिक रूप से उस बात को रखा था और अभी हाल में ही चार-पांच ट्रक पकड़े गए तथा उन्हीं संस्थाओं के लोग पकड़े गए! आज यही हो रहा है।
हिन्दुत्व की बात करने वाले, देश को धर्मगुरु बनाने हेतु सम्भाषण करने वाले इसी तरह के लोग हैं। नशे के जितने ठेकेदार होंगे, आकलन कराकर देख लिया जाये, उनमें से पचहत्तर प्रतिशत लोग हिन्दुत्ववादी संगठनों से जुड़े मिलेंगे। कैसे बनाओगे देश को धर्मगुरु, जब समाज में ज़हर बेचते हो? इस ज़हर से पूरा समाज त्रस्त हो चुका है। वे अधर्मी-अन्यायी साधु-सन्त भगवा चोला पहने हुए कहते हैं कि दस-दस बच्चे पैदा करो। अरे धूर्तों, तुमसे तो एक बच्चा पैदा नहीं किया गया और समाज से कहते हो कि दस-दस बच्चे पैदा करो? क्या कौरवों का साम्राज्य खड़ा करना चाहते हो? सौ कौरवों की अपेक्षा पाँच पाण्डव ज़्यादा श्रेष्ठ होते हैं। सन्तान ऐसी पैदा करो, जो पाण्डवों के समान हो, कौरवों के समान न हो। किसको कितने बच्चे पैदा करना है? यह गृहस्थ जीवन जीने वाला अच्छी तरह से जानता है, तुम्हें सीख देने की ज़रूरत नहीं है। इस तरह के धूर्त कहेंगे कि हिन्दुत्व नष्ट हो जायेगा, यह नष्ट हो जायेगा, वह नष्ट हो जायेगा, दस-दस बच्चे पैदा करो, नहीं तो इस्लाम का साम्राज्य स्थापित हो जायेगा! अरे, सौ बच्चे पैदा करके भी हिन्दुत्व की रक्षा नहीं कर पाओगे और ध्यान रहे कि हिन्दुत्व को न कभी कोई नष्ट कर सका है, न कभी कर सकेगा। असली हिन्दुत्व वह है, असली हिन्दू वह है, जो सभी धर्मों का सम्मान करता है, जो सभी धर्मों की रक्षा के लिए अपनी जान भी दे सकता है और जहाँ अनीति-अन्याय-अधर्म है, जहाँ आतंकवाद है, वहाँ डटकर उसका सामना करना सीखो।
हम पाकिस्तान की ही बात क्या करें, क्या आज हमारी सरकारें नक्सलवाद को समाप्त कर पा रही हैं? बस कहते रहेंगे कि हम ऐसा कर देंगे, हम वैसा कर देंगे। एक आतंकवादी मारा जाता है, तो दस पुलिस के जवान भी मारे जाते हैं। एक नक्सलवादी मारा जाता है, तो दस जवानों की लाशें भी घरों में आती हैं। इसलिए कि राजनेताओं और बेईमानों के बेटे नहीं मारे जाते हैं। जिस दिन राजनेताओं के बेटे मारे जाने लगेंगे, वे चीखने-चिल्लाने लगेंगे। नक्सलवाद राजनेताओं की ही देन है और यदि वे चाहें, तो सब रास्ते निकल सकते हैं, मगर कोई रास्ता नहीं निकालना चाहता है। कांग्रेस समर्थन देती है, तो बीजेपी विरोध करती है और जब कांग्रेस विरोध करती है, तो बीजेपी समर्थन करती है। नक्सलियों की क्या समस्या है? इसका समाधान न कांग्रेस चाहती है, न बीजेपी चाहती है। केवल वोटबैंक की राजनीति की जा रही है। अरे, इस वोटबैंक की राजनीति से ऊपर उठो, क्योंकि इससे पूरा देश सुलग रहा है।
वे जवान जो मारे जाते हैं, वे भी किसी के घर के बेटे हैं। उनके घरों पर जब अर्थियाँ आती हैं, तो उन्हें कितने गमों का सामना करना पड़ता है, इसका तुम्हें अहसास नहीं है। उनको मात्र सलामी देने से उनका सम्मान नहीं होगा, उनको कुछ पैसा दे देने से उनका सम्मान नहीं होगा, बल्कि हो सके तो उनको ऐसी सामथ्र्य दो, हो सके तो ऐसी व्यवस्था दो, हो सके तो ऐसी नीतियाँ निर्धारित करो कि हमारा जवान न मारा जाये और यदि एक जवान मारा जाये, तो कम से कम दस आतंकवादी भी मारे जायें।
नरेन्द्र मोदी जी आये थे, तो उन्होंने बड़े-बड़े वादे किए थे कि हम एक के बदले तीन मारेंगे। हम आज भी देख रहे हैं कि एक के बदले तीन तो हो रहे हैं, मगर यदि एक आतंकवादी मारा जाता है, तो हमारे तीन जवान भी मारे जा रहे हैं। कोई नीति नहीं है। सुधार करो, क्योंकि समाज जाग चुका है, समाज अब नहीं सहेगा और समाज को अब बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता है।
मैं सभी के लिए कार्य करने के लिए तैयार हूँ और मैं सभी का हूँ। मेरे लिए कोई बुरा नहीं है, मगर मैंने कहा है कि चाहे कोई कितना भी मेरे लिए सगा से सगा हो एवं मेरी बच्चियाँ भी मेरे सामने बैठी हुईं हैं और जिस दिन वे भी यदि अनीति-अन्याय-अधर्म का रास्ता तय कर लेंगी, तो मुझसे कोसों दूर नज़र आयेंगी। मेरा बन्धन है, तो आत्मा का। पिता-पुत्रियों की अपेक्षा इन बच्चियों के लिए भी मैंने गुरु-शिष्य के रिश्ते को ज़्यादा महत्त्व दिया है। मैंने बचपन से वही यात्रा दी है और जब ये एक-एक महीने, दो-दो महीने की थीं, तब से मैंने इन्हें ब्रह्ममुहूर्त में स्नान करना सिखाया है। पूजा की बच्ची आरुणी है, जो कि दो महीने से भी छोटी है और उसे भी स्नान करवाता हूँ। अन्य माता-पिता कहते हैं कि बेटा ठंड लगी है, सो जाओ और अपनी भी रजाई उनके ऊपर डाल देंगे! अपने बच्चों को प्रारम्भ से ही चेतनावान् बनाओ और उनके हित के लिए कार्य करो।
आरती का समय हो रहा है, अत: हम उस दिशा में बढ़ेंगे। मैं जिस स्थान पर उपस्थित होता हूँ, अपनी पूर्ण चेतना के साथ उपस्थित होता हूँ, उस ऊर्जा के साथ उपस्थित होता हूँ। मेरे साथ रहने वाले एक-दो लोग नहीं, दर्जनों लोग जानते हैं कि मेरे शरीर की ऊर्जा क्या होती है? वे इसका अहसास करते हैं और एक बार नहीं, अनेक बार करंट के तेज झटकों का अहसास कर चुके हैं। ऐसी ऊर्जा एक साधक के पास ही होती है, दिव्यता होती है और उसे ही चेतनातरंग कहते हैं, जिनके माध्यम से हज़ारों किलोमीटर दूर रहकर भी कार्य किया जा सकता है। यह विस्तार का विषय है और इसके बारे में चिन्तन कभी न कभी देता रहँूगा।
आप सच्चे मन से ‘माँ’ को पुकारना सीख जाओ और सच्चे मन से ‘माँ’ की भक्ति करो। मैं इन क्षणों पर पुन: अपना पूर्ण आशीर्वाद आप सब लोगों को समर्पित करता हूँ।
बोल जगदम्बे मात की जय।