शक्ति चेतना जनजागरण शिविर, दमोह (म.प्र.)- 2

प्रवचन शृंखला क्रमांक – 162
शक्ति चेतना जनजागरण शिविर, दमोह (म.प्र.), दिनांक 19 अप्रैल 2015

माता स्वरूपं माता स्वरूपं, देवी स्वरूपं देवी स्वरूपम्।
प्रकृति स्वरूपं प्रकृति स्वरूपं, प्रणम्यं प्रणम्यं प्रणम्यं प्रणम्यम्।।

बोलो माता आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बे मात की जय।

इस शक्ति चेतना जनजागरण शिविर के द्वितीय दिवस पर यहाँ उपस्थित अपने समस्त चेतनाअंशों, शिष्यों, ‘माँ’भक्तों, श्रद्धालुओं एवं इस शिविर व्यवस्था में लगे हुए समस्त कार्यकर्ताओं को व जो जिस भावना से इस स्थल पर उपस्थित हैं, उन समस्त लोगों को अपने हृदय में धारण करता हुआ माता आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा का पूर्ण आशीर्वाद प्राप्त करता हुआ अपना पूर्ण आशीर्वाद आप समस्त लोगों को समर्पित करता हूँ।

कल से आज तक आप लोगों ने अपने जीवन में कुछ न कुछ परिवर्तन लाने का प्रयास अवश्य किया है। इसीलिए प्रात:काल पाँच से सात हज़ार के बीच नये लोगों ने गुरुदीक्षा प्राप्त की और यही परिवर्तन है। एक-एक शिविर में पाँच हज़ार, दस हज़ार से लेकर पच्चीस हज़ार, पचास हज़ार लोगों ने भी गुरुदीक्षा को प्राप्त किया है और यह अभियान सतत अपनी गति की ओर बढ़ रहा है।

समाज के बीच आज चारों तरफ अनीति-अन्याय-अधर्म का साम्राज्य है और इस अनीति-अन्याय-अधर्म के साम्राज्य से मुक्ति पाने का मार्ग सिर्फ ‘माँ’ की भक्ति है, सत्य का एक पथ है और उस सत्यपथ के लिए मेरे द्वारा पूर्व में चिन्तन दिए गए हैं कि हरपल इस बात की गहराई पर प्रवेश करो कि ‘मैं’ कौन हूँ? अपने ‘मैं’ को जानने के लिए सतत प्रयासरत रहो। ‘माँ’ को भी जानने से पहले आपको अपने ‘मैं’ को जानना होगा। हमें ‘माँ’ को तो जानने का सतत प्रयास करते ही रहना है, मगर जिस तरह हमारी गति ‘माँ’ को जानने के लिए हो, ‘माँ’ को मानने के लिए हो, उसी तरह अपने ‘मैं’ को जानने और मानने के लिए हो। मानने मात्र से हमारा कल्याण नहीं होगा कि हाँ हम मानते हैं कि हम एक आत्मा हैं, हमारी आत्मा अजर-अमर-अविनाशी है और ‘माँ’ देवाधिदेवों की जननी हैं, एक अजर-अमर-अविनाशी सत्ता हैं, ममतामई हैं, करुणामई हैं, दयामई हैं, कृपालु हैं। केवल इतना मानने से हमारा काम नहीं चलेगा, बल्कि हमें इनको जानना भी होगा। जहाँ ‘माँ’ की कृपा को हमें हरपल महसूस करना है, जानना है, समझना है, वहीं हरपल हमें अपने ‘मैं’ को भी जानना है।

आज से बीस-पच्चीस वर्ष पूर्व जब मेरे द्वारा ‘मैं’ पर लगातार चिन्तन दिये गए, ‘मैं’ की गहराई के विषय में बताया गया कि ‘मैं’ कौन हूँ, ‘मैं’ को जानो, ‘मैं’ को पहचानो, तो देश की अनेक संस्थाओं ने इसका विरोध किया कि गुरुजी तो ‘मैं’-‘मैं’ ही कहते रहते हैं। अनेक संस्थाओं से फोन आते थे, लेकिन आज मात्र दस-पन्द्रह वर्षों में इतना बड़ा परिवर्तन आया है कि सत्य की ऊर्जातरंगों के प्रवाह से इस विचारधारा को नकारने वाले लोग उसी विचारधारा में आकर खड़े हो गए हैं। पिछले मात्र दो-तीन वर्षों की आप किन्हीं की संस्थाओं की बातें देख लें कि वे धर्मग्रंथों का ज्ञान भले ही दे रहे होंगे, मगर सभी यह कहने के लिए बाध्य हैं कि अपने ‘मैं’ को जानो, अपने ‘मैं’ को पहचानो। उस ‘मैं’ की बात सभी करने लगे हैं।

कृपालु जी महाराज एक ज्ञानी पुरुष थे, जो सभी वेदों, शास्त्रों, उपनिषदों को कण्ठस्थ किए हुए थे और जब अपने शरीर को त्याग करने का समय आया, तो उन्होंने अपनी अंतिम अवस्था के एक-दो वर्ष तक ‘मैं’ और ‘मेरा कौन’ पर बहुत विस्तार से चिन्तन दिया। पहले वहाँ से जुड़े हुए शिष्यों के द्वारा भी विरोध की स्थितियाँ आतीं थीं, मगर मैंने कहा है कि आज तुम नहीं समझ रहे हो, मगर एकान्त स्थान पर बैठकर मेरे द्वारा जो चेतनातरंगें डाली जा रहीं हैं, समाज में जो प्रवाह डाला जा रहा है, वह मेरी एक विचारधारा होती है और उसे एक न एक दिन समाज को स्वीकार करना ही होगा।

आज के इस कलिकाल में सभी मनुष्यों का जीवन कम होता जा रहा है। पहले लोगों का जीवन दो सौ वर्ष, तीन सौ वर्ष की उम्र तक होता था, लोग बीच-पच्चीस वर्षों तक तो शास्त्रों का अध्ययन करते रहते थे और फिर उनमें अमल करते थे, लेकिन आज तो जीवन की समय-सीमा ही घटकर सत्तर से अस्सी वर्ष रह गई है और पचास-साठ वर्ष के बाद व्यक्ति अपने आपको असमर्थ मानने लगता है। आप कितना प्रयास करोगे और कौन से ग्रंथों-वेदों, शास्त्रों, उपनिषदों का अध्ययन करोगे? पूरा जीवन लगा दोगे, तब भी उनका दसवां हिस्सा अध्ययन करके भी उसको गहराई से नहीं पकड़ सकते हो, मगर एक दूसरा पथ बहुत सहज और सरल है कि वेद-पुराण हमें जिस पथ पर बढ़ने के लिए कह रहे हैं, हम उन खास बिन्दुओं को पकड़ लें।

हम सत्यपथ के राही बन जायें, हम अपने आचार-विचार-आहार में परिवर्तन करने लगें और अपनी अजर-अमर-अविनाशी आत्मा को स्वीकार करलें कि यह एक अजर-अमर-अविनाशी आत्मा है, जिसको लेकर मैं बैठा हूँ, जिसको लेकर आप बैठे हैं, जिसको लेकर सभी बैठे हैं। और, उस आत्मसत्ता की सत्यता को यदि हम स्वीकार कर लें, तो ‘माँ’ के प्रति अटूट भक्ति स्वत: आ जायेगी। यदि हम अपने आपको स्वीकार करलें, अपनी अजर-अमर-अविनाशी सत्ता को स्वीकार करलें, तो आत्मा की जननी कौन हैं? यह जानने के लिए निश्चित ही हमारा सम्बन्ध स्वत: ही जुड़ता चला जायेगा।

हमारी आत्मा अजर-अमर-अविनाशी है और उसकी जननी परमसत्ता आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा हैं, क्योंकि वे अजर-अमर-अविनाशी सत्ता हैं, अजन्मा हैं, जो अनन्त लोकों के देवाधिदेवों की भी जननी हैं, जन-जन की जननी हैं। उस सत्य को स्वीकार करने के लिए हमारे पास सत्यता व पवित्रता का ही एक मार्ग है कि हरपल अपने आचार-विचार-व्यवहार, चरित्र में परिवर्तन लाते हुए, विचारों को सही दिशा देते हुए नित्यप्रति चिन्तन करो कि मैं कौन हूँ? ‘मैं’ का तात्पर्य यह नहीं है कि मैं इनका पुत्र हूँ, मैं इनकी पुत्री हूँ, मैं इस विभाग का कर्मचारी हूँ, मैं डीएम हूँ, मैं एसपी हूँ, मैं विधायक हूँ, मैं सांसद हूँ। यह आपका परिचय नहीं है, यह परिचय तो नाशवान है। यह आपके पच्चीस-पचास साल का तो परिचय हो सकता है, यह परिचय इस शरीर के रहने तक का हो सकता है और इस शरीर के नष्ट होते ही यह परिचय समाप्त होजाता है तथा शासकीय सेवा के परिचय में तो आपके नौकरी से रिटायर होते ही भूतपूर्व शब्द जुड़ जाता है। अत: आपको उस धरातल को प्राप्त करना चाहिए, जहाँ भूतपूर्व शब्द जुड़ता ही नहीं है।

मैं कौन हूँ, मेरा कर्तव्य क्या है, मेरा धर्म क्या है और मेरी शक्ति क्या है? इस पर आपकी खोज होनी चाहिए, इस पर शोध करने की प्रवृत्ति आपके अन्दर जाग्रत् होनी चाहिए। अपने अन्दर की चीजों को तलाशना बहुत आसान है और यह सब आपके बहुत नज़दीक है। यह सब अनेक लोगों से कहो, तो कहते हैं कि यह हमारे इंज्वाय करने का समय है और इंज्वाय करने से हमें बहुत आनन्द मिलता है। लकिन मैं कहता हूँ कि आनन्द नहीं मिलता, बल्कि विकार मिलते हैं। मेरा मानना है कि ‘माँ’ की आराधना-भक्ति करने में तथा अपने आपको जानने में जितना आनन्द हैं, दुनिया की भौतिकता में ऐसा कुछ है ही नहीं। इंज्वाय करना है, तो असली इंज्वाय करो, जो तुम्हारे अन्दर स्थायित्व दे, जो तुम्हारे अन्दर क्षमता दे, जो तुम्हारे अन्दर चेतना का संचार करे। इंज्वाय करने के लिए तुम एक बियर की बॉटल पी लोगे, शराब का एक पउवा चढ़ा लोगे, तो कुछ समय नशा चढ़ेगा और जब वह नशा उतरेगा, तो आपका शरीर टूटेगा, जबकि एक पल भी ध्यान में बैठने का प्रयास करो, कुविचारों को रोकने का प्रयास करो, ‘माँ’ की भक्ति में डूबने का प्रयास करो, ‘माँ’ की भक्ति के गीतों को सुनकर इंज्वाय करो, अपनी ध्यान-साधना में बैठकर इंज्वाय करो और फिर देखो कि किस तरह आपके अन्दर आनन्द की अनुभूति होती है? यदि पाँच-दस मिनट भी एकाग्र होकर बैठोगे, तो दिनभर तुम्हें चैतन्यता की प्राप्ति होती रहेगी और आपकी जो कोशिकाएं चैतन्य हो जायेंगी, वे स्थाई रूप से जीवनपर्यन्त आपकी सहायता करेंगी। उस क्षेत्र में डूबकर तो देखो, एक अलग आनन्द मिलता है, एक अलग अनुभूति मिलती है।

क्या तुम नहीं चाहते कि तुम्हारा आज्ञाचक्र जाग्रत् हो? क्या तुम नहीं चाहते कि तुम्हारी छठी इन्द्रिय जाग्रत् हो, तुम्हारा अनुभूति चक्र जाग्रत् हो? जो तुम नाना प्रकार के स्वप्नों के जंजाल में उलझे हुए रहते हो, तो क्या तुम नहीं चाहते कि तुम्हें ऐसे स्वप्न प्राप्त हों, जो सत्यता पर आधारित हों और हमें कहीं न कहीं चिन्तन व चेतना प्रदान कर रहे हों? क्या तुम नहीं चाहते कि जब हम रात्रि में विश्राम कर रहे हों, तो हमारा ध्यान अपने आप लग जाये और ध्यान में हम सत्यता के अनेक स्रोत को देखें, प्रकृति को देखें, वनों को देखें, ऋषियों-मुनियों की कुटियों को देखें, उनके दिव्य दर्शनों को प्राप्त करें, उनके संकेतों को सुनें, उनके प्रवचनों को सुनें? अरे इंज्वाय करना है, तो अपने अन्दर डूबना सीखो। इस कण-कण में क्या कुछ व्याप्त है, तुम समझ ही नहीं पा रहे हो? बाहर नहीं समझ सकते, तो अपनी सत्यता को तो स्वीकार करो, अपनी चेतना के दस-पन्द्रह प्रतिशत तक तो पहुंचो और फिर देखो कि तुम्हें कितना इंज्वाय करने का मौका मिलता है। ऐसा करने से इससे बाहर की सभी चीजों को तुम भूल जाओगे और बाहर के आनन्द को तुच्छ समझने लगोगे, बाहर की सम्पत्ति को तुच्छ समझने लगोगे तथा यह सब कहने मात्र से नहीं होगा, बल्कि उस कर्मक्षेत्र में बढ़ना पड़ेगा।

नित्यप्रति अभ्यास करो कि मैं नशे-मांस से मुक्त चरित्रवान् बन करके अपनी कोशिकाओं को जाग्रत् करूंगा, अपनी सतोगुणी प्रवृत्ति को प्रभावक बनाऊंगा। चौबीस घंटे में हरपल आपको यह अहसास रहे कि मैं ‘माँ’ का एक भक्त हूँ, मैं अजर-अमर-अविनाशी सत्ता हूँ और मैं विकारी नहीं बनना चाहता, मैं तमोगुणी नहीं बनना चाहता, बल्कि मैं सतोगुणी बनना चाहता हूँ। परमसत्ता ने मुझे सतोगुणी बनाया है। विकारी चिन्तन, तमोगुणी और रजोगुणी चिंतन कुछ कार्य विशेष के लिए दिये गये हैं और यदि उनके अलावा मैं विषय-विकारों में ग्रसित होजाता हूँ, तो यह मेरा पतन है। अपने अन्दर शोध करो कि कौन से विचार हमें ऊर्जा देते हैं और कौन से विचार हमारी शक्ति को क्षीण करते हैं, कौन से विचार हमारी ऊर्जा को नष्ट करते हैं, कौन से विचार हमारे मस्तिष्क को संकुचित कर रहे हैं? कौन से विचार हमारे मस्तिष्क को खोल रहे हैं, व्यापक बना रहे हैं तथा किन विचारों से हमारी बौद्धिक क्षमता क्षीण हो रही है और किन विचारों से हमारी बौद्धिक क्षमता प्रबल हो रही है? प्रयास करो कि यदि चौबीस घण्टे में कोई भी नकारात्मक विचार आये, तो उधर से तुरंत ध्यान हटाओ कि यह विचार मेरे लिए शत्रु के समान है और उस विचार में डूबकर मैं अपनी ऊर्जा को नष्ट करूंगा, मेरे अन्दर विकार पैदा हो जायेंगे।

मन में नकारात्मक विचार आते ही उस ओर से अपना ध्यान तुरन्त हटाओ और सात्विक बातें सोचने लगो। इस दिशा में अनुसंधान करो और फिर पाओगे कि धीरे-धीरे प्रयास करते-करते नकारात्मक विचार आपको स्पर्श करना ही बंद कर देंगे। यदि नकारात्मक विचार स्पर्श भी करेंगे, तो उसी तरह कि यदि पानी की बूंदें बरस भी रहीं हैं और आपने छतरी लगा रखी है, तो पानी आपके शरीर पर नहीं गिरता है। अत: सतोगुणी प्रवृत्ति को अपने ऊपर हावी करलो तथा विचारों की दिशा सतोगुणी रखो। चेतनातरंगें व आभामण्डल हर व्यक्ति का होता है, मेरा भी आभामण्डल है, आपका भी आभामण्डल है और जड़ से जड़ व्यक्ति का भी आभामण्डल है। यदि आप उस आभामण्डल को सतोगुणी बना लेते हो, तो यदि कुविचार आपको स्पर्श करेंगे भी, तो छटककर चले जायेंगे और उनका प्रभाव आपके शरीर पर नहीं पड़ पायेगा। इस पर हरपल शोध करो, हरपल विचार करो, हरपल अपने आपको नकारात्मक विचारों से हटाकर रखो और यही ‘माँ’ की भक्ति का प्रथम चरण है।

चौबीस घण्टे एक सोच का जीवन जियो, फिर अभ्यास करते-करते वह अवस्था आ जाती है कि जीवन का एक पल भी ऐसा नहीं गुज़रता कि आपकी हर एक श्वास पर ‘माँ’ का अहसास न होता रहे, ‘माँ’ की कृपा का अहसास न होता रहे। आप किसी भी कार्य में लगे होंगे, तब भी ‘माँ’ का अहसास होता रहेगा, ‘माँ’ शब्द आपके सुरों में चलता रहेगा, ‘माँ’ की ऊर्जा का अहसास होता रहेगा। आवश्यकता है कि स्वयं को उस विचारधारा से जोड़ने का प्रयास करो, चूंकि आपके अन्दर ऐसी कोशिकाएं हैं। जिस तरह कुछ कोशिकाओं को तो आप जानते हो, मगर सात्विक कोशिकाओं से आप दूर होजाते हो।

आप सहज भाव से देखो कि जब तक आप अपने अन्दर क्रोध को हावी नहीं करोगे, तब तक आपका स्वभाव क्रोधी नहीं बनेगा और आप किसी को एक भी तमाचा नहीं मार सकते हो। जब तक अपनी तमोगुणी कोशिकाओं को जाग्रत् नहीं करोगे, जब तक क्रोधी स्वभाव की कोशिकाएं जाग्रत् नहीं करोगे, तब तक किसी को एक गाली भी नहीं दे सकते हो। विषय-विकार की दिशा में आपका एक भी कदम तब तक नहीं बढ़ सकता, जब तक आप अपने अन्दर विकारात्मक भाव समाहित नहीं करोगे। सात्विकता की कोशिकाओं का आनन्द लेकर देखो कि जब सात्विकता के विचार आते हैं, तो विकारों से हज़ारों गुना ज़्यादा तृप्ति देते हैं, करोड़ों गुना ज़्यादा आनन्द देते हैं। उस तृप्ति में डूबने का प्रयास करो, उस आनन्द में डूबने का प्रयास करो।

सतोगुणी प्रवृत्ति होनी चाहिए, एक सोच होनी चाहिए कि नकारात्मक विचार मेरी ऊर्जा को नष्ट करते हैं और सात्विक विचार मेरी ऊर्जा को बढ़ाते हैं, मुझे चैतन्यता देते हैं, मुझे आनन्द से परिपूर्ण कर देते हैं, मेरी कोशिकाओं को चैतन्य करते हैं और मेरे अन्दर की सुषुम्ना नाड़ी एवं सातों चक्र सक्रिय होने लगते हैं। हर मनुष्य सात चक्रों का जीवन जी रहा है, चाहे वे एक प्रतिशत ही क्यों न जाग्रत् हों, चूंकि यदि सातों चक्रों में प्राणवायु सक्रिय नहीं है, तो कोई जीवित ही नहीं रह सकता है। हमारा जीवन ही इन सातों चक्रों पर आधारित है, मगर हम उन सातों चक्रों को कितना व्यापक बना सकते हैं, यह हम पर निर्भर करता है। हर व्यक्ति उनका उपयोग करता है, नास्तिक से नास्तिक व्यक्ति भी उनका उपयोग करता है, मगर मानते नहीं है! यह सत्य है, परन्तु सत्य को स्वीकार नहीं करते हैं। एक नास्तिक व्यक्ति के साथ भी ऐसा होता है कि जब वह किसी का नाम भूल जाता होगा या रखी हुई कोई सामग्री भूल जाता होगा, तो याद करते हुए कहाँ से सोचता है? अपने इसी आज्ञाचक्र पर। आँख बंद करके वह अपने इसी आज्ञाचक्र पर सोचेगा और उसे वह नाम या सामग्री याद आ जाती है। उन चक्रों का उपयोग मैं भी ले रहा हूँ, आप भी ले रहे हैं और सभी ले रहे हैं। अन्तर केवल इतना है कि आपने इस आज्ञाचक्र को कितना प्रभावक बनाया है? इस आज्ञाचक्र को प्रभावक बनाते-बनाते वह अवस्था आ जाती है कि बिना पूर्णत्व प्राप्त किए ही आँख बन्द करके अहसास कर सकते हो कि हमारे आसपास क्या घटित हो रहा है? इसका एक अलग ही आनन्द है।

भक्ति के मार्ग पर चलकर देखो, एक अलग तृप्ति मिलेगी, एक अलग आनन्द मिलेगा, जो अन्य विषय-विकारों में, नशे में लिप्त होकर, रात-रात भर पार्टियाँ करने में नहीं मिलेगा। उस आनन्द की ओर बढ़ो और अपने ‘मैं’ की खोज करो कि मैं कौन हूँ, मेरे अन्दर की शान्ति की अंतिम चरम अवस्था क्या है और मेरे अन्दर की शक्तियाँ कौन-कौन सी हैं? यदि परमसत्ता ने हमें इतना महत्त्वपूर्ण जीवन दिया है, तो हमारे अन्दर कौन-कौन सी शक्तियों को समाहित किया है? आप भौतिकता में तो धन-दौलत सब कुछ प्राप्त करना चाहते हैं, मगर अपने अन्दर की शक्तियों को देखना भी नहीं चाहते हैं, जबकि हमारे अन्दर ऐसी अलौकिक शक्तियाँ भरी हुईं हैं कि यदि हम उनके नज़दीक ही पहुंच जायें, तो हर व्यक्ति खुशहाली का जीवन जी सकता है, सामथ्र्य का जीवन जी सकता है। अत: खोज करो कि मैं कौन हूँ?

 ‘मैं’ का तात्पर्य भौतिक जगत् या आपकी भौतिक सामथ्र्य नहीं है। आप विधायक हो, सांसद हो, मंत्री हो, अधिकारी हो, यह सब भी नहीं है। ‘मैं’ वह है, जो परमसत्ता ने मेरी आत्मा में स्वरूप दिया है। मैं कौन हूँ और ‘मैं’ की जननी कौन है? इसको जानने का प्रयास करोगे, तो ‘माँ’ के प्रति आपकी अटूट भक्ति अपने आप ही आती चली जायेगी। अत: मैं को जानो और अपनी आत्मा की जननी को जानो तथा जो सात विकार हैं, जो इस भौतिक जगत् में समाज को सबसे ज़्यादा पथभ्रष्ट कर रहे हैं, उन विकारों से हमेशा सजग रहो। यदि उन सात विकारों से अपने आपको दूर करने में सफल हो गए, तो तुम्हें अलौकिक शान्ति की अनुभूति होगी, तुम ‘माँ’ के सच्चे भक्त बनोगे और जब ‘माँ’ के चरणों में बैठोगे, तो तुम्हें तृप्ति की अनुभूति होगी कि ‘माँ’, आपने हमें जिस स्वरूप में मानवजीवन देकर भेजा है, तो कम से कम हम अपने प्रारम्भिक धरातल को मज़बूत करके आपके समक्ष बैठे हैं, आपकी कृपा के लिए लालायित है, ‘माँ’ हमें कृपा दो, ‘माँ’ हमें अपना आशीर्वाद प्रदान करो।

वे सात विकार हैं- नशा, माँस, विषय-विकार, भ्रष्टाचार, जातीयता, सम्प्रदायिकता और नास्तिकता। यही विकार समाज को पतन के मार्ग पर ले जा रहे हैं। नशे-मांस के बाद यदि तीसरे नम्बर पर समाज के पतन का मुख्य कारण है, तो वह विषय-विकार है। नशा हमारे लिए महामारी है, मांसाहार हमारे लिए महामारी है, विकारात्मक जीवन हमारे लिए महामारी है, भ्रष्टाचार हमारे लिए महामारी है, नास्तिकता हमारे लिए महामारी है, सम्प्रदायिकता हमारे लिए महामारी है और जातीयता भी हमारे लिए महामारी है। ये सात ऐसे बिन्दु हैं, जिनसे मानवता जकड़ चुकी है और मानसिक रूप से विकलांग होती जा रही है। आपको अहसास ही नहीं है कि जन्म-दर-जन्म आप मानसिक रूप से विकलांग होते जा रहे हो।

मानसिक रूप से कमज़ोर व्यक्ति की पहचान करने की आपके अन्दर भी क्षमता है कि यदि कोई दस-पन्द्रह प्रतिशत भी मानसिक रूप से विक्षिप्त हो, तो उसके बोलने, बात करने, चलने से दूर खड़ा एक सामान्य व्यक्ति समझ जाता है कि यह मानसिक विक्षिप्त नज़र आता है। इसी तरह मैं देख रहा हूँ कि तुममें से अधिकांश लोग, आज की मानवता में निन्यानवे प्रतिशत लोग मानसिक रूप से विक्षिप्त होते जा रहे हैं, उनकी मानसिक क्षमता कमज़ोर होती चली जा रही है, सोचने-समझने की क्षमता कमज़ोर होती चली जा रही है और जन्म-दर-जन्म बच्चों के अन्दर तो और भी कमज़ोरी आती चली जा रही है। यही कारण है कि आज छोटी सी समस्या या तनाव आते ही बच्चे आत्महत्या कर लेते हैं या डिप्रेशन का शिकार होजाते हैं। ये सब मानसिक कमज़ोरी के ही परिणाम हैं और इसके पीछे का कारण यही है कि आज समाज नशे से ग्रसित है।

नशा मनुष्य को पतन की ओर ले जा रहा है। नशे से समाज को मुक्त कराना नितान्त आवश्यक है और यदि आज समाज का सबसे अधिक पतन हो रहा है, तो नशे के कारण हो रहा है। मगर, यह दुर्भाग्य है कि आज समाज को उस दिशा में जाने से रोका नहीं जा रहा है और जो सबसे बड़ी महामारी है, उससे समाज को बचाने के लिए शासन-प्रशासन की जो जि़म्मेदारी होनी चाहिए, उस पर ध्यान ही नहीं दिया जा रहा है। एक राजा के लिए उसकी जनता प्रजा समान होती है। राजपदों पर बैठना, अधिकारी के पद पर बैठना, जि़म्मेदारी के पदों पर पहुंचना, यह सब संस्कारों से प्राप्त होता है और उन संस्कारों से प्राप्त पदों का यदि हम सदुपयोग न करके दुरुपयोग करते हैं, तो हमें उसके पाप से कोई भी नहीं बचा सकेगा। आज नहीं तो कल, हमें उस पाप के फल को भोगना ही होगा। उस तरफ सोच ही नहीं जाती कि हम मानवता को नशा पिला रहे हैं, शराब के ठेके खुलवा रहे हैं! खुद ठेके देकर, पैसे लेकर हर गाँव, हर शहर में, हर तहसील में शराब की दुकानें खुलवाई जा रहीं हैं! एक बार भी सोच नहीं जाती कि हम जिस देश को धर्मगुरु बनाना चाहते हैं, सर्वशक्तिसम्पन्न राष्ट्र बनाना चाहते हैं, विश्व का धर्मगुरु कहलाना चाहते हैं, तो क्या इसी तरह देश धर्मगुरु बन जायेगा कि हम समाज को नशा परोसते रहें, जगह-जगह नशे की दुकानें खुलवाते रहें। अत: यदि इस दिशा में सरकारें नहीं सोचतीं, तो समाज को सोचना होगा।

भगवती मानव कल्याण संगठन नशा उन्मूलन की दिशा में कार्य कर रहा है। संगठन के कार्यकर्ताओं को डोर-टु-डोर जाकर एक-एक व्यक्ति को जगाना और समझाना है कि महामारियों में सबसे पहली महामारी है नशा। आज भगवती मानव कल्याण संगठन के प्रयास से लाखों नहीं, बल्कि करोड़ों लोग नशे-मांस से मुक्त होकर चरित्रवान् जीवन अपना चुके हैं। घातक से घातक नशा करने वाले लाखों लोगों को मेरे द्वारा नशामुक्त जीवन प्रदान किया गया है। किसी को अनुभव करना है कि सत्य की चेतनातरंगों का प्रभाव क्या होता है, तो मेरे आश्रम में कुछ दिन रहकर देखे।

सिद्धाश्रम में नशा छुड़ाने के लिए परिवार के जो लोग किसी को लेकर आते हैं, वे तो आते ही हैं, इसके अलावा शराबियों के ग्रुप के ग्रुप नशा छोड़ने आते हैं। उनके साथ उनके परिवार का कोई व्यक्ति नहीं आता, बल्कि दस-दस, पन्द्रह-पन्द्रह लोगों का ग्रुप आता है, और आकर बोलते हैं बस गुरुदेव के पास अपना नशा छोड़ने आये हैं। उन नशा करने वालों को कौन सी तरंगें वहाँ खीचतीं हैं? एक भी व्यक्ति उनके साथ नहीं रहता, जो नशामुक्त हो। सभी के सभी नशा करने वालों का ग्रुप आ जाता है और फिर जब उनसे कहा जाता है कि यदि आपको नशा छोड़ना ही था, तो अपने घर पर भी छोड़ सकते थे, तो उनका जवाब होता है कि नहीं, हमें यहाँ से जो ऊर्जा मिलती है, वह दूसरी जगह से नहीं मिल सकती और यहाँ से गुरुजी का आशीर्वाद मिल जायेगा, ‘माँ’ का आशीर्वाद मिल जायेगा, तो हम नशामुक्त हो जायेंगे। पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम में आकर देखो कि नित्यप्रति कितने नशा करने वाले लोग वहाँ आते हैं और नशा छोड़कर जाते हैं, जबकि वहाँ किसी भी तरह की दवा का उपयोग नहीं किया जाता है।

आज धनार्जन के लिए सरकारेंं ठेके खोलकर शराब भी पिलाती हैं और नशामुक्ति केन्द्र खोलकर व नशामुक्ति की दवाइयाँ बांटकर दूसरी तरफ से भी लूटती हैं। एक तरफ शराब पिलाओ और दूसरी तरफ नशामुक्ति केन्द्र चलवाओ! पुलिस प्रशासन को भी निर्देश दिए जाते हैं कि एक दिन नशामुक्ति के लिए कार्य करो और नशामुक्ति के लिए कार्य करने वाले लोगों के लिए पैसे भी बंटवाए जाते हैं। मेरे द्वारा भगवती मानव कल्याण संगठन के कार्यकर्ताओं को कहा जाता है कि तुम्हारे लिए कोई दिन विशेष नशामुक्ति के लिए नहीं होना चाहिए, बल्कि वर्ष के तीन सौ पैसठ दिन तुम्हारे लिए नशामुक्ति के लिए कार्य करने के दिन हैं। एक दिन भी आराम नहीं, एक दिन भी विश्राम नहीं। आप सतत लगे रहोगे, तो समाज नशामुक्त अवश्य होगा। समाज के पतन का मूल कारण नशा है और नशे से ही विकारात्मक जीवन प्रारम्भ होता है। नशे से ही लोग चोरी करना, व्यभिचार करना, हत्या करना आदि सब सीखते हैं। अत: समाज को नशे से मुक्त कराना प्रथम प्राथमिकता होनी चाहिए।

दूसरी महामारी मांसाहार है और जो मांस का सेवन करते हैं, उनके अन्दर वैसे ही दूषित विचार पनपते हैं। जैसा भोजन करोगे, वैसे ही आपके विचार बनेंगे। आपको अहसास न हो तो देखो, जहाँ मांस के बूचडख़ाने हैं, जहाँ मांस की बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियाँ बनी हुईं हैं कि किस तरह जानवरों को काटा जाता है, किस तरह उनको तड़पाया जाता है? गाय, भैसों, भेड़, बकरियों को, मुर्गा-मुर्गियों को तड़पा-तड़पा करके मारा जाता है। बड़ी-बड़ी मशीनों से गायों को एक पैर पर टांग दिया जाता है, उनको झुलाया जाता है, ज़मीन पर पटका जाता है, उनकी खाल उधेड़ दी जाती है, उनके पैर तोड़ दिए जाते हैं, ताकि वे तड़पें और चूंकि वे कहते हैं कि उनके तड़पने से मांस लजीज़ होजाता है, मांस और ज़्यादा टेस्टी होजाता है! ज़रा सोचो कि जीवों को तड़पा-तड़पाकर मारने वाले और उन जीवों का जो मांस खाते होंगे, उनके अन्दर किस तरह के विचार बनेंगे? जब उन दृश्यों को देखोगे, तो तुम्हें नींद नहीं आयेगी। आज गायों को किस तरह तड़पा-तड़पाकर मारा जाता है, अपाहिज बना-बनाकर मारा जाता है, एक बार में नहीं मारा जाता है, बल्कि घण्टों उनको तड़पाया जाता है, तब कहीं जाकर उनका मांस काटा जाता है और जिस देश में इस तरह गौ-हत्या जैसा अधर्म व पाप हो रहा हो और फिर भी हम कहते हैं कि देश को विश्वगुरु बनाना चाहते हैं!

इस दिशा में भी संगठन को सक्रियता से कार्य करना है और समाज को समझाना है कि सात्विक और पवित्र भोजन करो। दिन-रात आपको उस दिशा में लगना है और कार्य करना है। सरकारें आपकी मदद कर रही हैं या नहीं कर रही हैं, इस पर आपको विचार नहीं करना है। आपको समाज को सुधारना है और डोर-टु-डोर सम्पर्क करना है। किसी समय भगवती मानव कल्याण संगठन से एक-एक, दो-दो कार्यकर्ताओं को जोड़कर यह दिशा प्रशस्त की गई थी और आज करोड़ों लोग इस दिशा में बराबर चल रहे हैं तथा दस लाख से अधिक कार्यकर्ता आज देश के कोने-कोने में समाजसेवा के कार्य में लगे हुए हैं। उस विचारधारा में आपको दिन-रात कार्य करने की ज़रूरत है कि समाज को नशे और मांस से मुक्त कराओ, समाज को चरित्रवान् बनाओ।

तीसरी महामारी विकार है। विकारात्मक जीवन बच्चों को मानसिक रूप से विकलांग कर रहा है और बच्चों को हीे क्या, वृद्धों को भी विकलांग कर रहा है। आप सभी अपनी अन्तर्रात्मा से सोचकर देखें कि उम्र के अंतिम पड़ाव पर पहुंचा हुआ व्यक्ति भी अपने आपको विकारों से अलग नहीं कर पाता। ये विकार आपके मनमस्तिष्क को संकुचित कर चुके हैं। आपका गुरु भी समाज के बीच जीवन जीता है, मगर मैंने कभी उस तरह का जीवन नहीं जिया है। यहाँ पर मेरी पत्नी और बच्चियाँ बैठी हुईं हैं। बच्चियों के जन्म लेने के बाद जिस क्षण से ब्रह्मचर्यव्रत के पालन करने का संकल्प ले लिया गया, सपत्नीक ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करता हूँ और विज्ञान को चुनौती देता हूँ कि मेरे आसपास चाहे जिस तरह के दृश्य डाल दिये जायें, यदि मेरे मस्तिष्क में एक प्रतिशत का भी विकारात्मक भाव पा जाएं, तो मैं अपना पूरा अध्यात्मिक जीवन छोड़ने के लिए बैठा हूँ। अभ्यास करो, तुम भी इसका अभ्यास कर सकते हो, केवल हरपल अपने आपको विकारी विचारों से अलग हटाते रहो। 

 विषय-विकार युवाओं को ग्रसित करता चला जा रहा है। मेरे पास अनेक लोग आते हैं और कहते हैं कि गुरुजी, यदि मेरी शादी फलां लड़की से नहीं होगी, तो हम आत्महत्या कर लेंगे और चीख-चीख करके रोना प्रारम्भ कर देते हैं। ऐसे लोगों पर तरस आता है कि काश! इसका पचास प्रतिशत या दस प्रतिशत भी यदि उस परमसत्ता से प्रेम कर लेते, तो उस परमसत्ता की कृपा के पात्र बन जाते, मनमस्तिष्क एवं बौद्धिक क्षमता हज़ारों गुना ज़्यादा बढ़ जाती और ‘माँ’ के दर्शन भी प्राप्त कर सकते थे। तुम्हारे अन्दर क्षमताएं हैं, मगर वे क्षमताएं विषय-विकारों में लिप्त हैं और यदि उनको विषय-विकारों से हटा करके उस परमसत्ता की आराधना में लगा दो, स्वयं कर्मवान और धर्मवान बनाने में लगा दो, तो फिर देखो कि तुम कितने चेतनावान् बनोगे।

अत: तीसरी जो सबसे बड़ी महामारी है विकार, उससे मस्तिष्क संकुचित होजाता है। हम जिससे प्रेम करते हैं, सुबह से शाम तक बस वही विकार हमारे मनमस्तिष्क में छाया हुआ है और मैं केवल यह युवाओं की बात नहीं कर रहा हूँ, बल्कि यदि आज देखा जाये, तो नब्बे प्रतिशत लोगों की यही दशा है। कोई भी व्यक्ति अपने गृहस्थ से, अपनी पत्नी से, अपने परिवार से संतुष्ट नहीं है। हरपल उसका विकारात्मक भाव रहता है और यही सच्चाई है। एक बार उस धरातल को स्वीकार करो, अपने ‘मैं’ को जानने की ओर बढ़ो और यह मान लो कि ये विकार आपके अस्तित्व को नष्ट कर रहे हैं, आपकी ऊर्जा को नष्ट कर रहे हैं और इससे आपका पतन सुनिश्चित होगा। अत: उससे अपने आपको और अपने बच्चों को हटाओ तथा उन्हें सात्विकता की ओर मोड़ो।

समाज के लिए विकारों से हटना नितान्त आवश्यक है। पहले कहीं छोटी-मोटी घटनाएं मिलती थीं, एक-दो कहीं बलात्कार की घटनाएं सुनने को मिल जाती थीं, लेकिन आज जगह-जगह पर आएदिन सामूहिक बलात्कार की घटनाएं हो रहीं हैं। सजा क्या है? फांसी की सजा है, लेकिन उसके बाद भी बलात्कार की घटनाएं रुक नहीं रहीं हैं और यदि आरोपियों को बीच चौराहों पर भी तड़पा-तड़पाकर, उनके शरीर में कीलें गाड़कर भी मौत दी जाये, तो भी मेरा मानना है कि समाज से बलात्कार की घटनाओं को नहीं रोका जा सकता है। इसे रोकने के लिए सिर्फ और सिर्फ एक ही मार्ग है कि स्वयंसेवी संस्थाएं डोर-टु-डोर जाकर समाज को समझाएं, बताएं कि नशे-मांस से मुक्त चरित्रवान् जीवन जियो, क्योंकि चरित्रवान् जीवन जीने से तुम्हारी ऊर्जा ऊध्र्वगामी होगी और तुम परमसत्ता की कृपा को प्राप्त कर सकते हो।

विकारों से तुम्हारा हित नहीं होगा। युवावस्था में शादी से पहले कभी भी गलत कर्म मत करो तथा शादी के बाद एकपत्नी/एकपति व्रतधर्म का पालन करो और जिस तरह आप लोगों को यहाँ संकल्प कराया जाता है, उसी तरह अपने हर कार्यक्रम में बच्चों को संकल्प कराओ, युवाओं को संकल्प कराओ, वृद्धों को संकल्प कराओ कि जो बीत गया, वो बीत गया, तुम सभी लोग आज से संकल्प कर लो कि हम सभी लोग चरित्रवानों का जीवन जियेंगे। जिस तरह हम अपनी बहन-बेटियों के साथ व्यवहार करते हैं, उसी तरह हमारे लिए सबकी बहन-बेटियाँ होनी चाहिएं। परिस्थितियाँ तुम नहीं बदल सकते, मगर केवल सोच तो बदल लो। तुम्हारी बेटियाँ कितनी ही सुन्दर क्यों न हों, तुम्हारी माँ कितनी ही सुन्दर क्यों न हो, तुम गर्व करते हो कि मेरी माँ सुन्दर है, मेरी बेटी सुन्दर है और कभी भी कोई विकार तुमको स्पर्श नहीं कर पाते। वह विचारधारा अपने मनमस्तिष्क में सदा-सदा के लिए बिठा लो और एक सोच बना लो। आपके अन्दर अच्छे विचार दृढ़ता से आये नहीं, कि विकार दूर भागते चले जायेंगे।

विकारों को शत्रु समान मानो। दूसरों को जीतने के पहले स्वयं को जीतो, स्वयं के विकारों को दूर भगाओ। विकारों से मुक्त, नशे-मांस से मुक्त चरित्रवान् समाज का निर्माण करने के लिए स्वयंसेवी संस्थाएं ही कार्य कर सकती हैं और उस दिशा में भगवती मानव कल्याण संगठन के कार्यकर्ताओं को दिन-रात सतत लगे रहना है। यदि एक भी विषय-विकारी व्यक्ति को विषय-विकारों से हटा दो, नशे-मांस से हटा दो, तो समझ लेना कि तुमने एक धर्मयुद्ध जीत लिया। हरपल प्रयास करो और उस दिशा में आपको सतत कार्य करना है।

 भ्रष्टाचार के कारण आज पूरे देश की दयनीय स्थिति है, गरीबी-अमीरी के बीच खाईं खड़ी हो गई है और युवावर्ग भटक रहा है। आज न्यूज़ चैनलों में देखो, तो रोज़ खबरें आती रहती हैं और यदि मीडिया न होता, तो शायद ये सब बातें जनता तक आ भी न पातीं। आज सौ लड़के यहाँ पकड़े गए, पच्चीस लड़कियाँ यहाँ पकड़ी गईं और ये सब धनाढ्य परिवारों के युवा होते हैं, जो भ्रष्टाचारी होते हैं। पकड़े गए, तो दृश्य सामने आ जाता है, अन्यथा अपने आपको बहुत बड़ा ईमानदार, समाजसेवक बताकर समाज के बीच बैठे रहते हैं। समाज का पतन होता चला जा रहा है। भ्रष्टाचार का पैसा आपके मनमस्तिष्क पर भी पतन की ओर ले जाने वाली विचारधारा डालता है और आपके बच्चों को तो पतन के मार्ग पर ले ही जायेगा। भ्रष्टाचार से आए हुए धन को अपने बच्चों के स्वास्थ्य और शिक्षा पर मत लगने दो, भ्रष्टाचार के पैसे से अपने बच्चों को सुख-सुविधाएं मत दो तथा भ्रष्टाचार न करने का संकल्प लेकर जीवन जियो और यदि भ्रष्टाचार का पैसा आ भी गया है, तो उसे जनकल्याणकारी कार्यों में लगाओ, मानवता की सेवा में लगाओ, गरीब बच्चों की शिक्षा में लगाओ, गरीबों की मदद करने में लगाओ।

रिश्वत देना तुम्हारी मज़बूरी हो सकती है, मगर रिश्वत लेना तुम्हारी मज़बूरी नहीं है। रिश्वत देना इसलिए तुम्हारी मज़बूरी हो सकती है कि किसी थाने में तुम्हारा परिजन बन्द है या निरर्थक किसी फर्जी प्रकरण में फंसाया जा रहा है और कहा जा रहा है कि हज़ार-पाँच हज़ार दे दोगे, तो उसे छोड़ देंगे, तब रिश्वत देना तुम्हारी मज़बूरी होती है। तुम्हारा कोई कार्य महीनों से लटका हुआ है, तो उसके लिए तुम्हारी मज़बूरी हो सकती है, मगर रिश्वत लेना मज़बूरी नहीं हो सकती है। कभी न कभी वह दिन भी आयेगा, जब रिश्वत देना भी तुम्हारी मज़बूरी नहीं होगी। उस दिशा में हमें समाज को जगाना होगा, समाज को बताना होगा कि नमक-रोटी खा लेना श्रेष्ठ है और मेरे द्वारा तो कहा जाता है कि मौत को स्वीकार कर लेना श्रेष्ठ है, मगर भ्रष्टाचार के अन्न को अपने शरीर में उपयोग मत होने दो, तभी आनन्द मिलेगा, तभी तृप्ति मिलेगी, तभी शान्ति और संतोष मिलेगा। जब आप सच्चाई, ईमानदारी के पथ पर चलोगे, आपके घर में सच्चाई, ईमानदारी का धन आयेगा, तो आपके घर में सुख-शान्ति-समृद्धि होगी, अन्यथा नाना प्रकार के विषय-विकार और बीमारियाँ फैलती चली जायेंगी।

अगली महामारी है सम्प्रदायिकता। आज सम्प्रदायवाद में पूरा समाज लिप्त पड़ा है और उग्रवाद पनपता चला जा रहा है। हिन्दू, मुस्लिमों को मारना चाहते हैं और मुस्लिम, हिन्दुओं को मारना चाहते हैं! सिख-ईसाई, सब जगह यही हाल है। यह कैसी सम्प्रदायिकता है? अरे, हम मानव हैं और हमारा धर्म यह सिखाता है कि यदि हम अपने धर्म का सम्मान करते हैं, तो उसी प्रकार दूसरे के धर्म का सम्मान करें, दूसरे के धर्म की रक्षा के लिए यदि अपना जीवन भी न्यौछावर करना पड़े, तो जीवन न्यौछावर करना ही हमारा धर्म कहलाता है, मगर आज जगह-जगह पर लोगों को सम्प्रदायिकता की आग में झोंका जा रहा है। सम्प्रदायिकता से ऊपर उठो, क्योंकि इससे तुम्हारे अन्दर उग्रवाद पनप रहा है।

आज कहीं भी देखो कि यदि रोड में एक एक्सीडेंट होजाये, कोई बड़े घराने का व्यक्ति मर जाये, तो एक ड्राइवर ने गलती की होगी और सजा ज़्यादा से ज़्यादा उसी को मिलनी चाहिए, उसे पकड़कर कानून के हवाले कर देना चाहिए, मगर पूरी तरह से असुरत्व का भाव लेकर सैकड़ों लोग ऐसे उमड़ पड़ेंगे, जैसे उनके बहुत बड़े समर्थक हों! गाडिय़ों के ऊपर गाडिय़ाँ तोड़ते चले जायेंगे, दजऱ्नों गाडिय़ों में आग लगा देंगे, दुकानें बन्द करा देंगे, दुकानों में तोडफ़ोड़ करेंगे! हुआ क्या था? एक एक्सीडेंट ही तो हुआ था, एक व्यक्ति की एक्सीडेंट से मौत ही हुई थी और निश्चित है कि वह उसके लिए कष्टदायक है, मगर उसकी भरपाई क्या दुकानें तोड़ करके, सैकड़ों गाडिय़ाँ जला करके की जा सकती है?

 जिस व्यक्ति ने अपराध किया है, उसे कानून के हवाले करो। सिर्फ इतना होना चाहिए, मगर युवाओं में वही क्रोध का भाव भर गया है, उग्रवाद का भाव, नास्तिकता का भाव भर गया है और यह नास्तिकता जिस धर्म में समा गई, उग्रवाद जिस धर्म में समा गया, तो वह भाव समाज में हरपल वही परिवेश डालता चला जाता है और समाज में अशान्ति उत्पन्न होती चली जाती है। दूसरे के बच्चों को जला देंगे, आग में झुलसा देंगे। अरे, आप अपने जिन बच्चों को प्रेम करते हो, उन पर एक ही चिंगारी लगा करके देखो, अपने स्वयं के ऊपर एक चिंगारी लगाकर देखो। तुम अपने बच्चों से तो बहुत प्रेम करते हो और दूसरे के बच्चों को कैसे तड़पा-तड़पा करके मार दिया जाता है, छोटी सी बात हुई कि दजऱ्नों लोगों को मार दिया जाता है! इससे ऊपर उठो और यदि तुम किसी को जीवन नहीं दे सकते, तो किसी का जीवन लेने का अधिकार भी तुम्हारे पास नहीं है। यह तो चल सकता है कि कोई बार-बार तुम्हारे ख़्िालाफ अपराध कर रहा है और कानून भी आपकी मदद नहीं कर रहा है या आमने-सामने की लड़ाई में किसी से वाद-विवाद होजाये, तो तुम उसे दो-चार तमाचे मारकर थोड़ा सा दण्डित कर दो, मगर याद रखो कि तुम्हारे जीवन का संकल्प होना चाहिए कि हम कभी भी किसी की हत्या करने का निर्णय नहीं लेंगे। इस विचार को जब आप स्थाई रूप से ले लोगे, तो आपके छोटे-मोटे विवाद भी हटते चले जायेंगे।

हमें सम्प्रदायिकता से ऊपर उठकर हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, सभी धर्मों का सम्मान करना है। हाँ, जिस धर्म में सिर्फ आतंकवादी मानसिकता है, तो सिर्फ वे आतंकवादी हमारे शत्रु हैं और वे किसी भी धर्म में हो सकते हैं। आज सम्प्रदायिकता की बड़ी-बड़ी बातें करने वाले और एक-दूसरे को लड़वाने वालों से पूछा जाये कि जिस तरह तुम समाज के समूहों को जाग्रत् करते हो, तो क्या तुमने या तुमसे जुड़े हुए अनुयायियों ने किसी एक भी आतंकवादी को पकड़ा है? एक भी आतंकवादी को पकड़ करके कानून के हवाले किया गया है? तो वे अपना सिर नीचे को झुका लेंगे। अरे, सजगता लाओ और समाज को सजग बनाओ। आतंकवादी छिपते कहाँ हैं? आपके आसपड़ोस में, आपके शहरों के बीच में अपराधिक प्रवृत्ति के लोग छिपते हैं। आप कानून की मदद करो और जो अपराधी हों, उनको कानून के हवाले कराने में कानून की सहायता करो। यदि आज समाज सजग होजाये, तो आतंकवादी कहीं भी पनाह पा ही नहीं सकते। अत: सम्प्रदायिकता से ऊपर उठो।

नास्तिकता भी समाज के पतन का मूल कारण है। मनुष्य नास्तिक होता चला जा रहा है और ऐसे लोग कहेंगे कि हम धर्म-कर्म को नहीं मानते। तो फिर किसको मानते हो? उसी परमसत्ता का अंश लिए हुए हो, उसी के बल पर बोल रहे हो, उसी के बल पर चल रहे हो, उसी के बल पर खा रहे हो, उसी के बल पर पी रहे हो और नास्तिक बनकर जीवन जीते हो! यह नास्तिकता केवल धर्म के प्रति ही नहीं होती, बल्कि यह नास्तिकता धीरे-धीरे ऐसी आती चली जाती है कि लोग अपने माता-पिता का भी सम्मान करना भूल जाते हैं। इसलिए उस नास्तिकता से अपने बच्चों को बचाओ।

जातीयता समाज में विष के समान व्याप्त है। एक जातिवर्ग के लोग दूसरी जाति के लोगों से नफरत का भाव लिए बैठे हैं। आज वोट बैंक के लिए अलग-अलग जातियों को आपस में लड़ाया जाता है और जातीय संगठन बनवाए जाते हैं। मेरे संगठन को मेरा हरपल निर्देश रहता है कि मेरा कोई भी शिष्य कभी भी किसी जातीय संगठन का पदाधिकारी नहीं बनेगा और जातीय सम्मेलनों में भी शामिल नहीं होगा। शादी-ब्याह तक तो जाति अच्छी बात है, मगर जातीयता के संगठन को बढ़ावा दो, दूसरी जाति को नीचा दिखाओ, यह करने का अधिकार वही व्यक्ति रख सकता है, जो दावे के साथ कहने को तैयार हो कि आज मैंने जिस जाति में जन्म ले लिया है, मेरा अगला जन्म भी इसी जाति में होगा और यदि इतना ठेका तुम्हारे पास नहीं है, तो जो खाईं तुम खोद रहे हो, कल को उसी खाईं में तुम गिरोगे। अत: जातीयता से समाज को बचाओ।

नशे-मांस से मुक्त चरित्रवान् जीवन जियो, नास्तिकता को हटाओ, विषय-विकारों को दूर हटाओ, भ्रष्टाचार से मुक्त जीवन जियो, सम्प्रदायिकता व जातीयता से ऊपर उठ जाओ और फिर देखो कि तुम्हें कितना आनन्द मिलता है? मेरा भी जन्म ब्राह्मण परिवार में हुआ है। उत्तरप्रदेश जैसा प्रदेश हो, ब्राह्मण परिवार हो और वहाँ तो छुआछूत को बहुत ज़्यादा महत्त्व दिया जाता था कि यदि कुयें की जगत में कोई ब्राह्मण पानी भर रहा हो और कोई छोटी जाति का व्यक्ति उसके चबूतरे पर पैर भी रख दे, तो उसको डांटा जाता था और पानी की भरी हुई बाल्टी को उलट दिया जाता था! वही गरीब लोग, जो कुयें को खोदते हैं तथा कुयें का पहला स्रोत जिनके पैरों को स्पर्श करता है, कुएं की जगत में उन्हीं के पैर रखते ही वह पानी अछूत होजाता है! दुर्भाग्य है कि इस तरह की मानसिकता के भी लोग हैं।

मेरे जीवन में बचपन से लेकर आज तक कोई दाग नहीं लगा सकता कि कभी भी जातीयता को लेकर मैंने छुआछूत को माना हो। बचपन की अवस्था में हो सकता है कि लोग मुझे न जान पाये हों, मगर यदि मैं सात-आठ साल की उम्र से बात करूं, तो ब्राह्मण परिवार का होकर भी मैंने सभी जाति के लोगों के साथ बैठकर भोजन किया है, सभी जातियों का बनाया हुआ भोजन ग्रहण किया है, लेकिन मेरा धर्म तो कभी नष्ट नहीं हुआ। मैंने सबसे पहले अपने परिवार को इस जातीयता के ज़हर से मुक्त कराया। मेरे परिवार के लोग धीरे-धीरे उस बात को मानने लगे और उन्होंने भी ख़ुद को छुआछूत और जातीयता से अलग किया तथा धीरे-धीरे समाज में बदलाव आता चला गया।

आज मेरे निन्यानवे प्रतिशत शिष्य जातीयता के चक्रव्यूह से ऊपर उठे हुए हैं। आपके ही पड़ोस में यदि कोई छोटी जाति का होता है, तो आप उसको हेयदृष्टि से देखते हो, उसको अपने घर की चौखट के अन्दर नहीं बैठने दोगे, उसका पानी नहीं पियोगे और जब बाज़ार जाते हो, तो यदि समोसे अच्छे दिख रहे हैं, भजिया अच्छी दिख रही है, जलेबी अच्छी दिख रही है, तो फिर नहीं पूछते हो कि वह किस जाति के व्यक्ति के द्वारा बनाया जा रहा है? उसे खरीदोगे और पेट में भर लोगे! तब यह भी नहीं देखोगे कि उसने गंदे हाथों से बनाया है या स्वच्छ हाथों से बनाया है या उसमें अपनी नाक भी पोछकर डाल दिया है? तब सब खा लोगे, मगर पड़ोस का व्यक्ति, जो तुमको सम्मान देता है, जो तुम्हारे सामने हाथ जोड़ता है, तुम्हारे चरणस्पर्श करता है, उससे छुआछूत की दूरी बनाकर रखोगे! इससे ऊपर उठो। इन्सान हो, इन्सानियत का जीवन जियो, तभी ‘माँ’ के सच्चे भक्त कहला सकोगे।

जातीयता के चक्रव्यूह से ऊपर उठो। यह जातीयता पूरे समाज को निगलती जा रही है और आने वाले समय में यदि इसी तरह जातीयता बढ़ती गई, तो दूसरे धर्मों से तो लड़ाई-झगड़े बाद में होंगे, एक जाति ही दूसरी जाति से युद्ध करने के लिए तत्पर हो जाएगी। तुम सिर्फ इन्सान हो, इन्सानियत का जीवन जियो और यदि अपने आपको बड़ा मानते ही हो, तो तुम्हारा कर्तव्य है कि जिनको तुम छोटा मानते हो, उन्हें अपनाकर अपने समकक्ष खड़ा करो, यही तुम्हारा धर्म कहलायेगा। इस तरह का जीवन जियो, तो तुम्हें आनन्द मिलेगा, तृप्ति मिलेगी।

‘माँ’ के सच्चे भक्त बनो। आज ‘माँ’ की भक्ति को लेकर जो समाज में सबसे बड़ा विकार प्रवेश कर चुका है, वह है बलिप्रथा। एक बहुत बड़ी अज्ञानता समाज के बीच में है कि देवी-देवताओं के नाम पर बलि चढ़ाई जाती है और कहीं बकरे की बलि दी जा रही है, मुर्गे की बलि दी जा रही है, कहीं अंडे चढ़ाये जा रहे हैं! अनेक देवी-देवताओं के तीर्थस्थलों पर बलिप्रथा चल रही है। दुर्भाग्य है कि इक्कीसवीं सदी में आकर भी मनुष्य उस सत्य को नहीं स्वीकार कर सका कि कोई भी देवी-देवता किसी की बलि को देने से संतुष्ट नहीं होते तथा कोई भी व्यक्ति किसी देवी-देवता को बलि देकर प्रसन्न नहीं कर सकता। यह सिर्फ एक अपराध है और एक न एक दिन तुम्हें और तुम्हारे परिवार को इसका दण्ड भोगना ही पड़ेगा, यदि तुम जीवों की बलि देते हो।

बलि भी निरीह और कमज़ोर जीवों की! बकरे की बलि दे दोगे, पैदा हुआ है कोई ऐसा व्यक्ति, जो किसी शेर की बलि चढ़ा सके? बलि चढ़ाने की हिम्मत है, तो जाओ जंगलों में और किसी शेर को पकड़कर लाओ, फिर देवी के सामने उसका शीश चढ़ाओ? मगर बकरे और भेड़ों की बलि रोज चढ़ाई जा रही है। कोई सिंह की बलि क्यों नहीं चढ़ाता? क्योंकि चढ़ाने की औकात भी नहीं है। अत: इस मानसिक बीमारी से बचो। मेरा मानना है कि उन मंदिरों के पुजारी, पुजारी नहीं, जल्लाद हैं, जो अपने मंदिरों पर बलि को प्रमुखता देते हैं और जीवों की बलि चढ़ाते हैं। वहाँ कभी किन्हीं देवी-देवताओं का वास हो ही नहीं सकता, जहाँ निरीह प्राणियों की बलि चढ़ाई जाती है। अत: बलिप्रथा से अलग हटो।

 धर्मक्षेत्र में तीन प्रकार की बलि कही गईं हैं कि यदि बलि देना है, तो उन तीन प्रकार की बलियों को दो। एक है बाह्य बलि, जिसमें हम भोज्य पदार्थों को समर्पित करते हैं, उसे भी बलि कहा गया है। फल, फूल, मिष्टान्न, नारियल, धन-दौलत तथा भौतिक जगत् में जो संसाधन हमारे पास हों, उसे बलि के रूप में हम समर्पित करते हैं। दूसरी है अन्तर्बलि, जिसमें अपने विषय-विकारों की बलि चढ़ाई जाती है। यदि अन्तर्बलि चढ़ाना है, तो अपने विषय-विकारों की बलि चढ़ा दो, अपने अवगुणों की बलि चढ़ा दो कि हे ‘माँ’, हे इष्ट, आज से मैं अपने विषय-विकारों की बलि आपके चरणों पर चढ़ा रहा हूँ और जो एक बार समर्पण कर दिया, वह गलती दोबारा नहीं करूंगा। तीसरी बलि, जो सबसे श्रेष्ठ बलि कही गई है, वह है आत्मबलि। अपनी आत्मा का समर्पण कर देना ही आत्मबलि कहलाता है कि हे ‘माँ’, यह आत्मा आपकी दी हुई है, इसलिए यह आत्मा आपको समर्पित है और आज के बाद इसमें मैं अपनी ओर से कोई अवगुण प्रवेश नहीं करने दूंगा। यह आत्मा आपकी है और आप इसको जिस तरह से चलाना चाहती हैं, मैं उसी तरह से चलूंगा तथा जिस तरह से चलाने के लिए आपने मेरा निर्माण किया है, इन्सानियत के लिए निर्माण किया है, तो मैं इन्सान बनकर दिखाऊंगा। यह आपका संकल्प होना चाहिए और जिस दिन यह संकल्प ले लोगे, वही तुम्हारी असली बलि कहलायेगी।

तुम्हें शीश चढ़ाने की ज़रूरत नहीं है, फल-फूल चढ़ाओ, अपने विकारों को समर्पित करो कि मैं नशा करता हूँ, लेकिन आज के बाद मैं नशा नहीं करूंगा, मैं विकारी जीवन जीता था, मगर आज के बाद से विकारी जीवन नहीं जिऊंगा। मैंने अपनी उस इष्ट के सामने आत्मसमर्पण कर दिया है, अब मेरा कोई भी अस्तित्व नहीं है और अब मैं उनका दास हूँ, उनका सेवक हूँ और वे जिस तरह मुझे चलाना चाहती हैं, उस सत्य के मार्ग पर मैं चलूंगा।

‘माँ’ कभी भी किसी को असत्य के मार्ग पर नहीं चलाना चाहती हैं। एक ठोस निर्णय लेकर उस सत्य की तरफ बढ़ो, मगर आज समाज में बलिप्रथा के रूप में ऐसी कुप्रथा फैली हुई है कि समाज सोच ही नहीं पाता। अत: इन गलत न्यूनताओं से ऊपर उठो, ये बलियाँ तुम्हारा हित नहीं करेंगी। बच्चा हुआ तो बलि चढ़ाओ, शादी हुई तो बलि चढ़ाओ, नवरात्र हो तो बलि चढ़ाओ! इन अपराधों से बचो, तभी तुम्हारे घर में सुख-शान्ति और समृद्धि आयेगी।

 समाज बिखरता जा रहा है, किन्तु कलिकाल कितना ही क्यों न व्याप्त हो, जिस तरह सूर्य के प्रकाश से अंधकार छंट जाता है, भाग जाता है, तो अंधकार का तो वास्तविकता में कोई अस्तित्व है ही नहीं, बल्कि अंधकार वहीं है, जहाँ प्रकाश नहीं है। यदि किसी का अस्तित्व किसी दूसरे के आने से समाप्त होजाता हो, तो वास्तविकता में उसका कोई अस्तित्व था ही नहीं। हज़ारों वर्षों से किसी कालकोठरी में अंधेरा क्यों न व्याप्त हो, एक छोटा सा सुराख कर दो, प्रकाश की एक किरण वहाँ गई नहीं कि अंधकार वहाँ से दूर भाग जाता है। उसी तरह इस कलिकाल का अस्तित्व है ही नहीं, बस तुमने जिस दिन से अपने विचार बदल लिये, इस कलिकाल का अस्तित्व समाप्त हो जायेगा।

इस कलिकाल के अंधकार को भगाने के तीन मार्ग हैं- तप, सेवा और अपने विचारों को बदलकर चरित्रवान् जीवन जीना। यही मार्ग है कि तप करो, तप से अंधकार अपने आप छंटता चला जायेगा तथा तुम्हारे अन्दर जो विकार पैदा हुए हैं, तुम्हारे अन्दर विचारों का जो भटकाव है, वह तप से छंट जाएगा। परोपकार करो, सेवा करो। तुम्हारे पास सामथ्र्य आ जाये, तो अपने आसपास के अंधकार को मिटाओ, जिस तरह से प्रकृति करती है कि सूर्य हमें प्रकाश देता है, अंधकार को मिटाता है, वायु हमें जीवन देती है, अर्थात् जो जिसके पास है, वे दूसरों को लुटा रहे हैं। पेड़-पौधे, फल-फूल, सब कुछ मानवता के लिए समर्पित हैं। अत: तप करो, त्याग की भावना अपने अन्दर रखो, विकारों से मुक्त जीवन जियो, परोपकार करो, मानवता की सेवा करो, समाज से कलिकाल अपने आप भाग जायेगा।

तुम तपस्वी बनोगे, तो निश्चित ही तुम्हारे बच्चे भी तपस्वी पैदा होंगे। तुम मानवता की सेवा करोगे, तो मानवता में परिवर्तन निश्चित रूप से आयेगा। हमें यह सोचने की ज़रूरत नहीं है कि कलिकाल किस तरह व्याप्त है? हम जहाँ खड़े हैं, केवल वहीं से शुरुआत कर दें। सबसे पहले सेवा के माध्यम से विकारमुक्त होकर अपने अन्दर के कलिकाल को मिटा दें और सबकुछ सम्भव है, बस आपको आगे बढ़ना पड़ेगा। यही एकमात्र मार्ग है और दूसरा कोई मार्ग है ही नहीं। हमें उस मार्ग पर चलना ही पड़ेगा। इसलिए मेरे द्वारा कहा गया है कि यदि कलिकाल को भगाना है, तो सबसे पहले अपने बच्चों से शुरुआत करो, अपने स्वयं से शुरुआत करो।

बच्चों के लिए हर माता-पिता के मात्र तीन कर्तव्य हैं और उन तीन कत्र्तव्यों के अलावा चौथा कर्तव्य है ही नहीं। सबसे पहला कर्तव्य है उनके स्वास्थ्य का चिंतन करना कि वे स्वस्थ हों, रोगी न बनें। दूसरा कर्तव्य है उनकी शिक्षा की तरफ ध्यान देना कि वे अनपढ़ न हों तथा अच्छी शिक्षा प्राप्त कर सकें।

तीसरा कर्तव्य है बच्चों को धर्माचरण का पाठ पढ़ाना और ये तीनों एकसाथ चलते हैं। यह नहीं कि हम एक उम्र तक यह करेंगे, फिर दूसरी उम्र तक वह करेंगे। इसके अलावा न उनको धनवान बनाने की आपकी जि़म्मेदारी है, न कोई और जि़म्मेदारी है। केवल इन तीन कत्र्तव्यों पर ध्यान दे दो और मेरा मानना है कि वह बच्चा कभी असमर्थता का जीवन नहीं जी सकता। यदि वह बच्चा स्वस्थ होगा, वह बच्चा शिक्षित होगा, तो वह अपना क्या, हज़ारों-हज़ार दूसरों का भी कल्याण करता चला जायेगा। उस दिशा में कार्य करके देखो।

यदि आपका बच्चा धार्मिक होगा, तो अधर्म उसके आसपास भी नहीं फटक सकेगा, मगर आज तीनों कत्र्तव्यों को निभाने में हर माता-पिता असफल हो रहे हैं। बच्चों के स्वास्थ्य की तरफ नहीं देखा जाता और कहेंगे कि हाँ बेटा, चॉकलेट अच्छी लगती है, तो बस चॉकलेट पर चॉकलेट खिला रहे हैं, नमकीन अच्छी लगती है, तो नमकीन खिला देंगे। दाल-चावल, सब्जी-रोटी नहीं खिलाएंगे, लेकिन ब्रेड अच्छी लगती है, तो ब्रेड खिला देंगे, पिज्जा-बर्गर अच्छे लगते हैं, तो पिज्जा-बर्गर खिला देंगे! क्या तुम कभी उनके स्वास्थ्य के बारे में सोचते हो कि जो भोजन तुम उन्हें दे रहे हो, क्या उससे उन्हें आवश्यक विटामिन्स मिलेंगे? तुम बचपन से ही अपने बच्चों को गलत आदतों में डाल देते हो!

प्रारम्भ से ही अपने बच्चों को शुद्ध, सात्विक, पौष्टिक भोजन दो और जो भोजन विटामिन्स से युक्त हो, उसके लिए प्रेरित करो, उनका ध्यान उसी तरफ आकर्षित करो। वे जैसा भोजन करेंगे, उनके अन्दर वैसे ही विचार बनते चले जायेंगे। उन्हें आलसी और अकर्मण्य बनने से बचाओ। जब स्वास्थ्य की बात आती है, तो समय के साथ उनकी प्रत्येक क्रिया पर ध्यान रखो कि बच्चा कितनी देर सोता है, कितनी देर जगता है, कितनी देर टीवी देखता है और कितनी देर क्या करता है? इन सब चीजों पर सजग रहना है, मगर आज हर माँ-बाप का यही सिलसिला है कि वे सुबह उठेंगे और देखेंगे कि बेटा सो रहा है, उसे ठंड लग रही है, तो अपनी रजाई भी उसके ऊपर डाल देंगे कि बेटा थोड़ी देर और सो ले! ऐसा लगता है कि इतना प्रेम करते हैं कि उनसे ज़्यादा प्रेम करने वाले दूसरे और कोई माँ-बाप नहीं होंगे। जबकि, होना यह चाहिए कि सूर्योदय से पहले बच्चों को जगा देना चाहिए। मेरे सामने मेरी बेटियाँ पूजा, संध्या, ज्योति बैठी हुईं हैं, मैंने दो महीने की उम्र के बाद उन्हें कभी छूट नहीं दी और हमेशा सूर्योदय से पहले उन्हें स्नान कराता था। पूजा की दो महीने से भी छोटी बच्ची है, उसे भी सूर्योदय से पहले स्नान करवाता हूँ।

ब्रह्ममुहूर्त में स्नान करने से बच्चे स्वस्थ रहते हैं। जब तुम सुबह सात-आठ बजे तक बच्चों को सोने दोगे, तो फिर उन्हें सर्दी पकड़ेगी, किसी को खांसी आयेगी, किसी के फेफड़े कमज़ोर होंगे और वे कमज़ोरी के शिकार होते चले जाते हैं। बच्चों को सूर्योदय के समय कभी मत सोने दो। भले ही सूर्योदय के बाद वे दो-चार घण्टे आराम करलें, लेकिन पहले उन्हें समय पर जगाओ और समय पर स्नान कराओ। जब बच्चे थोड़े बड़े होजायें, तो उन्हें अपने साथ पूजा-पाठ में बिठाओ, उन्हें अच्छी बातें सिखाओ। बच्चों की प्रथम पाठशाला उनका घर और प्रथम शिक्षक माता-पिता ही होते हैं, मगर होता क्या है कि यदि बच्चे ने एक गाल में तमाचा मारा, तो पास में बैठी हुई माँ हंसते हुए कहती है कि पापा के दूसरे गाल पर भी मारो और यदि उसने माँ को मारा होगा, तो पिता बोलेगा कि हाँ बेटा, एक तमाचा और मार दो। जबकि, होना यह चाहिए कि जिस दिन बच्चा पहला हाथ उठाए, तो जितनी ताकत से उसने तुम्हें मारा हो, उससे दुगुनी ताकत से तुम उसे मार दोगे, तो बच्चा दुबारा हाथ नहीं उठाएगा।

एक कुम्हार की तरह, कि जिस तरह वह एक घड़े का निर्माण करता है कि ऊपर से घड़े को पीटता है, लेकिन एक हाथ अन्दर से संभालने के लिए भी लगाए रहता है। इसलिए नहीं कि उसे क्रोध में पीट रहा है, बल्कि इसलिए कि उसके अवगुणों को सुधारना है। अन्यथा बच्चे किशोरावस्था तक आते ही माँ-बाप को गाली-गलौच करने लगते हैं। अनेक माता-पिता मुझसे मिलने आते हैं, तो कहते हैं कि गुरुजी, हमारा बेटा हमको गाली देता है और जब मैं पूछता हूँ कि उसकी उम्र क्या है? तो वे बताते हैं कि वह छठवीं में पढ़ता है, सातवीं में पढ़ता है। पांचवीं, छठवीं, सातवीं में पढ़ने वाले बच्चे अपने माता-पिता का कहना ही नहीं मानते, बल्कि माता-पिता को डंडा मारते हैं, गाली देते हैं! यह सब इसलिए हो रहा है, क्योंकि उन बच्चों को शुरुआत से वैसी शिक्षा ही नहीं दी गई।

 बच्चों को अच्छी शिक्षा दो, उन्हें ज्ञान दो, उन्हें प्रेम करो, उन्हें आत्मीयता का स्थान दो और उन्हें समझाओ। उनका एक मिनट भी बेकार न जाये और यदि आप अपने बच्चों के पास बैठे हो, तो खेल-खेल में उनको अच्छी बातें बताओ, अच्छी क्रियायें कराओ। आपने उन्हें अच्छा स्वास्थ्य और अच्छी शिक्षा देने के साथ ही यदि उन्हें धर्मवान व कर्मवान बना दिया, तो उनके लिए आपको एक भी पैसा जोड़ने की ज़रूरत नहीं है। उनके लिए मकान भी नहीं बनाओगे, तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा। मेरा मानना है कि जिनके पास ये तीनों सामथ्र्य हैं, वे अपने जीवन के हर क्षेत्र में स्वयं सामथ्र्यवान बन करके खड़े हो जायेंगे। इसीलिए कहा गया है कि ‘पूत सपूत तो का धन संचय, पूत कपूत तो का धन संचय।’ यदि वह सपूत है, तो जितने कदम आगे तुम बढ़े हो, वह तुमसे भी दस कदम आगे बढ़ जायेगा और यदि कपूत है, तो भले ही आप बड़े-बड़े महल खड़े कर दोगे, वह उनको भी एक दिन बेच डालेगा।

यह सब अपने जीवन में अमल करो। मैंने स्वत: उस तरह का जीवन जिया है। मैंने भी अपनी बच्चियों को संस्कार दिये हैं और मैंने उनका पूरा जीवन मानवता की सेवा में लगाया है कि अपने कर्म से उपार्जित धन से ही अपना जीवकोपार्जन करो तथा समाज के दिए गए पैसे से अपना जीवकोपार्जन मत करना, अनीति-अन्याय-अधर्म के पैसे से अपना जीवकोपार्जन मत करना और पूरा जीवन मानवता को समर्पित करना। तुम भी अपने बच्चों को यह शिक्षा दे सकते हो। अपने बच्चों को अच्छे विचार दो, अच्छी शिक्षा दो, तभी सच्चे मन से ‘माँ’ की भक्ति कर सकोगे और तभी घर में शान्ति रहेगी।

‘माँ’ की भक्ति करना बहुत सहज है। अपने आचार, विचार, व्यवहार में परिवर्तन कर लो, खानपान में परिवर्तन कर लो, फिर सच्चे मन से ‘माँ’ के चरणों पर बैठकर देखो, तुम्हारा मन सहजभाव से लग जायेगा। तुम कहते हो कि हम पूजा-पाठ में बैठते हैं, तो हमें आलस्य लगने लगता है, नींद आने लगती है, जबकि वास्तव में तुम अपने मन को एकाग्र करके बैठते ही नहीं हो। तुम्हारा स्वभाव दो चीज़ों में परिवर्तित है- या तो जागते रहते हो या थोड़ा सा विश्राम का भाव आया नहीं कि तुम्हें नींद आ जाती है, चूंकि तुम्हारी कोशिकाएं दो भावों से जुड़ चुकी हैं। जब तुम पूजन-पाठ में बैठकर मन को शान्त करने का प्रयास करते हो, तो नींद हावी होजाती है। ये शरीर के गुण हैं- जाग्रत् अवस्था, निद्रावस्था, मूर्छावस्था और ध्यान की अवस्था। इस तरह की अनेक अवस्थाएं होती हैं, जो आप पर प्रभाव डालेंगी, मगर यदि आप निष्ठा, विश्वास, लगन से चैतन्य होकर बैठो, तो मेरा मानना है कि नींद नहीं आयेगी। जब कभी आपकी नींद पूरी नहीं होती, तो थोड़ा-बहुत आलस्य किसी को भी आ सकता है।

सबके अन्दर सामथ्र्य है, केवल उसका उपयोग करने की ज़रूरत है। एक चोर पूरी रात जागकर ताकता रहता है कि किसी घर में किस तरह से घुसकर चोरी करना है। उसको तो नींद नहीं आती और वह पूरी रात जागता रहेगा तथा अवसर मिलते ही चोरी करके चला जाता है। एक चोर कुछ भौतिक वस्तुओं को प्राप्त करने के लिए अपनी नींद पर काबू पा लेता है और तुम्हें तो परमसत्ता का वह धन प्राप्त करना है, जो सदा तुम्हारा साथ देगा। उस परमसत्ता के परमधन के लिए क्या तुम चैतन्य होकर नहीं बैठ सकते, जाग्रत् अवस्था में नहीं बैठ सकते?

जड़ प्रेम के लिए, नाशवान शरीर के लिए प्रेमी-प्रेमिका पूरी रात एकान्त स्थान में रहेंगे, लेकिन उन्हें नींद स्पर्श नहीं कर सकेगी और तुम उस अजर-अमर-अविनाशी परमसत्ता से इतना भी प्रेम नहीं कर सकते हो? हमारा तो वह अटूट प्रेम होना चाहिए कि जब हम परमसत्ता के चरणों में बैठें, अपने पूजन स्थान में बैठें, तो अपने आपको दुनिया का सबसे बड़ा सौभाग्यशाली मानें कि परमसत्ता की यह कृपा है कि मैं परमसत्ता से प्रेम करता हूँ, परमसत्ता मुझसे प्रेम करती हैं, परमसत्ता मुझे सौभाग्य प्रदान कर रही हैं, परमसत्ता का आशीर्वाद मुझे हरपल प्राप्त हो रहा है, उनकी कृपा से मैं चल रहा हूँ, बोल रहा हूँ, श्वासें ले रहा हूँ तथा आज मेरी जो भी सामथ्र्य है, ‘माँ’ आपकी कृपा से है। नींद आपसे कोसों दूर हो जायेगी, केवल वे भाव लेकर एक बार पूजन स्थान में बैठो तो, मन को एकाग्र तो करो। वह जगत् जननी हमें इतना बड़ा सौभाग्य देती हैं, जो अनन्त लोकों की जननी हैं, वह परमसत्ता हमें पूजा-पाठ का ज्ञान देती है, उस परमसत्ता ने हमारे घर में पूजन का स्थान बनवा करके रखा है, वह परमसत्ता कुछ न कुछ अपने चरणों की ओर खींच रही हैं, उस परमसत्ता ने हमें कुछ मंत्र दे रखे हैं, हमें ध्यान की क्रिया दे रखी है। क्या उस परमसत्ता से हम प्रेम नहीं कर सकते? वह हमारी आत्मा की जननी हैं, एक बार अबोध बन करके देखो, ‘माँ’ की सच्ची भक्ति करके देखो, तुम्हारे अन्दर अबोध भाव ही तो नहीं आ पा रहा है कि उस भावभूमि पर खड़े होजाओ।

मेरे द्वारा कहा जाता है कि छह महीने, साल भर के बच्चे को देखो कि वह अपने माता-पिता की गोद से दूर नहीं होना चाहता। अच्छी से अच्छी खाने-पीने की चीज़ें लाकर रख दो, बड़े से बड़े खिलौने लाकर दे दो, मगर माता की गोद से दूर करके देखो, तो वह उनसे कभी दूर नहीं होगा, बल्कि और लिपट जायेगा। एक बच्चे को दो-चार घण्टे के लिए माता-पिता से दूर करके देखो और फिर उसके बाद उसे माता-पिता के सामने लाओ, तो वह उनसे मिलने के लिए तड़प उठेगा, दौड़ पड़ेगा और उनसे लिपट जायेगा। वह प्रेम, वह स्नेह तुम्हारे शरीर का ही तो है, फिर तुम्हारे अन्दर वह प्रेम क्यों नहीं है? सालभर के छोटे बच्चे में इतना ज्ञान है, सालभर के बच्चे की कोशिकाएं इस तरह कार्य कर रही हैं और तुम अपने आपको युवा मानते हो, बड़ा मानते हो, ज्ञानवान मानते हो, लेकिन तुम्हारी आत्मा की जो जननी हैं, तुम उनसे इतना भी प्रेम नहीं कर सकते, जितना एक अबोध शिशु करता है!

यदि तुम्हें वेदों, उपनिषदों, शास्त्रों का ज्ञान नहीं है, तो कम से कम सच्चे मन से हाथ जोड़कर ‘माँ’ के चरणों पर बैठो कि हे ‘माँ’, हम आपकी कृपा से जीवन जी रहे हैं, हमारे शरीर का एक-एक अंग आपकी कृपा से कार्य कर रहा है, हमें इतना विशाल मस्तिष्क दिया, हमें भुजाएं दीं, चलने के लिए पैर दिए, हृदय दिया, समाज में हम जो भी व्यवहार करते हैं, ये सब ‘माँ’ आपकी कृपा से हमें प्राप्त हुए हैं। हे ‘माँ’, हमारा यह जीवन हरपल आपका ऋणी है कि आपने हमें जो कुछ दे रखा है, इसके बाद हमारे पास मांगने के लिए गुंज़ाइश ही नहीं है और हम आपसे मांगें, तो क्या मांगें? हे ‘माँ’, यदि आप हमें कुछ और देना ही चाहती हो, यदि आप हम पर प्रसन्न हो, यदि आप हमारी न्यूनता से किए हुए पूजन से संतुष्ट हो, अपने कृपालु स्वभाव से आप प्रसन्न हो, तो हे ‘माँ’ हमें अपनी भक्ति दे दो, हमें अपना ज्ञान दे दो, हमें अपनी आत्मशक्ति प्रदान कर दो। यह आत्मा, जो आपकी आत्मा है, उससे भी हम अज्ञान हैं, उससे भी हम बहुत दूर चले गए हैं। हे ‘माँ’ हमें आत्मा की वह शक्ति प्रदान कर दो।

 एक बार ‘माँ’ के चरणों पर सच्चे मन से प्रार्थना तो करो, सच्चे मन से स्तुति तो करो। जिस समय दुर्गाचालीसा का पाठ कर रहे होते हो, उस समय एक-एक लाइन में अपने मनमस्तिष्क को एकाग्र करके तो देखो। एक दुर्गाचालीसा पाठ आपको बहुत बड़ी तृप्ति दे देगा, बहुत बड़ी शान्ति दे देगा और यही शान्ति व ध्यान की अवस्था ही आपकी सुषुम्ना नाड़ी को चैतन्य बना देती है। ‘माँ’ और ॐ जैसे सशक्त बीजमंत्र आपकी सुषुम्ना नाड़ी का मंथन करने के लिए आपको दिए गए हैं। इनका नित्यप्रति अभ्यास करो। सामूहिक भी या कभी भी एकान्त में बैठकर इन बीजमंत्रों का उच्चारण कोई भी करके देख ले, जो बिल्कुल पूजा-पाठ को न मानता हो, देवी-देवताओं को न मानता हो, वह अपने आपको तो मानता है। शान्तचित्त होकर वह कहीं भी बैठ जाए और एक बार ॐ का एवं एक बार ‘माँ’ का क्रमिक उच्चारण करता रहे, पाँच मिनट उच्चारण करे, तो वह देखेगा कि उसका मन एकाग्र होगा, उसका आज्ञाचक्र एकाग्र होगा।

आज्ञाचक्र कुण्डलिनीचेतना का राजाचक्र कहलाता है, उस राजाचक्र की शरण में आ जाओ, यह आपकी अपनी आत्मा का चक्र है, यह मूलचक्र है, यह सत्य का चक्र है। यह अधर्मी-अन्यायी राजाओं के समान नहीं है कि उनकी शरण में जाने से वे आपका शोषण करते हैं। यह आपकी आत्मा को परमसत्ता का दिया हुआ चक्र है और जो सच्चे राजा की शरण में आ जाये, उसका पतन कभी हो ही नहीं सकता। कुछ क्षणों के लिए आज्ञाचक्र की शरण में जाओ, यह कुण्डलिनीचेतना का सबसे सशक्त चक्र है। तुम्हें अन्य किसी चक्र के बारे मे सोचने की ज़रूरत नहीं है, केवल आज्ञाचक्र पर मन को एकाग्र करके देखो।

तुम्हें देवी-देवताओं का ध्यान नहीं आता, गुरु का ध्यान नहीं आता, मत आने दो। मंत्र जाप करते-करते मंत्र रुक जाये, तो कुछ गलत नहीं है। गुरु का ध्यान करते-करते गुरु का ध्यान रुक जाये, तो कोई अपराध नहीं है। ‘माँ’ का ध्यान करते-करते ‘माँ’ का ध्यान रुक जाये, तो कोई अपराध नहीं है। आत्मतत्त्व, गुरुतत्त्व और परमतत्त्व, तीनों एक समान होते हैं। अपने आपको विचारशून्य करना ही तुम्हारी सच्ची साधना है। ध्यान की गहराई में डूबने का प्रथम चरण यही है कि बस मन को विचारशून्य कर लो, आज्ञाचक्र पर मन को एकाग्र करो। यदि नित्यप्रति अभ्यास करोगे, तो अभ्यास करते-करते आप देखोगे कि यही चक्र प्रभावक हो जायेगा। इसकी कार्य करने की क्षमता बढ़ जायेगी, सोचने-समझने की क्षमता बढ़ जायेगी और यह आज्ञाचक्र ही आपके नीचे के मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्ध चक्रों को ऊपर खींच लेगा और आपकी सुषुम्ना नाड़ी चैतन्य होने लगेगी। यह सब कुण्डलिनीचेतना का बहुत बड़ा क्रम है।

आज तक हज़ार में से नौ सो निन्यानवे साधु-सन्त-संन्यासी कुण्डलिनीचेतना के ज्ञान से विहीन हैं। उन्हें ज्ञान ही नहीं है कि कुण्डलिनीचेतना को किस तरह से जाग्रत् किया जाता है, कुण्डलिनीचेतना का स्वभाव क्या है? जब कुण्डलिनीचेतना जाग्रत् होती है, तो हमारी कार्यप्रणाली में क्या परिवर्तन आता है, हमारे स्वभाव में क्या परिवर्तन आता है, हमें कौन-कौन सी शक्तियों की प्राप्ति होती हैं तथा उन शक्तियों का हमें किस प्रकार से उपयोग करना चाहिए? अज्ञानता के अंधकार में सब डूब चुके हैं। आपके पास परमसत्ता ने इतनी दिव्य शक्तियाँ दे रखी हैं, किन्तु उन दिव्य शक्तियों का तुम उपयोग ही नहीं करना चाहते। आत्मा की जो मुख्य शक्तियाँ हैं, उन शक्तियों पर हरपल ध्यान रखो और जो विकारात्मक महामारियाँ हैं, उनसे बचो तथा जो आत्मा की शक्तियाँ हैं, उनको चैतन्य करने में लग जाओ, उनका सदुपयोग करने लगो, तो तुम्हारा कल्याण सुनिश्चित है।

आत्मा की शक्तियों के बारे में भी मैंने बताया है कि आत्मा की सबसे बड़ी शक्ति है प्राणशक्ति। अपनी प्राणचेतना को चैतन्य करो। यदि आत्मा की ऊर्जा को हासिल करना चाहते हो, तो प्राणशक्ति को जाग्रत् करना पड़ेगा, प्राणों में अपनी पकड़ को हासिल करना पड़ेगा। आज आपकी प्राणशक्ति दबती जा रही है। एक छोटा बच्चा जब लेटा हुआ हो, तो उसको देखो कि जब वह श्वास लेता है, तो उसके फेफड़े ऊपर-नीचे चलते हुए दिखाई देते हैं और आप जैसे-जैसे बड़े होते हो, आपके श्वास लेने की शक्ति क्षीण होने लगती है, आपके फेफड़े कार्य नहीं करते, आपको पता ही नहीं चलता कि श्वास अन्दर जा रही है कि नहीं जा रही है। आपको गले तक अहसास होता है और आधी श्वास वहीं भरी रहती है एवं आधी श्वास निकलती रहती है और इसलिए आप कमज़ोर होजाते हो। पचास-साठ वर्ष की उम्र की आपकी अवस्था हुई और यदि थोड़ा सा चलते हो, तो थक जाते हो, अपने आपको कमज़ोर मान लेते हो, क्योंकि आपने अपने प्राणों में पकड़ हासिल ही नहीं की है।

सतत सजग रहो कि हरपल मुझे गहरी श्वास लेनी चाहिए और यदि अभ्यास नहीं बनता, तो नित्यप्रति प्राणायाम के लिए कुछ देर बैठो और कुछ नहीं करना है, बस जितनी गहरी श्वास भर सकते हो, भरो और धीरे-धीरे करके उसे बाहर निकाल दो। जैसा तुमसे बने, एक सहज अभ्यास करो, चलते-फिरते करो कि जब भी श्वास भरो, तो गहरी श्वास भरो और धीरे-धीरे बाहर निकालो। आप देखते होगे कि जब समतल स्थान में चल रहे होगे, तो आपको ज़्यादा श्वास लेने की ज़रूरत नहीं पड़ती, लेकिन यदि आप किसी पहाड़ की ऊंचाई चढ़ने लगो, सीढिय़ों को चढ़ने लगो, तो आप गहरी-गहरी श्वासें लेने लगोगे। शरीर आपका सहज भाव से कार्य करने लगता है तथा आपका अभ्यास भी नहीं है, तो भी आपका शरीर प्रयास करता है कि ज़्यादा ऑक्सीजन और प्राणचेतना को लूंगा, तो मेरी थकावट दूर हो जायेगी। अत: उसी का नित्यप्रति अभ्यास करो।

अपनी कोशिकाओं को हरपल चैतन्य बनाकर रखो, तो आपका हृदय अच्छी तरह से कार्य करता रहेगा। प्राणचेतना में ये जो प्राण हमारे अन्दर हैं और जो हम ऑक्सीजन लेते हैं, इनका बहुत गहरा संबन्ध है। जो हम ऑक्सीजन लेते हैं, उसके माध्यम से एक-एक श्वास में हमारे शरीर में असंख्य चेतनाएं प्रवेश करती हैं, चूंकि कण-कण में वह चेतना व्याप्त है। एक भी ऐसा कण नहीं है, जिसमें उस परमसत्ता की असंख्य शक्तियाँ व्याप्त न हों और हमारी मूल आत्मा को वे हरपल चैतन्य बनाती रहतीं हैं। जब हम श्वास लेते हैं, तो यह श्वास हमारी सामान्य श्वास नहीं है, इस श्वास में जाती है एक चेतना, जो हमारी सभी कोशिकाओं को चार्ज करती है, हमारे प्राण के साथ मिलकर हमारी चेतना को और भी ज़्यादा बलवान बना देती है। अत: प्राणों में अपनी पकड़ हासिल करो। 

प्राणशक्ति के बाद अपनी बौद्धिक क्षमता का विकास करो। आत्मा की दूसरी शक्ति बुद्धि होती है। जब भी आप कोई गलत काम करने वाले होते हो, तो अन्दर से एक आवाज़ उठती है, उस आवाज़ को सुनना सीखो। वह आवाज़ तुम्हें बताती है कि क्या करना है और क्या नहीं करना है? अपनी बुद्धि को सतोगुणी बनाओ, उसकी आवाज़ को सुनो और उस आवाज़ को सुनने लगोगे, तो तुम्हारी बौद्धिक क्षमता मज़बूत होगी। प्राण की शक्ति, बुद्धि की शक्ति और मन की शक्ति। लोग कहते हैं कि मन बड़ा चंचल होता है, मगर मेरा मानना है कि मन से बड़ा सशक्त हथियार मनुष्य के पास दूसरा कोई नहीं है, चूंकि तुमने उसको स्वतंत्र छोड़ रखा है, इसलिए मन विकारी हो गया है। किसी को भी स्वतंत्र छोड़ दोगे, तो यही होगा। तुमने अपने बच्चों को स्वतंत्र छोड़ दिया, तो बच्चे विकारी बन गए, बच्चे तमोगुणी बन गए। इस मन पर बुद्धि का अंकुश लगाओ और बुद्धि इसीलिए दी गई है।

मन एक सशक्त माध्यम है और मन जहाँ लग जाये, तो वह सबकुछ प्रदान कर सकता है। ‘माँ’ की भक्ति करने के लिए, सत्कर्म करने के लिए, किसी से प्रेम करने के लिए मन ही तो एक बड़ा अस्त्र है। मन को सतोगुणी बना डालो, मन का उपयोग करना शुरू कर दो, मन को सत्य के कार्यों में लगाओ, परोपकार के कार्यों में लगाओ, मन आपके अनुसार चलने लगेगा, मन आपको शक्ति देने लगेगा, मन आपको प्रेरणा देने लगेगा। अत: आपका यह कर्तव्य है कि मन की शक्ति पर लगाम लगाओ, इसका दुरुपयोग मत होने दो, मन को चंचल मत बनने दो, उसकी चंचलता का उपयोग सतोगुणी प्रवृत्ति में कर डालो। अत: आप मन का पूरा उपयोग करो।

मन के बाद आती है तन की शक्ति। परमसत्ता ने तुम्हें यह तन दिया है। यह नाशवान है। आज तुम तन के गुलाम बन गए हो। साधु-सन्त-संन्यासी कहते हैं कि ‘माया महाठगिनी मैं जानी’ और मेरे द्वारा कहा जाता है कि ‘काया महाठगिनी मैं जानी’। यह काया तुमको ठग रही है। बचपन से युवावस्था में आते ही आप उसका उपयोग नाना प्रकार के विषय-विकारों में करते हो। अपने अलावा किसी को देखना और समझना ही नहीं चाहते हो कि अब मैं ही सामथ्र्यवान हूँ, मैं बलवान हूँ! शरीर आपको आलस्य व जड़ता की ओर ले जाता है, आप उधर चले जाते हो। शरीर सोना चाहता है, तो उसको सोने देते हो। शरीर नशा करना चाहता है, तो उसे नशा करने देते हो। शरीर अच्छे-अच्छे मिष्टान्न, पकवान्न की चीज़ें खाना चाहता है, तो उसे खिलाते रहते हो। तुम शरीर के गुलाम बन चुके हो।

यदि सही मायने में तुम सजग इन्सान हो, तो शरीर के गुलाम मत बनो। इस शरीर को तुम ठग डालो और इस शरीर को तुम्हें मत ठगने दो। इस शरीर को यह सोचकर भोजन कराओ कि इसे स्वस्थ बनाकर इसके द्वारा अच्छे कर्म करूंगा। मुझे आलस्य नहीं आने देना है, बल्कि इस शरीर का उपयोग कर डालना है। इस शरीर को खिलाओ प्रेम से और उपयोग करो शत्रु मानकर। यह विचार होना चाहिए कि यदि अभी तक चार घण्टे परिश्रम करता था, तो अब आठ घण्टे परिश्रम करूंगा। एक न एक दिन तो यह शरीर हमसे छूट ही जायेगा, तो क्यों न मैं इसका भरपूर उपयोग कर लूँ तथा इसे आलसी मत बनने दूं, इसे अकर्मण्य मत बनने दूँ और मुझे इसको कर्मवान बनाना है, मुझे इसका उपयोग करना है। मुझे ‘माँ’ ने इस शरीर को एक पूंजी के रूप में दिया है कि मैं इस शरीर का भरपूर उपयोग करूं। आपका गुरु भी यही कार्य करता है।

पच्चीसों वर्षों से मेरे साथ रहने वालों ने देखा है कि मैं ढाई से तीन घण्टे की नींद लेता हूँ तथा चौबीस घण्टे में तीन घण्टे से ज़्यादा मेरी नींद नहीं होती। आश्रम के प्रारम्भिक निर्माण के ग्यारह-बारह वर्षों में तो मैंने मात्र दो-ढाई घण्टे की ही नींद ली है, फिर भी स्वस्थ रहता हूँ। केवल विचारों को बदल डालो, क्योंकि विचार ही आपको शक्ति देंगे और यदि मन आपके वशीभूत होगा, बुद्धि आपके वशीभूत होगी, तो आत्मचेतना आपके शरीर का उपयोग करने की सामथ्र्य दे देगी। आपके पास तो ऐसी सामथ्र्य है कि जब आपका अन्नमयकोष कार्य ही नहीं करता, तो प्राणमयकोष जाग्रत् होने लगता है और आपके शरीर की ऊर्जा सक्रिय होजाती है, कार्यक्षमता बढ़ने लगती है। आप आधे घण्टे की नींद में ही अधिक ऊर्जा हासिल कर लोगे और यदि गधों की तरह पड़ करके सोना है कि आठ घण्टे-दस घण्टे लेटे हैं, सूर्योदय हो रहा है, करवट पर करवट बदल रहे हैं, फ्रेश होने जाना है, लेकिन बाथरूम नहीं जाना चाहते हैं, बस लेटे रहेंगे और एक घण्टे बाद जब जगेंगे, तब बाथरूम जायेंगे!

अनेक लोग मुझसे मिलते हैं और बताते हैं कि गुरु जी पेशाब लगी रहती है, मगर हम सोते रहते हैं कि बाद में जायेंगे और पेशाब बिस्तर में ही छूट जाती है। अपना वही स्वभाव आप बच्चों का भी बना रहे हो। आपको तो रात्रि में अधिक पानी पीकर लेटना चाहिए कि लगातार यह शरीर बेसुध होकर चार-छह घण्टे के लिए न सोने पाए। यदि सोने के पहले पानी पीकर लेटोगे, तो स्वास्थ्य के लिए भी अच्छा रहेगा और रात्रि में कम से कम एक बार बाथरूम जाने के लिए भी जागना पड़ेगा तथा घर में चोरियाँ नहीं होंगी एवं घर में बड़े-बुजुर्ग सो रहे हैं, बच्चे सो रहे हैं, उनको कोई तकलीफ तो नहीं है, यह भी जान पाओगे।

यदि तुम मध्यरात्रि में पाँच मिनट के लिए जागने की आदत डाल लो, तो मध्यरात्रि में परमसत्ता का एक बार स्मरण भी हो जायेगा, घर की देखभाल भी हो जायेगी, जड़ता भी दूर हो जायेगी और जो आपकी किडनी ख़राब होती है, वह भी स्वस्थ हो जायेगी। हर व्यक्ति पानी कम पीने लगा है, जबकि सभी जानते हैं कि हमारे शरीर में सत्तर प्रतिशत तक पानी की मात्रा है। बच्चे पानी कम पीते हैं और इसी का दुष्परिणाम है कि आज वे जो भी पढ़ते या याद करते हैं, उसे आधे घण्टे बाद भूल जाते हैं। याददाश्त में बच्चे कमज़ोर होते चले जा रहे हैं। अत: इस शरीर का भरपूर उपयोग करो।

इसके बाद आती है धन की शक्ति। आपको धन-सम्पत्ति, मकान, ज़मीन-जायदाद, जो कुछ भी आपके पूर्वजों से मिला है या जो आप कमा रहे हो, इस धन का सदुपयोग करो। धन का दुरुपयोग न होने पाये, धन तुम्हारे साथ नहीं जायेगा, अत: इसका भरपूर उपयोग कर डालो। धन अपने पास उतना ही जमा करके रखो, जितना तुम्हारे लिए आवश्यक हो, अतिथियों के लिए आवश्यक हो और इससे ज़्यादा हो, तो मानवता की सेवा में लगाओ। आप महीने भर सर्विस करते हो, वेतन लेकर ऑफिस से घर के लिए निकलते हो, लेकिन कोई गारण्टी नहीं है कि आप पैसा लेकर घर तक पहुंचोगे और उसका उपयोग करोगे। रास्ते में एक्सीडेंट हो जायेगा, तो महीने भर का आपका परिश्रम व्यर्थ चला जायेगा, चूंकि आपने महीने भर परिश्रम मात्र चंद पैसों के लिए किया है और यदि आप परोपकार के लिए कदम उठाते हो, सत्कर्म करते हो तथा सत्कर्म करते-करते यदि मृत्यु भी आ गई, तो आपने जितना सत्कर्म कर लिया है, वह पूंजी आपके साथ जायेगी और नवीन जीवन में पुन: बचपन से आपके साथ होगी। अत: सत्कर्मों की पूंजी को इकट्ठा करो।

धनशक्ति के बाद आती है जन की शक्ति। आज समाज में आप अच्छा स्थान प्राप्त किए हुए हो, आपको जनबल मिलता है, आप राजनीति में हो, समाजसेवा में हो, प्रशासनिक अधिकारी हो और पूरा जि़ला आपको सम्मान देता है, तो इसका उपयोग करो। अपना मान-सम्मान बढ़ाने में इसका दुरुपयोग मत करो। उनको आत्मीयता से स्वीकार करो, उनका कल्याण किस तरह से हो सकता है, उस दिशा में अपनी शक्ति का उपयोग करो। यदि आपकी एक आवाज़ में सैकड़ों लोग चलने को तैयार हैं, तो एक आवाज़ में सैंकड़ों लोगों को मानवता के पथ पर बढ़ाओ, समाजसेवा के लिए उनको प्रेरित करो। तुम्हारा कर्तव्य यह है कि उस जनशक्ति को धर्म की रक्षा के लिए, राष्ट्र की रक्षा के लिए और मानवता की सेवा के लिए प्रेरित करो। उसका दुरुपयोग न होने पाये। मान-प्रतिष्ठा की शक्ति। यदि आपको मानसम्मान मिलता है, तो उसका उपयोग करो, दुरुपयोग मत करो। यदि इन समस्त शक्तियों को समाजसेवा में लगाने लग जाओगे, तो समाज का कल्याण अपने आप हो जायेगा।

आप यही छोटी-छोटी न्यूनता करते हो और फिर कहते हो कि हम ‘माँ’ की भक्ति करते हैं, इतने साल से हम दुर्गासप्तशती का पाठ कर रहे हैं, हम नवरात्र व्रत रह रहे हैं, लेकिन हमें कुछ फल नहीं प्राप्त हो रहा है! फल प्राप्त करना है, तो पहले अपने आपको पात्र तो बनाओ। आप किसी चलनी में दूध भरकर रखना चाहते हो, तो चलनी में दूध भरकर नहीं रखा जा सकता है। उसके लिए आपको एक ऐसा पात्र चाहिए, जिसमें कोई छिद्र न हो। इसी प्रकार आपके शरीर पर जो असंख्य छिद्र हैं, उनको धीरे-धीरे बन्द करो और जिस दिन तुम अपने उन छिद्रों को बन्द करने में सफल हो जाओगे, तो ‘माँ’ तो व्याकुल ही हैं तुम्हारा पात्र भरने के लिए। उनसे बड़ी दयामई, कृपामई, ममतामई, कृपालु तो और कोई है ही नहीं। तुम अपने आपको पात्र बनाकर तो देखो, तुम्हारा पात्र खाली रह ही नहीं सकता। अत: उस दिशा में बढ़ो। 

 यह अज्ञानता व मानसिक विकलांगता है कि मेरे यहाँ बेटे हो जायेंगे, तभी मेरा उद्धार होगा, तभी मेरा कल्याण होगा, मेरा बेटा मेरे मरने के बाद मुझे अग्नि दे देगा, तो मुझे मुक्ति मिल जायेगी, बेटा तेरहवीं व श्राद्ध के कर्म कर देगा, तो मुझे मुक्ति मिल जायेगी! समाज में यह कितनी बड़ी अज्ञानता व्याप्त है? तुम्हारे मरने के बाद यदि तुम्हारा बेटा छोटा सा पूजापाठ का क्रम करा देगा, तो तुम्हें मुक्ति मिल जायेगी? तुम्हारे अन्दर इतनी भी सोच नहीं पैदा होती कि अपने रहते ही इतने पूजापाठ के क्रम कर डालो कि तुम्हारा बेटा तुम्हारे लिए कुछ भी न करे और यदि उसकी हज़ार बार भी गरज़ हो, यदि उसे लगे कि तुम्हारा शरीर घर में पड़े-पड़े सड़ जायेगा, गल जायेगा, तो चाहे नदी में प्रवाहित कर दे, चाहे अग्नि में जला दे, चाहे चील-कौवों को खाने के लिए छोड़ दे, तुम्हें परेशान होने की ज़रूरत नहीं होनी चाहिए, चूंकि तुम्हारी मुक्ति सुनिश्चित है, यदि तुमने सत्कर्म किया है। अपने बच्चों पर क्यों आश्रित होते हो?

बेटों-बेटियों को एक समान मानकर चलो। मैं बेटों से नफरत नहीं करता, मेरे लिए बेटे-बेटियाँ एकसमान हैं, मगर मैं इस सत्य को मानता हूँ कि एक बेटा अपने माता-पिता से उतना प्रेम नहीं करता, जितना बेटियाँ अपने माता-पिता से प्रेम करती हैं। बेटियों में कोई कमी नहीं है, वे एकसमान कार्य कर सकती हैं, एकसमान चैतन्यता का जीवन जी सकती हैं, एकसमान कर्मवान बन सकती हैं, एकसमान समाज की सेवा कर सकती हैं। सती अनुसुइया, पन्नाधाय, लक्ष्मीबाई का जीवन हमारे सामने है। आज भी हम देख सकते हैं कि अनेक समाजसेवा के क्षेत्र में, राजनीति के क्षेत्र में आचार-विचारों की शुद्धता से महिलाएं बढ़ रही हैं और वे सबकुछ कर सकती हैं।

बचपन से मेरा जीवन साधनात्मक था, मगर यदि गृहस्थवाद को चिन्तन देना है, तो यदि मैं स्वयं शादीशुदा नहीं रहूंगा, तो समाज कहेगा कि गुरुजी ने तो शादी की नहीं और हमें ज्ञान दे रहे हैं। जब मैंने विवाह का निर्णय लिया, तब मैंने ‘माँ’ के चरणों पर प्रार्थना की थी कि यदि मेरे यहाँ आना है, तो दिव्यचेतनाएं कन्याओं के रूप में आयें। मैंने यदि ‘माँ’ के चरणों पर एक प्रार्थना की थी, तो अपने यहाँ कन्याओं के जन्म के लिए की थी। मैं अपने आपको इस धरती का सबसे अधिक सौभाग्यशाली मानता हूँ कि मेरे यहाँ पुत्रियों ने जन्म लिया। मैंने एक भी पुत्र की कामना नहीं की। तीन धाराओं के लिए तीन पुत्रियों की आवश्यकता थी और तीन पुत्रियों के बाद मैंने ब्रह्मचर्य व्रत का पालन किया, जो मेरे ऋषित्व का धर्म कहलाता था। हमारे अनेक ऋषि-मुनि हुए हैं, जो हर कर्म सिर्फ मानवता की सेवा के लिए करते थे, अपने जीवन को शुद्धता, पवित्रता, सात्विकता से रखते थे। मैंने स्वयं अपने जीवन को शुद्धता, पवित्रता से रखा है कि मेरी चेतनातरंगें तुम्हें नशे-मांस से मुक्त और चरित्रवान् बनाएं। आज उस दिशा में कार्य किया जा रहा है।

आज मानवता तड़प रही है, कराह रही है। सोचो, समझो और उसके लिए अपने अन्दर कुछ तो तड़प पैदा करो। मेरे द्वारा अपने शिष्यों को कहा जाता है कि जब तुम भोजन करो, तो ‘माँ’ को भोग लगाओ या न लगाओ, मुझे भोग लगाओ या न लगाओ, मगर जब पहला निवाला मुंह में लेजाओ, तो गरीबों का ध्यान कर लेना, मज़दूरों का ध्यान कर लेना, बेरोज़गारों का ध्यान कर लेना और उन घरों का ध्यान कर लेना, जिन घरों में बच्चे भूखे सोते हैं, उन्हें दो समय का भोजन नहीं मिल पाता। एक बार उनका ध्यान करके भोजन प्रारम्भ कर दोगे, तो मेरा मानना है कि तुम्हारे कदम मानवता की तरफ बढ़ने लग जायेंगे। ‘माँ’ को भोग न लगाकर तुम कोई अपराध नहीं करोगे, गुरु का ध्यान न करके, गुरु को भोग न लगाकर तुम कोई अपराध न करोगे, बल्कि गरीबों का, मानवता का ध्यान कर लेना ही मेरे लिए सबसे बड़ा भोग होगा, ‘माँ’ के लिए सबसे बड़ा भोग होगा।

मानवता तड़प रही है, कराह रही है। उनके बारे में सोचो, उनके घरों में जाकर देखो। मैं उन बच्चों एवं उनके परिवारों से मिलता हूँ और वे कितनी दयनीयता का जीवन जी रहे हैं। वे अपने बच्चों को वस्त्र नहीं पहना पाते, गर्मी में पैदल चलते हैं, तो पैर जलते हैं! अपने बच्चों को वर्ष भर में एक बार भी जूते-चप्पल नहीं पहना पाते हैं, अपने बच्चों की फीस नहीं जमा कर पाते! घर टूट रहा है, बरसात आने वाली है और अपने बच्चों को कहाँ रखेंगे, यह सोचकर बेचारे दिन-रात तड़पते रहते हैं। उस मानवता की ओर सोचो। समाज को ही जागना पड़ेगा, तुम्हें समाज को ही जगाना पड़ेगा और सत्तासुख भोग रहे उन बेखबर राजनेताओं को भी जगाना होगा, जो आज अपने राष्ट्रधर्म का पालन नहीं कर रहे हैं और अधर्मियों-अन्यायियों का जीवन जी रहे हैं, भ्रष्टाचारियों का जीवन जी रहे हैं।

गरीब तड़प रहा है, भूखों मर रहा है, जबकि अरबों-खरबों की सम्पत्ति लिए अनेक राजनेता मस्ती कर रहे हैं, शराब की बोतलें चढ़ा रहे हैं, उनके बच्चे रेव पार्टियाँ कर रहे हैं, एक-एक रात में लाखों-करोड़ों रुपये लुटा रहे हैं। कौन सोचेगा उस मानवता की ओर? आज किसान भूखों मर रहा है। उद्योगपतियों और अमीर लोगों की तो मदद कर दी जाती है, मगर किसान क्या कर रहा है, इसकी किसी को परवाह नहीं है!  किसान रो रहे हैं, आत्महत्यायें कर रहे हैं और हर प्रदेश का यही हाल है! किसानों को मुआवजा कितना मिलता है? तीस रुपये, चालीस रुपये, पचहत्तर रुपये, डेढ़ सौ रुपये, दो सौ रुपये, कितना बड़ा मजाक है! होना तो यह चाहिए कि ऐसे अधिकारियों के मुंह पर उतार करके जूता मार देना चाहिए, जो तुम्हारे पास ऐसी छोटी राशि के चेक लेकर आते हैं। जब तक तुम तटस्थता से खड़े नहीं होगे, तब तक वे तुम्हारे बारे में सोचेंगे नहीं।

तुम भिखारी नहीं हो, तुम्हारा अधिकार है और राजसत्ताओं के पास धनबल की जो भी सामथ्र्य है, देश की जो धरोहर है, वह मानवता की रक्षा के लिए है। वे तुम्हें ही लूटकर, फिर तुम्हें ही चन्द टुकड़े देकर कहते हैं कि हम बहुत बड़ा कार्य कर रहे हैं! हर प्रदेश का आंकड़ा देख लो। बरसात की वजह से आज किसानों की जो भी दुर्दशा है, उसके लिए मंत्री, विधायक, सांसद जितना दौड़ने में खर्च कर देते हैं, उतना भी पैसा किसानों को नहीं दिया जाता है। किसान बेचारे रो रहे हैं तथा सालभर की उनकी मेहनत की कमाई वही है, उसी से वह अपना और अपने बच्चों का जीवकोपार्जन करते हैं। वे सोचते हैं कि यदि कुछ अन्न घर पर आ जायेगा, तो इससे घर का भोजन चलेगा और इसी से कुछ बेचकर बच्चों के लिए ज़रूरी कपड़े ले लेंगे। उन किसानों के घरों में जाओ, गरीबों के घरों में जाओ और यदि राज्य सरकारें नहीं जातीं, तो तुम जाओ। तुम उनके आत्मबल को तो बढ़ा सकते हो, उन्हें आर्थिक मदद नहीं कर सकते, लेकिन उन्हें संस्कारवान तो बना सकते हो। तुम्हें जागना होगा और उस मानवता के लिए कार्य करना पड़ेगा।

राजनेताओं के दिमाग तो घुटने में पहुंच चुके हैं और वे समाज को भिखारी समझ रहे हैं। हर साल गेहूं का मूल्य बढ़ाया जाता है और जितने में हर साल खरीदा जाता था, इस बार उससे भी एक रुपये घटा दिया गया। सरकार ने समाज को बेवकूफ समझ रखा है और एक रुपये घटा करके वही जो पैसा सरकार के पास आयेगा, वही किसानों को बाँट दिया जायेगा! उन राजनेताओं के द्वारा किसान और जवान की बातें की जाती हैं, मगर आज़ादी के बाद से कोई भी सरकार हो, उनके द्वारा न किसानों के बारे में सोचा गया और न ही जवानों के बारे में सोचा गया। सिंचाई के पानी के लिए आज हर किसान मोहताज है। नब्बे प्रतिशत किसान आज अपनी व्यवस्था स्वयं कर लें तो कर लें, नहीं तो पानी के लिए कोई कार्य नहीं किए जाते। करोड़ों-करोड़ रुपये दूसरे कार्यों के लिए खर्च किए जाएंगे, मगर किसानों के लिए कहीं पर नहरों में कार्य नहीं किया गया, बड़े तालाबों में कार्य नहीं किया गया और यदि कहीं किया भी गया, तो भ्रष्टाचारी खा गए। एक-एक तालाब के लिए एक-एक करोड़ आया, लेकिन वहाँ एक लाख भी नहीं खर्च किए गए और सब बेईमानों ने अपने पेट में भर लिया। कहीं का भी आकलन करके देख लिया जाए। सड़कें बनती हैं, लेकिन उनमें आवंटित होने वाला पच्चीस प्रतिशत भी धन नहीं लग पाता। गांवों के लोग आज भी बिजली-पानी-सड़क के लिए परेशान हैं।

समाज को जागना पड़ेगा, समाज को जगाना पड़ेगा और भगवती मानव कल्याण संगठन के पास जो सामथ्र्य है, उस सामथ्र्य से समाज का आत्मबल बढ़ायें, लोगों में निडरता के भाव उत्पन्न करें कि भिखारी मत बनो, पैसे में अपने वोट को मत बेचो, नशेडिय़ों को अपना वोट मत दो, मांस का भक्षण करने वालों को अपना वोट मत दो, भ्रष्टाचारियों को अपना वोट मत दो। योग्य व ईमानदार राजनेताओं को जिताकर भेजोगे, तो वे आपके बारे में अवश्य सोचेंगे, उस दिशा में तुम्हें कार्य करना पड़ेगा और तभी तुम ‘माँ’ के सच्चे भक्त कहला सकोगे। प्रशासनिक अधिकारियों से मिलकर समाजसेवा के कार्यों में उनका सहयोग लो। प्रशासनिक अधिकारी बहुत कमज़ोर होता है, वह राजनेताओं से इतना डरने लगा है कि कमज़ोरी उनके खून में व्याप्त हो गई है। वे सोचते हैं कि हमें ट्रांसफर कर दिया जायेगा, हमें लाइन अटैच कर दिया जायेगा, हमें सचिवालय में भेज दिया जायेगा। तुम अधिकारी के पदों पर रहकर भी क्यों अपनी माँ के दूध को लजाते हो? एक बार सोचो कि सचिवालय में भेजकर तुम्हारा क्या बिगाड़ दिया जायेगा? अपना कार्य सच्चाई और ईमानदारी से करो। यदि राजनेता कोई गलत आदेश देते हैं, तो उसका पालन मत करो और यदि नौकरी से निकाल दिए जाओगे, भूखों मर जाओगे, तो भी भूखों मरने में भी तुम्हारा आत्मबल, आत्मसम्मान तो बना रहेगा। अपने आत्मसम्मान को मत बेचो, अन्यथा वह खून तुम्हारे बच्चों की रगों में जायेगा और वे भी कभी स्वाभिमानी जीवन नहीं जी सकेंगे।

समाज को जागना ही होगा, समाज के पास सामथ्र्य की कोई कमी नहीं है, उस सामथ्र्य को सिर्फ जगाने की कमी है, समाज को नशे-मांस से मुक्त चरित्रवान् बनाने की कमी है। अत: उस दिशा में बढ़कर देखो। आज यही मानवता, आज यही लाखों-करोड़ों लोग, जो कभी असमर्थ असहाय थे, आज मेरे दस लाख से अधिक दीक्षाप्राप्त शिष्य हैं और उनमें से पचहत्तर प्रतिशत लोग किसी न किसी नशे के शिकार थे, मगर आज नशामुक्त, मांसाहारमुक्त होकर चरित्रवानों का जीवन जी रहे हैं तथा जो समाज उनको हेयदृष्टि से देखता था, आज वे आत्मबल के साथ खड़े होकर उस समाज का मार्गदर्शन कर रहे हैं। पारसमणि में केवल एक गुण होता है कि वह लोहे को सोना बना सकती है, मगर मैंने अपने शिष्यों को वह चेतना प्रदान की है कि तुम पारसमणि से भी बढ़ करके हो। पारसमणि के सम्पर्क में लोहा आने से वह सोना बनता है, मगर आपके अन्दर वह सामथ्र्य है कि आप जिसके सम्पर्क में जाओगे या आपके सम्पर्क में जो भी आयेगा, वह तुम्हारे समान बन जायेगा। बस यही कार्य करना है और इसी कार्य हेतु अपने आपको धर्मयोद्धा के रूप में तैयार करना है, धर्मयोद्धा का तात्पर्य कोई युद्ध या लड़ाई-झगड़ा करना नहीं है।

अपनी चेतना व आत्मशक्ति के बल पर, अपनी ‘माँ’ के जयघोष के बल पर, अपने तप की शक्ति के बल पर, अपने घर में टंगे हुए ‘माँ’ के ध्वज के बल पर, अपने गले में डाले हुए रक्षाकवच के बल पर, अपने माथे पर लगाए हुए कुंकुम के तिलक के बल पर आप उस आत्मचेतना को लेकर चलो, आपके मार्ग को कोई रोक नहीं सकेगा। मानवता के पथ पर चलो, मानवता को दिशा देने के मार्ग पर चलो और देखो कि समाज में परिवर्तन आता है कि नहीं आता है? मैंने भी उसी दिशा में कदम उठाएं हैं। मैंने कभी अनीति-अन्याय-अधर्म से समझौता नहीं किया। भूखों मर जाना श्रेष्ठ समझा है, मगर कभी अनीति-अन्याय-अधर्म के आये हुए पैसों से अपना जीवकोपार्जन करना पसंद नहीं किया है। मैं वैसा जीवन जीता हूँ।

मैं देश की समस्त एजेंसियों को चुनौती देता हूँ कि आओ मेरे भी जीवन को देखो, किसी एक कोने से कोई कमी निकाल दोगे, तो पूरा अध्यात्मिक जीवन छोड़ दूंगा। आज समाज से भी जो रिश्ता जुड़ा हुआ है, तो कर्तव्य से जुड़ा हुआ है। मैं अपने एक-एक पल की साधनाएं समाज और मानवता की रक्षा के लिए समर्पित करता हूँ और कुण्डलिनीचेतना की शक्ति का अहसास करना है, तो मैंने विज्ञान को चुनौती दी है कि आओ और परीक्षण करो कि एक तपस्यात्मक योगी का तपबल क्या होता है, उसके शरीर से इतनी अधिक ऊर्जा, इतनी अधिक विद्युततरंगें उत्पन्न होती हैं कि यदि जब मैं ध्यान में बैठा हूँ और कोई मेरी इच्छा के विरुद्ध मुझे स्पर्श भी कर लेगा, तो जिस तरह दो तार आपस में टकराकर स्पार्क करते हैं और तीव्र ध्वनि होती है, उसी प्रकार मुझे स्पर्श करने से ध्वनि होती है कि पन्द्रह-बीस फीट दूर बैठा व्यक्ति भी सुन सकता है और उसको उतना ही तेज करंट लगता है। यदि इस धरती पर है कोई ऐसा योगी, तो सामने आकर दिखाए?

मैं चमत्कार नहीं करता, मगर समाज को सत्य का अहसास कराने के लिए एक बार ऐसा मौका दे सकता हूँ। एक बार धर्म का ऐसा आयोजन हो, जहाँ देखा जाये कि किसके पास तपबल है और किसके पास तपबल नहीं है? किसके पास वाक्शक्ति का बल है, किसके पास नहीं है? कौन एक स्थान पर बैठे-बैठे हज़ारों किलोमीटर दूर की बात बताने की सामथ्र्य रखता है? चमत्कार व जादूगरी तो कोई भी दिखा सकता है, लेकिन होती हुई बरसात को रोकने की सामथ्र्य कौन रखता है? भीषण गर्मियों में बरसात करा देने की सामथ्र्य कौन रखता है? कौन सही बोल रहा है और कौन झूठ बोल रहा है? इसको तो विज्ञान की मशीनें भी पकड़ सकती हैं। यदि कोई कह रहा हो कि मेरी कुण्डलिनीचेतना जाग्रत् है और यदि वह झूठ बोल रहा होगा, तो वे मशीनें पकड़ लेंगी। आयें वे धर्मगुरु, आयें शंकराचार्य, आयें बड़े-बड़े योगाचार्य, एक बार मानवता की रक्षा के लिए ऐसा सम्मेलन करें और जिसके पास सर्वोच्च शक्ति हो, यदि उसके मार्गदर्शन में समाज चलेगा, तो समाज का कल्याण निश्चित होगा। मैं स्वत: कहता हूँ कि यदि मेरी चेतना से आगे खड़ा कोई व्यक्ति मुझे नज़र आ जायेगा, तो मैं कह रहा हूँ कि वह चाहेगा, तो मैं अपना सिर काटकर उसके चरणों पर चढ़ा दूंगा, यदि वह कहेगा कि मुझे उसकी जिन्दगी भर गुलामी करनी है, तो मुझे उसकी अधीनता को स्वीकार करने में एकपल का भी संकोच नहीं होगा।

आज भी सबकुछ वही है, जो हमारे ऋषियों-मुनियों के पास था, मगर हमारे गद्दी दर गद्दीनसीन होने वाले साधु-सन्त-संन्यासी धर्म-कर्म से कोसों दूर हो गए हैं। सबकुछ व्यवसायिक हो गया है, पैसा कमाना ही कथावाचकों का धर्म बन गया है। कथा सुनाना सीख गए और जिस क्षेत्र में गए, वहाँ का पैसा लूटकर लेजाना उनका धर्म-कर्म बन गया। आज हर कथावाचक भयभीत है, किन्तु वे आपको कहेंगे कि एक बार भगवान् की कथा सुनलो, रामायण का पाठ सुनलो, भागवत की कथा सुनलो, आपका कल्याण हो जायेगा। अरे, उन बेईमानों का तो आजतक कल्याण हुआ नहीं, जो हज़ारों बार आपको कथा सुना चुके हैं और अगर उनका कल्याण हुआ होता, तो अपने हाथों पर रत्नों की अंगूठियाँ न पहने होते! उन्हें अपने इष्ट पर विश्वास नहीं है और जिसको अपने इष्ट पर विश्वास नहीं होगा, वह दूसरों को आशीर्वाद दिला भी नहीं सकता। हज़ार में नौ सौ निन्यानवे कथावाचकों को देखोगे, तो वे कोई न कोई रत्न की अंगूठियाँ पहने होंगे कि हमारा कोई समय का चक्र खराब न होजाये, हमारी कथा की शैली बन्द न होजाये, हमें जो समाज से पैसा मिल रहा है, कहीं वह बंद न होजाये, इसीलिए वे रत्नों की अँगूठियाँ पहने रहते हैं।

जिसकी कुण्डलिनीचेतना जाग्रत् होती है, जो चैतन्य योगी होता है, पंचतत्त्व उसकी मुठ्ठी में होते हैं। आज भी मैं कहता हूँ कि हाँ मेरी पूर्ण कुण्डलिनीचेतना जाग्रत् है। मैं सूक्ष्मशरीर से जहाँ चाहता हूँ, वहाँ विचरण कर लेता हूँ, मैं समाधि की गहराई में चला जाता हूँ और मैं विज्ञान को चुनौती देता हूँ कि विज्ञान परीक्षण करके देख सकता है। विज्ञान को चुनौती देता हूँ कि मैं परकाया प्रवेश कर सकता हूँ और उन शंकराचार्यों का आवाहन करता हूँ कि आओ, एक बार तो ऐसा आयोजन हो। तुम जितने कदम आगे चलोगे, उससे एक कदम आगे मुझको पाओगे और यदि तुमसे एक कदम पीछे हो जाऊंगा, तो वहीं तत्काल तुम्हारी गुलामी स्वीकार कर लूंगा।

हमारे आदिगुरुशंकराचार्य भी शास्त्रार्थ के लिए समाज में जगह-जगह गए थे। उन्होंने भी सूक्ष्मशरीर को निकालकर परकाया प्रवेश के माध्यम से सत्य का अहसास कराया था। मात्र बत्तीस वर्ष की अवस्था में एक शंकराचार्य ने चार-चार मठों की स्थापना कर दी और आज चार नहीं, बल्कि पैंसठ लोग अपने आगे-पीछे शंकराचार्य शब्द संबोधित करते हैं, फिर भी समाज का पतन हो रहा है। उसका मूल कारण चेतनाशक्ति से विहीन हो जाना है। बड़े-बड़े मठों में बैठने वाले, बड़ी-बड़ी संस्थाएं चलाने वाले, बड़े-बड़े योगाचार्य, बड़े-बड़े कथावाचक जो अपने आपको सबकुछ कहते हैं, जैसे उन्हें समाधि का ज्ञान हो, पूर्णत्व का ज्ञान हो, जबकि वे साधना, समाधि, सूक्ष्मशरीर से बिल्कुल शून्य हैं! मैं उनका आकलन कर सकता हूँ, इसीलिए मेरे द्वारा आवाहन किया जाता है। इस मानवता को अब और छला व ठगा नहीं जा सकता है। मानवता जागेगी और यदि नहीं जागेगी, तो मैं मानवता को जगाऊंगा।

मैंने प्रारम्भ में एक निर्णय लिया था कि जब असुर संगठित होकर कार्य कर सकते हैं, तो सत्य की विचारधारा के लोगों को भी संगठित करके कार्य कराया जा सकता है। एक राक्षस था रक्तबीज, जिसके शरीर से यदि रक्त की एक बूंद ज़मीन पर गिरती थी, तो उसी के समान दूसरा रक्तबीज तैयार होजाता था, तो क्या मैं अपनी चेतनातरंगों से हज़ारों-लाखों शक्तिसाधक नहीं तैयार कर सकता हूँ? उसी दिन मैंने ‘माँ’ के चरणों पर संकल्प लिया था कि ‘माँ’, मेरे द्वारा मानवता के हित के लिए जो दिशाधारा दी जायेगी, अपनी साधना-तपस्या की ऊर्जा समाज को प्रदान करके चेतनावान् शक्तिसाधक बनाऊंगा और ऐसे चेतनावान् शक्तिसाधक, जो कभी झुकेंगे नहीं, कभी पीछे हटेंगे नहीं और सत्यपथ की नीव को, सतयुग की नीव को सशक्त रूप से स्थापित करेंगे।

उसी का परिणाम हैं ये लाखों-लाख स्वयंसेवी कार्यकर्ता, जो मेरी एक आवाज़ में चलने के लिए तत्पर हैं, एक आवाज़ में सबकुछ कर गुज़रने के लिए तत्पर हैं, चूंकि मैंने उन्हें अपनी आत्मा का अंश प्रदान किया है, चेतनातरंगें प्रदान की हैं। उनका मेरी चेतना से रिश्ता जुड़ा हुआ है कि वे मेरी एक आवाज़ में मानवता की सेवा के लिए तत्पर हैं। हो सकता है उनके घर में एक समय का भोजन न हो, मगर फिर भी मानवता की सेवा के लिए वे दौड़ पड़ते हैं। मेरे हज़ार में से नौ सौ निन्यानवे शक्तिसाधक नशे-मांस से मुक्त चरित्रवान् होंगे। हज़ारों में कोई एकाध गलतियाँ कर रहा हो, तो वे भी समाज के ही लोग हैं। मगर, हज़ार में नौ सौ निन्यानवे मेरे शिष्य नशे-मांस से मुक्त चरित्रवान् होंगे। उस दिशा में आपको बढ़ाया जा रहा है और उसी दिशा में चलकर मानवता का हित छिपा है।

सच्चे मन से तुम्हें तपस्वी बनना है और जिन्हें देवाधिदेव ब्रह्मा, विष्णु, महेश भी ‘माँ’ कहकर पुकारते हैं,  वही तुम्हारी आत्मा की जननी हैं। सभी देवी-देवताओं का सम्मान करो, मैं नहीं कहता कि किसी का अनादर करो, चूंकि हर काल परिस्थिति में परमसत्ता ने किसी न किसी शक्ति के रूप में अवतार लेकर मानवता का कल्याण किया है, मगर हमारी मूल इष्ट परमसत्ता माता आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा हैं। जिस तरह आपको जन्म देने वाले एक ही माता-पिता हो सकते हैं, कोई दूसरा नहीं हो सकता। पड़ोसी आपका कितना ही सहयोगी होजाये, मगर आप उसे अपने माता-पिता का दजऱ्ा नहीं दे सकते। बड़ा भाई, दादा-दादी आपके लिए कितने ही सहयोगी क्यों न हों, मगर वे माता-पिता नहीं हो सकते। इसी तरह सभी देवी-देवता हमारा सहयोग कर रहे हैं, मगर हमारी आप सबकी आत्मा की मूल जननी माता भगवती आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा हैं, जो अजर-अमर-अविनाशी सत्ता हैं, अनन्त लोकों की जननी हैं। उस अनन्त लोकों की जननी से आत्मीयता का रिश्ता जोड़ो, वह आपकी जननी हैं। उनसे केवल सम्बन्ध बना लो, उनकी ओर केवल मुख करके खड़े हो जाओ। उनकी ओर मुख करके खड़े होने का तात्पर्य है कि स्वयं को विकारों से अलग कर लो, अपनी आत्मा का शोधन करो, फिर देखो कि ‘माँ’ की कृपा कैसे नहीं प्राप्त होती है? सैकड़ों घण्टों के पाठ करने की तुलना में एक घण्टे सच्चे मन से ‘माँ’ को बुलाओगे, ‘माँ’ की स्तुति-वंदना करोगे, ध्यान-साधना करोगे, तो आपकी साधना फलीभूत होने लगेगी। अत: उस मार्ग पर चलो।

विषय-विकार, दहेजप्रथा, इस तरह की चीज़ों से ऊपर उठो। गौहत्या जैसे जघन्य अपराध अपने आसपास न होने पायें। गाय की सेवा करना आपका कर्तव्य है। लगन, मेहनत, परिश्रम से उपार्जित धन का कुछ न कुछ अंश गौसेवा को समर्पित किया करो। आपके घर में कोई गाय है, उसकी सेवा में अपना धन लगाओ। आप जिन गौशालाओं से जुड़े हुए हो, वहाँ कुछ न कुछ सहयोग करो, तभी हमारी गाय की रक्षा हो सकेगी। आज तो सरकारें भी गौसेवा के नाम पर बड़ी-बड़ी संस्थाएं बनाए बैठी हैं और गौसेवा के नाम पर हर शहरों में पैसा भेजा जाता है, मगर भ्रष्टाचारियों की वजह से वह पैसा मात्र दस प्रतिशत ही सही तरीके से उपयोग होता होगा। सब भ्रष्टाचारी कमीशन खाते हैं। मेरे यहाँ आश्रम में पूरे सम्भाग की सबसे बड़ी गौशाला है। जब वह रजिस्टर्ड हुई और वहाँ कुछ सहयोग देने की बात की गई, तो उनके द्वारा कमीशन मांगा गया। मैंने कहा कि डीएम साहब से जाकर कह देना कि मैं उनका गुलाम नहीं हूँ और उन्होंने जितना कमीशन मांगा है, उससे ज़्यादा जूते मारने के लिए तैयार बैठा हूँ। मुझे उनसे कोई मदद नहीं चाहिए। मैं सच्चे और ईमानदार अधिकारियों का सम्मान करता हूँ, भ्रष्टाचारियों का नहीं। मैंने कहा कि उनसे कह देना कि जिन्दगीभर मेरी गौशाला में कोई मदद न करें और उसके बाद से आज तक मैंने शासन से एक रुपये की भी मदद नहीं ली, मगर मैंने उनकी बात को स्वीकार नहीं किया। इसी तरह आपको भी विरोध करने की ज़रूरत है और भ्रष्टाचारियों को मुंहतोड़ जवाब देना सीखो। तुम्हारा वे क्या अहित कर लेंगे? तुम्हारे बाहर का जो अस्तित्व है, उसे बिगाड़ देंगे और इससे ज़्यादा क्या कर सकते हैं?

 अधर्मियों से समझौता मत करो, भ्रष्टाचारियों से समझौता मत करो। एक बार विरोध के स्वर उठाओ। अपराधी तो अपराधी होता है, वह चाहे कितने ही बड़े पद पर क्यों न बैठा हो? यदि वह भ्रष्टाचारी है, तो वह अपराधी है, वह राजनेता नहीं हो सकता, वह प्रशासनिक अधिकारी नहीं हो सकता। आज सबसे ज़्यादा ईमानदारी से यदि कोई धंधा चल रहा है, तो वह भ्रष्टाचार का चल रहा है। ये राजनेता, ये प्रशासनिक अधिकारी भ्रष्टाचार करके समाज का, मानवता का शोषण कर रहे हैं। आज समाज भ्रष्टाचार की वजह से ही भुखमरी का शिकार है, नहीं तो आज हर घर खुशहाल होता, हर घर सम्पन्न होता, हर तहसीलों में बड़े-बड़े अस्पताल खुले होते, बड़े-बड़े विद्यालय खुले होते, सब संसाधन लोगों के पास होते, मगर सबकुछ भ्रष्टाचारी खा जाते हैं। यदि समाज नहीं जागेगा, तो भ्रष्टाचार इसी तरह पनपता रहेगा।

देश को नशामुक्त बनाओ, देश को मांसाहारमुक्त बनाओ, सख्त सर्कुलर जारी करो कि देश में भ्रष्टाचार नहीं होगा। कम से कम जहां भारतीय जनता पार्टी की सरकारें हैं, उन प्रदेशों को भ्रष्टाचारमुक्त बनाने का सख्त आदेश दो और जो मुख्यमंत्री कार्य न कर रहा हो, उसको हटाकर बाहर करो। मुख्यमंत्री का कार्य है कि प्रशासनिक अधिकारियों को आदेश दे कि एक भी प्रशासनिक अधिकारी यदि भ्रष्टाचारी होगा, तो उसे निकालकर बाहर कर दिया जायेगा। बेरोजगार युवाओं की कमी नहीं है और जितना वेतन उस प्रशासनिक अधिकारी को दिया जाता है, उससे आधे वेतन में एक-एक पद पर सौ-सौ लोग कार्य करने के लिए तैयार बैठे हैं। बड़े-बड़े अधिकारियों को जितना वेतन दिया जाता है, उससे आधे वेतन में समाज के बेरोजगार कार्य करने के लिए तैयार बैठे हैं, उन्हें आगे बढ़ाओ, उन्हें मौका दो। उस दिशा में कार्य करने की ज़रूरत है।

मेरा किसी राजनीतिक पार्टियों से विरोध नहीं है और मैंने सभी राजनीतिक पार्टियों का सहयोग किया है। अनेक विधायक, सांसद हैं, जिन्हें पूरा प्रचार-प्रसार करके जिताया गया, मगर सब बेईमान और कुत्ते की पूछ के समान निकले। कुत्ते की पूंछ को चाहे दस साल तक पुंगड़ी में डालकर रख दो, मगर टेढ़ी की टेढ़ी ही रहती है।  मैं उनके नाम नहीं लेना चाहता और जो जानना चाहेंगे, जानेंगे। जो चीख-चीखकर कहते हैं कि गुरुजी बस आपके आशीर्वाद से जीते हैं, गुरुजी हम कभी भी जीत ही नहीं सकते थे, आपके प्रभाव से हम वहाँ जीते हैं, मगर यह महीने-दो महीने चला और धीरे-धीरे करके फिर सभी अपने उसी रवैये पर ढल गए।

मैंने इसीलिए मानवता के लिए तीन धाराएं दीं हैं। धर्म की रक्षा के लिए पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम, मानवता की सेवा के लिए भगवती मानव कल्याण संगठन और राष्ट्ररक्षा के लिए भारतीय शक्ति चेतना पार्टी का गठन किया और तीनों को अपनी ऊर्जा प्रदान कर रहा हूँ, तीनों को अपनी चेतना प्रदान कर रहा हूँ। मैंने पार्टी का गठन इसलिए नहीं किया कि पार्टी राजसत्ता का सुख भोगे, बल्कि राजनीति को स्वच्छ और निर्मल बनाने के लिए किया है। मानवता को जगाएं, मानवता को संगठित करें। राजनीति सुधर जाये, तो अच्छी बात है और यदि नहीं सुधरेगी, तो उसे सुधारने के लिए भारतीय शक्ति चेतना पार्टी कार्य करेगी, सच्चाई-ईमानदारी से मानवता को साथ लेकर आगे बढ़ेगी।

दमोह की धरती से मेरी भविष्यवाणी है और मैं उस भविष्य को देख रहा हूँ कि एक न एक दिन वह दिन सुनिश्चित है, जिस दिन अनेक प्रदेशों में भारतीय शक्ति चेतना पार्टी का शासन होगा और केन्द्र में भी शासन होगा। दिल्ली के लालकिले पर भी भारतीय शक्ति चेतना पार्टी का कोई शक्तिसाधक या शक्तिसाधिका ही राष्ट्रध्वज फहराएगी, चूंकि मेरी धाराओं को कोई रोक नहीं सकता है। मैंने अपने शरीर का प्रमाण देने की बात कही है, अपने तपबल का प्रमाण देने की बात कही है और चमत्कार से मैं कोसों दूर रहता हूँ, मगर मानवता की रक्षा के लिए एक बार मैं ये प्रमाण देने को तत्पर हूँ। यदि और तलाशना है, तो पाँच सौ वर्ष पूर्व के भविष्यवक्ताओं की पुस्तकों को तलाश करके देखना, मेरा जन्म कहाँ होगा, कब होगा, किस प्रदेश में होगा और मेरे शरीर में पड़े हुए उन अंगों के प्रमाण भी उन पुस्तकों में दिए हुए हैं। उनको मान सको, तो उनसे सजग होजाओ, अच्छी बात है। वर्तमान में मेरी दिशाधारा को देखकर संभल जाओ, अच्छी बात है। प्रमाण के लिए चुनौती स्वीकार करके आ सको, तो अच्छी बात है और न आओ, तो तुम्हें सुधारने के लिए मेरा संकल्प है कि या तो तुम सुधरोगे या तो मैं सुधार दूंगा।

परमसत्ता की कृपा ही मेरे लिए सर्वोच्च है। भय है तो सिर्फ इसका, कि ‘माँ’ से जो मेरी कड़ी जुड़ी हुई है, उस पर कभी जंग न लगने पाये, अन्यथा इस भूतल पर मैं किसी से भयभीत नहीं रहता। निर्भीकता और निडरता का जीवन जीता हूँ और मेरी वाक्शक्ति को कोई रोक नहीं सकता, मेरी चेतनातरंगों को कोई रोक नहीं सकता। लोग कहते हैं कि गुरुजी आप तो राजनेताओं को कड़क संदेश देते हो, पानी पी-पीकर उन्हें कोसते हो। मैं कहता हूँ कि केवल पानी पीकर ही नहीं कोसता हूँ, देशी गाय का शुद्ध दूध पीता हूँ और सत्य की आवाज़ उठाता हूँ और मैं जिस पथ पर बैठा हूँ, यह मेरा कर्तव्य है। यदि कोई योगी या कोई ऋषि चाटुकारिता की भाषा बोलने लगेगा, तो वह धर्म का अपमान करता है और वह ऋषि या योगी हो ही नहीं सकता।

मैं सत्य की वाणी बोलता हूँ, संभल सको तो अच्छी बात है, अन्यथा यह परिवर्तन का युग आ चुका है, परिवर्तन का चक्र चल चुका है और यह ‘माँ’ का युग है, सबकुछ बदल जायेगा। या तो तुम सुधर जाओगे, या यह मानवता तुम्हें सुधार देगी। मैं सभी से प्रेम करता हूँ, सभी को एक समान स्वीकार करके आगे चलता हूँ और सच्चाई-ईमानदारी के रास्ते में चलने वाले राजनेताओं के प्रति हरपल चिन्तन करता हूँ, सच्चाई-ईमानदारी से मानवता की सेवा के लिए जो प्रशासनिक अधिकारी कार्य कर रहे हैं, हरपल उन्हें आशीर्वाद प्रदान करता हूँ, लेकिन जो मानवता का शोषण करते हैं, उनके लिए नित्य प्रार्थना करता हूँ कि भ्रष्ट-बेईमान राजनेता, भ्रष्ट-बेईमान अधिकारी दुर्घटनाओं के शिकार हों, आतंकवादियों की गोलियों के शिकार हों, नाना प्रकार की व्याधियों के शिकार हों। मैं उनके लिए सम्मान की भाषा नहीं बोलता और कभी सम्मान की भाषा बोलूंगा भी नहीं। बुरा लगे, तो लग जाए और यदि गलत लगे, तो सुधर जाओ, मेरा सर्वस्व तुम्हारा है, अन्यथा मैं ही तुम्हारा सबसे कट्टर विरोधी हूँ।

मैं सभी से प्रेम करता हूँ। हमें सच्चाई-ईमानदारी के रास्ते पर चलना है, हमें अनीति-अन्याय-अधर्म को स्वीकार नहीं करना है। उस सत्य के रास्ते पर चलो। छोटे-छोटे बच्चों को दिशा दो, चैतन्यता का जीवन जियो। इस तरह के जो कार्यक्रम चल रहे होते हैं, एक-एक कार्यक्रम में हज़ारों-हज़ारों लोग नशे-मांस से मुक्त चरित्रवान् जीवन जीने का जो संकल्प लेते हैं, यही तो परिवर्तन का चक्र है, मगर मेरी नीव एक ऐसे सशक्त तरीके से जम रही है कि जिस तरह कब कलिकाल ने अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया, मानवता को पता ही नहीं चला। ठीक उसी तरह अधर्मियों-अन्यायियों को पता ही नहीं चल पायेगा कि उनका धरातल कब खिसक गया? मैं उस सत्य की नीव जमा रहा हूँ। एकान्त साधनाएं करके, हरपल अपने शरीर को तपा करके, पुरुषार्थी बन करके, कर्मवान बन करके, मानवता को जगाकर और चेतनावान् बना करके उस दिशा के लिए कार्य कर रहा हूँ।

सत्य को स्वीकार करके चलो, सत्यपथ के राही बनो, फिर देखो कि कितना आनन्द मिलेगा और कितनी तृप्ति मिलेगी? ‘माँ’ की भक्ति सबसे सहज और सरल है। अन्य किसी देवी-देवता की साधना कठिन हो सकती है, मगर ‘माँ’ की साधना सबसे सरल है। ‘माँ’ की साधना में यदि अज्ञानता से हज़ारों गलतियाँ होजायें, तो ‘माँ’ सभी गलतियों को क्षमा कर देती हैं, बस जानबूझकर कोई गलती न करें। जानकर गलती न करो, तो ‘माँ’ से बड़ी ममतामई, कृपामई और दयामई कोई दूसरा नहीं है। अत: उस दिशा में चलो, आपका कल्याण होगा।

मैंने अपने महाशक्ति यज्ञों के प्रमाण दिये हैं, मैंने आठ यज्ञ समाज में प्रमाण के रूप में किए थे और मेरे एक-एक यज्ञ की क्या ऊर्जा थी? मैंने इस सत्य का भी अहसास कराया है। प्रज्ज्वलित अग्नि के समक्ष आठ-आठ घण्टे बिना एक शब्द बोले, बिना एक बूंद जल ग्रहण किए हुए एक आसन पर बैठकर आहुतियाँ देता हूँ। मैंने जब आठ यज्ञ किए थे, तब चुनौती दी थी कि यदि किसी के पास पात्रता है, तो एक-दो घण्टे ही मेरे आसन के पास बैठ करके तो देखे। मैंने कहा था कि जितने समय तक मैं बैठता हूँ, यदि कोई बैठ करके दिखा देगा, तो अपना सिर काटकर उसके चरणों पर चढ़ा दूंगा। अनेक लोगों ने प्रयास किया, लेकिन एक घण्टे भी नहीं बैठ पाये। मैंने उन यज्ञों की ऊर्जा का लाभ समाज को दिया। मैंने कहा था कि हर यज्ञ में बरसात होगी। हर यज्ञ को अलग-अलग मौसम में कराया गया और हर यज्ञ में बरसात हुई। मैंने पहले यज्ञ में कहा था कि प्रमाण के रूप में समाज के बीच जो आठ यज्ञ करूंगा, यदि मेरे किसी यज्ञ में बरसात न हो, तो मैं मान लूंगा कि ‘माँ’ की कृपा मुझ पर नहीं है तथा मैं सब छोड़कर एकान्त स्थान में चला जाऊंगा और किसी को अपना चेहरा भी नहीं दिखाऊंगा। मेरे हर यज्ञ में बरसात हुई और असम्भव से असम्भव कार्य समाज के बीच चुनौती देकर किए गये। उसका परिणाम है समाज में हो रहा परिवर्तन।

सत्य आज भी जीवित है और सत्य हर काल में होता है। आवश्यकता है कि समाज उस सत्य को पहचान सके और जान सके। मैं भी देखना चाहता हूँ कि यदि कोई ऐसा शक्तिसाधक है, जो मुझसे आगे खड़ा हुआ होगा, तो उसकी अधीनता को स्वीकार करना मेरा कर्तव्य बनता है। मैं इस मंच से कहता हूँ कि पाँच साल का बच्चा भी यदि ऊर्जात्मक क्रम में मुझसे आगे खड़ा नज़र आयेगा, तो मैं उसका शिष्यत्व स्वीकार कर लूंगा। बस आप लोगों को सच्चे मन से ‘माँ’ की भक्ति करना है, समाज में परिवर्तन निश्चित रूप से आयेगा। जब तुम जानते हो कि सभी वेद, पुराण, शास्त्र, उपनिषद्, साधु-सन्त चीख-चीखकर यही कहते हैं कि कर्म का फल मिलता है, कर्म का फल मिलता है, तो जो बीत गया, वह बीत गया, लेकिन वर्तमान तो तुम्हारे हाथ में है। वर्तमान में सत्कर्म और अच्छे कर्म करना शुरू कर दो, तुम्हारा भविष्य अच्छा ही होगा। अच्छे कर्म का अच्छा फल अवश्य प्राप्त होगा, बस उस दिशा में कार्य करना प्रारम्भ कर दो।

मेरा आशीर्वाद जन-जन को समर्पित है। इस क्षेत्र और इस सम्भाग का कल्याण हो, सुख-शान्ति-समृद्धि बढ़े, किसानों का दु:ख-दर्द दूर हो सके, उनका आत्मबल बढ़े, उनका परिश्रम व पुरुषार्थ और जागे, आत्महत्या जैसा निर्णय उनके मनमस्तिष्क पर न आए, मैं इसके लिए उनको अपना पूर्ण आशीर्वाद प्रदान करता हूँ। आओ और चैतन्यता का जीवन जियो। एक बार फसल नष्ट हो गई, तो नष्ट हो गई, परिश्रम करोगे, तो भूखे नहीं मरने पाओगे। अत: कुछ न कुछ कार्य करो, कुछ न कुछ परिश्रम करो, किसी न किसी तरह से यह वर्ष गुज़र जायेगा और पुन: परिश्रम करना। यदि आपके अन्दर परिश्रम करने की क्षमता है, तो निश्चित ही भूखे नहीं मरोगे। आत्महत्या जैसा जघन्य पाप उसी तरह का पाप है, जैसे किसी की हत्या करने का पाप होता है। अत: आत्महत्या जैसा जघन्य पाप कभी मत करो।

मैं युवाओं और बच्चे-बच्चियों से भी कहता हूँ कि परीक्षा में फेल होजाओ, कोई समस्या आ जाए, कोई तुमसे अपराध होजाये, तुम्हें माता-पिता का डर सता जाए, मगर फिर भी कभी आत्महत्या मत करना। अपना आत्मबल जगाओ, परिस्थितियों का सामना करो और चैतन्यता से आगे बढ़ो, कल तुम्हारा भविष्य अवश्य बनेगा, मगर आत्महत्या जैसा जघन्य पाप कभी मत करो। ‘माँ’ की ऊर्जा एवं ‘माँ’ पर विश्वास रखो, अपने आप पर विश्वास करो, पुरुषार्थी बनो, संस्कारवान बनो, कर्मवान बनो। आपका गुरु आपके लिए नित्यप्रति साधनारत रहता है, सिर्फ उधर ध्यान लगाने का प्रयास करो। 

आज दूसरे दिवस की दिव्य आरती होगी, अत: मन को एकाग्र करके आरती करना। मैं आपका हूँ और आप मेरे हैं। जिस दिन अंशमात्र भी आपके और मेरे रिश्ते में निश्छलता समाप्त हो जायेगी, मेरे अन्दर कोई लोभ प्रवृत्ति आ जायेगी, अपने सुख की कोई कामना आ जायेगी, तो उसके पहले मैं अपने शरीर का त्याग करना पसंद करूंगा और मेरा आपका रिश्ता इस शरीर से नहीं है। मैंने अपनी आत्मशक्ति के बल पर संकल्प लिया है कि मैं उस सिद्धाश्रम में सच्चिदानंद का स्वरूप हूँ, मगर इस धरती पर जहाँ ‘माँ’ का अखण्ड गुणगान चल रहा है, जहाँ पर मैं ‘माँ’ की स्थापना करूंगा, ‘माँ’ के दिव्यधाम को इस धरती पर एक चैतन्य स्थल बना रहा हूँ, उस ‘माँ’ की स्थापना के पहले मैंने अपनी स्थापना का संकल्प किया है कि मैं इस शरीर को त्यागने के बाद भी जब तक उस स्थान पर ‘माँ’ का गुणगान चलता रहेगा, जब तक उस स्थान पर ‘माँ’ की ज्योति जलती रहेगी, तब तक सदा-सदा के लिए इस आत्मचेतना के रूप में मैं वहाँ पर वास करूंगा।

मेरा रिश्ता आपसे है, आपके आगे आने वाली पीढिय़ों से है और जब आप नवीन जन्म लेकर आओगे, तो आप मुझसे ही मिलोगे, मेरी चेतना से ही मिलोगे। यह शरीर है, तब भी और जब यह शरीर नहीं रहेगा, तब भी। युग परिवर्तन की नीव को मज़बूत करके युग परिवर्तन की विचारधारा को प्रवाहित कर देना मेरा संकल्प है। मेरी विचारधारा सदा आपके साथ रहेगी। मैं संकल्पों का जीवन जीता हूँ। उस स्थान के लिए मेरी अखण्ड साधनाएं चल रहीं हैं, जहाँ मैं ‘माँ’ का आवाहन करता हूँ और वहाँ मैंने अपने आपको स्थापित किया है। अपने आपको स्थापित करने का तात्पर्य अपनी मूर्ति बनाकर नहीं, बल्कि मैंने अपनी चेतना का संकल्प लिया है। मुझे किसी धाम की सुखप्राप्ति की अपेक्षा नहीं है, बल्कि जब मैं यहाँ ‘माँ’ का आवाहन कर रहा हूँ, तो इस शरीर के रूप में, इस चेतना के रूप में ‘माँ’ के चरणों की सेवा के लिए और इस मानवता को चेतना प्रदान करने के लिए उस स्थान पर अपनी चेतना के माध्यम से सदा-सदा के लिए वास करूंगा। मेरा रिश्ता आपसे अनन्तकाल के लिए जुड़ा हुआ है तथा सिद्धाश्रम में श्री दुर्गाचालीसा का पाठ अनन्तकाल के लिए प्रारम्भ किया गया है और उस स्थल को मैं हरपल चैतन्य कर रहा हूँ।

आरती का समय हो चुका है, अत: मैं पुन: इस शिविर व्यवस्था में लगे हुए तथा शिविर में सहयोग करने वाला यदि कोई भी ऐसा भक्त पक्ष छूट रहा हो, तो उसे भी मैं हृदय से स्वीकार करता हुआ अपना पूर्ण आशीर्वाद समर्पित करता हूँ।

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