शक्ति चेतना जनजागरण शिविर, सिद्धाश्रम, 23.03.1999
बोलो माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बे मातु की जय!
आज नवरात्र के महत्त्वपूर्ण दिनों पर यहाँ उपस्थित समस्त आत्मीय शिष्यों, भक्तों को अपने हृदय में धारण हुआ माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा के चरणों का पूर्ण आशीर्वाद प्राप्त करता हुआ अपना पूर्ण आशीर्वाद समर्पित करता हूँ।
आज इस पावन स्थल पर हम और आप सभी मिलकर पाँचवां नवरात्र पर्व मना रहे हैं। हर नवरात्र पर्व आने पर मैं अपने आपको सौभाग्यशाली समझता हूँ, चूँकि मेरे जीवन की यात्रा हर पल माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा से जुड़ी है और हर नवरात्र पर्व को प्राप्त करके मैं अपने आपको एक कदम और अपने उस लक्ष्य की ओर बढ़ा हुआ पाता हूँ, जिस लक्ष्य का चिन्तन मैंने अपने इस जीवन में धारण कर रखा है। मैंने पूर्व में अनेकों बार अपने भक्तों को अवगत कराया है कि हर नवरात्र पर्व जब आता है, तो यहाँ जो भी भक्त उपस्थित होता है, नवरात्र से नवरात्र के बीच की जो भी मेरी साधनायें व चिन्तन रहते हैं, मैं उन साधनाओं का एक निर्धारित अंश उन उपस्थित होने वाले भक्तों को समर्पित करने का सौभाग्य प्राप्त करता हूँ। चूँकि आपके गुरु के जीवन का एक लक्ष्य है कि इस जीवन के पूर्व की जितनी भी समस्त साधनायें हैं, वे माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा के चरणों में समर्पित हैं। समाजकल्याण के लिये जिस किसी भी शिष्य के लिये मैं पात्र समझ रहा हूँ या कुपात्र समझ रहा हूँ, माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा मेरी वे समस्त साधनायें समाज और जनकल्याण के लिये कभी भी समर्पित कर सकती हैं।
इस जीवन की मेरी जितनी भी साधनायें हैं, जो भी मेरी एकान्त की साधनायें होती हैं, जो भी मेरी एक-एक पल की साधनात्मक क्रियायें होती है, हर नवरात्र पर्व पर एक निर्धारित संकल्प के आधार पर मैं उन्हें शिष्यों को समर्पित करता हूँ। आज पहला दिन है, इसलिये इन चिन्तनों को अवगत करा रहा हूँ कि जब कोई भी भक्त या शिष्य सिद्धाश्रम की समधिन नदी के इस पार या चारों ओर लगे ध्वजों के परिसर के बीच में प्रवेश कर जाये, तो यह मान ले कि वह गुरु के चिन्तनों में प्रवेश कर चुका है। मैं नहीं कहता कि आज इस परम पवित्र स्थल को, उस सिद्धाश्रम के एक रजकण को, जो मैं यहाँ स्थापित करना चाहता हूँ, उसको मैंने पूर्ण चैतन्य कर दिया है। मैं स्वतः महसूस करता हूँ कि उसका करोड़वाँ हिस्सा भी अभी मैं चैतन्य नहीं कर सका। मेरी यात्रा उस दिशा में जारी है। मैं समाज के बीच इसीलिये बहुत कम समय दे पाता हूँ। पूर्व का जो अनुभव रहा, मैंने अपनी साधनायें समाज में जनकल्याण में लुटाने का प्रयास किया। जब जहाँ जिन शिष्यों ने जैसा कहा, वैसे कदम उठाये। मगर, समाज की भटकती दिशाधारा, कि जिसे साधनाओं में मैंने दो कदम बढ़ाना चाहा, वह साधनाओं से ऊर्जा पाकर भटकना शुरू हो गया। समाज को खुद गलत जानकारियाँ देने का क्रम प्रारम्भ कर दिया। ऊर्जा इतनी भटकी कि दिशायें ही भटकने लगीं। मैंने अपने संस्कारों से जिनके कार्य पूर्ण कर दिये, वे बड़ी से बड़ी समस्यायें लेकर आ गये। मैंने कहा चलो इनको दो कदम बढ़ने का मौका मिलेगा, समाज में जनकल्याण की दिशाधारा ये खुद बढ़ायें। मगर, बिना पात्रता के अगर किसी को फल प्राप्त होजाता है, तो वह भटकता निश्चित है। अतः मैंने यहाँ इस स्थल पर अपने जीवन को उन तीन भागों में बाँट रखा है जिन तीन भागों से समाज को लाभ मिलना है और मेरे तीनों प्रकार के तीनों विभागों में मेरी साधनायें मेरे निर्धारित संकल्प के आधार पर सदैव बँटती रहती हैं।
मैंने पहले व्यक्त कर रखा है कि मेरा प्रथम लक्ष्य है माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा के चरणों में मैंने जो संकल्प लिया है, मेरे द्वारा 108 महाशक्तियज्ञ समाजकल्याण के लिये सम्पन्न किये जायेंगे, जिनमें शेष 100 महाशक्तियज्ञ यहाँ आश्रम में सम्पन्न किये जायेंगे, जबकि आठ यज्ञ समाज के बीच सम्पन्न किये जा चुके हैं। उसी के साथ जुड़ा हुआ क्रम है इस दिव्य स्थली को चैतन्य करना। इसे चैतन्य करके और समाज को समर्पित करके जाना है, ताकि आने वाला समाज जब अपने इस गुरु के साकार स्वरूप के दर्शन न कर सके, देख न सके, तो उसे गुरु के साकार स्वरूप के दर्शन की आवश्यकता और ललक भी न प्राप्त हो। उसे आवश्यकता भी न महसूस हो, चूँकि चारों तरफ उसको ‘माँ’ की झलकियाँ नजर आयें। वह केवल गुरु तक ही सीमित न रह जाये।
मैंने अपने भक्तों और शिष्यों के बीच कहा है कि अगर तुममें देखने की क्षमता है, तो कुछ कदम आगे बढ़ो। ‘माँ’ की छवि में अपने गुरु की छवि पाओगे और गुरु की छवि में ‘माँ’ की छवि पाओगे। मैंने बहुत पहले यज्ञ में घोषित कर रखा था कि समाज में रामकृष्ण परमहंस माता काली को अपने हाथों से भोजन कराते थे और मैंने कहा है कि समाज देखेगा कि कभी पुत्र ‘माँ’ को भोजन नहीं कराता, ‘माँ’ स्वतः पुत्र को भोजन कराती हैं और समाज देखेगा कि माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा आपके गुरु को भोजन कराती हें। रिश्ता वह होता है कि अगर तुम पुत्र बन जाओ, अगर तुम भक्त बन जाओ, तो ‘माँ’ से क्या नहीं माँग सकते? ‘माँ’ से क्या नहीं प्राप्त कर सकते? अभी मेरे 100 महाशक्तियज्ञ शेष हैं और जब तक 100 महाशक्तियज्ञ पूर्ण नहीं होजाते, मैं उन विशिष्ट प्रकार की स्थितियाँ निर्मित करने के चिन्तन में नहीं हूँ, चूँकि चमत्कारों को देखकर पूरा समाज टूट पड़ेगा और भावनात्मक लोग हजारों मील पीछे रह जायेंगे। एक से एक उद्योगपति, लखपति, करोड़पति आकर इस आश्रम को रौंद डालेंगे, मगर भावनात्मक आत्मायें कहीं नजर नहीं आयेंगी। मुझे आवश्यकता है उन भावनात्मक आत्माओं की, जो मेरे विचारों को अपने हृदय में धारण कर सकें, मुझे अपने हृदय में स्थापित कर सकें और मेरी तड़प को अपनी तड़प बनाकर दो कदम माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा के चरणों की तरफ बढ़ सकें।
आज समाज की समस्त दिशाधारायें भटकी हुई हैं। आज देश के प्रधानमन्त्री ने तीसरी घोषणा तो जोड़ दी। एक प्रधानमन्त्री ने कहा, ‘जय जवान-जय किसान।’ तो एक प्रधानमन्त्री ने जोड़ दिया ‘जय जवान-जय किसान-जय विज्ञान।’ मुझे आशा है किसी ऐसे प्रधानमन्त्री की, जो ‘जय जवान-जय किसान-जय विज्ञान’ के साथ जोड़ सके ‘जय अध्यात्म।’ कोई भी देश कोई भी समाज तब तक पूर्णता प्राप्त नहीं कर सकता, जब तक वह अध्यात्म की शरण को ग्रहण नहीं करता, जब तक वह अध्यात्म की ऊर्जा को प्राप्त नहीं करता, चूँकि सब कुछ हमारा मूल स्रोत वहीं पर छिपा हुआ है। चूँकि चाहे किसान हो, वह भी अपना कार्य आत्मशक्ति के बल पर करता है, चाहे देश का जवान हो, वह भी अपनी क्षमता का एहसास आत्मशक्ति के बल पर करता है और चाहे वैज्ञानिक हो, वह भी अपनी बुद्धि का उपयोग अपनी आत्मशक्ति के बल पर करता है। और, जिसके पास अध्यात्मबल आजाये, वह इन तीनों चीजों को एक साथ पूर्णता के साथ चतुर्दिक विकास की ओर अपनी दिशाधारा को मोड़ सकता है। और, अगर जिस समय इस देश में धर्म का आदर और मान-सम्मान होने लगेगा, तो देश की तस्वीर बदल जाएगी।
मैं हिन्दूधर्म की ही बात नहीं करता, चूँकि मेरी विचारधारा है कि समस्त धर्मों में सत्यता है, चाहे वह हिन्दूधर्म हो, चाहे सिक्खधर्म हो, चाहे मुसलमानों का धर्म हो, चाहे ईसाइयों का धर्म हो, चाहे जिसका धर्म हो। मैं सम्प्रदायों की बात नहीं करता। दिशाधारायें अनेक हो सकती हैं, मगर पड़ाव एक है। हमारी देखने की निगाहें अनेक हो सकती हैं, मगर उसका मूलस्वरूप एक है। इससे बड़ा उदाहरण हिन्दूधर्म में आपको और क्या मिलेगा? यहाँ अनेकों देवी-देवताओं के स्वरूप माने गये हैं कि आप चाहे जिस रूप में ‘माँ’ की आराधना करने लगें, देवी-देवताओं की आराधना करने लगें, वे आपको उसी रूप में दर्शन दे देंगे। तृप्ति प्राप्त करने के लिये आप भोजन किसी भी प्रकार का प्राप्त कर सकते हैं, मगर उसका मूल लक्ष्य आपको तृप्ति प्राप्त करना ही है। चाहे आप नमक-रोटी खा लें, चाहे चावल खा लें, चाहे गेहूँ खा लें। आपकी भूख मिटेगी ही। किसी-किसी के पास ऐसा क्रम रहता है कि समस्त प्रकार के व्यंजन उसको प्राप्त होजाते हैं। अतः आपका गुरु उस धर्म की बात करता है, जिस धर्म में समस्त धर्मों का निचोड़ समाहित हो, समस्त धर्मों की सत्यता को पकड़ने के प्रयास हों। उस दिशाधारा की ओर जब समाज मुड़ जायेगा, समाज का कल्याण अपने आप होने लगेगा।
इस सिद्धाश्रम स्थली पर आप स्वतः देखते होंगे कि जब मैं समाजकल्याण के लिये समाज के बीच की यात्रायें तय करता हूँ, शक्ति चेतना जनजागरण शिविर लगाता हूँ, तो उस भीड़ को भी लोगों ने देखा होगा। आठवें महाशक्तियज्ञ की भीड़ को भी देखा होगा। मगर, इस आश्रम में, इस दिव्य स्थली में बहुत बड़ी पात्रता की आवश्यकता होती है, जो इस आश्रम में प्रवेश कर पाता है। जितने भक्त यहाँ उपस्थित हैं, उससे अधिक मेरे शिष्य केवल ब्यौहारी तहसील में जुड़े हुये हैं, भावना से जुड़े हुये हैं। मगर हर पल का सौभाग्य प्राप्त कर सकें, यह सम्भव नहीं। इसीलिये इस स्थान को मैंने कीलित कर रखा है कि जो भी मेरी ऊर्जा को प्राप्त करना चाहता है, वह मुझसे मिले या न मिले, मैंने समाजकल्याण, जनकल्याण के लिये माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा के गुणगान का यह श्री दुर्गाचालीसा का अखण्ड पाठ प्रारम्भ करा रखा है कि कोई भी व्यक्ति ‘माँ’ के चरणों में आकर निवेदन करे, प्रार्थना करे, श्री दुर्गाचालीसा का पाठ करे। मेरा सर्वस्व उसके सामने उपस्थित है।
मैं वह चिन्तन देना चाहता हूँ जिससे आपका एक पल भी निरर्थक न जाये। ‘माँ’ का जो मूलध्वज स्थापित है, जहाँ महाशक्तियज्ञ स्थल का निर्माण होना है, उसका प्रारम्भिक प्रारूप मैंने तैयार किया है। जैसा कि कई शिष्यों ने निवेदन किया कि जो यज्ञस्थल निर्माण होना है, उसका जो खाका तैयार किया गया है, उसको हम भी देखना चाहते हैं। समय मिला, तो मैं आप लोगों के समक्ष उसको लाने की अनुमति दूँगा, आप लोग उसे देख सकेंगे। उस दिव्य स्थल पर, उस ध्वज पर अगर आप अपनी किसी भी कामना को लेकर सच्चे मन से 108 परिक्रमा करते हैं, तो आपकी कामनाओं की निर्धारित पूर्ति अवश्य होगी। निर्धारित पूर्ति शब्द मैं इसलिये लगा रहा हूँ कि आज इस कलियुगी वातावरण में आप लोगों की कामनायें इतनी बढ़ गई हैं, जिनकी पूर्ति करना, हर कामना की पूर्ति करना और हो पाना, आप लोगों की पात्रता में आज की स्थिति में नहीं है।
हर कामना को पूर्ण किया जा सकता है। गुरु ने कहा है मेरे लिये असम्भव शब्द नहीं है। यह बात मैं बार-बार इसलिये जोड़ता हूँ, चूँकि यह मेरे गर्व और घमण्ड की बात नहीं है। आपका गुरु, जिसने इस स्थान पर आते ही हर पल के लिए माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा का गुणगान प्रारम्भ कर रखा हो, वह कभी गर्व और घमण्ड में नहीं रह सकता। जो हर पल एक-एक श्वास भी लेता है, तो माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा की कृपा से लेता है, एक-एक कार्य करता है, तो माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा की कृपा से करता है, उसके अन्दर गर्व और घमण्ड नहीं आ सकता। मगर, आपका गुरु कहता है कि मेरे लिये असम्भव शब्द नहीं है। जब से मैंने अपनी चेतना को प्राप्त किया है, अपने आपको पहचाना है कि मैं कौन हूँ? क्या हूँ? मेरी कामना को ‘माँ’ ने कभी ठुकराया नहीं। मेरी कामना कभी असफल नहीं हुई। वह स्थिति धीरे-धीरे आप भी प्राप्त कर सकते हैं। आवश्यकता होगी तपबल की, आवश्यकता होगी उस दिशाधारा की ओर बढ़ने की, जिसमें त्यागमय जीवन हो, संकल्पित जीवन हो।
आज धर्म भी भटका हुआ है और साधु-सन्त-संन्यासी भी भटके हुये हैं, जिनके अन्दर तपबल नाम की कोई चीज नहीं है। हमें देखना चाहिये दधीचि जैसे ऋषियों के जीवन को, जिन्होंने समाजकल्याण और देवताओं की कार्यसिद्धि के लिये अपनी हड्डियाँ तक दान कर दीं। हमें देखना होगा उन राजाओं की ओर भी, जहाँ सत्यवादी हरिश्चन्द्र जैसे राजाओं ने अपने संकल्पों की पूर्ति, अपने वचनों की पूर्ति के लिये पतन की स्थिति को भी प्राप्त होने में कभी विचलित नहीं हुये। पतन की, सबसे भटकाव की स्थिति शमशान की स्थिति होती है। उस स्थिति तक जाकरभी उन्होंने कभी अपने वचनों को नहीं तोड़ा। भक्ति की स्थिति को देखना होगा, तो हमें श्याम और मीरा की ओर देखना होगा। ये समस्त स्थितियाँ पूर्णता की ओर बढ़ाने वाली स्थितियाँ हैं।
अगर कोई राजधर्म की ओर बढ़ रहा है, तो उसे अपनी पूरी स्थितियों को प्राप्त करना चाहिये। अगर कोई अध्यात्म की ओर बढ़ रहा है, साधु-सन्त-संन्यासी है और वह कह रहा है कि मैं समाजकल्याण के लिये आया हूँ, तो उसे अपने जीवन का मोह छोड़ देना चाहिये, अपनी साधनाओं की सिद्धि का मोह छोड़ देना चाहिये। अगर वह समाजकल्याण के लिये है, तो उसका तन-मन-धन समाज को समर्पित होना चाहिये। और, आपका गुरु आज पुनः इस नवरात्र पर्व पर वचन देता है कि मेरी समस्त साधनायें ही नहीं, बल्कि मेरे इस जीवन का एक-एक पल और इस जीवन की समाप्ति के बाद इस शरीर का एक-एक अंग समाज को समर्पित रहेगा। आपका गुरु गुरुपद पर बैठकर जहाँ आपको ज्ञान देकर आपकी ऊर्जा को खींचने का प्रयास करता है, आपकी चेतना को अपनी चेतना से जोड़ने का प्रयास करता है, वहीं अपने आपको इस आश्रम में केवल एक सेवक के रूप में अनुभव करता है। सेवाकार्य करके अपने आपको ज्यादा धन्य महसूस करता है। मेरा अधिकांश समय या तो ‘माँ’ के चिन्तनों में गुजरता है या तो इस आश्रम की चैतन्यता की स्थिति को प्रदान करने में गुजरता है।

यही जो भटकाव लेकर आप आये हैं, जो आकांक्षायें लेकर आप आये हैं, जो कामनायें लेकर आप आये हैं, यदि वही कामनाओं का चक्र आपके मन-मस्तिष्क में इन तीन दिनों के अन्तराल में भी गूँजता रहा, तो जो मैं लुटाना चाहता हूँ, वह आप प्राप्त नहीं कर पायेंगे। चूँकि मैं महसूस करता हूँ कि अधिकांश लोगों में वह पात्रता नहीं रहती, जिस पात्रता के आधार पर वह यहाँ की झलकियाँ भी प्राप्त कर सकें। लोग कहते हैं कि चलनी होगी, तो क्या प्राप्त होगा? सब कुछ झरकर नीचे चला जायेगा। किन्तु, चलनी में तो कुछ शेष रह जायेगा, मगर यदि चलनी के नीचे का तला ही गायब हो गया हो, तो चाहे जितना भी डालो कुछ भी नहीं बचेगा। आज पूरे समाज की वही स्थिति है। मगर, आपके पास अगर कुछ भी नहीं है, तो अपनी भावनाओं को जाग्रत् करो, अपने भावपक्ष को जाग्रत् करो। ये जो क्षण मिले हैं, जो शेष क्षण बचे हैं, इन क्षणों को आप मुझे प्रदान कर सकें, वह संकल्प लेकर ‘माँ’ के चरणों में छोड़ दीजिये और इस स्थान पर जितने भी समय रहें, तो या तो ‘माँ’ के चरणों में श्री दुर्गाचालीसा पाठ में अपने आपको रत कर लें, या मूलध्वज की परिक्रमा करने में अपने आपको रत कर लें। सेवाकार्य शब्द मैं इसलिये नहीं जोड़ता, क्योंकि सेवाकार्य करना सबके बस की बात नहीं, सम्भव नहीं और मुझे समाज से अधिक सेवा की जरूरत भी नहीं। आपका गुरु न तो इस शरीर की सेवा कराना पसन्द करता है और न इस स्थल के निर्माण में बहुत अधिक सेवा का आकांक्षी रहता है।
आपका गुरु उन्हीं परिस्थितियों का एहसास कराता है कि आपके गुरु के जीवन में किसी चीज की कमी नहीं। इस दिव्य स्थल के निर्माण में जो करोड़ों रुपये की लागत आनी है, वह निर्माण आपका गुरु कराकर जायेगा। एक तरफ निर्माण होगा और दूसरी तरफ सिर्फ लुटाने का कार्य होगा। मगर, शिष्य अपना क्या कर्म करते हैं? यह शिष्यों के ऊपर है। मैं अपना कर्म जानता हूँ। शिष्यों को क्या कर्म करना है? क्या कर्म नहीं करना? यह उनकी अपनी स्थितियाँ हैं। मगर, इतना तुम अवश्य समझ लो कि अगर मैं किसी का धन भी स्वीकार करता हूँ, तो पहले उसका तन और मन स्वीकार करता हूँ। जिसका तन और मन इस आश्रम को समर्पित नहीं, उसका धन भी मैं कभी स्वीकार नहीं करता। आप लाखों डाल जायें, मेरे लिये बेकार है। उसका फल भी आप कभी प्राप्त नहीं कर सकेंगे। मगर, जिस व्यक्ति का तन और मन इस आश्रम को समर्पित है, मैं संकल्प लेकर वचन देता हूँ कि वह अपने जीवन में अनुभव करके देखे कि अगर कभी एक रुपया इस आश्रम में समर्पित करके जायेगा, तो उसको अपने जीवन में बहुत कम समय के अन्तराल में, जिसको कि वह अनुभव कर सके, सौ रुपये का लाभ अवश्य प्राप्त होगा।
मैं इस नवरात्र में आप लोगों को लाभ देने के लिये उपस्थित हुआ हूँ। मैं उन धर्मग्रन्थों का वर्णन करने के लिये आप लोगों के सामने उपस्थित नहीं हुआ। मेरा जीवन इसलिये आया भी नहीं कि मैं आप लोगों को कहानियाँ और किस्से सुनाता रहूँ, भागवत और गीता सुनाता रहूँ। मगर, एक चीज उस क्षेत्र की भी बता रहा हूँ कि वेद, पुराण, शास्त्र और उपनिषदों का कोई ऐसा सार ज्ञान नहीं, जो आपके गुरु के अन्दर समाहित न हो। यदि उसकी पूर्णता की पात्रता लिये हुये कोई उपस्थित होगा और किसी भी क्षेत्र के रहस्य का ज्ञान आपके गुरु से जानना चाहता है, तो उसको रहस्य का ज्ञान अवश्य दिया जायेगा। मगर, मेरे जीवन का लक्ष्य संकल्पित है। मैं अपनी दिशाधारा में भटक नहीं सकता। मैं तपस्वी था, तपस्वी हूँ और तपस्वी रहूँगा। चूँकि जिसका मैं अंश हूँ, जिसकी मैं चेतना हूँ, उस तपस्थली सिद्धाश्रम की वह चेतना कभी भटक नहीं सकती।

आज समाज के भटकावों को मैं खुली आँखों से देखता हूँ, समाज की स्थितियों को देखता हूँ तथा शिष्यों की भावनाओं और कुभावनाओं को भी देखता हूँ। तड़प भी होती है। कई बार ऐसा होता है कि समाज को कुछ ऐसी अनुभूतियाँ दे दूँ, जिन अनुभूतियों के फलस्वरूप वे दो कदम और आगे बढ़ सकें। मगर, जब दो कदम आगे बढ़ाने के लिए अग्रसर करता हूँ, तो उनके कुसंस्कार आड़े आजाते हैं। चूँकि यदि पात्रता खुद की न हो और अगर कोई चीज किसी में भरना चाहे, तो उसको पचा नहीं पाते। मैं आज भी महसूस करता हूँ कि अगर किसी शिष्य को किसी प्रकार की साधना सिद्धि दे दूँ और उसको दो-चार शत्रुओं से प्रताड़ना मिलने लगे, तो वह तुरन्त उसका अहित करने लगेगा। यहाँ अनेकों शिष्य बैठे हैं। वे शायद मेरी और ‘माँ’ की आराधना थोड़ी बहुत देर करते होंगे और किसी शत्रु से थोड़ा बहुत प्रताड़ित हो जायेंगे, तो ‘उसका नाश हो जाये, उसका सर्वनाश हो जाये’ ऐसी कामनायें दिन-रात करते रहते हैं।
साधना-सिद्धियाँ इसीलिये नहीं होतीं। साधना-सिद्धियों को इतना हल्का मत समझो, इतने हल्के से उनको लुटाओ मत। अगर शत्रु के सर्वनाश की कामना दिन-रात करते हो, तो इसका मतलब आपको अपने गुरु और इष्ट पर विश्वास नहीं। आपने अपने गुरु को सब कुछ समर्पित किया ही नहीं। अगर आप गुरु को पूर्णतया समर्पित हो, तो आपके सामने जो भी परिस्थितियाँ आयें, उनका सामना स्थूल शरीर से अपनी भौतिक क्षमता के आधार पर करो। साधनाओं की क्षमता पर खुद का अधिकार मत रखो। जिस तरह आपका गुरु अपनी स्थूल की क्षमता के बल पर किन्हीं भी परिस्थितियों का सामना करता है, मगर आज तक एक भी साधना का उपयोग बिना माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा की आज्ञा के इस शरीर ने नहीं किया।
मैंने महसूस किया कि बिना तपाये हुये अगर समाज को कुछ प्रदान कर दो, तो अभी समाज में वह पात्रता नहीं है। इसलिये इस नवरात्र से मैंने अपने आपको और संकल्पित किया है कि जो कुछ भी मेरे इस जीवन की भी पात्रता है, उसके द्वारा भी समाज को अब बिना माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा की आज्ञा के किसी को भी सिद्धि और साधना की ओर अग्रसर नहीं करूँगा। मगर, एक पक्ष का दूसरा पहलू मैं अवश्य खोलकर रखता हूँ कि अगर कभी भी देश मेरी ऊर्जा और चमत्कार की स्थिति को देखना चाहे, तो दिखा दूंगा कि एक चेतनावान् पुरुष एक जड़ से जड़ व्यक्ति को किस प्रकार चैतन्य कर सकता है? एक अनपढ़ व्यक्ति समाज के सामने लाकर खड़ा कर दिया जाये, जिसने क, ख, ग, घ भी नहीं पढ़ा हो। मैं कह रहा हूँ कि उसके द्वारा मैं वेद-पुराणों के महत्त्वपूर्ण रहस्यों का उद्घाटन करा दूँगा। वह आप लोगों को ऐसे चिन्तन और प्रवचन देता चला जायेगा, जिसकी आपने कल्पना भी नहीं की होगी। आज चाहे वीरेन्द्र कुमार दीक्षित हों, चाहे रमेश प्रसाद शुक्ला हों, इनके अन्दर जो तड़प है, भावना है, ये व्यक्त नहीं कर पाते। मगर, इनके अन्दर की चेतना कहीं न कहीं से कार्य कर रही है। इस तरह के मैं चाहूँ तो, अनेकों साधक तैयार कर सकता हूँ। मगर, मेरा क्रम एक व्यवस्थित तरीके से है।
समाज को मैं एक ऐसी दिशाधारा देकर खड़ा कर देना चाहता हूँ, जहाँ पर समाज आडम्बरों से मुक्त होजाये, भ्रष्टाचार से मुक्त हो जाये। अनेकों मेरे शिष्य आज भी ऐसे हैं, जो सोचते हैं कि भ्रष्टाचार की तरफ कुछ कदम बढ़ाकर कुछ बहुत गुरुदेव जी के चरणों में लाकर चढ़ा देंगे, तो गुरुदेव जी सन्तुष्ट हो जायेंगे। आपका गुरु नवरात्र पर्व पर कहता है कि भ्रष्टाचार की कमाई लाकर देने में आपका गुरु सन्तुष्ट नहीं होगा और अगर उस धन का कहीं उपयोग करा लेता है, तो उसके पीछे मात्र एक चिन्तन है कि आपका कल्याण हो। अगर आपने गलत भी कोई पाप कमा रखे हैं और यदि वे जनकल्याण के कार्य में लग जाते हैं, तो उनका कुछ सदुपयोग हो जायेगा। आप कम से कम उतने पापों से तो मुक्त हो जायेंगे। मगर, आपका गुरु बार-बार आग्रह करता है कि जिस तरह नशामुक्त जीवन जीने के लिये कहता है, उसी तरह आग्रह करता है कि धीरे-धीरे भ्रष्टाचार से अपने आपको मुक्त करो। जिस समय आपका नशामुक्त जीवन, भ्रष्टाचारमुक्त जीवन हो जायेगा, आपके अन्दर की वह दिव्य ऊर्जा कार्य करने लगेगी, जिस दिव्य ऊर्जा के समक्ष भौतिक जगत् और धन सब तुच्छ हैं।
सूक्ष्म में अलौकिक क्षमतायें होती हैं। अभी आपने दानवीर की एक छोटी सी झलक देखी। पूछें प्रमोद से, जो वहाँ अन्नपूर्णा भोजनालय के भण्डार कक्ष में कार्य करता है। यहाँ दानवीर के आने के पहले मैं स्टोर कक्ष का निरीक्षण करके पीछे के अपने कमरे में प्रवेश करके जा रहा था। एक छोटा सा चक्रवात का झोंका आया और मुझे दो मिनट के लिये रुकना पड़ा था। मैं इसलिये याद दिलाता हूँ कि मैंने किसी को बताया नहीं, अभी उसे भी मैंने नहीं बताया। मगर, जाकर पूछ लेना कि आज मेरे दरवाजे के पास वह चक्र मेरे चरणों के पास आकर दो मिनट तक नाचता रहा और मुझे रुकना पड़ा, फिर मैंने हाथ के इशारे से उसे मना किया। वह अपने स्वरूप का कुछ एहसास कराना चाहता था। यहाँ पर आश्रम में बिना मेरी अनुमति के कुछ घटित नहीं हो सकता। अगर आप देखना चाहते हैं, तो मैं जब चाहूँ, जहाँ चाहूँ, चाहे दिन हो चाहे रात हो, उस दानवीर के स्वरूप के दर्शन आप लोगों को करा सकता हूँ।
यहाँ रामखेलावन शुक्ला खड़े हैं, और भी ऐसे लोग हैं, जो मेरे बचपन की यात्रा से अब तक की यात्रा के बहुत कुछ गूढ़ रहस्य जानते हैं। प्रेतयोनि मेरे बहुत नजदीकी योनि रही है, चूँकि मनुष्य की सबसे नजदीकी योनि सूक्ष्म जगत् में जाने से पहले प्रेतयोनि आती है। और, मैं जब भी जिस क्षेत्र में जाता था, वहाँ बताता था कि कभी क्या इस कमरे में किसी की मौत हुई है? मैंने ऐसे स्वरूप को देखा है। मैं उस व्यक्ति से मिला हूँ। वह ऐसे कपड़े पहने था, इस तरह से भोजन कर रहा था, इस तरह का रूप-रंग है। अक्सर लोग प्रेतयोनियों को बाँध देते हैं। कुछ लोगों ने कहा कि गुरुदेव जी ने दानवीर को कैद कर रखा है। आज तक किसी को, चाहे वह देवयोनि हो, चाहे वह मेरा शिष्य हो, चाहे प्रेतयोनि हो, कैद शब्द मेरे जीवन के शब्दकोश में जुड़ा ही नहीं है। मैं सब को स्वतन्त्र रखता हूँ। आज तक मैंने प्रेतयोनि से कभी अपना सेवाकार्य नहीं लिया। आज अगर किसी को एक प्रेत सिद्ध हो जाये, तो दिन-रात भटक जायेगा। मगर, यदि आपको जानना हो, तो जब से मैं इस आश्रम में आया, दानवीर के बारे में मैंने बहुत पहले चिन्तन दिया था कि इस दिव्य स्थली की अनेकों-अनेकों वर्षों से रक्षा की जाती रही और इस दिव्य स्थान पर, जहाँ आप स्थूल में उपस्थित होते हैं, उससे कहीं अधिक संख्या में सूक्ष्म शक्तियाँ उपस्थित होती हैं। और, वह सूक्ष्म प्रेतयोनि उपस्थित होती है, जो यहाँ का लाभ लेने के लिये लालायित रहती है। मैंने उस योनि का आमन्त्रण किया है, चूँकि उस योनि का उद्धार केवल सत्कर्मों से हो सकता है।
आप लोग देखते होंगे कि किसी को किसी योनि का प्रभाव पड़ जाता है, तो सत्कर्म के लिये कहते हैं कि हमको गया जी करा दो, तो हमको मुक्ति मिल जायेगी। श्री दुर्गाचालीसा में अनेकों भक्तों ने वह भी देखा है कि रात्रि में वह योनि यहाँ आकर परिक्रमा करते हुये अपनी मुक्ति के लिये तड़पती है। आप कल्हारी के उमा प्रताप सिंह से मिलें कि उनके ड्राइवर ने यहाँ क्या देखा था, जब हम लोग कानपुर शिविर के बाद यहाँ आये? जीप यहाँ पर खड़ी हुई थी। एक सुन्दर सा नौजवान यहीं, जहाँ पर इस समय बाथरूम आदि का निर्माण हुआ है, उसी जगह वह बैठा हुआ था। इन्होंने देखा कि कोई सामान्य सा लड़का होगा, जिस तरह आप बैठे हुये हैं। उन्होंने उसको टोक दिया और देखा कि वह उड़ता हुआ दानवीर की गुा की ओर बढ़ गया। साकार रूप में देखा। मगर, उसको टोकने का प्रभाव कि उसको झलकियाँ क्या मिलीं? जब ये जीप लेकर अपने घर कल्हारी गये, तो चार-पाँच लोगों ने जाकर दिन में उसको दबोच लिया, पकड़ लिया और दबाव डालकर एहसास कराया। ड्राइवर कह रहा था कि वह अगर एक हाथ रखता था, तो मुझे लगता था जैसे कुण्टलों का दबाव मेरे ऊपर पड़ गया, जैसे किसी ने अटैक किया हो, जैसे चार-पाँच लोग किसी को मारने के लिये घेरते हैं। तड़पकर जा गिरा दरवाजे में! उमा ने कहा, ‘‘डरने की जरूरत नहीं है, गुरु जी का चिन्तन करो, कुछ नहीं होगा।’’ वे शक्तियाँ उसे छोड़कर चली आईं। जिस तरह मैं आप लोगों को ध्यान लगाने की बात कहता हूँ, वहीं मेरा एकान्त जीवन अनेकों रहस्यों से जुड़ा हुआ है। मैं इसलिये उस दिशाधारा की बात कह रहा हूँ कि इस पवित्र स्थल की स्थितियों को गम्भीरता से लें।
आज आप जिस स्थल पर सामान्य अवस्था में बैठे हैं, आज तो आपको नित्य मेरे चरणों का स्पर्श प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त होजाता है। चूँकि मेरे जीवन का एक भी पल मुझसे छिपा नहीं है। मेरी इसी जीवन की यात्रा में ऐसा समय आयेगा कि आप मेरे चरण स्पर्श प्राप्त नहीं कर पायेंगे। इस दुर्गाचालीसा पाठ के लिये, जहाँ आज आपको चालीसा पाठ करने के लिये मैं खुली छूट देता हूँ, भविष्य में हो सकता है महीनों पहले से नम्बर प्राप्त करना पड़े और उसके बाद भी एक समय मिले कि इतने समय से इतने समय तक केवल आप चालीसा पाठ कर सकते हैं। आप सौभाग्यशाली हैं। मेरे इन शब्दों को आप अपनी डायरियों में नोट कर लीजिये, चूँकि आपका गुरु जो कहता है, वैसा उपस्थित होगा, चूँकि गुरु के जीवन का कोई रहस्य छिपा हुआ नहीं है।
मैंने बचपन से अब तक की यात्रा को अनेकों बार लोगों से व्यक्त किया है कि जब मैंने इस आश्रम की स्थापना नहीं की थी, तब मैंने आश्रम की स्थापना के बारे में बता दिया था। इन्द्रपाल आहूजा को सालों पहले चित्रण दे दिया था, जब कि इस स्थान पर कभी आया नहीं था। वह हरियाणा में स्वप्न के माध्यम से देख चुके थे। जब इस स्थान पर आकर दो-तीन स्थानों को देखा गया, तो इन्द्रपाल आहूजा ने लोगों से बताया कि नहीं, यह स्थान हो ही नहीं सकता। जिस स्थल पर गुरु जी का आश्रम निर्माण होना है, वहाँ पर तो मैंने किनारे से नदी को बहते हुये देखा है। मैं कुछ लोगों को पकड़कर स्नान कराने ले गया था। एक कोई वृद्ध था। मैंने स्वप्न में देखा कि आश्रम में जहाँ पर गुरु जी का स्थान बन रहा है, मैं एक वृद्ध को पकड़कर स्नान कराने के लिये ले गया हूँ। अतः जहाँ पर भी गुरु जी का आश्रम बनेगा, वहाँ पर नदी अवश्य बह रही होगी। आप खुद देख सकते हैं। ये केवल मेरी अनुभूतियाँ नहीं हैं, मेरे शिष्यों की अनुभूतियाँ हैं। शिष्यों की अनुभूतियाँ बताता हूँ, चूँकि जो मेरी अनुभूतियाँ हैं, उन्हें अनुभूतियाँ कहा ही नहीं जा सकता।
जिनकी कुण्डलिनी चेतना जाग्रत् नहीं होगी, वे समाज का कभी कल्याण कर ही नहीं सकते। वे दिन-रात आपके बीच बैठे रहेंगे और आपको दुनियादारी की बातों में रत रखेंगे। उससे समाज का कल्याण नहीं होगा। आप यहाँ के कण-कण को चेतनावान् महसूस करें। हरपल ‘माँ’ की कृपा का एहसास करें। सोने के पहले इस आश्रम का चिन्तन, ‘माँ’ का चिन्तन, मूलध्वज का चिन्तन, दुर्गाचालीसा के पाठ का चिन्तन करके सोयें। हो सकता है कुछ झलकियाँ, कुछ अनुभूतियाँ आप भी प्राप्त करें। अनुभूतियाँ ही जीवन का मूल लक्ष्य नहीं हैं। लक्ष्य आपकी आत्मा की चैतन्यता का है और हर आने वाले भक्त को एक निर्धारित चैतन्यता मेरे द्वारा दी जाती है। सुबह शीघ्र से शीघ्र स्नान करके आप अगर दुर्गाचालीसा पाठ में बैठना चाहें, तो दुर्गाचालीसा पाठ में बैठें। इस स्थान पर आकर मन्त्रजाप करना चाहते हैं, तो मन्त्रजाप करें। मूलध्वज में जाकर परिक्रमा करना चाहें, तो मूलध्वज में परिक्रमा करें।
प्रयास यह करें कि आप अपनी शारीरिक क्षमता का भरपूर उपयोग करें। इतना भरपूर उपयोग करें कि जितना आपने कभी किया ही न हो। आपका गुरु जो कहता है, वह सदैव करता रहता है। जो शिष्य यहाँ रहते हैं, उनसे पूछें कि यहाँ किसी प्रकार का निर्माण कार्य हो, यहाँ चाहे किसी प्रकार की सफाई का कार्य हो, कोई शिष्य यह कह दे कि हमने गुरु जी को वहाँ खड़े हुये नहीं देखा। चाहे यहाँ तार की रुंधाई हो, चाहे किसी पौधे को लगाना हो, चाहे किसी पौधे में पानी डलवाना हो, चाहे कोई निर्माण का कार्य हो, शिष्यों ने हर जगह अपने गुरु को उपस्थित पाया है। यह सब कुछ कैसे सम्भव होता है? सम्भव होता है, अगर आप अपने तन और मन से चोरी न करें। अनेकों शिष्य कहते हैं कि गुरुदेव जी आप धूप में खड़े रहते हैं, हमें बड़ी व्यथा होती है। मैं कहता हूँ कि आपको व्यथा नहीं होती है, बल्कि आपकी अकर्मण्यता आपको विचलित करती है। जिस दिन आपके अन्दर की अकर्मण्यता दूर हो जायेगी, उस दिन आपकी यह व्यथा समाप्त हो जायेगी। चूँकि जब आप कोई कार्य नहीं कर पाते, उस कार्य को करने के लिये आपका गुरु मजबूर है। आप इस आश्रम में आकर सुख-सुविधायें चाहते हैं, जब कि आपके गुरु ने समाजकल्याण के लिये इस आश्रम के निर्माण का लक्ष्य रखा है और उस लक्ष्य में आप अपना सहयोग नहीं करना चाहते, तो आपका गुरु संकल्पित है कि लक्ष्य की पूर्ति अवश्य करेगा।
अगर आप निर्माण कार्यों में तन का सहयोग करें, तो आपका गुरु एकान्त में जाकर साधनायें करके आपको साधनाओं का सहयोग करे। मगर, जब आप इस दिशा में सहयोग नहीं कर पाते, तो आपका गुरु बाध्य है उन कार्यों को खुद खड़ा होकर कराने के लिये। यही कारण है कि मेरे शिष्य देखते हैं कि आठ-आठ, नौ-नौ घण्टे केवल खड़े-खड़े यहाँ कार्य कराते हुये मेरा समय व्यतीत होता है, चूँकि मुझे अपने जीवन के लक्ष्य का एहसास है कि कितने कम से कम समय के अन्तराल में मुझे किन-किन चीजों का निर्माण कराना है। व्यथा अपनी नहीं, व्यथा इस बात के लिये नहीं कि बहुत बड़ा आश्रम बनवा दूँगा, तो उसका उपभोग करूँगा। आश्रम का ही नहीं, मैंने बार-बार कहा है कि त्रिभुवन का सुख भी हर पल पैर से ठोकर मार देने के लिये तत्पर रहता हूँ, चूँकि जिस माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा के आँचल को मैंने प्राप्त किया है, उससे बढ़कर किसी लोक में कोई सम्पदा है ही नहीं, कोई पद है ही नहीं।
आप लोगों से भी चाहता हूँ कि अगर आप भौतिक जगत् के सुख और सुविधायें चाहते हैं, तो एक जीवन केवल मेरे चिन्तनों में गुजार दें, एक जीवन केवल ‘माँ’ की भक्ति करने में गुजार दें और देखें कि आपके अन्दर कितनी बड़ी क्षमता हासिल होती है? आपको क्या कुछ प्राप्त होता है? आप केवल इसी जीवन की सुख-सुविधाओं की चिन्ता न करें। कोई अवस्था आयेगी, जब आप मृत्यु की ओर अग्रसर हो जायेंगे। सबका सब कुछ यहीं धरा रह जायेगा। अगर कोई सम्पदा लेकर जाना है, तो साथ जायेगी केवल अध्यात्म की सम्पदा, तपबल की सम्पदा, आपके आत्मा की चैतन्यता की सम्पदा, जो हर पल आपके साथ रहती है। उसी सम्पदा को लेकर आपका गुरु आपके सम्मुख बैठा है। आज अगर कोई कार्य कराने की मेरी क्षमता रहती है कि एक तरफ मैं विश्व अध्यात्म को चेलैंज देता हूँ, तो दूसरी तरफ दुनिया के किसी मजदूर को भी चेलैंज देता हूँ कि जो कार्य करने की उसकी क्षमता नहीं होगी, वह कार्य करने की क्षमता इस शरीर में है।
यह शरीर केवल गद्दों पर सोना नहीं जानता, यह शरीर कंकड़ों और पत्थरों पर दौड़ना भी जानता है, कंकड़ों और पत्थरों पर सोना भी जानता है तथा एक मजदूर की तरह मजदूरी करना भी जानता है। इसीलिये इस शरीर ने किसी राजा और महाराजा के घर में जन्म नहीं लिया। एक किसान परिवार में जन्म लिया है, मगर एक किसान परिवार में जन्म लेकर समाज को उस दिशाधारा का एहसास कराना चाहता हूँ कि अगर तुम अपने आपको कंगाल समझते हो, तो यह तुम्हारी नादानी है, अकर्मण्यता है। जब एक किसान परिवार में जन्म लेने वाला करोड़ों-अरबों का आश्रम बनवाकर समाज को दे जा सकता है, तो तुम अपने घर-परिवार की सुख-सुविधायें नहीं जुटा सकते? यह तुम्हारी न्यूनता है। एक गुरु कहता है कि तुम मेरे इस ध्वज की शरण में आजाओ, माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा की शरण में आजाओ, मैं पूरे विश्व को रोटी, कपड़ा और मकान प्रदान करने की क्षमता रखता हूँ। अन्नपूर्णा माता के चरणों में वह निवेदन रख सकता हूँ, जिससे अन्नपूर्णा का मेरा भण्डार कभी खाली नहीं हो सकता। दो कदम आगे तो बढ़ो।
आशा करता हूँ कि देश का कोई प्रधानमन्त्री ऐसा हो, जो विश्व स्तर का एक बार ऐसा आध्यात्मिक आयोजन कराये, जिस आयोजन में सत्यता की कुछ झलकियों को रखा जा सके, जिससे समाज को लाभ मिल सके। ये मेरे चिन्तन केवल आप लोगों के लिये नहीं रहते। जब मैं कोई चिन्तन प्रदान करता हूँ, तो उसका प्रभाव समाज में पड़ता है। समाज को शक्ति और साधना दोनों की आवश्यकता है। आप शक्ति के बल पर कुछ भी कर सकते हैं। अतः बिना अध्यात्म मार्ग को पकड़े समाज का विकास नहीं हो सकता।
आपके गुरु के अन्दर क्या क्षमता है? अनेकों लोग बीच-बीच में आते रहते हैं और कहते हैं गुरु जी, आपका यह खर्च कैसे चलता है? गुरु जी, इतना बड़ा आश्रम आप कैसे निर्माण करा पायेंगे? मैंने एक यज्ञस्थल का प्रारूप तैयार किया है। जो मेरे प्रारम्भिक चिन्तन में था, उसका खाका मैंने रखा है। केवल उसके अनुसार अगर मैं निर्माण कराऊँगा, तो अनुमानित लागत करोड़ों रुपये की आनी है। इसे एक निर्धारित समय में मुझे निर्माण कराना ही है। लोग कहते हैं गुरु जी, पैसा कहाँ से आयेगा? मैं कहता हूँ कि जाँच एजेन्सियाँ लगा लो और देखो कि पैसा केवल मेहनत करने से ही नहीं आता, पैसा केवल चोरी और डकैती करने से ही नहीं आता, पैसा केवल स्मगलिंग करने से ही नहीं आता, बल्कि पैसा भक्ति और तपबल से भी आता है।
माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा महाकाली, महासरस्वती, महालक्ष्मी का स्वरूप हैं। समाज महाकाली, महासरस्वती, महालक्ष्मी के स्वरूपों का पूजन करता है और फिर भी उन शक्तियों पर विश्वास नहीं। समाज इसलिये पूर्णता से विश्वास नहीं कर पाता, चूँकि उसको महालक्ष्मी पर विश्वास नहीं, अन्नपूर्णा पर विश्वास नहीं है। अगर विश्वास है, तुम उनके भक्त हो, उनमें और तुममें कोई दूरी नहीं, तो महालक्ष्मी के भण्डार में क्या इस धरतीलोक को भी खिलाने की क्षमता नहीं? क्षमता अनेकों लोकों को खिलाने की है। उन्हीं शक्तियों के बल पर आपका गुरु कहता है कि अगर मैं अन्नपूर्णा का चिन्तन कर दूँगा, तो यहां सबको भोजन मिलेगा। और, चिन्तन तो मेरा चल ही रहा है कि इस आश्रम में आने वाला कोई भी व्यक्ति कभी आश्रम से भूखा नहीं जाता। ‘माँ’ का अखण्ड भण्डारा चलता ही रहता है कि जो भी पूर्ण श्रद्धा से भक्ति के लिये आता है, तो जो भी यहाँ भोजन होता है, उसे कराया जाता है और यह क्रम कभी रुकेगा भी नहीं। कम से कम इस शरीर के रहते तो रुकेगा ही नहीं और इस शरीर के आगे आने वाले समाज के हाथों के ऊपर होगा कि मेरे द्वारा लुटाई जाने वाली सम्पदा को वह सदुपयोग की दिशाधारा में लगा पायेंगे कि नहीं!
आप लोगों के घरों की भी कंगाली मिट सकती है। आप लोग यही समस्यायें तो लेकर मेरे पास आये हैं। इन समस्याओं के निदान देने की सामर्थ्य महालक्ष्मी, महासरस्वती, महाकाली में है। अगर उनका केवल एक रजकण प्राप्त हो जाये, एक किरण आपकी ओर घूम जाये, तो आपकी सब समस्यायें दूर हो सकती हैं। मगर, उस किरण की ओर आपकी निगाहें भी उठना जरूरी हैं। मैंने दुर्गाचालीसा भवन में महालक्ष्मी, महासरस्वती, महाकाली के स्वरूपों की भी स्थापना की है। आप जब दुर्गाचालीसा के पाठ को करें, तो उसके एक-एक शब्द पर चिन्तन रखें, एक-एक शब्द का स्मरण करें। उसमें सब कुछ समाहित है। मात्र दुर्गाचालीसा के माध्यम से आप अपना कल्याण कर सकते हैं, चाहे आप गरीब हों चाहे अमीर हों, चाहे अनपढ़ हों, चाहे पढ़े-लिखे हों। अतः शेष समय पर दुर्गाचालीसा के पाठ में अपने आपको रत करें। इसके अन्त में लिखा है ‘सब सुख भोग परम पद पावै।’ सब कुछ सार तो है उसमें कि आप सभी सुखों का भोग करके परम पद को भी प्राप्त कर सकते हैं।
अनेकों लोगों ने पूछा कि इस दुर्गाचालीसा का निर्माण किसने किया? आप लोग अगर थोड़ी सी भी बुद्धि लगायें, तो एहसास हो जायेगा कि आपके गुरु ने कभी इसका निर्माण किया होगा। इस ‘शक्तिपुत्र’ की स्थिति को प्राप्त करने के लिये जिस तरह मैंने कहा है कि कोई दिन वह आयेगा, जब ‘माँ’ मुझे भोजन करायेंगी और समाज देखेगा। उसी तरह इस भौतिक जगत् में मैं एहसास कराना चाहता था कि जब तक मुझे वह ‘शक्तिपुत्र’ का स्थान नहीं प्राप्त होगा, तब तक मैं अपनी अखण्ड साधनाओं में समाज के बीच जाकर ही रत रहूँगा और ‘माँ’ के चरणों में सूक्ष्म में मेरा जो स्थान है, वह अलग स्थिति है।
मैंने कहा है कि मेरे पूर्व के दो जीवन, जिनमें मैंने समाज में अपने आपको उजागर नहीं किया, समाज के बीच व्यतीत हुये हैं। समाज की समस्त परिस्थितियों का आकलन करने के लिये, समाज के उन खोखले ग्रन्थों का आकलन करने के लिये, समाज के उन आडम्बरों का आकलन करने के लिये, समाज की गरीबी, अमीरी और भ्रष्टाचार का आकलन करने के लिये और ‘माँ’ के चरणों में अपनी तपस्या के माध्यम से ‘माँ’ को प्रसन्न करने के लिये व्यतीत हुए हैं। और, जिस दुर्गाचालीसा के पाठ का प्रारम्भ मैंने यहाँ पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम में करा रखा है, उस दुर्गाचालीसा का निर्माण भी आपके इसी गुरु के पूर्व के शरीर के द्वारा किया गया है। गुरु का लक्ष्य कर्मयुक्त है। किसी समय मैंने निर्माण किया और चिन्तन किया कि आने वाले समय में मैं इसका प्रवाह समाज में फैलाऊँगा, इसके लिये मुझे चाहे अनेकों जन्म ही क्यों न लेने पड़ें। और, यह तीसरे जन्म की ही स्थिति है कि ‘माँ’ का अखण्ड पाठ प्रारम्भ कराने के लिये ‘माँ’ की कृपा से मुझे पात्रता प्राप्त हुई है। वह पात्रता मैंने अपने लिये नहीं ली। यही कारण है कि कभी मैं बैठकर ‘माँ’ के दुर्गाचालीसा का पाठ सस्वर नहीं करता। आपके स्वरों को एकाग्र होकर ध्यान के माध्यम से ‘माँ’ के चरणों में समर्पित करता हूँ, चूँकि मेरा जो लक्ष्य था, वह इस प्रवाह से प्राप्त हुआ है।
इस प्रवाह को कोई रोक नहीं पायेगा। अगर खुली आँखों से देखना है, तो सत्यता के प्रमाण अपनी आँखों से देख लो कि दुर्गाचालीसा के प्रवाह की यह गंगा बह निकली है, जिसको रोकने की सामर्थ्य किसी में नहीं है। उसके सामने समस्त धार्मिक क्रियायें तुच्छ पड़ जायेंगी, चूँकि सत्यता के पलड़े को कोई दबा नहीं सकता। यही कारण है कि पहले जो भगवद्गीता का पाठ कराते थे, वे अब श्री दुर्गाचालीसा के 24 घण्टे के पाठ को कराकर अपने आपको धन्य महसूस करते हैं। हर घर में दुर्गाचालीसा पाठ हो रहे हैं। हजारों जगह से पत्र आ रहे हैं कि गुरुदेव जी, हम दुर्गाचालीसा का पाठ कराना चाहते हैं। हर प्रान्त में, हर जिले में, हर तहसील में, हर गाँव में पाठों के क्रम का सिलसिला चल पड़ा है। इस सिलसिले के लिये मुझे ज्यादा प्रयास नहीं करना पड़ता है, मगर इस सिलसिले के पीछे छिपी है अनेकों जन्मों की यात्रा। इसीलिये तो आपका गुरु कहता है कि केवल इसी जन्म से अपने आपको मत बाँधो। आपका गुरु अगर कोई साधनायें, चेतनायें लेकर कहता है कि विश्व जगत् के लिये मैं अन्नपूर्णा के भण्डार खोल सकता हूँ, तो उसके पीछे केवल इसी जीवन की साधनायें नहीं हैं। आपका तपबल हर पल आपके साथ रहता है। आपका केवल स्थूल ही तो छूटता है। आपका सूक्ष्म आपके साथ जाता है। आपकी अच्छी-बुरी क्रियाओं के रूप में सत्कर्म और दुष्कर्म के रूप में यहाँ से साथ जाता है।
अतः यह यात्रा जो आपको मिल रही है, उसमें अपने गुरु के साथ दो कदम बढ़ने का प्रयास करें। दो कदम चलें। अगर नहीं चलेंगे, तो यह आपका दुर्भाग्य होगा। मैं समाज के पीछे नहीं भग रहा। हर मंच से मैं व्यक्त करता हूँ, मैं ‘माँ’ के पीछे भग रहा हूँ, ‘माँ’ के आँचल के पीछे भग रहा हूँ कि ‘माँ’ का वह आँचल मुझसे कभी छूट न जाये, कभी बिछुड़ न जाये। ‘माँ’ की वह सम्पदा मुझसे छिन न जाये, जो ‘माँ’ ने अपनी कृपा से मुझे प्रदान कर रखी है। वह मुझसे कहीं कोसों दूर न चली जाये। अगर समाज के लिये सत्यता है, अगर मैं समाजकल्याण के लिये बढ़ रहा हूँ, तो ‘माँ’ की कृपा से बढ़ रहा हूँ। चूँकि मैं आपके अन्दर भी ‘माँ’ की चेतना, ‘माँ’ के अंश का एहसास करता हूँ। अतः आपकी सेवा करने में ही मैं ‘माँ’ की सेवा समझता हूँ। आप मुझे नहीं समझ पाते, इससे मेरे अन्दर व्यथा नहीं होती। मगर, जब आप ‘माँ’ को नहीं समझ पाते, श्री दुर्गाचालीसा में एकाग्र नहीं हो पाते, शिष्यों की कही हुई बातों को आडम्बर समझते हैं, तो निश्चित ही आपका गुरु रोता है, तड़पता है कि किस प्रकार से ‘माँ’ की शक्ति का एहसास कराऊँ? अगर चमत्कार करता हूँ, तो अपने पथ से भ्रष्ट होता हूँ और जब सत्यता की वाणी में जाकर व्यक्त करता हूँ, तो उसे आप आडम्बर समझते हैं, आप दो कदम बढ़ नहीं पाते।
आप लोगों से भी कहता हूँ कि ‘माँ’ की आराधना करो। ‘माँ’ की भक्ति में सब कुछ समाहित है। अगर आपने केवल ‘माँ’ की भक्ति प्राप्त कर ली, तो देवी-देवता, ऋद्धियाँ-सिद्धियाँ आपके इशारों की गुलाम होंगी। आपका गुरु कहता है कि मैं किसी का गुलाम नहीं हूँ, गुलाम हूँ तो माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा का गुलाम हूँ। मगर, मैं जिस ऋद्धि और जिस सिद्धि का उपयोग करना चाहूँ, मुझे कोई रोक नहीं सकता। उसके पीछे गर्व और घमण्ड नहीं। किन्तु, मैं ‘माँ’ के उन चरणों की कृपा का भी एहसास दृढ़ता से नहीं कराता हूँ, तो मेरी अपनी न्यूनता होगी। जिस कृपा को मैंने प्राप्त किया है, जिस तरह आप अपने गुरु को साकार देख रहे हैं, उसी तरह जब चाहे, जहाँ चाहे, जिस परिस्थिति में चाहे आपका गुरु माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा से एकाकार कर सकता है। आवश्यकता होती है उन भावनाओं की, जिन भावनाओं को माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा ने मुझे प्रदान किया है।
‘माँ’ और मेरे बीच कभी गर्व और घमण्ड की बात नहीं आयेगी। जहाँ पर भी समाज के बीच मैंने अपने ‘मैं’ शब्द का उपयोग किया है, वहाँ पर समाज को ‘माँ’ की शक्ति का एहसास कराने के लिये किया है, चूँकि आज तक किसी भी मनुष्य के पास अपनी बात कहने के लिये ‘मैं’ शब्द के अलावा कोई शब्द निर्मित ही नहीं हुआ। भगवान् कृष्ण भी इस धरती पर आये हैं, तो ‘मैं’ शब्द से ही उन्होंने अपनी सत्यता, अपनी प्रमाणिकता का एहसास कराया है। जब कभी भविष्य में समाज कोई दूसरा शब्द दे देगा, तो मैं उसका उपयोग करने लगूँगा। अतः कभी मेरे ‘मैं’ के चक्कर में उलझ मत जाना। चूँकि ‘मैं’ के दो स्वरूप होते हैं, एक स्थूल का और दूसरा सूक्ष्म का। सूक्ष्म का ‘मैं’ प्रकृतिसत्ता से जुड़ा रहता है। जब कोई चेतनावान् साधक अपनी चेतना में आकर ‘मैं’ शब्द का उच्चारण करता है, तो वह ‘मैं’ शब्द उसके शरीर से नहीं निकलता। वह उस चेतना के प्रवाह से निकलता है, जिस चेतना का वह अंश होता है। अतः जिस तरह की यात्रा को तय करके आपके गुरु ने उस कृपा को प्राप्त किया है, उसी यात्रा में आप लोगों को बढ़ा रहा है। अतः जितने भी क्षण मिलें, जितना भी समय मिले, उसका उपयोग यहाँ करें।
आप एक तपस्वी का जीवन जियें, चूँकि सब कुछ तपबल पर आधारित है। तप के बिना कुछ भी सम्भव नहीं। अगर आज कोई विज्ञान के क्षेत्र में बढ़ रहा है, राजनीति के क्षेत्र में बढ़ रहा है, तो कहीं न कहीं उसके पूर्व के संस्कार हैं और संस्कार कभी कुमार्ग पर चलकर नहीं प्राप्त होते। कुमार्ग पर चलकर केवल कुसंस्कार प्राप्त होते हैं। अगर संस्कार मिले हैं, चाहे वे राजपथ पर जाने के हों, चाहे धर्मपथ पर जाने के, तो कहीं न कहीं उसने सत्कर्म किये होंगे। कहीं न कहीं तो उसने मानवसेवा की होगी। कहीं न कहीं तो उसने सत्यता की यात्रा तय की होगी। उसी सत्यता की यात्रा की ओर इस समाज को लेकर चलने का मेरा चिन्तन है। जिस दिव्य स्थल पर आप बैठे हैं, आने वाले समय में वहां पर एक विशाल दिव्य स्थल का निर्माण होना है, चैतन्य स्थल का निर्माण होना है।
आज आपका गुरु बहुत सरल स्थितियों में अपनी बातों को व्यक्त करता है। आने वाले समय में उस सरलता की प्रमाणिकता आपके सामने उजागर होती चली जायेगी। मगर, तब तक जो समय है, वह अगर गुजर गया, तो वह समय आपके बीच फिर नहीं आयेगा। मेरे ये शब्द तो आप कैसेटों से भी सुन सकते हैं, मेरे शिष्यों से सुन सकते हैं। मगर, मेरे साथ गुजारने की यात्रा जो आप लोगों को मिलेगी, वह सौभाग्य दुबारा और बार-बार नहीं मिलेगा। इसीलिये मैं जब आप लोगों के सम्मुख बैठता हूँ, तो मैंने कहा है कि मैं अगर कुछ भी न बोल रहा हूँ, तो भी मेरी निगाहें आपके अन्दर कुछ भरने का कार्य करती रहती हैं। आप लोगों की समस्याओं से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करती रहती हैं। अनेकों लोगों की घटनायें-दुर्घटनायें टालने का मार्ग प्रशस्त करती हैं।
आप नजदीक रहने वाले बृजपाल चौहान से मिलें, तो अनेकों घटनायें आपको मिल जायेंगी कि कभी अचानक मेरे शरीर में तड़पन पैदा होजाती है। अनेकों प्रकार की ऐसी बीमारियाँ होजाती हैं। चूँकि मैंने बार-बार कहा है कि विज्ञान या डॉक्टर जब भी चाहें, चौक कर सकते हैं। मैं अपने शरीर के दोनों स्वरूपों का एहसास करा सकता हूँ कि किसी समय चौक कर लें, मेरे शरीर में कभी किसी प्रकार की बीमारी नहीं मिलेगी और किसी समय चौक कर लें, तो डॉक्टरों की आँखें फटी रह जायेंगी कि क्या इस तरह की घातक बीमारी को लेकर भी कोई इस तरह बोल सकता है, चल सकता है और अपनी क्रियायें कर सकता है। आपकी समस्यायें मैं कहने मात्र से दूर नहीं करता। उसको खुद अपने शरीर में तकलीफों के रूप में लेता हूँ। अगर आप मुझे अधिक तकलीफें नहीं देना चाहते, तो सत्कर्मों के मार्ग पर आप खुद बढें़ और नशामुक्त जीवन जियें।
आपका गुरु कहता है कि आपने किसी भी प्रकार का दुष्कर्म किया हो, किसी प्रकार का पापकर्म किया हो, आप नशा करते रहे हों, अगर इस आश्रम में आकर वे पापकर्म छोड़ देते हैं, नशा छोड़ देते हैं, तो पूर्व के समस्त पापों को आपका गुरु ग्रहण करने के लिये लालायित रहता है। चूँकि मुझे ज्ञान है कि मेरे पास अभी ‘माँ’ की कृपा का भण्डार इतना बड़ा भरा हुआ है कि मैं चाहे जितना लुटाऊँगा, वह कभी खत्म नहीं होगा। मेरे लुटाने का केवल दुरुपयोग न होने पाये, सदुपयोग हो। अतः उस यात्रा को आप लोग तय करें।
अब हम उस यात्रा की ओर बढ़ेंगे, आरती के उन महत्त्वपूर्ण क्षणों पर, जिन क्षणों पर मैं आप लोगों को माँ की विशेष कृपा प्रदान करने के लिये ‘माँ’ के चरणों में चिन्तन करता रहता हूँ। और, इन्हीं शब्दों के साथ मैं आज का पूर्ण आशीर्वाद आप समस्त लोगों को समर्पित करता हूँ।
बोलो जगदम्बे मातु की जय!