प्रकृति का मूल शब्द ‘माँ’ है ‘ऊँ’ नहीं

शक्ति चेतना जनजागरण शिविर, सिद्धाश्रम, 21.10.2004

इस समस्त प्रकृति ब्रम्हाण्ड का जो मूल शब्द है, जो सर्वप्रथम प्रकृति के कण-कण में, इस लोक में, अनंत लोकों में बीज रूप में समाया है। जिसे उच्चारण करने के लिए किसी माध्यम की आवश्यकता नहीं होती, जो स्वतः सभी के मुख से सदैव उच्चारित होता रहता है। यह मूल बीज शब्द ‘माँ’ है।
ऐसे प्रकृति के गूढ़ रहस्य सद्गुरुदेव युग चेतना पुरुष परमहंस योगीराज श्री शक्तिपुत्र जी महाराज ने शारदीय नवरात्रि के पावन पर्व पर पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम स्थल पर जो म.प्र.के शहडोल जिले की ब्यौहारी तहसील में ब्यौहारी से रीवा रोड पर मऊ ग्राम के पास स्थित है, में सम्पन्न द्वि-दिवसीय शक्ति चेतना जनजागरण शिविर के प्रथम दिन दिनांक 21.10.2004 को अपने प्रवचनों के दौरान पचासों हजार माँ के भक्तों की उपस्थिति में व्यक्त किये-
‘माँ’ शब्द ही एक ऐसा मूल बीज शब्द है, जिसे मानव के साथ-साथ पशु-पक्षी, कीट पतंग व समस्त जीव जन्तु भी उच्चारित करते हैं।
यहां तक कि नवजात शिशु (चाहे वह किसी योनि का हो) भी जिसे किसी भी तरह के शब्द या मंत्र बोलने का ज्ञान नही रहता, फिर भी उसके मुख से स्वतः ही पहला शब्द ‘माँ’ ही निकलता है और जीवनपर्यन्त ‘माँ’ शब्द मुख से निकलता रहता है। यहां तक एक पशु-पक्षी, जानवर के बच्चे का जन्म जब होता है तो उसके मुख से जो भी पहला उच्चारण का स्वर होता है उसमें माँमय वातावरण नजर आता है। ‘माँ’ शब्द को किसी भी माध्यम की आवश्यकता नहीं है। जबकि ‘ऊँ’ या अन्य बीज मन्त्र या महामंत्र का ज्ञान प्राप्त करने के लिये एक सामर्थ्यवान सद्गुरु की आवश्कता होती है। परन्तु ‘माँ’ शब्द ही एक ऐसा मूल बीज शब्द है जिसे उच्चारित करने के लिये किसी भी माध्यम की आवश्कता नही पड़ती, वह स्वतः ही प्रत्येक मुख से उच्चारित होता है। वह ही इस समस्त प्रकृति ब्रम्हाण्ड का, इस लोक व अन्य लोकों का मूल बीज शब्द है।
प्रत्येक व्यक्ति को चाहिये कि वह ‘माँ’ शब्द को जाने। इसके लिये हमें अपने शरीर की रचना को समझना पड़ेगा। इस शरीर में एक स्थूल शरीर है, उसके अन्दर एक सूक्ष्म शरीर है और सूक्ष्म शरीर के अन्दर एक कारण शरीर है, और उस कारण शरीर में ही वह आनंदमय कोष है जिसमें उस दिव्य चेतना का वह स्थान है जहां पर प्रकृति का एक अंश आत्मा के रूप में स्थापित रहता है, और इस पूरे शरीर को संचालित करता है। उसी आत्मा के बल पर ही हम यह जीवन जी रहे हैं। नौकरी-व्यापार में सफलता अर्जित कर रहे हैं, देश-विदेश में प्रतिष्ठा प्राप्त कर रहे हैं मगर उस आत्मा के बल के प्रभाव को मानव बहुत सीमित दायरे मे ही अर्जित कर पाते हैं। उसका उपयोग इतना कम कर पाते हैं कि उस आत्मा के हजारवें या मैं कह दूं कि उसके करोड़वें हिस्से का भी वो फल प्राप्त नहीं कर पाते हैं। यदि आप अपने जीवन में चाहते हैं कि हम उस आत्मा की चैतन्यता प्राप्त कर सकें, प्रकृति को पहचान सकें तो अपने जीवन में परिवर्तन लाना पड़ेगा और इसके बाद ‘माँ’ और ‘ऊँ’ साधना को क्रमिक गति से अपने जीवन में अपनाकर ही हम अपने अन्दर बैठी उस ‘माँ’ की अंशस्वरूप दिव्य आत्मा को चैतन्य कर सकते हैं।
यह ‘माँ’ और ‘ऊँ’ की साधना सभी साधनाओं से सरल है जहाँ इस साधना को पढ़ा लिखा व्यक्ति कर सकता है तो अनपढ़ भी इस साधना को अपनाकर अपने जीवन में परिवर्तन कर सकता है। इस साधना से जहां शरीर के स्वास्थ्य में लाभ मिलता है, आयु में वृद्धि होती है वहीं शरीरगत एवं मानसिक विकारों का नाश भी स्वतः हो जाता है। काम, क्रोध लोभ, मोह वश में हो जाते हैं एवं सतोगुण की प्रधानता होने लगती है। माँमय कोष जाग्रत होने लगता है जिससे व्यक्ति का चतुर्दिक विकास होने लगता है। अपने अन्दर बैठी आत्मा चैतन्य होने लगती है और आत्मा की चैतन्यता ही हमें मान, प्रतिष्ठा, सम्मान किसी कार्य में सिद्धि दिलाने में पूर्ण सहायक होती है।

चिन्तन प्रदान करते हुए सद्गुरुदेव परमहंस योगीराज श्री शक्तिपुत्र जी महाराज

मेरा लक्ष्य माता भगवती जगज्जननी जगदम्बा जी की चेतना को जन-जन में जाग्रत कर मनुष्यता का निर्माण करना है। मैं अपने शिष्यों को माँ भगवती की साधना उपासना का वह मार्ग बताने आया हूँ जिसे प्रत्येक शिष्य अपने जीवन मे अपनाकर इस जीवन के गृहस्थ के कर्तव्यों का निर्वहन करते हुये, अपने अन्दर बैठी हुई अपनी आत्मा को भी चैतन्य कर सके, जिससे प्रत्येक शिष्य अपने इस जीवन में भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों ही तरह की सफलता प्राप्त कर सके क्योंकि इस कलयुगी वातावरण से ग्रसित जीवन में केवल माता भगवती की कृपा ही आध्यात्मिक एवं भौतिक पूर्णता प्रदान कर सकती है। अतः मैं यही आप लोगों से चाहूंगा कि आप लोग अपने जीवन में थोड़ा सुधार लायें, विवेकवान बनें, अज्ञानता को त्यागकर ज्ञानवान बनें और इस ‘माँ’ रूपी ज्ञान के प्रवाह को समझें, इस प्रवाह से जुड़ें। अपने पथप्रदर्शक सद्गुरुदेव को भी समझें, पहचानें क्योंकि एक सद्गुरू ही अपने शिष्य को सही रास्ता दिखाता है और अपने ऊर्जात्मक प्रवाह से शिष्य को पूर्णता तक पहुंचाता है।
गुरु और शिष्य का नाता आत्मीयता का नाता होता है। जब शिष्य पूर्ण समर्पण भाव से अपने श्री गुरूदेव जी के चरणों में नतमस्तक हो जाता है तो वह सच्चा सद्गुरू भी अपने शिष्य को अपनी तपस्या का अंश प्रदान कर पूर्णता की ओर अग्रसर करता है और यह तभी सम्भव है जब तुम अपने गुरु से समर्पण भाव से एकाकार हो जाओ, और तुम अपने सद्गुरू से एकाकार हो गये तो निश्चय ही माता भगवती की कृपा भी प्राप्त कर लोगे। मैं अन्य अनेकों गुरुओं की तरह अपने प्रत्येक शिष्यों के घर-घर जाकर हलुआ-पूड़ी नहीं खा सकता, मैं चाहूं तो भी ऐसा नहीं कर सकता क्योंकि मेरे जीवन का लक्ष्य माँ भगवती की साधना उपासना को जन-जन तक फैलाने का है। अपनी आन्तरिक चेतना (कुण्डलिनी शक्ति) के माध्यम से अपनी साधनात्मक ऊर्जा को जन-जन तक फैलाने का है, जिससे समाज में ‘माँ’ मय वातावरण पैदा हो सके। निश्चय ही मैं अपने प्रत्येक शिष्य (जिसने मुझसे दीक्षा ली है) के घर सशरीर तो नहीं जा सकता परन्तु जब मेरा शिष्य पूर्ण नशामुक्त व मांसाहारमुक्त होकर शुद्धता के साथ अपने घर में मेरे द्वारा बताये गये नियमों से माता भगवती एवं अपने श्री गुरुदेव जी की आरती एवं चालीसा पाठ व साधनात्मक क्रम प्रत्येक दिन अपनाता है तो मेरी अन्तर्चेतना (सूक्ष्म शरीर) उसके घर (दरवाजे) तक जरूर पहुंचती है। अब आप कैसा सम्मान दे पाते हैं, आप किस तरह का वातावरण बना पाते हैं यह आपके ऊपर है। इसलिये अतिथियों का स्वागत करना सीखें, उनका मान सम्मान करना सीखें। सौभाग्यशाली वह व्यक्ति होते हैं जिसके घर किसी दूसरे की आत्मा आकर भोजन करती है। उन आत्माओं के बीच आपके गुरु की भी सूक्ष्म उपस्थिति हो सकती है।
आज समाज की विडम्बना है कि मनुष्य अपने ऐशो-आराम में तो हजारों-लाखों खर्च कर देंगे परंतु माँ भगवती की पूजा के नाम पर पूजा वाली छोटी सुपाड़ी मंगानें का भाव रखेंगे, माता के आसान पर पतला सा मलमल का कपड़ा ही बिछायेंगे, तेल का दीपक जलायेंगे। जिस परमसत्ता की कृपा से हम ऐशो-आराम का जीवन जी रहे हैं, अच्छा-अच्छा खाना खा रहे हैं, अच्छे-अच्छे कपड़े पहन रहे हैं और उसी परमसत्ता की आराधना के समय आप सभी पहले से ही न्यून भाव लेकर आरती-पूजन करते हैं। जब यह न्यूनता आपके समर्पण में आ गई तो आप कुछ प्राप्त नहीं कर सकते, प्रकृतिसत्ता से आप कुछ भी प्राप्त करने के अधिकारी नहीं बन सकते। ‘‘तेरा तुझको अर्पण, क्या लागे मेरा’’ जब तक यह भाव आपके अन्दर नहीं आयेगा तब तक हम प्रकृतिसत्ता से कुछ प्राप्त नहीं कर सकते क्योंकि जो मेरे पास है वह सब प्रकृतिसत्ता का दिया हुआ है, उसमें से कुछ समर्पण करने का भाव भी हम नहीं ले पाते तो प्रकृतिसत्ता आपको और ज्यादा क्यों दे? जबकि अगर सत्य देखा जाये तो यह गलती समाज की कम एवं उन पढ़े-लिखे अधिकांश कर्मकाण्डी ब्राम्हणों की ज्यादा है जिन्होंने समाज के अंदर यह भ्रम फैला दिया है कि पूजा के लिये छोटी सुपाड़ी चढ़ायें, परन्तु अपनी दक्षिणा कम नहीं बताते, बल्कि उसे ज्यादा से ज्यादा लेने की कोशिश करते हैं।
इन्हीं परिस्थितियों से समाज के अंदर ज्ञानवान कर्मकाण्डी व्यक्तियों के प्रति अनास्था पैदा होती चली जा रही है। इन न्यून भावों से अपने आपको निकालना है। प्रकृति सत्ता की साधना उपासना पूर्ण समर्पण भाव से करना है, तभी आपका तथा सारे समाज का कल्याण संभव होगा।
आज जहां चारो तरफ कलयुगी वातावरण फैला हुआ है तथा असत्य, अधर्म, छल, कपट, झूंठ एवं ठगी का बोलबाला है, ऐसे में धार्मिक (सात्विक) व्यक्ति समझ ही नहीं पाता कि वह किस पर विश्वास करे और किस पर अविश्वास? ऐसी परिस्थिति में अगर आप चाहते हैं कि हमें कोई ठग न सके, छल न सके, बरगलाकर गलत रास्ते पर न डाल सके, तो इसके लिए जरूरी है कि आप सब अपनी अन्तर्चेतना को जाग्रत करें, जिससे आप लोग सत्य-असत्य की कुछ पहचान कर सकें, और यह भी जान सकें कि कहां पर हमारा हित हो सकता है और कहां पर अहित? एक सामने वाला व्यक्ति हमें जो कुछ समझाने की कोशिश कर रहा है वह हमारे लिये कितना हितकारी है। यह सब जानने समझने के लिये जरूरी है कि आप लोग मेरे द्वारा बताई साधना ‘माँ’ और ‘ऊँ’ उच्चारण साधना को अपने जीवन में नियमित अपनाकर अपनी अन्तर्चेतना को इतना जाग्रत एवं चैतन्य कर लें कि तुम्हारी अन्तर्चेतना तुम्हें सदैव सत्य-असत्य का ज्ञान कराती रहे, गलत रास्तों से बचाती रहे, सत्यता का मार्ग दर्शन कराती रहे।
पहली बार यह महत्वपूर्ण साधनात्मक चिन्तन परम पूज्य सद्गुरुदेव युग चेतना पुरुष धर्मसम्राट अन्तरंग योगों के महान ज्ञाता परमहंस योगीराज श्री शक्तिपुत्र जी महाराज ने दिनांक 22.10.2004 को शारदीय नवरात्रि के पावन पर्व पर पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम स्थल पर जो मध्य-प्रदेश प्रान्त के शहडोल जिले की ब्यौहारी तहसील में, ब्यौहारी से रीवा रोड पर 7 किलोमीटर दूर मऊ ग्राम के पास समधिन नदी के पावन तट पर स्थित है, में आयोजित जनजागरण शिविर के दौरान पचासों हजार माँ के भक्तों व भगवती मानव कल्याण संगठन के सदस्यों की उपस्थिति में व्यक्त किये थे। आप सबको मालूम हो कि ये वही अवतारी युग चेतना पुरुष हैं जिनके विषय में अपने देश व दूसरे देशों के भविष्यवक्ता आज से लगभग 400 वर्ष पूर्व ही अपनी-अपनी भविष्यवाणियों मे लिख गये थे कि इनका जन्म किस सन् मे होगा, इनके गृहस्थ का नाम क्या होगा? किस जाति में जन्म लेंगे व किस प्रान्त व किस जिले के किस गांव में जन्म होगा और सप्ताह के किस दिन को अपना महत्वपूर्ण दिन घोषित करेंगे एवं इनके शरीर मे किस तरह के महत्वपूर्ण योग पड़े होंगे आदि-आदि।
आगे के चिन्तनों में श्री गुरुदेव योगीराज श्री शक्तिपुत्र जी महाराज ने कहा कि यह जो ‘माँ’ और ‘ऊँ’ उच्चारण साधना है, यह सभी साधनाओं से सरल है। इस साधना को जहां एक पढ़ा-लिखा व्यक्ति कर सकता है वहीं एक अनपढ़ व्यक्ति भी कर सकता है। इस साधना के निरंतर करने से जहां शरीर के स्वास्थ्य में लाभ मिलता है वहीं मनुष्य की आयु में वृद्धि होती है। इस साधना के माध्यम से विषय विकारों का नाश स्वयं हो जाता है। काम, क्रोध, लोभ, मोह को नष्ट करने की आवश्यकता नहीं होती और न ही इन्हें नष्ट किया जा सकता है क्योंकि ये प्रकृति के स्वरूप हैं, मगर इन्हें इस साधना के माध्यम से अपने वशीभूत जरूर किया जा सकता है। अपनी अन्तर्चेतना को चैतन्य बनाया जा सकता है तथा शरीरगत रोगों को दूर किया जा सकता है। इस साधना के माध्यम से मानसिक एकाग्रता प्राप्त की जा सकती है और ध्यान के क्रमों से होते हुये समाधि तक पहुंचा जा सकता है। अपने अन्दर समाहित माँ की वह दिव्य ज्योति, जिसके दर्शन करने के लिये अनेकों साधु-सन्त कई-कई जीवन तक लगा देते हैं, के भी दर्शन प्राप्त किये जा सकते हैं।
आगे श्री गुरुदेव जी महाराज ने साधनात्मक क्रम बताते हुये कहा कि सर्वप्रथम इस साधना को करने वाला व्यक्ति ब्रम्हमुहूर्त में किसी शान्त जगह या अपने पूजन कक्ष में कोई भी आसन बिछाकर, उस आसन में साधक सुखासन या पद्मासन में अपनी मेरूदण्ड को सीधा कर बैठ जाये और गहरी श्वांस भरें और धीरे-धीरे निकाल दें। इस प्रकार 5 या 7 बार पूर्ण गहरी श्वांस भरें और धीरे-धीरे निकालें। इसके बाद पुनः पूर्ण श्वांस लेकर ‘माँ’ का उच्चारण (गुंजरण) मध्यम गति से करें। इसी प्रकार पूर्ण श्वांस अपने अंदर भरकर ‘ऊँ’ का उच्चारण (गुंजरण) करें। इस क्रम से पहले दिन पाँच मिनट तक यह उच्चारण करें, फिर इसे प्रतिदिन एक-एक मिनट बढ़ाते हुये 15 मिनट तक प्रतिदिन उच्चारण करने की आदत डालें। इसके बाद शान्ति से 15 मिनट तक सीधे पीठ के बल शवासन में लेट जायें और उस ऊर्जा को अपने अन्दर समाहित करने की भावना मन में करें। इस उच्चारण क्रम से शरीर में एक गुंजरण होता है, एक मंथन होता है और इस मंथन से शरीरगत रोगों से मुक्ति मिलती है, अन्तर्चेतना का विकास होता है, प्राणवायु सक्रिय होती है। कालान्तर में देवताओं और असुरों ने समुद्र का मंथन कर अमृत निकाला था लेकिन अमृत के साथ विष भी निकला था। परन्तु मानव शरीर जो कि देवताओं के लिये दुर्लभ कहा गया है, यदि इस ‘माँ’ और ‘ऊँ’ के माध्यम से इस शरीर का मंथन किया जाये तो शरीरगत विषरूपी विषय-विकार नष्ट होते हैं एवं अमृतरूपी अनेक क्षमताएं धीरे-धीरे विकसित होने लगती हैं। जिस प्रकार दूध में बहुत कुछ समाहित रहता है परन्तु यदि दूध को सामान्य तौर पर ऐसे ही रख दिया जाये तो चौबीस घंटे के बाद वह सड़ने लगता है और बेकार हो जाता है मगर यदि हम घी निकालने की प्रक्रिया को सीख लें कि किस प्रकार दूध में जामन डालकर जमा दें तो उसके सेवन से स्वास्थ्य लाभ ले सकते हैं। ठीक उसी तरह शरीर के अन्दर समाहित अन्तर्चेतना है। अगर हम अपने शरीर की रचना का ज्ञान प्राप्त कर इस ‘मा’ और ‘ऊँ’ उच्चारण साधना से गुंजरणरूपी मंथन करें तो हम उस दिव्य चेतना तक पहुंच सकते हैं और उसे चैतन्य बना सकते हैं, यही दिव्य चेतना शरीर को चलाती है। हमारे ऋषियों, मुनियों ने चीख-चीख कर कहा है कि जो इस निखिल ब्रम्हांड में है, वह सब कुछ तुम्हारे अंदर समाहित है। जरूरत है इसे देखने की, समझने की, फिर भी आप लोग इससे कोसों दूर हैं। इस शरीर के अंदर बैठी हुई उस माँ की अंशस्वरूप दिव्यात्मा तक तुम पहुंच नहीं पा रहे हो। तुम लोग भटक रहे हो भौतिकतावाद की चमक में, क्योंकि तुम्हें ज्ञान ही नहीं है अपने अन्दर की सत्यता का, क्षमताओं का और न ही कोई सही मार्गदर्शक मिला है जो तुम्हें अन्दर की गहराई में उतरने की कला सिखा सके, तुम्हें तुम्हारा परिचय करा सके। तुम्हें कथा सुनाने वाले कई गुरू तो मिले हैं परन्तु तुम अपने अंदर की गहराई में उतरकर उस दिव्यज्योति के दर्शन कर सको, ऐसा ज्ञान देने वाला सद्गुरू नहीं मिला। यही कारण है कि उस दिव्य शक्ति ‘माँ’ जगज्जननी से दूरी बढ़ती गई। परन्तु मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूं कि तुम लोग अगर मुझ पर विश्वास कर सको, मेरे बताये गये रास्ते में चलने का संकल्प ले सको तो मैं यह ज्ञान साधना जरूर बताऊंगा जिसे अपनाकर तुम अपने आप ही गहराई में उतर सको और अपनी अन्तर्चेतना को प्रभावक बनाते हुये उस परमसत्ता माँ की अंशस्वरूप दिव्यज्योति के दर्शन अपने आज्ञाचक्र में कर सको।
आगे श्री गुरुदेव जी महाराज ने बताया कि इस ‘ऊँ’ बीज मंत्र में अकार, उकार, मकार और विराम चार पद जुड़े हैं। ये हमें एहसास कराते हैं कि हमारे शरीर में रजोगुण, तमोगुण, सतोगुण के बाद वह दिव्यज्योति बैठी है। अतएव इस बीज मंत्र के साथ तीनों का उच्चारण एक साथ है। इस ‘ऊँ’ के माध्यम से इस पूरी प्रकृति में भी तीन चीजें समाहित हैं, स्थूलता, सूक्ष्मता और चेतनता जिस तरह अनेकों चीजों की आप जड़ देखते हैं, मिट्टी, पत्थर आपको जड़ नजर आते हैं परन्तु इन्हीं मिट्टी पत्थरों के बीच एक बीज अंकुरित होता है। उसमें सूक्ष्म चेतना तत्व छिपा रहता है जो उस प्रकृति का सूक्ष्म कार्य कर रहा होता है। उस प्रकृति की चेतना तरंग कार्य कर रही होती है। बीज अंकुरित होता है, पेड़ बनता है, फूलता है, फलता है फिर इसी मिट्टी में ही समाहित हो जाता है। इसी तरह की जड़ता इस पूरे भौतिक जगत में है और उस जड़ता के अन्दर सूक्ष्म है और उस सूक्ष्म के अंदर समाहित है कारण और उस मूल कारण के अनेक कारण इस प्रकृति में फैले हुये हैं, और जब सृष्टि का विलय होता है तो हम उस मूल कारण में समाहित हो जाते हैं। और उस मूल कारण में छिपी हुई है वह पूर्ण दिव्यज्योति जो माता भगवती आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा जी का मूल स्वरूप है। अतः हम उस मूल विचारधारा को ग्रहण करें, अपने मन में भावना लायें कि इस ‘ऊँ’ बीज मन्त्र के गुंजरण के माध्यम से इस स्थूल से सूक्ष्म में होते हुये उस कारण शरीर के अंदर बैठी उस मूलसत्ता की अंशस्वरूप दिव्य चेतना तक पहुंच रहे हैं और उसकी ऊर्जा में अपना काम, क्रोध, मोह लोभ, अहंकार तिरोहित कर रहे हैं, हमारे अंदर की जड़ता दूर हो रही है। एक नई चैतन्यता रग-रग मे समाहित हो रही है और एक शक्ति हमारे अंदर प्रवाहित हो रही है। तब इसी प्रकार हम एकाग्रता से ‘माँ’ बीज मन्त्र का उच्चारण करते हैं तो हम अपने अंदर स्थापित आनंदमय कोष में बैठी ‘माँ’ की अंशस्वरूप दिव्य चेतना तरंगों को बाहर खींचने का भाव लेते हैं। चूंकि भाव पक्ष से सब कुछ होता है, भावना के वशीभूत ही सब कुछ है, आप समाज में ही देखिये कि जिस तरह के भाव आप बनायेंगे, आपका शरीर तत्काल वैसा ही करने लगेगा, आप वासनात्मक भाव बनाते हैं, तो आपका शरीर वासनायुक्त हो जाता है, आप किसी स्त्री के प्रति बहन-बेटी का भाव लेते हैं तो उसी तरह की भावनायें आपके शरीर में कार्य करने लगती हैं। आप किसी के प्रति शत्रुता का भाव लेते हैं तत्काल आपके शरीर में क्रोध जाग्रत हो जाता है क्योंकि भाव पक्ष में ही सब कुछ छिपा हुआ है। इसीलिए जब हम ‘माँ’ का उच्चारण करें, तो ये भाव रखें कि मेरेे अंतःकरण का जो आनन्दमय कोष है, जिसकी चेतना से हमारा शरीर चल रहा है उसकी चेतना तरंगे हम बाहर की ओर निकालते हुये हमारे अन्दर समाहित सतोगुण को ऊपर उठाते हुये रजोगुण के ऊपर बढ़ा रहे हैं और रजोगुण से ऊपर ले जाकर उस तमोगुण में सतोगुण की स्थापना कर रहे हैं। अगर हमारे अन्दर रजोगुण की प्रधानाता होगी तो हमारे अन्दर लोभ-लालच बढ़ते हैं, और उनसे बढ़कर तमोगुण का जो अहंकार होता है उसके ऊपर हमारा सतोगुण खड़ा हो जाये, जो ‘माँ’ का मूल तत्व है, मूल स्वभाव है, जो इन सभी काम, क्रोध, लोभ, मोह से परे है, जो दिव्यात्मा है, चैतन्य है, वह चैतन्य शक्ति मेरे रोम-रोम में समाहित हो जाये, और यह चेतना तरंगे मष्तिस्क से होते हुये हमारे पूरे शरीर को चैतन्य बना दें। आगे श्री गुरुदेव जी महाराज ने कहा कि इस ‘ऊँ’ बीज मंत्र के लगातार गुंजरण के माध्यम से इस शरीर के अन्दर स्थूल से सूक्ष्म में होते हुये कारण शरीर में स्थापित आनन्दमय कोष तक पहुंचने की क्रिया करते हैं और इसी प्रकार ‘माँ’ बीज मंत्र के लगातार गुंजरण के माध्यम से उस आनन्दमय कोष से कारण शरीर में होते हुये सूक्ष्म शरीर से स्थूल शरीर में इस ऊर्जा को फैलाने की क्रिया करते हैं और जब हम एक क्रम से ‘माँ’ बीज मंत्र और ‘ऊँ’ उच्चारण की क्रिया को एक के बाद दूसरे को लगातार करते हैं। तब शरीर के अंदर एक ऊर्जात्मक चेतना तरंगे पैदा होने लगती हैं, जो इस शरीर के रोगों में भी लाभ देती हैं और अपने अंदर स्थापित सातों चक्रों मे भी थिरकन देती हैं। निश्चित है कि कुण्डलिनी चेतना को जाग्रत करना तो एक लम्बी एवं कठिन यात्रा है, इसके लिये अनेकों कठोरतम् साधनाएं करनी पड़ती हैं किन्तु यदि एक शिष्य अपने सद्गुरू के सच्चे मार्गदर्शन में एक जन्म गुजार दे, तो पर्याप्त है कुण्डलिनी जागरण के लिये, अन्यथा सही मार्गदर्शन के अभाव में कई जन्म भटकना पड़ सकता है। इन सातों चक्रों में थिरकन ही आ जाये तो ही हमारे शरीर की अन्तर्चेतना की कार्यक्षमता हजारों गुना आगे बढ़़ जाती है। इस ‘माँ’ और ‘ऊँ’ उच्चारण साधना को गृहस्थ में रहते हुये, व्यापार करते हुये, अपने बाल-बच्चों के साथ पारिवारिक जीवन जीते हुये भी कर सकते हैं। इस साधना के माध्यम से अपनी सुप्त ऊर्जा को उभार सकते हैं, और उस ऊर्जा के माध्यम से अनेक आश्चर्यजनक कार्य कर सकते हैं।
आगे श्री गुरुदेव महाराज ने कहा कि एक योगी क्यों कहता है कि अपने हाँथ के स्पर्श से किसी व्यक्ति की बीमारी को दूर कर सकता है क्योंकि वह इस तरह की महत्वपूर्ण साधनाओं को अपने जीवन में आत्मसात् करके रखता है इसलिये इस तरह के आश्चर्यजनक कार्य कर पाता है परन्तु इसका मतलब यह नहीं है कि वह हर एक व्यक्ति की बीमारी को दूर करता फिरेगा। उसके अंदर इस बात का आत्मबल रहता है कि जब कभी वह चाहे यह सब कर सकता है। इन्हीं क्रियाओं के माध्यम से एक ऋषि में त्रिभुवन के सुख को पैर से ठोकर मारने की संकल्प शक्ति जाग्रत होती है क्योंकि जो कुछ क्षमताएं योगी के पास होती हैं वह त्रिभुवन का सुख पाने वाले के पास नहीं होती जबकि यह सब आप भी प्राप्त कर सकते हैं। प्रत्येक मनुष्य के अंदर इस तरह की चेतना तरंगे समाहित रहती हैं, जरूरत है उन्हें जाग्रत करने की। जब आप इन चेतना तरंगों को इन साधना क्रमों से उभारेंगे तो धीरे-धीरे आपके अंदर भी वह सामर्थ्य आती जायेगी। अगर आप उन चेतना तरंगों का एहसास करना चाहते हैं तो इस क्रम को अपनाएं। जब आप नियमित क्रम से इस उच्चारण क्रम को लगातार करेंगे तो आपके शरीर में चेतना तरंगों का प्रवाह जाग्रत होकर बाहर की ओर फैलेगा। आप अपनी चेतना तरंगों को लगातार इन उच्चारण क्रमों के माध्यम से जाग्रत करें व उन पर नियंत्रण करके एक दिशा की ओर फेंकना शुरू करें और शांत बैठकर अपने मन में यह कल्पना करें कि मैं यह ऊर्जा तरंगें अपने किसी नजदीकी व्यक्ति के पास भेज रहा हूँ। क्योंकि आपको अपने अंदर की गहराईयों तक पहुंचने के बाद उस तरफ सोचना पड़ेगा। आप सोचें की आपके शरीर के अंदर से चेतना तरंगें जाग्रत हो रही हैं और मेरे पुत्र या भाई या पत्नी के पास जाकर उसकी परेशानी दूर कर रही हैं, आप निर्धारित व्यक्ति तक अपनी तरंगें भेज पायें या न भेज पायें किन्तु आपकी चेतना सत्य की चेतना तरंगों से तालमेल अवश्य बिठा लेगी और यह ऊर्जात्मक तरंगें कई गुना अधिक बढ़कर आपके शरीर में प्रवेश करने लगेंगी, आपके अंदर कल्याणकारी भावनायें उत्पन्न होने लगेंगी। यह एक विधान है सूक्ष्म जगत का, जब कोई सोच जनकल्याण की दिशा में डालें तो कई गुना ज्यादा वह चेतना तरंगें वापस आती हैं और यदि आप पतन की ओर सोचते हैं तो पतन के मार्ग की ओर वह चैतन्य तरंगें जाने लगेंगी, और वह आपकी ओर से खिचती चली जायेंगी। इसलिये चेतना तरंगों को जनकल्याणकारी भावना ही दें कि विश्व का कल्याण हो, विश्व में सभी सुखी हों, सभी नशामुक्त हों, सभी मांसाहार से दूर रहें। यह भाव अपने अन्दर लें और देखें, आपकी चेतना तरंगे उससे कई गुना ज्यादा वापस आने लगेंगी। जिस तरह आप किसी पहाड़ी क्षेत्र में चले जायें और एक बार कोई आवाज उच्चारित करें तो वह आवाज उस पहाड़ी से टकराकर वापस आती है। यही तो चेतना तरंगों का स्वाभाविक गुण है।
जो चेतना हमारे अन्दर बैठी है, वही आपके अन्दर बैठी है, और जब कोई पूर्ण चेतना तरंगों से थोड़ा भी स्पर्श करा दे तो तुरंत ही वह चेतना तरंगें आपकी ओर खिचने लगेंगी। इन क्रमों को अपनाने के लिये ब्रम्हमुहूर्त में प्रातः चार बजे से लेकर सुबह 8 बजे तक के बीच 10 मिनट का कोई समय निर्धारित कर लें और आप इन बीज मंत्रों का उच्चारण जनकल्याणकारी भावों को लेकर करें तो आपकी सोच के अनुसार यह तरंगे कई गुना ज्यादा वापस आकर आपके शरीर व मन का कल्याण करेंगी। यदि आप शारीरिक रूप से बीमार हैं तो आपको बीमारी में धीरे-धीरे लाभ मिलने लगेगा। और यदि आप अन्य किसी विषय विकार से ग्रसित हैं तो वह विषय विकार भी धीरे-धीरे करके आपसे दूर होने लगेंगे। केवल आप इन बीज मंत्रों का उच्चारण क्रम से करते रहें और चेतना तरंगों का अहसास करते रहें। जिस तरह एक माँ कराहते, तड़पते अपने शिशु पर केवल प्रेम से हाँथ लगाती है तो उस बच्चे को राहत मिल जाती है। जरा सोचिये यह राहत कैसे मिलती है, माँ के हाथों में आखिर क्या है? बच्चे की स्थिति देखकर माता-पिता के हाथ में ममता की चेतना तरंगें जागृत होने लगती हैं और बच्चे को राहत मिलने लगती है और जब आप लोग अपने बच्चों के प्रति ममता की चेतना तरंगों को जगाकर उन्हें स्नेह और वात्सल्य के वशीभूत कर लेते हैं, उन्हें अपना बना लेते हैं, तो यही क्रिया एक बार समाज के साथ करें और देखें कि समाज आपका बनता है कि नहीं। धीरे-धीरे समाज भी आपके हित की बात सोचने लगेगा। जिस तरह आप अपने पुत्रों को राहत दे देते हैं, उसी तरह आप सभी समाज को भी राहत देने वाले कर्मवीर व धर्मवीर बन जायेंगे।
इसके लिये इन सत्य मार्गों को तय करना पड़ेगा, मेरे द्वारा दिये गये चेतना मंत्रों का जाप करना पड़ेगा। ‘माँ’ और ‘ऊँ’ के उच्चारण क्रम को अपनाना पड़ेगा। मात्र 21 दिनों मे लगातार आपको आनंद आने लगेगा, एक तृप्ति मिलेगी और अगर वास्तविकता में आप अपने जीवन में परिवर्तन चाहते हैं तो आज से ही इन क्रमों को अपना लें और जीवन पर्यन्त अपनाये रहें, सफलता आपके कदम चूमेगी। मेरा आशीर्वाद सदैव आपके साथ रहेगा।
बोलो आदिशक्ति जगतज्जननी जगदम्बे मात की जय!

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