आज्ञाचक्र की शरण

शक्ति चेतना जनजागरण शिविर, सिद्धाश्रम, 13.10.2002

बोलो माता भगवती आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बे मातु की जय! आज नवरात्र के अति महत्त्वपूर्ण दिनों में इस त्रिदिवसीय साधना शिविर में यहाँ उपस्थित अपने उन कार्यकर्ताओं को जो सेवाकार्य में लगे हैं, अपने समस्त शिष्यों को, भक्तों को, श्रद्धालुओं को और जिज्ञासुओं को अपने हृदय में धारण करता हुआ माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा का पूर्ण आशीर्वाद प्राप्त करता हुआ अपना पूर्ण आशीर्वाद आप समस्त लोगों को समर्पित करता हूँ।
हम और आप सभी सौभाग्यशाली हैं कि इस पवित्र सिद्धस्थली पर नवरात्र के इन महत्त्वपूर्ण क्षणों में आप समस्त लोगों का वह महत्त्वपूर्ण समय गुजर रहा है, जिसे आप लोग महत्त्वपूर्ण समझते हैं। वर्ष में दो बार नवरात्र पर्व आते हैं। ये नवरात्र पर्व हमें आत्मचिन्तन करने के लिये प्राप्त होते हैं, आत्मजागरण की ओर बढ़ने के लिये प्राप्त होते हैं। इन क्षणों पर हमें एक मौका मिलता है कि हम अपने आपका आकलन करें, अपने अन्तःकरण का शोधन करें तथा स्थिर होकर एक बार विचार करें कि हम क्या हैं? हमारा लक्ष्य क्या है? हम अब तक क्या कर रहे हैं? हमें क्या करना चाहिये? नवरात्र पर्व में केवल व्रत और उपवास रह लेने से ही जीवन की पूर्णता प्राप्त नहीं होती, ‘माँ’ के जयकारे लगा देने मात्र से जीवन की पूर्णता प्राप्त नहीं होती तथा कथायें, कहानियाँ और भागवत सुन लेने से जीवन की पूर्णता प्राप्त नहीं होती। वैसे तो नवरात्र चार प्रकार के होते हैं। चार नवरात्र होती हैं, मगर दो नवरात्र गुप्त माने गए हैं। समाज के लिये केवल जागृति के दो नवरात्र समाज को प्रदान किये गए हैं कि हर छः माह बाद वे नौ महत्त्वपूर्ण दिन समाज के लोग व्रत-उपवास रहते हुये और कुछ न कुछ समय प्रकृति के साथ गुजारते हुये अपने आपका आकलन करें, पूर्व में हुईं अपनी गलतियों के सुधारने का मनन-चिन्तन करें, भविष्य के लिये एक निर्णय लें और बार-बार विचार करें कि हम हैं क्या और हमें करना क्या है?
समस्त तिथियों, समस्त पर्वों, समस्त त्योहारों से बढ़कर नवरात्र के जो नौ दिन समाज को प्राप्त होते हैं, वे अति महत्त्वपूर्ण दिन होते हैं किसी भी महत्त्वपूर्ण कार्य के लिये। इन नवरात्र के दिनों में कोई भी कार्य आपको करना हो, तो कोई विचार करने की आवश्यकता नहीं रहती। नवरात्र के इन दिनों में प्रकृति की पूर्ण कृपा बरसती है। हर चीज का एक व्यवस्थित विधान है। कोई उसे देख न पाये, यह उसकी अज्ञानता होगी। जिस तरह यह निर्धारित है कि सूर्योदय कब और कहाँ होना है? सूर्य का उदय जिस तरह निर्धारित है, उसी तरह प्रकृति का एक विधान भी निर्धारित है। जिस तरह गुरु आपका आवाहन करता है कि वर्ष में एक बार इस शिविर का लाभ लेने के लिये, त्रिदिवसीय शिविर का लाभ लेने के लिये आप यहाँ उपस्थित हों और मैं अपनी साधनातरंगों को आपके हृदय में समाहित कर सकूँ, उसी तरह उस प्रकृतिसत्ता का एक विधान है और सूक्ष्म की उन अनन्त सत्ताओं का एक विधान है कि समाजकल्याण के लिये जो शक्तियाँ, जो चेतनातत्त्व, इस भूतल का जो योगी-ऋषि समाज से कहीं न कहीं किसी प्रकार से जुड़ा हुआ है, इन नवरात्र पर्वों में उनकी चेतनातरंगें समाज की ओर आती हैं, इस धरती की ओर प्रवाहित होती हैं। और, उन सौभाग्यशाली क्षणों पर यदि हम अपने अन्दर पात्रता विकसित करें, अपने आपको पात्र बनाने का प्रयास करें, तो हम बहुत कुछ हासिल कर सकते हैं।
अपने आपको केवल संयमित करना है, सन्तुलित करना है, मर्यादित जीवन व्यतीत करना है और इसके लिये मैंने पूर्व में अनेकों बार चिन्तन दिया है कि नवरात्र का पर्व हो-हल्ला मचाने के लिये नहीं होता है। नवरात्र का पर्व इसलिये नहीं होता कि जगह-जगह हर चौराहे पर केवल प्रदर्शन के लिये मूर्तियाँ स्थापित कर दो और कौन मूर्तियाँ किस प्रकार का इनाम पाती हैं, कौन सी फर्स्ट आती हैं, कौन सी सेकेण्ड आती हैं? इस पर पूरा ध्यान चिन्तन रहता है। वहीं पर सिगरेट पी जाती है, वहीं पर शराब पी जाती है और शराब पीकर रतजगा कराया जाता है। हमें सौभाग्य के क्षण मिलते हैं। उन्हें भी हम दुर्भाग्य में बदल डालते हैं। ‘माँ’ की आराधना करना है, इन नवरात्र के दिनों को उपयोगी दिन बनाना है, तो किसी न किसी तपस्थली को तलाशना चाहिये, किसी न किसी दिव्यस्थल की शरण में जाना चाहिये और अगर कहीं कोई जगह नहीं मिलती, तो मनुष्य को अपने घर में ही एक छोटा सा पूजन स्थान बनाकर ‘माँ’ के पूजन-आराधना में अपने नौ दिन गुजारने चाहिये। और, नौ दिन गुजारने का तात्पर्य यह नहीं है कि आप व्रत के ऊपर व्रत रहते जायें और कह दें कि हम निर्जला व्रत रह रहे हैं तथा तीन-चार दिन में असन्तुलित हो जायें। जिस तरह आपका शरीर धीरे-धीरे ढल सके, उसके लिये मैंने एक व्यवस्थित विधान समाज के लिये दिया है।

परम पूज्य सद्गुरुदेव जी महाराज के चिन्तन श्रवण करते हुए भक्तगण
परम पूज्य सद्गुरुदेव जी महाराज के चिन्तन श्रवण करते हुए भक्तगण

नवरात्र पर्व पर केवल दिन में व्रत रहने की आवश्यकता है। थोड़ा बहुत जो फलाहार लेना चाहें, उस फलाहार का उपयोग करें। सायंकाल सूर्यास्त के बाद अपने घर में पूजन-आरती करके जो भी रूखा-सूखा और सात्त्विक भोजन दाल, चावल, नमक, रोटी हो, एक समय भोजन कर सकते हैं। कोई आवश्यक नहीं कि रात्रि को फलाहार करें और फल तो सभी हैं। गेहूँ का दाना भी एक फल है, दाल भी एक फल है और आपके अंगूर, सन्तरे, मुसम्मी और सेब भी एक फल हें। जो तृप्ति आप दाल, चावल, नमक और रोटी से प्राप्त कर सकते हैं, तो यदि रात्रि में आप केवल फलाहार ले लेंगे, तो आपको शान्ति नहीं मिलेगी। आपके जीवन में शान्ति और सन्तुलन मिले, इसलिये जो शुद्ध और सात्त्विक भोजन है, उसे आप ले सकते हैं। मगर, उसके बाद भी अगर कोई फलाहार पर रहना चाहता है, तो इसके लिये मैं वर्जित भी नहीं करूँगा। अगर कोई नौ दिन भी फलाहार पर रहना चाहता है, तो रह सकता है। मगर, यदि वह सायंकाल भोजन भी ले लेता है, तो भी उसी प्रकार उसका व्रत सन्तुलित रहता है, चूँकि व्रत में मध्य रात्रि से लेकर सायंकाल सूर्यास्त के बाद भोजन अवश्य ले लेना चाहिये। वैसे इन क्रमों में जहाँ मैं लोगों को चिन्तन देता हूँ, वहीं मेरी खुद स्वतः की बच्चियाँ निराहार व्रत रह रही हैं। पूजा, जो बड़ी बच्ची है, दिनभर वह एक बूंद जल भी ग्रहण नहीं करती। मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि जहाँ मैं समाज को चिन्तन देता हूँ, वहीं स्वतः अपने जीवन में अपने आसपास अपनी ऊर्जा के माध्यम से मुझे कुछ कहने की जरूरत नहीं पड़ती और वही दिशा रहती है। आप लोगों को मैं अवगत कराता हूँ कि इस नवरात्र के शिविर में जिन चेतनातरंगों को मैं आप लोगों को प्रदान करता हूँ और यदि आप सपरिवार नहीं आ सकते, तो परिवार का एक ही सदस्य उपस्थित हो। वही बहुत कुछ प्राप्त कर लेगा।
आज इन महत्त्वपूर्ण क्षणों पर आप समस्त भक्त कुछ न कुछ जिज्ञासायें लेकर आये हैं, कुछ न कुछ आशा लेकर आये हैं। मेरे पूर्व के अनेकों चिन्तन हैं कि काया आपकी महाठगिनी है, माया नहीं। अनेकों बार मैंने सचेत किया है कि एक-एक पल को सार्थक बनायें। यदि आप कुछ प्राप्त करना चाहते हैं, यदि आप कुछ पाना चाहते हैं, तो मैंने अपना परिचय पूर्व में अनेकों बार दिया है। मैं एक ऋषि का जीवन जीता हूँ। मैं साधु, सन्त और संन्यासी का जीवन नहीं जीता। साधु, सन्त और संन्यासी तथा ऋषि में क्या फर्क है? यह फर्क मैंने पूर्व के अपने चिन्तनों में बताया है। एक ऋषि चेतनात्मक चिन्तन का जीवन जीता है। एक ऋषि खुद अपना मार्ग प्रशस्त करता है। एक ऋषि कभी कहानी, किस्सों और उन रूढ़िवादी परम्पराओं के पीछे नहीं भागता, जो मानवता को पतन की ओर लेजाते हैं। एक ऋषि अपने आपमें पूर्ण जीवन जीता है और समाज को पूर्णत्व की ओर लेजाता है। यदि आप मुझसे कुछ प्राप्त करना चाहते हैं, यदि आप मेरी चेतनातरंगों से कुछ प्राप्त करना चाहते हैं, तो आपको अपने आपका शोधन करना पड़ेगा। अपने आप पर विजय प्राप्त करनी होगी। मेरे द्वारा वह मार्ग बतलाया जाता है। मैंने कभी अपने जीवन में एक पल भी निरर्थक जीवन नहीं जिया। एक पल भी अकर्मण्यता का जीवन नहीं जिया। बचपन से लेकर आज तक सदैव एक कर्मवान् बनकर मैंने जीवन जिया है। एक साधक के रूप में मैंने सदैव जीवन जिया है। उन साधनाओं के बीच में जो भी उतार-चढ़ाव आते हैं, उन उतार-चढ़ावों को हर दृष्टिकोण से मैंने अपने शरीर में समाहित किया है।
समाज में नाना प्रकार की भ्रान्तियाँ फैली हुई हैं कि कथायें आपका कल्याण कर देंगी, कथावाचक आपका कल्याण कर देंगे, ऐसा सम्भव नहीं। अलौकिक खजाना आपके शरीर के अन्दर समाहित है। आप जो बाहर खोजते हैं, वह सब कुछ आपके अन्दर समाहित है। और, जब आपके अन्दर समाहित है, तो आपको मिल क्यों नहीं पा रहा? क्योंकि आप पराधीन हैं और पराधीन कभी स्वप्न में भी सुखी नहीं रहता। आपको लगेगा कि हम पराधीन कैसे हैं? आप भौतिकता की पराधीनता तो समझ लेते हैं। आप किसी के यहाँ नौकरी कर रहे हैं, किसी की गुलामी कर रहे हैं। आपको वह पराधीनता तो नजर आजाती है, उस पराधीनता के खिलाफ तो आप विद्रोह कर उठते हैं, मगर जिस सबसे बड़ी गुलामी के आप शिकार हैं, जिस दिन आप उस पराधीनता से मुक्ति का निर्णय लेलेंगे, उस दिन असहायता, असमर्थता का जीवन एक पल के लिये भी नहीं जियेंगे। जिस तरह आपका गुरु कहता है कि मेरे जीवन के किसी भी क्षेत्र में असहायता-असमर्थता जैसे शब्द भी मेरी डिक्शनरी में नहीं हैं, उसी तरह आप अलौकिक क्षमताओं से परिपूर्ण हैं। उन्हें खोजने का प्रयास करें और सौभाग्य के ये क्षण आप लोगों को प्राप्त हुये हैं। यदि आप इस दिव्य स्थली पर प्रयास करें, अपने एक-एक पल को सार्थक बनाने का प्रयास करें, तो जो वर्षों में नहीं कर सकते, यह तीन दिन ही आपको बहुत कुछ आगे खींचकर लेजा सकते हैं। अपने आप पर विजय पा लेने से सभी क्षेत्रों पर विजय स्वाभाविक प्राप्त होजाती है। आप महसूस नहीं कर सकते, आप देख नहीं सकते कि आपके अन्तःकरण पर कितने आवरण चढ़े हुये हैं।
मैंने पूर्व के अपने चिन्तनों में चिन्तन दिया है कि अकार, उकार और मकार से होते हुये हम पूर्ण सत्य की उस आत्मा तक जा सकते हैं। आपके शरीर में तीन-तीन शरीर समाहित हैं। स्थूल शरीर, उसके बाद सूक्ष्म शरीर और उसके बाद समाहित है कारण शरीर। और, इन तीन-तीन शरीरों में केवल आप एक स्थूल शरीर पर ही समाहित होकर रह जाते हैं। आप अपनी चेतनातरंगों को प्राप्त ही नहीं कर पाते। आप खोजते फिरते हैं बाहर, तलाशते फिरते हैं बाहर, हाथ फैलाते फिरते हैं बाहर। मगर, यदि आप मेरे बताये हुये मार्ग पर अपने अन्तःकरण में खोजना प्रारम्भ कर दें, तो सभी क्षेत्रों में धीरे-धीरे करके आपको सफलता मिलती जायेगी। वह अलौकिक चेतना, वह प्रकृति की दिव्य चेतना हर मनुष्य के अन्दर समाहित है। उसकी क्षमता क्या है, इसका वर्णन करना भी किसी के वश की बात नहीं है। यदि हम उस चेतनातरंग का स्पर्श प्राप्त कर लें, यदि उसकी तरंगों को प्राप्त कर लें, तो आप जीवन के जिस क्षेत्र में भी बढ़ना चाहें, दुनिया की कोई ताकत उस क्षेत्र में आपको बढ़ने से रोक नहीं सकती। आपकी पूर्ण कुण्डलिनी चेतना जाग्रत् हो या न हो, केवल चेतनातरंगों को यदि आप प्राप्त करने लगें, तो आपकी सोचने-समझने की शक्ति बढ़ने लगेगी, कार्य करने की आपकी शक्ति बढ़ने लगेगी। क्या करना है, क्या नहीं करना है? उसी तरह के विचार आपके मन-मस्तिष्क में आने लगेंगे। और, इसके लिये सर्वप्रथम आपको नशामुक्त जीवन जीना होगा। यदि आप अपने आप पर विजय प्राप्त करना चाहते हैं, तो सर्वप्रथम एक संकल्प लें कि हम नशामुक्त जीवन जियेंगे। मानवजीवन की अगर सबसे बड़ी बुराई है, सबसे बड़ा अवगुण है, तो वह है नशा। और, यदि हम अपने आपकी तृप्ति को प्राप्त करना चाहते हैं, उस प्रकृति के नशे को प्राप्त करना चाहते हैं, तो अपने अन्तःकरण की ओर झाँकना प्रारम्भ कर दें। मानव के अन्दर वह अलौकिक नशा समाहित है, जिसकी तुलना किसी नशे से नहीं की जा सकती। जिस समय ध्यान-साधना से कोई मनुष्य समाधि की ओर बढ़ने लग जाता है, तो वह अलौकिक तृप्ति प्राप्त होती है, जिसके बराबर दुनिया के इस भौतिक जगत् में कोई भी ऐसा सुख नहीं है, जो तृप्तिपूर्ण कर सके।
आप लोग एक कान से सुनते हैं और दूसरे कान से निकाल देते हैं। आप लोगों को इन महत्त्वपूर्ण क्षणों पर एक-एक पल को सार्थक बनाना चाहिये। आपका अधिकांश समय निरर्थक चर्चाओं में गुजर जाता है, जब कि आपको चाहिये कि नित्य कुछ न कुछ मन्त्रों का जाप करें, ध्यान-चिन्तन में बैठें, चालीसा पाठ में बैठें। चूँकि मेरे चिन्तन उस दिशा में अधिक हैं कि आपका एक-एक पल सार्थक हो। मैं यही चाहता हूँ। जो नये जिज्ञासु आये हैं, उन्हें लग सकता है कि कहने को तो कोई भी कुछ भी कह सकता है, मगर यदि किसी को कुछ जानना है, कुछ समझना है, तो उसकी नजदीकता को प्राप्त करना पड़ेगा। उसके नजदीक आकर ही उसके शरीर पर घटने वाले उतार-चढ़ावों को देखा जा सकता है। जिस ऊर्जा को लेकर एक योगी बैठता है, वह ऊर्जा यदि किसी सामान्य शरीर में प्रवेश मात्र करा दी जाये, तो शरीर के हजारों टुकड़े हो जायेंगे। वह सामान्य ताप नहीं होता है, जिस ताप को जगाकर योगी समाजकल्याण के लिये उपस्थित होता है। पिछले तीन माह से किन परिस्थितियों से मुझे गुजरना पड़ा है और आपके कल्याण के लिये मुझे उस दिशा से अपने आपको रोकना पड़ता है। आप लोग सोचते हैं कि गुरुदेव जी के हमें बार-बार दर्शन नहीं होते, गुरुदेव जी की हम बार-बार नजदीकता नहीं प्राप्त कर पाते, मगर शायद आप मेरे कार्य करने के तरीके को समझ नहीं पाते। एक योगी का, एक ऋषि का कार्य करने का तरीका चेतनातरंगों के माध्यम से होता है। वह आपके पास बैठकर या आपसे वार्तालाप करके उतना लाभ नहीं दे सकता, जितना अपनी चेतनातरंगों के माध्यम से दे सकता है। आप इस नदी के इधर इस दिव्य स्थली सिद्धाश्रम पर आ जाते हैं और हर पल मेरे चिन्तन में रहते हैं। आप कहाँ क्या कर रहे हैं? एक योगी से कुछ छिपा नहीं रहता। यह मुझसे जुड़े शिष्य जानते हैं। मैं चाहता हूँ कि आपका एक-एक पल इस दिव्य स्थली पर सार्थक हो, आप अपने अन्तःकरण की ओर बढ़ें, अन्तःकरण की ओर झाँकना प्रारम्भ करें और उसके लिये आप यहाँ ध्यान में नित्य बैठें। आपका ध्यान नहीं लगता, तब भी दस-पाँच मिनट अवश्य बैठें। बिल्कुल अपने आपको शून्य करने का प्रयास करें।
ध्यान का विषय बहुत विस्तार का है। मैं यहाँ बहुत संक्षिप्त सा चिन्तन दे रहा हूँ, ताकि इन तीन दिनों को आप सार्थक बना सकें। ध्यान के समय आपको कोई छवि दिखाई दे या न दिखाई दे, उसमें आपको जाने की जरूरत नहीं है। केवल आप चेतनामन्त्र या गुरुमन्त्र का सहारा ले लें और मानसिक जाप करते हुये अपने आज्ञाचक्र पर ध्यान केन्द्रित करें। और, जब अपने घरों में जायें, आपके आज्ञाचक्र पर ध्यान न लगता हो, आपका मन एकाग्र न होता हो, उसके लिये एक सरल सा मार्ग बतला रहा हूँ। कभी भी किसी भी खुले स्थान पर ब्राह्ममुहूर्त में सूर्योदय के समय बैठ जायें। जिस समय सूर्य का उदय हो रहा हो, उस समय अपनी छत पर या किसी खुले मैदान में बैठ जायें और अपना मस्तक सूर्य की ओर कर दें, थोड़ा सा मोशन उस दिशा की ओर कर दें, जिस दिशा की ओर सूर्य को जाना हो, ताकि आप अगर आधे घण्टे बैठें, तो धीरे-धीरे करके आपके आज्ञाचक्र के मध्य की ओर उसकी किरणें आजायें। यह मार्ग उनके लिये बतला रहा हूँ, जो ध्यान-साधना की ओर बढ़ रहे हों और कहते हैं कि हमारा ध्यान लगाने पर भी ध्यान नहीं लगता। सूर्य उदय हो रहा हो, उसकी किरणें आपके मस्तक पर पड़ रही हों, उसका प्रकाश आपके मस्तक पर पड़ रहा हो, आप ध्यान-चिन्तन में बैठकर उन किरणों का एहसास अपने आज्ञाचक्र पर करें। वे प्रकाश की किरणें आपको कुछ न कुछ समय के लिये एकाग्र करेंगी। वह प्रकाश, उन क्षणों का सूर्योदय के समय का प्रकाश नाना प्रकार की बीमारियों से मुक्त होने में सहायक होता है। चूँकि जब ये क्रम आप करेंगे नहीं, तो आप आगे बढ़ नहीं पायेंगे। फिर आप कहेंगे कि हमें तो वर्षों हो गए और हमने कोई सफलता अब तक प्राप्त नहीं की। चूँकि चौबीस घण्टे आप जिस समाज के बीच रहते हैं और दस-पाँच मिनट आप पूजन-पाठ करते हैं, तो दस-पाँच मिनट में सब कुछ हासिल करना मुश्किल है।
इस कलिकाल में मैंने सरल मार्ग बताया है कि सभी रास्तों को छोड़कर मेरे द्वारा बताये हुये मन्त्रों का जाप करो और इस कलिकाल में केवल आज्ञाचक्र की शरण में आजाओ। तुम्हें कोई मार्ग नहीं मिलता, कोई स्थान नहीं मिलता, तुम्हारे घर में देवी-देवताओं की तस्वीर रखने की भी कोई जगह नहीं है, तुम सब रास्तों को छोड़कर केवल आज्ञाचक्र की शरण में आजाओ। यह एक चक्र तुम्हारे पास ऐसा बैठा है, जो राजाचक्र है। चेतना का एक ऐसा बिन्दु है, जो अन्तःकरण के खजाने में प्रवेश करने का एक द्वार है। जिस तरह भौतिक जगत् में यदि राजा की नजदीकता प्राप्त कर लें, तो भौतिक जगत् की अधिकांश समस्यायें आपकी स्वतः हल होजाती हैं। उसी तरह जब भौतिक जगत् की समस्याओं को भौतिक जगत् में प्रयास करने से भी आप दूर न कर पा रहें हों, तो एक बार प्रयास करके देखो। आज्ञाचक्र की शरण में आजाओ। अपने अन्तःकरण की उस आत्मचेतना के उस चक्र पर, जिसे राजाचक्र कहते हैं, उसकी शरण में आजाओ। उसके पास जाने के लिये आपको मूलाधार या अन्य चक्रों तक प्रवेश करने के लिये प्रयास करने की आवश्यकता नहीं है। उसके लिये जरूरत नहीं है कि आप मूलाधार पर ध्यान लगायें, स्वाधिष्ठान में ध्यान लगायें, अनहत चक्र पर ध्यान लगायें या अन्य और चक्रों पर ध्यान लगायें। जो अपना है, उस तक पहुँचने के लिये हम अनेकों द्वारों पर भटकते रहें, घूमते रहें, इसकी आवश्यकता क्या है? यदि इस चीज का ज्ञान हमें ऋषि-मुनियों ने कराया है कि हमारे शरीर के सात चक्रों में से एक आज्ञाचक्र हमारे पास मौजूद है, जिस पर यदि आपकी छोटी सी समस्या होती है, तब भी अगर आप कोई चीज याद करना चाहते हैं, तो भी आपका यही चक्र सहायक होता है। फिर भी आप महसूस नहीं कर पाते कि कोई चीज आप भूल जाते हैं, तो आँख बन्द करके ध्यान कहाँ पर लगाते हैं? इसी आज्ञाचक्र पर आप ध्यान लगाते हैं और वह बात आपको याद आजाती है। यह आज्ञाचक्र कितना पावरफल है? कितना क्षमतावान् है? यदि इसकी शरण में समाज आजाये, यदि ध्यान की प्रक्रिया की ओर समाज बढ़ने लगे, तो इस ध्यानचक्र को आप माध्यम बनाकर नाना प्रकार की बीमारियों से मुक्ति पा सकते हैं, अपनी चेतनाशक्ति को जगा सकते हैं और वह मूल कुण्डलिनी शक्ति, जो हर मनुष्य के अन्दर समाहित है, उस कुण्डलिनी शक्ति की चेतनातरंगों को जाग्रत् कर सकते हैं।
मैं मानता हूँ कि कुण्डलिनी की पूर्ण चेतना जाग्रत् करना समाज के लिये कठिन है, मगर असम्भव नहीं। मैंने पूर्व के अनेकों चिन्तनों में कहा है कि यदि कोई सात वर्ष का जीवन पूर्ण साधक का व्यतीत करना चाहे, तो सात वर्ष के अन्दर यदि वह चाहे, तो मेरे मार्गदर्शन में जीवन व्यतीत कर दे, पूर्ण वैरागी का जीवन, तो सात वर्ष में मैं उसके सातों चक्रों को जाग्रत् करके उसके स्थूल शरीर से उसके सूक्ष्म शरीर को बाहर निकालकर खड़ा करा दूँगा। और, इसके लिये कोई यह भी नहीं कि सात वर्ष भी आवश्यक हों। अगर उसके अन्दर पात्रता है, तो पहले भी प्राप्त कर सकता है। उसके अन्दर पात्रता है, तो अपने घर में पूजन-पाठ करते हुये अपनी ऊर्जा को बढ़ाते हुये भी धीरे-धीरे उस दिशा की ओर बढ़ सकता है। जैसा कि अनेकों शिष्यों को मालूम है कि रामखेलावन शुक्ला जी ने तीन बार अपने सूक्ष्म शरीर को स्वतः जाग्रत् किया। केवल कुछ समय ही मेरे मार्गदर्शन में रहकर, उन्होंने अपने बारे में जाना था कि मेरे साथ कहाँ क्या घटित होने वाला है और मेरे बारे में जाना था कि मेरा मूल स्वरूप क्या है? मेरी वस्तुस्थिति क्या है? इसीलिये उनकी मृत्यु के पूर्व के उनके जो चिन्तन हैं, उन कैसेटों को सुनें कि उन्होंने किन-किन शब्दों का उपयोग किया था कि गुरुदेव जी को मैंने जिस स्वरूप में देखा है, जिस तरह महसूस किया है, तुम उससे अनजान हो। जब रामखेलावन शुक्ला अपने शरीर को जाग्रत् कर सकते हैं, तो कोई भी मानव जाग्रत् कर सकता है। आपके गुरु ने कहा है कि आत्मा और परमात्मा के बीच का कोई ऐसा रहस्य नहीं है, जो मुझसे छिपा हो। इस भूतल का कोई भी योगी-ऋषि-संन्यासी आत्मा और परमात्मा के बीच के किसी भी रहस्य को जानना चाहता है, तो आपके गुरु के पास वे समस्त रहस्य मौजूद हैं। वे जिज्ञासु बनकर आयें, एक भक्त बनकर आयें और देखें कि वे जितने कदम आगे बढ़ेंगे, उससे चार कदम आगे इस शरीर की चेतना खड़ी नजर आयेगी। तुम दो कदम चलो तो, दो कदम बढ़ो तो।
जो मेरे शिष्य हैं, वे जानते हैं और जो पहले के भक्त हैं, वे जानते हैं। जो नये होते हैं, उनके अन्दर जिज्ञासा होती है। उन्हें कुछ जानने की इच्छा होती है। मगर, मैंने कहा है कि किसी को जानने, समझने और परखने के लिये नजदीकता आवश्यक है। मगर, अध्यात्म में जिज्ञासा का स्थान होता है, तर्क और कुतर्क का नहीं। तर्क और कुतर्क करने वाले कभी सत्य की नजदीकता नहीं प्राप्त कर सकते, सत्य को पहचान नहीं सकते और जिज्ञासा रखने वाला अपनी समस्त जिज्ञासाओं को सत्य से अवश्य शान्त करा सकता है। और, मैं आप लोगों को ही नहीं, पूरे समाज को वचन देता हूँ कि अगर भक्तिभाव लेकर कोई भी मेरे समक्ष उपस्थित होगा और जिज्ञासा से कोई चीज जानना चाहेगा, मगर उसके अन्दर वास्तविकता की जिज्ञासा हो और जिज्ञासा शान्त करके अपने जीवन में भी परिवर्तन लाने के लिये तत्पर हो, तो उसे अध्यात्म के समस्त रहस्यों की क्रमशः जानकारी मैं प्रदान कर सकता हूँ। अतः आप यहाँ उपस्थित हो ही गये हैं, आ ही गये हैं, तो इन तीन दिनों को सार्थक बनायें। आज्ञाचक्र की शरण में अपने आपको डाल दें। आज्ञाचक्र खींचकर बरबस आपको इस चेतना की ओर और प्रकृतिसत्ता की ओर खींच लेजायेगा। चूँकि मुझसे कौन जुड़ा है कौन नहीं जुड़ा, इसका ज्ञान मुझे है और मेरी चेतना, मुझसे जुड़ी हुई चेतनायें असमर्थता का जीवन जियें, यह मेरे लिये तकलीफदेह होता है। आप सभी को अपने आपको एकाग्र करने की जरूरत है। मैंने कहा है कि केवल एक जीवन मुझे समर्पित कर दो, अनेकों जीवनों की सुख-सुविधाओं से मैं आपको परिपूर्ण कर दूँगा।
इस मार्ग पर प्रकृतिसत्ता ने मुझे भेजा किसलिये है और तुम मुझसे लाभ किस प्रकार का चाहते हो? मेरी सामर्थ्य है कि डॉक्टर जिसे मृत घोषित कर दें, मैं उसे जीवनदान दे सकता हूँ, किसी की बीमारी को अपने ऊपर ले सकता हूँ और किसी की बीमारी को किसी अन्य के शरीर में प्रवेश करा सकता हूँ तथा किसी को कु़छ क्षणों में मृत्यु की ओर अग्रसर करा सकता हूँ। मेरे लिये सब कुछ सम्भव है, मगर इसका तात्पर्य यह नहीं कि मैं जगह-जगह चमत्कार करता फिरूँ। यही एक योगी की तृप्ति होती है, यही एक सामर्थ्य होती है कि उसे कोई झुका नहीं सकता। अगर उसका शीश झुकता है, तो उस प्रकृतिसत्ता के चरणों में, जो पूर्ण हैं परिपूर्ण हें, जिससे परे कुछ है नहीं और जिसके आगे कोई जा नहीं सकता। जिसके आगे देवाधिदेव भी नतमस्तक होते हैं और मैं उस प्रकृतिसत्ता की ओर ही आपको लेजाना चाहता हूँ। मैंने अपने अस्तित्व को मिटाया है। जहाँ ‘मैं’ शब्द करके सम्बोधन करता हूँ, वह समाज की विडम्बना है कि समाज की भाषा में अपनी बात कहने के लिये ‘मैं’ शब्द के अलावा दूसरा कोई शब्द नहीं है। नये लोग भ्रमित होजाते हैं कि यह ‘मैं’ अहंकार का शब्द है। हर चीज में दो स्वरूप समाहित होते हैं, एक तमोगुण और एक सतोगुण। मेरा ‘मैं’ उस प्रकृतिसत्ता से जुड़ा रहता है। प्रकृति ने मुझे क्या प्रदान किया है? मेरे अन्दर जो कुछ है, उसका ‘मैं’ शब्द से ही सम्बोधन होगा और इसीलिये बचपन से आज तक की मेरी यात्रा को आपने देखा होगा कि मैंने एक पल भी असमर्थता का जीवन नहीं जिया। मैंने झुकना कभी सीखा नहीं। अगर झुकना सीखा है, तो केवल प्रकृतिसत्ता के चरणों में। भौतिकतावाद का कोई भी झंझावात मुझे झुका नहीं सकता, मुझे अपनी ओर खींच नहीं सकता। मैंने एक ऋषित्व का जीवन जिया है। इस जीवन में भी मैंने अपना अधिकांश समय साधनाओं को समर्पित किया है और आज भी आपके लिये साधनात्मक जीवन जीता रहता हूँ। मेरा एक-एक पल समाज को समर्पित है।
मैं वास्तविकता का चिन्तन देता हूँ। प्रलोभन नहीं देता कि तत्काल आप साल-दो साल में लखपति और करोड़पति बन जायेंगे। आपके जीवन का यह उद्देश्य होना भी नहीं चाहिये। यह अजर-अमर-अविनाशी आत्मा आप लिये हुये हैं। आपका लक्ष्य मूल होना चाहिये। समय इतना लम्बा चौड़ा नहीं है। आपके गुरु ने भी उन्हीं यात्राओं को तय किया है, उन्हीं रास्तों को तय किया है। आज तक मेरी साधनाओं को दुनिया की कोई ताकत न खरीद पाई है और न भविष्य में खरीद पायेगी। अगर मेरी साधनाओं को, समर्पण को, मेरी चेतना को, मेरी तरंगों को आप प्राप्त कर सकते हैं, तो उसके लिये आपके पास पूर्ण निष्ठा की भक्ति होनी चाहिये। मगर, आप हमेशा अपनी छोटी-छोटी समस्यायें कि हम निःसन्तान हैं, हमारा व्यापार नहीं चल रहा, हमारी भैंस गुम गई है, हमारी गाय दूध नहीं देती, लेकर आते हैं। एक योगी के समक्ष आकर यदि आप इस तरह की शान्ति चाहेंगे, तो यह शायद आपका सबसे बड़ा दुर्भाग्य है, चूँकि मैं आपको किसी दूसरे मार्ग में लेजाने के लिये आया हूँ। यदि एक किसान के पास कुछ बीज हों, तो ज्यादा से ज्यादा आप लोग कहेंगे कि इस बीज से गेहूँ उत्पन्न होता है। अगर किसान कहे कि इस बीज को अगर बोओगे, तो इतनी फसल पैदा होगी कि आप सब भूखों को खाना खिला सकते हो। और, उस समय भूखा समाज खड़ा हो और वह कहे कि हमें खिलाओ, तो हम जानें। तो ज्यादा से ज्यादा वह एक या दो बार थोड़ा बहुत दाना निकालकर जायका दिला सकता है, मगर अपने पूर्ण बीज को नष्ट नहीं होने देगा। वह बीज उसी को प्रदान करेगा, जो उसे बोने की क्रिया जाने, निश्चित रूप से बोये और उस फसल का रख-रखाव करे और पकने पर ही काटकर समाज में फैलाये। उसी तरह उससे कई गुना ज्यादा एक-एक साधना और सिद्धि कितनी कठिन होती है, यह जब आप उस मार्ग में बढ़ेंगे, तब आपको ज्ञात होगा। और, उन साधना-सिद्धियों से आप केवल यह जानना चाहेंगे कि हमारी भैंस दूध देगी कि नहीं देगी? हमारी भैंस कहाँ खो गई? तो मैं इसके लिये नहीं आया। मैं तन्त्र-मन्त्र और झाड़-फूँक करने के लिये नहीं आया। मैं एक ऋषि हूँ और आपको ऋषित्व का मार्ग बताने आया हूँ। आपके जीवन की कमजोरियों को दूर करने आया हूँ। आपको मानवता का पाठ पढ़ाने आया हूँ। आपके अन्दर छिपी हुई अलौकिक शक्ति को जगाने और आपके बीच जो पर्दे पड़े हुये हैं, उनको एक-एक करके हटाने आया हूँ। उनको आप हटायें और पूर्णत्व का जीवन जियें।
साधक को कभी अस्थिर नहीं होना चाहिये, भावुकता में बहना नहीं चाहिये और मैं यही सचेत करता हूँ। मेरे विचारों में भी भावुकता में बहने की जरूरत नहीं। गहराई से चिन्तन करें, शोध करें और शान्ति से बैठें। एकान्त में विचार करें। मेरे चिन्तनों को एक बार नहीं, हजार बार श्रवण करें और फिर निर्णय लें कि आपको किस मार्ग पर जाना है? किस मार्ग पर बढ़ना है? और अगर आप बढ़ेंगे नहीं, तो कलिकाल पर विजय पाना असम्भव है। मगर, एक जो मेरा लक्ष्य है, जो मैंने निर्णय लिया है, उसे दुनिया की कोई ताकत असम्भव कर नहीं पायेगी। मैंने निर्णय लिया है कि समाज में ‘माँ’मय वातावरण पैदा करके जाऊँगा, एक ऐसी तपस्थली का निर्माण करके जाऊँगा, जो विश्व की धर्मधुरी बनेगी। विश्व का कोई धर्म हो, कोई भी साधक हो, जो इस तपस्थली की ओर सिर झुकाने में सम्मान महसूस करे, वैसी तपस्थली का निर्माण करने में मैं सतत प्रयासरत हूँ। आप ‘माँ’ के मन्त्रों के जाप को बढ़ायें। श्री दुर्गाचालीसा के पाठ को बढ़ायें। यह मेरा आपसे वचन है कि इस भारत देश को अपने जाने से पहले-पहले, इस शरीर के त्यागने से पहले-पहले एक बार धर्मगुरु के रूप में स्थापित करके जाऊँगा। भारत देश को वह सम्मान विश्व में दिलाऊँगा कि विश्व में भारत प्रमुख देशों में गिना जायेगा। अमेरिका जैसे देशों को रसातल में भेज दूँगा, जो विश्व पर सबसे बड़ी दादागीरी कर रहे हैं।
इस आतंक के विरुद्ध आप अपनी आवाज नहीं उठाना चाहते। आप कुछ बोलना नहीं चाहते। केवल पूजा-पाठ करना ही जीवन की पूर्णता नहीं होती। अपने जीवन का बहुमुखी विकास करें और बहुमुखी विकास तब होगा, जब आप पूजा-पाठ करें, तो समाज के लिये भी कुछ माँगें। हमारे आसपास जो कुछ घटित हो रहा है, अनीति-अन्याय-अधर्म, भ्रष्टाचार बढ़ रहा है, समाज में नशा बढ़ रहा है, उन्हें समाप्त करने के लिए प्रकृति के सामने एक बार तो हाथ जोड़कर निवेदन करें। आप भले नशामुक्त जीवन जीते हैं, इसका तात्पर्य यह नहीं कि समाज के प्रति आपके कोई कर्तव्य नहीं हैं। एक बार ‘माँ’ के चरणों में निवेदन तो करें कि हे ‘माँ’, जिस तरह आपने मुझे प्रेरणा देकर नशामुक्त जीवन जीने का मार्ग प्रशस्त किया है, समाज में भी ऐसी परिस्थिति निर्मित करें, ऐसा चिन्तन दें, ऐसे वातावरण का निर्माण हो कि समाज भी नशामुक्त जीवन जी सके। यदि आप मेरे विचारों से अपने विचारों को जोड़ दें, तो वे चेतनातरंगें कई गुना ज्यादा कार्य करने लगेंगी। आप स्वतः देख रहे होंगे कि जो कभी नहीं हुआ, वह समाज में अपने आप हो रहा है। एक राजनीतिज्ञ दूसरे राजनीतिज्ञ से लड़ रहा है। न्यायपालिका ऐसे निर्णय दे रही है कि नशों पर प्रतिबन्ध लगा रही है। यह सब कहाँ से हो रहा है? एक परिवर्तन तो आ ही रहा है। मगर, उस परिवर्तन में आप समस्त लोगों की और कम से कम मेरे शिष्यों की अहम भूमिका है। आप यदि मेरा पूर्ण आशीर्वाद चाहते हैं, तो आपको नित्य अपने आपके आत्मकल्याण के लिये कार्य करना है, अपने परिवार के कल्याण के लिये कार्य करना है और उसी तरह पूरे समाज के कल्याण के लिये कार्य करना है। आप जो जितना समय दे सकते हैं, उतना समय समाजकल्याण के लिये दें, मानवता के लिये दें। आपका अगर कुछ अहित भी होजाये, तो उसकी आप परवाह न करें। किन्तु, आपके कदम समाजकल्याण के लिए बढ़ते रहने चाहिएं। अतः यदि कुछ अनुभूतियों को प्राप्त करना है, यदि कुछ जानना है, तो एक जिज्ञासु का भाव लेकर, तर्क-कुतर्क से परे रहकर यदि जानना चाहेंगे, तो जीते-जागते प्रमाण एक नहीं अनेकों उपस्थित हैं, जिन्हें मृत्यु से बचाया गया है, जिन्हें ऐसी घातक बीमारियों से बचाया गया है, जिन्हें डॉक्टरों ने मना कर दिया था।
नवरात्र के इस शिविर में कल और परसों के दिवसों में मैं और कुछ महत्त्वपूर्ण जानकारियाँ दूँगा। आज मेरा सिर्फ इतना चिन्तन है कि आप एक संकल्प लें कि इन तीन दिनों को हम एक साधक के रूप में व्यतीत करेंगे। आप मेरे समक्ष बैठ सकें या न बैठ सकें, मुझसे मिल सकें या न मिल सकें, किन्तु आप मेरे बताये गये मार्गदर्शन के आधार पर या तो सेवाकार्य में रत रहेंगे या साधना करेंगे, चूँकि मैंने समाज के लिये चिन्तन दिया है कि इस आश्रम में या तो आठ घण्टे साधनामय समय व्यतीत करो या आठ घण्टे सेवाकार्य करो। सेवाकार्य का तात्पर्य यह नहीं कि मैं आश्रम में कोई सेवायें चाहता हूँ। अधिकतर कार्य मैं यहाँ मजदूरों से स्वतः करा लेता हूँ। मैं यहाँ के चालीसा पाठ को भी सेवाकार्य के अन्तर्गत ही मानता हूँ। यदि आप भक्तों की कोई सेवा कर रहे हैं, भण्डारे में कोई सेवाकार्य कर रहे हैं, तो उसे भी सेवाकार्य के अन्तर्गत ही मानता हूँ। यहाँ मैं ईंट, गारे और उस तरह के कार्य को सेवाकार्य के रूप में नहीं कह रहा हूँ। जिस तरह से आपका अन्तःकरण जाग्रत् हो, जो क्षण आपके लिए कल्याणकारी बन सकें, उसके लिए हर पल की मेरी साधनायें आपको समर्पित रहती हैं, हर पल के मेरे चिन्तन आपको समर्पित रहते हैं। मगर, यह सब आप एक कान से सुनते हैं और दूसरे कान से निकाल देते हैं। उन अनेकों कैसेटों में सभी चिन्तनों को बार-बार श्रवण करें, आपको साधना क्षेत्र में बढ़ने के सहायक चिन्तन मिल जायेंगे। जब तक आप कुछ करेंगे नहीं, तब तक आपकी समस्याओं के समाधान मिलेंगे नहीं और मैं किसी की गुमी हुई भैंस को बताने के लिये समाज के बीच नहीं आया, किसी के खोये हुये सामान को बताने के लिये समाज के बीच नहीं आया। यह मेरा मार्ग ऋषि का मार्ग है, जो इन सबके लिये होता ही नहीं। जो निर्धारित लोग मुझसे जुड़े हुये हैं, उनकी अगर कोई छोटी-मोटी समस्यायें आती हैं, तो उनका मैं निदान कर देता हूँ। असम्भव मेरे लिये कुछ है भी नहीं। आप एक साधक के रूप में यदि एक ऋषि से जुड़ने आये हैं, तो उस तरह का जीवन जियें। आत्मकल्याण का जीवन जियें। धन के भौतिकतावाद में इतना अधिक न बढ़ जायें। धन को धर्म में बदलें, न कि धर्म को धन में बदलें।
अपने अन्तःकरण को जाग्रत् करें। आज्ञाचक्र यदि जाग्रत् न हो रहा हो, यदि आज्ञाचक्र में दर्द होता हो, ध्यान केन्द्रित न हो रहा हो, तो सूर्योदय को अपना माध्यम बना लें। कुछ समय सूर्योदय की किरणों को अपना माध्यम बनायें। यदि आप कुछ बीमारियों से भी ग्रसित हैं, तो सूर्योदय की जो प्रथम किरणें रहती हैं, जब तक सूर्य की किरणें तेज न हों, उन प्रथम किरणों को यदि आप ग्रहण करेंगे, तो आपकी नाना प्रकार की बीमारियाँ भी दूर होंगी। शक्तिजल को यहाँ से दिया ही जाता है। अब शक्तिजल के बारे में भी अनेकों प्रकार की स्थितियाँ हैं। वही शक्तिजल अगर मैं किसी को पिला दूँ, तो एक पल में ही लाभ दे देता है। वही शक्तिजल आप किसी को पिलाते हैं, तो उसमें कुछ अन्तर आता है। वह अन्तर आपके समर्पण और निष्ठा के कारण आता है। यह मैं कह ही नहीं रहा, मैंने उस तरह के कार्य किये हैं।
आप कहते हैं कि भूत-प्रेत हमको परेशान करते हैं। किसी भी भूत-प्रेत को उतार देना मेरे लिये एक पल का कार्य है। इस तरह की अनेकों घटनाओं को मैंने यहाँ ठीक किया है। मगर, इसका तात्पर्य यह नहीं कि मैं वह झाड़-फूँक का जीवन जिऊंगा। यह मेरे अपने चिन्तन की बात है कि किसे लाभ देना है और किसे लाभ नहीं देना। किसी के कहने से मैं लाभ नहीं देता और में यहाँ झाड़-फूँक का केन्द्र बना भी नहीं सकता। इसे झाड़-फूँक का केन्द्र मैं बना भी नहीं रहा। इस केन्द्र को मैं वह स्वरूप दे रहा हूँ कि अगर आप समाज से व्यथित हों, कोई रास्ता न मिल रहा हो, तो आप आकर इस स्थान पर कुछ शान्ति प्राप्त कर सकें। ‘माँ’ का कुछ आशीर्वाद प्राप्त कर सकें। आप अपने जीवन के दुर्भाग्य को सौभाग्य में बदल सकें। आप अपने सौभाग्य के निर्माता खुद बन सकें।
आपका गुरु तो कह रहा है कि मेरे लिए असम्भव कुछ भी नहीं है, केवल उस प्रकृतिसत्ता के बल पर। वह प्रकृतिसत्ता मेरे और आपके अन्दर समान रूप से है। कोई फर्क नहीं है। फर्क है तो इस त्रिगुणात्मक प्रकृति में, सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण में अधिकता का अन्तर है कि आपका सतोगुण इतना दब चुका है कि उसके ऊपर रजोगुण और तमोगुण इतना हावी हो चुके हैं कि आप सतोगुण के पास का सहजता से सम्पर्क प्राप्त कर ही नहीं पाते। और, अन्दर की चेतनातरंगों को प्राप्त करने के लिये आपको अपने सतोगुण को मुक्त करना होगा। जो मैंने कहा है कि आप पराधीन हैं, तो आपने सतोगुण को अपने रजोगुण और तमोगुण के आधीन कर दिया है। उस आधीनता से जिस क्षण आप उसे मुक्ति दिला देंगे, उसको मुक्त कर लेंगे, सतोगुण को आप स्वतन्त्र कर लेंगे कि उसके ऊपर कोई भी विषयविकार हावी न होने पाये, तब आपकी चेतनातरंगें कार्य करने लगेंगी। आपको अलौकिक अनुभूतियाँ मिलने लगेंगी। एक योगी यदि चाहे, तो किसी को एक मिनट में स्वतन्त्रता दे सकता है, लाभ दे सकता है, मगर यह उसका कर्मक्षेत्र होता ही नहीं। उसका कर्म होता है लोगों को आध्यात्मिक मार्ग की ओर बढ़ाना और सबसे बड़ा जो कार्य मेरे द्वारा सतत किया जाता है कि हर पल मैं आप लोगों से कामना करता रहता हूँ कि आप अगर मुझे कुछ प्रदान करना चाहते हैं, तो मुझे अपने अवगुण प्रदान करें। आप जब तक अपने अवगुणों को त्यागेंगे नहीं, छोड़ेंगे नहीं, तब तक मेरे सतोगुण का प्रभाव आप लोगों के ऊपर पड़ेगा नहीं। अतः नवरात्र के इन दिनों पर कुछ निर्णय लें, अपने जीवन में कुछ परिवर्तन लायें। अपनी भक्ति को असमर्थता का स्वरूप न दें। भावुकता में न बहें। कर्मवान् बनें, एक सन्तुलित साधक बनें। आपके संकल्पों में किसी विकल्प का स्थान न हो।
आपकी गुरुभक्ति में कोई भी संशय न हो। और, यदि संशय है, तब तक आप गुरुदीक्षा प्राप्त न करें। मैं नहीं कहता कोई संशयवान् व्यक्ति मेरा शिष्यत्व प्राप्त करे। जब आपका संशय दूर हो जाये, तब आप मुझसे जुड़ें। विजयादशमी के पर्व पर मैं आपको गुरुदीक्षा प्रदान करूँगा। पूरे समाज के लिये मेरे समभाव से कार्य चलते रहते हैं, मेरे चिन्तन चलते रहते हैं। किसी से मेरा कोई विरोध नहीं है। किसी जाति-धर्म-सम्प्रदाय से मेरा कोई व्यक्तिगत विरोध नहीं है। इस आश्रम में आने वाले हर भक्त का मैं हृदय से स्वागत करता हूँ। हर आने वाला भक्त मेरा अतिथि स्वरूप रहता है। यहाँ के प्रसाद को जब आप ग्रहण किया करें, तो उसे ‘माँ’ के प्रसाद के भाव से ग्रहण किया करें, केवल भोजन के भाव से नहीं। चाहे वह हलुआ प्रसाद हो, चाहे वह भण्डारे में प्राप्त करने वाला भोजन हो, चूँकि वहाँ हर पल ‘माँ’ अन्नपूर्णा की कृपा रहती है। आज अन्नपूर्णा की कृपा का ही प्रभाव है कि इस स्थल पर जिसे अँधियारी कहते थे, जहाँ पर दिन में भी आने पर लोग खौ$फ खाते थे, आज इस स्थल पर क्या परिवर्तन आ रहा है, आप अपनी खुली आँखों से देखें। इस अँधियारी के स्थल पर अन्नपूर्णा के प्रभाव से अब तक कई लाख लोगों को भोजन कराया जा चुका है। मैं किसी के दरवाजे पर जाकर हाथ नहीं फैलाता कि जब तुम दक्षिणा दे दोगे, तब मेरा काम चलेगा। एक योगी पूर्ण होता है, कोई भी कार्य करने के लिये। अतः जब आप उस अन्नपूर्णा का प्रसाद प्राप्त करें, तो आपके अन्दर प्रसाद का भाव होना चाहिये।
अपने अहंकार को छोड़ दें। आप अधिकारी हैं, राजनेता हैं, बिजनेसमैन हैं, हो सकता है आप अपने घरों पर बहुत सी सुख-सुविधाओं को प्राप्त करते हों, मगर इस धरती पर यदि आपको जमीन पर लेटने का मौका मिल जाता है, तो बहुत बड़े सौभाग्य की बात है। टेण्ट भी नहीं मिलता, तो भी आपका सौभाग्य है। आने वाले समय में निश्चित ही वे व्यवस्थायें होंगी, मगर इस धरती पर मैं स्वतः किसी भी परिस्थिति में रहकर अपने आपको सौभाग्यशाली समझता हूँ। आज तो आपके लिये यहाँ पेड़-पौधे हैं कि आपको कोई जगह नहीं मिलती तो आप किसी भी पेड़ की छाया में जाकर बैठ सकते हैं। जब प्रारम्भ में मैं यहाँ आया था, तो छः माह तक छाया प्राप्त करने के लिये यहां एक भी पेड़ नहीं था। जो बड़े वृक्ष आपको दिखेंगे, वे भी मात्र ठूँठ थे। उन पर टहनियाँ नहीं थीं और थे तो केवल झाड़-झंखाड़ और पत्थर। और, हर पत्थर के नीचे थे बिच्छू और सर्प। रात में लेटते थे और सुबह जब बिस्तर समेटते थे, तो कहीं बिच्छू नजर आते थे, तो कहीं सर्प नजर आते थे। एक-एक बिस्तर में पाँच-पाँच, छः-छः बिच्छू नजर आते थे। यह कहने की बात नहीं है, लोगों ने यहाँ देखा है। लोग कह रहे थे कि यहाँ कैसे रहा जायेगा? और, आज आप स्वतः देख सकते हैं कि इस स्थल में परिवर्तन आ रहा है। जब मैं यहाँ आया था, तो पहुँचने का रास्ता नहीं था। मैंने कभी कामना नहीं की कि पहले शिष्य वहाँ एक-दो कमरा बनवा दें, तब मैं वहाँ जाकर रहूँगा। मेरे साथ मेरा परिवार, मेरे छोटे-छोटे बच्चे जहाँ सुख-सुविधाओं से शहर के बीच रह रहे थे, उसी तरह लाकर मैंने उन्हें एक छोटी सी रावटी में डाल दिया था। अब तो यहाँ पर आप लोगों को साफ-सुथरा खुला मैदान मिल जाता है। मेरी जहाँ रावटी लगाई गयी थी, वहाँ के तो पत्थर भी साफ नहीं किये गये थे। शाम को इतना ही अन्धेरा हो चुका था, प्रातः ब्राह्ममुहूर्त में प्रवेश किया गया था और गौशाला क्षेत्र में कुछ कार्यक्रम चल रहे थे। अतः सायंकाल इतने समय लेटने आने का मौका मिला था। जो जहाँ जैसी धरती मिली, मैंने अपने आपको सौभाग्यशाली माना। चूँकि यही एक शिष्य का धर्म होता है।
मुझे ‘माँ’ के संकेत मिले, ‘माँ’ के चिन्तन मिले और यह मेरे लिये सौभाग्य की बात थी कि इस धरती पर कहीं ‘माँ’ की कृपा बरसने वाली है और उस धरती के टुकड़े पर मेरे पल गुजरेंगे। मेरा एक-एक क्षण गुजरेगा। मेरे लिये यही सबसे बड़ी साधना होगी, यही सबसे बड़ा सौभाग्य होगा। यही कारण है कि आज मेरे भक्त जब बहुत प्रयास करते हैं, तो मैं साल में एक-दो बार समय देता हूँ समाज के बीच जाने का। मैं जानता हूँ कि जितने क्षण मैं यहाँ गुजार लूँगा, वे मेरे लिये सौभाग्यशाली होंगे और जो मेरे लिये सौभाग्यशाली होगा, वही आप समस्त लोगों के लिये सौभाग्यशाली होगा। चूँकि जीवन मैंने आपको समर्पित किया है। इस जीवन में मिलने वाली ‘माँ’ की कोई भी कृपा, मेरी साधनाओं का कोई भी फल, मैंने संकल्प लेकर कहा है और इस नवरात्र पर पुनः संकल्प कर रहा हूँ कि मेरे इस जीवन की एक भी साधना का फल, ‘माँ’ की मिलने वाली एक भी कृपा मेरे अपने जीवन के साथ न जुड़े, बल्कि मेरे अपने शिष्यों में बँटे। मैं जानता हूँ कि जो आपका सहयोग मैं धन-दौलत से नहीं कर सकता, वह मैं अपनी साधना के माध्यम से ‘माँ’ को रिझाकर, ‘माँ’ के चरणों में भक्ति करके आपको प्रदान कर सकता हूँ। मेरे कार्य करने के तरीकों को समझ सकेंगे, आप कार्यकर्ता हैं, भक्त हैं, मेरे शिष्य हैं।
आपके अन्दर क्या विचार होने चाहियें, क्या चिन्तन होने चाहियें? इस धरती के एक-एक रज को किस तरह अपने माथे से लगाना चाहिये? आप आते हैं किसी को बिस्तर नहीं मिला, किसी को दरी नहीं मिली, कोई कमरे की लालसा रखता है। हो सकता है आपकी यह इच्छा मैं आज न पूरी कर सकूँ। मगर, निश्चित है आने वाली पीढ़ी के लिये यहाँ पर वह समस्त सुख-सुविधायें उपलब्ध होंगी। मगर, शायद वे उतने सौभाग्यशाली नहीं होंगे, जो भविष्य में यहाँ के एयरकण्डीशण्ड कमरों में आराम करेंगे, जितने सौभाग्यशाली आज आप हैं, जो इसकी नींव के समय यहाँ उपस्थित हैं, जब आपका गुरु यहाँ स्वतः उपस्थित है। यहाँ के एक-एक कार्य में गुरु की चेतना समाहित है।
आज आप कितने सौभाग्यशाली हैं कि आप इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। इन सौभाग्य के क्षणों को, इस तरह के कार्यों को, जो मेरे द्वारा ‘माँ’ की कृपा से मुझे प्राप्त हो रहे हैं, करने के लिये मैंने कहा है कि चाहे मुझे हजारों जन्म लेना पड़े, तो मैं अपने आपको सौभाग्यशाली समझूँगा। हजारों जन्म मैंने उन सुख-सुविधाओं के लिये नहीं माँगा, अगर आप कह दें कि गुरुदेव जी को क्या कमी? गुरुदेव जी तो सुख-सुविधाओं से रहते हैं। जो मेरी पात्रता है, उसके करोड़ों गुना नीचे मैं अपने आपको सदैव डालकर रखता हूँ। मैं सौभाग्यशाली इसलिये समझता हूँ कि मुझे समाज के अवगुणों को ग्रहण करने का सौभाग्य मिलता है और अपनी साधना को बाँटने-लुटाने का सौभाग्य मिलता है। अतः मेरे विचारों के अनुसार ही अपने जीवन को ढालें। अनेकों संस्थाओं में क्या कुछ हो रहा है, इसका ज्ञान मुझे है। समय के साथ प्रकृति उनके साथ ऐसी परिस्थिति निर्मित करती चली जायेगी कि सब कुछ आपकी आँखों के सामने स्पष्ट होता चला जायेगा और इस यात्रा को मैंने बार-बार कहा है कि मेरे कहने से अधिक मेरे कार्यों को देखें। मैं आज की बात नहीं कह रहा, बचपन से आज तक की मेरी यात्रा को देखें। मैं चाहता, तो किसी राजघराने में भी जन्म ले सकता था, चूँकि मेरी चेतना किसी की गुलाम नहीं। मेरी चेतना सिर्फ उस प्रकृतिसत्ता के आधीन है और उस प्रकृतिसत्ता से ही मार्गदर्शित है। और, चैतन्य चेतना को यह अधिकार होता है कि वह जहाँ चाहे, वहाँ जन्म ले सकती है। उसके बाद भी मैंने किसान परिवार में जन्म लिया है। अतः उस ममता की छाँव को पाने का प्रयास करें। इन छोटी-छोटी बातों में अपने मन को व्यथित न करें।
आपके घर में लड़का है या लड़की है, आप पूर्ण हैं। फिर भी आपकी कामनायें हैं। यदि रोकोगे, तो नहीं रुकेंगी। तो ‘माँ’ के चरणों में निवेदन कर सकते हैं। मगर, मैं इसके लिये ज्यादा कार्य नहीं करता। कई लोग मुझसे पूछने आते हैं कि गुरुदेव जी, हमारी पहली सन्तान होने वाली है, इसलिए चाहते हैं कि आशीर्वाद मिले कि पुत्र हो जाये। तो यह मेरी मजबूरी है, जो मैं नहीं कर सकता, चूँकि वह चिन्तन ही मैं नहीं कर सकता। आपके सामने कोई विषम परिस्थिति हो, तो चिन्तन अवश्य करूँगा। आप निःसन्तान रहते हैं, आप चिन्तन की बात करते हैं, तो मुझे जो कुछ करना हो, उसके लिये मैं करता हूँ। जिनके लिये सन्तान होना जरूरी हो, उनके लिये चिन्तन किये हैं और आज अनेकों ऐसे शिष्य हैं, जो उस तरह का जीवन जी रहे हैं। जो निःसन्तान थे, आज उनके यहाँ सन्तानें हैं। मगर, इसका तात्पर्य यह नहीं कि समस्त निःसन्तानों को मैं सन्तानवान् बना दूँगा। यह न तो आज तक किसी के लिये मैंने वादा किया है और न भविष्य के लिये वादा करता हूँ, चूँकि जो कुछ मैं कार्य करता हूँ, वह अपने अन्तःकरण की आवाज पर करता हूँ, जो मेरी चेतना किसी क्षेत्र में चिन्तन करती है। बाँकी मैं आपकी समस्याओं के लिये ‘माँ’ के चरणों में निवेदन अवश्य कर देता हूँ। मगर, उसके साथ यह शर्त अवश्य जोड़ देता हूँ कि अगर उनका कल्याण होने वाला हो, तभी ‘माँ’ मेरे निवेदन को स्वीकार करें। अन्यथा, आज वे मुझसे जुड़े हैं, कल वे मुझसे हट भी जायें, तो मुझे इसकी कोई चिन्ता नहीं। मगर, यदि विज्ञान यह बात भी कभी भविष्य में देखना चाहे कि क्या साधना के बल पर किसी निःसन्तान को सन्तान दी जा सकती है? तो मैं ऐसा भी कार्य करने के लिये तैयार हूँ। और, इतना ही नहीं, अगर विज्ञान चाहता है कि सूक्ष्म में पंचतत्त्वों का आवाहन करके मानव का निर्माण किया जा सकता है, तो मैं उसको भी करने के लिये तैयार हूँ। एक बार बुद्धिजीवीवर्ग आगे बढ़े तो, देखे तो, समझे तो।
मेरी यात्रा तो उसी दिशा की ओर जा रही है। आज मेरे पास समय है, हो सकता है कल समय न हो। चूँकि जिस तरह लोग पहले आते थे, मैं आप लोगों के बीच अधिक समय देता था। आज आपके बीच वह समय नहीं दे पाता। चूँकि मेरे वे साधनात्मक क्रम और ज्यादा गतिशील हैं। मैं उन क्षेत्रों में नहीं हूँ कि अगर किसी को प्रधानमन्त्री बना दिया गया है, तो वह केवल कुर्सी की रक्षा में लग जाये। अरे, उसके अन्दर होना चाहिये कि कुर्सी एक दिन रहे या न रहे, एक राजा का जो धर्म होना चाहिये, उसका उसे पालन करना चाहिये। उसी तरह अगर मैं उन्हें कहता हूँ, तो मुझे अपने गुरुधर्म के पालन का ज्ञान है। मैं एक-एक पल अधिक से अधिक साधनाओं की ओर और बढ़ता चला जा रहा हूँ। इसलिये नहीं कि मुझे अपने लिये कुछ चाहिए। जो साधनायें मैंने अपने लिये की हैं, जो तप, व्रत, उपवास मैंने अपने लिये किये हैं, आज वे मैं आपके लिये करता हूँ, आज वह यज्ञ-अनुष्ठान मैं आपके लिये करता हूँ। अतः अधिक से अधिक मेरा साधनात्मक जीवन बढ़ता चला जा रहा है। उसी तरह आने वाले समय में जब मैं यज्ञों में व्यस्त हो जाऊँगा, उन महाशक्तियज्ञों में, जिनमें मुझे एकान्त रहना पड़ता है, तो मैं उतना भी समय नहीं दे पाऊँगा। मगर, मेरे कार्य कई गुना गति से चलेंगे।
आपको धैर्य रखने की जरूरत है, शान्ति-सन्तुलन रखने की जरूरत है। जो आज आपकी बुराई कर रहे हैं, उन्हें जवाब अवश्य दें। मगर, तत्काल उनसे लड़ने न लगें, क्योंकि जो पात्रता मेरे अन्दर है, वह पात्रता आपके अन्दर नहीं है। अपनी सामर्थ्यानुसार ही विरोध करें और अपनी सामर्थ्यानुसार ही उन्हें बतायें, समझायें। प्रथम आपका कार्य होना चाहिये मर्यादित रहते हुए हाथ जोड़कर समझाना, बताना। जब न मानें, तब अपना विरोध दिखाना। जगह-जगह लड़ना नहीं। आप साधक हैं, साधक का जीवन जियें। आपके गुरु में यह सब क्षमता है कि आपके गुरु में किसी को भी कोई भी अगर उससे टकराने का भाव लेकर आता है, तो उसको जवाब देने के लिये सभी पक्षों की सामर्थ्य मौजूद है। स्थूल शरीर के माध्यम से, सूक्ष्म शरीर के माध्यम से, प्रकृतिसत्ता के चरणों में निवेदन करके वहाँ से भी दण्ड दिलाने के सभी रास्ते हैं। अतः आप धैर्य रखें। वह भी आपके भाई हैं, आज वह अज्ञान हैं, अनजान हैं। कल को वह आपके मार्ग से जुड़ेंगे और रास्ता पकड़ेंगे। अतः व्यथित न हों। अतः इन चिन्तनों के साथ मैं चाहूँगा कि इन तीन दिनों में बड़ी धैर्यता बनाकर रखें, चूँकि मैंने वही कहा कि आप समय का सदुपयोग करें। धैर्यता से समय गुजारें।
चमत्कार को ही नमस्कार करना न सीखें, नहीं तो आपके पास एक-से-एक ढ़ोंगी-पाखण्डी आयेंगे और आपको ठग-लूटकर ले जायेंगे। कोई आपको रत्न पहना जायेगा, तो कोई आपका धन दुगुना करने के बहाने आपका धन ले करके चला जायेगा और आप इन्हीं में भटकते रह जायेंगे। गैंग के गैंग इस चीज के लिये कार्य कर रहे हैं। अतः उनसे सतर्क रहें। ‘माँ’ का एक खुला वातावरण व नवीन आध्यात्मिक मार्ग मिला है। उस मार्ग में चलें। यहाँ सब कुछ खुलापन है। मेरे यहाँ कोई छिपाव की बात नहीं रहती है। मेरे जीवन का एक-एक पल खुला है। मैं समाज के बीच पैदा हुआ हूँ, समाज के बीच ही मैंने साधनायें की हैं। पूर्व के जीवन की बातों को भूल जायें, चूँकि विदेशों में जा करके मैंने कोई साधनायें नहीं कीं। आज अनेकों पत्रिकाओं-पुस्तकों में पढ़ें, तो कोई न कोई जानकारी दे दी जाती है कि विदेशों में ऐसा घटित हुआ, विदेशों में ऐसा किया गया। आपके गुरु ने जो कुछ किया है, समाज के बीच किया है। जो कुछ कर रहा है, समाज के बीच कर रहा है। एक किसान परिवार में जन्म लिया है और इसके अलावा भी जहाँ मैंने कहा, भविष्य की चीजों को देखना है, तो जो जिज्ञासु होंगे, उन्हें भविष्य में वह पुस्तकें भी उपलब्ध करा दी जायेंगी, जिनसे उनको जानकारी मिल जायेगी कि वहाँ सब कुछ वर्णित है। अतः हमें ‘माँ’ के चरणों में निवेदन करना है कि धीरे-धीरे परिवर्तन आये। हमारे राजनेता मानवता के रक्षक बनें, समाजकल्याण की बात सोचें। और, मैंने बार-बार कहा है कि हमें दूसरे पर दोषारोपण भी नहीं करना है कि समाज क्या कर रहा है? हमें अपने आपको सुधारना है। यही अपेक्षा मैं अपने शिष्यों से करता हूँ कि अपने आप पर विजय पायें। नवरात्र के इन दिनों में मेरा मूल चिन्तन यही है कि अगर आपको समाज पर विजय प्राप्त करनी है, कलिकाल पर विजय प्राप्त करनी है, अपनी समस्याओं पर विजय प्राप्त करनी है, तो अपने आप पर विजय पाओ। अपने काम-क्रोध-लोभ-मोह पर विजय प्राप्त करो। अपने अवगुणों पर विजय प्राप्त करो और सद्गुणों की ओर बढ़ो।
इन्हीं चिन्तनों के साथ मैं आज का अपना चिन्तन पूर्ण करता हुआ उन महत्त्वपूर्ण क्षणों की ओर लेजा रहा हूँ, जो क्षण आपके लिये कल्याणकारी होते हैं। जिन क्षणों पर मेरी चेतनातरंगें प्रवाहित होती हैं और आपके लिये कल्याणकारी स्थिति प्रदान करती हैं। अतः आरती, चालीसा पाठ, समर्पण स्तुति जो कुछ भी क्रम चलें, उस क्रम को पूर्ण तन्मयता के साथ, एकाग्रता के साथ, समस्त संशयों को एक तिजोरी में बन्द करके, आप केवल ‘माँ’ के भक्त हैं, ‘माँ’ के शिशु हैं,आप ‘माँ’ की कृपा चाहते हैं, ‘माँ’ से भक्ति, ज्ञान और आत्मशक्ति की कामना रखते हैं। इन्हीं कामनाओं को लेते हुये ‘माँ’ की आरती करेंगे, समर्पण स्तुति करेंगे। इन्हीं अपेक्षाओं के साथ अपना पूर्ण आशीर्वाद एक बार आप लोगों पुनः समर्पित करता हूँ और इसके साथ उन समस्त भक्तों के लिये भी मेरा पूर्ण आशीर्वाद है उन शिष्यों के लिये, जो यहाँ के प्रति चिन्तन रखते हुये भी इस कार्यक्रम में उपस्थित नहीं हो पाये। उनकी अपनी मजबूरियाँ रहीं, उनकी अपनी परेशानियाँ रहीं जो यहां नहीं आपाए। यदि वे भी यहाँ के प्रति चिन्तनरत हैं, तो उन्हें भी मेरा आज का आशीर्वाद प्रदान होगा।
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