संयोग, संस्कार और सत्कर्म

शक्ति चेतना जनजागरण शिविर, दमोह (म.प्र.)- 02-12-2007

बोलो माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बे मात की जय!
आज इस शक्ति चेतना जनजागरण शिविर में यहाँ उपस्थित अपने समस्त शिष्यों, कार्यकर्ताओं, ‘माँ’ के भक्तों एवं सभी जाति, धर्म, सम्प्रदाय की धर्मप्रेमी जनता को अपने हृदय में धारण करता हुआ माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा का पूर्ण आशीर्वाद प्राप्त करता हुआ अपना पूर्ण आशीर्वाद आप समस्त लोगों को समर्पित करता हूँ।
हम, आप सभी सत्य की शरण में जाना चाहते हैं, सत्य के पास रहना चाहते हैं। आप यहाँ भी आज उपस्थित हुये हैं। अनेकों साधु-सन्त-संन्यासी आते हैं, आप वहाँ भी कोई न कोई भावना लेकर उपस्थित होते हैं। अन्दर से कहीं न कहीं सबके अन्दर एक भावपक्ष है कि हमें सत्य को हासिल करना है। सत्य की शरण में जाने से ही हमारा कल्याण होना है। मगर निश्चित है कि कहीं न कहीं पथ भटके हुये हैं, रास्ते भटके हुये हैं। जिन सरल रास्तों में हम चलकर ज्यादा शान्ति और सन्तुलन प्राप्त कर सकते हैं, उससे आप सब कहीं न कहीं भ्रमित हो चुके हैं। आज भगवती मानव कल्याण संगठन के द्वारा वही सब रास्ते बतलाये जाते हैं कि आप सबसे पहले अपने आपको पहचानो। जब तुम अपने आपको पहचानोगे, तभी प्रकृतिसत्ता को पहचान सकते हो, सत्य को पहचान सकते हो।
साधना अनुष्ठान आदि तो सभी करते हैं। आपमें से अनेक लोग हैं जो बड़े-बड़े अनुष्ठान करते हैं, पूजा-पाठ करते हैं, सब कुछ करते हैं, मगर रास्ते थोड़ा भटके हुये हैं। उस आत्मचेतना के चिन्तन में ही कि हम लक्ष्य तक तो पहुँचना चाहते हैं, मगर हमने पथ को ही लक्ष्य मान लिया है। निश्चित है विचार तो हैं कि हमें लक्ष्य तक पहुँचना है, मगर वह विचार धीरे-धीरे करके जन्म दर जन्म समाज के बीच से समाप्त होते गये। जो पथ है, उसको भी हमने लक्ष्य मान लिया है और जो मार्गदर्शक हैं वह भी उस पथ को ही लक्ष्य मान बैठे हैं।
रामायण हो, गीता हो, पुराण हो, ये हमारे लक्ष्य के पथ हैं। उस लक्ष्य तक पहुँचाने के मार्ग हैं। इनमें वह ज्ञान समाहित है कि हम उस ज्ञान के माध्यम से उस लक्ष्य तक पहुँच सकते हैं। मगर आज समाज में आप सभी लोग देखें कि आप लोग केवल रामायण का पाठ दिन-रात करते रहते हैं, गीता का पाठ करते रहते हैं, दुर्गासप्तसती का पाठ करते रहते हैं, मगर क्या आप कभी विचार करते हैं कि क्या पाठ करने मात्र से आपको ‘माँ’ की कृपा प्राप्त हो जायेगी, राम की कृपा प्राप्त हो जायेगी, कृष्ण की कृपा प्राप्त हो जायेगी?

कभी आपने विचार किया कि राम समाज से चाहते क्या थे, कृष्ण समाज से चाहते क्या थे? रामायण का दिन-रात पाठ करने मात्र से हम राम की कृपा के पात्र नहीं बन सकते। राम की अगर हमें कृपा प्राप्त करना है, तो रामायण हमें किस दिशा में बढ़ाना चाहती है, रामायण हमें क्या चिन्तन देना चाहती है? जब तक हम उसको आत्मसात् नहीं करेंगे और उसको कर्मरूप में ढ़ालेंगे नहीं, तब तक कल्याण नहीं होगा। गीता हमसे क्या कह रही है? गीता का पाठ करने मात्र से कल्याण नहीं होगा। जीवन में यदि एक बार गीता का पाठ कर लो और उसमें क्या लिखा है? केवल उन विचारों को अपने जीवन में धारण कर लो और गीता जिस दिशा में बढ़ाना चाहती है, जो आपसे चाहती है, यदि केवल वह करना प्रारम्भ कर दो, तो तुम लक्ष्य तक भी पहुँच जाओगे और कृष्ण के कृपापात्र भी बन जाओगे। मगर केवल यदि गीता का ही पाठ करते रहे, रामायण का ही पाठ करते रहे, तो यह एक पथ है और पथ को ही यदि तुमने पूर्ण मान लिया कि हम तो गीता का पाठ रोज करते हैं, हम तो रामायण का पाठ रोज करते हैं, तो मेरा मानना है कि इससे न तो आप कभी राम की कृपा प्राप्त कर सकते हैं और न कृष्ण की कृपा प्राप्त कर सकते हैं। चूंकि सब कुछ आप बाहर की ओर प्रवाहित कर रहे हैं।
सबसे पहले आपको साधक बनने की जरूरत है। अपने अन्दर कितना ग्रहण कर रहे हो? गीता और रामायण में जो दिये गये निर्देशन हैं, उन पर अपने जीवन में कितना अमल कर रहे हो? कितना तुम साधक बन रहे हो, कितना तुम मानवता के पथ पर चल रहे हो? इस पर सब कुछ आधारित है। चूँकि जब तक आपकी कुण्डलिनी प्राणचेतना प्रभावक नहीं होगी, तब तक आप रामायण, गीता का पाठ दिन-रात करते रहें, केवल उतने समय जितने समय आप पाठ करते हैं, हल्का सा भावपक्ष जाग्रत् होगा। मगर उसका जब आपके शरीर में लाभ नहीं मिलेगा, आपकी चेतना में लाभ नहीं मिलेगा, तो भौतिक जगत् में आप उसका लाभ नहीं प्राप्त कर सकते। अतः केवल पथ को ही अपना लक्ष्य मत मान बैठो। उस दिशा में चलो, उस दिशा के लिये ही मैंने वे मार्ग बताये हैं कि सरल से सरल और सुगम से सुगम मार्ग, कि सबसे पहले अपने आप को पहचानने का प्रयास करो।
नित्य अपने आप का शोधन करो, अपने शरीर का मंथन करो। एक बार ‘माँ’ और एक बार ऊँ का उच्चारण करने से शरीर में मन्थन होता हैं और हमारी प्राणवायु जाग्रत् होती है और जितना हमको अन्य क्षेत्रों से लाभ नहीं मिलेगा, अगर हम दो-चार मिनट का ही समय दे दें, तो उससे उसका कई गुना लाभ प्राप्त होता है। समय का सदुपयोग करें। चूंकि हमारे समाज की सबसे बड़ी यह बिडम्बना है कि मानवजीवन में अनेकों बार सौभाग्य दरवाजे पर आकर दस्तक देता है, मगर हम केवल उपस्थित होना जानते हैं, सुन लेना जानते हैं और उसके बाद फिर इधर-उधर भटककर उन सुनी हुई बातों को विस्मृत कर देते हैं। जबकि हमें चाहिये कि यदि हम कहीं भी किसी स्थान में समय दे रहे हैं, तो सबसे पहले अपने मनमस्तिष्क को एकाग्र करें और जो सत्य के चिन्तन हमें मिलें, उनमें हम अपने जीवनों को ढालने का प्रयास करें।

परम पूज्य सद्गुरुदेव जी महाराज के चिन्तन श्रवण करते हुए भक्तगण

धन महत्त्वपूर्ण नहीं है, धर्म को महत्त्वपूर्ण समझो। धन के, भौतिकता के बड़े से बड़े भण्डार भी भर लोगे, तो भी वह आपके जीवन में सुख, शान्ति और समृद्धि नहीं दे सकते। सच्चा सुख, सच्ची शांति केवल धन अर्जन करने से नहीं, धर्म अर्जन करने से प्राप्त होगी और उनमें आपको तीन बातों पर विशेष ध्यान रखना पड़ेगा। तीनों एक दूसरे के पूरक हैं–संयोग, संस्कार और सत्कर्म। हमें समझने का प्रयास करना चाहिए कि हमारे जीवन में कोई भी योग जुड़ रहा हो, जैसे आज मैं आपके सामने बैठा हुआ हूँ, आप यहाँ बैठै हुये हैं, इसके पीछे भी कोई न कोई संयोग जुड़ा हुआ हैं। चूंकि माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा की इच्छा के विरुद्ध एक पत्ता भी नहीं हिल सकता।
आप चाहते तो यहाँ न आ पाते, मैं बुलाना चाहता तो यहाँ न आ पाते। मैं यहाँ चलकर के आया हूँ, तो इसके पीछे भी ‘माँ’ की प्रेरणा है। आप यहाँ चल करके आये हैं, इसके पीछे भी ‘माँ’ की प्रेरणा है। यह संयोग जो आज आपको प्राप्त हो रहा है, इसके पीछे भी कहीं न कहीं आपके संस्कार जुड़े हुये हैं और संस्कार कहाँ से बनते हैं? वह मैंने बताया है कि सत्कर्मों से संस्कारों की प्राप्ति होती है। कहीं न कहीं, कोई न कोई सत्कर्म आपके जुड़े होंगे, जो ये संयोग प्राप्त हो रहे हैं। कहीं न कहीं मेरे और आपके पूर्व के ऐसे संबन्ध होंगे, जो ये संयोग प्राप्त हो रहे हैं और जब संयोग प्राप्त हों, तो उन संयोगों को जितना हम सत्कर्मों में बदल देंगे, उतने ही हमारे संस्कार निर्मित होंगे। आपको सदैव विचार करने की जरूरत है कि अनेेकों बार जीवन में हमें संयोग प्राप्त होते हैं।
सभी चीजों को समझने का प्रयास करें। पूजन स्थान में नित्य सुबह-शाम अनेकों लोग पूजन करते हैं, मगर यदि आपके अन्दर भावपक्ष नहीं है, तो आप पूजा का लाभ प्राप्त नहीं कर पाते। यदि आप नित्य ‘माँ’ के चरणों में जब पूजन स्थान पर बैठें, तो एक विचार आना चाहिए कि ‘माँ’ के चरणों में मुझे जो बैठने का संयोग प्राप्त हो रहा है, यह ‘माँ’ की कृपा से, मेरे पूर्व संस्कारों से ये क्षण प्राप्त हो रहे हैं, इनको मुझे कर्म रुप में परिणित करना है।
मैं एक साधक हूँ और आपको साधक बनाने के मार्ग का ही चिंतन देता हूँ। यहाँ कथा-कहानियाँ और किस्से सुनाने नहीं आया हूँ। आपको विचारों की भावभूमि पर लेजाना चाहता हूँ, जिस पर लेजा करके ही आपका कल्याण होगा कि जब आप नित्य पूजन स्थान पर पहुँचें, तो आपके अन्दर एक तड़प हो कि सौभाग्य से कहीं न कहीं हमारे संस्कारों का उदय हुआ कि नित्य पूजन के इन क्षणों पर ‘माँ’ के चरणों पर बैठने का आज का दिन भी हमारे साथ जुड़ गया। उस भावपक्ष को जब आप अपना लेंगे, तो आपका मनमस्तिष्क एकाग्र होगा, आपकी चेतना प्रभावक होगी और आप जब पूजा पाठ करेंगे, तो नींद और आलस्य नहीं आयेगा। चूंकि मैंने कहा है कि इस तड़प को जब आप ले लेंगे कि हम जिस आत्मा को लेकर जीवन जी रहे हैं, इसकी जननी माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा हैं। हम सबकी जो जननी हैं, उस जननी से हम सम्बंध स्थापित कर रहे हैं, उस जननी से संयोग स्थापित कर रहे हैं और उसके लिए एक ही मार्ग है कि आप बाहर चाहे जितना प्रयास करते रहें, जब तक आप अपने अंतःकरण को निर्मल नहीं बनायेंगे, अंतःकरण को आप शान्त नहीं करेंगे, अंतःकरण को आप स्थिर नहीं करेंगे, तो आप अनेकों जगहों पर जाते रहें, सिर्फ उसी प्रकार होगा कि जिस प्रकार पिक्चर हॉल में कोई पिक्चर देखता है और कोई वहाँ अपने आपको हीरो मान लेता है, तो कोई विलेन मान लेता है और बाहर आता है तो धीरे-धीरे वह नशा उतर जाता है। उसी तरह पूजा पाठ में होता है कि आप कथाएं सुनते हैं, तो उस समय आपमें भावपक्ष आ जाता है।
सत्य तो यह है कि जब आप कुछ ग्रहण करें, तो वह स्थायी रूप से आपके शरीर में आजाये और वह तभी आयेगा, जब आप एक-एक क्षण को यह मानकर चलें कि हम, आप सभी उस प्रकृतिसत्ता की एक कठपुतली मात्र हैं, मगर हम जड़ नहीं हैं। इस बिंदु पर भी आपको विचार करने की जरूरत है। प्रकृतिसत्ता ने हमें जड़ कठपुतली नहीं बनाया है, प्रकृतिसत्ता ने हमें चेतनावान् कठपुतली बनाया है। संचालन करने वाली प्रकृतिसत्ता है मगर हम, आप सभी को कुछ न कुछ पात्रता प्रकृतिसत्ता ने दे रखी है। हमें उस चीज का ज्ञान प्राप्त करना है कि, प्रकृतिसत्ता ने जिस कठपुतली को बनाया है, उस कठपुतली का कर्म और धर्म क्या बनता है? हमें किस तरफ चलना चाहिए और किस तरफ नहीं चलना चाहिए? किस तरफ चलकर हम प्रकृतिसत्ता की कृपा प्राप्त कर सकते हैं और किस तरफ चलकर हम प्रकृतिसत्ता से दूर हो सकते हैं? निश्चित ही हम, आप सभी कठपुतली हैं, मगर हमारे अन्दर विवेक, बुद्धि, ज्ञान और सामर्थ्य है। प्रकृतिसत्ता ने जो ज्ञान दे रखा है, हमारे अन्दर जो चेतना दे रखी है, उसे हमें समझने का प्रयास करना चाहिए। जब तक हम अपने आपको समझेंगे नहीं, तब तक अहसास नहीं कर सकेंगे कि हमारा धर्म और कर्म क्या बनता है? हमारे जीवन में भटकाव ही आते चले जाएंगे। जन्म-दर-जन्म व्यक्ति पतन के मार्ग पर धीरे-धीरे ग्रसित होता चला जाता है। इस चीज को पहचानें कि आप, हम सभी कठपुतली हैं, मगर प्रकृतिसत्ता ने हमें चेतनावान् कठपुतली बनाया है, प्रकृतिसत्ता ने हमें सर्वशक्तिमान् बनाया है। यदि हम अपनी चेतना को प्रभावक बनाते चले जायें, तो देव समान बन सकते हैं। कोई भी कार्य हमारे लिए असम्भव नहीं हो सकता। आवश्यकता है अपने सातों चक्रों को जागत् करने के मार्ग पर बढ़ें, धीरे-धीरे उनको प्रभावक बनायें। आप सभी यह कर सकते हैं, आवश्यकता है निष्ठा और विश्वास की।
प्रकृतिसत्ता ने हमें सर्वशक्तिमान् बना रखा है, तो सर्वशक्तिमान् की सामर्थ्य को हम क्यों हासिल नहीं कर पा रहे हैं? प्रकृति ने तो आपको सब कुछ दे रखा है, मगर आप एक के बाद एक, एक के बाद एक आवरण डालते चले जा रहे हैं कि वे आवरण आपको पतन के मार्ग पर लेजा रहे हैं। इसलिए मैं आप सभी को बार-बार सचेत करता हूँ कि उस मार्ग में न भागो, जिस मार्ग में भौतिकतावादी समाज भागता चला जा रहा है। एक बार कुछ ठहराव लाओ अपने जीवन में। एक और विचार करो कि हमें मानवजीवन मिला है, तो हमारा धर्म और कर्म क्या बनता है? क्या जिस मार्ग में पूरी दुनिया भागती चली जा रही है, उसी मार्ग में हम भागते चले जायें? हमारा कल्याण किस तरह होगा, हमारा हित कैसे होगा? क्या हमारा और सभी का धर्म और कर्म नहीं बनता कि हम एक बार विचार करें कि हम जा किधर रहे हैं? विनाश के मार्ग में या विकास के मार्ग में, प्रकृतिसत्ता के नजदीक या प्रकृतिसत्ता से दूर? चूंकि जन्म-दर-जन्म हमारे जो आवरण पड़ते चले जाएंगे, उनसे हम सिर्फ पतन के मार्ग पर जाएंगे।
जिस तरह आज आप लोगों के सामने यदि सत्य बैठा हो, तो सत्य को आप पहचान नहीं सकते। दृश्य को आप देख सकते हैं, अदृश्य से सम्बन्ध नहीं स्थापित कर सकते। मगर हमारे अनेकों ऋषि-मुनि हुये हैं, जो दृश्य और अदृश्य दोनों से सम्बन्ध स्थापित करते थे। भाग्य-दुर्भाग्य को आप सभी जानते हैं कि आप अनेकों बार परिश्रम करते हैं, प्रयास करते हैं, मगर सफलता नहीं मिलती। आप महसूस करते हैं कि कहीं न कहीं प्रकृतिसत्ता की कृपा नहीं है, इसलिये ऐसा हमारे साथ हो रहा है। मगर उसमें विचार नहीं करना चाहते कि इस कलिकाल में भी हर मनुष्य के अन्दर कोई न कोई अच्छाई आज भी जीवित है। मैंने कहा है कि जिस बिन्दु पर आप हैं, उस बिन्दु पर सिर्फ अपने आपको सचेत कर लो। आज भी समाज का इतना अधिक पतन नहीं हुआ है कि उसे सुधारा न जा सके, आप अपने आपको सुधार न सकें। सिर्फ अपनी अच्छाइयों को देखना शुरू कर दें और अच्छाइयों पर अमल करना शुरू कर दें। चूंकि हम पूरे समाज से जुड़े हुये हैं। जो हमारे अन्दर अच्छाइयां हैं, उन अच्छाइयों के पलड़े को एक-एक करके हम बढ़ाना शुरू कर दें।
कोई भी व्यक्ति हो, समाज का व्यवसायी हो, सर्विसमैन हो, राजनेता हो, समाजसेवक हो, साधु, सन्त या संन्यासी हो, ऐसा नहीं है कि किसी के अन्दर से अच्छाइयां पूरी तरह से समाप्त हो चुकी हों। मगर आवश्यकता है कि उन अच्छाइयों को देखें और बुराइयों का आकलन करते हुये उन बुराइयों के पलड़े को धीरे-धीरे करके कम करते चले जाना है। इसलिये भगवती मानव कल्याण संगठन सभी क्षेत्रों में बुद्धिजीवी समाज का हर बार आवाहन करता है कि आओ एक बार हम, आप सभी मिल करके समाज में परिवर्तन डालने के लिये अपनी पूरी क्षमता को लगा दें, अपनी पूरी क्षमता को झोंक दें। अन्यथा आज यह समाज उन्हीं विषमताओं में उलझा पड़ा हुआ है और कल को आपके बच्चे इन्हीं में उलझेंगे। कल को आपके बच्चे अपराधी बनेंगे, कल को आपके बच्चे नशे से इतना अधिक ग्रसित हो जाएंगे कि जिनसे उन्हें मुक्त करना भी कठिन हो जाएगा। धन-दौलत उतनी ही इकट्ठी करो, जितनी आपके लिए अत्यन्त आवश्यक हो। आवश्यकता से अधिक वह करो, जितना जनकल्याणकारी कार्यों में लुटा सको, अपने क्षेत्र के विकास में लगा सको, अपने क्षेत्र की गरीब जनता की सहायता कर सको, अपने क्षेत्र में नशामुक्त और मांसाहारमुक्त समाज का निर्माण कर सको। कार्य तो हमें और आप सभी को उस दिशा में करना चाहिए।
हम अपनी शक्ति को पहचानना शुरू कर दें कि गरीब से गरीब व्यक्ति क्यों न हो, उसके अन्दर भी कुछ न कुछ सामर्थ्य है। उस सामर्थ्य का उपयोग अपने आपको और समाज को सुधारने के लिए करें। आज यही भगवती मानव कल्याण संगठन के सदस्यों के द्वारा किया जा रहा है कि गरीब से गरीब व्यक्ति जो अपने आपमें बिल्कुल असहाय सा महसूस करता था, असमर्थ सा महसूस कर रहा था, आज उसके पीछे लाखों लोग चल रहे हैं। संगठन के द्वारा हज़ारों-हज़ारों लोगों को नशामुक्त जीवन प्रदान कराया जा चुका है। देश के कोने-कोने के लाखों-लाखों लोग आज भगवती मानव कल्याण संगठन के प्रयास से नशामुक्त जीवन जी रहे हैं। यह सब आप लोगों के प्रयास से ही तो चल रहा है। आज भी इस शिविर में कई हज़ार लोगो ने दीक्षा प्राप्त की और नशामुक्त जीवन जीने का संकल्प लिया।
हम आज बीड़ा ठान लें, निःस्वार्थ भाव से समाजसेवा करने का संकल्प ले लें। चूंकि जब हमारे अन्दर निःस्वार्थ भावना आजाती है, तब हम समाज को अपना मान लेते हैं और विचार करते हैं कि निश्चित रूप से हम प्रकृतिसत्ता से, अपनी जननी से बहुत दूर हो चूके हैं। अतः हमें जननी के नजदीक जाना है, तो हमें आत्मकल्याण व जनकल्याण करना ही पड़ेगा। ऐसा कोई ज़िला नहीं, ऐसा कोई प्रदेश नहीं, जहाँ पर सुधार न किया जा सके। एक निर्णय केवल ठानें, जात-पात से दूर हटकर उन भेदभावों से दूर हट करके यदि सभी सामाजिक संगठन, सभी धर्मप्रमुख, राजनीति से जुड़े सभी सदस्य संकल्प लें। चूंकि आज कोई राजनीति क्षेत्र में मन्त्री है, सांसद है, विधायक है, पंच, सरपंच, किसी क्षेत्र में भी पहुँच रहा है, तो निश्चित रूप से उसके संस्कारों का संयोग होगा और यदि उन संस्कारों के संयोग को न समझ सके और उस पद तक तो प्रकृतिसत्ता ने आपको पहँुचा दिया, मगर उस पद पर जाकर भी यदि आपने अपने पद का सदुपयोग न किया, तो निश्चित मान लीजिए कि आज तो आपको पद मिल रहे हैं, मगर आने वाले जीवनों में हो सकता है कि उन पदों से आप वंचित हो जायें।
अतः एक बार विचार करो, धर्म को केवल उस रूप से मत ग्रहण करो कि केवल पूजा-पाठ करने से हमारा आत्मकल्याण हो जाएगा। अरे, प्रकृतिसत्ता ने आपको सब कुछ दे रखा है। पूजा पाठ तो हम उतनी करें, जिससे हमारे शरीर का शोधन हो सके। अपने आपमें जो हमारी अच्छाईयां हैं, अधिक से अधिक उनको समाज मे बाँटने का प्रयास करें और समाज की बुराईयों को दूर करने का प्रयास करें। आप स्वतः प्रयास करके देखें, जब आप पूजा-पाठ कर रहे होंगे, अपने घर में आराधना कर रहे होंगे, रामायण का पाठ कर रहे होंगे, गीता का पाठ कर रहे होंगे और आप कहते हैं कि मेरा मन एकाग्र नहीं होता, मगर जब आप किसी को चिंतन दे रहे हों, अच्छाई की बातें किसी को बता रहे हों, ‘माँ’ की आराधना, सत्कर्म की बातें कर रहे हों, तो उस समय आपका मन पूरी तरह से एकाग्र होजाता है। इससे आपको भी लाभ प्राप्त होगा और आप जिसको चिंतन दे रहे हैं, उसे भी लाभ प्राप्त होगा।
आप चार घण्टे पूजा करते हो, तो एक घण्टे ही करो, ज्यादा तृप्ति मिलेगी और तीन घण्टे का जो समय बच रहा है, उसे जनकल्याणकारी कार्यों में लगाओ, दूसरों को सत्मार्ग में ले जाने के लिए लगाओ। हम, आप सभी एक दूसरे के रिश्तों से जुड़े हुए हैं। हिन्दू समाज इस बात को जानता है और ऋषि-मुनि व धर्मग्रंथ चीख-चीखकर कहते हैं कि बार-बार हमें जन्म लेना ही पड़ेगा। आत्मा अजर-अमर-अविनाशी है। कल हम किसी के थे और आज हम किसी के हैं, कल किसी दूसरे के होंगे।
हमारा धर्म व कर्म होना चाहिए कि एक जनकल्याणकारी भावना हो। हर क्षेत्र में एक सुधार की भावना हो। कुछ भी असम्भव नहीं है। मैं तो कुछ भी असम्भव नहीं देख रहा, यदि असम्भव देखता, तो आज एक प्रवाह जो देश के कोने-कोने में चल रहा है, हर ज़िले में चल रहा है, लाखों-कराड़ों लोग एक विचारधारा से संगठित हो करके ‘माँ’ की आराधना कर रहे हैं, नशामुक्त जीवन जी रहे हैं, तो आज यह न हो रहा होता। आज यदि हम, आप सभी मिल जाएं, जगह-जगह जनजागरणों के कार्यों से समाज में जनचेतना फैलाने का प्रयास करें कि हमारा आपका हित किसमें छिपा है, समाज का हित किसमें छिपा है? तो बड़ा परिवर्तन होने लगेगा।
मैं नहीं कहता कि आपका निराशावादी जीवन होना चाहिए। हर पल आशावादी जीवन ले करके चलो। हर पल अपने जीवन में संघर्षशील बनो। चूंकि निष्क्रिय मनुष्य रोज मरता है और सक्रिय मनुष्य की मृत्यु जीवन में केवल एक बार होती है। अपने जीवन में निष्क्रियता मत आने दो। जीवन में इतना ही संतोष मत कर लो कि हम राजनीति क्षेत्र में बढ़ गए, तो राजनीति में हमारा धर्म और कर्म कितना है? हम मन्त्री बन गए, तो हमारे पास जितना बजट आ रहा है, सिर्फ उसका ही हमें प्रयोग करना है। अरे, अपनी सामर्थ्य को पहचानो। किसी प्रशासनिक पद पर हो, तो आपका धर्म इतना ही नहीं कि हम ईमानदारी से अपनी पूरी सेवा कर रहे हैं और यह करना तो केवल एक कर्तव्य है। जिस विभाग में हो, उतना करना तो आपका नैतिक दायित्त्व है। मगर इसके अलावा आपके पूरे जीवन का अन्य जो पक्ष है कि अगर आप सर्विस कर रहे हैं, तो निश्चित रूप से आपका धर्म बनता है कि ईमानदारी से सर्विस करें। वह आप अपने जीवकोपार्जन के लिए कर रहे हैं, मगर वास्तव में आप जनकल्याण के लिए क्या कर रहे हैं? जबकि जिन पदों पर रह करके आप बहुत कुछ कर सकते हैं। चूंकि समय किसी का इंतजार नहीं करता, अतः समय के महत्त्व को समझो।
आपमें से अनेकों लोग ऐसे होंगे जो पंच और सरपंच बने होंगे, विधायक बने होंगे, सांसद बने होंगे और जब वह पद चला जाता है, तो महसूस करते हैं कि यदि हम चाहते तो इतना कर सकते थे। हम चाहते तो अपने क्षेत्र में और विकास कर सकते थे। मुझसे अनेकों मन्त्री और विधायक जुड़े हुए हैं और जब मन्त्री पद चला जाता है, तब आ करके कहते हैं कि गुरुदेव जी, पूरे कार्यकाल में पद पर रहते हुये हम अपनी योजनाओं को ही नहीं समझ पाये कि कितनी योजनाएं हमारे पास थीं? और, हम चाहते तो उनका बहुत उपयोग कर सकते थे। उसी तरह जो संयोग धर्मक्षेत्र में बने, उसको समझने का प्रयास करो कि हर पल एक तड़प अपने अन्दर ‘माँ’ की भक्ति के प्रति पैदा करो, अपनी जननी से मिलने का भाव पैदा करो। चूंकि हम, आप सभी उस जननी की सन्तान हैं। स्थूल शरीर से हमारी आपकी जननी अनेकों अलग-अलग हैं, मगर आत्मा की जननी सिर्फ एक है। इसीलिए मैंने कहा है कि सभी जाति, धर्म, सम्प्रदाय किसी तरह से किसी भी मार्ग में क्यों न बढ़ रहे हों, मगर सत्य तक कभी कोई पहुँच सके, इसलिए मैंने किसी गर्व घमंड से अपनी चुनौती नहीं रखी। चूंकि माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा की कृपा से मैंने उस लक्ष्य को प्राप्त किया है, उस लक्ष्य को देखा है, समझा है और उस लक्ष्य पर खड़े होकर सभी मार्गों को देख सकता हूँ कि कौन-किन मार्गों से कितना उलझता हुआ आ रहा है? किन मार्गों से चलकर वह पहुँच पायेगा या नहीं?
जिस तरह आप इस तहसील ग्राउण्ड में बैठे हुए हैं, तो तहसील ग्राउण्ड की बाउण्ड्री से बाहर नहीं देख सकते, मगर यदि कोई ऊंचाई पर जा करके खड़ा हो जाये, तो वह पूरे दमोह को देख लेगा कि पूरे दमोह में कौन-कौन सी गलियाँ हैं? कहाँ से आने में तहसील ग्राउण्ड नजदीक पड़ेगा? कहाँ पर क्या दृश्य है, कहाँ पर क्या नहीं है? यही होता है साधनापथ में, कि जब आप उच्चता को धारण कर लेते हैं, सूक्ष्म से अपना सम्बन्ध स्थापित कर लेते हैं, तो आपकी कार्यक्षमता बढ़ जाती है। इस तरह आप सबकी एक पात्रता है। आप किसी न किसी पद पर बैठे हैं, किसी न किसी सामर्थ्य को लिए बैठे हैं, उस सामर्थ्य को पहचानें और अपने से नीचे जो लोग हों, उनको देखना शुरू कर दें। चूंकि अपने से ऊपर देखने पर कभी शान्ति व सन्तोष नहीं मिलेगा कि मेरे पास एक गाड़ी है और दूसरे के पास दस गाडिय़ां हैं, बल्कि आपका मन अशान्त होगा। वास्तव में सच्ची शान्ति व सच्चा सुख प्राप्त करना है, तो अपने से नीचे गरीबों की ओर देखो कि आप दो समय का भोजन कर लेते हैं, वहीं वह एक समय का भी भोजन नहीं कर पाता। मैं ज्यादा सामर्थ्यवान हूँ। मैं जो जूठी पत्तलें फेंक देता हूँ, वह उसका दाना उठाकर खा लेता है, मुझे भगवान् समान मानता है। अगर आप किसी को पांच रुपये दान में देते हैं, पांच रुपये किसी भिखारी को देते हैं, तो वह आपको भगवान् मानता है और भगवान् हो करके भी आप अपने आप को नहीं पहचान पाते!
सबसे पहले आपको स्वयं को पहचानना है, अपने आपको जानना है। आप सभी भगवान् हैं, सभी को प्रकृतिसत्ता ने वह पात्रता दे रखी है। चूंकि प्रकृतिसत्ता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा के समान न तो आज तक कोई बन पाया है और न बन पायेगा। मगर आप सभी भगवान् बन सकते हैं, ऋषित्व के मार्ग में चल सकते हैं। मैंने अपने बारे में भी बताया है कि मैं किसी देवी-देवता का अवतार नहीं हूँ। मैं ऋषि था, ऋषि हूँ और ऋषि ही रहूँगा। मैंने अपना परिचय दिया है कि मैं सच्चिदानन्द का स्वरूप हूँ और इस रूप में आकर समाज के बीच कार्य कर रहा हूँ। चूंकि मैंने इसी मार्ग का चयन किया है, यही मार्ग मुझे पूर्ण लगा, क्योंकि यही मार्ग प्रकृतिसत्ता से हर पल जोड़कर रखता है। वास्तविकता में यही स्वरूप सभी का होना चाहिए। जब आप सभी धीरे-धीरे उस मार्ग पर बढऩे का प्रयास करेंगे, तो कहीं न कहीं सत्य का आपको ज्ञान होगा। अतः अपने आपको पहचानो, अपने आपको जानो।
धर्म का हमारा प्रथम कर्तव्य यही बनता है और आप तभी आत्मा के स्वरूप को जान पायेंगे। अनेकों संस्थाओं की विचारधारा को आप सुनते होंगे कि आत्मा का स्वरूप शान्ति का स्वरूप है, शान्ति धारण करो। आत्मा का स्वरूप शांति का है, शान्ति में स्थित होते चले जाओ। मैंने कहा है कि हम पथ को ही लक्ष्य मान बैठते हैं। आत्मा का स्वरूप शान्ति का है ही नहीं। आत्मा में दया, करुणा, ममता, शान्ति, यह सब कुछ निश्चित समाहित है, मगर आत्मा का मूलस्वरूप शक्ति का स्वरूप है। आत्मा केवल आपको शान्ति धारण करना नहीं सिखाती। हमारा लक्ष्य है कि हम शान्ति धारण करते हुए उस आत्मा तक पहुँच सकते हैं। मगर आज आप देखते होंगे कि अनेकों संस्थाओं से यही चिन्तन दिये जा रहे हैं कि आत्मा का स्वरूप शान्ति का स्वरूप है, शान्ति धारण कर लो। आत्मा का यह स्वरूप नहीं है, बल्कि शान्ति धारण करते हुए उस आत्मा में हम शक्तिस्वरूप को प्राप्त कर सकते हैं।
आत्मा का स्वरूप तो शक्ति का स्वरूप है, चेतना का स्वरूप है, पूर्णत्त्व का स्वरूप है। आत्मा न्यायप्रिय है, आत्मा कर्मशील है, आत्मा हर पल कर्मवान् रहती है। आत्मा केवल शान्ति धारण करना नहीं सिखाती कि आप आत्मा को प्राप्त कर लोगे, ज्ञान को प्राप्त कर लोगे, तो शान्ति प्राप्त हो जाएगी। आप जब कर्मवान् बनेंगे, शक्तिवान् बनेंगे, सर्वशक्तिमान् बनेंगे, तब आपको सत्य का एहसास होगा। जीवन की शान्ति तो यह होती है कि मैं जो कुछ चाहूँ, प्राप्त कर सकता हूँ। मेरे जीवन की शान्ति यह नहीं है कि मैं मन को शान्त करके बैठ जाऊं। यह तो वह मार्ग है उस सत्य तक पहुँचने का। अतः आत्मा का स्वरूप शक्ति का स्वरूप है, उसे पहचानें। जिस शक्ति के स्वरूप में किसी भी चीज की कमी नहीं है। आप जितना उसके नजदीक जाएंगे, उतनी पूर्णता आपके जीवन में आती चली जाएगी, उतनी बीमारियाँ आपकी दूर होती चली जाएंगी, उतनी असमर्थता आपकी दूर होती चली जाएगी, आपकी भौतिक समस्याएं दूर होती चली जाएंगी, क्योंकि आत्मा पूर्णत्त्व का स्वरूप है, शक्ति का स्वरूप है, उसके पास सब कुछ सामर्थ्य है। केवल उसकी नजदीकता को धारण करने का प्रयास करो, सद्गुणों को धारण करते हुए अपने आचार-विचार-व्यवहार में परिवर्तन ले आओ। भूल जाओ कौन क्या कर रहा है? सबसे पहले स्वयं को सुधारें।
जब तक आप आत्मा के स्वरूप को जानने का प्रयास नहीं करेंगे, आत्मा के नजदीक नहीं जाएंगे, तो बाहर जितना भी मंत्र जाप कर लें, पूजा-पाठ कर लें, मगर आपका मन अशान्त रहेगा, आपको तृप्ति का एहसास नहीं हो सकेगा और ज्यों-ज्यों आपकी प्राणवायु सक्रिय होगी, ज्यों-ज्यों आप अपने सत्कर्मों से आत्मा के नजदीक जाएंगे, आपको शान्ति, सन्तोष और सामर्थ्य हासिल होगी और जब तक सामर्थ्य नहीं होगी, तब तक आप शान्ति को प्राप्त ही नहीं कर सकते, सन्तोष को प्राप्त ही नहीं कर सकते। कह देने मात्र की कुछ और बात होगी कि अंगूर मिल नहीं रहे, तो खट्टे हैं। जब अंगूर मिल नहीं रहे होंगे, तो खाने को मिलेंगे नहीं, लेकिन जब अंगूरों का भण्डार लगा हो, फिर भी हमें खाने की इच्छा न हो, शान्ति तो उसे कहते हैं, तृप्ति तो उसे कहते हैं।
सन्तोष तो तब है कि मैं जिस चीज को चाहूँ, हासिल कर सकता हूँ। मुझे जितनी आवश्यकता हो, वह चीज मुझे प्राप्त होजाती है। आपका गुरु भी उसी रास्ते पर चल रहा है। मैंने धनबल के माध्यम से कभी किसी कार्य को नहीं किया। पच्चीसों वर्षों से मुझसे जुड़े हुए लोग आज भी जानते हैं कि मेरे किसी बैंक एकाउण्ट में दस हज़ार रुपये भी जमा नहीं मिलेगा। मैं कर्ज़ लेकर भी समाजकल्याण का कार्य करने लिए सतत आगे बढ़ता चला जाता हूँ। मुझे जब जितनी जहाँ जरूरत होती है, प्रकृतिसत्ता से प्राप्त होजाता है, ‘माँ’ की कृपा से प्राप्त होजाता है। चूंकि मैं जानता हूँ, मेरा कार्य है कि मैं जिस मार्ग में हूँ, ऋषित्व के मार्ग में हूँ, तो मेरा कार्य है केवल जनकल्याणकारी कार्यों में अपनी ऊर्जा को प्रवाहित कर देना और ऊर्जा प्रवाहित करने के लिए कोई धन की जरूरत नहीं है। जितना आ गया तो ठीक है, नहीं आया तो ठीक है। हमारी सामर्थ्य भौतिकतावाद से जुड़ी नहीं है, हमारी सामर्थ्य शक्तिचेतना से जुड़ी हुई है। उसी तरह यदि आप सभी अपनी सामर्थ्य को पहचानने लगें, अपने आपको जानने लगें, तो बहुत कुछ सुधार हो सकता है।
आवश्यकता है आत्मा के स्वरूप को जानने की, आत्मा को पहचानने की और जब तक आप आत्मा को नहीं पहचानेंगे, आत्मा के स्वरूप को नहीं जानेंगे, आप किन्हीं देवी-देवताओं के दर्शन कर ही नहीं सकते। यह ध्रुवसत्य है, चाहे पूरा जीवन खपा दें। मैंने इसीलिए कहा है कि एक प्रवाह होता है जब कई बार मुझे उच्चस्वर में बोलना पड़ता है अन्य साधु-सन्त-संन्यासियों, धर्माचार्यों के बारे में, क्योंकि मैं जानता हूँ कि वे भटक रहे हैं। वे केवल परम्पराओं की रक्षा कर रहे हैं, केवल एक पथ की रक्षा कर रहे हैं। लक्ष्य की ओर बढऩा नहीं चाह रहे हैं। लोगों को चिन्तन ही नहीं दे रहे हैं कि सबसे पहले अपने शरीर का शोधन करो। शरीर का शोधन कर लो, प्रकृति तो आपके साथ बैठी ही है, आपको कुछ करने की जरूरत नहीं है और यह करने के लिए, शरीर का शोधन करने के लिए केवल बाह्य क्रमों को अपनाने मात्र से कल्याण नहीं होगा। आपको नशामुक्त जीवन जीना पड़ेगा, मांसाहारमुक्त जीवन जीना पड़ेगा।
जब तक आपका जीवन जनकल्याणकारी भावना से आगे बढ़ेगा नहीं, तब तक आप आगे बढ़ नहीं सकते और मैंने कहा है कि प्रकृतिसत्ता से मांगने का भी मैंने भाव बताया है कि जब भी आराधना में बैठो, तो प्रकृतिसत्ता से भक्ति, ज्ञान और आत्मशक्ति मांगो। यह निष्काम साधना कहलाती है। चूंकि जीवन में कोई भी निष्काम साधना नहीं होती, मगर जब हम भौतिकतावाद की कामना के लिए साधना कर रहे होते हैं, तो सकाम साधना कहलाती है और जब अदृश्य सत्ता से सम्बन्ध जोडऩे के लिए साधना कर रहे होते हैं, तो निष्काम साधना कहलाती है। चूंकि मैंने दोनों पक्षों की बात बताई है कि इस दुनिया में, भौतिक जगत् में कोई भी ऐसा कर्म नहीं है जो निष्काम कर्म हो। आज तक न कोई साधु-संत-संन्यासी ऐसा कर सका है, न कर सकेगा। भले वे चिन्तन दे देते हों। कोई निष्काम कर्म होता ही नहीं है।
चूंकि आप यहाँ भी आए हैं, तो इसके पीछे भी कोई न कोई कामना जुड़ी है कि हम गुरुदेव जी के चिन्तन सुनेंगे या गुरुदेव जी के दर्शन प्राप्त करेंगे या हम ‘माँ’ की ऊर्जा प्राप्त करेंगे। कोई न कोई कामना जुड़ती है, तभी हम कर्म कर पाते हैं। कोई भी चीज सोच लो कि यदि आपकी पढ़ाई भी है और जब आप पढ़ाई करते हैं, तो उसके पीछे भी एक लक्ष्य है कि हम पढ़ाई करके सफलता हासिल करेंगे, नौकरी करेंगे। पूजा-पाठ भी करते हैं, तो कहीं न कहीं प्रकृति के दर्शन करने या नजदीकता प्राप्त करने का हमारा लक्ष्य होता है। दुनिया का कोई भी कार्य निष्काम नहीं है। सभी चीजें सकाम हैं। जब हम भौतिक जगत् की कामनाओं के लिये कोई साधना कर रहे होते हैं, तो सकाम साधना कहलाती है और जब हम उस प्रकृतिसत्ता से सम्बन्ध स्थापित करने के लिये साधना कर रहे होते हैं, तो निष्काम साधना कहलाती है।
जब हम ‘माँ’ से भक्ति, ज्ञान और आत्मशक्ति मांग रहे होते हैं, तो यह हमारी निष्काम साधना कहलाती है। सकाम होते हुये भी निष्काम होजाती है। जिस तरह मैंने कहा है कि गृहस्थ में रहते हुये भी आप बैरागी, योगी हो सकते हो। राजा जनक क्या थे? विदेह कहलाते थे। बड़े-बड़े ऋषि-मुनि उनके आगे नतमस्तक होते थे। क्या था ऐसा उनके पास? वो तो राजपाट भी सम्भालते थे? सिर्फ वही ज्ञान था उनके पास। वह आत्मज्ञानी थे। उनके पास वह आत्मज्ञान था, जो उस समय के दूसरे साधु-सन्त, संन्यासियों के पास नहीं था। वह सभी कर्म करते थे, मगर कर्म करते हुये भी हर पल मुक्त रहते थे। उनके अन्दर वैराग्य था। वही वैराग्य आप सभी लोगों को हासिल करना है। एक मिनट में सब कुछ हासिल नहीं कर सकोगे, मगर मैंने कहा कि जिस धरातल में खड़े हो, उस धरातल से धीरे-धीरे आगे बढ़ो। अपने अन्दर वैैराग्य भाव पैदा करो।
वैैराग्य भाव में ही शान्ति, सन्तोष और सन्तुलन छिपा है, सत्य छिपा हुआ है। सत्य की ओर हम केवल आँखें उठा करके तो देखें। चूंकि यदि हम अन्दर प्रवेश न करें, आँख बन्द कर लें और सूर्य का उदय हो, तो हम नहीं देख सकते। हमें सब कुछ अन्धकारमय दिखाई देगा। बाहर देखने के लिये हमें इन आँखों को खोलना पड़ता है और अन्दर देखने के लिये, अदृश्य जगत् से सम्बन्ध स्थापित करने के लिये हमें अपने अन्तर्मन की आँखों को खोलना ही पड़ेगा। वह सब कुछ हमारे शरीर में है, मेरे शरीर में है, आपके शरीर में है, सभी जाति-धर्म-सम्प्रदायों के लोगों के शरीरों में है। केवल हमको उस मार्ग पर बढऩा पड़ेगा, उस मार्ग पर चलना पड़ेगा। तभी आप भी राजा जनक की तरह विदेह हो सकते हो कि सब कुछ है, मगर आप उसमें लिप्त नहीं हो।
अभी आपकी कामनायें एक के बाद एक बढ़ती ही चली जा रही हैं। आप भयग्रस्त जीवन जीते हो। आपके पास भौतिकता के अम्बार क्यों न लग जायें, करोड़ों-अरबों की सम्पत्ति क्यों न आ जाये, मगर फिर भी आप शान्त नहीं रहते। एक भय सा बना रहता है। धन कमा करके तो आप भयमुक्त जीवन प्राप्त कर ही नहीं सकते। मन्त्री बन जाने के बाद, प्रधानमन्त्री बन जाने के बाद भी आप भय से ग्रसित हो कि हमारा पद अगली बार जा सकता है। इस बार हमें यह सामर्थ्य मिली है, अगली बार यह सामर्थ्य हमसे छिन सकती है। धन की कामना आपकी कभी समाप्त नहीं हो रही। धन आपको जीवन में कितना चाहिये? उसका आकलन आपको करना चाहिये। यह नहीं कि धन अगर कर्म से आ रहा है, तो उसे उपार्जित करते जाओ।
आज विश्व के उद्योगपतियों में हमारे देश की गणना होती है। एक तरफ जहाँ सौभाग्य की बात है, मगर वहीं कितनी बड़ी बिडम्बना है कि आज आज़ादी के साठ वर्ष पूरे हो चुके हैं, मगर फिर भी समाज की अनेकों गरीब जनता एक समय का भोजन नहीं कर पाती, वस्त्र नहीं पहन पाती। धिक्कार है हमारे और आपके जीवनों को कि हम उन बिन्दुओं पर कभी विचार भी नहीं कर पाते कि ये विषमतायें जब तक हमारे अन्दर होंगी, तो हम चाहे जितना सब कुछ अम्बार इकट्ठा क्यों न कर लें, प्रकृतिसत्ता कभी हमें शान्ति और सन्तुलन नहीं दे सकती। चाहे जितने मन्दिरों में हम माथा टेकते फिरते रहें, जब तक कि हम पूरे समाज को देखने का प्रयास नहीं करेंगे, प्रकृतिसत्ता की हम कभी कृपा नहीं प्राप्त कर सकते।
सब जगह अनीति-अन्याय-अधर्म उसी तरह बढ़ता जा रहा है, आधी जनता भुखमरी की शिकार है और दस-बीस प्रतिशत लोग भौतिकता के अम्बार इकट्ठा करते चले जा रहे हैं। शान्ति, सन्तोष उनको भी नहीं है और असन्तुलन सतत आगे बढ़ता चला जा रहा है। इस असन्तुलन को धीरे-धीरे करके दूर करने की जरूरत है। इसके लिए समाज को आगे आना चाहिये, बुद्धिजीवी वर्गों को आगे आना चाहिये। जिनके पास जो पद या सामर्थ्य है, उसको पहचानना चाहिये, जानना चाहिये और उस पद या सामर्थ्य का उपयोग करना चाहिये। उसका उपयोग उतने सीमित दायरे में मत करो। जिस तरह मैंने कहा है कि एक प्रशासनिक अधिकारी हो, तो वह आपका एक कर्मक्षेत्र हो गया। उसके अलावा सोचो कि जनहित के लिए तुम जीवन में और क्या कर सकते हो? अपने विचारों को जनचेतना में फैलाकर समाज के लिए तुम और क्या कर सकते हो? सब कुछ केवल प्रशासन पर ही मत डालो कि प्रशासन ही आ करके सब कुछ कर देगा। आपको स्वतः ही सचेत होना पड़ेगा।
चूंकि यदि प्रशासन चाहे भी, तो आज जितना भ्रष्टाचार-अनीति-अन्याय फैल चुका है, कि जनहित की योजनायें बनती रहेंगी, मगर जनहित कभी नहीं होगा। जनहित के लिये समाज को आगे आना पड़ेगा। समाज को कहीं न कहीं उभरना पड़ेगा। हर व्यक्ति जो जहाँ है, जनहित की वह भावना उसके अन्दर पैदा करनी पड़ेगी। जब तक भावना पैदा नहीं होगी, तो योजनायें चाहे जितनी आती रहें कोई लाभ नहीं होगा? चूंकि मैंने कहा है कि योजनायें आती हैं और यदि उनका पच्चीस-पचास प्रतिशत भी ईमानदारी से उपयोग हो जाये, तो समाज की सब समस्यायें दूर होती चली जायें।
आज बेरोजगारों को नौकरियां नहीं मिल रहीं। वे बेचारे तड़पते हैं, उनके माता-पिता मन्दिरों की चौखटों में दिन-दिन भर बैठे रहते हैं, ज्योति जलाते हैं और सोचते हैं कि हमारा बच्चा गया है इण्टरव्यू देने, तो शायद वहाँ नौकरी मिल जायेगी। मगर हर जगह भ्रष्टाचार फैला हुआ है। लोग मुझसे भी निवेदन करते हैं मगर मैं भी अगर चाहूँ तो भ्रष्टाचार इतनी आसानी से समाप्त नहीं होगा, क्योंकि जब पहले से ही वे नियम बने हुये हैं कि अगर दस लोगों की भर्ती कहीं पर होना है, तो एक विधायक का व्यक्ति लगेगा, एक प्रशासनिक अधिकारी का व्यक्ति लगेगा, जितने भी लोग कमेटी में हैं, एक-एक व्यक्ति उनका लगेगा। यह सब पहले से तय होजाता है।
आप चाहे जितने मन्दिरों में माथा रगड़ते रहें, यह पहले से तय होजाता है कि इस विभाग की भर्ती में एक लाख लगना है कि दस लाख लगना है या बीस लाख लगना है और पैसा देने वालों की कमी भी नहीं है। उससे नीचे कभी उनको उतरना नहीं है, वह सब तय है। यह भ्रष्टाचार एक दिन में नहीं समाप्त हो सकता। चूंकि प्रशासनिक अधिकारी अगर चाहें भी कि आज हम भ्रष्टाचार को समाप्त कर दें, तो वे नहीं समाप्त कर सकते। चूंकि यह अमरबेल के समान है। जब तक यह ऊपर से दूर नहीं होगा, तब तक इसे नीचे से दूर नहीं किया जा सकता। एक अधिकारी अपने आपको ईमानदारी से रखना भी चाहता है, तो वह नहीं रह सकता। मैं यह नहीं कह रहा कि आज अधिकारी ईमानदार नहीं हैं। अनेकों ऐसे अधिकारी हैं जो ईमानदारी से अपने दायित्त्यों का निर्वहन करते हैं, मगर फिर भी यदि सभी लोग अपने दायित्त्व का निर्वहन करें, तो उनको ज्यादा शान्ति, सन्तोष और सन्तुलन मिलेगा, जिससे उनकी कार्यक्षमता और ज्यादा प्रभावक होगी।
सभी थाने बिक रहे हैं। किसी थाने में अगर किसी थाना प्रभारी को आना होगा, तो उसको पैसा देना पड़ेगा। हर महीने उनके थाने बंधे हुये हैं। वे वसूल कहाँ से करेंगे? गरीब जनता से, आम जनता से। चूंकि अपराधी या बाहुबली तो सीधे जाता है, हाथ मिलाता है और पूछता है कि और थानेदार साहब क्या हाल हैं? वहीं जा करके बैठता है और चाय नास्ता करता है। उद्योगपतियों के दरवाजे में जाने के लिये तो थानेदार बाध्य हैं। राजनेताओं के काम तो वहीं से उनके फोन से हो जायेंगे। अभी पुलिस के एक प्रशासनिक अधिकारी ने वही इण्टरव्यू दिया कि तानाशाही शासक का शासन शायद ज्यादा अच्छा होता, जो आज का राजनीतिक शासन है! चूंकि ऐसी परिस्थिति आकर खड़ी हो चुकी है। इस परिस्थिति को दूर करने के लिये आमजनता को धीरे-धीरे सुधार की भावना पैदा करनी होगी और हमारे राजनेताओं को, प्रशासनिक अधिकारियों को कहीं न कहीं सोचना पड़ेगा कि हम धीरे-धीरे सुधार करें। चूंकि मैं जानता हूँ कि भ्रष्टाचार में एक दिन में लगाम नहीं लगाई जा सकती, मगर सोचो कि हम कितना सुधार कर सकते हैं? और यदि कहीं गलत क्षेत्रों से आपके पास धन आ जाये, तो सोचो कि यह धन अगर हमारे पास न आता, तो क्या हमारा कल्याण न होता?
कभी सोचो कि जीवन में अगर हम दस लोगों की नौकरी पैसे लेकरके दिलाते हैं, तो एक बार बिना पैसा लिये किसी गरीब, बेरोजगार को भी नौकरी दिला दें। आज उसी प्रकार चूंकि कार्य करने के तरीके बदल जाते हैं। आज अमिताभ बच्चन को देखो, अनेकों कलाकारों व अन्य हस्तियों को देखो कि अपनी समस्याओं के निदान के लिये करोड़ों-करोड़ों रुपए अनेकों संस्थाओं को दे रहे हैं, तो कहीं मन्दिरों में चढ़ा रहे हैं। चूंकि मैंने कहा है कि लक्ष्मी का वाहन उल्लू कहा गया है और जिसके पास धन आता है, उसका दिमाग कार्य करना बन्द कर देता है। मैं नहीं कह रहा कि उनके अन्दर धार्मिक भावना नहीं है, उस भावना का सम्मान किया जाना चाहिये कि मीडिया उनके पीछे पड़ा है, फिर भी वे मन्दिरों में जगह-जगह जाते हैं। मगर, लाभ लेने के रास्ते इससे कई गुना सरल होते हैं।
जिन मन्दिरों में पहले से धन का अम्बार भरा पड़ा है, वहाँ करोड़ों रुपए चढ़ा दें, उससे प्रकृतिसत्ता आपसे रुष्ट ही होंगी, प्रसन्न नहीं होंगी। चूंकि जहाँ जरूरत नहीं है, उन तिजोरियों में आप भरने को दे रहे हैं। वही धन लेकरके आप एक गांव में चले जाओ, एक गांव की गरीब जनता का यदि आप सहयोग कर दो, तो देखो उनकी भावना, उनके आशीर्वाद से जो लाभ आपको मिलेगा, वह लाभ मन्दिरों से तो आपको मिलेगा ही नहीं, चाहे जितने मन्दिरों में माथा टेको। चूंकि जहाँ आवश्यकता है, उन गरीबों को यदि सहयोग दे रहे हो या जिन मन्दिरों में जरूरत है, वहाँ दे रहे हो, तो वहाँ से तो कुछ लाभ मिल सकता है, मगर जहाँ प्रकृतिसत्ता देख रही है कि कितने मूर्ख हैं ये लोग, कि जहां करोड़ों-अरबों की सम्पदा भरी है, जहां के पुजारी भी लुटेरों के समान धन इकट्ठा करते जा रहे हैं, तिजोरियों में भरते चले जा रहे हैं, जरा सोचो कि वहां देने से क्या प्रकृतिसत्ता आपको आशीर्वाद देगी? आप करोड़ों रुपये उस मन्दिर में जाकर चढ़ा दो, क्या प्रकृतिसत्ता आपसे प्रसन्न होगी? नहीं हो सकती।
हमें विवेकवान् बनना पड़ेगा। हमको सोचना पड़ेगा कि धार्मिक भावना है, तो धार्मिक भावना का उपयोग किस तरह करें? प्रकृतिसत्ता का स्मरण करें, मन्दिरों में जायें, माथा टेकें, मगर यदि हमारे पास धन का सहयोग करने की सामर्थ्य है, तो सबसे पहले हमको गरीब जनता नजर आनी चाहिये, गरीब लोग नजर आने चाहिये। आज वही विचारधारा कि प्रयाग के कुम्भ में जाकर देखें, एक से एक बिजनेसमैन करोड़ों-करोड़ों रुपये, दस-दस, बीस-बीस लाख रुपये ले करके जाते हैं और किसी साधु-सन्त-संन्यासी को चुपचाप चढ़ाकरके चले आते हैं। गाँजा पीने वालों को, चिलम चढ़ाने वालों को चुपचाप दे करके चले आते हैं और कहते हैं कि हमने दान कर दिया, अब हमको तृप्ति मिल गयी। अरे! जिस तरह उसे आप पानी में फेंक दें, वह धन उसी के समान होजाता है। उन गंजेड़ी, शराबियों को आप लाखों-करोड़ों रुपये दान कर दें, उससे आपको कोई लाभ नहीं मिलेगा, बल्कि उसके दुष्परिणाम आपको मिलेंगे कि धन आया, तो उसका भी आपने दुरुपयोग किया, उपयोग नहीं किया। अतः समाज की जो विषमतायें हैं, उनको जानें और समझें।
अनेकों गाँजा, चिलम चढ़ाने वालों को देखें, कभी भी जब कुम्भ लगता है। अभी पिछली बार यहीं उज्जैन में आपने देखा कि एक से एक गंजेड़ी, शराबी और चिलम लगाने वाले आते हैं और पण्डालों में आग लग जाती है और जब आग लग जाती है, तो अपनी गल्तियों को नहीं देखेंगे, बल्कि प्रशासनिक अधिकारियों को कोई कालिख पोत रहा है, तो कोई कुछ कर रहा है और प्रशासनिक अधिकारी भी इस चीज को कैसे सह लेते हैं समझ में नहीं आता? किस चीज से भय खाते हैं? इससे आपके धर्म की रक्षा नहीं होगी कि कोई गंजेड़ी, शराबी साधु-सन्त-संन्यासी आपको गाली देगा और आप सुन लेंगे तो आपका कल्याण हो जायेगा। आपने सुन लिया, तो यह आपने अपराध किया।
सत्य की सुनो, जहाँ आपकी अन्तरात्मा जरा सोचे कि एक गाँजा पीने वाला, एक चिलम पीने वाला, जो गाँजा चिलम चढ़ा रहा हो, वह आपके बराबर भी नहीं है। उससे ज्यादा आपकी सामर्थ्य है, उससे ज्यादा भक्तिभाव आपके अन्दर है, उससे ज्यादा चेतना आपके अन्दर है। वे तो जा करके इन तीर्थस्थानों को भी अपवित्र करते हैं, वहाँ प्रदूषण फैलाते हैं। मगर पूरा प्रशासनिक अमला उनके पीछे लगा रहता है, उनके स्वागत में लगा रहता है। उनकी तैयारियों में आम भक्तों को रोक दिया जाता है। पहले वह गंजेड़ी, शराबी स्नान करेंगे, बाद में आम भक्त स्नान करेंगे, यह कितना बड़ा दुर्भाग्य है!
हमें धर्म की रक्षा करना है। हमें मानवजीवन मिला है। अपने आपमें धीरे-धीरे दृढ़ता लाओ। प्रकृतिसत्ता कण-कण में मौजूद है। केवल पूजा-पाठ करने से ज्यादा आवश्यक है कि विचार करें आप भौतिक जगत् में क्या कर रहे हैं? आपके आचार-विचार-व्यवहार में क्या परिवर्तन है? जितना आप परिवर्तन लायेंगे, उतना आप प्रकृतिसत्ता के नजदीक होते चले जायेंगे, प्रकृतिसत्ता के चरणों में पहुंचते चले जायेंगे। यही हमें धर्म सिखाता है और यही हमारा कर्म है कि हम समाज में परिवर्तन डालें। एक-दूसरे का सम्मान करें, अवगुणों से दूर हटें और उससे कई गुना ज्यादा आत्मकल्याण की ओर बढ़ें। अपने अन्दर एक तड़प पैदा करो, अपने अन्दर एक लगन पैदा करो कि हमारे आत्मकल्याण में ही हमारा विकास छिपा हुआ है।
मेरे लिये कोई भी कार्य असम्भव नहीं है। किस बल पर? केवल माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा की कृपा के बल पर। मेरे द्वारा अनेकों लोगों ने जीवनदान प्राप्त किये, अनेकों लोगों के असम्भव से असम्भव कार्य पूरे किये गये मात्र उस प्रकृतिसत्ता की कृपा के बल पर। आप उतना नहीं कर सकते, तो कुछ तो आगे बढ़ सकते हो। आप किसी क्षेत्र में बढऩा चाहते हो, उन रास्तों पर चलो तो, आपको सफलता मिलेगी। समाज में लोगों ने मुझे भी बहुत छला है, ठगा है, लूटा है, मगर इसके बाद भी मैं अपने आपमें प्रसन्नचित रहता हूँ।
अनेकों लोग राजनीति के क्षेत्र में ‘माँ’ का आशीर्वाद लेकर बढ़े और फिर भटकाव के मार्ग में चले जाते हैं। वही मैंने कहा कि प्रारम्भ तो हम अच्छा करते हैं, मगर हमें जब सामर्थ्य मिलती है, तो हम भटक जाते हैं। प्रारम्भ में भले हमसे न्यूनता हो जाये, मगर जब कोई सामर्थ्य प्राप्त हो, उस समय हमें सचेत हो जाना चाहिये। जिस तरह मैंने बार-बार कहा है कि मैं सबसे ज्यादा अपने आपसे सचेत रहता हूँ। जिस तरह समाज के लिये कार्य करता रहता हूँ, उसी तरह हर पल सदैव सचेत रहता हूँ कि माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा से जो मेरे सम्बन्ध जुड़े हैं, उनमें कोई कमी तो नहीं आ रही है, मेरी चेतनातरंगों में कहीं कोई कमी तो नहीं आ रही है। इसलिये उस साधनापथ को आज भी मैंने तय कर रखा है। अन्यथा जिस तरह आज यह समाज भटक रहा है, जिस तरह आज साधु-सन्त-संन्यासी भटक रहे हैं, ढोंग-पाखण्ड फैलाकर जिस तरह समाज में एक प्रवाह फैलाने का प्रयास कर रहे हैं, इससे समाज का हित नहीं होगा।
साधु-सन्त-संन्यासी भी अपने संगठन बनाये हुये हैं। आखिर उनको किस संगठन की जरूरत है, जिन्हें मुक्त होना चाहिये, चैतन्य होना चाहिये? समाज के लिये संगठन बनायें, जनकल्याणकारी कार्यों के लिये संगठन बनायें, तो यह एक अच्छी बात है, मगर आज एक प्रवाह चल पड़ा है कि साधु, सन्त, संन्यासी एक-दूसरे का माल्यार्पण करने में लगे रहते हैं, एक दूसरे की चाटुकारिता में लगे रहते हैं। कोई अपने यहाँ अगर किसी चीज का उद्घाटन करेगा, तो दस-बीस साधु-सन्त-संन्यासियों को बुला लेगा और वे एक-दूसरे का माल्यार्पण कर रहे हैं। दस साधु-सन्त-संन्यासियों को बैठा देने से हमारी कोई सामर्थ्य नहीं बढ़ जायेगी, बल्कि यह महत्त्वपूर्ण है कि हमारे साथ कितनी गरीब जनता है, हमारे साथ कितनी आम जनता जुड़ी हुई है? कितने अधर्म के मार्ग पर चले होंगे, किसी का भी अस्तित्त्व शेष न बचा होगा। सभी का पतन हुआ होगा, उनके भौतिकतावाद का पतन हुआ होगा। कोई एक व्यक्ति समाज के बीच से लाकर खड़ा कर दो, उसकी दो-चार पीढ़ी के अन्दर ही अन्दर कहीं न कहीं उसकी धन सम्पदा का पतन हुआ होगा, उसकी सामर्थ्य का पतन हुआ होगा, उसके परिवार का पतन हुआ होगा और जहाँ सत्य रहा होगा, वहाँ आज अगर खण्डहर भी हैं, तो भी वहां शान्ति होगी। आज अनेकों मन्दिरों में जायें, जहाँ खण्डहर हैं, बहुत पुराने स्थान हैं, यदि वहाँ चले जाते हो और दो मिनट बैठोगे, तो आपको शान्ति मिलेगी, सन्तोष प्राप्त होगा। अन्तर सिर्फ इतना होता है, अतः सचेत हो जाओ। हमारे पास सामर्थ्य आ रही है अच्छी बात है, मगर सामर्थ्य का हमें जीवन में उतना ही संचय करना चाहिये जितना हमारे लिये आवश्यक है। शेष हमें जनकल्याणकारी कार्यों में लगाने का प्रयास करना चाहिये, जनचेतना फैलाने में प्रयास करना चाहिये।
भगवती मानव कल्याण संगठन वही मार्ग बताता है। आपको ‘माँ’ की आराधना का भी मार्ग बताता है, ‘माँ’ का ज्ञान भी देता है। मैं कह रहा हूँ कि अपने घरों में कुछ न करो, केवल एक श्री दुर्गाचालीसा का पाठ नित्य कर लिया करो। उस श्री दुर्गाचालीसा का पाठ मेरे आश्रम में आप लोगों के कल्याण के लिये सतत अखण्ड चलता रहता है, जो केवल जनकल्याण का संकल्प लेकर जनकल्याण के लिये चलाया गया है। उस स्थान में अभी ज्यादा कुछ निर्माण नहीं हुआ, मगर जो चेतनातरंगें उस स्थान पर मैंने डाली हैं, यदि वहाँ पर जाकर आप कभी बैठेंगे, तो देखेंगे कि जो बड़े-बड़े भौतिकतावाद के मन्दिरों में शान्ति नहीं मिलेगी, वह शान्ति आपको मेरे आश्रम में मिलेगी। आपको थोड़ा सोचने और समझने की जरूरत है।
सत्य के कार्य करने के तरीके अलग होते हैं। मैं हर पल आपसे जुड़ा रहता हूँ। आपकी जो समस्या है, उसी के निदान के लिये मेरे अन्दर हर पल एक व्यथा रहती है। मैं जानता हूँ कि जो समाज में विषमतायें हैं, वह एक मिनट में दूर नहीं होंगी। उनको दूर करने के लिये अपनी पूरी सामर्थ्य को लगाना होगा और समाज का साथ लेना पड़ेगा। चूंकि जब तक आप स्वयं में परिवर्तन नहीं डालना चाहेंगे, मैं चाहे जितना कहता रहूँ आपके जीवन में परिवर्तन नहीं आ सकता। जब आपके अन्दर एक भूख पैदा होगी, एक तड़प पैदा होगी, तो चाहे यह शरीर हो, चाहे समाज का अन्य कोई साधु-सन्त-संन्यासी या योगी हो जिनके पास सामर्थ्य है, आपके सहायक बनते चले जायेंगे।
वैसे तो आज धर्म के नाम पर बड़े-बड़े योगाचार्य केवल समाज को लूट रहे हैं। गरीब जनता को लूटने में भी कोई परहेज नहीं करते और क्षेत्र का बुद्धिजीवी समाज भी उनका उसी तरह सहयोग करता है। बड़े-बड़े योगाचार्य, जिनको यदि किसी प्रकार का ज्ञान है, तो केवल जनकल्याण में उस ज्ञान को लुटाना चाहिये मगह वह समाज का शोषण कर रहे हैं। उनसे भी एक कर वसूल कर रहे हैं। अपने उसी मंच से इतनी ढ़ीठता से कहते हैं कि अगर अंग्रेजों के पास यह ज्ञान होता, तो टैक्स वसूल कर रहे होते, रायल्टी वसूल कर रहे होते और तुम क्या कर रहे हो? यह बताओगे? तुम भी तो शिविर शुल्क लगाकर यही कर रहे हो। जो दस हज़ार दे दे, आगे बैठ जाये और जो पांच सौ दे, वह पीछे बैठे।
मेरे लिये सभी लोग एक समान रहते हैं। आपको सचेत होना चाहिये कि जिस तरह विदेशी कम्पनियां व्यवसाय के नाम पर हमारे यहाँ आयीं और हमारे देश पर शासन किया, उसी तरह धूर्तता के मार्ग पर वे योगाचार्य योग को माध्यम बना करके अपनी सामर्थ्य को समाज में फैलाने का प्रयास कर रहे हैं। उनसे थोड़ा सचेत हों। मैं सचेत भी करना चाहता हूँ उन बुद्धिजीवी वर्गों को, उन राजनेताओं को जो ऐसे धूर्त योगाचार्यों को अपनी सामर्थ्य का सहयोग दे रहे हैं। आमजनता को अपने-अपने क्षेत्र में लुटने में सहयोगी हो रहे हैं।
मैं कथित धर्माचार्यों, योगाचार्यों को किसी गर्व या घमण्ड से चुनौती नहीं दे रहा हूँ। यदि किसी के पास साधनात्मक तप-बल की सामर्थ्य है, तो मेरे तपबल का सामना करे। कोई अपने आपको ब्रह्मर्षि कह रहा है, कोई योगऋषि कह रहा है। कोई कह रहा है कि मैं आप सबकी गरीबी दूर कर दूँगा, कोई कह रहा है कि मैं तुम्हें स्पर्श करके तुम्हारी कुण्डलिनी चेतना जाग्रत् कर दूँगा। आपसे दस-दस हज़ार, पांच-पांच हज़ार मिलने का शुल्क लेते हैं कि आपकी सभी समस्यायें दूर हो जायेंगी। आप बीजमन्त्र ले लो, आप बीजमन्त्र ले लोगे, तो आपका एक मिनट में कल्याण हो जायेगा, आपका पांच मिनट में कल्याण हो जायेगा। अपने कार्यक्रमों में केवल फिल्मी कलाकारों को बैठा लेने से, उनसे वाहवाही कहला देने से, चन्द लोगों को खड़ा करके यह कहला देने से कि हमको यह लाभ प्राप्त हुआ है, इससे समाज का कल्याण नहीं होगा। इसीलिए उन सभी धर्माचार्यों को, उन सभी साधु-सन्त-संन्यासियों को मैं आगाह करना चाहता हूँ कि अपने आपको सुधारो, अन्यथा एक न एक दिन यह समाज आपको सुधार अवश्य देगा।
मैं उन सभी साधु-सन्त-संन्यासियों का स्वागत करता हूँ कि यदि तुम साधुवाद का जीवन जी रहे हो, संन्यासी हो, तो जितनी पात्रता है उसके आधार पर कर्म करो, मैं आपका स्वागत करता हूँ। मगर उससे बढ़ करके कहोगे, तो एक न एक दिन ठोकर अवश्य लगेगी। प्रकृति के घर में न देर है न अन्धेर है। समय का सिर्फ चक्र जिस तरह चल रहा है, उस तरह विनाश के पथ पर जाओगे। इसी तरह के लोग कुत्ते और सुअर की योनि में जा करके जन्म लेते हैं, जो भूखों को भी लूट लेना चाहते हैं।
मैंने इसीलिये अपने जीवन में उस पथ को तय किया है। मैं चाहता तो समाज के दिये हुये दान-दक्षिणा में अपना जीवनयापन कर सकता था, अपनी सुख-सुविधाओं की चीजों को इकट्ठा कर सकता हूँ। किन्तु, मैं अपने भोजन के लिये, कपड़े पहनने के लिये, अपने जीवकोपार्जन के लिये, अपनी सुख-सुविधाओं के लिये कर्मबल से उपार्जित धन का उपयोग करता हूँ, किसी के दिये हुये दान और दक्षिणा का उपयोग नहीं करता। इसी तरह सभी साधु-सन्त और संन्यासियों को करना चाहिये कि हम अपने शिविर का कोई शुल्क न लगायें। स्वेच्छा से अगर समाज जनकल्याणकारी कार्यों के लिये सहयोग देता है, तो उसे जनकल्याण में ही लगायें, अपने सुख-वैभव में न लगायें। यही हमारा धर्म और कर्म होना चाहिये।
आज लोगों को किस तरह भ्रमित किया जा रहा है कि आप एक रुद्राक्ष खरीद लें, दो-दो, ढ़ाई-ढ़ाई हज़ार के एक रुद्राक्ष खरीद लें और आपको सब सुख-सुविधायें मिल जायेंगी, आपके देवी-देवता प्रसन्न हो जायेंगे, आपके बच्चों की नौकरी लग जायेगी और आपकी सब परेशानी दूर हो जायेगी। वे बेचारे पहले से ही परेशानियों से ग्रसित हैं, फिर भी सोचते हैं कि चलो दो-ढ़ाई हज़ार का रुद्राक्ष ही खरीद लें, जिससे हमारे बच्चे की नौकरी लग जाये, लेकिन उन्हें कुछ लाभ नहीं मिलता। इन लुटेरों से सावधान रहो। सत्य को पहचानने का प्रयास करो। अरे! आत्मा में प्रकृतिसत्ता ने सब कुछ तुम्हें दे रखा है। आत्मा की शरण में आ जाओ। सबसे ज्यादा शक्तिशाली आत्मा है, उसके आवरण को हटा दो, तो जो आपको रुद्राक्ष पहनने से लाभ नहीं मिलेगा, जो आपको रत्न-अंगूठियाँ धारण करने से लाभ नहीं मिलेगा, आप कुछ क्षण ही अपनी आत्मसाधना करोगे, उससे वह लाभ मिलने लगेगा। सबसे बड़ा नगीना तो ‘माँ’ ने आपके अन्दर बैठा रखा है। सबसे बड़ी चेतना तो ‘माँ’ ने आपको दे रखी है।
अनेकों साधु-सन्त-संन्यासियों, कथावाचकों को देखो, कोई अपने आपको ब्रह्मर्षि कह रहा है, कोई अपने आपको योगी कह रहा है, तो कोई अपने आपको परमहंस कह रहा है। मगर वे भी भयभीत हैं, वे भी रत्न धारण किये रहते हैं। अनेकों लोगों को देखो, उन कथावाचकों, उन योगाचार्यों ने अपने हाथों में रत्न धारण किये होंगे। जब उन्हें अपने अन्दर के रत्न का ज्ञान नहीं, तो समाज को किस रत्न का ज्ञान करायेंगे। अलौकिक चेतना, अलौकिक रत्न आपके अन्दर है। समस्त ग्रह आपके अनुकूल चलने लगेंगे, आप अपनी चेतना को प्रभावक तो बनाओ। जितना अपनी चेतना को प्रभावक बनाओगे, उतना आपके सभी ग्रह अनुकूल होते चले जायेंगे और चेतना को प्रभावक नहीं बनाओगे, तो दुनिया भर के रत्न धारण कर लो, मगर आपका कल्याण नहीं होगा, नहीं होगा, नहीं होगा।
आज अनेकों लोग दस-दस, पन्द्रह-पन्द्रह अंगूठियाँ पहने रहते हैं। इन चीजों से थोड़ा सचेत हो जाओ। अगर लाभ चाहते हो, तो लाभ के पथ पर चलो। कल्याण चाहते हो, तो कल्याण के पथ पर चलो। ज्ञान चाहते हो, तो सत्य का ज्ञान अर्जित करो। अपने आचार-विचार और व्यवहार में परिवर्तन लाओ। अन्यथा सिखाने वाले उसी तरह के कथावाचक हैं, जिनका जन्म ही धन अर्जन से होता है और अन्त तक धन अर्जन की उनकी कामनाओं की कभी पूर्ति नहीं होती। कहने को तो अनेकों योगाचार्य कह देंगे कि मैं केवल दो वस्त्र पहनता हूँ, मैंने जेब भी नहीं बनवा रखी, जबकि दुनिया भर की भौतिकता की चीजें इकट्ठी करते चले जायेंगे, दुनिया भर के सुख भोग भोगेंगे, उद्योगपतियों के घर में जा करके बैठेंगे, राजनेताओं के घर में जा करके पार्टियां अटेण्ड करेंगे, दुनिया भर की सभी सुख-सुविधायें उपयोग करेंगे और कह देंगे कि मैं केवल दो वस्त्र पहनता हूँ। वस्त्र आप चार पहन लो, दस पहन लो, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। मेरे लिये जितना आवश्यक है, मैं पहनता हूँ। ठण्ड हो, गर्मी हो या बरसात हो, मैं भी हमेशा इन्हीं वस्त्रों में रहता हूँ। मगर वे योगाचार्य कि जब ठण्ड आयेगी, तो बड़ा मोटा वस्त्र ओढ़ लेंगे!
पण्डितों का आज अनादर क्यों होता है? चूंकि वे सत्य से दूर होते चले गये। पहले के जो पण्डित थे, वे साधक थे, तपस्वी थे, तब समाज को ज्ञान दिया करते थे, मगर आज केवल धन कमाना काम रह गया है। मैंने भी ब्राह्मण परिवार में जन्म लिया है, मगर प्रारम्भ से लेकर आज तक मैंने कभी जाति, धर्म, सम्प्रदाय और छुआछूत को नहीं माना। मगर आज उन्हीं परम्पराओं की रक्षा मात्र की जा रही है। पथ की रक्षा करने में कहीं लक्ष्य से विमुख हो गये। ज्ञानियों को तो किसी से छुआछूत करना ही नहीं चाहिये। मैंने भी उसी ब्राह्मण परिवार में जन्म लिया, मगर बचपन से आज तक की यात्रा में कोई भी नहीं कह सकता कि मैंने कभी भी छुआछूत या जातीयता को महत्त्व दिया हो। मेरा ब्राह्मणत्व तो कभी नष्ट नहीं हुआ, बल्कि वह जाग्रत् होता गया और बढ़ता चला गया।
यदि गंगा नदी यह कह दे कि कोई व्यक्ति छुआछूत वाला थोड़ी गन्दगी लपेट करके आ जायेगा, स्नान कर लेगा, तो मैं अपवित्र हो जाऊँगी, तो क्या गंगा कभी अपवित्र होगी? अतः उनका जो धर्म और कर्म होना चाहिये, उस धर्म और कर्म से विमुख हो गये, केवल धन कमाना एक परम्परा रह गयी। उसी तरह आने वाले समय में उन योगाचार्यों का भी अनादर होगा। जगह-जगह अनेकों योगाचार्य देश भर में योग शिविर लगाते हैं और शुल्क वसूलते हैं। आयुर्वेद की बड़ी-बड़ी दुकानें लगाकर पर्याप्त मात्रा में आयुर्वेद की चीजें बेचते हैं और लोगों से कहते हैं कि हम योग से मुक्ति दे देंगे। मैंने कहा है कि निश्चित है कि योग से आप अपने शरीर में सक्रियता लायेंगे, तो आपकी जड़ता दूर होगी। किन्तु, ऐसे लोगों के विरुद्ध खुले शब्दों में कहने में मुझे कोई आपत्ति नहीं है। अनेकों फोन मेरे यहाँ आते हैं कि यदि आपको कोई आपत्ति है, तो एकान्त में आ करके आपस में बैठकर चर्चा कर लें। लेकिन मैंने कहा है कि मैं समाज का हूँ और अगर मैं चर्चा करूँगा, तो समाज के बीच करूँगा। यदि कमियां हैं, तो सुधार लो और यदि मैं गलत हूँ, तो मुझे बता तो।
मैंने कहा है कि यदि मेरे अस्तित्त्व को कोई झुका देगा, जो मुझे माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा ने दिया है, तो मैं सिर झुकाकर जीवनपर्यन्त उसकी गुलामी करूँगा, सिर काटकर उसके चरणों में चढ़ा दूँगा। मैंने उस रास्ते को तय किया है। चूंकि जिस बिन्दु पर मैं खड़ा हूँ, तो मेरा धर्म और कर्तव्य कहता है कि मैं समाज को चिन्तन दूँ और जो धर्माचार्य आज भटक रहे हैं, मैं उन्हें भी चिन्तन देने की पात्रता रखता हूँ। प्रकृतिसत्ता ने कहीं न कहीं मुझे उस बिन्दु पर खड़ा कर रखा है और उन्हें भी दिशा देने की मैं पात्रता रखता हूँ। इसलिये मेरा यह धर्म और कर्म कहता है कि उन्हें भी बराबर सचेत करता चला जाऊँ कि तुम जिस मार्ग पर चल रहे हो, उसमें समाज का सिर्फ पतन ही पतन है और उसमें तुम्हारा भी पतन होगा।
समाज को लूटना, धार्मिक भावना के लोगों को लूटना बन्द कर दो। धन उतना कमाओ, जितना आवश्यक है। जो कहो, वह जीवन में करो। अन्यथा मैंने कहा है कि आज इन वस्त्रों को पहन करके कई बार मुझे खुद उन चीजों की बड़ी ग्लानि सी होती है कि आज इन्हीं वस्त्रों को माध्यम बनाकर लोग समाज को लूट रहे हैं। वस्त्र महत्त्वपूर्ण नहीं होते, वस्त्र के अन्दर शरीर महत्त्वपूर्ण नहीं होता, शरीर के अन्दर बैठी हुई चेतना महत्त्वपूर्ण होती है। मगर आज समाज वस्त्रों को ही सब कुछ मान लेता है कि दाढ़ी-बाल रखाकर कोई आ गया, गेरुए कपड़े पहन करके आ गया, तो सब उसको नमन करने लगते हैं। चाहे राजनेता हों, चाहे बुद्धिजीवी वर्ग के लोग हों, नतमस्तक होते हैं और कहते हैं कि हम तो साधु-सन्त-संन्यासियों को नतमस्तक होते हैं। थोड़ा विवेकवान् बनो, चेतनावान् बनो। कहाँ हमें नतमस्तक होना चाहिये और कहाँ हमें नतमस्तक नहीं होना चाहिये? इस पर थोड़ा विचार किया करो।
यदि वस्त्र ही महान हैं, तो फिर आपको इतना भी करने की जरूरत नहीं है, यहाँ भी आकर बैठने की जरूरत नहीं है, किसी साधु-सन्त-संन्यासी के चरणों में जाने की भी जरूरत नहीं है। ज्यादा से ज्यादा चार या पांच सौ रुपये के भगवे वस्त्र मिल जायेंगे, उनको अपने घर के किसी सदस्य की नाप के सिलवा लो और उसको कपड़े पहना करके एक बार बैठा दिया करो और उसको नतमस्तक हो लिया करो। क्या उसका आशीर्वाद आपके लिये फलीभूत होगा? अतः थोड़ा सचेत हो जाओ और अपने शीश को कहीं झुकाने के पहले एक बार विचार कर लिया करो।
हर कर्म करने से पहले थोड़ा सा विचार करो कि हमें अपने शीश को कहाँ झुकाना चाहिये और कहाँ नहीं झुकाना चाहिये? हम अपना जो भी सहयोग या दक्षिणा समर्पण कर रहे हैं, उसे कहाँ समर्पण करना चाहिये और कहाँ नहीं करना चाहिये? आपके धन से कोई गाँजा पी रहा है, चिलम पी रहा है, ऐय्याशी कर रहा है, तो उसके परिणाम के भागीदार आप लोग भी बनेंगे। अतः थोड़ा सचेत होने की जरूरत है। अन्यथा समाज में अनेकों लोग हैं जो कहेंगे कुछ, करेंगे कुछ और उनका जीवन कुछ और होगा। समाज को चिन्तन तो सभी बहुत अच्छे-अच्छे दे देंगे, मगर अपने जीवन में उन चीजों को नहीं ढ़ालेंगे। मैं नहीं कह रहा कि समाज में पात्र साधु-सन्त-संन्यासियों की कमी है, मगर आज जो उभरे हुये हैं और अपने आपको सिरमौर कहला रहे हैं, जो योगऋषि, ब्रह्मर्षि कहला रहे हैं, परमहंस कहला रहे हैं, धर्मसम्राट् कहला रहे हैं, जगद्गुरु कहला रहे हैं, वे सिर्फ रट्टू तोते हैं। उनकी आत्मचेतना जड़ पड़ चुकी है। चूंकि उन्होंने आत्मचेतना को जगाने का प्रयास ही नहीं किया। वे उद्योगपतियों की भाषा बोलते हैं। उनकी प्रारम्भ से अन्त तक की स्थिति को देखो कि वे प्रारम्भ में क्या बोलते थे और आज जब सामर्थ्य आ गयी, तो क्या भाषा बोलते हैं? आज वही बड़े-बड़े योगाचार्य उद्योगपतियों की भाषा बोलते हैं। योग को व्यवसाय बनाकर रख दिया है। उनसे थोड़ा आपको सचेत होने की जरूरत है।
मेरे द्वारा भी योग सिखाया जाता है, मेरे आश्रम में भी योग सिखाया जाता है। आश्रम में कोई भी आता है, तो रहने-भोजन की निःशुल्क व्यवस्था दी जाती है। कोई भी आकर योग सीख सकता है। यही हमारे सभी ऋषियों-मुनियों की परम्परा रही है। आज पतंजलि के नाम पर लूट मचा रखी गयी है। आज पतंजलि भी अपने आप में शर्मिन्दा होंगे कि जो ज्ञान मैंने समाज को दिया था, उसको मेरे बाद लुटेरे इस तरह से लूट रहे हैं। जो जनकल्याण की भावना से रास्ते समाज को दिये गये थे, आज उन्हीं मार्गों का लाभ उठाकर अनेकों योगाचार्य, अनेकों धर्माचार्य अपनी सामर्थ्य को बढ़ाते चले जा रहे हैं। उनसे आपको थोड़ा सचेत होने की जरूरत है। उनसे थोड़ा आपको सम्भलने की जरूरत है, उनसे ज्यादा पात्रता आपके अन्दर है, उनसे ज्यादा सामर्थ्य आपके अन्दर है, उनसे अधिक ज्ञान आपके अन्दर है। इसीलिए मैंने कहा है कि अगर कुछ असत्य है, तो उसके खिलाफ आवाज उठाना सीखो। चूंकि मैं समाज को केवल शान्ति का पाठ सिखाने नहीं आता हूँ, बल्कि शक्ति का पाठ भी सिखाने आता हूँ।
निश्चित है कि गाँधी जी ने एक समय जो विचारधारा डाली थी कि कोई यदि तुम्हारे एक गाल में तमाचा मार दे, तो दूसरा गाल भी उसकी तरफ कर दो। मगर वह समय अलग था, आज का समय अलग है। यदि आज आपके गाल पर कोई एक तमाचा मारेगा और आप दूसरा गाल भी उसकी ओर कर दोगे, तो वह और उससे ज्यादा जोर से तमाचा मारेगा। आज एक गाली दे रहा है और आप सुन लोगे, तो कल को दो गालियां देगा। इसीलिये मेरे द्वारा कहा जाता है कि अगर कोई एक बार अपराध करे, तो उसे सचेत कर दो कि इस बार तो तुमने गाली दे दी, मगर दुबारा गाली मत देना और दुबारा गाली दे, तो उसका मुँह तोड़ दो। यही हमें शक्ति सिखाती है, यही हमारी सामर्थ्य सिखाती है कि हम अपनी शक्ति का दुरुपयोग न करें, मगर अनीति-अन्याय-अधर्म को सहें भी नहीं। यदि हम अनीति-अन्याय-अधर्म को सहेंगे, तो कभी भी प्रकृतिसत्ता की कृपा के पात्र नहीं बन पायेंगे।
प्रकृतिसत्ता हमें यही सिखाती है। वह प्रकृतिसत्ता जब आपको माफ नहीं करती कि आपके अवगुणों से कहीं आपका पैर टूटता है, कहीं आपका एक्सीडेण्ट होता है, कहीं असमय मृत्यु होती है, तो यह दण्ड कौन देता है? वही प्रकृतिसत्ता तो देती है, आपकी आत्मा ही तो देती है। फिर भी आप नहीं समझ पाते कि आत्मा कितनी न्यायप्रिय है और उसी आत्मा के अंश तुम न्याय करना ही नहीं चाहते। अपने लाभ के लिये दूसरों को उदाहरण तो बड़े अच्छे दे देते हो। तुम्हारी बहन-बेटियों को कोई छेडऩे लगे, तो तुम चीखोगे, चिल्लाओगे और कोई दूसरे की बहन-बेटियों को छेड़ रहा हो, तो तुम आँख मूंदकर उधर से चले जाते हो। कोई अपराध हो रहा हो, तो उस अपराध से मुँह मोड़कर चले जाते हो। मानव हो, अपने आपको विवेकवान् बनाओ, चेतनावान् बनाओ, चूंकि आपका सबसे बड़ा धर्म यही है कि तुम अपने जीवन में परिवर्तन ले आओ।
प्रकृतिसत्ता तो कण-कण में मौजूद है। प्रकृतिसत्ता तुम्हें सहारा देने लगेगी। प्रकृतिसत्ता तुम्हारा सहयोग करेगी। प्रकृतिसत्ता बाध्य है चूंकि प्रकृतिसत्ता तो आपके अन्दर बैठी है, केवल उसके पटल खोलने की जरूरत है और पट खुलेंगे कैसे, जब तक आप कर्म में परिवर्तन नहीं लाओगे। चूंकि जो मैं कह रहा था कि संयोग, संस्कार और कर्म। कर्म से ही संस्कारों की उत्पत्ति होती है। हम जैसे कर्म करेंगे, वैसे हमारे संस्कार बनेंगे और वैसा ही हमको फल प्राप्त होगा। इसीलिये मैंने कहा है कि अपराधों को खुली आँखों से देखो, खुले कानों से सुनो और उसके खिलाफ मुँह खोल करके आवाज उठाओ। गाँधी जी के बन्दरों के समान नहीं कि अपराध में हमने आँख बन्द कर ली, हमने कुछ नहीं देखा, चाहे जो कुछ होता रहे। हमने कान बन्द कर लिये, हमको नहीं सुनना, मुँह बन्द कर लिया, हमको कुछ नहीं बोलना। यह सिर्फ बन्दरों के लिये उदाहरण है कि अगर तुम अपने आपको बन्दर मानते हो, तो उसी प्रवृत्ति में अपना जीवन जिओ और अगर अपने आपको इन्सान मानते हो, प्रकृतिसत्ता का अंश मानते हो, तो अपने आपको पहचानो, न्यायप्रिय बनो, चेतनावान् बनो, सामर्थ्यवान् बनो, न गलत करो और न गलत सहो, अन्यथा अनीति-अन्याय-अधर्म इसी तरह फैलता चला जायेगा।
मेरा अपने संगठन के शिष्यों को निर्देश रहता है कि कभी भूलकर भी किसी दंगे में मत सम्मिलित होना, शहर के किसी दंगों में अपने आपको सहयोगी मत बनने देना। इससे समाज को लाभ नहीं होता। कोई एक अपराध होजाता है, पूरा नगर का नगर बन्द कर दिया जाता है, व्यवसायियों का व्यवसाय बन्द करा दिया जाता है, किसी को अस्पताल जाना होता है, तो वाहनों का चलना बन्द करा दिया जाता है, रोड जाम कर दिये जाते हैं। इससे तो और एक अपराध पनप रहा है, अपराधिक प्रवृत्ति पनपती चली जा रही है। अरे! एक गल्ती हुयी, तो उस गल्ती को सुधारो। एक अपराधी ने आपके किसी व्यक्ति की हत्या कर दी, तो कानून के दायरे में लाकर सिर्फ उसे दण्ड दिलाओ। राजीव गाँधी की हत्या होने के बाद देश में कितनी अशान्ति फैली, पूरे देश में कितनी बहन-बेटियों को जलाया गया, कितने घरों को जलाकर राख कर दिया गया? मन्दिर-मस्जिद के विवाद होते हैं, तो कितने हिन्दुओं और मुसलमानों की हत्यायें होती हैं? इन दंगों को कैसे रोका जायेगा? क्या इसी प्रकार कि जैसा चल रहा है, वैसा ही चलने दें? केवल हम अपना एक संगठन बना लें और हमारे संगठन के विरुद्ध कोई बोले, तो बस हम गाली गलौज और तोड़-फोड़ में उतर आयें। अपराध एक व्यक्ति ने किया हो और हम सब दुकानों को तोड़ते चले जायें, वाहनों में आग लगाते चले जायें! इससे सचेत होना पड़ेगा।
विरोध जताने के लिये शान्ति और शक्ति के रास्ते होते हैं। जो अपराध करता है, उसको ढूंढ़ो, तलाशो, कानून के शिकंजे में लाओ और यदि कानून दण्ड न दे सके, तो निश्चित तब उठ खड़े हो और अपराधी को बीच चौराहे में घसीटकर दण्ड दो। मगर दण्ड किसी निरपराधी को नहीं मिलना चाहिए। जरा सोचो कि आप अपने बच्चे को थोड़ा सा जला करके देखो और जब वह चीखे-चिल्लाये, तब आपको कितनी दया, तड़प और वेदना होगी? कभी अपने आपको जला करके देखो। जब आप दंगे फैलाते हो, तो किसी की दुकान तोड़ दी जाती है, किसी के घर में आग लगा दी जाती है, तो जब वे बच्चे जलते होंगे, तड़पते होंगे, तो एक बार तो सोचो कि हम कर क्या रहे है? क्या इसी तरह समाज को बढऩे दें? क्या इस समाज को हम कभी रोकने का प्रयास नहीं करेंगे? एक बार अपने आपको जला करके देखो, एक बार अपनी बहन-बेटियों को जला करके देखो, अपनी पत्नी को आग लगा करके देखो। देखो, यदि तुम उससे प्रेम करते होगे, तो कैसी तड़प पैदा होगी? आपके एक बच्चे को कांटा लग जाता है, तब आपको कितनी तकलीफ होती है?
आज समाज में ये दंगे और फसाद, इनको रोकने के लिये केवल एक रास्ता है कि जनचेतना फैलाओ। अनीति-अन्याय-अधर्म के खिलाफ उठ खड़े हो, आवाज उठाओ और उसका विरोध करो। मगर एक भी निर्दाेष व्यक्ति को दण्ड नहीं मिलना चाहिये। एक भी दुकान की तोड़-फोड़ और एक भी रुपये का नुकसान करते हैं, एक भी वाहन में यदि पत्थर मारते हैं, तो आप सबसे बड़े अपराधी बन जाते हैं और एक न एक दिन उस अपराध का दण्ड आपको मिलेगा जरूर। कुछ आपने कल कमाया है और आज संघर्ष उठा रहे हो। आज किसी के सामने कुछ समस्या है, तो किसी के सामने कुछ समस्या है। कम से कम भविष्य की समस्याओं से तो बचो, भविष्य के लिये तो संस्कारवान् बनो, भविष्य के लिये तो भाग्यशाली बनो और ऐसा तभी बनोगे जब वर्तमान का जीवन संवारोगे। रैलियां निकालना कोई बुरी बात नहीं है। जनजागरण करना कोई बुरी बात नहीं है। कोई प्रशासनिक अधिकारी कुछ गलत करता है, तो उस प्रशासनिक अधिकारी के दरवाजे में जा करके, चौखट में जा करके रैली निकालो, उसके खिलाफ आवाज उठाओ, उसका घेराव कर लो। मगर ऐसा मत करो कि पूरे नगर के नगर को बन्द कराओ, नगर में तोडफ़ोड़ करो, आगजनी करो। दो-दो, तीन-तीन दिन तक आवागमन के साधन बन्द होजाते हैं। उनसे अपने आपको रोको।
मेरे संगठन के सदस्यों को बार-बार निर्देशन रहता है। मेरी आने वाली यात्रा में एक मार्ग का उपयोग करो। मुझे वेदना होती है, जब कुछ नये शिष्य रहते हैं जो पूरे रास्ते को जाम करके चलते हैं। मैं यह नहीं सिखाता और न ही मुझे इसकी कोई आवश्यकता रहती है। मैं अपनी गाड़ी को थोड़ा सा रोक करके चल लूँगा। निश्चित है कि आपकी भावना होती है, आपमें से कुछ आगे चलना चाहते हैं, कुछ पीछे चलना चाहते हैं। व्यवस्थाओं के आधार पर कुछ आवश्यक भी होता है कि मैं एक निर्धारित समय से चलता हूँ और एक निर्धारित समय में यहाँ आना जरूरी है। मगर वह एक मार्ग से भी हो सकता है। कभी भी कोई बड़ी रैली निकालो, बड़ा आयोजन करो, तब भी एक मार्ग को बराबर खुला रखो। पता नहीं किसको कितनी नितान्त आवश्यकता हो, किसी को अस्पताल जाने की जरूरत है, किसी को अपने घर जाने की जरूरत है, किसी को ट्रेन पकडऩा है, किसी को बस पकडऩा है। अगर आपकी क्रियाओं से किसी को विलम्ब होता है, तो आप अपराधी हो, यह सदैव मान करके चलना।
अतः अपने संगठन के कार्यकर्ताओं, शिष्यों को मेरा यह बराबर निर्देशन रहता है। यही जनचेतना आपको डोर टु डोर फैलाना है। जगह-जगह यही जनचेतना फैलानी है। यही तो तुम्हारा धर्म और कर्म है। अपने जीवन में परिवर्तन लाओ। यदि जीवन में परिवर्तन लाये, तो सब कुछ हासिल कर लोगे और यही पांच साल के लिए मेरा निर्देशन है। जनचेतना देश के कोने-कोने में फैल रही है। पांच साल अपने यहाँ के जनप्रतिनिधि लोगों का सहयोग लो, प्रचार मीडिया का सहयोग लो। हर एक आपके सहयोगी बनेंगे, यदि कहीं न कहीं उनके अन्दर जरा सी मानवता शेष है। सब कहीं न कहीं सहयोगी होते हैं, उनसे मिलने की जरूरत है, अपनी विचारधारा बताने की जरूरत है, उनका सहयोग लेने की जरूरत है। चूंकि जिसके पास जो सामर्थ्य है, मैं दोनों हाथ आगे फैला करके जनकल्याण के लिये उनका स्वागत करता हूँ, सबका सम्मान करता हूँ, सभी जनप्रतिनिधियों का सम्मान करता हूँ कि आओ आगे बढ़ो। तुम आगे आ जाओ, मैं तुम्हारा सहयोग करने के लिये तैयार बैठा हूँ। अपने क्षेत्र के जनकल्याणकारी कार्यों में आगे बढ़ो, मेरा संगठन आपका सहयोग करेगा। मेरा आशीर्वाद हर पल आपके साथ जुड़ा रहता है।
शक्तिजल का निर्माण करके मैं समाज में उसे निःशुल्क बंटवाता हूँ, जिसमें मेरा आशीर्वाद हर पल जुड़ा रहता है कि आपको बीमारियों में भी लाभ मिलेगा, परेशानियों में भी समाधान मिलेगा, आत्मचेतना जगाने में भी सहयोग मिलेगा। जिस प्रकार मैंने कहा है कि रत्नों से आप जो लाभ नहीं प्राप्त कर सकेंगे, वह शक्तिजल के पान करने से आपको लाभ प्राप्त हो जायेगा और वह आपको निःशुल्क दिया जाता है।
लोगों की जिज्ञासा होती है कि गुरुजी के पास यह पैसा कहाँ से आता है? सब ‘माँ’ की कृपा से जो भी आता है, ‘माँ’ की कृपा से समाज में लगता चला जाता है। लोगों के कार्य होते हैं, लोग सहयोग करते हैं। प्रारम्भ से आज तक की यात्रा उसी प्रकार से चलती चली आ रही है। चूंकि मैं दान लेना पसन्द नहीं करता, मगर कर्ज़ ले लेना पसन्द करता हूँ। दान से ज्यादा मैं कर्ज़ को महत्त्व देता हूँ। चूंकि कर्ज़ को मैं एक न एक दिन उतार दूँगा। मगर आज अगर कर्ज़ ले-ले करके भी समाज में एक व्यक्ति के भी जीवन में परिवर्तन डालने में सहायक होजाता हूँ, तो मैं कर्ज़ ले करके भी कार्य कर सकता हूँ। आज अगर जनकल्याण हुआ जा रहा है, तो उसका उपयोग कर लेता हूँ। चूँकि यदि मैं जनकल्याण के लिये कल का इन्तजार करूँगा कि मेरे पास धन-वैभव आ जायेगा, तब मैं जनकल्याणकारी कार्य करूँगा, तो हो सकता है कि धन-वैभव के आते-आते मेरी जनकल्याण करने की पात्रता ही छिन जाये। इसी तरह आप सभी को सचेत होना है कि तुम आज जो हो, जहाँ हो, अपनी सामर्थ्य को लगाना शुरू कर दो।
निश्चित है कि मैं समाज को कहता हूँ कि कर्ज़ से बचना चाहिये। कर्ज़ से बचो, कर्ज़ अशान्ति पैदा करता है। मगर मेरे पास जो साधना है, जो चेतना है, उसको समभाव से लुटाता हूँ। मगर निश्चित है कि भौतिक जगत् के कोई भी कार्य करना है, यह आयोजन भी करना है, तो एक व्यवस्था देना है। उसके लिये कई बार मुझे कर्ज़ का सहारा लेना पड़ता है। मेरी यात्रा उसी तरह चल रही है जो खुली है, किसी तरह से कुछ छिपा नहीं रहता है। मेरा जीवन, मैंने कब और कहाँ जन्म लिया, किस परिवार में जन्म लिया, कहाँ मैंने साधना की? मैं कभी हिमालय और पर्वतों की बात नहीं करता। कहाँ मैंने किस तरह के कार्य किये, यह सब कुछ समाज के बीच है? उनको खुली आँखों से आपको देखना है, समझना है, जानना है, तब कहीं जा करके उस सम्बन्ध को जोडऩा है।
समाज के बीच मेरे द्वारा जो आठ महाशक्तियज्ञ किये गये हैं, उनके माध्यम से सभी प्रकार के वे कार्य किये हैं, जिनको आप असम्भव मानते हैं। उनका शोध करें, देखें, समझें और मीडिया को भी मैंने बार-बार कहा है कि उनको देखो, समझो। सभी क्षेत्र के सामाजिक कार्य मंच से चेलेन्ज दे करके, उन कार्यों को मैंने आश्रम की स्थापना के बाद से रोका है। चूंकि अब अपनी ऊर्जा को मैं केवल जनकल्याणकारी कार्यों में लगाता हूँ, मगर समाज के बीच आठ यज्ञ मैंने प्रमाण के लिये रखे थे और पहले यज्ञ में ही कहा था कि मेरा हर यज्ञ जहाँ पर भी होगा, उसमें बरसात अवश्य होगी और अगर यदि एक यज्ञ में बरसात न हो, तो मान लेना कि मेरे पास ‘माँ’ की कोई पात्रता नहीं है। मैं अपने आप समाज को छोड़कर एकान्त में चला जाऊँगा।
सभी को ज्ञात है कि मेरे आठ यज्ञ समाज के बीच किये गये और सभी यज्ञों में बरसात हुई थी। एक-एक यज्ञ में असम्भव से असम्भव कार्य किये गये। असाध्य से असाध्य रोगियों को मंच में खड़ा करा करके डॉक्टरों को चुनौती दे करके कि अगर डॉक्टर ठीक कर देंगे, तो लाखों रुपये का इनाम दिया जायेगा और उसके बाद भी कि जहाँ डॉक्टरों की रिपोर्टें थी कि उनका इलाज लाइलाज था, जिन्हें घर भेज दिया गया था, उन्हें ‘माँ’ की केवल ग्यारह दिन की आरती में लाभान्वित किया गया। बगैर कोई अंग्रेजी दवा दिये, बगैर कोई आयुर्वेदिक दवा दिये, बगैर स्पर्श किये सभी प्रकार के लाभ दिये गये हैं। उन्हीं लाभों से आज आप लोग भी जुड़े हुये हैं। उसी तरह की आरतियों का फल आज भी आप लोगों को मिल रहा है।
मगर, जिस तरह लोगों ने मुझे लूटा, चूंकि मैंने बड़े खुले मन से समाज के बीच प्रवेश किया था। मुझे एहसास था कि मेरे अन्दर कुछ न कुछ दिव्यता है, कुछ न कुछ अलौकिकता है, मगर माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा जिस तरह मुझे आगे बढ़ाती चली गयीं, उन संघर्षों के बीच धीरे-धीरे ‘माँ’ की ओर मैं बढ़़ता चला गया। युवावस्था में जब मैंने अपने आपको पहचाना, मैंने अपनी पूरी यात्रा बतायी कि बचपन में किस तरह ‘माँ’ मेरा रख-रखाव करती थीं, मेरा मार्गदर्शन करती थीं? किस तरह साधना-अनुष्ठानों का मुझे ज्ञान प्राप्त होता था? किसी धर्मगुरु की मदद के बगैर वही मेरी चेतना सहायक होती चली गयी। किस तरह मैं ‘माँ’ की तरफ बढ़ता चला गया? वह सब कुछ ज्ञान मैंने समाज को कराया है कि किस तरह मैं उन संघर्षों के बीच आगे बढ़ करके आया हूँ? किस तरह मैंने उस चेतना को प्राप्त किया है? वह सब कुछ चिन्तन मैंने आपको दिया है।
शुरुआत में उन यज्ञों का संकल्प जब मैंने लिया, इस जीवन में भी जब पूर्व जीवन से एकाकार, ‘माँ’ से अपनी चेतना के उस बिन्दु से एकाकार का जब क्षण आया, तो उन क्षणों पर ‘माँ’ के चरणों में मैंने वही संकल्प लिया कि जो कुछ मुझे इस जीवन में भी प्राप्त करना था, वह प्राप्त कर लिया, अब शेष जीवन का एक-एक पल, एक-एक क्षण, एक-एक साधना केवल जनकल्याण के लिये ही समर्पित होगी और उसी से आपको जोड़ता हूँ। बड़े खुले मनमस्तिष्क के साथ समाज के बीच उपस्थित हुआ था, समाज के बीच यज्ञों का प्रवाह ले करके आया था। समाज के जो लोग अपनी समस्या कह देते थे, तत्काल उनको लाभान्वित कर देता था। कोई समस्याओं से ग्रसित था, कोई बीमार आ जाता था, सबको लाभ दे देता था। केवल स्पर्श करने मात्र से उसके शरीर की बीमारी को अपने शरीर में ले लेता था। मेरे नजदीक जो शिष्य रहते थे, उन कष्टों को स्वतः देखते थे कि उन कष्टों से मैं तड़पता था कि किसी का बुखार ठीक हो जाये और उसी बुखार को, उसी कष्ट को चार घण्टे बाद मुझे भोगना पड़ता था। मगर ‘माँ’ की कृपा से वह कष्ट, चूंकि जिस व्यक्ति की पूर्ण कुण्डलिनी जाग्रत् हो, समय के साथ वह कष्ट अपने आप दूर होजाते हैं।
मेरे द्वारा असम्भव से असम्भव कार्य किये गये। जो अपाहिज पड़ा था, उसे चेतना देने के लिये कहा गया कि इसे चेतना दे दी जाये, तो उसे चेतना दी गयी। व्यवसायियों ने व्यवसाय में लाभ लिया, राजनेताओं ने राजनीति क्षेत्र में लाभ लिया, मगर लाभ लेने के बाद उनके जीवन में फिर भटकाव आ गया। आज तक कभी धन-दौलत की कामना से या किसी से दक्षिणा लेकर कार्य करने का मैंने निर्णय कभी नहीं लिया। खुले मनमस्तिष्क से रहता था कि मेरे पास जो है उससे सहयोग दे रहा हूँ और आपके पास जो सामर्थ्य आये, उसे जनकल्याणकारी कार्यों में लगाओ, जनचेतना फैलाने में सहयोग करो। मगर जब लाभ मिलता है, तो धीरे-धीरे करके सब भूल जाते हैं। इसलिये मैंने वह रास्ता तय किया कि आपको साधक बनाऊँगा, अपनी चेतनातरंगें सभी को समान भाव से प्रदान करूंगा। जिसके अन्दर जितनी पात्रता होगी, उतनी वह प्राप्त अवश्य करेगा और आज भी आश्रम में भक्त आते हैं, लाभान्वित होते हैं। असम्भव से असम्भव उनके कार्य पूर्ण होते हैं।
मैं प्रलोभनों से आपको नहीं बांधता। चूंकि प्रलोभनों के क्षेत्र से बांध करके मैं आपको आत्मपथ से विमुख कर दूंगा। चूंकि मेरे जीवन का प्रथम लक्ष्य है आत्मकल्याण। लाभ को आपको खुद खुले मनमस्तिस्क से दो कदम चल करके अनुभव करना है। खुद बढ़ो और अनुभव करो, वह ज्यादा अच्छा होगा। शेष अब तक की यात्रा जो शिष्य तय कर चुके हैं, उनको देखो। आठ यज्ञों के माध्यम से मैंने जो समाज के बीच प्रमाण दिये हैं, असम्भव से असम्भव कार्यों को समाज की आँखें खोलने के लिये किये हैं। यदि एक भी कार्य को कोई गलत साबित कर देगा, तो उससे बड़े दस कार्य मंच तैयार करके, लोगों को इकट्ठा करके उसी तरह से करके दिखा दूंगा।
आवश्यकता है आपको उस विचारधारा को ग्रहण करने की। आगे बढ़ो और अनुभव करो। खुले मनमस्तिष्क से आपका आवाहन करता हूँ। आप गरीब हो, धनवान हो, मेरे लिये सभी लोग समान भाव से हैं। मेरे इन विचारों को स्वीकार करके अब जो दिव्य आरती होगी, उसके एक-एक पल का पूरा लाभ लें। आप अपने मनमस्तिष्क को एकाग्र करें। खुले मनमस्तिष्क से इस यात्रा को देखो। यदि आप इससे जुड़ोगे, तो आपको लाभ मिलेगा और आपकी समस्यायें दूर होंगी।
वह सिद्धाश्रम जिसका मैं निर्माण करा रहा हूँ कि कभी यह शरीर रहे या न रहे, तो कम से कम आपके पास एक स्थान तो प्राप्त हो सके कि आप जब विषम परिस्थितियों में उस स्थान पर जायें, तो उस स्थान से भी आपकी बैटरियां चार्ज हों, आपको ऊर्जा प्राप्त हो। मगर फिर भी उसके लिये मेरे अन्दर कोई उतावलापन नहीं है। मैंने कभी किसी से नहीं कहा कि तुम दान दो, तुम आश्रम का निर्माण करा दो। मैंने कहा है कि अगर तुम्हारी हज़ार बार की गरज हो, आपका खुला मनमस्तिष्क आपको प्रेरित करे, तो आप समर्पण भाव ले करके उस स्थान के लिये कुछ समर्पित करेंगे, तभी मैं उसको स्वीकार करता हूँ। जानकारी देना मेरा धर्म और कर्तव्य बनता है। मगर दानी बन करके मुझे कोई दान दे, तो मैं उसे स्वीकार नहीं करता। समर्पण के भाव से कि जो कुछ हमारे पास है वह प्रकृतिसत्ता का दिया हुआ है और यदि प्रकृतिसत्ता ने हमें दे रखा है, तो जनकल्याणकारी कार्यों में लगाना हमारा धर्म और कर्तव्य बनता है, अतः एक समर्पण भाव ले करके, भक्तिभाव ले करके कि हम सौभाग्यशाली होंगे कि हमारा यह समर्पण उस स्थान में लग जायेगा, स्वीकार हो जायेगा। अन्यथा मेरी यात्रा में हर एक का धन लग सके, यह भी हर एक के बस की बात नहीं, यह भी हर एक के सौभाग्य की बात नहीं। चूंकि मैं जिस यात्रा में चल रहा हूँ उस यात्रा में हर एक सहायक बन सके , यह असम्भव है। मगर जिनके लिये सम्भव है, उस यात्रा में बढ़ रहे हैं और उनका मैं हृदय से स्वागत करता हूँ, हृदय से उनका आवाहन करता हूँ कि आओ, बढ़ो और जनकल्याणकारी कार्यों में अपनी क्षमताओं को लगा दो। देखो एक ही जीवन में तुमको बहुत कुछ हासिल हो जायेगा।
आज युवावर्ग जो पतन के मार्ग में चलता चला जा रहा है, उसके लिए भी हमारा आपका सभी का दायित्त्व है कि उस युवाशक्ति को भटकने से रोक दें। हमारे देश का सम्मान, देश का रख-रखाव तभी होगा। अन्यथा देशभक्ति के गीत गा लेने मात्र से हमारे देश का मान-सम्मान नहीं बढ़ेगा, देश में परिवर्तन नहीं आयेगा। युवाशक्ति को परिवर्तित करना पड़ेगा, युवाशक्ति के विचारों को मोडऩा पड़ेगा, युवाओं को एक दिशा देना पड़ेगा, उन्हें अवगुणों से दूर हटाना पड़ेगा, उन्हें सत्य की ओर मोडऩा पड़ेगा, उनके अन्दर की आत्मशक्ति को जगाना पड़ेगा, उन्हें एहसास कराना पड़ेगा कि तुम्हारे पास अलौकिक शक्ति है, उसका दुरुपयोग न होने दो। तुम व्यवसाय के क्षेत्र में बढऩा चाहते हो, तुम राजनीति के क्षेत्र में बढऩा चाहते हो, तुम प्रशासनिक अधिकारी बनना चाहते हो, तो यह तभी सम्भव है जब तुम अपनी आत्मशक्ति को प्रभावक बनाओगे।
अतः आप सभी लोगों को सचेत हो करके उन दिशाओं में बढऩे की जरूरत है और इन्हीं शब्दों के साथ उस दिव्य आरती की ओर जाने के पहले मैं आप सभी लोगों को एक बार पुनः अपना पूर्ण आशीर्वाद प्रदान करता हूँ कि आपका कल्याण हो, आप जिस भावना को ले करके बैठे हैं, उसमें कहीं न कहीं ‘माँ’ का सहारा प्राप्त हो। मेरा आशीर्वाद उस क्षेत्र में सहायक बने। इन्हीं भावों को लेकर हम माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा की आरती अपने आपको शिशु मानकर, अपने आपको एक अबोध बच्चा मानकर उस प्रकृतिसत्ता के सम्बन्धों को जोडऩे की कड़ी को आगे बढ़ायेंगे।
बोल जगदम्बे मात की जय।

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