समाज की पांच महामारियां

प्रवचन शृंखला क्रमांक- 129
शारदीय नवरात्र शिविर, सिद्धाश्रम, 16.10.2010

माता स्वरूपं माता स्वरूपं, देवी स्वरूपं देवी स्वरूपम्।
प्रकृति स्वरूपं प्रकृति स्वरूपं, प्रणम्यं प्रणम्यं प्रणम्यं प्रणम्यम्।।

यहाँ उपस्थित अपने समस्त शिष्यों, चेतनाअंशों, ‘माँ के भक्तों, श्रद्धालुओं को अपने हृदय में धारण करता हुआ माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा का पूर्ण आशीर्वाद प्राप्त करता हुआ अपना पूर्ण आशीर्वाद आप समस्त लोगों को समर्पित करता हूँ।

नवरात्र के इन क्षणों का उपयोग करते हुये आप सभी चेतनावान् बन सकें, सत्यपथ पर आपके कदम बढ़ सकें, हर पल इन्हीं कामनाओं के साथ, ये जो क्षण हम आप सभी को माता भगवती की कृपा के फलस्वरूप प्राप्त हो रहे हैं, उनका हर पल शान्ति के साथ, मन की एकाग्रता के साथ, पूर्ण निष्ठा विश्वास से जीने का प्रयास करना चाहिये। 

 आपके शरीर में, आपकी चेतना में, आपकी आत्मा में पूर्ण ब्रह्माण्ड समाहित है और प्रकृतिसत्ता की इतनी बहुमूल्य देन, इतनी महत्त्वपूर्ण कृपा, जो हर पल हमारे साथ, हमारे अन्दर समाहित है, उसके यदि हम एक पक्ष को ले करके चलेंगे, तो हमारा पतन सुनिश्चित है, इसमें दो मत नहीं है। अगर हम एक कामना को लेकर चलें कि हमारी इस भौतिक समस्या का समाधान होजाये या हम ‘माँ के दर्शन प्राप्त कर लें या हमें सिद्धाश्रम की प्राप्ति होजाये। हम अपने जीवन में जिस तरह के लक्ष्य लेते हैं, उसी तरह के कर्म हमें अपने जीवन में करने पड़ते हैं। हमारा लक्ष्य पवित्र है, महान है, दिव्य है, बड़ा है और जब लक्ष्य हमारा बड़ा है, तो कार्य भी हमें बड़े करने पड़ेंगे। कर्मवान् बन करके ही हम चेतनावान् बन सकते हैं।

मैंने अनेकों बार पूर्व के चिन्तनों में भी इस विषय में बतलाया है कि अकर्मण्य बन करके प्रकृतिसत्ता से या अपने गुरु से कुछ माँगने का प्रयास न करें। यदि आज आप लोग क्षणिक आँसू बहा करके, निष्ठा, विश्वास, समर्पण दिखा करके गुरु से कुछ आशीर्वाद प्राप्त भी कर लेंगे, आपकी थोड़ी बहुत भौतिक समस्याओं का समाधान भी हो जायेगा, तो कल आपको कौन सहारा देगा? आगे आने वाली आपकी पीढ़ी के बच्चों को कौन सहारा देगा? हमें उस मूल धरातल को मजबूत करना है कि समाज भिखारियों का जीवन न जिये, बल्कि चेतनावानों का जीवन जी सके और उसे दर-दर भटकना न पड़े। उसे एहसास हो कि मेरे अन्दर ही मेरे गुरु का मन्दिर बना हुआ है, मेरे अन्दर माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा का मन्दिर बना हुआ है। मैं किसी भी पल अकेला नहीं हूँ। अगर मेरे अन्दर माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा का वास है, मेरे चेतनावान् गुरु का वास है, तो दुनिया का ऐसा कौन सा संघर्ष है, दुनिया की ऐसी कौन सी समस्या है जिसका सामना मैं न कर सकूँ? यह सोच हर पल आपके अन्दर होनी चाहिये। 

 जिस प्रकार की हमारे अन्दर सोच पैदा होगी, हमारा शरीर उसी तरह से कार्य करना प्रारम्भ कर देता है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि यह कल्पनात्मक सोच है। यह सत्य की सोच होती है। चँूकि प्रकृतिसत्ता ने हमारे अन्दर जो सब कुछ समाहित किया है, उसको उजागर करने के यही रास्ते हैं कि हमारे अन्दर निष्ठा, विश्वास, समर्पण हो, एक विचारशक्ति जाग्रत् हो और वह विचारशक्ति सद्बुद्धि की हो, दुर्बुद्धि की नहीं और जब विचारशक्ति जाग्रत् होती है, तो हमारा शरीर उसी प्रकार से कार्य करने लग जाता है। हमारे शरीर की वे कोशिकायें उसी प्रकार से कार्य करने लग जाती हैं। काम हो, क्रोध हो, मोह हो, लोभ हो, ये सब कुछ हमारी विचारशक्ति पर हमारे शरीर के अन्दर से उपजने लगते हैं। करोड़ों-अरबों की सम्पदा आपके चारों तरफ बिखरी पड़ी हो, मगर आपके अन्दर यदि लोभ प्रवृत्ति नहीं आ रही है, तो उस करोड़ों-अरबों की सम्पत्ति से एक टुकड़ा भी आप नहीं उठा सकेंगे और अगर विचारों ने आपके अन्दर लोभ प्रवृत्ति को जाग्रत् कर दिया, तो आप बरबस उसे चुराने, उसे उठाने में लग जायेंगे।

आप किसी को एक तमाचा भी नहीं मार सकते, किसी को एक अपशब्द भी नहीं कह सकते, जब तक अपने अन्दर क्रोध के भाव को जाग्रत् नहीं करेंगे। कामवासना की तरफ  आप एक भी कदम नहीं उठा सकते, जब तक कि आप अपने अन्दर कामवासना के भाव को जाग्रत् नहीं करोगे। किसी से आप प्रेम और मोह नहीं कर सकते, वह चाहे आपका सगा बच्चा हो या आपकी बेटी हो, जब तक आप अपने अन्दर के मोह भाव को पैदा नहीं करोगे। हमारे विचार में इतनी शक्ति है कि उस विचारशक्ति के माध्यम से हमारा जो सुपरकम्प्यूटर है, वह चालू होजाता है। उसके अन्दर जो एक विशाल ऊर्जा का भण्डार भरा हुआ है, उस ऊर्जा के भण्डार की तुलना किसी चीज से नहीं की जा सकती।

चैतन्य योगियों में क्षमतायें होती थीं कि अपने नेत्रों के माध्यम से बड़े से बड़े शिलाखण्ड को भी टुकड़े-टुकड़े कर देते थे। अपनी शक्ति के बल से समुद्र को भी पी लेने की सामथ्र्य रखते थे। अपनी शक्ति के बल पर सूर्य की चाल की गति को भी रोकने की सामथ्र्य रखते थे। अपनी शक्ति के बल पर नये स्वर्ग की रचना करने की शक्ति और सामथ्र्य रखते थे। तो जो ऋषियों-मुनियों के पास था, वह सब आपके अन्दर भी समाहित है। उन ऋषियों-मुनियों ने केवल आशीर्वादों का जीवन नहीं जिया। उन ऋषियों-मुनियों ने आशीर्वाद का उपयोग करके केवल अपनी चेतनाशक्ति को जाग्रत् किया। इतिहास साक्षी है कि अनेकों ऋषियों-मुनियों ने हमारे देवी-देवताओं के दर्शन प्राप्त किये हैं, आशीर्वाद प्राप्त किया है, मगर उनके अन्दर ठहराव नहीं आया। चूँकि उन्होंने उतने ही आशीर्वाद को अपने जीवन की पूर्णता नहीं माना।

वह विराटसत्ता है, जिसका आज तक न कोई पार पा सका है और न पार पा सकेगा। हम उसी विराटसत्ता के अंश हैं। हमारे अन्दर जो आत्मसत्ता बैठी हुयी है, उसका भी कोई आज तक न पार पा सका है और न पार पा सकेगा। इसीलिये ऋषियों-मुनियों ने उस कर्मपथ का चयन किया और अनेकों दिव्य साधनाओं को प्राप्त करने के बाद भी वे सतत् साधनाओं में रत रहे। उस ऊर्जा को प्राप्त करने के लिये अपने शरीर को तपाते रहे, खपाते रहे और उस ऊर्जा को प्राप्त करने के बाद वह पूर्णत्त्व का जीवन जिये। चाहे विश्वामित्र हों, चाहे वशिष्ठ हों, पुलस्त आदि एक से एक ऋषि हमारे देश में हुए हैं। हिन्दुस्तान ऐसे ही देवभूमि नहीं कही जाती। बड़े-बड़े उद्योगपति तो दूसरे देशों में पैदा होते होंगे, मगर यह भारतभूमि ऋषियों-मुनियों की भूमि है।

पूर्ण ब्रह्माण्ड हमारे अन्दर समाहित है। प्रकृति की यह जो रचना है, इसमें भी पूर्ण ब्रह्माण्ड की शक्तियाँ समाहित हैं। जिस तरह हमारा शरीर है, हमारे चरण हैं, हमारा पेट है, हमारा वक्षस्थल है, हमारा मुख है, हमारा मस्तिष्क है, तो इसके अलग-अलग प्रभाव हैं, अलग-अलग कार्यक्षेत्र हैं। अब आप अगर अपने चरणों से चाहें, पैरों से चाहें कि वह मस्तिष्क का कार्य करने लग जाय, तो असम्भव है। पश्चिमी सभ्यता से ग्रसित लोगों से यदि आप चाहें कि वे दिव्यता की बात कर लें, सद्बुद्धि की बात करें, उनका कभी सूक्ष्मशरीर जाग्रत् हो जायेगा, तो कभी भी ऐसा नहीं हो सकता। उन्हें यदि जाग्रत् भी करना पड़ेगा, तो अपनी पश्चिमी सभ्यता को त्यागना पड़ेगा, छोडऩा पड़ेगा और हमारे ऋषियों-मुनियों की परम्परा को अपनाना पड़ेगा। इसके अलावा और दूसरा कोई मार्ग नहीं है।

अत: कर्म के फलस्वरूप हम सब कुछ अर्जित कर सकते हैं और मैं बार-बार आप लोगों को मात्र यही संकेत दे रहा हूँ कि केवल क्षणिक आशीर्वादों में, अपनी समस्याओं के समाधान में मत उलझ करके रह जाओ। लाभ-हानि, जीवन-मरण, यह सब कुछ चलता रहा है और चलता रहेगा। अगर हम अपने जीवन की समस्याओं का समाधान चाहते हैं, तो हमें सत्यपथ की ओर बढऩा ही पड़ेगा। इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं है। सतत् जो मानसिक विकलांगता आती जा रही है, आपकी चेतना पर जो आवरण पड़ते चले जा रहे हैं, एक न एक दिन उनको हटाना ही पड़ेगा, अन्यथा आप लोग वही कीड़े-मकोड़ों की तरह का जीवन जीने के लिये बाध्य हो जायेंगे। अत: कर्मवान् बनो।

शब्द की गति को पहचानो, सूर्य के प्रकाश की गति को पहचानो। प्रकृति की कोई भी क्रियायें जिस प्रकार से चल रही होती हैं, उनमें गहराई से विचार करना चाहिये। आकाश का गुण शब्द है। विज्ञान भी इस बात को स्वीकार कर चुका है कि शब्द कभी मिटते नहीं, कभी नष्ट नहीं होते। अगर शब्द मिटते नहीं, नष्ट नहीं होते, शब्द इतने गतिशील हैं कि आज आप टी. वी. चैनलों में देखते हैं कि कहीं दूर से प्रसारण होता है और एक क्षण नहीं लगता, आप उसे अपने घर में देख सकते हैं, उनकी आवाजों को सुन सकते हैं। विज्ञान ने तो इन चीजों की तरक्की की, मगर मनुष्य का पतन होता चला गया। चूँकि यह सहज भाव है कि हम विज्ञान पर जितना आश्रित होते चले जायेंगे, उतनी ही हमारी चेतना की शक्ति क्षीण होती चली जायेगी। चूँकि विज्ञान आपको भौतिकता की सुख-सुविधाओं की ओर बढ़ा सकता है और ज्यों-ज्यों हम भौतिकता की सुख-सुविधाओं की ओर जायेंगे, हमारी आध्यात्मिकता नष्ट होती चली जायेगी, हमारी चेतनाशक्ति कमजोर होती चली जायेगी।

आज जहाँ कम्प्यूटर हमें विकास के पथ पर बढ़ा रहा है, वही कम्प्यूटर आज मानसिक विकलांग भी बना रहा है। अच्छे से अच्छे पढ़े लिखे गणितज्ञ के पास भी चले जाओ, जिसने कम्प्यूटर का उपयोग करना शुरू कर दिया हो, जोड़-घटाना कम्प्यूटर के माध्यम से करना शुरू कर दिया हो, उससे दो-चार चीजें कह दो कि लिख करके, जोड़ करके बता दो, तो जो एक मिनट का क्रम होगा, उसे दस मिनट सोचने में लगायेगा और उसके बाद भी मनमस्तिष्क बार-बार यही पिंच करता रहेगा कि मैंने जो लिखा है, वह सही है या गलत है? मानसिक कमजोरी आती चली जा रही है। मैं नहीं कहता कि भौतिकतावाद को बिल्कुल ठोकर मार दो, लेकिन पहले आध्यात्मिकता को संवारो।

यदि तुम्हारे अन्दर आध्यात्मिकता संवरी हुयी है, तो भौतिकतावाद तुम्हारे पीछे-पीछे दौड़ेगा और अगर तुम भौतिकतावाद के पीछे-पीछे दौड़ने लग गये, तो एक न एक दिन तुम्हारे अन्दर अपाहिजता आ जायेगी और अपाहिज मनुष्य जीवन में कुछ नहीं कर सकता। अत: अपनी चेतनाशक्ति को प्रभावक बनाओ, अपने मस्तिष्क के सुपरकम्प्यूटर को कभी नष्ट मत होने दो। सहयोग आपको चाहे जितना मिल जायें, मगर अपने कार्य करने की शैली को मत छोड़ो। एकदम यन्त्रों पर, मशीनों पर आश्रित मत हो जाओ। अपनी शारीरिक क्षमता को बढ़ाने का प्रयास करो।

आप किस विकास के पथ पर जा रहे हैं? आज से पच्चीस-तीस साल पहले आपके पूर्वज, आपके माता-पिता आपसे कम भोजन करते थे, सादा भोजन करते थे। दाल, नमक, रोटी, चटनी बना करके भोजन कर लेते थे, मगर आपसे ज्यादा स्वस्थ रहते थे, आपसे ज्यादा दुगुना वजन उठा लेते थे। आपसे कई गुना ज्यादा पैदल चलने की क्षमता रखते थे। सोचो कि यह भौतिकतावाद आपकी सामथ्र्य को बढ़ा रहा है कि घटा रहा है? जिनके पास करोड़ों-अरबों की सम्पदा है, उनके पास जाओ और देखो कि क्या उनके पास मानसिक शान्ति है? क्या वह सन्तुष्ट हैं? क्या उनके परिवार में प्रेमभाव है? खोजने पर भी प्रेमभाव नहीं मिलेगा और आज से पचास साल पहले का जीवन देखें कि हमारे माता-पिता रहे हों, हमारे दादा-दादी रहे हों, परिवार संगठित रहते थे, सन्तुलित रहते थे, कम से कम भोजन करके भी वे सन्तुष्ट रहते थे। एक-दूसरे के सुख-दु:ख में सहभागी बनते थे।

आज तो पड़ोसी-पड़ोसी के बारे में नहीं जानता है। महानगरों में चले जाओ, कहाँ, क्या हो रहा है? उससे उनको कोई फर्क नहीं पड़ता। वहीं पहले अगर किसी गाँव में किसी के साथ कोई घटना घटित हो जाती थी, तो पूरा गाँव उसके सुख-दु:ख में सहभागी बनता था। लेकिन, आज मानवीय मूल्यों को सतत् नष्ट किया जा रहा है और यदि हमारे मानवीय मूल्य नष्ट हो गये, तो हमारे हाथ कुछ नहीं लगेगा। हम केवल एक स्वप्न देख रहे हैं कि जिस तरह हम स्वप्न देखते हैं और जब जगते हैं, तो सब कुछ हमारा बिखरा हुआ नजर आता है। उसी तरह इस विज्ञान के युग में तुम एक स्वप्न की दौड़ में दौड़ रहे हो। जो तुम्हारे संस्कार हैं, जो तुम्हारी क्षमता है, उसे भी नष्ट करते जा रहे हो। जन्म-दर-जन्म तुम पीछे की ओर ही जा रहे हो। अत: कर्मवान् बनने का प्रयास करो।

धन ही आपको सब कुछ नहीं दे सकेगा। जीवन में आपके अन्दर सबसे पहले सन्तोष होना चाहिये। तुम इससे दु:खी नहीं हो कि तुम्हारे पास धन-सम्पदा नहीं है। मैं जानता हूँ कि न तुम बीमार हो और न तुम्हारे पास आर्थिक तंगी है, तंगी है तो केवल मानसिक तंगी है। तुम दु:खी इसलिये नहीं हो कि मेरे घर में कपड़े नहीं हैं, मेरे घर में भोजन नहीं है। दु:खी केवल इसलिये हो कि पड़ोसी के घर में कपड़ों का भण्डार भरा हुआ पड़ा है, पड़ोसी के घर में गाड़ी है। पड़ोसी का लड़का नौकरी करता है, वह बेईमानी और भ्रष्टाचार करके दस-दस, बीस-बीस लाख रुपये लाता है। उसका महल बनता चला जा रहा है और मैं झोपड़ी में रह रहा हूँ। जब पैदा हुये थे, तब क्या लेकर आये थे और जब शरीर को त्याग करके जाओगे, तब क्या ले करके जाओगे? शरीर चलाने के लिये चाहिये क्या?

कभी सोचा करते हो कि प्रकृतिसत्ता ने हमें भेजा किसलिये है? हमारा धर्म, कर्म और कर्तव्य क्या है? एक सोच पैदा करो, एक विचार पैदा करो और जिस दिन विचार पैदा हो जायेगा, तुम झोपडिय़ों में भी खुशहाल रहोगे और तुम्हारी समस्याओं का समाधान होगा। शारीरिक जो बीमारियाँ बढ़ रही हैं, वे बीमारियों की वजह से नहीं बढ़ रही हैं, बल्कि हर पल तुम जो तनावग्रस्त रहते हो, समस्याओं से ग्रसित रहते हो, इससे तुम्हारी ऊर्जा नष्ट हो रही है। केवल इसी में ग्रस्त रहते हो कि किस तरह मेरे लड़के की नौकरी लग जाये? किस तरह वह भ्रष्टाचार करने लग जाये? प्राय: हर माता-पिता की यही ख्वाहिश रहती है कि जिस विभाग में सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार होता हो, उसी विभाग में मेरा बच्चा नौकरी करने लग जाये। यह कैसी सोच है? आज समाज का कितना पतन हो चुका है?

एक हज़ार व्यक्तियों को खड़ा कर लो, उनमें शायद एक या दो परिवार तलाशने में ऐसे मिल जायें, जो सोचें कि नहीं, मैं अपने बच्चे को अच्छे रास्ते में बढ़ाना चाहता हूँ। हर एक के अन्दर यही एक सोच है कि ऐसे रास्तों में मेरा बच्चा बढ़े, ऐसा कार्य  करे, जिसमें अन्धाधुन्ध पैसा आये, चाहे वह जायज आये, नाजायज आये या किसी भी प्रकार से आये। जब तुम्हारी दिन-रात की ऐसी सोच रहेगी, तो कभी जब तुम्हारे जीवन में कोई समस्या आ जायेगी, कोई जरूरत पड़़ जायेगी, तो क्या प्रकृतिसत्ता उस आवाज को सुन सकेगी? जब तुम्हें अनीति, अन्याय के रास्ते में ही जाना है, तो अगर मैं तुम्हारी सहायता भी कर दूँगा, तो इससे तुम्हारे जीवन में तो कुछ भी सुधार नहीं आयेगा। तुम इस ऊर्जा का उपयोग और अधिक पतन के मार्ग में करोगे।

आज समाज यह बतायेगा कि यदि किसी के पास हजार व्यक्ति खड़े कर दिये जायें, अगर किसी के पास यह क्षमता आ जाये कि वह अपनी साधना के बल पर किसी के अस्तित्व को नष्ट कर सकता है, किसी को अपाहिज बना सकता है, किसी को रोगग्रसित कर सकता है, तो अगर उसके दुश्मन होंगे, उसके शत्रु होंगे, तो कोई कह सकेगा कि नहीं मैं अपने अन्दर उन्हें माफ करने की क्षमता रखता हूँ, मैं सहजता का जीवन जीता हूँ। आप लोग सिद्धियां इसलिये प्राप्त भी नहीं कर पा रहे है कि दिशायें भटकी हुयी हैं, लक्ष्य भटका हुआ है। प्रकृतिसत्ता से कुछ पाना भी चाहते हो, तो इसलिये कि मेरी सामथ्र्य बन जाये। गुरुजी मेरीे कुण्डलिनीचेतना को जाग्रत् कर दो। मैं चेतनावान् बन जाऊँगा, तो समाज मुझे पूजने लगेगा। जबकि ऐसे विचारों का आपके अन्दर स्पर्श भी नहीं होना चाहिये।  

अनेकों धर्माचार्य, योगाचार्य कहते हैं कि मैंने शून्य से शिखर की ओर यात्रा तय कर ली। उन अधर्मियों, अन्यायियों को धर्म दिखता ही नहीं, उनको बस भौतिकतावाद दिखता है। गरीब, अपाहिज, बीमारों, दु:खियों को शिविर शुल्क लगा-लगा करके उनके कन्धों पर अपने पैर रखते हुये बढ़ते चले जाते हैं। अपनी भौतिकतावाद की चरमसीमाओं को बढ़ाने के लिये और उस भौतिकतावाद की चरमसीमा को बढ़ा करके समाज पर अपना अधिपत्य जमाते हैं। अधिपत्य धन से नहीं, धर्म से जमाया जाता है। पूजा धर्म जाता है, धन नहीं पूजा जाता। मगर आज समाज की बिडम्बना है कि लक्ष्मी पूजन के दिन, दीवाली के दिन भी उन सिक्कों के टुकड़ों को पूजेंगे, चाँदी-सोने को पूजेंगे। कभी मन से भाव भी नहीं आता कि हम उस परमसत्ता की पूजा करें, उस दिव्य महालक्ष्मी की पूजा करें, महालक्ष्मी का आशीर्वाद प्राप्त करें। ये जो चाँदी के टुकड़े हैं, आज चाँदी के हैं और कल को लोहे के हो सकते हैं, परसों कागज के चल सकते हैं, किसी रूप में चल सकते हैं। ये मिट्टी के समान हैं। इनको पूजने से हमें कुछ नहीं प्राप्त हो सकेगा। अगर इस जीवन में सच्चाई ईमानदारी के रास्ते से हमारे पास धन-दौलत आयी है, तो इसके पीछे हमारे संस्कार हैं। तो उन संस्कारों को बढ़ाने के लिये हम क्या इन टुकड़ों को पूजें या उस परमसत्ता को पूजें? लेकिन दुर्भाग्य यह है कि समाज में मानसिक विकलांगता हावी है।

 बड़े-बड़े धर्मग्रन्थ आपको दिशा नहीं देंगे, आपको आपके विचार दिशा देंगे, आपको आपकी सोच दिशा देगी। नब्बे प्रतिशत समाज की बीमारियाँ देखते ही देखते दूर हो सकती हैं, यदि लोग अपनी सोच को बदल लें। विज्ञान भी इस चीज को मानता है कि आप तनावग्रस्त रहोगे, तो शरीर में नाना प्रकार की बीमारियां हो जायेंगी। टेन्शन में रहोगे, तो आपकी पाचनक्रिया बिगड़ जायेगी, आपको नींद नहीं आयेगी। तो नब्बे प्रतिशत बीमारियाँ जो आ रही हैं, आपके तनावग्रस्त होने के कारण आ रही हैं और आप तनावग्रस्त क्यों होते जा रहे हो, इसलिए कि सत्य से दूर होते जा रहे हो। जिस तरह एक अबोध शिशु को माँ से जितना दूर किया जायेगा, उसकी ऊर्जाशक्ति उतनी ही नष्ट होगी, वह उतना ही व्याकुल होगा, बिलखेगा, रोयेगा, तड़पेगा। चूँकि वह और किसी को जानता नहीं है। वह केवल अपनी माँ को पहचानता है। माँ ही उसे दूधपान करा सकती है। माँ ही उसे स्वस्थ रख सकती है। माँ का ही स्नेहिल हाथ उसे राहत दे सकता है। उस छोटे बच्चे को माँ से दूर ले जाना चाहो और उसके बदले उसे चाहे जो कुछ देना चाहो, वह सब कुछ इन्कार कर देगा। तो तुम अपने आपको इतना बड़ा सयाना कहाँ से मानते हो? उस परमसत्ता के सामने तुम्हारा अस्तित्व क्या है? कभी यह सोचने का प्रयास करते हो? मगर उस अस्तित्व में भी उस परमसत्ता की कृपा देखें कि उसने आपके अन्दर पूरे ब्रह्माण्ड को दे दिया है कि मैं तुम्हें पूर्ण अधिकारी बनाती हूँ कि तुम उसका उपयोग करते हुये जो चाहो, वह हासिल कर सकते हो और अगर उसका दुरुपयोग करोगे, तो दण्ड के भागीदार बनोगे। प्रकृतिसत्ता ने सभी क्रम दिये हुये हैं, मगर आप अपने अन्दर सोच नहीं बना पाते हो, एक विचारशक्ति नहीं पैदा कर पाते हो।

आज पूरा समाज पतन के मार्ग पर जा रहा है। चाहे साधु-सन्त-संन्यासी हों, धर्माचार्य हों या किसी क्षेत्र में ले लीजिये। आज हमारा राजनीतिक्षेत्र पूरी तरह से पतन के मार्ग पर जा रहा है, धर्मक्षेत्र पूरी तरह से पतन के मार्ग पर जा रहा है, नेता पतन के मार्ग पर जा रहे हैं, अभिनेता पतन के मार्ग पर जा रहे हैं, न्यायपालिका पतन के मार्ग पर जा रही है, प्रिन्टमीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पतन के मार्ग पर जा रहे हैं। सबको केवल धन-दौलत की भूख  है। उस सत्य का उन्हें ज्ञान ही नहीं हो रहा है कि मैं इस पतन के मार्ग पर जो जा रहा हूँ, तो मेरा अस्तित्व बचेगा कि नहीं? मेरी जो मूल जननी हैं, मैं उनसे दूर होकर, अपने घर से दूर होकर मुझे कहीं सहारा मिल सकेगा या नहीं? समाज की जो सभी रक्षक कडिय़ाँ हैं, आज सब पतन के मार्ग पर जा रही हैं। मात्र बीस-पच्चीस सालों में इतना अधिक पतन हुआ है कि जिसकी कोई सीमा नहीं है!

आज की जो वास्तविक सत्यता है, उस सत्यता को कहने वाला कोई नहीं है। कोई कह रहा है कि हम विदेशों का धन ले आयेंगे, उससे देश ख़्ाुशहाल हो जायेगा। अरे, जब तक बेईमानी देश के अन्दर है, तो अरबों-खरबों की सम्पत्ति भी आ जाये, तब भी देश कंगाल का कंगाल ही रहेगा। विदेशों में जो कालाधन चला गया हैं, उसे पैर से ठोकर मार दें और यदि आज ईमानदारी और मानवता हम समाज में भर दें, तो हमारा देश एक वर्ष के अन्दर-अन्दर पुन: सोने की चिडिय़ा बन जायेगा। आज भी आप लोग देखते हैं कि कहीं चार सौ करोड़ पकड़ा जा रहा है, कहीं पाँच सौ करोड़ पकड़ा जा रहा है, कहीं किसी के यहाँ छापा पड़ रहा है, तो वहाँ इतना सोना-चाँदी पकड़ा जा रहा है! पाँच-पाँच हज़ार वेतन पाने वालों के यहाँ पाँच-पाँच सौ करोड़ की प्रापर्टी पकड़ी जा रही है। अभी हाल ही में कॉमनवेल्थ गेम हुआ। आप सभी लोगों को मालूम है कि इसमें बेईमानी और भ्रष्टाचार का कितना बोलबाला रहा! आज हमारा समाज भुखमरी का शिकार है और हम विश्व को दिखाना क्या चाहते हैं कि हमारा भारत कितना विकासशील हो गया है? कोई इण्डिया शाइनिंग का नारा दे रहा है और उसके नाम पर अपने आपको विकासशील दिखाना चाह रहा है।

देखना है तो गाँव के अन्दर जाओ और गरीब जनता को देखो, जो महानगरों में भी रह रही है। लोग एक-एक समय के भोजन के लिये मोहताज हैं, मगर आज अधर्मी-अन्यायी नेताओं को इससे कुछ मतलब नहीं है। उनके पास सोचने-समझने की शक्ति ही नहीं है, चूँकि वे मानसिक रूप से विकलाँग हो चुके हैं। आज देश के जो राजनेता हैं, उनमें अगर मैं कह दूँ कि चार पाँच प्रतिशत को छोड़ दिया जाय, तो शेष सभी राजनेता देशद्रोही हैं और देश के गद्दार की श्रेणी में आते हैं, उनको सजा-ए-मौत देनी चाहिये। हमारे समाज का पतन क्यों हो रहा है? इसलिये कि हमारी सोच उस दिशा में नहीं जा रही है और अगर सोच जाती भी है, तो हम सत्य के साथ खड़े होना नहीं चाहते, सत्य की आवाज को उठाना नहीं चाहते। कभी आप एक बोतल शराब में अपने वोट का सहयोग दे देते हैं, तो कहीं चन्द टुकड़ों में आप अपने आपको बेंच देते हैं और उन बेईमानों के हाथ में बिक जाते हैं। देश का इस तरह से न कल्याण होगा और न ही मानवता इस तरह से बच सकेगी।

मानव के अन्दर मानवीय मूल्यों की स्थापना करने की जरूरत है। कोई कह रहा है कि हज़ार-हज़ार के नोट बन्द करा दो, यदि हम हज़ार-हज़ार के नोट बन्द करा देंगे, तो ईमानदारी अपने आप आ जायेगी। अरे, जब तक यह बेईमानी है, तब तक चाहे हज़ार-हज़ार के नोट बन्द करा दो, चाहे जो बन्द करा दो, दुनिया में किसी के पास सामथ्र्य नहीं है कि समाज में हो रहे भ्रष्टाचार और पतन को रोक सके और रोकने की बात भी वे करते हैं, जो स्वयं महाबेईमान हैं। बेईमानों के पास उठते-बैठते हैं और बेईमानों के साम्राज्य के बाद बेईमानों के साम्राज्य की तरह ही अपना साम्राज्य खड़ा करना चाहते हैं। ऐसे लोग देश की भोलीभाली जनता को कहीं आयुर्वेद के नाम पर लूट रहे हैं, तो कहीं योग के नाम पर लूट रहे हैं, किन्तु देश के अन्दर से कोई आवाज उठाने वाला नहीं है।

देश को जिस तरह राजनेताओं ने लूटा, वह तो बर्दाश्त किया जा सकता था, मगर धर्मक्षेत्र में, योगक्षेत्र में, आयुर्वेद के क्षेत्र में कोई खड़ा हो करके आज अगर समाज को लूट रहा है, ठग रहा है और अपनी भौतिकतावाद की चरमसीमाओं को बढ़ा रहा है, तो उसके ख़िलाफ़ आवाज उठनी चाहिये, मगर समाज में कोई बोलना नहीं चाहता। जिस तरह ईस्ट इण्डिया कम्पनी अपने व्यवसायिक क्रम को ले करके आयी और पूरे देश को गुलाम बना करके चली गयी, उसी तरह लोग समाज को आज गुलाम बनाना चाह रहे हैं। अपने भौतिकतावाद के संसाधनों को बढ़ाने के लिये पहले समाज को लूटा और जब सामथ्र्य आ गयी, तो स्वयं को गुरु के रूप में प्रतिष्ठित करा करके राजनीति करने के लिए कि समाज के वोट हासिल करने हैं, तो जो कल तक थूँकते थे, आज उसी को चाट रहे हैं! जो कल तक कहते थे, आज उसे सब कुछ बदलते जा रहे हैं। किस तरह के योगऋषि हैं, किस तरह के ब्रह्मर्षि हैं? जिन्हें यह मालूम ही न हो कि हमारे बगल में ही कोई प्रेतयोनि भी है। जिसे योनियों के बारे में ज्ञान न हो, जिन्हें लोगों के बारे में ज्ञान न हो, जिसे अपने सूक्ष्मशरीर के बारे में ज्ञान न हो, इस तरह के वे धर्माचार्य, योगाचार्य, वेदाचार्य आज लोगों को ज्ञान दे रहे हैं। कोई आवाज उठाना नहीं चाहता। तुम्हें सत्य की शरण गहना ही पड़ेगा, सत्यवक्ता बनना ही पड़ेगा, उसके लिये तुम्हें अपनी चाहे जो चीज कुर्बान कर देनी पड़े।

देश की आज़ादी के लिये देश के अनेकों सपूत हँसते-हँसते फाँसी पर झूल गये। उन्होंने उन कष्टों को सहा, जिनको याद करके ही आज हमारे आँसू निकल आते हैं। आज उसी देश को देश के ही गद्दार लूट रहे हैं। हम आज़ाद नहीं हैं, बल्कि अगर मैं यह कह दूँ कि अंग्रेजों के शासन में हमारा समाज उतना पतन के मार्ग में नहीं जा रहा था, जितना आज के प्रजातन्त्र में जा रहा है। चूँकि, आज प्रजातन्त्र नहीं है, बल्कि गुण्डातन्त्र और बेईमानी का तन्त्र है। आज माफियातन्त्र हमारे देश में चल रहा है। तो क्या इस माफियातन्त्र को, इस गुण्डातन्त्र को, इस बेईमानी के तन्त्र को आप स्वीकार करने के लिये तैयार हैं कि आप इसकी गुलामी करें और आपके आने वाले बच्चे इसी तरह गुलामी करते रहें तथा चन्द धनाढ्य लोग आप पर शासन जमाते रहें और आपको कीड़े-मकोड़ों के समान समझें? थर्ड क्लास डिब्बों में चलने वाले ट्रेन के यात्रियों को आज के नेता एनीमल क्लास बोलते हैं। तुम अपने आपको कहाँ पाते हो? उसके बाद भी समाज से कोई आवाज उठाने वाला नहीं है!

चोर-चोर मौसेरे भाई बन करके बड़े-बड़े मंच सजाते हैं और कहीं धर्म के नाम पर, तो कहीं जाति के नाम पर समाज को लड़ाते हैं। उससे कहीं न कहीं समाज को सचेत करना पड़ेगा। अन्यथा वही होगा कि बन्दरों की तरह तुम्हें कहेंगे कि नाखून रगड़ो और तुम्हारे बाल काले हो जायेंगे! अरे, उन बेईमानों के, धूर्तों के, उन लोभी लम्पटों के बाल तो काले नहीं हुये और जब उनके बाल काले नहीं हुये, जो दिन-रात पचास-पचास साल से नाखून रगड़ रहे हैं, योग कर रहे हैं, तो तुम्हारे बाल कैसे काले हो जायेंगे? मगर फिर भी कोई आवाज उठाने वाला नहीं है। वे अपनी आँख ठीक नहीं कर पाये, पच्चीसों साल से उनका मुँह टेढ़ा का टेढ़ा ही है, मगर तुम्हें कहते हैं कि तुम्हारे चेहरे में दिव्यता ला देंगे, किन्तु कोई बोलने वाला नहीं है। मगर, मैंने कहा है कि आपका गुरु न मौत से भय खाता है और न ही मौत देने की सामथ्र्य इस समाज में किसी के पास है। आपका गुरु सत्यकार्य करने के लिये आया है, फकीरों का जीवन जीने के लिये आया है, अमीरों का जीवन जीने के लिये नहीें आया है।

मैंने शिखर से शून्य की यात्रा तय की है कि शून्य में खड़ा हो करके, शून्य में रह करके अपने कन्धों में बिठा करके तुम्हें ऊपर की यात्रा कराऊँगा, मगर तुम्हारे कन्धों पर पैर रख करके अपनी यात्रा तय नहीं करूँगा। मैं तुम्हारा सहारा बनने आया हूँ, न कि तुम्हारी भावनाओं का शोषण करके खुद अपनी भौतिकता की चरमसीमाओं को बढ़ाने। मैं भी चाहता, तो यहाँ भौतिकता का आश्रम अब तक बन चुका होता, मगर मैंने पहले आपके घरों को आश्रम बनाना चाहा है, आपको साधना के पथ पर बढ़ाना चाहा है। आज इसी के परिणाम हैं कि आपके अन्दर चाहे जितनी समस्यायें हों, चाहे एक समय के भोजन के लिये मोहताज हों, मगर तब भी चेतनावान् बन करके जनकल्याण के कार्य कर रहे हैं। चूँकि जैसी गुरु की भावना होगी, वैसा ही शिष्यों पर सहज प्रभाव पड़ता है। आज वही नब्बे प्रतिशत परिणाम देखे जा सकते हैं। यहां से नब्बे प्रतिशत वही लोग जुड़ रहे होंगे, जो कहीं न कहीं सच्चाई और ईमानदारी की सामथ्र्य पकड़े हुए होंगे।

सत्य बोलने की सामथ्र्य रखो। नहीं तो इसी तरह के नारे देंगे कि रोज तुम्हारी सुबह योग और आयुर्वेद से शुरू हो। जो धूर्त, अन्यायी कल तक कहते थे कि तेल मत लगाओ, क्रीम मत लगाओ। उदाहरण देते थे कि एक भैंस को मैंने दिन-रात क्रीम से रगड़ा, मगर वह काली की काली ही रही। आज वही बेईमान योगाचार्य बड़ी-बड़ी क्रीम लगा-लगाकर कहेंगे कि देखो मैं यह क्रीम लगाता हूँ। बड़ी-बड़ी दुकान सजा करके बैठते हैं, मगर कोई आवाज उठाने वाला नहीं है। समाज को चाहे जैसा लूटो, चूँकि समाज लुटने का आदी बन चुका है! तुम सुधरना ही नहीं चाहते हो। तुम्हें कोई दूसरा नहीं लूट रहा है, बल्कि तुम खुद जान करके भी लुट रहे हो। आज समाज का निन्यान्यवे प्रतिशत व्यक्ति जानता है कि यह गलत हो रहा है, मगर आवाज उठाने की वह सामथ्र्य नहीं रखता, क्योंकि तुम गुलामी का जीवन जीना सीख चुके हो कि नहीं हमको तो अब मरना ही है, हमें तो कीड़ों-मकोड़ों की तरह का जीवन जीना ही है, हम कभी उभर ही नहीं सकते! इससे ऊपर उठो। नित्य शक्तिजल का पान करो और अपनी चेतनाशक्ति को जगाओ।

इस तरह अपने आपको खड़े होकर दिखायेंगे कि देखो किस तरह बलिष्ठ हैं, किस तरह की जाँघें होनी चाहिये, इस तरह सुन्दर होना चाहिये? अरे, हिजड़ों के जैसा शरीर लिये हुये हैं और ऐसा लगता है कि पाँच मिनट भी खड़े होंगे, तो जिसको सीधे खड़े होना न आता हो, वह दूसरों को कहता है कि किस तरह लेटना चाहिये, किस तरह सोना चाहिये, किस तरह खड़े होना चाहिये? मगर कोई बोलने की सामथ्र्य नहीं रखता।

सत्य बोलने की सामथ्र्य रखो। समाज में कहीं भी अनीति-अन्याय-अधर्म हो रहा है, तो उसके खिलाफ आवाज उठाओ। मैंने विश्वअध्यात्मजगत् को खुली चुनौती दी है और मेरी आवाज सदैव उठती रहेगी। इसके लिये मुझे एक बार नहीं, सैकड़ों बार जेल में भी जाना पड़े, तो मैं जाने के लिये तैयार हूँ और मैं जानता हूँ कि जेल की सलाखें भी, जेलों की जितनी क्षमतायें हैं, वे क्षमतायें भी उनकी कम पड़ जायेंगी। चूँकि आज मैं अनेकों में बँट चुका हूँ और उस विरोध को झेलने की सामथ्र्य भी उन अधर्मियों-अन्यायियों के पास नहीं है। अत: एक सोच, एक शक्ति पैदा करो, एक विचारशक्ति पैदा करो।

आज समाज में पाँच महामारियाँ हैं। यदि ये पाँच महामारियाँ दूर हो जायें, तो समाज की सभी समस्याओं का समाधान हो जाये। न हमें विदेशों से यहाँ नोट लाने की जरूरत है और न हमें हज़ार-हज़ार के नोट बन्द कराने की जरूरत है। वे पाँच महामारियाँ हैं- नशा, मांस, भ्रष्टाचार, सम्प्रदायवाद और नास्तिकता।

नशा समाज के पतन का मूल कारण है। निन्यान्यवे प्रतिशत लोग नशाग्रसित होंगे। बाहर के भौतिकतावाद के नशों को ग्रहण करके जो नशा कर रहा होगा, वह पतन के मार्ग में निश्चित ही जायेगा। अपने शरीर को नष्ट कर रहे हैं, अपनी चेतनाशक्ति को नष्ट कर रहे हैं। अपने जो बच्चे पैदा करते हैं, उनको भी उसी तरह प्रारम्भ से ही नशेड़ी बना रहे हैं। उनकी कोशिकायें संकुचित होजाती हैं और अपाहिज से नजर आते हैं। अपने घर की खुशियों को अपने ही हाथों जलाकर राख कर देते हैं।

नशा मनुष्य के पतन का मूल कारण है। यदि समाज को केवल नशामुक्त कर दिया जाये, तो समाज की जितनी समस्यायें हैं, उनमें तत्काल सुधार होना प्रारम्भ हो जायेगा। मगर आज तो अधर्मी-अन्यायी राजनेता ही शराब के ठेके उठवाते हैं, उनको तो रायल्टी मिलनी चाहिये, भले कोई मर रहा है। सब जानते हैं कि बीड़ी, सिगरेट पीने से सबको दमा हो रहा है, किसी को कैंसर हो रहा है, मगर वे सब बीड़ी उद्योग को बराबर बढ़ावा देंगे। गाँजा, शराब बराबर बिकेगी। जिस देश के नेताओं की ऐसी सोच हो, वे गरीब समाज का कल्याण क्या कर सकेंगे? उनके अन्दर कभी वह सोच पैदा नहीं हो सकती।

हज़ारों-हज़ार लाख टन गेहूँ सड़ा दिया गया, बाढ़ में सड़ गया। न्यायपालिका ने कहा कि सडऩे से तो अच्छा है कि उसे गरीबों में बँटवा दो, लेकिन हमारे देश के भ्रष्ट, बेईमान कृषिमन्त्री क्या कहते हैं? कहते हैं कि सरकार द्वारा मीटिंग होती है, तो कहा जाता है कि कोई ऐसा रास्ता नहीं है, जिससे इसको गरीबों में बँटवाया जा सके। गरीबी रेखा से नीचे वालों के लिये सब कार्ड बने हैं, उन्हें रियायत पर गेहूँ दिया जाता है।

अरे, धूर्तों, बेईमानों, कौन सी ऐसी समस्या आ रही थी? उन्हीं कार्डधारियों के लिए ही अगर कह देते कि जितना उनको कोटा दिया जाता है, उससे चार गुना बढ़ा दिया जाये और दो-तीन महीने उनसे कोई पैसा नहीं लिया जायेगा, तो कम से कम वह उन गरीबों तक तो पहुँचता। मगर वे किसी की सुनना नहीं चाहते, केवल अपनी जेबों को भरना चाहते हैं। इसलिये कि अगर उनके मुँह में कैंसर हो जायेगा, तो विदेशों में जा करके करोड़ों-करोड़ों रुपये दे करके अपना कैंसर ठीक करवा लेंगे। आम व्यक्ति के साथ क्या हो रहा है? आम व्यक्ति मर रहा है, सड़ रहा है, उससे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ेगा। जहाँ गेहूँ के गोदाम हैं, वहाँ शराब के गोदाम बना दिये गये, मगर देश से कोई आवाज उठने वाली नहीं!

आवाज उठेगी, तो गरीब आम जनता के बीच से उठेगी। आवाज उठेगी, तो भगवती मानव कल्याण संगठन के माध्यम से उठेगी और भगवती मानव कल्याण संगठन का गठन इसीलिये किया गया है। यह संगठन ‘माँ की ऊर्जाशक्ति को लेकर समाज में धीरे-धीरे चैतन्यता डाल रहा है और उस कर्मपक्ष के माध्यम से कार्य कर रहा है, चूँकि कर्म का ही फल मिलता है और जब हम उस कर्म के पथ पर बढ़ जायेंगे, तो किसी न किसी दिन अधर्मियों-अन्यायियों को हम सुधार करके रहेंगे। अगर सुधारेंगे नहीं, तो उन्हें रसातल में भेज देंगे। मैं उन धर्माचार्यों की तरह नहीं हूँ कि उनके मंचों पर वे राजनेता आयें, तो उनकी लम्बी आयु की कामना करते हैं। चाहे योगाचार्यों को देख लो, चाहे धर्माचार्यों को देख लो कि कोई मुख्यमन्त्री आ जायेगा, तो बस उसकी लम्बी आयु की कामना करने लगेंगे, चाटुकरिता करने लगेंगे। मैं कह रहा हूँ कि जितने बेईमान, भ्रष्ट राजनेता हैं, उनके लिये नित्य ‘माँ से अगर कुछ माँगो, तो सबसे पहले कहो कि इन अधर्मी-अन्यायी राजनेताओं का एक्सीडेण्ट हो, ये आपस में लड़-झगड़ करके मरें, तभी देश का कल्याण होगा और यह आवाज उनके बीच से कभी नहीं उठेगी। यह आवाज तुम्हें उठानी पड़ेगी। जन-जन में जाग्रति पैदा करनी पड़ेगी। जन-जन की सोच को बदलना पड़ेगा कि हमें इस गुलामी से मुक्ति पाना है।

ये हमारी आत्मा को गुलाम बनाते चले जा रहे हैं। चन्द दस-बीस हज़ार लोगों ने देश की सौ करोड़ जनता को गुलाम बना करके रख दिया है। इस गुलामी से हमारे लिये उन अंग्रेजों की गुलामी श्रेष्ठ थी। वे करेंगे कुछ और कहेंगे कुछ। अपने लिये बड़ी-बड़ी मशीनरी विदेशों से लाकर अपने यहाँ लगा लेंगे और तुम्हें कहेंगे स्वदेशी का पालन करो। ब्रिटेन की रानी के यहाँ जाकर उनकी चौखट में माथा रगड़ करके आ जायेंगे और लौट करके ऐसा प्रचार करेंगे, जैसे स्वर्ग की यात्रा करके आ रहे हों। और, तुम्हें क्या कहेंगे कि कामनवेल्थ की वह जो मशाल आयी है और चूँकि वह ब्रिटेन की है, ब्रिटेन की रानी के नाम की है, इसलिये उसके साथ यात्रा में मत चलो, उसका बहिष्कार करो। ब्रिटेन की रानी के तलुये चाटने में अपने आपको सम्मानित महसूस करते हो और हिन्दुस्तान की जनता को गुमराह करने का प्रयास कर रहे हो। हिन्दुस्तान की यह जनता जानती है कि हमें ब्रिटेन की महारानी का कितना सम्मान करना चाहिये या नहीं करना चाहिये? यह बताने की जरूरत नहीं है कि हमने कितना गुलामी का जीवन जिया है, हमारे कितने लोग शहीद हुये हैं और कितना अत्याचार किया गया है? मगर आज के धर्माचार्य हों, राजनेता हों, योगाचार्य हों, सब वही करेंगे, मगर समाज को उसके विपरीत बतायेंगे। जगह-जगह पर कहा कुछ जायेगा और किया कुछ जायेगा। यह कब तक चलता रहेगा? इसके लिये आवश्यकता है कि जो ये पांच महामारियाँ हैं, उनको दूर किया जाये और उनमें सबसे पहले नशे से समाज को दूर कराया जाय।

आपको अपनी पूरी-पूरी क्षमता अपने-अपने क्षेत्रों में लगा देना है और आपका गुरु तो आपकी क्षमताओं को दिन-दूना रात-चौगुना बढ़ा ही रहा है। समाज के दिखावे के लिये वह झोली फैला-फैला करके माँगते होंगे कि आप मेरी झोली में नशा और माँस को छोड़ दो, किन्तु समाज में कोई परिवर्तन नहीं आता। एक व्यक्ति की मैं रिकार्डिंग देख रहा था, मगर जब वह मुझसे मिलने आया, तो उसने बताया कि उसने इतने शिविर अटेण्ड किये। मैंने कहा कि तुम तो सबसे पहले वहाँ खड़े हुए थे कि मैं नशा छोड़ रहा हूँ। तो उसने कहा कि गुरुजी जब मैं जानता हूँ कि बोलने वाला बेईमान है और झूठ बोल रहा है, तो मैंने भी सोचा कि थोड़ी देर मैं भी खड़ा हो करके झूठ बोल दूँ। मगर आप सिद्धाश्रम में आप आ करके देखें कि मैं झोली फैलाकर भीख नहीं माँगता हूँ, सच्चे मन से मेरा रोम-रोम चाहता है कि समाज नशामुक्त हो और इसका परिणाम है कि अगर मेरे शिष्य भी समाज में कहते हैं, तो लोग नशामुक्त हो रहे हैं और मेरी साधना की जो चेतनातरंगें समाज के बीच में डाली जा रही हैं, उससे यहाँ लोग बढ़-बढ़ करके आते हैं। जब मुझसे मिलने आते हैं और मैं पूछता हूँ कि किसलिये आये हो तो बोलते हैं कि गुरुजी नशा छोड़ने आये हैं। यहाँ बरबस खिंच करके आ रहे हैं।

यह पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम वह स्थान है, जिस स्थान को मैं चैतन्य बना रहा हूँ और यहाँ हर पल ‘माँ का गुणगान चल रहा है। जो लोग कहीं न कहीं वास्तव में संस्कारवान् होंगे, वे नशा छोड़ने के लिये बढ़कर अपने घरों से निकल करके बरबस आश्रम की ओर आयेंगे। जगह-जगह जाकर जो मेरे शिष्य जनजाग्रति पैदा कर रहे हैं, समाज को जाग्रत् कर रहे हैं, समाज को नशामुक्त कर रहे हैं, उसी तरह यहाँ की चेतनातरंगें भी उनको खीेंच रही हैं। बढ़-चढ़ करके लोग आ रहे हैं। अच्छा खासा नशा करने वाला आता है और कहता है कि गुरुजी हम नशा छोड़ने आये हैं। और, मैं आज कहता हूँ कि सौ में निन्यानवे प्रतिशत व्यक्ति यहाँ से नशामुक्त हो करके जाते हैं। एक प्रतिशत की बात छोड़ दें, चूँकि कर्मसंस्कार और योग भी कुछ होते हैं।

किसी के जीवन में यदि पतन ही लिखा हुआ है, तो फिर उसे कोई नहीं बचा सकता। अन्यथा, प्रकृतिसत्ता को महिषासुर का वध करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। राम को रावण का वध करने की आवश्यकता न पड़ती। कृष्ण को कंस का वध करने की आवश्यकता न पड़ती। कुछ अधर्मी-अन्यायी इस स्तर तक बढ़ जाते हैं, जो सुधारने से नहीं सुधरते। जिस तरह कुत्ते की पूँछ होती है, उस तरह बन जाते हैं कि कुत्ते की पूँछ को पोंगड़ी में चाहे जितना डाल करके रखो, मगर जब निकालोगे, तो टेढ़ी की टेढ़ी ही रहेगी। तो ऐसी टेढ़ी पूँछ को काटने की आवश्यकता होजाती है। दो-चार बार समझाओ, मगर यदि नहीं समझता, तो उसे अपने आप से काट दो। उसके पीछे मत भगो और उसे कुमार्ग पर जाने दो। एक दिन जब ठोकरें खायेगा, तो बढ़ करके आयेगा और वह खुद कहेगा कि मेरी पूँछ काट दो, मैं सुधरना चाहता हूँ। तो, आज हमारे राजनेताओं की पूँछें कुत्ते के समान टेढ़ी हो गयी हैं। ये सुधरेंगे नहीं और इनमें नब्बे प्रतिशत लोगों की पूँछ काटना ही पड़ेगा। ये तभी सुधरेंगे। इन्हेें रसातल में भेजना ही पड़ेगा।

देश के किसी भी मुख्यमन्त्री को देख लिया जाये, जो पाँच साल के लिये मुख्यमन्त्री बन जाते हैं, उनमें से अधिकांश देखते ही देखते अरबपति बन जाते हैं, फिर भी समाज को ईमानदारी का पाठ पढ़ाते हैं। कभी तो सोचो कि यह सब कुछ चल रहा है, फिर भी आप उन मुख्यमन्त्रियों के पीछे भागते हैं। उनकी रैली होती है, स्कूल से अपने बच्चों को भेज देते हैं और आप दौड़ते चले जा रहे हैं। अरे, उन अधर्मी-अन्यायियों का परित्याग करो। जब वे दर-दर की ठोकरें खाने लग जायें कि वे जहाँ आपको बुलाना चाहें, वहाँ एक भी स्वरूप नजर न आये, तब उनको एहसास होगा कि वास्तव में हम समाज से कितना कट चुके हैं। वे जिस गाँव में जाना चाहें, वहाँ तत्काल चौबीस घण्टे के लिये बिजली आ जायेगी, वहाँ की सड़कें तत्काल बन जायेंगी। सभी प्रशासनिक अधिकारी काम करने लग जायेंगे। उन अधर्मियों-अन्यायियों को देखने का मौका ही नहीं मिलता कि हमारा हिन्दुस्तान आज किस तरह का जीवन जी रहा है? कितनी बदहाल सड़कें हैं? कितने गाँव ऐसे हैं, जहाँ बिजली और पानी नहीं है, सड़कें नहीं हैं? लोग रोते हैं, जब उन रास्तों में रोज जाते हैं। लोग नई-नई गाडिय़ाँ ले करके आते हैं, मगर साल भर में ही वे गाडिय़ाँ खटारा बन जाती हैं। मगर उन बेईमानों के लिये तो कोई फर्क नहीं पडऩे वाला है, चूँकि उन्हें गाँव की यात्रा तो करना ही नहीं है। कोई हेलीकॉप्टर से पहुँच रहा है, तो कोई किसी चीज से पहुँच रहा है। करोड़ों-अरबों की बेईमानी करना, मगर फिर भी सब ईमानदार हैं! उसके लिये प्रबल आवाज उठानी पड़ेगी। कुर्बानी का भाव हमें अपने अन्दर रखना पड़ेगा कि एक बार इस आज़ादी के लिये, आत्मिक आज़ादी के लिये, अपने धर्म की रक्षा के लिये अगर हँसते-हँसते अपना शीश न्यौछावर करना पड़े, तो हम हँसते-हँसते अपना शीश न्यौछावर कर दें। हम खुशियाँ नहीं पायेंगे, मगर हमारी आने वाली पीढिय़ां उन खुशियों को अवश्य भोगेगी।

हमारा अस्तित्व कौन मिटा पायेगा? हम अजर-अमर-अविनाशी सत्ता हैं। हम परमसत्ता की आस्था का जीवन जीते हैं। अत: आत्मा का जीवन जीने का भाव अपने अन्दर पैदा करो। फिर देखो कि जो मेरी आवाज निकल रही है, वही आवाज तुम्हारी निकलने लगेगी और फिर जब आवाज से आवाज मिल जायेगी, तो यह देश आज़ाद होगा, जो कि आज हमारा गुलाम देश है। अंग्रजों के समय के बनाये हुये पुल आज भी हैं, मगर आज जो बेईमान पुल बनाते हैं, वह बनता है और बनते-बनते ध्वस्त भी होजाता है। मगर सब कुछ चल रहा है। कामनवेल्थ गेम्स में इतना बड़ा घोटाला हुआ, प्रधानमन्त्री ने एक जाँच कमेटी नियुक्त की और उसे तीन महीने का टाइम दिया गया कि वह कमेटी तीन महीने में जाँच सौंपेगी और जब तीन महीने हो जाएंगे, तो फिर वह जाँच के लिये और समय माँग लेगी। जाँच कमेटी के लोग खुद मौज मस्ती मारते हैं। चाहे जो जाँच एजेन्सियाँ हों, उनका आराम से पेट भरता रहता है और आराम से धीरे-धीरे टाल करके मामले को ठण्डे बस्ते में डाल दिया जाता है।

आज देश की कानून व्यवस्था जिस प्रकार चल रही है कि अगर किसी की बीच चौराहे में बेइज्जती करके उसके बाल मुड़वा दिये जायें और वह थाने में रिपोर्ट करने जाये कि मेरे बाल मुड़वा दिये गये, मेरी रिपोर्ट दर्ज कर लो, तो बेईमान थानेदार उसकी रिपोर्ट दर्ज नहीं करने देंगे। उनको पहले पैसा दो, चाहे जितनी उसकी चौराहे में बेइज्जती की गयी हो और अगर आप हो-हल्ला मचा दो, यही प्रश्न यदि संसद में चला जाये, तो वहाँ पर जानते हैं क्या होगा? प्रत्यक्ष देख रहे होंगे कि उसके बाल मुड़ा दिये गये और वह चाहे फोटोग्राफ्स ले करके दे दे, मगर वहाँ एक कमेटी गठित की जायेगी कि यह कमेटी छ: महीने बाद रिपोर्ट देगी। छ: महीने तक कमेटी घूमती रहेगी, मौज मस्ती करती रहेगी और छ: महीने बाद रिपोर्ट देगी कि हमने जा करके देखा, तो उसके सिर पर तो बाल हैं। तो छ: महीने में तो उसके सिर पर बाल उग ही आयेंगे।

 हमारे देश की शासन व्यवस्था इस प्रकार से चल रही है। उसे सुधारना पड़ेगा और सुधारेगी आम जनता, सुधारोगे आप लोग। मैंने कहा है कि मैं अपने अस्तित्व को मिटाने आया हूँ, अपने अस्तित्व को बनाने के लिये नहीं आया हूँ। मुझे किसी स्वर्ग की कामना नहीं है। मैं जिस परमधाम का वासी हूँ, उस धाम से बढ़ करके दूसरा कोई धाम नहीं है और मैंने कहा है कि इस शरीर के रूप में मैं आप लोगों का सेवक बनने आया हूँ और जब तक इस शरीर के रूप में हूँ, तब तक कार्य करूँगा और शरीर को त्याग करने के बाद भी जब तक इस स्थान में ‘माँ का गुणगान चलता रहेगा, जब तक ‘माँ की ज्योति जलती रहेगी, सूक्ष्म शरीर के रूप में मैं सदा-सदा के लिये यहाँ वास करूँगा। मैं शून्य में खड़ा होने के लिये आया हूँ, अपने आपको मिटाने के लिये आया हूँ कि अपने आपको मिटा करके भी अगर आपके अन्दर की चेतना को जगा सका, आपके अन्दर की आवाज को जगाने की क्षमता आपमें भर सका, तो मैं अपने जीवन को धन्य मानूँगा। अत: अपने अन्दर सोच पैदा करो, एक विचारशक्ति पैदा करो और पूरी क्षमता के साथ जनजागरण में लगो।

नशे से अपने आपको मुक्त करो, अपने बच्चों को मुक्त करो, समाज को मुक्त करो। समाज में नाना प्रकार की टिप्पणियाँ आती हैं। हो सकता है कि आपका बच्चा नशा करता हो और जब आप दूसरे को बताने जायें, तो वह कह दे कि आप अपने बच्चे को नशामुक्त कर नहीं पाते और हमें सिखाने के लिये आये हैं। टोकने वाले ऐसे दो-चार मिलेंगे, मगर हो सकता है कि आप अपने एक बच्चे को नशामुक्त न करा पायें, लेकिन यदि आप प्रयास करेंगे, तो सैकड़ों दूसरे बच्चों को नशामुक्त कराने की आपकी सामथ्र्य है, क्षमता है। अगर आपका एक बच्चा नशामुक्त न भी हो पाये, मगर आपके प्रयास से यदि दस बच्चे नशामुक्त हो रहे हैं तो आपको यह तुलना करना है कि क्या उनकी एक बात कहने से हम ठहराव ले लें या हम दस बच्चों को नशामुक्त करायें?

 हर मनुष्य के लाभ-हानि, जीवन-मरण, कर्म-संस्कार और योगों से जुड़े रहते हैं। अपने परिवार को भी पूरी क्षमता के साथ नशामुक्त कराओ और समाज को भी नशामुक्त कराओ। मैं जीवनदानी शिष्य चाहता हूँ। इसीलिये मैंने कहा है कि मुझे एक हज़ार जीवनदानी शिष्य चाहिये कि अगर मैं उन्हें दहकती हुई आग में कूदने को कहूँ, तो बगैर विचार किये कूद सकें। दस हज़ार उनके सहयोगी शिष्य चाहिये और एक लाख मुझे तीसरी श्रेणी के शिष्य चाहिये। बाकी तो मैं पूरे समाज के लिये कार्य कर ही रहा हूँ और जिस दिन मेरी विचारधारा के एक लाख ग्यारह हज़ार शिष्य मेरे चेतनाअंश बन जायेंगे, तो यह परिवर्तन जिस प्रकार से आयेगा, समाज देखता चला जायेगा तथा इन अधर्मियों-अन्यायियों का धरातल किस प्रकार खिसक गया, इनको पता ही नहीं चलेगा। अत: समाज को नशामुक्त कराओ।

माँसाहार पतन का दूसरा मुख्य कारण है। जिस तरह का हम भोजन करेंगे, हमारा आहार जैसा होगा, वैसे ही हमारे विचार बनेंगे। अगर माँस का एक टुकड़ा भी शरीर में जा रहा होगा, तो किसी न किसी जीव की हत्या की गई होगी। माँस का भक्षण करने वाला अगर वास्तव में कह दिया जाये, तो न तो अपने बच्चों से प्रेम करता है, न अपनी पत्नी से प्रेम करता है, न अपने परिवार से प्रेम करता है और समाज से तो प्रेम करेगा ही नहीं। उसे अगर भूख लगे, तो वह अपने बच्चों को भी काट करके खा सकता है, अपनी पत्नी को भी काट करके खा सकता है। ऐसी घटनायें देश में हो रही हैं। अत: अपने आपको विचारवान् बनाओ। यदि आप नशा-माँसाहार करते हो और पहली बार यहाँ सिद्धाश्रम में आये हो, तो अगर इस नवरात्र के पवित्र पर्व पर आप नशामुक्त, माँसाहारमुक्त होने का संकल्प ले लोगे, तो तुम्हारा संकल्प तुम्हें फलीभूत करेगा और मेरी साधनात्मक ऊर्जा भी आपके साथ जुड़ जायेगी। मेरा नित्य का जो संकल्प चलता रहता है कि जो भी यहाँ आ करके नशे-माँस से मुक्त होगा, उनके साथ मेरी साधनात्मक क्षमता बराबर जुड़ेगी। उन्हें अपने भी संकल्प का फल प्राप्त होगा और मेरा जो नित्य का संकल्प रहता है, उसके भी सहभागी बनेंगे। अत: समाज को नशे और माँस से मुक्त कराओ।

देवी-देवताओं के नाम पर जो बलि दी जाती है, यह सबसे बड़ा महापाप है। उन मन्दिरों पर कभी शक्तियाँ वास नहीं करतीं। उन मन्दिरों के पुजारी, पुजारी नहीं हत्यारे हैं और वे जल्लाद की श्रेणी में आते हैं। तुम्हारी किसी भी कामना की पूर्ति किसी भी जीव की हत्या या बकरा, बकरी, किसी मुर्गे या भैंसे की बलि देने से नहीं होगी। अत: इस कुप्रथा के विरुद्ध समाज में जाग्रति पैदा करो, समाज को माँस से मुक्त कराओ। देवी-देवताओं के नाम पर माँस न चढ़ायें, भले अपने कुल देवताओं के नाम पर या  आपके परिवार से चलता चला आ रहा हो। अरे, तुम्हारे परिवार के दादा-बाबाओं को किसी ने गुमराह कर दिया था, चूँकि हज़ारों-हज़ारों वर्षों से होता चला आया है कि शराबी और ऐय्याश रहे धर्माचार्य जिस तरह से माँस का भक्षण करते थे, शराब पीते थे कि कोई भैरो के नाम पर पी रहा है, कोई शिव के नाम पर भाँग पी रहा है और समाज को भी वही सिखाते चले गये। समाज को शिव के नाम पर धतूरा चढ़ाने का ज्ञान देते रहे, इससे बड़ी अज्ञानता और क्या होगी?

 मैं बहुत छोटा था, शायद कक्षा पाँचवीं या छठवीं में पढ़ रहा था। नजदीकी ग्राम जोनिहाँ के आगे शिव जी का एक मेला लगता है। लोग धतूरा और बेलपत्र आदि सब चीजों को ले करके जाते हैं। मैं भी जब घर से गया, तो मुझे भी पकड़ा दिया गया कि जा करके शिव जी को ये चढ़ा देना। वहीं एक नहर बहती है, मैं साथ-साथ चलता जा रहा था। बार-बार मन में विचार आ रहा था कि शिव जी तो सात्विकता के प्रतीक हैं। चूँकि मेरे अन्दर बचपन की जो चेतना थी, वह मेरे अन्दर की जो विचारशक्ति थी, कि अगर मैं आवाज भी उठाता, तो उसको कोई सुनने वाला नहीं था। मैंने कहा कि शिव को मैं धतूरा चढ़ाऊँ, यह उचित नहीं है। मैंने उस धतूरे को उसी नहर में फेंक दिया था और केवल बेलपत्र चढ़ा करके आया था। शिव तो समाज के लिए उस विष को भी अपने अन्दर पी गये और उसको भी कण्ठ से नीचे नहीं जाने दिया। जब शिव को धतूरा पिलाओगे, भाँग पिलाओगे, तो शिव तुम्हारी क्या रक्षा करेंगे? जिस मन्दिर में भाँग और धतूरा चढ़ाओगे, वहाँ शिव जी क्यों बैठेंगे? मैं कह रहा हूँ कि मैं नशामुक्त, माँसाहारमुक्त जीवन जीता हूँ और यदि तुम अपने घर में नशे-माँस का भक्षण करते रहो, सेवन करते रहो, तो मेरी चेतनातरंगें कभी भी वहाँ प्रवेश नहीं कर सकतीं। आज समाज के पतन का मूल कारण वही है, मगर अनेकों शिवभक्तों को देखो कि भाँग पियेंगे, गाँजा पियेंगे, चिलम चढाय़ेंगे अत: समाज में जाग्रति पैदा करने की जरूरत है।

भगवती मानव कल्याण संगठन के जो लक्ष्य हैं कि हम इन महामारियों को दूर कर रहे हैं और जिस दिन ये महामारियाँ जितनी दूर होती चली जायेंगी, समाज में सहजभाव से उतना सुधार होता चला जायेगा। अत: समाज को नशे और माँस से मुक्त कराओ। समाज को भ्रष्टाचार से मुक्त कराने का सतत प्रयास करो। अत: ऐसे भ्रष्टाचारी और अधर्मी राजनेताओं को सहयोग देना बन्द कर दो। उनके नाम के जैकारे लगाना बन्द करो। अगर तुम भी कहीं ऐसी गल्ती कर रहे हो, तो उसे नित्य सोचो और उसमें सुधार करो कि भ्रष्टाचार का धन अपने घर में लाने की अपेक्षा भूखों मर जाना ज्यादा अच्छा है और जिस दिन तुम भ्रष्टाचार से मुक्त होने का निर्णय ले लोगे, तुम्हारा आत्मबल दसियों गुना ज्यादा बढ़ जायेगा। तुम्हारे बच्चे संस्कारवान् और चेतनावान् बनेंगे।

अरबों-खरबों की सम्पत्ति अर्जित कर लो, किन्तु यदि तुम्हारा बच्चा ऐय्याश है, शराबी है, जुआड़ी है, तो या तो वह किसी दिन जेल में जायेगा या तुम्हारे धन को इसी तरह लुटाता चला जायेगा। वह राक्षसी प्रवृत्ति का हो जायेगा। आज राक्षस कहीं बाहर नहीं चले गये, बल्कि वे राक्षस पुन: यहाँ आ-आ करके समाज में जन्म ले चुके हैं। राक्षस यही तो करते थे कि शराब पीते थे, रात को ग्यारह-ग्यारह बजे, बारह-बारह बजे, एक-एक बजे रात तक उनकी पार्टियाँ चला करती थीं, नाच गाना चला करता था और आज महानगरों में यही तो हो रहा है कि नब्बे प्रतिशत रईसजादे बियर बारों में दिखाई देंगे, पार्टी में दिखाई देंगे, नाच गाना चल रहा होगा, ऐय्याशी चल रही होगी। कोई शराब चढ़ा रहा है, कोई माँस खा रहा है और दिन में दस-ग्यारह बजे के पहले तो उनका सूर्योदय होता ही नहीं है। प्रात: के चार बजे का समय ब्रह्ममुहूर्त होता है, जगने का समय होता है और वे उस समय सोयेंगे। राक्षस भी यही करते थे कि रात में खूब खेल-कूद करते थे, नशा-माँस का सेवन करते थे और प्रात: ब्रह्ममुहूर्त में सो जाते थे। सभी जानते हैं कि राक्षसी प्रवृत्ति के लोगों की शक्ति बह्ममुहूर्त में क्षीण होने लगती है। आज समाज ज्यों का त्यों वही कर रहा है।

लोगों में राक्षसीवृत्ति दिनोंदिन हावी होती जा रही है। कोई अपने ठीक-ठाक बालों को उल्टा करके लगा लेगा, कोई टेढ़ा कर लेगा। टी. वी. सीरियलों में आप देखते हो कि सही शक्ल सूरत के दिखने वाले लोग भी अपने को बिल्कुल राक्षसों की तरह बना लेंगे। चाहे वह गीतकार हों, चाहे संगीतकार हों, चाहे खलनायक हों, चाहे नायक हों, उनको देखें कि किस तरह स्वयं को वीभत्स बनायेंगे! रैम्प पर चलने वालों को किस शब्द से सम्बोधित करूँ? उनके चेहरों को देखें कि किस तरह के बनायेंगे? शायद एक दो प्रतिशत कपड़े ऐसे दिखाई दे दें, जो पहनने लायक हों, जिन्हें वास्तव में मर्यादित कपड़े कहे जा सकें। जो जितना कपड़ों को कुतर सके, वह उतना ही बड़ा फैशन डिजाइनर है। जो ड्राइंग्स में जितना नग्नता का प्रदर्शन कर सके, उसी की खूब वाहवाही होती है। नहीं मालूम कि वे किस प्रकार की कैप लगाये होंगे और राक्षस लोग भी इसी तरह की लगाते थे। कोई फर्क नहीं है और तुम अपनी सोच को उधर ले जाओ, तो सब पता चल जायेगा कि कौन देवत्व का जीवन जी रहा है और कौन राक्षसत्व का जीवन जी रहा है? उनका बड़ा सम्मान किया जाता है। आप लोग भी बड़े चाव से देखते हैं। मैं देखता हूँ केवल उनकी बुराईयों की वजह से कि समाज किस तरह से पतन के मार्ग पर जा रहा है और तुम देखकर आनन्दित होते हो और कई बार वैसा ही अपना भेष बनाने लग जाते हो। अत: अपने बच्चों को समझाओ कि उनका अनुसरण करके वे भी राक्षस बन जायेंगे।

  राक्षसी प्रवृत्ति को मत अपनाओ। समाज को सचेत करो, समाज को जाग्रत् करो। भ्रष्टाचार को दूर करने के लिये अपनी-अपनी क्षमताओं को लगाओ। यह सोच मत करो कि हमारा भी बच्चा ऐसे विभाग में चला जाये, जहाँ भ्रष्टाचार करेगा और भ्रष्टाचार की सोच का ही परिणाम है कि किसी को कैन्सर हो रहा है, किसी को घातक बीमारियाँ आ रही हैं, किसी को कुछ हो रहा है। यह बीमारी इसी तरह बढ़ती चली जायेगी, अगर आप सही विचारधारा ले करके नहीं चलोगे। सही विचारधारा पर चलोगे, तो जो बीमारी साल भर चलने वाली होगी, वह एक महीने में ही ठीक हो जायेगी। अत: नशे-माँस और भ्रष्टाचार से समाज को धीरे-धीरे अलग करने के लिये अपनी आवाज को उठाओ। संगठन के लोगों को और संगठित करो। अपने जिले में संगठन को इतना विस्तार दो कि हम पूरे जिले क ो भ्रष्टाचार से मुक्त कराने के लिये अपनी आवाज को उठा सकें और कार्यरूप में उसे परिणित कर सकें।

 चौथी महामारी सम्प्रदायवाद है। आज पूरा समाज सम्प्रदायवाद में ग्रसित है। कोई जातीयता के किसी क्रम में, तो कोई किसी क्रम में शामिल है। इसीलिये भगवती मानव कल्याण संगठन के सभी सदस्यों को मेरा यह आदेश और निर्देश सदैव रहता है कि अगर वास्तव में तुम मेरे सच्चे शिष्य हो, तो कभी किसी जातीयता के संगठन का पद मत ग्रहण करना। वहाँ अगर जाना भी, तो धीरे-धीरे वहाँ समझाने का प्रयास करना, चूँकि वास्तव में वे जातीयता के रंग में इतने रंग चुके हैं कि सहजता से नहीं समझेंगे। जातीयता के इन संगठनों को बढ़ावा मत दो, नहीं तो हमारे समाज का पतन सुनिश्चित है। जातीयता के, सम्प्रदायवाद के जितने संगठन चलेंगे, उतना ही देश में अशान्ति फैलेगी।

सभी जाति, धर्म, सम्प्रदाय को एकसमान मान करके चलो। इसीलिये मैंने कहा है कि हमें योगभारती समाज का गठन करना है। जहाँ कोई ऊँच-नीच नहीं होगा, कोई छुआ-छूत नहीं होगी, कहीं भेदभाव नहीं होगा। अगर हमें आरक्षण भी देना है, तो आरक्षण का आधार सिर्फ  गरीबी होना चाहिये। नहीं इसी तरह से आन्दोलन चलते रहेंगे, कभी आरक्षण किसी को दिया गया और कभी किसी को! कभी इस्लाम धर्म के लोग आरक्षण माँगेंगे, कभी हिन्दू धर्म के लोग आरक्षण माँगेंगे। कभी जाटों का आन्दोलन चल रहा है, तो कभी किसी का चल रहा है और उग्रता इतनी कि अपने आरक्षण को प्राप्त करने के लिये सैकड़ों-सैकड़ों बसों को जला दिया जाता है, मकानों को जला दिया जाता है, लोगों को जला दिया जाता है। इसमें समाज का हित नहीं है। मैंने मेरे संगठन को जो निर्देशन दिया, आज तक संगठन उसी पर अमल कर रहा है कि हमारे संगठन द्वारा कभी भी बड़ा से बड़ा आन्दोलन चलाने पर भी आगजनी करने की आवश्यकता न पड़े। कहीं पर भी बसों को तोड़-फोड़ करने की आवश्यकता न पड़े।

हमारा लक्ष्य एक है कि जो अधर्मी-अन्यायी है, केवल हम उसे ही सुधारेंगे या तो वह जिस तरह सुधरेगा कि समझाने से सुधरेगा, तो समझाकर सुधारेंगे और दण्ड भी अगर पाये, तो वही जो अधर्मी-अन्यायी है, उसके साथ उसके बगल में खड़ा हुआ व्यक्ति दण्डित न हो सके, यह सोच हमें रखना है। मगर आज बेईमान राजनेताओं के पास से यह सोच समाप्त हो चुकी है। समाज भी इसी का फायदा उठा रहा है। हर राजनीतिक पार्टी इसी का फायदा उठा रही है कि तोड़-फोड़ करो, आगजनी करो, अगर पच्चीस-पचास पकड़े भी जाओगे, तो महीने-छ: महीने में दबाव डला करके उनके सब मुकदमों को माफ कर दिया जायेगा। एक व्यक्ति अगर किसी के यहाँ पर थोड़ी तोड़-फोड़ कर दे, तो बेचारा जेल में सड़ रहा है और ये अधर्मी-अन्यायी, गुण्डे प्रवृत्ति के लोग, राजनीति से जुड़े लोग, राजनेताओं से जुड़े लोग बड़े-बड़े आन्दोलन चलाकर बसों को फूँक देते हैं, मकानों को जला देते हैं, लोगों की बहू-बेटियों की इज्जत लूटते हैं और उसके बाद भी उनके सभी मामलों को माफ कर दिया जाता है।

 कश्मीर में आप लोगों ने देखा कि बड़े-बड़े आन्दोलन चलाये गये और हमारे देश के सैनिकों को मारा जाता है, खदेड़ा जाता  है, उनके ऊपर पत्थरों से वार किया जाता है। उनकी मानसिक स्थिति को तोड़ा जा रहा है और बेईमान राजनेता क्या कह रहे हैं कि जितना जिसने अपराध किया, उनको छोड़ दो, उन्हें माफ कर दो! मैं कह रहा हूँ कि यह कहने वाला भी देशद्रोही है और उन्हें छोड़ने वाला भी देशद्रोही और गद्दार है। अत: उन गद्दार राजनेताओं से सचेत रहो और चाहे जो राजनेता हो, उन्हें सिर्फ गद्दार शब्द से सम्बोधित करो, तभी ये सुधरेंगे। अन्यथा ये बेईमान, भ्रष्ट राजनेता हमारे देश को एक न एक दिन टुकड़ों में बाँटकर रख देंगे और हमारी मानवता बिखर करके रह जायेगी। जातीयता और सम्प्रदायवाद की आग में पूरा देश एक न एक दिन जलने लगेगा।

 बचपन से लेकर आज तक कोई एक व्यक्ति भी खड़े होकर यह कहने की सामथ्र्य नहीं रखता कि मैंने कहीं पर भी जातीयता को महत्त्व दिया है या कभी छुआ-छूत को महत्त्व दिया है। सभी जाति-धर्म-सम्प्रदाय के लोग मेरे साथ बराबर बैठते थे, भोजन करते थे। मैंने सभी को एक समान स्थान दिया है। अपनी जन्मस्थली भदबा में भी जब मैंने अपना पहला शिविर लगाया, तो उस शिविर में भी वहाँ जिन्हें सफाई करने वालों को डोमार कहा जाता था, मैंने उन्हें भी समान भाव से बैठने का मौका दिया और समान भाव से दीक्षा दी। मेरा विरोध हुआ, मगर मैंने कहा कि मुझे इस बात की कोई परवाह नहीं है। मैं मानव को सिर्फ मानव के रूप में देखता हूँ। अत: मानव के अन्दर मानवता को पैदा करो। अपने अन्दर मानवीय मूल्यों को जाग्रत् करो।

मेरा आठवाँ यज्ञ हो रहा था और उसमें कुछ कार्यकर्ताओं ने प्रणाम किया, वहीं दूर पर खड़ा हुआ व्यक्ति, जिसे गन्दी नालियों की सफाई के लिये वहाँ लगाया गया था, वह बेचारा हाथ-पैर धुल करके आ रहा था, तो कुछ कार्यकर्ताओं ने उसे रोक दिया कि तुम अभी-अभी मैले को साफ करके आ रहे हो, तुम वहाँ गुरु जी के पास कैसे पहुँचोगे? मैं दूर से देख रहा था और मैंने उसे पहचाना कि यह तो सफाई करने वाला कर्मचारी है। मैंने उसे तुरन्त बुलाया कि पहले तुम आओ। पहले तुम्हें चरण स्पर्श करने का अधिकार है और बाद में दूसरे का अधिकार है। अरे, वह तुम्हारी गन्दगी को साफ कर रहा है, महत्त्व तो उसको देना चाहिये और तुम उसे कह रहे हो कि दूर रहो! अरे, उसने हाथ की गन्दगी साफ  कर ली, उसने हाथ धुल लिया, अब कौन सी छूत या गन्दगी उसके अन्दर चली गयी?

जातीयता के जो क्रम बनाये गये थे, वे समाज के कार्य के लिये बनाये गये थे। जिस तरह आज भी कोई अधिकारी है, तो कोई चपरासी है, मगर आज अधिकारी और चपरासी का भेद इतना हो गया है कि चपरासी को बिल्कुल नौकर बनाकर हेयदृष्टि से देखा जाता है कि वह तो हमारा गुलाम है। यही हाल जातीयता में हुआ। मैं कह रहा हूँ कि अगर मुझे शूद्र शब्द से सम्बोधित किया जाय, तो मेरा क्या बिगड़ जायेगा? अगर मैं अपने आपको कहूँ कि मैं शूद्र हूँ, तो शूद्र नाम से भी लोग मेरा सम्मान करेंगे। मगर आज समाज में जो जातीयता का बीजारोपण हो गया है, इसे धीरे-धीरे करके दूर करने की जरूरत है। हम सभी मानव हैं। आज हम ब्राम्हण हैं, कल किसी जाति में जन्म ले सकते हैं और मैंने इसीलिये कहा है कि अगर भारत की एकता और अखण्डता को बनाना है, तो योगभारती समाज का गठन करना ही पड़ेगा। सम्प्रदायवाद से हमें अलग होना ही पड़ेगा।

इसके बाद आज जो समाज की पांचवी सबसे बड़ी बिडम्बना है- नास्तिकता। नास्तिक व्यक्ति एक आतंकवादी से कम नहीं होता। जो नास्तिक होगा, वह अधर्मी-अन्यायी होगा। आज नब्बे प्रतिशत लोग नास्तिकता के क्रम में, महानगरों में ऐसे लोग होंगे, जो अधर्मी-अन्यायी आज देश को पूरी तरह से लूट रहे हैं। वह नास्तिक व्यक्ति सबसे ज्यादा खतरनाक होता है। अत: नास्तिक व्यक्ति सबसे ज्यादा खतरनाक है, तो प्रयास करो कि नास्तिकता दूर हो। यदि कोई व्यक्ति नास्तिक है और वह अपनी नास्तिकता को दूर नहीं करना चाह रहा है, तो उसे आतंकवादियों से भी खतरनाक मान करके उससे अपने आपको अलग हटाओ। उसे कभी सम्मानित मत करो। मगर आज टी. वी. चैनलों में और चाहे जहाँ देखा जाय, नास्तिकों को खूब बढ़ावा दिया जाता है। आज इसीलिये मैंने जो विश्वअध्यात्मजगत् के लिए चुनौती रखी है, वह इसीलिये कि धीरे-धीरे समाज को जाग्रत् किया जाय।

धर्म को भी हमें सुधारना है और राजनीति क्षेत्र को भी हमें सुधारना है। उसके लिये हमें और आप सभी लोगों को तत्पर होना है। अपनी आवाज को बुलन्द करो। अपने अन्दर उस सत्य की ज्वाला को प्रज्वलित करो, जिसे कोई बुझा न सके। जिस तरह आपका गुरु कहता है कि इस कलिकाल में किसी के पास इतनी सामथ्र्य नहीं है कि मुझे मेरे लक्ष्य से विमुख कर सके। अत: ‘माँ की भक्ति के लिये सोच पैदा करो। केवल एक पक्ष नहीं, कि हम पूजा, आराधना बहुत कर रहे हैं, यह हमारा एक पक्ष है कि हमें नित्य पूजा-आराधना करना है, नित्य मन्त्रजाप करना है। अगर हमारे पास समय है तो ध्यान-साधना, ‘माँ और ॐ के उच्चारण के क्रमों का पालन करना है और इन क्रमों के साथ-साथ हमारे जो मनुष्योचित कर्म हैं, उनको भी पूरा करना है। अन्यथा हम एक पक्ष को अपनाकर चलेंगे, तो दूसरे पक्ष में निश्चित ही कहीं न कहीं विफल हो जायेंगे। अत: अपने अन्दर वह विचारशक्ति जाग्रत् करो, एक सोच पैदा करो।

सत्यता के साथ चलो। ‘माँ की आराधना, भक्ति करो। ‘माँ या कोई देवी-देवता कभी बलि नहीं लेते, इस पर गहराई से ध्यान दो। किसी भी अवस्था में आप जाप कर सकते हो। कई लोगों के इस तरह के प्रश्न आते हैं कि हम सूतक की अवस्था में या जिसके यहाँ बच्चा हुआ हो, तो क्या वह महिला खुद मन्त्रजाप कर सकती है, पूजा-पाठ कर सकती है? मैंने कहा है कि शुद्धता के लिये केवल देवी-देवताओं के मन्दिरों की छवियों का स्पर्श नहीं करना चाहिये। मानसिक जाप किसी भी क्रम में रोकना नहीं चाहिये। हमको धर्म से अपने आपको किसी भी क्षण अलग नहीं करना चाहिये। उन क्षणों में तो हमें और एकाग्रता के साथ मानसिक जाप करना चाहिये। आप मानसिक जाप कर सकते हैं। ग्यारह दिन के बाद शुद्धता से स्नान करके देवी-देवताओं की छवियों का पूजन कर सकते हैं। कुछ लोग इक्कीस दिनों में करते हैं, मगर कम से कम ग्यारह दिनों तक शुद्धता के क्रम पूर्ण होने के बाद आप देवी-देवताओं की छवियों को स्पर्श कर सकते हैं, वहाँ पूजा-पाठ कर सकते हैं। तो, उस सोच को थोड़ा सा जाग्रत् करो।

अनेकों लोग सिद्धाश्रम प्राप्ति का मार्ग चाहते हैं, मगर मैंने कहा है कि यहाँ जो मेरी दिव्य आरती होती है, वह 108 दिव्य महाआरती को प्राप्त करने वाला सिद्धाश्रम की प्राप्ति का अधिकारी बनेगा और जो ग्यारह दिव्य आरती को भी प्राप्त कर लेगा और उसके बाद उसके साथ दुर्घटना हो जाय, मृत्यु हो जाय, तो वह पुन: जन्म ले करके मेरी यात्रा में जुड़ने का अधिकारी बन जायेगा। मेरी एकान्त की साधनायें चलती रहती हैं और समाज के बीच मैं कम जाता हूँ, मगर मेरे कार्य साधनाओं के माध्यम से बराबर चलते रहते हैं। उस दिशा में आप लोगों को अपनी सोच पैदा करने की जरूरत है, विचारशक्ति पैदा करने की जरूरत है।

अपने विचारों को सुधारो, अपने आचार-विचार-व्यवहार में परिवर्तन लाओ। ‘माँ पर निष्ठा, विश्वास रखो, गुरु पर निष्ठा, विश्वास रखो। आपका गुरु किन्हीं परिस्थितियों की देन नहीं है। जन्म से मेरी आध्यात्मिक यात्रा चल रही है। मेरी जन्मस्थली के लोग जुड़े हुये हैं, मेरे परिवार के लोग जुड़े हुये हैं, उनसे आप लोग मिलें और देखें कि जब लोग जानते नहीं थे कि साधना क्या होती है? तब कहीं एक महीने के, कहीं पन्द्रह दिन के, तो कहीं सोलह दिन के मेरे अखण्ड अनुष्ठान चला करते थे। आप लोगों को उस विचारधारा को, उस सोच को जाग्रत् करके रखना है। एक विचारशक्ति आप लोगों को अपने अन्दर पैदा करना है। जो संगठनात्मक विचार रहते हैं, चिन्तन रहते हैं, समय से उन पर गहराई से अमल किया करो।

संगठन की महाआरतियों में आप लोग अधिक से अधिक सम्मिलित हुआ करो। एक सोच अपने अन्दर पैदा करो और यही सोच आप लोगों को ले करके चलना है। विचार आप लोगों को मिलते रहते हैं। मैं चिन्तन बहुत कुछ दे चुका हूँ। मुझे तो लगा करता है कि मैं आपके बीच केवल आ करके बैठ जाऊँ। शिष्य भी अनेकों, एक दो नहीं, दर्जनों नहीं, पच्चीसों नहीं, हज़ारों शिष्य तैयार हैं कि वे जो बोलते चले जायेंगे, उनमें आप मेरी आवाज, मेरी ऊर्जा का एहसास करेंगे और मैं जो कहना चाहता हूँ, वह शब्द उनके मुख से निकलेंगे। अत: उस विचारशक्ति को प्राप्त करें और इन्हीं शब्दों के साथ मैं अपना पूर्ण आशीर्वाद आप समस्त लोगों को समर्पित करता हूँ।    

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