शक्ति चेतना जनजागरण शिविर, सिद्धाश्रम (म.प्र.)- 11.10.2005
बोलो माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बे मातु की जय!
आज यहाँ उपस्थित अपने समस्त शिष्यों, कार्यकर्ताओं, माँ के भक्तों, श्रद्धालुओं को अपने हृदय में धारण करता हुआ माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा का पूर्ण आशीर्वाद प्राप्त करता हुआ अपना पूर्ण आशीर्वाद आप समस्त लोगों को समर्पित करता हूँ।
शारदीय नवरात्र के ये पावन पवित्र क्षण प्रकृतिसत्ता की ही देन हैं। हिन्दू धर्म में अगर किसी शक्ति की उपासना को महत्त्व दिया जाता है, तो वे माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा ही हैं। किसी भी देवी-देवता के पर्व एक या दो दिन के ही रखे गये होंगे, मगर माता भगवती के पर्व नौ-नौ दिन की दो नवरात्रियाँ समाज को प्राप्त होती हैं। वैसे तो मैंने पूर्व में जानकारी दी है कि नवरात्र के चार पर्व होते हैं। मगर समाज के लिये जो दृश्यरूप हैं, वो दो नवरात्रियाँ हैं- चैत्र नवरात्र और शारदीय नवरात्र। शेष जो दो नवरात्रियाँ साधकों और योगियों के लिये हैं, उन नवरात्रियों का भी उसी तरह से विशेष महत्त्व होता है। समाज के लिये ये जो दो नवरात्रियाँ विशेष तौर पर शक्ति की उपासना के लिये प्राप्त होती हैं, उस प्रकृतिसत्ता के चरणों में अपने आपको समर्पित करने के लिये प्राप्त होती हैं। अपने आपके विचार करने के लिये प्राप्त होती हैं, अपने आपके शोधन करने के लिये प्राप्त होती हैं। इन नवरात्रियों में दिन और रात्रि के क्षण एक समान साधनामय होते हैं। शक्ति की उपासना में नवरात्र पर्व में दो तिथियाँ अति महत्त्वपूर्ण होती हैं, अष्टमी और नवमी। वैसे तो नवरात्र के पूरे क्षण महत्त्वपूर्ण से भी अति महत्त्वपूर्ण होते हैं। जीवन में हम इन क्षणों का उपयोग किसी भी कार्य के लिये कर सकते हैं, सत्कर्मों में, सही कार्यों में। इनमें समय, योगों और तिथियों के विचार करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। मगर साधना सिद्धि में, सत्कर्म करने में, अपने शरीर का शोधन करने में, योगियों, साधकों, समाज के साधकों, ‘माँ’ के भक्तों के लिये अष्टमी और नवमी, ये दो तिथियाँ उन तिथियों में भी अति महत्त्वपूर्ण तिथियाँ होती हैं, क्योंकि ये सिद्धिदायक होती हैं, फलदायक होती हैं।
नवरात्र का पर्व पूरे देश के कोने-कोने में मनाया जाता है। मगर आज जो दिशाधारा भटकी हुयी है, उससे हटकर हमें कुछ विचार करने की आवश्यकता है। शक्ति की उपासना में नाना प्रकार के भटकाव समाज के बीच आ चुके हैं। मैंने बार-बार कहा है कि मेरे चिन्तन, कहानियों और किस्सों से नहीं जुड़े होते। यदि कहानियों और किस्सों के चिन्तन देने की मेरी विचारधारा होती, तो मेरे अनेकों शिष्य इस पात्रता को लिये हुये हैं कि आपको वर्षों कहानियाँ और किस्से सुनाते रह सकते हैं। मेरा चिन्तन होता है तुम्हें उस विचारधारा की ओर ले जाना, जिस विचारधारा पर चल करके आपके इस गुरु ने उस प्रकृतिसत्ता के चरणों के दर्शन प्राप्त किये हैं, उनकी दिव्यता को प्राप्त किया है, अपनी चेतना को प्राप्त किया है।
सत्य की आराधना में हमें कुछ बिन्दुओं पर विचार करने की जरूरत है कि हम शक्ति की आराधना ही क्यों करें? सभी देवी-देवताओं या अन्य देवी-देवताओं की साधना को हम पूर्णता के साथ क्यों न मानें? चूँकि मेरे द्वारा पूर्व में चिन्तन दिये गये हैं कि सभी देवी-देवता अपने आप में एक निर्धारित पूर्णता प्राप्त किये हुये हैं, मगर माता भगवती आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा, जिन्हें मेरे द्वारा कहा जाता है कि जो जन-जन की इष्ट हैं, जन-जन की जननी हैं, उनमें केवल एक विशेषता है जो उन्हें अन्य सभी देवी-देवताओं की विशेषताओं से अलग करता है। सभी देवी-देवता एक निर्धारित काल या जन्म-मरण की परम्परा से जुड़े हुये हैं। वह चाहे ब्रह्मा हों, चाहे विष्णु हों, चाहे महेश हों। इनको भी जन्म देने वाली वह प्रकृतिसत्ता है। मगर केवल एक वह माता भगवती आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा ही अजन्मा हैं, अविनाशी हैं। केवल वही एक ऐसी विराट सत्ता हैं, एक ऐसी शक्ति हैं, जो कभी जन्म नहीं लेतीं। जो सदैव अजन्मा हैं, जो जन्म मरण के क्रमों से परे हैं। जिसे जन्म देने वाली कोई दूसरी सत्ता नहीं, जिसे संचालित करने वाली कोई दूसरी सत्ता नहीं। जो केवल एक लोक की ही जननी नहीं हैं। मैंने बार-बार कहा है और पूर्व में भी चिन्तन दे चुका हूँ कि आगे अगर विज्ञान ने कुछ और तरक्की की, कुछ और आगे बढ़ा, तो उसे इस केवल एक ब्रह्माण्ड का ही ज्ञान नहीं प्राप्त होगा, बल्कि उसे ज्ञान प्राप्त होगा कि इसके परे और भी अनेकों सौरमण्डल हैं, अनेकों सूर्य हैं। निश्चित रूप से विज्ञान भविष्य में इस चीज का ज्ञान अवश्य प्राप्त कर लेगा, चूँकि ज्ञान से विज्ञान की उपज होती है।
हमारे ऋषियों-मुनियों ने, सिद्ध साधकों ने, वेद-पुराणों और शास्त्रों में इन सब चीजों का उल्लेख कर रखा है कि केवल एक ही ब्रह्माण्ड नहीं, अनेकों ब्रह्माण्ड हैं। ब्रह्मा, विष्णु, महेश केवल एक नहीं, अनेकों हैं। हर लोक के संचालक देव अलग हैं, मगर समस्त लोकों, समस्त ब्रह्माण्डों, समस्त सौरमण्डलों की जननी केवल वह माता भगवती आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा हैं। हमें उसी इष्ट को इष्ट मानना चाहिये, जो पूर्ण हो परिपूर्ण हो, जो अजन्मा हो, अविनाशी हो। वास्तविकता में जिसके अंश हम और आप सभी हैं। जिस चेतना का अंश मैं हूँ, जिस चेतना के अंश आप हैं, जो जन-जन की जननी हैं, मानव की जननी हैं, जीवों की जननी हैं, समस्त लोकों की जननी हैं, देवी-देवताओं की जननी हैं। चूँकि अगर पूर्ण ब्रह्माण्ड हमारे अन्दर समाहित है और हम पूर्ण तृप्ति चाहते हैं, पूर्णत्व का विकास चाहते हैं, तो पूर्णत्व की इष्ट की ओर जब हम बढ़ेंगे, पूर्णत्व के पथ पर जब हम बढेंग़े, तभी हमारा पूर्णत्व का विकास होगा और तभी हमें पूर्णत्व की तृप्ति प्राप्त होगी।
नवरात्र के ये पर्व, देवी की आराधना बहुत पिछले काल से चली आ रही है। मगर निश्चित है समाज जो क्षणिक प्रलोभनों में ग्रसित होजाता है, वह अनेकों ऐसे देवी-देवताओं की साधनाओं में बढ़ता चला गया, जो सिर्फ एक काल विशेष के लिये उपस्थित हुये या कुछ कामनाओं विशेष की पूर्ति के लिये उपस्थित हुये। मानव पूर्णत्व के स्वरूप से धीरे-धीरे क्षीण होता गया और सिर्फ कामनाओं के वशीभूत होकरके उन मार्गों में बढ़ता चला गया, जिन मार्गों में बढ़ते हुये आज कलिकाल का वातावरण चारों तरफ छा चुका है। हर मानव अपने आपको मानव कहता है। मगर सभी जन्मों में किसी भी जीव-जन्तु को हम देखें, मनुष्य में जो फर्क है, उस फर्क को हमें समझना चाहिये। भोग-विलास, काम, क्रोध, लोभ, मोह ये सभी जीव-जन्तुओं में हम देख सकते हैं। छोटे-छोटे जीव को देखिये, वह इनसे उसी प्रकार ग्रसित रहता है, जिस प्रकार मानव भी आज उसी प्रकार ग्रसित होता चला जा रहा है। उनमें तो वह विशेषता कुछ जीवों में शेष बची है कि वह भविष्य की घटनाओं का एहसास कर लेते हैं। अनेकों जीव होते हैं कि जब कोई घटना घटित होने वाली होती है, कहीं पर किसी प्रकार की ऐसी कोई प्रलय आने वाली हो, भूकम्प आने वाला हो या किसी प्रकार की बाढ़ आने वाली हो, तो उन जीव-जन्तुओं में विशेष हलचल तो वैज्ञानिक पकड़ लेते हैं, मगर मानव पूरी तरह से सोता रहता है।
मानव को उन चीजों का एहसास नहीं हो पाता। उन जीवों से मानवजीवन इतना महान है कि जिसके लिये देवाधि-देवों के लिये भी कहा गया है कि मानवजीवन को प्राप्त करने के लिये वो भी तरसते हैं। तरसते मात्र इसलिये हैं कि मानवजीवन धर्म अर्जन के लिये बना हुआ है। मानवजीवन बना हुआ है अनेकों योनियों से गुजर करके, निकल करके उस मुक्ति मार्ग पर पहुँच जाने के लिये, उस दिव्यधाम को प्राप्त कर लेने के लिये, उस पूर्णत्व को प्राप्त कर लेने के लिये और उस पूर्णत्व को प्राप्त करके उस पूर्णत्व का, मानवता का जीवन प्राप्त करने के लिये कि हम भूत, भविष्य और वर्तमान की अनेकों जानकारियों को हासिल कर सकें और उसी तरह अपने जीवन को संचालित कर सकें। मगर जन्म-दर-जन्म मनुष्य ज्यों-ज्यों नीचे गिरता चला जा रहा है, उसकी याददाश्त, कल्पना, विचारशक्ति, कार्य करने की शक्ति केवल एक पक्ष में सीमित होती जा रही है और धीरे-धीरे वह भी विनाश की ओर बढ़ती जा रही है। जो उसके भौतिक प्रलोभन थे, भौतिक कामनाओं की लालसा थी या केवल भौतिकतावाद के पीछे भाग रहा था, धीरे-धीरे वह भौतिकतावाद भी उसका क्षीण होता जा रहा है। उसमें भी उसकी पकड़ क्षीण होती जा रही है।
मनुष्य जन्म-दर-जन्म केवल विनाश के पथ पर बढ़ रहा है। इस विनाश के पथ को रोकने के लिये केवल एक मार्ग है कि हम साधक का पथ अपनायें, साधनात्मक जीवन जियें। धर्म का स्वरूप जिस प्रकार भटक रहा है, भक्ति का स्वरूप जिस प्रकार भटक रहा है, मेरा विशेष चिन्तन होगा केवल भक्ति के स्वरूप पर कि समाज में जिस प्रकार भक्ति का स्वरूप भटकता चला जा रहा है, शिष्यत्व का स्वरूप भटकता चला जा रहा है, समाज एक सौदागर बनता चला जा रहा है। धर्म मात्र इसके लिये नहीं है, धर्म की शरण में केवल इसके लिये नहीं जाया जाता है कि हमारी समस्यायें, हम केवल उन समस्याओं की मुक्ति के लिये धर्म की शरण में जायें, गुरु की शरण में हम केवल अपनी भौतिक समस्याओं के निवारण और कामनाओं की पूर्ति के लिये जायें। यह बहुत ओछी विचारधारा होती है, बहुत उथली विचारधारा होती है। गुरु की शरण में, प्रकृति की शरण में, उस प्रकृतिसत्ता की शरण में आत्मकल्याण के लिये जाना चाहिये। उस सत्य को समझना चाहिये कि प्रकृतिसत्ता ने अपना एक अंश हमारे अन्दर दिया है। उस चैतन्यता के अंश को, जिस मानवजीवन को, पाने के लिये देवाधिदेव भी तरसते हैं, उस मानवजीवन की चैतन्यता के लिये हम क्यों नहीं प्रयास कर सकते? हमारी भक्ति में वह पुकार क्यों नहीं है? हम क्यों व्यथित जीवन जी रहे हैं? क्यों हम तनाव का जीवन जी रहे हैं? चूँकि हमारे स्वर में वह शक्ति नहीं है, हमारी भक्ति में वह तरंग नहीं है। हमारे अन्दर वह चेतनाशक्ति नहीं है, जिस चेतनाशक्ति के बल पर हमारी एक ध्वनि से उस शक्ति तक आवाज पहुँचे। एक पल में हम उस प्रकृतिसत्ता के दर्शनों को प्राप्त कर सकें, अपने जीवन को चैतन्यता से जी सकें, भयमुक्त जीवन जी सकें, एक कर्मवान जीवन जी सकें। सिर उठाकर कह सकें कि हम मानव हैं। यह सब हो सकता है। इसके लिये प्रयास करने की आवश्यकता है। मानवयोनि प्राप्त करने के बाद ऐसा नहीं होता है कि कुछ दुष्कर्म होते ही मानवयोनि बदल जाती है। बार-बार मनुष्य को जन्म लेना पड़ता है। अनेकों बार प्रकृति मौके देती है कि उस मुक्ति के पथ पर मनुष्य बढ़ सके। मगर यदि वह नहीं बढ़ पाता, तो उस विलयकाल तक, उस प्रलयकाल तक मनुष्य बार-बार जन्म लेता रहता है और कष्टों को भोगता रहता है।
यदि मनुष्य चाहता है कि वास्तव में हम अपना हित करना चाहते हैं, वास्तव में हम अपने बच्चों का हित करना चाहते हैं, वास्तव में हम समाज का हित करना चाहते हैं, तो उस अविनाशी सत्ता की शरण में जाना होगा, उस अविनाशी सत्ता को इष्ट के रूप में मानना होगा। और, शरण में जाने का तात्पर्य कहीं दूर भागने की जरूरत नहीं, अपने आपको समझने की जरूरत है, अपने आपको खोजने की जरूरत है। उसी प्रकृतिसत्ता का अंश मुझमें है, जिस अविनाशी प्रकृतिसत्ता का अंश ब्रह्मा, विष्णु, महेश में है और वही अंश आपके अन्दर भी बैठा हुआ है। हम क्यों नहीं उसकी शरण में जाते? हम क्यों नहीं उसके सामने याचक बन जाते?
इस त्रिगुणात्मक प्रकृति को हम क्यों नहीं समझते, जो तमोगुण, रजोगुण और सतोगुण से परिपूर्ण है? हम क्यों नहीं सतोगुण का अधिपत्य अपने ऊपर जमा लेते? यह सब कुछ हम कर सकते हैं। इसके लिये हमें कदम उठाना ही होगा। निश्चित है मैंने पूर्व जीवन के बारे में जो समाज को चिन्तन दिया है, तो मैंने कभी नहीं कहा है कि मैं किसी देवी-देवता का अवतार हूँ। मैंने अनेकों मंचों से कहा है कि मैं ऋषित्व का जीवन जीता था, ऋषित्व का जीवन जीता हूँ और ऋषित्व का जीवन जीता रहूँगा। मैं उस दिव्यधाम के संस्थापक-संचालक योगेश्वर स्वामी सच्चिदानन्द का अवतार हूँ, जो ऋषित्व का जीवन जीते हैं। मैंने अपना परिचय समाज को दिया है। मैंने अपनी सामर्थ्य समाज को बतलाई है। मगर इसका तात्पर्य यह नहीं कि उस सामर्थ्य के अनुसार मैं अपनी ऊर्जा को लुटाता और नष्ट करता केवल इसलिये फिरूँगा कि लोग मेरे जैकारे लगायें, लोग मुझे मानने लगें। मैं उस सत्य की स्थापना करने आया हूँ। आपकी भौतिक समस्याओं से बढ़कर जो मेरे सामने सबसे ज्यादा व्यथित करने वाली चीज होती है कि मैं आप लोगों की उस अन्तरात्मा को देखता हूँ कि आपकी आत्मा का कल्याण किस प्रकार से होगा? आत्मा के ऊपर पड़ा हुआ जो आवरण है, जब तक वह नहीं हटाया जायेगा, तब तक आत्मा की वह चैतन्यता उभर करके आपके चेहरे पर नज़र नहीं आयेगी। आपकी समस्यायें एक के बाद एक बढ़ती रहेंगी। एक समस्या का समाधान किया जायेगा और दूसरी नई समस्या आपके सामने उपजकर खड़ी हो जायेगी।
मैंने बार-बार कहा है कि जहाँ मैंने अपना परिचय दिया है, वहाँ मैंने बतलाया है कि मात्र इतने वर्षों में, जब तक इस आश्रम में नहीं आया था, इससे पहले की अनेकों घटनायें हैं, ऐसा किसी भी प्रकार का कार्य नहीं है जो समाज के बीच खड़े होकर प्रमाणित तौर पर कह करके समाज के बीच न किया गया हो। उस तरह के कार्य मैं सैकड़ों कर सकता हूँ। मगर मैंने बार-बार कहा है कि मैं अपने संकल्प से बंधा हुआ हूँ। मेरा संकल्प है सत्य की स्थापना, मेरा संकल्प है समाज में साधकों का निर्माण, मेरा संकल्प है कि समाज में जो सिर झुकाकरके चलते थे, वे सीना तान करके चल सकें। संस्कारवान् समाज का निर्माण कर सकूँ और अनीति-अन्याय-अधर्म के ऊपर सत्य का वर्चस्व स्थापित हो, उस नींव की स्थापना करने आया हूँ।
इस पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम के लिये मैंने बार-बार कहा है कि हो सके तो अपनी डायरियों में लिख करके रख लीजिये। हो सकता है आप अपने सामने उस पूर्णत्व को न देख सकें, मगर आपके बच्चे देख सकेंगे, तो आज मेरी कही हुयी बातों की सत्यता का एहसास होगा कि आने वाले भविष्य में यह विश्व की धर्मधुरी कहलायेगी। आप अपनी कामनाओं को लेकर व्यथित होते हैं, उधर मैं भी व्यथित होता हूँ, मगर फिर भी मैंने बार-बार कहा है कि मेरी व्यथा किसी दूसरे मार्ग से जुड़ी हुई है। दिन-रात मेरी जो एकान्त की साधना है, मेरे एकान्त के जो चिन्तन हैं, मेरी चेतना की जो तरंगें हैं, वह आपकी आत्मा को चैतन्यता प्रदान करने के कार्यों में लगी रहती हैं। यहाँ के वातावरण को मुझे जिस दिव्यता की ओर ले जाना है, उसे आज पाँच प्रतिशत ही चैतन्य कर पाया हूँ। इस आश्रम को जो दिव्यता मुझे प्रदान करना है, वह दिव्यता जिस क्षण पूर्णत्व पर होगी, आप स्वतः देखेंगे कि विश्व के कोने-कोने के लोग आकर्षित होकर यहाँ उपस्थित होंगे। उस आकर्षण में वह शक्ति और सामर्थ्य है।
भूत, भविष्य, वर्तमान ऐसा कोई काल नहीं, जिस काल की घटनायें मैं बता नहीं चुका हूँ। मैंने बार-बार कहा है कि मेरे द्वारा किये गये उन कार्यों को देखो। तुम मुझे सामान्य मानव मानो या दिव्य मानव मानो, इससे मेरे लिये कोई फर्क नहीं पड़ता। मैं उस प्रकृतिसत्ता का कौन सा अंश हूँ, प्रकृतिसत्ता के किस कार्य के लिये लिये यहाँ आया हूँ, वह प्रकृतिसत्ता मुझे उस रूप में मान रही है या नहीं, मेरी निगाहें केवल उस ओर रहती हैं। तुम मुझे मान दो, अपमान दो, इसके लिये मेरे जीवन में कोई फर्क नहीं पड़ेगा। उस धैर्यता में कोई आँच नहीं आयेगी। मगर दो कदम यदि कोई सत्यपथ पर चलता है, तो उसे दस कदम अपनाकर दस कदम की ऊर्जा प्रदान करता हूँ और जो दो कदम विरोध के पथ पर चलता है, उसे दस कदम पतन के मार्ग पर फेंकने की सामर्थ्य भी रखता हूँ। समाज में आप स्वतः देखते चले जायें, खुली आँखों से देखें कि जो भी शिष्य निष्ठा-विश्वास से चला है, उसे क्या फल प्राप्त हुआ है, उसे कितनी आत्मिक चैतन्यता प्राप्त हुयी है और जो विमुख हो करके गया है, उसके चारों तरफ दुर्भाग्य किस तरह से छाता चला गया है?
नवरात्र पर्व हमें साधनामय जीवन जीने के लिये प्राप्त होते हैं। आप लोग जो यहाँ उपस्थित हुये हैं मन, वचन और कर्म से इस दिव्यस्थल पर सात्त्विकता और पवित्रता बना करके रखेंगे। उस सत्य का एहसास करेंगे कि हम गुरु की कृपा प्राप्त करना चाहते हैं।
मुझे जब तक प्रकृतिसत्ता से स्वतन्त्रता मिली हुयी थी, मैंने समाज के बीच कार्य किये हैं। समाज के बीच के अनेकों शिष्य यहाँ उपस्थित हैं और वह घटनायें अगर आप चाहेंगे तो वे ही अनेकों घटनायें बता देंगे। उनसे आप लोग मिल सकते हैं। मगर मैं उसी एक किसान की तरह कार्य कर रहा हूँ कि जिस तरह एक किसान के पास अगर दस बच्चे हों, वह भूखे भी हों और उसके पास अगर कुछ बीज सुरक्षित बचा है, तो वह फिर भी बीज को कभी नष्ट नहीं होने देता। बीज को सबसे पहले अपने खेतों में जाकर बोयेगा, अपने बच्चों से वह भले कह दे कि एक समय ही भोजन करो। मुझे भी आप लोगों की व्यथायें व्यथित करती हैं। पूर्णत्व को प्राप्त करके भी मैं अपने आपसे कभी व्यथित नहीं रहा, मगर आप लोगों की समस्यायें मुझे व्यथित करती हैं, दुःखी होता हूँ। मगर मैं संकल्प से बंधा हुआ हूँ। ‘माँ’ के चरणों से अगर मेरी ऊर्जा, जो मेरी चेतना की तरंगें समाज में डाली जाती हैं, वह केवल एक कार्य के लिये हैं कि समाज का आत्मिक कल्याण हो। जो प्रकृतिसत्ता के अंश एक बन्धन के रूप में समाज में पड़े हुये हैं, उन बन्धनों से उन चेतनाओं को मुक्त करा सकूँ। जो विकारों से ग्रसित हैं, उन्हें विकारमुक्त करा सकूँ और इसके लिये केवल एक पक्ष से कार्य नहीं हो सकता। इसके लिये आप लोगों के अन्दर भक्तिभाव होना चाहिये।
भक्तिभाव कह देने मात्र से नहीं आता, शिष्य बन जाने मात्र से हम शिष्य नहीं होजाते, शिष्य बन जाने मात्र से हमें गुरु की कृपा प्राप्त नहीं होजाती। मैं कह दूँ कि मैं उस प्रकृतिसत्ता ‘माँ’ का भक्त हूँ, उनका शिष्य हूँ, उनका आराधक हूँ, तो इससे मेरे जीवन में पूर्णता नहीं आ जायेगी। हमें ‘माँ’ शब्द की गहराई में डूबना होगा। जिस तरह एक पिता कह दे कि मैं इस पुत्र का पिता हूँ, तो कह देने मात्र से उसके रिश्ते नहीं जुड़ जाते। उसके पिता कहने के आगे-पीछे वह कर्मक्षेत्र जुड़ा हुआ होता है कि बचपन से लेकर युवावस्था तक माता-पिता अपने बच्चों की किस तरह देखभाल करते हैं, किस तरह उनके आचार-विचार, व्यवहार और सब चीजों पर अपना पूरा सहयोग देते है, उनका रख-रखाव रखते हैं। एक पिता जब कहता है कि मैं पिता हूँ, तो वह पूरी विचारधारा जुड़ी होती है। उसी तरह जब हम ‘माँ’ को पुकारते हैं, तो क्या हम ‘माँ’ के उस स्वरूप का आकलन कर पाते हैं? क्या हममें वह ओछापन नहीं आजाता कि जब हम केवल अपनी भौतिक कामनाओं की बौछार कर देते हैं। कभी क्या हम एहसास करते हैं कि उस प्रकृतिसत्ता को, जिसे सर्वशक्तिमान कहा गया है, जिसे जगत् जननी कहा गया है, जो ममतामयी हैं, करुणामयी हैं, कृपामयी हैं, उनके समक्ष क्या हमें अपनी समस्याओं की बौछार करने की जरूरत है? क्या हमारे बारे में वे इतना भी नहीं जानतीं? क्या हमें उनके चरणों की कृपा पाने के लिये, उनकी ऊर्जा को पाने के लिये इतना भी लालायित नहीं होना चाहिये कि हे ममतामयी माँ, हे कृपामयी माँ, हे दयालू माँ हमें अपनी कृपा दे दो, हमें अपने चरणों का दास बना लो, हमें आत्मा की चैतन्यता प्रदान कर दो। ‘माँ’ शब्द कहने से क्या उनकी दिव्यता, उनकी भव्यता हमारी आँखों के सामने नाच जाती है? क्या हम उस तरह नतमस्तक होते हैं ‘माँ’ के चरणों में? हमारी कामनाओं की अगर पूर्ति नहीं होती है, तो हमारे विचार क्यों भटक जाते हैं? अगर वह सर्वशक्तिमान सत्ता है, तो हमारे विचार भटकने से क्या वह सर्वशक्तिमान सत्ता नहीं रहेगी? आपको अपने मन को एकाग्र करने की जरूरत है। कोई भी चैतन्य योगी, जिसे आप अपनी समस्याओं को बतायें या न बतायें, उसके कार्य करने का जो तरीका होता है उस क्षेत्र से वह बराबर लाभ देता रहता है।
मेरे द्वारा बार-बार बतलाया जाता है फिर भी समाज दिग्भ्रमित होजाता है। सुबह अगर आधे घण्टे के लिये पूजन में बैठेंगे, तो सौ प्रकार की कामनाएं प्रकृतिसत्ता के चरणों में रख देंगे। मैंने कहा है कि उस प्रकृतिसत्ता से अगर माँगना है तो भक्ति, ज्ञान और आत्मशक्ति माँगो। छोटी-छोटी कामनाओं की सौ कामनायें रखने में अपना अमूल्य समय क्यों नष्ट कर देते हो और यह एहसास करा करके तुम अपनी अज्ञानता खुद प्रकट कर देते हो कि तुम कितने अज्ञानी हो, कितने अनजान हो? बचपन से आज तक याद करता हूँ तो उस प्रकृतिसत्ता के चरणों में मैंने जब भी कुछ माँगने का प्रयास किया है, तो केवल प्रकृतिसत्ता के चरणों की कृपा माँगी है। इस मार्ग में भी पूर्णत्व तक बढऩे के लिये समाज में जब तक मैंने कोई लक्ष्य निर्धारित नहीं किया, यदि कोई भी कामना मुझे व्यथित करती रही हो, तो हर हाल में मैंने ‘माँ’ के चरणों में केवल एक कामना माँगी है कि कभी मेरी किसी ऐसी कामना की पूर्ति न हो, जिससे मैं सत्यपथ से विमुख हो जाऊँ।
समाज में कहानी, किस्से सुनाने वाले गुरुओं की भरमार है। आप जिसे चाहें, उसे गुरु बना सकते हैं। मेरे द्वारा कभी नहीं कहा जाता कि आप मेरे शिष्य बनें। मगर जिस कार्यक्षेत्र की स्थापना करने यहाँ आया हूँ, उस कार्यक्षेत्र की स्थापना में मेरे अनेकों सहायक शिष्य समाज के कोने-कोने में मौजूद हैं। समय के साथ वे खुद उभर करके आगे आते चले जायेंगे और एक परिवर्तन समाज में आता चला जायेगा।
साधना काल में, नवरात्र पर्व में हमें जो समय और क्षण मिला करते हैं, उस प्रकृतिसत्ता की आराधना में भक्तिभाव से अपने आपको समर्पित करें। भक्ति कह देने मात्र से नहीं होती, भक्ति में प्रेम चाहिये, लगाव चाहिये। चाहे गुरु से हो, चाहे उस प्रकृतिसत्ता से हो। जब तक हमारे अन्दर प्रेम नहीं होगा, तब तक लगाव जाग्रत् नहीं होगा, चूँकि प्रेम हमेशा हमें ऊँचाइयों की ओर लेजाता है। मगर आज प्रेम शब्द का उद्बोधन केवल विषय-विकारों और वासनाओं के लिये होकर रह गया है। माता-पिता और पुत्र के बीच का प्रेम क्या होता है? भाई-भाई के बीच का प्रेम क्या होता है? गुरु और शिष्य के बीच का प्रेम क्या होता है? उस प्रेम की गहराई में हम डूब ही नहीं पाते। झाँक ही नहीं पाते गुरु के हृदय में कि हमारे प्रति कितनी तड़प है, गुरु हमें क्या प्रदान करना चाहता है? आखिर, हमारे प्रेम में उथलापन क्यों रह जाता है? क्यों हम प्रेम की उस गहराई को प्राप्त नहीं कर पाते? क्यों हम उस समर्पण को प्राप्त नहीं कर पाते कि गुरु की चेतनातरंगें बरबस हमें चारों ओर से आच्छादित कर लें और हमारी आन्तरिक चेतना जाग्रत् होने लगे।
मैंने बार-बार कहा है कि मेरे लिये कोई भी कार्य कठिन नहीं है और मैं जड़ से जड़ व्यक्ति को भी चैतन्य बना सकता हूँ। अभी पिछली बार आप लोगों ने देखा होगा कि जब मैं जिस जगह चाहूँ, एक ऐसा आकर्षण, एक ऐसी चैतन्यता पैदा कर सकता हूँ कि जिस तरह का चाहूँ, उस तरह का स्वरूप मोड़ सकता हूँ। हरियाणा के शिविर के बाद वापस आते समय जब खजुराहो से होकर यात्रा आ रही थी, चूँकि शिष्यों की मानसिक स्थिति को मैं महसूस कर रहा था कि जब वहीं से यात्रा जा रही है, तो हम लोग भी वहीं से जायेंगे और खजुराहो के मन्दिरों का दर्शन करेंगे। मैं कहता कुछ नहीं, मगर मेरे कार्य करने के तरीके तत्काल बदल जाते हैं। समाज को जिस रूप में मुझे ढालना होता है, मैं उसे उस रूप में ढाल लेता हूँ। मेरे पूर्व से जुड़े हुये अनेकों जो शिष्य हैं, उन्हें मैं अनेकों बार एहसास करा चुका हूँ कि मैंने जब जहाँ चाहा है बरसात करा दी है और जितने क्षेत्रफल में चाहा है, उतने क्षेत्र में बरसात नहीं हुयी है। मैंने समाज में प्रमाणित करने के लिये स्वतः कहा था कि मेरे प्रारम्भिक आठ महाशक्तियज्ञ जहाँ-जहाँ भी होंगे, उन हर यज्ञों में बरसात अवश्य होगी। आठ यज्ञों में से अनेकों शिष्य ऐसे हैं, जिनके माध्यम से यज्ञ हुये हैं। उन सभी लोगों से आप मिल सकते हैं। मैं चाहूँ तो प्रकृति को जहाँ जैसा चाहूँ, वैसा अपने अनुरूप ढाल सकता हूँ। मगर मैं प्रकृतिसत्ता की बनायी हुयी परम्परा को नष्ट करने नहीं आया हूँ, उसमें और सहयोगी बनने आया हूँ, उसका कार्य करने आया हूँ, उसका माध्यम बन करके आया हूँ।
मैंने कहा ठीक है चौहान, अपनी गाड़ी खजुराहो की तरफ मोड़ो, यात्रा खजुराहो से ही जायेगी। मैं देखता हूँ कि एक गुरु की चेतनातरंगों में शक्ति सामर्थ्य है या कि खजुराहो की उन नग्न मूर्तियों में शक्ति सामर्थ्य है। यात्रा को लेजा करके खजुराहो के बीच में रोका गया और सैकड़ों-हज़ारों जो शिष्य थे, वे खुद उन क्षणों के साक्षीभूत हैं कि कुछ ही क्षणों में उनकी जो वेदना, जो तड़प मेरे प्रति जाग्रत् हुयी कि वे सभी रो रहे थे, तड़प रहे थे। जिनकी आँखों में कभी आँसू न देखे गये होंगे कि हम बड़े हैं हमने कभी रोया नहीं है, वे सभी रो रहे थे। कुछ क्षणों में ही खजुराहो देखने वाले इधर-उधर से आये हुये जो यात्री थे, घूम-घूम करके वह दृश्य देखने के लिये आ करके खड़े होने लगे। मैंने चौहान से कहा, चौहान अपनी गाड़ी मोड़ो, अब ज्यादा समय यहाँ देना उचित नहीं है। चूँकि अगर ज्यादा समय यहाँ दिया गया, तो पूरा का पूरा खजुराहो यहाँ उपस्थित हो जायेगा।
मैं जिस क्षण चाहूँ, जहाँ चाहूँ, वैसे अपने अनुरूप समाज को मोड़ सकता हूँ। आप लोगों को भी तत्काल उस दिशा में मोड़ सकता हूँ। ‘माँ’ का ऐसा भक्त बना सकता हूँ कि आप तड़पेंगे, व्याकुल होंगे ‘माँ’ के चरणों में। कभी इस आश्रम से जाने की बात भी नहीं करेंगे, मगर इससे आपका कर्मपक्ष नष्ट होगा। मैं कर्मवान् बनाने आया हूँ। झलकियाँ दिखा देता हूँ, एहसास करा देता हूँ कि मेरे लिये कोई कार्य असम्भव नहीं है। मगर मैं जो कुछ भी करता हूँ, उस माता भगवती आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा की कृपा से करता हूँ। इस स्थूल शरीर की कोई शक्ति और सामर्थ्य नहीं है। जो कुछ पाया है, मैंने उस प्रकृतिसत्ता से पाया है। उन चेतनातरंगों में वह शक्ति सामर्थ्य है कि आप सब लोगों को चेतनावान् बना सकती है। मगर उन चेतनातरंगों को ग्रहण तो करें। अपने अन्दर वह आकर्षण तो पैदा करें। अपने अन्दर वह लगाव तो पैदा करें। केवल शिष्य बन जाने से कल्याण नहीं होता, केवल भक्त बन जाने से कल्याण नहीं होता कि हम ‘माँ’ के दरबार में आ गये, केवल उससे कल्याण नहीं होगा। मेरी एकान्त की जो साधना होती है, उससे मेरे कार्य उन चेतनातरंगों के माध्यम से होते हैं। आप लोग मेरे नजदीक आते हैं। अनेकों ऐसे शिष्य आते हैं जिनसे मेरी चेतनातरंगें तत्काल रिटर्न होने लगती हैं, वापस होने लगती हैं। उनके अन्दर इतनी भी पात्रता नहीं कि इस आश्रम के अन्दर आ करके भी मेरी चेतनातरंगों को ग्रहण कर सकें। वहीं अनेकों ऐसे शिष्य हैं जो पूर्णता से उन चेतनातरंगों को ग्रहण करते हैं। उन चेतनातरंगों को ग्रहण करने की पात्रता हो, तो आप सभी लोग ग्रहण कर सकते हैं।
मैं साधक का जीवन जीता हूँ। मेरे कार्य करने के तरीके अलग हैं। मैं आप लोगों के सामने ज्यादा समय बैठता हूँ या न बैठता हूँ, आप लोगों को चरणस्पर्श कराने का मौका देता हूँ या न देता हूँ, मगर मेरे एकान्त के चिन्तन आपके एक-एक क्षण का मूल्य देने के लिये तत्पर रहते हैं और वह कार्य चेतनातरंगों के माध्यम से होते हैं। मैंने बार-बार कहा कि मैं एक बूँद जल का भी ऋण किसी का नहीं रखता। एक क्षण किसी का ऋण नहीं रखता। जिन क्षणों से आप घर से यहाँ के लिये यात्रा कर रहे होते हैं, जितने क्षण यहाँ रुकेंगे, जितने क्षण यहाँ बितायेंगे, उन क्षणों को जितना आप लोगों के अन्दर पात्रता होगी, उस पात्रता से दस गुना ज्यादा फल देने के लिये सदैव तत्पर रहता हूँ। आप लोग एहसास करेंगे कि धीरे-धीरे आप लोगों के अन्दर परिवर्तन आता चला जायेगा। उस प्रकृतिसत्ता को इष्ट के रूप में मानें तो, गुरु को गुरु के रूप में मानें तो, वह प्रेम और स्नेह तुम्हारे अन्दर जाग्रत् तो हो।
मैं किसी भी गरीब को धनवान बना सकता हूँ, मेरे लिये कोई कठिन कार्य नहीं है। किसी बेरोजगार को नौकरी दिला सकता हूँ। एक नहीं सैकड़ों प्रमाण हैं कि जिन्हें दो कदम मैंने आगे बढ़ाया, वह केवल भटक गया। इस आश्रम में आने से पहले मैंने अपने आपको उस संकल्प की ऊर्जा से बाँध दिया है कि चेतनातरंगों के माध्यम से कार्य करूँगा। उस संकल्प के माध्यम से कार्य करूँगा कि ‘माँ’ के दरबार में आओ और ‘माँ’ के मूलध्वज में अपने आपको नतमस्तक करो और ‘माँ’ के याचक बनो, ‘माँ’ के चरणों में प्रार्थना करो। यदि उस ‘माँ’ के प्रति तुम्हारी सच्ची भक्ति होगी, तो मैं अपने आपको हर भक्त का सेवक समझता हूँ। उसका सहायक बनने के लिये मैं हर पल तैयार रहता हूँ। मगर उसमें छल और दिखावा न हो।
आपके अन्दर एक क्षण के लिये बहुत ज्यादा भक्तिभाव जाग्रत् होजाता है और फिर महीने पन्द्रह दिन में वह भक्तिभाव कहाँ चला जाता है? उस स्थायित्व को जिस दिन आप लोगों ने प्राप्त कर लिया कि जितना हमारे अन्दर स्थायित्व आता चला जायेगा वह बढ़ेगा, घटेगा नहीं, तो आप स्वतः देखेंगे कि एक चेतना का प्रवाह आप लोगों के अन्दर समाहित होता चला जायेगा। आपका गुरु कहता है कि एक नहीं, अनेकों जन्म अगर कोढिय़ों और अपाहिजों का जीवन जीना पड़े, चाहे जितना बड़ा से बड़ा कष्ट हो, फिर भी मैं इस मार्ग से कभी विमुख नहीं हो सकता। मैंने बार-बार कहा है कि मैं जिस प्रकृतिसत्ता का उपासक हूँ, जिस प्रकृतिसत्ता का मैं अराधक हूँ, जिस प्रकृतिसत्ता का मैं रजकण हूँ, किसी भी देवी-देवता पर विजय पाना मेरे लिये क्षण भर का कार्य है। कोई भी देवी-देवता मुझे व्यथित नहीं कर सकते। जिस चीज का मैं निर्णय ले लूँ, जिस कार्य का मैं संकल्प ले लूँ, जिस चीज का संकल्प ले करके मैं कह दूँ कि मैं ऐसा करूँगा, तो कोई देवी-देवता उसमें बाधक नहीं बनते। मगर एक सर्वशक्तिमान सत्ता है, वह है माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा। जिससे आज तक न तो कोई पार पाया है और न कोई पार पा सकेगा। जिसके सामने सब नतमस्तक होते हैं। जिनका स्थान सभी देवी-देवताओं से बढ़ करके माना गया है।
गुरु के लिए कहा गया है कि अगर देवता रूठ जायें, तो गुरु मना सकता है मगर यदि गुरु रूठ जाये, तो उसे कोई ठीक नहीं कर सकता। मैंने कहा है कि एक सर्वशक्तिमान सत्ता है। गुरु से बढ़करके एक सर्वशक्तिमान सत्ता है, वह माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा हैं। वे ऋषि-मुनि हों, योगी हों, साधु-संन्यासी हों, देवी-देवता हों, सब जिसके चरणों में नतमस्तक होते हैं और जिनका आज तक न कोई पार पाया है, न पार पा सकेगा। मगर कम से कम उस प्रकृतिसत्ता की मैंने इतनी कृपा अवश्य प्राप्त की है कि आप अपने गुरु के सामने यह कहने की सामर्थ्य नहीं रखते कि गुरुजी हमारे सामने चाहे जितनी प्रकार की भ्रान्तियाँ पैदा कर दें, चाहे जितने प्रकार के संघर्ष पैदा कर दें, हमारे अन्दर जो प्रेम और स्नेह है, हमने जिस लक्ष्य का वीणा ठाना है, जो संकल्प लिया है, उससे हमें कोई विमुख नहीं कर सकता। मगर आपका गुरु उन्हीं वचनों के साथ कहता है और इसमें कोई गर्व या घमण्ड नहीं है, वह ममता की तरंगें हैं, वह किरणें हैं जिनको मैंने सत्यता के साथ अपने हृदय में धारण किया है कि एक नहीं, अनेकों जन्म कोढिय़ों का व्यतीत करने के लिये दे दिया जाये, अपाहिजों का व्यतीत करने के लिये दे दिया जाये, उस माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा में अगर कोई शक्ति सामर्थ्य है, तो मुझे अपने से विमुख करके देखे।
यह शक्ति आपमें क्यों नहीं आती? इसलिये कि आपने उस शक्ति की अपने हृदय में स्थापना नहीं की। जिस दिन अपने हृदय में उस शक्ति की स्थापना कर लोगे, अपने जीवन का एक-एक पल उस शक्ति की कृपा से ही जी रहे होगे। अगर मैं जीवन जी रहा हूँ तो उस प्रकृतिसत्ता की कृपा पर, अगर एक शब्द बोल रहा हूँ तो उस प्रकृतिसत्ता की कृपा पर, अगर एक पग चल रहा हूँ तो उस प्रकृतिसत्ता की कृपा पर, उस ममतामयी की कृपा पर और उस कृपा को अगर तुमने हृदय में पूर्णता से स्थापित कर लिया है, उस हृदय का शेष हिस्सा किसी दूसरे बिन्दु को स्थापित करने के लिये नहीं छोड़ा है, तो दुनिया की कोई ताकत नहीं है जो तुम्हें प्रकृतिसत्ता से विमुख कर सके, दुनिया का कोई संघर्ष नहीं जो तुम्हें प्रकृतिसत्ता से विमुख कर सके। तभी तुम चल सकोगे सत्यपथ पर। तभी तुम चल सकोगे जनकल्याण के पथ पर। तभी मेरी उस विचारधारा, भगवती मानव कल्याण संगठन की विचारधारा पर ढल सकोगे।
इस कलिकाल में नाना प्रकार की भ्रान्तियाँ फैली हैं कि देवी माता लोगों पर सवार होजाती हैं। नवरात्र पर जगह-जगह इन चीजों को देखोगे, जबकि ऐसा कभी नहीं होता। कोई शक्ति किसी पर सवार नहीं होती, किसी पर अभुवाती नहीं। आप घसीटकर उसे तमाचा मार सकते हो, जो कहता है कि मुझ पर देवी सवार है और देखें कि वह आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकेगा। मगर मैं कहता हूँ कि उस प्रकृतिसत्ता की तो बात छोड़ो, एक चैतन्य योगी जब अपने पूर्णत्व के साथ बैठा हुआ हो, तब अपने अन्दर गलत विचार बना करके तो देखो, कुछ ही समय के अन्दर आपको उसका परिणाम मिल जायेगा। चूँकि जहाँ सत्यता होती है, जहाँ दिव्यता होती है, वे चेतनातरंगें आपके मन के अन्दर के एक-एक भावों को स्पर्श करती रहती हैं। मुझे अपने बारे में बताने का तात्पर्य यह नहीं होता कि तुम मुझे उस रूप में मानो। चूँकि मेरा धर्म और कर्तव्य बनता है, कर्म बनता है यह बताना कि समाज में मैं किसलिये आया हूँ, मेरा कार्यक्षेत्र क्या है और मुझे किस तरह से कार्य करना है? और जब तुम उस विचारधारा पर, चूँकि शिष्यत्व का तात्पर्य होता है कि गुरु में समा जाना, गुरु की विचारधारा में अपने आपको समाहित कर देना और जब तक गुरु की विचारधारा में अपने आपको समाहित नहीं करोगे, तब तक उस विचारधारा की ऊर्जा को प्राप्त नहीं कर पाओगे। उस ऊर्जा को अगर प्राप्त करना है, तो उसी विचारधारा में अपने आपको ढालना पड़ेगा।
आहार, विहार करने को तो अनेकों जीवन मिल जायेेंगे, अनेकों योनियां मिल जाती हैं। मगर मानवजीवन में यदि वास्तव में आप उस मुक्तिमार्ग में बढऩा चाहते हैं, यदि चाहते हैं कि हम एक जीवन पूर्ण निष्ठा और विश्वास के साथ गुजार दें, उस दिव्यलोक का एक पल के लिए यदि दर्शन प्राप्त कर लें, तो एक पल के दर्शनमात्र प्राप्त कर लेने से सैकड़ों-हज़ारों योनियाँ सुधर जाती हैं। तुम्हें उस सत्यमार्ग पर चलना पड़ेगा और उसके लिये अपने आपको विकारमुक्त बनाने के लिये मैंने बार-बार कहा है कि सबसे पहले साधन आता है आहार। हम जिस प्रकार का आहार कर रहे होते हैं, वह शुद्ध, सात्त्विक और पवित्र होना चाहिए तथा माँसाहार कभी भी न करें।
सर्वप्रथम, अपने आहार पर सुधार करें और फिर यम, नियम। मैंने अष्टांग योग के बारे में बताया है कि धर्ममार्ग में बढऩे के लिये मात्र एक मार्ग है जो हर काल में रहा है जो न कभी परिवर्तित हुआ है और न कभी होगा, शेष सब कुछ परिवर्तित है। चूँकि जो अन्तर्चेतना है, उस तक पहुँचने का भी एक मूल मार्ग है- अष्टांग योगः यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। पूर्व में यम, नियम के चिन्तन मैंने समाज को दिये हैं। उसमें मैंने बताया है कि आहार आपका शुद्ध और सात्त्विक होना चाहिये। आप प्रायः विकारमुक्त होजाते हैं, आपके विचार बदल जाते हैं, कभी आपके अन्दर समर्पणभाव जाग्रत् होता है, कभी आपके अन्दर दुर्भावना जाग्रत् होती है। यह जो विकार आपके अन्दर पैदा होते हैं, वह सिर्फ आपके आहार का परिणाम होता है। आप कहेंगे कि हम तो बहुत शुद्ध और सात्त्विक आहार करते हैं, मगर मैंने बार-बार कहा है कि मनुष्यजीवन जन्म-जन्म के कर्मसंस्कार से बँधा हुआ होता है। उन कर्मसंस्कारों को समझने की जरूरत है।
उस सत्य को तुम्हें समझना होगा, जो भ्रान्ति समाज में पैदा कर दी गयी है कि सिर्फ गुरु को प्राप्त कर लो, शिष्यत्व को प्राप्त कर लो, आपको मुक्ति प्राप्त हो जायेगी या कोई शिष्य से कहता है कि तुम अपनी समस्याओं को लेकरके आओ, मैं तुम्हारी समस्याओं को दूर कर दूँगा। समाज में ठगने-लूटने वाले इस तरह के हज़ारों, लाखों गुरु आपको मिल जायेंगे। अगर आपकी अन्तरात्मा एकान्त में सोचे, अगर आपकी अन्तरात्मा कहे कि इस स्थान पर आकरके हमें कुछ सत्त्विकता का एहसास होता है, कुछ पवित्रता का एहसास होता है या यहाँ के मार्गदर्शन में चलकरके हमारे जीवन का कल्याण हो सकता है, तभी आप मेरी विचारधारा से जुड़ें और उसके लिये आपको अपने अन्दर एक तीव्र भक्तिभाव पैदा करना पड़ेगा, वह प्रेमभाव पैदा करना पड़ेगा।
आहार के साथ-साथ आज जो समाज नित्य एक राक्षसी प्रवृत्ति की ओर जा रहा है कि कोई मरे, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। आज चूँकि राक्षसी प्रवृत्ति व्याप्त हैं। जिस तरह भौतिकतावाद का युग है, तो केवल परिस्थितियाँ बदल गयी हैं कि पहले राक्षस देखने में बड़े वीभत्स दिखाई देते थे, अस्त्र-शस्त्र लिये रहा करते थे, मगर वह विचारधारा आज नग्नता की ओर बढ़ गयी है। महानगरों में आप देखें कि रात में बारह बजे, एक बजे, दो-दो, ढाई-ढाई बजे रात तक नाच-गाना हो रहा है बियर उड़ रही है, शराब उड़ रही है, ऐश कर रहे हैं, अश्लीलता में लिप्त हैं। वहीं समाज में अनेकों परिवार एक समय के भोजन के लिये मोहताज हैं, लेकिन कहाँ क्या समस्यायें आ रही हैं, इससे उनके जीवन में कोई फर्क नहीं पड़ता? राक्षस भी रात्रि में जागा करते थे, हो-हल्ला मचाया करते थे, नृत्य करते थे, रासरंग में मग्न रहते थे, शराब पीते थे और किसी दुनियादारी से उनको कोई मतलब नहीं रहता था।
आज समाज भी उसी राक्षसी प्रवृत्ति की ओर जा रहा है। एक-एक, दो-दो बजे रात तक जागेगा, बियर पियेगा, शराब पियेगा, नाच-गाना करेगा। यह सब राक्षसों के ही कार्य तो हैं और सुबह नौ-दस बजे तक सोयेगा। आप कैसे सत्य को प्राप्त कर लेंगे? एक गुरु आपको चेतनातरंगें प्रदान करने के लिये प्रातः ढाई-तीन बजे से जग जाता है और अपने नित्य के कार्यों से निवृत्त हो करके साधनामय जीवन बिताते हुये समाज के लिये ही कार्य कर रहा होता है, जबकि समाज चद्दर तानकर सो रहा होता है। वह चेतनातरंगें आपके अन्दर प्रवेश कैसे करेंगी, जिनका एक निर्धारित समय और काल होता है कि जिन क्षणों पर अगर मनुष्य चैतन्यता से जीवन जिये, तो उन तरंगों का कई गुना ज्यादा फल प्राप्त कर सकता है।
मैंने समाज को कहा है कि आपके अन्दर का धर्म, जिस चीज के सत्य को आप धारण करना चाहते हैं, वह पूर्णता से तब तक धारण नहीं होगा, जब तक आप सूर्याेदय से पहले जगने की आदत नहीं डालेंगे। जब तक आप विचारों को ग्रहण नहीं करेंगे, परिवर्तन नहीं आयेगा कि आप आयें और दो-चार कहानियाँ शिष्यों से सुने और अपने घर चले जायें, क्षणिक आपकी भावना जाग्रत् हो जाये, भावपक्ष आपके अन्दर जाग्रत हो जाये, मगर आपके जीवन में परिवर्तन न आये, तो क्या लाभ? मैं नहीं चाहता कि आप दो बजे रात्रि से जगें। आपके सामने ज्यादा समस्यायें होती हैं। यह अलग बात कि आपका गुरु भी उसी प्रकार कार्य करता है।
सात घण्टे, आठ घण्टे मैं भी मजदूरों के साथ खड़े होकर कार्य कराता हूँ, कार्य देखता हूँ। उसी तरह रात्रि में जगता हूँ। रात्रि में मात्र दो घण्टे की मेरी नींद रहती है और वह भी योगनिद्रा के रूप में रहती है। अधिक से अधिक जब मैं एकान्त में आता हूँ, तो मेरा ध्यान-चिन्तन का क्रम रहता है। समय रहता है, तो बाहर आकर सेवाकार्यों को देखता रहता हूँ। चूँकि इस स्थान को जिस तरह की चैतन्यता और पूर्णता मुझे प्रदान करनी है, उसमें हर पल मैं स्वतः अपना श्रमदान करता रहता हूँ। जिस तरह के कार्यों में आप दो घण्टे नहीं खड़े हो सकते, उसी तरह की धूप में सात घण्टे, आठ घण्टे खड़े होकरके केवल यहाँ के कार्यों को पूर्णता देने के लिये और आप लोगों को चैतन्यता प्रदान करने के लिये मैंने एक समय का भोजन तक छोड़ रखा है। चूँकि मेरे सामने मुझे वह समय भी बेकार नजर आता है, जब मैं कार्य छोड़कर दोपहर में भोजन करने जाता हूँ। उतना समय भी मुझे लगता था कि शायद मैं नष्ट कर रहा हूँ। घण्टों का मेरा समय बेकार चला जाता है। केवल अपनी उस व्यथा के तहत मैंने अपना एक समय का भोजन भी छोड़ दिया। चूँकि मेरा पूरा शरीर अपने आप में सन्तुलित रहता है। आप असन्तुलित होते हैं, अपने आपको एकाग्र नहीं कर पाते हैं।
मैंने बार-बार कहा है कि विज्ञान में वह सामर्थ्य है और उनको खुले मौके देता हूँ, आमन्त्रण देता हूँ, जिससे सत्य का समाज एहसास कर सके, इसलिये नहीं कि समाज मुझे मानने लगे। वे कभी भी मेरे आस-पास उन मशीनों को लगाकर चेक कर सकते हैं कि चाहे जितनी विषमतायें मेरे ऊपर डाल दी जायें, तनाव के बीच से मुझे गुजार दिया जाये, जब मैं संघर्ष के कार्य कर रहा हूँ, उस समय उनके बीच से मुझे गुजारा जाये और मुझे केवल एक पल लगता है अपनी चेतना को एकाग्र करके ध्यानस्थ हो जाने में।
आप लोग अपने मन को क्यों नहीं एकाग्र कर पाते? इसलिये कि आप लोग अभ्यास नहीं करते, प्रयास नहीं करते। आप चार घण्टे पूजा तो करते हैं, मगर पूजा करने में आपका मन नहीं लग पाता। मन को एकाग्र करने का आप प्रयास भी नहीं करते। मैंने बार-बार कहा है कि आप आज्ञाचक्र की शरण में आते ही नहीं कि जब आपका मन व्यथित होने लगे, इधर-उधर भगने लगे, तो उसे तुरन्त उस दिशा से हटाओ और ध्यान लगा लो। मन्त्रजाप करते जाओ और आज्ञाचक्र में ध्यान लगाओ। मूलचक्र है राजाचक्र। मैंने बार-बार कुण्डलिनी चेतना के बारे में अनेकों चीजों का चिन्तन विस्तार से दिया है और भविष्य में उसका और विस्तार करूँगा कि सात चक्र जो हमारे अन्दर हैं, उनमें सबसे महत्त्वपूर्ण आज्ञाचक्र है, जो राजाचक्रकहलाता है।
जब आप पूजा में बैठें और आपका मन इधर-उधर विषय-विकारों में भटकने लगे, अपनी समस्याओं में भटकने लगे, मन एकाग्र न हो रहा हो, तो कुछ समय आप अपने मन को आज्ञाचक्र में एकाग्र करें। आप कहेंगे कि मन को एकाग्र करते हैं, तो नींद आने लगती है। यह आपका स्वाभाविक गुण है। एक साधक जब अपने मन को एकाग्र करता है, तो उसके शरीर का भार और हल्का होता चला जाता है। आप स्वतः कभी एहसास करें कि जब आपका मन ज्यादा एकाग्र होगा, तो आप पैर का जो आसन लगाकर बैठे होंगे, उसमें कभी आपको ज्यादा जोर का एहसास नहीं होगा। यह अभ्यास की क्रियायें हैं, करें तो।
जब आपका मन व्यथित हो, तब आज्ञाचक्र में ध्यान लगायें, थोड़ा सा मन्त्रजाप भी करते जायें और प्रकृतिसत्ता की ओर ध्यान दें, उनकी क्रियाओं की ओर ध्यान देने लगें। यहाँ के आश्रम के अगर उपासक हैं, तो यहाँ का ध्यान करने लगें। कभी आश्रम के मूलध्वज की ओर चिन्तन ले जायें, तो कभी श्री दुर्गाचालीसा पाठ की उन दिव्य शक्तियों की छवियों की ओर चिन्तन ले जायें कि कौन सी तस्वीर कहाँ पर रखी हुयी है, चालीसा भवन में कौन सा दृश्य किस प्रकार का बना हुआ है, आश्रम में किधर कौन सा भवन बना हुआ है? चूँकि जब हम एक चैतन्य क्षेत्रफल की ओर निगाह उठाते हैं, तो उस समय हमारी चैतन्यता की साधना चल रही होती है। उन विषय-विकारों से मन को काटने का हमें अभ्यास करना पड़ेगा।
हर साधक के जीवनकाल में वह समय आता है कि जब वह साधना के मार्ग पर बढ़ता है, तो मैंने कुण्डलिनी का स्वभाव ही बताया है कि इससे विषय-विकार और बढ़ते हैं। मगर जब हमारे विषय-विकार बढ़ रहे हों, आवेग उस क्षेत्र की ओर बढ़ रहा हो, तो जो हमारे शरीर का मूल राजाचक्र है, जिसके माध्यम से गुरु भी कार्य करता है, जिसको सदैव आच्छादित करने की बात मैं कहता हूँ कि कुंकुम का तिलक लगाकरके रखो, उस आज्ञाचक्र में तत्काल अपने ध्यान को लगायें और मन को एकाग्र करें। आप देखेंगे कि आपके शरीर के विषय-विकार धीरे-धीरे शान्त होने लगेंगे। भटकाव से आप सत्मार्ग की ओर बढऩे लगेंगे। इसके लिये एक क्रिया आपको और करने की जरूरत है। जब आप प्रातः नित्यक्रिया से निवृत्त हो जायें, कुल्ला आदि कर लें, केवल स्नान करना शेष रह जाये, तो जब स्नान करने जा रहे हों, आसन लगाकरके बैठ जायें और तीव्र गति से श्वांस को लगातार बाहर निकालें, फिर अंदर करें, चूँकि आपकी श्वांस की गति बड़ी उथली होती है। किसी का जीवन घड़ी और क्षणों से नहीं जुड़ा है कि आप कितने घण्टे कितने मिनट जीवन जियेंगे, बल्कि आपकी कितनी श्वासें अन्दर जायेंगी और कितनी श्वासें बाहर आयेंगी, आपके जीवन का क्षण इनसे जुड़ा हुआ है, आप चाहें तो उनको बढ़ा सकते हैं, आप चाहें तो अपनी उम्र को बढ़ा सकते हैं, यह आपके अन्दर है यदि आप अभ्यास करें। आपकी श्वांसों की गति इतनी रहती है कि आप श्वांस लेते हैं, मगर आपकी श्वांस आपके पेट, आपकी नाभि तक नहीं पहुंचती, जहाँ तक पहुँचना नितान्त आवश्यक है। आप कभी भी जब बाहर हों, कण्ठ के पास से धागा लटकायें और अपने पेट को अन्दर दबायें। यदि धागा आपकी नाभि को स्पर्श कर जाये, तो मान लीजिये कि आपके अन्दर शरीर में बीमारियों का बीजारोपण हो गया है। पेट आपका बाहर निकला हुआ है, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। आप अच्छा भोजन कर रहे हैं, आप ज्यादा तनाव में नहीं हैं, तो इससे आपका स्वास्थ्य बढ़ सकता है, मगर आपकी नाभि पर आपका नियन्त्रण होना चाहिये, उसमें स्पन्दन होना चाहिये कि आप जब चाहें, अपने पेट को अन्दर समेट सकें। आप ज्यादा नहीं, तो नाभि को कम से कम इतना तो समेट सकें कि आप जब मेरुदण्ड को सीधा करके एक धागा कण्ठ के पास से डालें, तो धागा नाभि को स्पर्श न करे। इसके लिये आप अभ्यास करें।
उस भ्रस्तिका के माध्यम से आपका वजन भी घट सकता है, चूँकि नाडिय़ों का जब तक शोधन नहीं होगा, आप नाना प्रकार की बीमारियों से ग्रसित हो जायेंगे, आपके शरीर की रक्षात्मक शक्ति क्षीण होती चली जाती है, आपको आलस्य घेरता चला जाता है, आपके कार्य करने की क्षमता घटती चली जाती है, आपका सिर दर्द बढऩे लगता है। सिरदर्द से मुक्ति पाने के लिये तथा नाना प्रकार की जो छोटी-मोटी व्याधियाँ होती हैं, उनसे मुक्ति पाने के लिये आप भ्रस्तिका करें। आप वज्रासन लगाकर बैठ जाएं। दोनों पैरों को मोड़कर गुदाद्वार उसके ऊपर रख करके बैठा जाता है और हाथ जांघों के ऊपर रख लें। तब अपनी श्वांस को तीव्र गति से गहरी श्वांस अन्दर लें और तेजी से श्वांस को छोड़ें। तीन-चार बार के क्रम में इसको कम से कम सौ-डेढ़ सौ बार करें। बीस-पच्चीस बार आप श्वांस अन्दर करें और बाहर फेकें, आप देखेंगे कि जितना कफ होगा और जो दिन में दस बार आपकी नाक निकलती रहती है, आप नाक पोंछते फिरते रहते हैं, आपको साल में दस बार सर्दी होजाती है, सर्दी की बीमारी होजाती है, आपको बहुत ज्यादा ठण्ड लगती है, उसमें सुधार होने लगेगा।
मैंने बार-बार कहा कि इन्हीं वस्त्रों में मैं पूरी ठण्ड काट लेता हूँ। कभी बाहर चाहे पूजन में ही आ रहा हूँ। ऐसा नहीं है कि मुझे ठण्ड नहीं लगती, ठण्ड मुझे भी लगती है जब मैं अपने शरीर को शान्त डाल देता हूँ। मगर एक चैतन्य अवस्था में लगा रहूँ तो शरीर के हर अंग से केवल पसीने की बूँदें नजर आयेंगी। मैं चाहे जितना शान्त बैठा रहूँ, यदि कुण्डलिनी चेतना पूर्ण जाग्रत् हो। चूँकि हमारे शरीर में वे सभी क्रियायें हैं। ध्यान की गहराई में डूबकर हम अपने शरीर को जब जितना चाहें, उतनी हीट दे सकते हैं और जब जितना चाहें, उतनी शीतलता दे सकते हैं।
उसे भ्रस्तिका कहते हैं कि आप तेजी से श्वांस को अन्दर खीचें और तेजी से जाने दें कि श्वांस आपकी नाभि तक जाये। तेजी-तेजी से करें, मगर घर के लोगों को बता दें कि हम ये क्रियायें करने जा रहे हैं। नहीं ऐसा न हो कि आप बाथरूम का दरवाजा बन्द करके तेजी-तेजी से श्वांसें लेने लगें और आवाज बाहर जाये, तो लोग कहें कि क्या हो गया अन्दर, कहीं कोई भूत तो नहीं सवार हो गया? इन क्रियाओं से शरीर में एक चैतन्यता, मूलाधार में जाग्रति पैदा होती है। यदि आपकी उम्र ज्यादा है व महिलायें यदि गर्भावस्था में हैं, तो इसे धीमी अवस्था में करेंगे। धीरे-धीरे अभ्यास करें, श्वांस को अन्दर खीचें और तीव्र गति से बाहर निकालें, ताकि शरीर का बैलेन्स न बिगडऩे पाये। आप देखें कि जब आप भ्रस्तिका को करेंगे, तो महीने, दो महीने तक आवश्यकता से ज्यादा आपकी नाक निकलेगी, मगर धीरे-धीरे करके वह समाप्त होने लगेगी। आपका कफ बनना धीरे-धीरे समाप्त होने लगेगा और आप एक मिनट में जितनी श्वासें लेते हैं, उससे दस-पाँच श्वासें आप कम लेने लगेंगे। आपकी श्वांस गहरी जायेगी और गहरी निकलेगी, वक्त लगेगा और आपकी उम्र में फर्क पड़ेगा। चूँकि यह आपके हाथ में है कि आप श्वासों को कितना रोक लेते हैं।
इसीलिये प्राणायाम को कहा जाता है कि जब तक चाहें प्राणायाम के माध्यम से योगी अपनी उम्र को बढ़ाते चले जाते हैं। प्राणायाम के लिये भ्रस्तिका नितान्त आवश्यक होती है, जिसमें आप नाड़ी का शोधन करते हैं कि गहरी श्वांस अन्दर लें और बाहर फेकें। इन दो-तीन क्रियाओं को करें। इससे आपका बहुत हित होगा। आप स्वतः देखेंगे कि आपका मन एकाग्र होने लगेगा, आपकी ध्यानशक्ति बढऩे लगेगी, आपके विषय-विकार मिटने लगेंगे। चूँकि मैंने बार-बार कहा है कि त्रिभुवन का जो सुख है, जिसे आप विषय-विकारों में भोगते हैं, जिसे आप समझते हैं कि इससे बड़ा सुख और कुछ है ही नहीं। मैंने कहा है कि ध्यान की एकाग्रता, मन की एकाग्रता, कि जिस समय आज्ञाचक्र में आपका ध्यान एकाग्र होने लगता है, तो जो मिठास उस कुण्डलिनी चेतना में है, जो चैतन्यता उस कुण्डलिनी चेतना में है, उसकी एक बार यदि झलक आपने प्राप्त कर ली, उसका एक बार यदि स्पर्श आपने प्राप्त कर लिया, तो आपका प्रेम सैकड़ों गुना अपने आपसे बढ़ जायेगा। आपका लगाव बढ़ जायेगा।
मेरे पास अनेकों पत्र आते रहते हैं कि गुरु जी बस फला लड़के से हमारी शादी करा दीजिये, उसके बिना हमारा जीवन अधूरा है, हम मर जायेंगे। गुरु जी उसके बिना हमारा अस्तित्त्व समाप्त हो जायेगा, हम आत्महत्या कर लेंगे। धिक्कार है आप लोगों के जीवनों पर। उससे आधा प्रेम अपनी आत्मा की चेतना से करके तो देखो, वह लगाव पैदा करके तो देखो कि जितना समय तुम्हारा चौबीस घण्टे में विषय-विकारों में लगा रहता है, उसका आधा ध्यान तो अपनी अन्तरात्मा की चेतना पर लगाओ कि हमारे अन्दर एक चेतना बैठी हुयी है जो हमें सब कुछ दे सकती है। हमारी भौतिक समस्याओं का समाधान कर सकती है, हमें मानवता के पथ पर बढ़ा सकती है, हमें सत्य के पथ पर बढ़ा सकती है, हमें अनीति-अन्याय-अधर्म के खिलाफ खड़े होने की सामर्थ्य प्रदान कर सकती है, हमें वह सुख दे सकती है, वह तृप्ति दे सकती है कि जब प्रकृतिसत्ता अपनी ओर बढ़ाती है, तो तुम उस ओर मुख मोड़कर तो देखो। वह आनन्द का मार्ग है, वह तृप्ति का मार्ग है कि जिसमें यदि एक बार डूबने का मौका मिल गया, तो लगेगा बस उसी में डूबे रहें, उसी में बढ़ते रहें और उस आनन्द के साथ-साथ आपके जीवन में वह दिव्यता, वह भव्यता बढ़ती चली जाती है। आपकी कार्यक्षमता बढ़ती चली जाती है। चूँकि ज्यों-ज्यों आप अन्दर डूबेंगे, ज्यों-ज्यों आप प्रकृति की ओर बढ़ेंगे, त्यों-त्यों प्रकृति की तरंगें आपके स्थूल शरीर पर बढ़ती चली जायेंगी। यही वे क्रियायें होती हैं, जिन क्रियाओं की ओर आपको बढऩे की जरूरत है।
हमारे अन्दर जो चेतनातरंगें बैठी हुयी हैं, जो हमारे अन्दर का सूक्ष्म है, उस सूक्ष्म के नजदीक जाने का प्रयास करो। स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढ़ो। स्थूल के दिखावे में न जाओ। गुरु के चरणों में बैठने का मौका पा रहे हों या न पा रहे हों, मगर यहाँ की तरंगों को पकडऩे का प्रयास करें। मन को एकाग्र करके गुरु को देखने का प्रयास करें। मन की आँखों से गुरु को देखें तो, मन को गुरु के चरणों तक पहुँचायें तो, प्रकृतिसत्ता के चरणों तक पहुँचायें तो, वह चेतनातरंगें बरबस आपकी ओर कार्य करने लगेंगी।
आप यहाँ आते हैं, लेकिन आपक अधिकांश समय बेकार चला जाता है। वहीं कुछ कार्यकर्ता सेवाकार्य में लगे रहते हैं। चूँकि मैंने बार-बार कहा है कि कार्य करने का जो मेरा नियम है, उसे मैंने दो भागों में बाँटा है- सेवा या साधना। इस आश्रम की जब मैंने स्थापना की, तो सबसे पहले मैंने श्री दुर्गाचालीसा के अखण्ड पाठ को प्रारम्भ किया कि आप या तो यहाँ चालीसा पाठ में समय दें, ध्वज की परिक्रमा में समय दें, मन्त्रजाप में समय दें या यहाँ के सेवाकार्यों में समय लगायें। मैं चूँकि कर्मवान् साधक ही चाहता हूँ। मेरी साधना दो क्षेत्रों से ही समाज के बीच जा सकती हैं, जिसे सेवक प्राप्त कर सकते हैं या साधक प्राप्त कर सकते हैं अथवा जिनके अन्दर सेवा और साधना दोनों भाव होंगे। इसके अलावा पैसे से कोई मेरी साधना नहीं खरीद सकता है। मैं चाहता हूँ कि यहाँ एक समभाव का वातावरण मिले, समभाव की स्थिति प्राप्त हो। आप सभी भक्ति, ज्ञान और आत्मशक्ति की कामना करें, ‘माँ’ और ऊँ का उच्चारण करें।
अनेकों ऐसी साधनाएं हैं कि अगर मैं उन्हें दे दूँगा तो अनेकों साधु, सन्त, संन्यासी तत्काल घुमाकर उसे मोड़ देंगे और समाज में दूसरे रास्ते से उसे ले जायेंगे। जब मैंने ‘माँ’ और ऊँ का ज्ञान दिया था, तभी कानपुर के एक डॉक्टर ने अपना पूरा एक चिट्ठा लिखा और राष्ट्रपति और प्रधानमन्त्री को भेज दिया। एक समाचारपत्र में प्रकाशन हुआ था कि उसने ‘माँ’ और ऊँ के बारे में शोधन किया है कि ‘माँ’ और ऊँ के उच्चारण से किस प्रकार ऊर्जा जाग्रत् होगी और उसके कुछ महीने पहले ही मैं कानपुर के शिविर में ‘माँ’ और ऊँ का चिन्तन देकर आया था। जबकि ‘माँ’ और ऊँ की ओर यदि हमें बढऩा है, तो जिस तरह से मैंने आपको ‘माँ’ और ऊँ का क्रमिक उच्चारण बताया है, जिस तरह शिविर में प्रातः आप लोग कर रहे थे, उसे थोड़ा और एकाग्रता से करें, भले ही थोड़ा-थोड़ा रुक करके करें। कौन किस प्रकार कर लेता है, मैं किस प्रकार से कर लेता हूँ, एक चैतन्य योगी किस प्रकार कर लेता है? इसमें पडऩे की जरूरत नहीं है, बल्कि आप किस प्रकार से प्रारम्भ कर सकते हैं, उस तरह करें। आप दस-बारह बार कर सकते हैं और उसके बाद कुछ थकावट महसूस होती है, तो एक-दो बार के लिये आप रोक दें। दो-दो, चार-चार, पाँच-पाँच मिनट करें, उसके बाद कुछ समय के लिये रोक दें और उसके बाद फिर करें।
शिविर में प्रातः सात बजे से आठ बजे तक ‘माँ’ और ऊँ का यहाँ क्रमिक उच्चारण करें। चूँकि समाज के बीच अपने घरों की अपेक्षा यहाँ की गई साधना का दस गुना फल निश्चित रूप से मिलता ही है। चूँकि यह मेरी कर्मसाधना से जुड़ा हुआ है कि यहाँ हर अच्छे कर्म का दस गुना ज्यादा फल मिलेगा ही और बुरे कर्म का भी दस गुना फल मिलेगा। इसीलिये मैंने कहा है कि यहाँ मन, वचन और कर्म से शुद्धता और सात्त्विकता से समय व्यतीत करें।
मैंने विश्वअध्यात्मजगत् को सदैव मौका दे रखा है कि अगर एक कोई ऐसा आयोजन किया जाये, जिसमें सभी धर्माचार्य एकत्रित हों, अन्य धर्मों के भी धर्मप्रमुख एकत्रित हों, कम से कम विश्व के नहीं, तो हिन्दुस्तान के वे प्रमुख राजनेता उपस्थित हों और किसी प्रकार के एक कार्य को पूरा करने का अवसर धर्माचार्यों को सामूहिक रूप से दे दिया जाये और मेरे सामने एक कार्य रख दिया जाये और देखें कि वे सब मिलकर वह कार्य कर पाते हैं या ‘माँ’ की कृपा से मैं अकेले कर पाता हूँ?
कभी भी अगर एहसास करना है, तो मेरे लिये एक स्थान पर बैठकर विश्व के किसी कोने की जानकारी बता देना कठिन नहीं होगा, असाध्य से असाध्य रोग को अपने स्पर्श मात्र से उसे ठीक कर देने में कोई समय नहीं लगेगा। ये अनुभूतियाँ मैं समाज को कभी भी दे सकता हूँ, उसी ऊर्जा के साथ आप बराबर उनका लाभ ले सकते हैं, मगर कम से कम अगर हर व्यक्ति ऐसा आये कि हमको तत्काल ऐसी अनुभूतियाँ प्राप्त हो जायें, तो मैंने बार-बार कहा है कि तुम मुझे मानो या न मानो, तुम्हारे रास्ते बाहर के लिये खुले हुये हैं। सत्य का एहसास होगा, सत्यता के साथ बढ़ोगे, तो मैंने बार-बार कहा है कि जिस समय धर्म के प्रति जरा सा भी आडम्बर स्पर्श कर जायेगा या समाज को छलने का भाव स्पर्श कर जायेगा, मैं एक मिनट की देरी नहीं लगाऊँगा और अपने शरीर के अस्तित्त्व को समाप्त कर दूँगा। चूँकि मैंने अपने रोम-रोम को समाजकल्याण के लिये समर्पित किया है। आने वाला समय स्वतः आपको एहसास कराता चला जायेगा कि आप लोग जो अपने मन के अन्दर भ्रान्तियाँ बनाते थे, भ्रमित होते थे, आपके अन्दर भटकाव आते थे, वह आप कितना बड़ा अपराध करते थे। अतः उन अपराधों से बचें। मैं किसी का आवाहन नहीं करता। मुझे जो परिवर्तन डालना है, उससे दुनिया बचेगी नहीं। बचना भी चाहेगी, तो बच नहीं पायेगी। इन शिविरों का आयोजन मात्र इसीलिये किया जाता है कि आप मेरे सम्मुख बैठकर पूर्णता की आरती करें। आरती में कुछ क्षण के लिये अगर आप रत हो गये, कुछ पल के लिये भी अगर आप लोगों के अन्दर एकाग्रता आ गयी, तो आप मान लीजिये कि उतने पल आपके निश्चित रूप से सार्थक, साधनामय, पूर्ण चेतनामय बन जायेंगे।
बोलो जगदम्बे मातु की जय।