नशामुक्ति महाशंखनाद- 3

प्रवचन शृंखला क्रमांक -157
शक्ति चेतना जनजागरण शिविर (नशामुक्ति महाशंखनाद)
जम्बूरी मैदान, बी.एच.ई.एल. भोपाल (मध्यप्रदेश), दिनांक 19 फरवरी 2015

माता स्वरूपं माता स्वरूपं, देवी स्वरूपं देवी स्वरूपम्।
प्रकृति स्वरूपं प्रकृति स्वरूपं, प्रणम्यं प्रणम्यं प्रणम्यं प्रणम्यम्।।

बोलो माता आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बे मात की जय।

शिविर के तृतीय दिवस एवं गुरुवार के महत्त्वपूर्ण दिन पर उपस्थित अपने समस्त चेतनाअंशों, ‘माँ’ के भक्तों, श्रद्धालुओं, इस शिविर व्यवस्था में लगे हुए समस्त कार्यकर्ताओं और यहाँ पर जो जिस भावना से उपस्थित हुए हैं, उन सबको उनकी भावनाओं सहित अपने हृदय में धारण करता हुआ, माता आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा का पूर्ण आशीर्वाद प्राप्त करता हुआ अपना पूर्ण आशीर्वाद आप समस्त लोगों को समर्पित करता हूँ।

 आज गुरुवार का दिन है, इसलिए मैं इसी विषय से अपनी बात को प्रारम्भ करूंगा। गुरुवार को ज्ञान का दिवस कहा जाता है। सभी तिथियों, नक्षत्रों एवं जो भी अन्य दिवसों पर आप व्रत रहते हैं, उनमें यह सर्वोत्तम दिवस है। गुरुवार व्रत रहने वाले साधकों को किसी अन्य तिथि, नक्षत्र या दिवसों पर व्रत रहने के लिए विचार करने की आवश्यकता नहीं है। इस दिन आप किसी भी शुभ कार्य को प्रारम्भ कर सकते हैं। मैंने पूर्व में भी गुरुवार के विषय में बताया है कि यह ज्ञान का दिन होता है, जिसमें सभी शक्तियों की विचारधारा जुड़ी हुई है। जिस विचारधारा से अध्यात्म का प्रवाह जुड़ता है और जब हम उस विचारधारा को आत्मसात करके सतत आगे बढ़ते हैं, तो हमारे अन्दर दिव्य ऊर्जातरंगों को प्राप्त करने की पात्रता आ जाती है। मैं स्वत: सदैव गुरुवार का व्रत रहता हूँ।

गुरुवार, माता आदिशक्ति जगत् जगनी जगदम्बा का दिन है। वैसे तो सभी दिन ‘माँ’ के ही हैं, मगर उन सभी दिनों में से यह ज्ञान का दिन अत्यंत महत्त्वपूर्ण होता है। इसलिए मुझसे जुड़े हुए सभी शिष्यों-भक्तों को मेरे द्वारा निर्देशन दिया जाता है कि तुम आिखर कब तक नाना प्रकार के व्रतों-त्यौहारों में भटकते रहोगे? परेशान रहते हो कि आज हम यह व्रत रह लें, आज हम वह व्रत रह लें, शायद हमारा इससे कल्याण हो जायेगा! मनुष्य के पास समय बहुत ही सीमित है, उम्र घटती ही जा रही है और नाना प्रकार के विचारों एवं भटकावों में जब आपके विचार भटकते चले जाते हैं, तो आपके मन में शान्ति का प्रादुर्भाव नहीं हो पाता है। 

किसी के कहने से नहीं, बल्कि आप स्वयं विचार करें कि यदि हम किसी एक महत्त्वपूर्ण दिन से अपनी विचारधारा को जोड़ लेते हैं, तो हमारा अंत:करण शान्त होजाता है और हम परमसत्ता की जो भी आराधना करते हैं, इस दिन की उपासना-आराधना के माध्यम से उनकी पूर्ण कृपा को प्राप्त कर सकते हैं। अत: गुरुवार व्रत रहने वाले को अन्य कोई व्रत रहने की आवश्यकता नहीं है।

गुरुवार के व्रत में किसी प्रकार की भ्रान्ति और आडम्बर को भी जोड़ने की आवश्यकता नहीं है। दिन में सहजभाव से आप व्रत रहें। घर में हैं, तो जो भी नित्य साधनाक्रम आपको बताए गये हैं, उनके माध्यम से सुबह पूरी निष्ठा, विश्वास व समर्पण के साथ माता आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा की आराधना-पूजन व आरती करें और दिनभर आप व्रत रहें। आवश्यकतानुसार फलाहार ले सकते हैं और सायंकाल सूर्यास्त होने के बाद आप पुन: ‘माँ’ की आराधना, आरती एवं पूजन करें और उसके बाद आपके घर में जो भी शुद्ध-सात्विक भोजन बना हो, उस भोजन को प्राप्त करें। कोई आवश्यक नहीं है कि आप पीला भोजन ही प्राप्त करें या केले का पूजन करें। यदि आप गुरुवार के दिन घर पर नहीं है और यात्रा आदि कर रहे हैं, घर से बाहर किसी ऐसे स्थान पर हैं, जहाँ सुविधाओं की कमी है, तो प्रात: उस परमसत्ता का स्मरण-चिन्तन कर लें। दिन में थोड़ा फलाहार भी ले सकते हैं और सायंकाल सूर्यास्त होजाने के बाद, जितनी आपकी पात्रता है, उसके अनुसार उस परमसत्ता का ध्यान, स्मरण, चिन्तन करके जो भी शुद्ध-सात्विक भोजन मिल जाये, उसे प्राप्त करलें। गुरुवार व्रत का विधान बहुत ही सहज व सरल है तथा नित्य साधना की पुस्तक में गुरुवार व्रत के विषय में विस्तार से बताया गया है।

  ‘माँ’ की साधना से सहज और सरल कोई दूसरी साधना नहीं है। वह जगत् जननी हैं, मेरी माँ हैं, आपकी माँ हैं, जन-जन की माँ हैं, हम-आप सभी की आत्मा की जननी हैं। हमारा सम्बोधन दोनों पक्षों से सहज जुड़ जाता है कि ‘माँ’ मेरी हैं और वही जगत् जननी हैं। इन दोनों वाक्यों के सम्बोधन से हमें अपनेपन का अहसास होता है। दोनों शब्दों में कोई विरोधाभास नज़र नहीं आता है। हम जगत् जननी कह रहे हों, तब भी लगता है कि हम स्वयं उस कड़ी से जुड़े हुए हैं और यह सम्पूर्ण जगत् उस कड़ी से जुड़ा हुआ है। जब हम ‘माँ’ शब्द का सम्बोधन करते हैं, तो भी अपनापन लगता है कि मेरी माँ हैं। ऐसा कौन व्यक्ति है, जो अपनी माँ से मिलने की इच्छा नहीं रखता होगा? यदि ‘माँ’ से मिलने की इच्छा नहीं है, तो कुछ न कुछ आवरण पड़े हुए हैं और जिस दिन वे आवरण हट गये, थोड़ा भी अंत:करण निर्मल और पवित्र हो गया, हमारी निगाह परमसत्ता की ओर बढ़ने लगी, तो हमारे अन्दर की व्याकुलता बढ़ने लगती है। यदि हम साधना की प्रथम सीढ़ी प्राप्त करने में सफल हो गये, नशे-मांस से मुक्त चरित्रवान् होकर यदि ‘माँ’ की आराधना करना प्रारम्भ कर दिया, तो बरबस हमारा आकर्षण परमसत्ता के प्रति बढ़ता चला जायेगा।

अनेक लोग कहते हैं कि गुरुजी, जब हम पूजन करते हैं, तो पूजा में हमारा ध्यान ही नहीं लगता, मन नहीं लगता, उच्चाटन होता है। मेरे द्वारा उनको बार-बार कहा जाता है कि केवल कुछ संकल्पों पर दृढ़ हो जाओ कि नशे-मांस का सेवन न करो, चरित्रवान् जीवन जियो और ‘माँ’ की आराधना करना प्रारम्भ कर दो। हो सकता है कि प्रारम्भ में कुछ समय तुम्हारा मन न लगे, मगर धीरे-धीरे जब अलौकिक ऊर्जा आपके साथ जुड़ती चली जायेगी, तब मन एकाग्र होने लगेगा और उस परमसत्ता के प्रति आपका लगाव बढ़ता चला जायेगा, अपनेपन का अहसास होने लगेगा। ऊर्जा का यह स्वभाव है कि ज्यों-ज्यों आपकी ऊर्जा, प्राणवायु व कुण्डलिनीचेतना प्रभावक होगी, आपका उस परमसत्ता के प्रति आकर्षण सहजभाव से बढ़ता चला जायेगा और आलस्य व जड़ता दूर होने लगेगी।

परमसत्ता से हमारा सहज रिश्ता है। दुनिया के समस्त रिश्ते बनाने से बनते हैं, गुरु का रिश्ता भी बनाना पड़ता है, मगर परमसत्ता का रिश्ता बनाना नहीं पड़ता, वह तो बना बनाया रिश्ता है। हमें केवल उस सत्य को अपना करके आगे बढ़ते रहना है। आप नाना प्रकार की पूजा-पाठ करते रहते हैं, समाज नाना प्रकार के तंत्र-मंत्र, जादू-टोने के चक्रव्यूह में उलझा रहता है, जबकि यदि सच्चे मन से ‘माँ’ की आराधना की जाए, तो मेरा मानना है कि दुनिया का ऐसा कोई कार्य नहीं है, जो ‘माँ’ की आराधना से पूर्ण न किया जा सके। आवश्यकता है कि हम उस पात्रता को हासिल करते चले जायें, चंूकि यह पात्रता हमारे पूर्णत्व की पात्रता है, यह हमारा सहज स्वभाव है, सहज स्वस्वरूप की प्राप्ति है।                                     

मेरे द्वारा सदैव सम्बोधन किया जाता है कि अपने ‘मैं’ को जानो, अपने ‘मैं’ को पहचानो। केवल ‘मैं’ की साधना में ही ‘माँ’ की पूर्ण साधना छिपी हुई है और ‘मैं’ को जान लेने वाला ‘माँ’ को जान लेता है। आज से बीसों वर्ष पूर्व जब मेरे द्वारा ‘मैं’ शब्द का सम्बोधन बार-बार किया जाता था कि ‘मैं’ को जानो, ‘मैं’ को पहचानो, ‘मैं’ में ही सब सार छिपा हुआ है, तो लोगों ने मुझे अहंकारी कहा। लोगों ने कहा कि ये ‘मैं’ के बारे में बोलते हैं, ‘मैं’ में कुछ नहीं रखा। लेकिन, पिछले इन तीन-चार वर्षों में यदि आप देखें, तो जितनी भी आध्यात्मिक संस्थाएं हैं, अधिकांशतया उसी ‘मैं’ पर आकर केन्द्रित हो गर्इं हैं। चेतनातरंगों का यह सहज प्रभाव होता है और यदि चेतनातरंगें समाज में प्रवाहित की जाती हैं, तो जिनके पास थोड़ा भी ज्ञान है, वे बरबस उधर ही आकर्षित होंगे और वहाँ ‘माँ’मय वातावरण अपने आप निर्मित होता चला जायेगा।

आज अधिकांश लोग चिन्तन देने के लिए बाध्य हैं कि यदि इस कलिकाल के भयावह वातावरण से अपने आपको बचाना है और देवी-देवताओं की कृपा को प्राप्त करना है, तो ‘मैं’ को जानना ही होगा, ‘मैं’ के नज़दीक जाना ही होगा कि ‘मैं’ कौन हूँ? मैं बाह्य जगत् की बात नहीं करता कि बाह्य जगत् में मेरा यह नाम है, मेरा यह मकान है, यह मेरे पिता हैं, यह मेरी पत्नी हैं, ये मेरे बच्चे हैं, यह मेरी सम्पत्ति है, यह मेरा पद है। मैं इन सबकी बात नहीं कर रहा हूँ, इनमें तो अहंकार हो सकता है। मगर, मैं वास्तविक में कौन हूँ, मैं किसका अंश हूँ, मेरा निर्माण किसने किया है, मेरी पात्रता क्या है, मुझे क्यों बनाया गया है, मेरा धर्म क्या है, मेरा कर्म क्या है? इन सबका ज्ञान केवल ‘मैं’ को जानने से ही प्राप्त होता है। मैं को जानने के लिए केवल अपने अंत:करण को निर्मल व पवित्र बनाने की आवश्यकता होती है। ‘माँ’ की आराधना इसी को कहते हैं।

 मंत्र हमारे माध्यम हैं, मंत्रों के माध्यम से नाडिय़ों का शोधन होता है, मगर विचारों के माध्यम से उससे भी कई गुना ज़्यादा हमारी नाडिय़ों का शोधन होता है, हमारे स्वभाव में परिवर्तन आता है और हमारा अंत:करण निर्मल होता चला जाता है। चंूकि सबकुछ विचारों का खेल है और जैसे विचार बनाओगे, वैसे आपका स्वभाव परिवर्तित होता चला जायेगा। विचारों से परे कुछ है ही नहीं। आप काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि के जो भी कदम उठाते हैं, सबकुछ विचारों के फलस्वरूप उठाते हैं। पहले विचार ही आपके अन्दर प्रवेश करते हैं, उसके बाद आपका शरीर उन विचारों के अनुरूप कर्म करता है। लाखों-अरबों की सम्पत्ति पड़ी हुई हो और यदि आपके अन्दर लोभ का विचार नहीं आयेगा, तो वह आपको मिट्टी के समान लगेगी और आप उसका एक टुकड़ा भी नहीं उठा सकते हो। जब तक आपके विचारों में क्रोध नहीं आयेगा, तब तक आप किसी को एक गलत शब्द नहीं बोल सकते, एक भी तमाचा नहीं मार सकते हो। जब तक आपके विचारों में काम का भाव नहीं आयेगा, तब तक आपके शरीर की कोशिकाएं कामवासना की तरफ बढ़ ही नहीं सकती हैं। मोह के प्रति जब तक आपके अन्दर विचार उत्पन्न नहीं होगा, तब तक किसी के प्रति आपका मोहपक्ष जाग्रत् नहीं होगा। जब सबकुछ हमारे विचारों पर ही आधारित है, तो क्यों न हम अपने विचारों में नियंत्रण हासिल कर लें? 

 ‘माँ’ की आराधना यदि हमें करना है, तो चौबीस घंटे करें और चौबीस घंटे का तात्पर्य यह नहीं है कि हम चौबीसों घंटे साधना में बैठे रहें कि गुरुजी ने कह दिया है, तो हम चौबीस घंटे मालाजाप कर रहे हैं। अनेक लोग माला लिए चौबीस घंटे चलाते रहते हैं। सोच कुछ रहे हैं, बात कुछ कर रहे हैं और माला चल रहा है। मैं इसका विरोधी हूँ। इस तरह से आप जिन्दगी भर माला फेरते रहो, मगर आपके मन का मैल कभी मिटेगा ही नहीं, उस परमसत्ता की प्राप्ति होगी ही नहीं। किन्तु, यदि आपने विचारों को फेरना आरम्भ कर दिया, यदि आपने विचारों पर पकड़ हासिल कर ली, तो आपको सबकुछ हासिल हो जायेगा। अत: आप जब भी पूजा-पाठ करें, तो आपका मनमस्तिष्क एकाग्र रहना चाहिए।

चौबीस घंटे सजग रहो कि मैं ‘माँ’ का हूँ और मुझे ‘माँ’ से अलग नहीं होना है, मुझे ‘माँ’ का सान्निध्य चाहिए। जिस तरह एक अबोध शिशु अपने माता-पिता की गोद से बाहर नहीं हटना चाहता, उसी तरह एक संकल्प लेलो कि मैं कभी ‘माँ’ से विलग नहीं होऊंगा, ‘माँ’ मेरे अन्दर हैं और यदि मेरी इतनी सोच है, तो उनसे अलग न होने के लिए मेरे पास एक ही रास्ता है कि जब तक मेरे अन्दर सतोगुणी सोच चलती रहेगी, सद्विचार चलते रहेंगे, मैं ‘माँ’ के नज़दीक रहूँगा। रजोगुणी और तमोगुणी सोच आयेगी, मन के अन्दर कुविचार आयेंगे, तो मेरी और ‘माँ’ के बीच की दूरी बढ़ने लग जायेगी। अत: सदैव सजग रहो।

मन के अन्दर कोई भी कुविचार आये, तो यह सोचकर उसे तुरन्त मन से निकालो कि यह मुझे मेरी ‘माँ’ से दूर करने आया है, मुझे इसके साथ नहीं चलना, मुझे अपनी ‘माँ’ के पास रहना है और दूसरी बात सोचने लगो। अपनी बुद्धि की छठी इन्द्रिय का उपयोग करो और सात्विक बातें सोचने लगो, जैसे परमसत्ता के बारे में सोचने लगो, अपने सद्गुरु के बारे में सोचने लगो, मंत्रों के बारे में सोचने लगो या जो भी अच्छी बातें हों, उधर ध्यान को एकाग्र करो। धीरे-धीरे प्रयास करके चौबीस घण्टे अपने मन में सतोगुणी विचार बनाने लगो और विचार बनाते-बनाते यह साधना एक दिन ऐसी सिद्ध होजाती है कि कुविचार मनमस्तिष्क के अन्दर प्रवेश ही नहीं कर पाते हैं तथा मनमस्तिष्क निर्मल और सात्विक बन जाता है।

तुम सतोगुणी प्रवृत्ति से जो सोचना चाहोगे, केवल वही सोच मन में आयेगी। इस तरह मन स्वत: ही नियंत्रित होजाता है और आपकी अन्तर्चेतना प्रभावक रूप से अपनी बात कहने लग जाती है कि यह करना है और यह नहीं करना! जब आप किसी जगह जाओगे, तो आपका अन्तर्मन कहेगा कि आपको जाना चाहिए या नहीं जाना चाहिए, आपका कार्य पूर्ण होगा या नहीं होगा! परमसत्ता ने सारा ज्ञान आपके अन्दर दे रखा है। आप कहीं जा रहे होंगे और यदि आपके किसी दुर्घटना के योग होंगे, तो आपके पैर बार-बार रुकेंगे और आपका मन करेगा कि चलो एक बार फिर घर में प्रवेश कर लूँ, पानी पी लूँ या थोड़ी देर कोई अन्य कार्य कर लूँ, तब आगे बढूँ। आपको आपका अन्तर्मन सदैव सजग करता है। यदि आप अपना अन्त:करण निर्मल बनाए रखते हंै, तो आपके अन्दर बैठी हुई ‘माँ’ हरपल आपकी मदद करती चली जायेंगी। जिस प्रकार माता-पिता अपने एक अबोध शिशु की रक्षा करते हैं कि कब उन्हें वस्त्रों की ज़रूरत है, कब उन्हें ठण्डी-गर्मी से बचाना है, कब उन्हें खिलाना-पिलाना है? वही सबकुछ ‘माँ’ आपके साथ करने लगेंगी। हमारी, आपकी मदद करने के लिए ‘माँ’ हरपल व्याकुल हैं, हम अपने अन्त:करण को निर्मल बनाकर तो रखें।

गुरुसत्ता, परमसत्ता एवं आत्मसत्ता, इन तीनों में ‘माँ’ समाहित हंै। सबसे पहला समर्पण अपने आत्मतत्त्व के प्रति रखो कि मेरी आत्मा में ‘माँ’ बैठी हुई हंै, ‘माँ’ हरपल मेरे साथ हैं, तो क्यों न मैं ‘माँ’ के सान्निध्य में रहूँ? यदि ‘माँ’ हमें कुछ प्रदान नहीं कर सकतीं, तो दुनिया की और कौन सी शक्ति प्रदान कर सकती है? चूँकि सब कुछ ‘माँ’ से निर्मित है, समस्त देवी-देवता, ब्रह्मा, विष्णु, महेश, ऋषि-मुनि-यति आदि। इससे परमसत्ता और आत्मा के प्रति हमारा लगाव बढ़ने लगेगा और हम अपने शरीर के प्रति सदैव के लिए सजग हो जायेंगे कि हमें क्या भोजन करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए? इस शरीर को कितना आराम देना चाहिए? कितना कर्म करना चाहिए? हमें कितने समय उठना चाहिए और कितने समय लेटना चाहिए? प्रकृति के बनाए गये नियमों पर हमारा आकर्षण बढ़ जायेगा कि हम कौन-कौन सी ऐसी चीजें प्राप्त करलें, जिससे हमारी और आत्मा की नज़दीकता बढ़ जाये?

दिनभर प्रयास किया करो और रात्रि में जब बिस्तर पर विश्राम करने जाओ, तो सोचो कि आज हमने क्या-क्या अच्छे कर्म किए और क्या-क्या बुरे कर्म किए? मैं ये बुरे कर्म न करता, तो क्या मेरा कुछ बिगड़ जाता? किन कार्यों ने मेरी सात्विक ऊर्जा को नष्ट किया है और किन कार्यों से मेरी ऊर्जा बढ़ी है? जो अच्छे कार्य हों, उनको बढ़ाना प्रारम्भ कर दो और जो गलत हों, उन पर अंकुश लगा दो कि आगे से मुझसे ऐसे कार्य नहीं होंगे। हम जहाँ से अपने जीवन को संवारना प्रारम्भ कर देते हैं, वहीं से वह संवरने लगता हैं।

आत्मा को किसी ऊर्जा की ज़रूरत नहीं है, वह पूर्ण है, परिपूर्ण है। हम जो मन्त्रजाप करते हैं, ध्यान करते हैं, साधना-स्तुति करते हैं, वन्दना करते हैं, सत्संग करते हैं, ये सभी क्रियाएं आत्मा पर पड़े आवरणों को हटाने के लिए हंै। अत: इनमें और तीव्र गति लाओ। कोई भी मनुष्य दु:ख नहीं चाहता है और जब उसे सुख ही चाहिए, तो सुख का मूल स्रोत क्या है? सुख का मूल स्रोत आपके द्वारा किए गये सत्कर्म हैं और जब सुख का मूल स्रोत सत्कर्मों पर आधारित है, तो क्यों न एक बार संकल्प ले लो कि जो बीत गया, वह बीत गया, लेकिन अब मंै केवल सत्कर्म करूंगा और मुझसे कोई दुष्कर्म नहीं होगा। जब से यह निर्णय ले लोगे, वहीं से तुम्हारा जीवन बदलता चला जायेगा, परिवर्तन होता चला जायेगा, परमसत्ता के प्रति तुम्हारी नज़दीकता बढ़ती चली जायेगी। आपका आभामण्डल धीरे-धीरे करके बढ़ता चला जायेगा और ऊर्जा एवं चेतनातरंगें बाहर की ओर आना प्रारम्भ कर देंगी।

 हर मनुष्य का एक आभामण्डल है और जिसका आभामण्डल जितना प्रभावक व सतोगुणी होगा, उसकी कार्यक्षमता उतनी ही बढ़ती चली जाती है तथा उसकी समस्याओं का समाधान उतनी ही सहजता से होता चला जाता है। जिसका सात्विक आभामण्डल जितना कमज़ोर होगा, वह उतना ही तनाव व समस्याओं से ग्रसित होगा। अत: अपने आभामण्डल को सतोगुणी और प्रभावक बनाओ, इसे विज्ञान भी स्वीकार करता है। अपने अन्दर की प्राणशक्ति को प्रभावक बनाओ, प्राणों में सारा सार समाहित है। मेरे द्वारा हमेशा कहा जाता है कि घर-परिवार की समस्याओं के बीच रहते हुए जो भी समय मिल सके, उसे ध्यान-साधना-प्राणायाम के लिए अवश्य दिया करो। तुम एक संकल्प ले लो कि हम सामान्य जीवन नहीं जियेंगे, हम साधक का जीवन जियेंगे तथा परिवार के प्रति जो कत्र्तव्य हैं, अपनी जो जिम्मेदारियाँ हैं, उनका भी निर्वहन करेंगे और अपनी आत्मा के प्रति जो हमारा कत्र्तव्य है, हम उसका भी निर्वहन करेंगे।

सभी माता-पिता अपने बच्चों से प्रेम करते हैं, लेकिन मेरा मानना है कि वे माता-पिता कभी अपने बच्चों से सच्चा प्रेम नहीं कर सकते, जो अपने आपसे प्रेम न करते होंगे। चूंकि जो अपने आपसे प्रेम करता है, उसी की सतोगुणी तरंगें, सतोगुणी कोशिकाएं उन बच्चों को प्रभावक बनायेंगी। अन्यथा, जो अपने आपसे प्रेम नहीं करता, वह अपने आपको सतोगुणी आभामण्डल की ओर नहीं ले जा सकता और उसके द्वारा जन्म लेने वाली सन्तानें कभी चेतनावान् बन ही नहीं सकतीं। अत: यदि तुम अपने बच्चों से प्रेम करते हो और चाहते हो कि हमारी आने वाली पीढिय़ाँ और जो बच्चे जन्म लें, वे चेतनावान् बनें, तो अपने आपको शुद्ध, सात्विक, पवित्र व निर्मल बनाओ। किसी बच्चे या मनुष्य की प्रथम पाठशाला उसका घर होता है।

तुम ‘माँ’ की चाहे जितनी आराधना करते रहो, यदि तुमने अपने अंत:करण और अपने आवास को शुद्धता, पवित्रता का परिवेश नहीं दिया है, तो कभी भी तुम्हें सुख-शान्ति व समृद्धि प्राप्त नहीं हो सकेगी। यदि पूर्व के संस्कारों से कुछ प्राप्ति हुई भी होगी, तो एक तरफ शान्ति होगी, तो दूसरी तरफ कोई न कोई अशान्ति आपको क्षति पहुंचा रही होगी। अत: अपने घर को शुद्ध-सात्विक व पवित्र मन्दिर बना डालो, लेकिन मंदिर बनाने का तात्पर्य यह नहीं है कि घर को तोड़कर उसे मंदिर का स्वरूप दे दो, बल्कि उस घर की साफ-सफाई रखो, शुद्धता का वातावरण बनाकर रखो और घर के ऊपर केवल ‘माँ’ का ध्वज लगा दो। यदि आपके घर के ऊपर माता आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा का ध्वज लगा हुआ होगा, तो सात्विक तरंगें स्वत: उस स्थान पर केन्द्रित हो जायेंगी।

आजकल लोग घरों में नाना प्रकार के वास्तुदोष होना बता देते हैं कि यह दीवार गलत बनी है, दरवाजा गलत दिशा में है, यह त्रिकोण है, यह सिंहमुखी है, आदि दोष बता देते हैं। मैं यह नहीं कहता कि वास्तु का प्रभाव नहीं होता, मगर उन सभी प्रभावों को काटने की सामथ्र्य उस परमसत्ता के लाल ध्वज में होती है। यदि ‘माँ’ का वह लाल ध्वज घर में फहरा रहा है, तो उन समस्त दोषों का निवारण करने की उसमें क्षमता है। 

वास्तुदोष ठीक करने के नाम पर आप घर में कभी कोई लॉकेट लेकर टांग दोगे, कभी कोई प्लांट लगाओगे, कभी कुछ भी रख दोगे, तो क्या घर का वातावरण सुधर जायेगा? मेरा मानना है कि अपने अंत:करण को निर्मल बना लो, अपने घर में ‘माँ’ का ध्वज लगा दो, घर के अन्दर शुद्धता और साफ-सफाई रखो और घर की नारी, वह चाहे आपकी बेटी हो, बहन हो, पत्नी हो या बहू हो, उसे सम्मान का जीवन जीने दो। ये छोटे-छोटे महत्त्वपूर्ण क्रम हैं, जिन्हें आप अवश्य अपनाओ। फिर देखोगे कि उस घर में अपने आप सुख-शान्ति-समृद्धि आने लगेगी। ‘माँ’ की आराधना का तात्पर्य यही है कि जो हमसे गल्तियाँ हो रही हैं, उन्हें हम सुधार लें। पति अपनी पत्नी का सम्मान करे, पत्नी अपने पति का सम्मान करे और घर में लड़ाई-झगड़े का वातावरण न बने। यदि घर में लड़ाई-झगड़े का वातावरण बनेगा, तो अशान्ति रहेगी और बच्चों का प्रारम्भिक जीवन ही तनावग्रसित हो जायेगा। अत: आप लोग ‘माँ’ का ध्वज लगाकर घर के वातावरण को सुधारो।

अपने माथे पर कुंकुम का तिलक लगाकर रखो। यह आज्ञाचक्र है, जिसे राजाचक्र भी कहा जाता है। जहाँ से हम अपने अंत:करण की ऊर्जा का कार्य लेते हैं, देवी-देवताओं को पूजते हैं, गुरु को पूजते हैं। जिस तरह आप गुरु से आशीर्वाद लेना चाहते हो, गुरु का वंदन-पूजन-स्तुति करना चाहते हो, मगर अपने आपसे भी तो कुछ लाभ चाहते हो और हरपल लाभ लेते भी हो। तुम किसी का नाम भूल गये हो और आँख बन्द करके याद करते हो, थोड़ा सोचते हो, याद आ जाता है। पढ़ाई करते समय जो कुछ भी बच्चे पढ़ते हैं और वर्षों पहले पढ़ी गई बातों को थोड़ा आँख बंद करके सोचते हैं, वे याद आ जाती हैं। दुनियाभर के कार्य जहाँ तुम अपने शारीरिक बल से करते हो, मानसिक बल से करते हो, बौद्धिक क्षमता से करते हो, तब तुम अपने इस आज्ञाचक्र का उपयोग करते हो, जो दोनों भौंहों के मध्य होता है। इसलिए हमारा कत्र्तव्य बनता है कि हम सदैव अपने आज्ञाचक्र का पूजन करके रखें। जिसको कुंकुम का तिलक लगाने से त्वचा एलर्जी की समस्या हो, तो चंदन आदि जो उपयुक्त हो, उसका तिलक लगाकर रखें।

आज्ञाचक्र को कभी खाली नहीं रखना चाहिए। यदि हमारा आज्ञाचक्र तिलक से आच्छादित रहता है, तो उसके माध्यम से सात्विक तरंगें हमारे शरीर को चैतन्य बनाती रहती हैं और असात्विक तरंगें दूर रहती हैं। नज़र लगना, जादू-टोना, तंत्र, ये सब प्रभाव केवल छोटे बच्चों पर ही नहीं पड़ते, बल्कि बड़े भी प्रभावित होते हैं। जब बड़े-बुजुर्ग बाज़ार आदि जाते हैं और लौटकर कहते हैं कि घर से गये थे, तब तो स्वस्थ थे, बाज़ार घूमकर आये, तो आलस्य सा लगने लगा, तनाव सा लगने लगा। यदि आप आज्ञाचक्र पर कुंकुम का तिलक लगाकर निकलते हो, तो कोई भी दूषित तरंग आपको प्रभावित नहीं कर सकेगी। आप श्मशान में भी लेटे रहोगे और यदि आपके आज्ञाचक्र पर कुंकुम का तिलक लगा हुआ है, तो श्मशान की कोई विपरीत आत्मा आपके शरीर में प्रवेश कर ही नहीं सकती। अनुभव करके देखो। दूसरे लोग श्मशान आदि जाने में डरते होंगे, वहाँ से प्रभावित होकर आते होंगे, किन्तु आप कुंकुम का तिलक लगाकर दिन-रात श्मशान में घूमते रहो और यदि तुम परमसत्ता के आराधक हो, तुम नशे-मांस से मुक्त चरित्रवान् जीवन जीते हो, तो कोई भी असात्विक आत्मा आपके शरीर में प्रवेश नहीं कर सकेगी। हमारी अपनी समस्याओं के निदान के लिए यह बहुत सरल-सुगम मार्ग है और ये ऐसी क्रियायें है, जिनमें चढ़ावा नहीं चढ़ाना पड़ता, कोई पैसा खर्च नहीं करना पड़ता। ये बहुत सरल क्रियायें हैं, अत: इन छोटी-छोटी क्रियाओं को सीखो।

अपने अन्दर मनुष्यता के गुण समाहित करते जाओ और जिस दिन आपके अन्दर मनुष्यता की पूर्णत्व विचारधारा समाहित होने लगेगी, आप उस परमसत्ता माता आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा के बिल्कुल नज़दीक पहुंच जायेंगे। फिर ‘माँ’ की ममता के अथाह सागर में जितनी डुबकी लगाना चाहो, लगा सकते हो। एक ऐसा सागर, जिसका आज तक न कोई पार पा सका है, न कभी पार पा सकेगा। आनन्द का, ममता का, करुणा का सागर, कि जितना डूबो, उतनी ही तृप्ति, उतना ही आनन्द। यह एक अलग ही मार्ग है। यदि हम इस मार्ग पर स्वयं न बढ़ें और दु:खों-समस्याओं के बीच घिरते चले जायें, तो किसका दोष है? पेड़ की डाल को स्वयं पकड़े लटके रहो और कहो कि पेड़ हमको छोड़ नहीं रहा है! उसी तरह आपने कुविचारों, काम, क्रोध, लोभ, मोह को पकड़ रखा है, आपने भौतिकता को जकड़ रखा है और मेरा मानना है कि जितना आप अपने बच्चों के लिए, पत्नी के लिए, अपने पति के लिए, अपनी सम्पदा के लिए, अपना भवन बनवाने के लिए भौतिकता से जकड़े हुए हो, यदि उतना ही आकर्षण उस परमसत्ता की प्राप्ति के लिए करलो, अपनी आत्मा के निखार के लिए करलो, तो जीवन संवर जायेगा।

नित्यप्रति सोचो कि मैं और क्या अर्जित कर लूँ? जिस तरह अपने बेटे-बेटी के लिए, माता-पिता के लिए ख्याल रखते हो कि कब क्या करना है? उसी तरह आप सोचने लगो कि मुझे इस आत्मा को निखारने के लिए शरीर को शुद्ध रखना है, मन को शुद्ध रखना है, कुविचारों को दूर रखना है और चैतन्यता के वातावरण में रहना है, नशे-मांस से मुक्त चरित्रवान् जीवन जीना है, सात्विक भोजन करना है, मंत्रों का जाप करना है, ध्यान करना है, ‘माँ’  की स्तुति-वन्दना करना है। इस तरह सोचने लगोगे, तो ‘माँ’ की नज़दीकता मिलने लगेगी। निष्काम साधना की ओर बढ़ो। अपने आपका चिन्तन करना, अपने आत्मकल्याण का भाव रखना, निष्काम साधना ही कहलाती है। वैसे तो मेरे द्वारा कहा गया है कि कोई भी ऐसी साधना नहीं होती है, जो निष्काम हो। भले ही बड़े-बड़े ग्रन्थ कहते हों कि निष्काम कर्म करो, मगर उनका अर्थ समझने में लोगों के  अन्दर भ्रान्ति होजाती है।

निष्काम कर्म का तात्पर्य है, जो सतोगुणी कर्म हों, वही निष्काम कर्म कहलाते हैं और अन्य जो भौतिकजगत् से जुड़े हुए कर्म हैं, वे सकाम कर्म कहलाते हैं। क्योंकि, बिना कामना के आप कोई कर्म कर ही नहीं सकते हो। कोई किसी पुस्तक को तभी पढ़ता है, जब उसे कुछ याद करना होता है या कोई जानकारी की आवश्यकता होती है। आप बैठे हुए हो और यदि दो कदम भी चलना है, तो पहले कामना आयेगी कि किसी कार्य से वहाँ जाना है, तभी आप उठकर चलोगे। कोई भी कर्म बिना कामना के आप नहीं करोगे। एक भी कार्य को सोचकर देख लो, बिना कामना के आपका शरीर कोई कर्म नहीं करेगा, उसके पीछे कोई न कोई कामना ज़रूर जुड़ेगी। अत: उस कामना को सतोगुणी बनाओ, आत्मकल्याणकारी बनाओ, परोपकारी बनाओ और अपने जीवन को बदल डालो।

 यही सब तो ‘माँ’ की आराधना है। चूंकि ‘माँ’ को हमने जगत् जननी शब्द से सम्बोधित किया है कि जहाँ वह मेरी ‘माँ’ हैं, वहीं वह जगत् जननी भी हैं। यदि वह जगत् जननी हैं, तो हमें समस्त जीवों से प्रेम होना चाहिए और सबसे पहले स्वयं के समान स्वरूप वाली मानवता से तो हम प्रेम करें। यदि आप ‘माँ’ की बहुत आराधना कर रहे हैं, किन्तु मानवता से प्रेम नहीं कर रहे हैं, तो आप ‘माँ’ के सच्चे भक्त कभी बन ही नहीं सकते। हमारी आराधना का भी एक पक्ष है। जिस तरह आरती करना, मंत्र जाप करना, भोग चढ़ाना आदि नाना प्रकार के पक्ष हैं, उसी प्रकार मानवता से प्रेम करना भी हमारा एक पक्ष है। ये सब ‘माँ’ की आराधना के ही पक्ष हैं।

छुआछूत, जातीयता से बिल्कुल ऊपर उठ जाओ। हम इन्सान हैं और परमसत्ता ने हम, आप सभी को बनाया है। अत: छुआछूत को बिल्कुल बढ़ावा न दें। मेरे द्वारा भगवती मानव कल्याण संगठन के लिए बार-बार निर्देशित किया जाता है कि एक बार अपने मन को दृढ़ कर लो कि मैं अंशमात्र भी अपने अन्दर छुआछूत के भाव को स्पर्श नहीं होने दूंगा। सफाई-शुद्धता से रहो, मगर जाति के आधार पर छुआछूत कभी मत करो। मेरे द्वारा एक प्रतिशत भी छुआछूत को प्रश्रय नहीं दिया गया। मैं प्रारम्भ से आज तक सभी का छुआ भोजन करता हूँ, सभी के साथ उठता-बैठता हूँ, मेरा धर्म कभी नष्ट नहीं हुआ।

 गंदगी की सफाई करने वाले कर्मचारियों को समाज सबसे नीची जाति का मानता है। जब मैं आठवां महाशक्तियज्ञ सम्पन्न कर रहा था, तब उस कार्यक्रम में शौचालय आदि की सफाई के लिए कुछ लोगों को व्यवस्था में लगाया गया था और उनमें से एक वृद्ध व्यक्ति भी था, जो वहाँ सबसे ज़्यादा साफ-सफाई के काम में लगा रहता था। यज्ञ के बाद प्रणाम के क्रम के पश्चात् जब मैं वहाँ से चलने वाला था, तो वह कर्मचारी लेट्रिन की सफाई में लगा हुआ था। उसने देखा कि गुरुजी जा रहे हैं, तो उसने शीघ्रता से हाथ-पैर धुले और दौड़कर चरणस्पर्श करने के लिए आने लगा। तभी, कुछ कार्यकर्ताओं ने उसे यह कहकर रोक दिया कि अभी तुम लेट्रिन की सफाई कर रहे थे, इसलिए गुरुजी के पास जाकर चरणस्पर्श मत करना! मेरी निगाह दूर से ही उसके ऊपर थी और उसी समय तत्काल मैंने कहा कि उसको सबसे पहले आने दो। मैंने कहा कि चरणस्पर्श करने का सबसे पहला अधिकार उसका है, क्योंकि वह उन लोगों की गंदगी साफ करता है, जो उस गंदगी को साफ करने में घृणा करते हैं। वह बेचारा हाथ साफ करके, पैर धुलकर आ रहा है, तो उसके अन्दर क्या छुआछूत लग गई? क्या किसी चीज़ को छू लेने से छुआछूत लग जाती है? यदि छू लेने से छुआछूत लग जाती है, तो प्रत्येक मनुष्य के अन्दर वह गंदगी भरी हुई है। मेरे लिए छुआछूत का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। अत: इन चीजों से ऊपर उठकर इन्सानियत का पाठ पढ़ो और जिस दिन तुम्हारे रोम-रोम में यह इन्सानियत समा जायेगी, तुम जातिभेद और छुआछूत से ऊपर उठ जाओगे और तभी तुम ‘माँ’ के सच्चे भक्त बन सकोगे।

धनवान् नहीं, धर्मवान् बनो। तुम्हारे अन्दर का विवेक जाग्रत् होना चाहिए कि मुझे धर्मवान् बनना है, धर्म ही मेरा जीवन है, धर्म ही मेरी वर्तमान में रक्षा करेगा और आने वाले जीवन में भी धर्म ही मेरी रक्षा करेगा। धर्म के बदले सबकुछ त्यागने के लिए तत्पर होजाओ और जिस दिन तुम धर्म को हासिल करने के लिए व्याकुल हो जाओगे, जिस दिन धर्म के प्रति तुम्हारा लगाव हो जायेगा, उस दिन तुम समझ पाओगे कि मनुष्यता के ऐसे कौन-कौन से कर्म हैं, जिनको करने से हमारा धर्म सुरक्षित रहता है। मनुष्यता के लिए करने वाले जो कर्म हैं, केवल उनको करना प्रारम्भ कर दो। धर्म की रक्षा करना हर मनुष्य का प्रथम कत्र्तव्य होना चाहिए और उसी धर्म की रक्षा के लिए मैंने तीन धाराएं बनाईं हैं।

अपने धर्म की रक्षा के लिए मानवता की सेवा सबसे श्रेष्ठ मार्ग है। मानवता की सेवा ही एक ऐसा मार्ग है, जिससे ऊपर न हमारा राष्ट्र है और न हमारा अपना धर्म विशेष है। हम हिन्दू हैं, मुस्लिम हैं, सिख हैं, ईसाई हैं, मानवता इन सबसे ऊपर है। मानवता ही हमें सिखाती है कि यदि मानवता की सेवा की आवश्यकता हो, तो हम राष्ट्र की सीमाओं को भूल जायें। मानवता हमारे लिए श्रेष्ठ है। यदि कोई दूसरे राष्ट्र का भी हो और यदि वह घायल पड़ा हुआ है तथा हमसे मदद चाहता है, तो उस घायल की मदद करना हमारा प्रथम धर्म कहलाता है। कोई भी हमारी मदद मांग रहा है, तो उसकी मदद करना हमारा प्रथम धर्म होता है और उसके लिए चाहे पूजा-पाठ छोडऩा पड़े या कुछ भी करना पड़े। उन परिस्थितियों में न धर्म विशेष बाधक बनता है और न राष्ट्र बाधक बनता है।

 मानवता की सेवा धर्म का ही एक अंग है तथा तीन अंगों में ही धर्म जुड़ा हुआ है। पहला अंग है धर्म की रक्षा करना, जिसका तात्पर्य है कि आप हिन्दू, मुस्लिम, सिख या ईसाई हो, तो अपने-अपने धर्मों का गहराई से पालन करो एवं अन्य सभी धर्मों का सम्मान करो, उसी को धर्म की रक्षा करना कहते हैं। दूसरा अंग है राष्ट्र की रक्षा करना, यह हमारा राष्ट्र के प्रति कत्र्तव्य है और यदि हमारा राष्ट्र सुव्यवस्थित रूप से नहीं चल रहा होगा, हमारा राजा निरंकुश होगा, अत्याचारी होगा, विषयविकारी होगा, तो समाज की समस्याएं इतनी बढ़ती चली जायेंगी कि हमारा धर्म भी सुरक्षित नहीं रह पायेगा। यह सब अतीत में हुआ है कि मंदिर तोड़े गए, लोगों से जबरन धर्मपरिवर्तन करवाया गया। जब हमारा राष्ट्र असुरक्षित होजाता है, तो यह सब होने लगता है। अत: तीनों धाराओं के प्रति सजग हो जाओ। मेरे द्वारा इसीलिए धर्मरक्षा, राष्ट्ररक्षा और मानवता की सेवा के लिए सबसे पहले भगवती मानव कल्याण संगठन का गठन किया गया। दूसरे क्रम में, धर्म की रक्षा के लिए पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम की स्थापना की गई कि हम अपने धर्म को किस तरह प्रभावक बनाएंगे, मनुष्यता के गुण हमारे अन्दर कहाँ से आयेंगे? उसकी पाठशाला के लिए मैंने पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम की स्थापना की एवं फिर तीसरे क्रम में राष्ट्ररक्षा के लिए भारतीय शक्ति चेतना पार्टी का गठन किया।

भारतीय शक्ति चेतना पार्टी का गठन राजसत्ता का सुख भोगने के लिए नहीं किया गया है। मैं इस पार्टी से जुड़ने वाले लोगों के अन्दर पात्रता भरना चाहता हूँ कि कर्म करते हुए आगे बढ़ो। भगवती मानव कल्याण संगठन एवं तीनों धाराओं से जुड़े हुए लोगों को मैं अपाहिज, अपंग नहीं बनाना चाहता, बल्कि उनके अन्दर चेतना का संचार करना चाहता हूँ, चेतना भरना चाहता हूँ कि तुम कर्म करो और पात्रता हासिल करो। पहले अपने आपको मनुष्यता की उस सीढ़ी तक ले जाओ, अपने क्षेत्रों में समाज से जुड़ो, उनके दु:ख-दर्द को दूर करने के लिए पूरी क्षमता से लग जाओ और जब समाज तुम्हें स्वीकार कर ले, तब तुम्हें राजसत्ता में बैठने का अधिकार है। चूंकि मेरा लक्ष्य सुनिश्चित है और उसे दुनिया की कोई भी ताकत क्षीण नहीं कर सकती है।

तीनों धाराओं के लक्ष्य को लेकर मैं अकेला चला था। एक-एक, दो-दो व्यक्तियों को जोड़ते हुए आगे बढ़ रहा था, मगर मैंने भविष्य निर्धारित कर दिया था। जब मुझसे मिलने एक भी व्यक्ति नहीं आता था, तब मैंने कहा था कि आने वाले समय में मुझसे मिलने वालों की लाइन लगेगी और कई बार तो हो सकता है कि समय के अभाव में लोग मुझसे मिल भी नहीं सकेंगे तथा आज मैंं एक-एक व्यक्ति को बिठाकर चिन्तन दे रहा हूँ और आने वाले समय में लाखों-लाख लोग उन चिन्तनों को प्राप्त करेंगे। मेरे द्वारा पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम की स्थापना कहाँ और किस भूखण्ड पर की जायेगी, यह सब मैंने तब व्यक्त कर दिया था, जब आश्रम के लिए भूमि तक नहीं ली गई थी, संगठन का गठन तक नहीं किया गया था। मैंने तब व्यक्त कर दिया था कि मेरा लक्ष्य क्या होगा, क्या पात्रता होगी, किस बिन्दु से लेकर समाज को किस बिन्दु तक पहुंचाऊंगा? मैंने शिखर से शून्य की यात्रा तय की है कि शून्य में पड़े हुए लोगों को शिखर में पहुंचा सकूँ, मुझे शिखर पर जाने की आवश्यकता नहीं है।

 तीनों धाराओं का गठन करने के बाद जब तक पात्रता के योग्य कोई नज़र नहीं आया, तब तक उन व्यवस्थाओं को मैं स्वत: ही संभालता रहा और जब आप लोगों के अन्दर पात्रता आती चली गई, आप लोगों को मैंने तैयार किया, कार्यकर्ताओं को तैयार किया और संचालन करने के लिए उनकी मुखिया के रूप में अपनी तीनों पुत्रियों पूजा, संध्या और ज्योति को तैयार किया, उनको पात्र बनाया, उन्हें संस्कार दिए, ज्ञान दिया, अपना सान्निध्य दिया, अपनी ऊर्जा दी और उस पात्रता को देखने के बाद मैंने वर्ष 2015 से उन तीनों धाराओं की जिम्मेदारियाँ अलग-अलग देकर तीनों को एक सूत्र से बांध दिया। मैंने स्वत: कहा था कि मेरा पूरा जीवन ‘माँ’ की आराधना भक्ति से जुड़ा हुआ है, समाज के मार्गदर्शन से जुड़ा हुआ है, अपने अस्तित्व को समभाव से बांटने के लिए जुड़ा हुआ है।

पूजा के हाथ में मैंने भगवती मानव कल्याण संगठन की बागडोर देकर संगठन का अध्यक्ष नियुक्त किया, भारतीय शक्ति चेतना पार्टी की बागडोर संभालने के लिए संध्या का चयन किया गया और उस पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम की संचालक के रूप में ज्योति का चयन किया गया। इसके लिए आज से नहीं, उनके जन्म के पहले से ही उसी तरह की पात्रता का आवाहन किया, उनके गर्भ में रहने पर भी उसी तरह की पात्रता देने का प्रयास किया एवं जन्म होने के बाद से आज तक उनके अन्दर संस्कारों को भरता रहा और जीवन की अंतिम सांस तक भरता रहूँगा। मैं विचारों का जीवन जीता हूँ और वही विचारधारा आपके अन्दर भर रहा हूँ कि आप कार्य करो। मुझे समाज का एक भी पद नहीं चाहिए, परमसत्ता ने जो पद मुझे दे रखा है, उस पद की तुलना में त्रिभुवन का सुख पैर से ठोकर मार देने के बराबर है।

मैं अपनी ऊर्जा सतत आपको बांटता रहूँगा। तीनों धाराओं के प्रति मेरा पूरा जीवन समर्पित रहेगा। इन तीनों धाराओं से जुड़कर आप लोगों को समर्पण भाव से आगे बढ़ते रहना है, मगर खजूर के पेड़ की तरह नहीं! हमें एक वटवृक्ष के समान अपनी जड़ों को मजबूत करके आगे बढऩा है। हमारी दो-चार शाखायें कोई काट भी ले, तो वहाँ से भी अनेक शाखाएं पनप जायेंगी। यदि कोई हमारी जड़ों को भी काट दे, तो शाखाओं से ही जड़ें पनप जायेंगी, ऐसा भगवती मानव कल्याण संगठन चाहिए, ऐसा पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम चाहिए और ऐसी भारतीय शक्ति चेतना पार्टी चाहिए कि हम एक पर आश्रित नहीं हैं, हमारी चेतनाएं अनेक भागों में विभक्त हैं। दुनिया का कोई भी शत्रु इन शाखाओं को नष्ट नहीं कर सकता।

मैंने जिन तीन धाराओं की स्थापना की है, आने वाला भविष्य इस बात को प्रमाणित करेगा कि भगवती मानव कल्याण संगठन के समकक्ष इस भूतल पर दूसरा कोई समाजसेवी संगठन नहीं है। पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम विश्व की धर्मधुरी बनेगा, जहाँ ‘माँ’ का अखण्ड गुणगान चल रहा है और मेेरे कथन कभी खाली नहीं जाते। मैं इस भोपाल से दृढ़ता एवं संकल्प के साथ दोहराता हूँ कि आने वाले भविष्य में भारतीय शक्ति चेतना पार्टी का ही जीता हुआ कोई प्रत्याशी एक न एक दिन दिल्ली के लाल किले से राष्ट्रध्वज फहराएगा या फहराएगी। वे रास्ते खुले हैं और मेरी निगाहों में सबकुछ स्पष्ट है। वह फहराएगा या फहराएगी, यह भी स्पष्ट है, मगर आप सीमित न हो जाओ, असीमित बनकर आगे बढ़ो और उस लक्ष्य को दुनिया की कोई ताकत रोक नहीं पायेगी। आपकी जड़ों को मज़बूत करने के लिए ही मैं आया हूँ। हम कर्म करते चले जायें और हमें एक दिन में फल की इच्छा कभी नहीं करनी है, बल्कि हमें तो बस वह करना है, जिससे हमारे अन्दर पात्रता आये, हमारी भूख अपनी पात्रता के लिए होनी चाहिए कि हम पात्र बनें।

यदि कोई नाली आगे है और हम सोचें कि कोई हमको पार करा दे, तो यह अपेक्षा करना अपाहिज लोगों का कार्य होता है। मेरे शिष्य कभी अपाहिज नहीं हो सकते, मेरे शिष्य कभी असमर्थ नहीं हो सकते। तुम चेतना मांगो और यदि तुम्हारे सामने कोई नाली है, तो अपनी आत्मा से चेतना मांगो, अपने गुरु से चेतना मांगो, अपनी परमसत्ता से चेतना मांगो कि उस नाली से छलांग लगाकर उस पार जा सको। कोई नाली, कोई खाई, कोई अवरोध तुम्हें रोक न पाये, उस ऊर्जा को देने के लिए मैं हरपल संकल्पित हूँ और इसीलिए समाज की अन्य जिम्मेदारियों से मुक्त होकर समभाव को ग्रहण करके सभी युवाओं का, वृद्धों का, महिलाओं का, पुरुषों का आवाहन करता हूँ, यहाँ तक कि छोटे-छोटे बच्चे-बच्चियों का आवाहन करता हूँ कि एक बार आओ, इस धरती माँ की पुकार को सुनकर उस ‘माँ’ के ध्वज को पकड़ लो और ऐसा पुरुषार्थ करो कि जगत् जननी तुम पर गर्व करें, यह धरती भी तुम पर गर्व करे, यह अम्बर भी तुम पर नाज़ करे।

एक बार बढ़कर आओ, एक बार अपने कर्मपथ को संवार लो, एक बार पुरुषार्थी बनकर देखो, तुम्हारा पुरुषार्थ इस समाज को नशे से मुक्त कर देगा, भ्रष्टाचार से मुक्त कर देगा, गौ-संरक्षण कर देगा, नारी का सम्मान दिला देगा, अधर्मियों-अन्यायियों को धूल चटा देगा और वह क्षमता तुम्हारे अन्दर है। एक बार अपने आप पर विश्वास कर लो, अपनी आत्मा पर विश्वास कर लो और जब तुम्हारी आत्मा में जगत् जननी बैठी हैं, तो वह क्या कुछ नहीं कर सकतीं? अरे वह तो समस्त लोकों की रचना करने वाली हैं। बस एक बार निर्णय करके उस पथ पर आकर खड़े हो जाओ और तब तुम महसूस करोगे कि तुम्हारी आत्मा तुम्हें ऊर्जा देती नज़र आयेगी, तुम्हारा गुरु तुम्हारे नज़दीक खड़ा नज़र आयेगा, परमसत्ता तुम्हारे नज़दीक खड़ी नज़र आयेंगी। उस परमसत्ता के आवाहन को सुनो, समझो, उस पुकार को जानो, इस मानवता की पुकार को सुनो और यदि तुम आगे नहीं आओगे, तो फिर दूसरा कोई भी इस मानवता का कल्याण नहीं कर सकेगा।

यह कलयुग नहीं, कर्मयुग है और आपको जागना ही होगा। जो जाग गया, वह सबकुछ बदल डालेगा। अपने पुरुषार्थ को जगाओ, अपने कर्म को जगाओ। जब कर्म के फलस्वरूप सबकुछ प्राप्त किया जा सकता है, तो क्यों न हम उस कर्मपथ की ओर चलें। हमें ‘माँ’ की अटूट भक्ति करना है, ऐसी भक्ति कि मेरा हर शिष्य संकल्प ले कि मैं ‘माँ’ की भक्ति ऐसी निष्ठा-विश्वास से करूंगा, जितनी भक्ति आजतक किसी ने भी न की होगी। उसमें आपकी न तो धन-दौलत लगती है और न ही मान-सम्मान लगता है। चाहे तुम गरीब हो, चाहे अमीर हो, भाव तो तुम्हारे अपने हैं और वे भाव अमीरों के पास देखने को नहीं मिलते, वे गरीबों के पास रहते हैं। परमसत्ता ने तुम्हें सबकुछ दे रखा है। इस कलिकाल ने चाहे तुमसे सबकुछ छीन लिया हो, तुम्हारे संसाधन छीन लिए हों, मगर तुम्हारे भावों को छीनने की क्षमता इस कलिकाल में नहीं है और जिन भावों को छीनने की क्षमता किसी में नहीं है, उसे ‘माँ’ ने तुम्हें दे रखा है। केवल उन भावों को जगा लो, अपने पुरुषार्थ को जगा लो। तुम जहाँ, जिस स्थिति में हो, अपने आपको संकल्पबद्ध करके मानवता की सेवा के लिए, आत्मकल्याण के लिए, धर्म की रक्षा के लिए अपनी पूरी क्षमता लगा दो।

धन-दौलत तुम्हारा साथ नहीं देगी। धन-दौलत कमाने वाले अनेक करोड़पतियों के घर में जाकर देखो। बेटा-बेटी चाहते हैं कि कब पिता मर जाये, तो उनकी सम्पत्ति मुझे प्राप्त हो जाये, पत्नी ही पति को मार डालना चाहती है या पति ही पत्नी को मार डालना चाहता है, यह सबकुछ समाज में हो रहा है। इसलिए ऐसा धन हासिल करो कि पत्नी तुमसे हज़ार गुना ज़्यादा प्रेम करने लगे, बच्चे तुमसे हज़ार गुना ज़्यादा प्रेम करने लगें, मानवता तुमसे हज़ार गुना ज़्यादा प्रेम करने लगे, तुम्हारी एक-एक सांस के लिए वे अपना जीवन समर्पण करने के लिए तैयार हों, ऐसा रास्ता तय करो। आप गुरु से प्रेम करते हो एवं गुरु से यही तो चाहते हो कि गुरु जी सदा हमारे साथ रहें और यदि आज आपको ज्ञात हो जाये कि कल गुरुजी की मृत्यु होने वाली है, तो अपना सबकुछ समर्पण करने लग जाओगे कि हमारे गुरुजी को और जीवन प्राप्त हो जाये, गुरुजी हमारे साथ और रहें। अत: ऐसा रास्ता तय करो कि ऐसा प्रेम लोग आपके लिए करें।

अपने आपको कर्मवान बनाओ। जो आत्मा मेरे अन्दर बैठी है, वही आत्मा आपके अन्दर बैठी है। उस आत्मा को इतना महान बना डालो कि केवल तुम्हारे घर के लोग ही नहीं, बल्कि समाज भी तुमसे प्रेम करने लगे और जब उनकी भावनाएं तुम्हारे साथ जुड़ जायेंगी, तो तुम बहुत कुछ करने में सामथ्र्यवान् बन जाओगे। अपनी सोच को बदलो, अपने विचारों को बदलो, सबकुछ बदलता चला जायेगा।

आस्थावान् बनो, अनास्थावादी नहीं। नास्तिक नहीं, आस्तिक बनो। यदि तुम्हारे अन्दर आस्तिकता जाग गई, तो फिर तुम्हारे पथ को कोई भी रोक नहीं पायेगा। एक बार अपनी सोच को उस बिन्दु पर ले जाकर खड़ा करो, तृप्ति मिलेगी। मैंने भी वैसा जीवन जिया है, मैंने भी किसान परिवार में जन्म लिया है, मैंने भी गरीबी के जीवन को देखा है, गाँव के ही बीच रहा हूँ, वहाँ खेला हूँ, कूदा हूँ, पढ़ा हूँ, कृषिकार्य भी किया है और आज भी मानवता के हर वर्ग के समाज से जुड़ा हुआ हूँ। एक बार अपने अन्दर भी वही विराटता लाने का प्रयास करो। तुम्हारा गुरु तुम्हारे अन्दर चेतना का ही संचार कर रहा है।

सबसे पहला कार्य अपने आपको बदलने का करो। नित्यप्रति विचार करो कि मुझसे कौन सी गलतियां हुईं हैं और मैं उन गलतियों को दुबारा नहीं करूंगा, आपका जीवन संवरता चला जायेगा। जो बीत गया, वह आपके हाथ में नहीं है, किन्तु वर्तमान आपके हाथ में है। वर्तमान को संवार लो, भविष्य अपने आप संवर जायेगा। सबकुछ देखते हुए अन्जान क्यों बनते हो? अरबों-खरबों की सम्पत्ति कमाने वाले मरकर चले जाते हैं और सब सम्पत्ति यहीं पड़ी रहती है। पापड़ बनाने वाले अरबों की सम्पत्ति के मालिक बन गए और मरकर चले गए, मगर सम्पत्ति नहीं लेजा सके, तो ऐसा चूहों का जीवन क्यों जीते हो कि लाते जाओ, भरते जाओ, समेटते जाओ और एक दिन पापी बनकर मर जाओ। अरे, मानवता के लिए कुछ करो। यदि तुम्हारे पुरुषार्थ से धन आ रहा है, तो बुराई नहीं है, मगर वह धन ईमानदारी से आ रहा हो, भ्रष्टाचार से न आ रहा हो। पुरुषार्थ से आने वाले धन के लिए भी जितना तुम्हारे जीवन और तुम्हारे परिवार की शिक्षा और स्वास्थ्य के लिए आवश्यक हो, अतिथि के स्वागत के लिए आवश्यक हो और उतने से ज़्यादा जो आ रहा है, वह मानवता की सेवा में लगना चाहिए। यही ‘माँ’ की सच्ची आराधना है, ‘माँ’ की सच्ची पूजा है।

मैं मानता हूँ कि सभी धनवान् नहीं बन सकते, मगर इस धरती का यदि हर इन्सान चाहे, तो धर्मवान् बन सकता है। जिस तरह तुम अन्य चीज़ों में प्रतियोगी भावना रखते हो कि पड़ोसी के पास साइकिल है और मैं पैदल चलता हूँ, मैं भी साइकिल लूँगा। मेरे पड़ोसी ने मोटरसाइकिल ले ली है, तो मेरे पास भी मोटरसाइकिल होनी चाहिए, मेरे पड़ोसी ने कार ले ली है, तो मेरे पास भी कार होनी चाहिए। प्रतियोगिता करो, तो इस क्षेत्र में कि हमारे ऋषि-मुनियों ने इसी धरती पर जन्म लेकर उन्होंने जिस उच्चता को प्राप्त किया था, तो मैं भी उस उच्चता को प्राप्त कर सकता हूँ। एक जन्म नहीं, चाहे सैकड़ों जन्म लग जायें, जब मेरी अन्तर्चेतना का ज्ञान कभी नष्ट होना ही नहीं है और मैं जितनी पात्रता इस जीवन में बढ़ा लूंगा, तो वह जन्म-दर-जन्म मेरी सहायता करती चली जायेगी, तो क्यों न मैं उस उच्चता की ओर बढ़ूँ, क्यों न मैं उस दिव्यता की ओर बढ़ूँ, जो सत्य का मार्ग है? चूंकि हमारे ऋषि-मुनियों ने वह सब करके दिखाया है। हमें केवल उनका अनुसरण करना है।

निर्णय तुम्हें करना है कि तुम धर्मपथ का चयन करते हो या अधर्मपथ का चयन करते हो! तुम्हारा बच्चा संस्कारी हो या कुसंस्कारी? यह तुम्हें चयन करना है। तुम्हारा बच्चा बहन-बेटियों की इज्जत की रक्षा करने वाला बने या उनकी इज्जत को तार-तार करने वाला बने, निर्णय तुम्हें करना है। मेरा मानना है कि यदि अन्तर्मन से निर्णय करोगे, तो सत्यपथ प्रिय नज़र आयेगा और यदि सत्यपथ प्रिय नज़र आये, तो उस पर चलो, यही ‘माँ’ की सबसे बड़ी आराधना है। हम मन से नित्यप्रति ‘माँ’ की स्तुति करें, आराधना करें और चौबीस घंटे अपने कार्यों के माध्यम से भी जगत् जननी की सृष्टि के साथ सामंजस्य बिठाकर चलें तथा विरोधी भाव लेकर न चलें, विरोधी कर्म न करें! 

देवी-देवताओं के नाम पर, ‘माँ’ के नाम पर बलि देना, इस भूतल का सबसे बड़ा जघन्य अपराध है। निश्चित रूप से इस अपराध से बचकर रहना और जो इन कर्मों में फंसे हुए हैं, उन्हें बचाना भी तुम्हारा धर्म होगा। इससे बड़ा अपराध कुछ और नहीं हो सकता कि काली के नाम पर बलि चढ़ाई जा रही है, अन्य देवी-देवताओं के नाम पर बलि चढ़ाई जाती है। अपने सुख के लिए परमसत्ता की ही रचना को, उन जीवों को काटकर बलि चढ़ा देना अक्षम्य अपराध है। यह दुर्भाग्य है कि देश 21वीं सदी में जा रहा है और भारत ही नहीं, अनेक ऐसे देश हैं, नेपाल से भी कुछ शिष्य इस शिविर में आये हुए हैं, वहाँ भी बलिप्रथा का प्रचलन है। हमें उसे रोकना है, लेकिन ऐसे नहीं कि कहीं बलि दी जा रही है, तो हम वहाँ जाकर उद्दण्डता मचाना शुरू कर दें। समाज को जगाना है। हमारा कार्य रचनात्मक है, हम समाज को जगाते, समझाते रहें और एक दिन ऐसा वातावरण बना दें कि वहाँ पर बैठे जो पुजारी-पण्डे हैं, वे इन्तजार करते रहें और वहाँ पर बलि चढ़ाने के लिए कोई पहुंचे ही नहीं। वह दिन निर्मित करो। जिस मन्दिर पर बैठकर वे पुजारी-पण्डे बलि चढ़वाते हैं, मैं उन्हेंं पुजारी-पण्डा मानता ही नहीं हूँ, बल्कि उन्हें जल्लाद मानता हूँ।

बलिप्रथा से अलग हटो, आडम्बरों से दूर हटो। निष्ठा व विश्वास से ‘माँ’ की भक्ति करो, घर में ‘माँ’ का ध्वज लगाकर रखो, माथे पर कुंकुम का तिलक लगाकर रखो, गले में रक्षाकवच डालकर रखो। मैं तुमको साधु-सन्त बनाने नहीं आया, गृहस्थ साधक बनाने आया हूँ कि ‘माँ’ के प्रतीकस्वरूप और मेरे आशीर्वादस्वरूप जो रक्षाकवच है, उसे गले में डालकर रखो, इससे आपका जीवन साधु-सन्तों से बढ़कर बन जायेगा। यदि मेरे बताये मार्ग पर चलोगे, तो तुम्हारे अन्दर इतनी पात्रता आ जायेगी कि उतनी पात्रता जगह-जगह घूमने वाले उन साधु-सन्त-संन्यासियों में नहीं होगी।

भगवे वस्त्रों को नमन करने का भाव छोड़ दो। अनेक लोगों से सुनो, तो वे कहते हैं कि हम तो भगवे वस्त्रों को नमन करते हैं, हम तो पीले वस्त्रों को नमन करते हैं और साधु-सन्त क्या करते हैं, इससे हमें क्या करना है? यही सबसे बड़ा पतन का कारण है और यदि भगवे वस्त्रों को ही नमन करते हो, तो मेरे द्वारा हर मंच से इसीलिए कहा जाता है कि फिर तुम्हें समय नष्ट करने की ज़रूरत नहीं है, अपना कमाया हुआ पैसा नष्ट करने की ज़रूरत नहीं है। ज़्यादा से ज़्यादा दो-तीन सौ रुपये का कपड़ा बाज़ार से ले आओ और अपने घर के किसी व्यक्ति के नाप का बनवाकर तथा उसे पहनाकर एक आसन में बिठाकर उसे रोज़ दण्डवत नमन कर लिया करो। क्या वे भगवे वस्त्र तुम्हे कुछ दे देंगे? कभी नहीं दे सकते। अत: भगवे वस्त्रों को नहीं, ज्ञान को नमन करो, पात्रता को नमन करो, जिसका अन्त:करण शुद्ध हो, उसे नमन करो, अधर्मियों-अन्यायियों को नहीं। इसके लिए तुम्हें अपने आपको जगाना होगा, अपने पुरुषार्थ को जगाना होगा।

  धर्मभीरू मत बनो, धर्मवान् बनो। धर्म से कैसा भय? भयवश धर्म को अपनाना भी अधर्म कहलाता है। प्रसन्नता से धर्म को स्वीकार करने से हमारा पुरुषार्थ जाग्रत् होगा। मनुष्योचित कर्म से ही इस मानवता का उद्धार किया जा सकता है, अत: उस पथ पर बढ़ने का संकल्प लो, अन्यथा धर्मभीरुता से निर्मल बाबा का वह काला पर्स नज़र आयेगा कि काला पर्स लेकर जायेंगे, शायद निर्मल बाबा हमारा काला पर्स भर देंगे! मैं इसी तरह के अधर्मियों-अन्यायियों को खुली चुनौती देता हूँ और यदि वे अधर्मी नहीं हैं, तो मैं आवाहन करता हूँ कि आयें और अपनी तपशक्ति का प्रदर्शन करें। मैं स्वत: यह करने के लिए तैयार हूँ तथा एक बार धर्मरक्षा के लिए तपशक्ति के परीक्षण का आयोजन होना ही चाहिए।

 चाहे कुमार स्वामी हों, चाहे निर्मल बाबा हों, सभी ने बीजमंत्र का पूरा व्यवसाय बनाकर रख दिया है। रामपाल का हाल अभी आप लोगों ने देखा ही है, आसाराम बापू का हाल आप लोगों ने अभी देखा ही है। इनसे भी तो लाखों-करोड़ों लोग जुड़े हुए थे। समाज विवेकी नहीं था और उसका परिणाम सामने है। यदि समाज विवेकवान् होता, समाज अपनी आत्मा से प्रेम कर रहा होता, अपनी बुद्धि, अपने मनमस्तिष्क को जगा रहा होता, तो मेरा मानना है कि थोड़ा भी समझदार व्यक्ति इस सत्य को स्वीकार कर लेगा कि जहाँ मैं सिर झुका रहा हूँ, वहाँ के क्रियाकलाप कैसे हैं? इस तरह के चक्रव्यूहों से भी समाज को बचाना है। समाज में अनेक संस्थायें आज भी उसी तरह की हैं। डेरा सच्चा सौदा, भगवान् के मैसेन्जर, सन्त बनते-बनते फिल्मी एक्टर बन गए और सरकारें भी उनकी फिल्मों को टैक्स फ्री कर रही हैं। बस एक छोटा सा अच्छा संदेश दे दो, बाकी कुछ भी करते रहो!

नंगे, लुच्चे-लफंगे लोग, चाहे वे आमिर खान हों, या चाहे और कोई खान हों, वे आज समाज को संदेश दे रहे हैं। 99 प्रतिशत नग्नता परोसने वाले एक-दो अच्छाई करके समाज में गौरवान्वित होना चाहते हैं, सम्मानित होना चाहते हैं! विदेशों का गुणगान करेंगे और देश को हीन बताने का प्रयास करेंगे। देश को समझाने के लिए दूसरे उदाहरण हो सकते हैं, मगर विदेशियों को महान बताकर अपने देश को नीचा दिखाना, इस तरह के विज्ञापनों पर रोक लगनी चाहिए। दिखा रहे हैं कि कोई महिला पुल के पास ले जाकर अपने बच्चे को ट्वायलेट करवा रही है! अरे, वह वहाँ न कराए, तो क्या तेरी जेब में करा दे? उनके लिए सरकार ने क्या किया? एक से दूसरे शहर चले जाओ, रोड के किनारे कोई कॉम्प्लेक्स बना मिलता हो, तो बताइये? पूरी की पूरी बाज़ार घूम लो, कहीं ट्वायलेट जाने की जगह मिलती हो, तो बताइये? जब हिन्दुस्तान के शासकों ने वह कार्य नहीं किया, तो पब्लिक कहाँ जाये? हाँ, जो गलतियाँ हो रही हैं, उन्हें सुधारा जाना चाहिए, सजगता से प्रयास करना चाहिए, मगर उस दिशा में उतना कार्य नहीं किया जाता, उस दिशा में उतना पैसा खर्च नहीं किया जाता, जितना पैसा दूसरे क्षेत्रों में खर्च किया जाता है।

मीडिया समाज में बहुत अच्छी जाग्रति पैदा कर रहा है, मगर मीडिया भी लाभ और लालच में ऐसे-ऐसे विज्ञापनों को देता है कि पत्नी और बच्चों के साथ न्यूज़ चैनल देखने में शर्मिंदगी से न्यूज़ चैनल बदलना पड़ता है। इस तरह के अश्लील विज्ञापन आ रहे हैं। गैरत मर चुकी है, इन्सानियत मर चुकी है और लोग धन के पीछे इतने पागल हो चुके हैं कि सोचना ही नहीं चाहते। सरकारों का दिमाग तो घुटने में पहुंच ही चुका है, मगर कम से कम तुम तो इन्सान हो, तुम तो जागो, तुम तो आवाज़ उठाओ। चन्द फिल्मी एक्टरों के परिवेश को धारण करने के लिए तुम व्याकुल होजाते हो और युवावर्ग सबसे ज़्यादा भटक रहा है, जो उन्हें आदर्श मान लेता है। अरे उनके नज़दीक जाकर देखोगे, तो पाओगे कि सौ में से निन्यानवे प्रतिशत फिल्मी एक्टरों का जीवन कितना बदतर है और बिना शराब, बियर पिये उन्हें नींद नहीं आती। सौ में से निन्यानवे प्रतिशत लोग चरित्रहीनता का जीवन जीते हैं और यदि ऐसा नहीं है, तो परीक्षण कराकर देख लिया जाये। मशीनों के सामने आयें और बोलकर देखें। क्या तुम चरित्रवानों का जीवन जीते हो या चरित्रहीनों का जीवन जीते हो?

चरित्रहीन फिल्मी एक्टर हमारी भारतीय संस्कृति के आदर्श कैसे हो सकते हैं? अनेक भारतीय नारियाँ हंै, हम उन्हें आदर्श मानें। अनेक महापुरुष हैं, जिन्होंने आदर्श स्थापित किए हैं। वर्तमान में भी राजनीति एवं समाजसेवा के क्षेत्र में अनेक नारियां हैं, वे तो हमेशा मर्यादित वस्त्र पहनती हैं, उन्होंने तो नग्नता के वस्त्र कभी नहीं पहने। मैं कभी वस्त्रों के लिए प्रतिबंधित नहीं करता, वस्त्रों के लिए स्वतंत्रता होनी चाहिए और वे कोई दिन मनाते रहें, चाहे वेलेन्टाइन डे मनाएं या कोई और डे मनाएं, मगर मेरे द्वारा अपने भगवती मानव कल्याण संगठन के लोगों को कहा जाता है कि हम समाज को जगाते ज़रूर रहें।

हमारी भारतीय संस्कृति-सभ्यता में बहुत कुछ है, जो विश्व में कहीं पर भी नहीं है। हम अपने आप पर गर्व करें, अपनी भारतीयता पर गर्व करें, अपनी मर्यादाओं पर गर्व करें, अपने देवी-देवताओं पर गर्व करें। यदि हम ये कार्य कर रहे होते, तो हमारे तथाकथित शंकराचार्य को साईं का भय न सताता। एक साईं के पूजन में भक्तों के बढ़ते हुए समूह ने शंकराचार्यों के आसन को डगमगा दिया, उन्हें लगा कि पूरा हिन्दू समाज उधर जा रहा है, हमारे मठों में चढ़ावा बन्द हो रहा है और वहाँ अरबों की सम्पत्ति चढ़ाई जा रही है! याद होगा, मैंने आज से पांच-सात साल पहले कहा था कि मैं गौरवान्वित महसूस करता हूँ कि कम से कम एक साधक, एक ऋषि का पूजन करने के लिए समाज आगे बढ़ने तो लगा। यह अलग बात है कि वहाँ केवल धनाढ्य ही जा रहे हैं, पैसों का अम्बार चढ़ाते जा रहे हैं। यदि वे साईं की उस विचारधारा को अपनाते कि वे किस तरह मानवता की सेवा में समर्पित थे, तो वे साईं के दर्शन करने ज़रूर जाते, मगर अपने करोड़ों रुपये वहाँ चढ़ाने की बजाय किसी गांव में जाकर गरीबों का कल्याण कर रहे होते।

 यदि हम विश्वामित्र, वशिष्ठ जैसे ऋषियों की आराधना कर रहे होते, उनके ज्ञान को फैला रहे होते, तो आज समाज का इतना पतन न होता। मैं शंकराचार्यों से पूछना चाहता हूँ कि आप धर्मप्रमुख, धर्म के ठेकेदार माने जाते हैं और हमारे धर्म में क्या कुछ नहीं भरा हुआ है, एक से एक दिव्य मन्दिर हैं, एक से एक दिव्य देवस्थान हैं, ऐतिहासिक स्थान हैं, हमारी धरोहर हैं, उनके सम्मान को बढ़ाने के लिए क्या किया गया? न आप देवस्थानों की रक्षा कर सके, न उनके सम्मान को बढ़ा सके और न उनसे जुड़ने वाली गरीब जनता को स्वीकार कर सके! आज भी हमारे शंकराचार्य छुआछूत मानते हैं, आज भी वह किसी हरिजन का बनाया हुआ भोजन नहीं कर सकते, आज भी गरीब जनता उनके नज़दीक नहीं जा सकती। उनको तो धनाढ्य, करोड़पति, अरबपति प्रिय हैं। सबकुछ ऐसा भटक रहा है कि यदि आज आवाज़ न उठाई गई, तो समाज का पतन इसी प्रकार होता चला जायेगा। अत: तुम्हें जागना है, तुम्हे कर्मवान् बनना है। तुम अपने आपको सुधार लो और अपने घर पर सच्चे मन से उस परमसत्ता माता आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा की साधना-आराधना करो। कुछ नहीं कर सकते हो, तो ‘माँ -ॐ’ का उच्चारण करो और कुछ कर सकते हो, तो प्रतिदिन श्री दुर्गाचालीसा का पाठ करो। 

 मेरे पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम में श्री दुर्गाचालीसा का अखण्ड पाठ चौबीसों घंटे अनवरत अनन्तकाल के लिए चल रहा है। अत: निष्ठा-विश्वास से ‘माँ’ की आराधना करो, स्तुति करो। ‘माँ’ ही तुम्हें इस कलिकाल से निकाल सकती हैं। अरे, जब देवाधिदेव भी असमर्थ होजाते हैं, तब वह परमसत्ता अवतार लेकर उनके संकटों को दूर करती है, तो हमारी मानवता के संकटों को भी वही परमसत्ता दूर करेगी, हमें सिर्फ सच्चे मन से उस परमसत्ता को पुकारने की ज़रूरत है। उसको पुकारने के लिए मन और हृदय को सच्चा बना लेने की ज़रूरत है। परमसत्ता हमारे हृदय में वास करेगी और हम जो ठानेंगे, वह कर गुज़रेंगे। तुम्हें वैसी सोच बनाने की ज़रूरत है।

नित्य अपने घर में श्री दुर्गाचालीसा का पाठ अवश्य करो। जब समय मिलता है, तो उस पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम में आकर श्री दुर्गाचालीसा का पाठ करो। गुरुवार का व्रत रखो, घर में ‘माँ’ का ध्वज फहराकर रखो, बच्चों को नशे-मांस से मुक्त कराकर संस्कारवान् बनाओ, फिर देखो समाज में कैसे परिवर्तन आता है। मेरे द्वारा प्रत्येक कार्यकर्ता से बार-बार कहा जाता है कि कभी भी अहंकार न आये, कभी तुम स्वार्थी मत बन जाना, तुम प्रमुख कार्यकर्ता हो, इसलिए भविष्य में जो आने वाली कडिय़ां हैं, उनको कभी छोटा समझने की गलती मत कर देना। चूंकि आज का भी यदि आकलन करना चाहें, तो प्रमुख कार्यकर्ताओं से कहता हूँ कि वह पीढ़ी आना प्रारम्भ हो चुकी है, जिसके पास समाज में बहुत कुछ बदल डालने की क्षमता भरी हुई है। दो से लेकर दस साल तक के बच्चों में जो समर्पण, निष्ठा, विश्वास मेरे नेत्र देखते हैं, जो उनका मेरे प्रति आकर्षण है, जो विचार व भविष्य मैं देख रहा हूँ, वे हज़ारों गुना ज़्यादा तुमसे आगे खड़े नज़र आयेंगे। अत: कार्यकर्ता भी आपस में छोटे-बड़े का भाव भूल जायें। पाँच साल का बच्चा भी आपसे ज़्यादा श्रेष्ठ हो सकता है, उसकी आत्मा आपसे ज़्यादा चेतनावान् हो सकती है। अत: समता का भाव रखो, सबको एकसाथ लेकर चलने का भाव हो। हर एक का कल्याण हो, वह भाव अपने अन्दर लेकर चलो, यही तुम्हारी ‘माँ’ के प्रति सच्ची भक्ति है।

कार्यकर्ताओं को और भी दूसरी बात से आगाह करना चाहता हूँ कि प्रमुख कार्यकर्ता उन कार्यकर्ताओं से सेवा लेने का भाव त्याग दें, जो कार्यकर्ता उनके बाद जुड़ते हैं, अन्यथा वे प्रमुख कार्यकर्ता मुझसे कोसों दूर होते नज़र आयेंगे। कोई प्रमुख कार्यकर्ता यदि कहीं बाहर जाता है, तो अन्य कार्यकर्ताओं को अपने कपड़े दे देता है कि मेरे कपड़े धुल दो, किसी से अपने कपड़े धुलवा रहा है, किसी से अपनी थाली धुलवा रहा है, किसी से अपने पैर दबवा रहा है, तो यदि इस तरह की न्यूनताएं होंगी, तो मैं इसे कभी बर्दाश्त नहीं करूंगा। यदि तुम प्रमुख कार्यकर्ता हो, तो मुझे दूसरे की सेवा करते हुए नज़र आओगे, तब मुझे प्रसन्नता होगी। कोई आपत्तिकाल हो, कोई दुर्घटना हो, कोई बेहोश हो जाये, तो कोई भी सेवा कर सकता है, मगर यदि तुम अपने सिर में बाम भी लगवाते हो, तो महाअपराध करते हो, इतना ध्यान रखना। परमसत्ता ने तुम्हें हाथ दे रखे हैं, जिनसे चाहे अपना कार्य हो या समाजसुधार का कार्य हो, स्वयं करो। मेरे लिए तुम सभी प्रिय हो, इसलिए न्यूनता न हो और तुम्हारा जीवन सच्चाई, ईमानदारी से भरा होना चाहिए।

कुछ लोग अपने घरों में ही चोरी करने लगते हैं। तुम्हारी छोटी-छोटी प्रवृत्ति, छोटी-छोटी इच्छाएं कि हम पढ़ने जा रहे हैं और साथ के बच्चे ज़्यादा खर्च करते हैं, मुझे मेरे माता-पिता से कम पैसे मिलते हैं, तो हम चोरी करके लेजायें। ये छोटे-छोटे विचार, एक दिन तुमसे बड़ी चोरियाँ करवाने की आदत बना देंगे। इस तरह के कर्म मत करो और धर्मक्षेत्र में आकर तो बिल्कुल भी न्यूनता मत करो। आज भी मैं महसूस करता हूँ कि मेरे कार्यकर्ताओं में बहुत कुछ सुधार है, मगर अभी बहुत कुछ न्यूनताएं भी हैं, अपने आपको उन न्यूनताओं से अलग कर लो। जितना मैं जानता हूँ, उसी तरह न्यूनता करने वाला स्वयं जानता है कि वह कौन-कौन से अपराध कर रहा है, जो उसे नहीं करने चाहिए। हमेशा ध्यान रखो कि दूसरे की निगाहों से गिरना बड़ी बात नहीं होती, लेकिन अपनी निगाहों से स्वत: गिर जाना बड़ी बात होती है। अत: तुम अपनी निगाहों से मत गिरो। यह मत सोचो कि हम यह अपराध कर रहे हैं और हमारे माता-पिता या हमारे गुरुजी नहीं देख रहे हैं, यह मत सोचो कि हम यह अपराध कर रहे हैं और ‘माँ’ नहीं देख रही हैं। अपने द्वारा किए गए अपराध को तुम तो देख रहे हो, तुम्हारी आत्मा तो देख रही है और तुम्हारी आत्मा तुम्हें कभी तुम्हारे अपराध को विस्मृत नहीं होने देगी। एक बार के किए गए अपराध को वह आत्मा सैकड़ों बार तुम्हें याद दिलाती रहेगी।

कभी भी अपनी निगाहों से नीचे मत गिर जाना। स्वयं में इतनी चैतन्यता, पवित्रता व दिव्यता लाओ कि गुरु के सामने आंख से आंख मिलाकर खड़े होने की क्षमता हो। चैतन्यता से ‘माँ’ के दर्शन करने की अपने अन्दर पात्रता लाओ। जब ध्यान साधना में बैठो, तो हरपल यह अहसास हो कि मैं एक पवित्र आत्मा हूँ, मैं एक दिव्य आत्मा हूँ, मैं दिव्यता की ओर बढ़ रहा हूँ, मैंने अपराधों के मार्ग को छोड़ दिया है, मैंने अनीति-अन्याय-अधर्म के रास्ते को छोड़ दिया है, मुझे आगे की ओर देखना है और जो बीत गया, वह मेरे पास वापस नहीं आयेगा। वर्तमान को संवार करके आगे बढ़ो। इसीलिए मैं खासकर युवाओं का आवाहन करता हूँ कि यदि तुम बदल गए, तो आने वाला समाज अवश्य बदल जायेगा और यदि युवा भटक गया, तो सैकड़ों साल की पीढिय़ां बिगड़ जाती हैं। अत: तुम अपने आपको संवार लो। मैं आवाहन करता हूँ कि आओ, तुम्हारे पास जो सामथ्र्य है, उस सामथ्र्य के साथ इस मानवता के अभियान में आगे बढ़ो। तुम व्यवसाय क्षेत्र में जाना चाहते हो, नौकरी के क्षेत्र में जाना चाहते हो या आश्रम में आकर आजीवन सेवा करना चाहते हो, जिस क्षेत्र में आओ, सच्चाई, ईमानदारी के साथ आगे बढ़ो, तुम्हारा स्वागत है।

संकल्प लेकर जीवन जियो कि मैं ऐसी कोई नौकरी नहीं करूंगा, जहाँ भ्रष्टाचार करना अनिवार्य हो। कोई भी नौकरी करो, संकल्प करके रहो कि भले ही आपके साथ नौकरी कर रहे सहकर्मी भ्रष्टाचार कर रहे हैं, मगर मैं भ्रष्टाचारी नहीं बनूंगा। नमक-रोटी खा लूंगा, मगर मैं एक भी रुपये का भ्रष्टाचार नहीं करूंगा। मैंने पहले भी कहा था कि यह आपकी मज़बूरी हो सकती है कि किसी को कारणवश रिश्वत देनी पड़ती हो, फिर भी उसे भी रोकने का प्रयास होना चाहिए, किन्तु रिश्वत लेना कोई मज़बूरी नहीं हो सकती। अरे, वहाँ तो वासना और लिप्तता होती है कि मेरे पास गाड़ी आ जाये, मेरे पास मोटरसाइकिल आ जाये, मैं चार कमरों का मकान बनवा लूँ। जहाँ धैर्यता है, संतोष है, वहाँ ज़्यादा सुख-शान्ति छिपी हुई है। तुम्हारे संस्कारों में जो है, उसे दुनिया की कोई ताकत क्षीण नहीं कर सकेगी और जो संस्कारों में नहीं है, यदि भ्रष्टाचार, बेईमानी, चोरी, डकैती से लाकर रख रहे हो, तो वह अधर्म कर्म कहलाता है। उसके परिणाम को तुमको या तुम्हारे बच्चों को एक न एक दिन भोगना ही पड़ेगा, इससे दुनिया की कोई ताकत रक्षा नहीं सकती है। अत: जहाँ से मार्ग मिल जाये, वहाँ से अपने आपको संवार लो, वहाँ से अपने आपको बदल डालो।

भगवती मानव कल्याण संगठन के समस्त कार्यकर्ताओं को बार-बार मेरा निर्देशन, चिन्तन है कि ‘माँ’ को माध्यम बनाकर ही हमें आगे बढऩा है, इसीलिए उस पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम में मैंने श्री दुर्गाचालीसा का अखण्ड पाठ आरम्भ कर रखा है कि एक पल भी बेकार न जाये। तुम्हारे गांव के लोग नहीं बदल रहे, तो मैं कहता हूँ कि आरती और श्री दुर्गाचालीसा के पाठ सतत कराते रहो, वे ऊर्जातरंगें धीरे-धीरे वातावरण में परिवर्तन डालती चली जायेंगी। कई हज़ार टीमप्रमुख देशस्तर पर कार्य कर रहे हैं। आप सतत श्री दुर्गाचालीसा के पाठ, पांच घंटे के पाठ, 24 घंटे के पाठ व आरतीक्रम करते रहें। उन आरतियों में लोगों को बुलाइये, बिठालिये और बताईये कि यह कार्यक्रम आपके सौभाग्योदय के लिए है तथा आप चाहे थोड़ी देर ही आकर बैठो, यहाँ आओ, बैठो और लाभ लो। वे यदि वहाँ नहीं भी आते हैं, तब भी ध्वनि के माध्यम से वहाँ की आरती को सुनेंगे, जयकारे सुनेंगे, शंखनाद को सुनेंगे, तो उससे समाज में परिवर्तन आता चला जायेगा और उसी परिवर्तन के परिणाम तो आप लोग स्वयं बैठे हो। अन्य किसी का उदाहरण देने की क्या आवश्यकता है? 

आपने कहीं श्री दुर्गाचालीसा के पाठ को सुना, ‘माँ’ के गुणगान को सुना और आप उस पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम से जुड़ते चले गए व मुझसे शिष्यता प्राप्त की। कोई न कोई शिष्य तो आपसे मिला होगा, कोई न कोई प्रचार प्रपत्र का संदेश, किसी शिष्य का संदेश या टीवी चैनलों के माध्यम से आपने सुना और आपके कदम सत्य की ओर बढ़े। हर पल यह प्रयास करो कि केवल उस पथ पर चलते रहना है। सच्चा धर्मयोद्धा बनो और धर्मयोद्धा का तात्पर्य अस्त्र-शस्त्र ले लेना नहीं है, बल्कि हमारी ऊर्जा ही सबसे बड़ा अस्त्र-शस्त्र है, हमारा आत्मबल ही हमारा सबसे बड़ा अस्त्र-शस्त्र है, ‘माँ’ की आराधना ही हमारा सबसे बड़ा अस्त्र-शस्त्र है, हमारे घर में लगा हुआ ‘माँ’ का ध्वज सबसे बड़ा शस्त्र है, हमारा शंख सबसे बड़ा अस्त्र है, हमारे माथे पर लगा हुआ कुंकुम का तिलक सबसे बड़ा अस्त्र है, हमारे गले में पड़ा हुआ रक्षाकवच हमारा सबसे बड़ा अस्त्र है और हमारी आत्मा की निर्मलता, पवित्रता एवं आत्मकल्याण व परोपकार की भावना ही हमारा सबसे बड़ा अस्त्र है। उस भावना को लेकर आगे बढ़ो और देखो कि किस प्रकार इस युद्ध को तुम जीतते चले जाओगे।

एक शराबी की शराब छुड़वा दो, तो यह जान लो कि तुमने एक बहुत बड़ा युद्ध जीत लिया। एक नास्तिक को आस्तिक बना डालो, तो यह मान लो कि तुमने एक और बड़ा युद्ध जीत लिया। इस तरह एक के बाद एक युद्ध जीतते चले जाओ, समाज में शुद्धता, सात्विकता, पवित्रता ज़रूर आयेगी। प्रयास करते रहो तथा जब हम अपने जीवन में प्रयास करेंगे एवं आगे आने वाली पीढ़ी को तैयार करेंगे और परिवर्तन का यह चक्र रुकने न पाये, तो परिवर्तन सुनिश्चित है। उस दिशा में आप सभी लोगों को निष्ठा-विश्वास-समर्पण, पवित्रता व दिव्यता के साथ कार्य करना है। हमारा हृदय भी पवित्र हो, हमारा मन भी पवित्र हो, हमारा शरीर भी पवित्र हो, हमारा घर भी पवित्र हो। अत: सात्विकता व पवित्रता का जीवन जियो, अनीति-अन्याय-अधर्म से अपने आपको अलग रखो, जीवन में सबकुछ बदलता चला जायेगा।

मेरे पास जितना भी समय है, मैं उसमें से एक पल भी निरर्थक नहीं होने देता हूँ। बचपन से लेकर ‘माँ’ की आराधना-साधना के माध्यम से अपने आपको आगे बढ़ाता रहा और जितना समाजसेवा के कार्यों में समय देता हूँ, उसी प्रकार एकान्त की साधना में भी बराबर रत रहता हूँ। मैंने अपने कत्र्तव्य को कभी विराम नहीं दिया कि अब तो ‘माँ’ ने बहुत कुछ दे दिया है, तो अब मुझे कुछ आवश्यकता नहीं है, बल्कि ‘माँ’ की आराधना के लिए मैं आज भी उतना व्याकुल रहता हूँ, जितना शायद इस भूतल में कोई और व्याकुल न होता होगा। अपने लिए नहीं, मैंने अपने जीवन की एक-एक साधना समाजकल्याण के लिए संकल्पित की है कि जिस दिन मैंने मानवता की तरफ कदम बढ़ाने का संकल्प लिया, उस दिन से मेरे जीवन का एक-एक मंत्र, एक-एक ध्यान, एक-एक साधना, मानवता के कल्याण के लिए समर्पित है।

 आश्रम स्थापना के प्रारम्भिक ग्यारह वर्ष तो ऐसे गुज़रे कि मात्र डेढ़ से दो घंटे की नींद लेने का मुझे समय मिल पाता था और इससे शरीर में गलत प्रभाव भी पड़ा। चूंकि यदि लम्बे समय तक आप बहुत कम नींद लोगे, तो स्वास्थ्य में प्रतिकूल प्रभाव पड़ने लगेगा। कभी मुझे ध्यान के क्रमों को भी बढ़ाना पड़ता था, समाज के कार्यों को भी देखना पड़ता था और फिर कहीं जाकर मैंने उस नींद का समय तीन घंटे तक किया है। उसी तरह आज भी प्रात: ढाई-तीन बजे जाग करके समाज के लिए ध्यान-साधना के क्रम बराबर चलते रहते हैं। मैं आपसे भी वही चाहता हूँ और मैं नहीं कहता कि आप भी ढाई बजे जाग जाओ, क्योंकि हो सकता है कि आपके जीवन की कुछ और परेशानियां हों, तो कम से कम आप सूर्योदय के पहले जाग जाओ। सूर्योदय के पहले यदि आप स्नान कर लेते हो, तो और श्रेष्ठ है तथा सूर्योदय के पहले स्नान करके पूजन में बैठ जाते हो, तो अत्यन्त श्रेष्ठ कहलाएगा, मगर सूर्योदय के समय कभी सोते हुए नज़र मत आओ, क्योंकि वह असुरत्व का मार्ग है। हमें देवत्व के मार्ग पर बढऩा है, हमें ऋषित्व के मार्ग पर बढऩा है। अत: उस पतन के पथ से अपने आपको अलग करके सात्विकता, पवित्रता के मार्ग पर बढ़ो।

ब्रह्ममुहूर्त में जागो, निष्ठा-विश्वास से ‘माँ’ की आराधना करो तथा भक्ति के रास्ते को तय करो। आप स्वयं महसूस करोगे कि जिस घर के लोग सूर्योदय के पहले जगना प्रारम्भ कर देते हैं, वहाँ के वातावरण में एक अलग परिवर्तन आ रहा होगा और यदि गधों की तरह पड़े-पड़े सोते रहे कि आठ-नौ बज रहा है, तो फिर जल्दी-जल्दी उठोगे, बाथरूम जाओगे, एक-दो ब्रश मारोगे, एक डिब्बा पानी इधर से, एक डिब्बा पानी उधर से डालोगे, कपड़े पहनोगे, जानवरों की तरह नाश्ता करोगे और ऑफिस या विद्यालय की ओर दौड़ पड़ोगे! इस भागादौड़ी से बचो। परमसत्ता ने बहुत समय दे रखा है और आपके पास हर कार्य को करने के लिए पर्याप्त समय है, सिर्फ ब्रह्ममुहूर्त में जागना प्रारम्भ कर दो।

 दस-बारह वर्षों में देखते-देखते इतना बड़ा पतन हो गया है कि पहले प्रात: सात बजे दुकानेंं खुल जाती थीं, लेकिन अब ग्यारह बजे के पहले तो दुकानों के ताले खुलते ही नहीं हैं और अब वह समय बढ़कर बारह बजे होने लगा है। समाज असुरत्व की ओर जा रहा है। रात में ग्यारह बजे-बारह बजे मीटिंग हो रही हैं, वे चाहे शासन-प्रशासन की हों, चाहे व्यवसायियों की हों, बारह-एक बजे रात तक मीटिंग हो रही हैं, एक-दो बजे रात तक पार्टियां हो रही हैं, एक-एक रात में करोड़ों-करोड़ों रुपये गवां रहे हैं और राक्षस भी यही करते थे। आज केवल राक्षसों के स्वरूप बदल गये हैं और उस समय भी अलग-अलग योनि के राक्षस हुआ करते थे।

मीडिया में रोज़ खबरें आती हैं कि आज यहाँ पार्टी करते हुए इतने लड़के-लड़कियां पकड़े गए और ऐसी पार्टियों में करोड़ों रुपये लुटाते हैं! एक तरफ असुरों का वह साम्राज्य है, तो दूसरी तरफ आतंकवादियों के रूप में असुरों का साम्राज्य है। असुर किसी काल में समाप्त नहीं हुए। आज भी एक से एक आतंकवादी हैं और हर देश अपने आपमें परमाणु बमों से सम्पन्न है, मिसाइलों से सम्पन्न है, मगर छोटे-छोटे आतंकवादी संगठन भी समस्त शक्तियों से सम्पन्न देशों को खौफ में डाले हुए हैं। वह चाहे अमेरिका हो, रूस हो, चाहे भारत हो, सभी देश आतंकवादियों से भयग्रस्त हैं। अरे बेईमानों, मेरा मानना है कि तुम भयग्रस्त इसलिए हो, क्योंकि तुम स्वयं बेईमान हो और यदि तुम ईमानदार बन जाओ, तुम सच्चाई, ईमानदारी से कार्य करना प्रारम्भ कर दो, तो आतंकवादियों का बीजारोपण हो ही नहीं सकता है।

आज सब जगह भ्रष्टाचार फैला हुआ है। गाडिय़ों से नाज़ायज़ असलहे आ रहे हैं, कोई चेक करने वाला नहीं है, बस पैसे भरो और चाहे जिस थाने से निकल जाओ। सेना में भी भ्रष्टाचार व्याप्त होता जा रहा है। आतंकवादी आते चले जा रहे हैं, बड़े-बड़े ज़खीरे आते जा रहे हैं! आिखर ये सब कहाँ से आते हैं? यह सब भ्रष्टाचार और अकर्मण्यता के फलस्वरूप हो रहा है, क्योंकि जो भ्रष्टाचारी राजसत्ताएं होंगी, वे ऐशोआराम में लग जाती हैं, देश की रक्षा में लगेंगी ही नहीं और यदि राजनेता देश की रक्षा में लग रहे होते, मानवता की सेवा में लग रहे होते, तो चाहे जो देश हो, वहाँ आतंकवादियों के बनने की नौबत ही नहीं आती।

 हमेशा याद रखो कि दूसरे के लिए खाई खोदने वाले को भी कभी न कभी उस खाई में गिरना पड़ता है। आज जितने भी देश आतंकवादियों को तैयार कर रहे हैं, वे किसी समय तो दूसरे देशों में ही ज़्यादा क्षति पहुंचाते थे, लेकिन आज यदि दूसरे देशों में एक बम विस्फोट होता होगा, तो उनके ही देशों में दस विस्फोट हो रहे हैं। इसीलिए मेरे द्वारा कहा जा रहा है कि अपने बच्चों को कभी उग्रवादी मत बनाओ और उग्रवादी केवल आतंकवादी के स्वरूप में ही नहीं होते। आज हिन्दुत्व की रक्षा करने वाले अनेक संगठन बने हैं, गौ-संरक्षण के लिए अनेक संगठन बने हैं, बस पचास-सौ लोगों का ग्रुप बना लेते हैं और बज़ारों में हफ्ता वसूली करेंगे, लूटपाट करेंगे। कोई इस दल के सदस्य हैं, कोई उस दल के सदस्य हैं, जिन्होंने आतंक मचाकर रख दिया है कि तोडफ़ोड़ करेंगे और यही भावना उनको आतंक की भावना से परिणित कर देती है।

यदि हमें हिन्दुत्व की रक्षा करनी है, तो हमारी रक्षात्मक प्रणाली प्रबल हो, मगर हमें अपने बच्चों को उग्रवाद की भावना से नहीं भरना है, तोडफ़ोड़ की भावना के लिए उनको उकसाना नहीं है। मेरे पास एक नहीं, अनेक रिकार्डिंग और सूचनाएं हैं कि आज गौ-रक्षा के लिए दम्भ भरने वाले लोग, गोवंश से भरे ट्रकों को एक-दो हज़ार रुपये लेकर जाने देते हैं। ऐसे लोग एक-दो पुलिस कांस्टेबल को मिलाकर डेरा जमाकर बैठे रहते हैं। ट्रक खड़े कराएंगे, उनको रोकेंगे और कहेंगे कि हम गोवंश को नहीं जाने देंगे, हम ऐसा नहीं करने देंगे। फिर, ट्रक ड्राइवर उन कुत्तों के मुंह में हज़ार-पांच सौ रुपये फेंकते हैं और गोवंश को कटने के लिए लेकर चले जाते हैं! ऐसी अनेक संस्थाओं को मैं जानता हूँ।

आज अनीति-अन्याय-अधर्म इतना व्याप्त हो चुका है कि इन्सानियत मर चुकी है। अत: इन्सानियत को जगाने की ज़रूरत है और तुम्हें नशामुक्ति के लिए भी कार्य करना है, भ्रष्टाचार के विरुद्ध भी आवाज़ उठाना है, गोहत्या को भी रोकना है। तुम्हें भले ही अपमानित होना पड़े, तुम्हारी बात शासन-प्रशासन सुने या नहीं, किन्तु यदि तुम्हें जानकारी मिले, तो कटने के लिए जा रहे गोवंश को ले जाने वालों को अपनी क्षमतानुसार ज़रूर रोको। जहाँ संगठन की शक्ति है, वहाँ शक्ति के साथ खड़े हो, प्रशासन व कानून की मदद लो और यदि कानून की मदद नहीं मिलती, तो पापी-अधर्मी वे बनेंगे, तुम नहीं। क्यों न कोई करोड़ों रुपये का प्रलोभन दे, लेकिन गोवंश का ट्रक तुम्हारी जानकारी में होते हुए निकलकर नहीं जाना चाहिए, तुम्हें अपना प्रयास जारी रखना है।

अपने आपको जगाना और समाज को जगाना तुम्हारा प्रथम कत्र्तव्य है। आत्मकल्याण करना और परोपकार करना, धर्मरक्षा करना, राष्ट्ररक्षा करना और मानवता की सेवा करना है, इसलिए संकल्पबद्ध हो जाओ कि मुझे एक जीवन बस इस विचारधारा में लगा देना है। स्वयं के द्वारा स्वयं का कल्याण करो और उसके लिए छोटी-छोटी चीजों में सुधार करो कि निरर्थक चीजें हमारे आसपास के परिवेश में न हों। आज जिन घरों में शुद्धता, सात्विकता है, वहाँ जब छोटे-छोटे बच्चे जगते हैं, बात करते हैं, तो उनके मन में कहीं न कहीं श्री दुर्गाचालीसा का पाठ चलता रहता है, ‘जय माता की’ जयघोष चलता रहता है, कोई न कोई मंत्र मन में चल रहा होता है और जब आप बच्चों को फिल्मी गीतों आदि के माहौल में रखोगे, तो जब वे जागते हैं, तो कोई न कोई फिल्मी गीत उनके मन में चल रहा होता है। अत: शुद्धता, सात्विकता, पवित्रता का जीवन जियो तथा नशे-मांस से मुक्त चरित्रवान् बनकर जीवन जियो। जातिभेद, छुआछूत को मिटाना है, नारी का सम्मान करना है, दहेजप्रथा को अपनी पूरी क्षमता से रोकने का प्रयास करना है, समाज की नशामुक्ति के लिए पूरी क्षमता के साथ कार्य करना है, गोहत्या रोकने के लिए सतत कार्य करना है और समाज को जगाने के लिए कार्य करना है। अपने विवेक को जाग्रत् करो और मैं यह सब इसलिए कह रहा हूँ, क्योंकि तुम्हें इस क्षेत्र में भी आवाज़ उठानी है।

राजसत्ताओं से ज़्यादा धर्मसत्ताएं भटकी हुईं हैं, इसलिए समाज को जगाना है। वे आज लूट रहे हैं, लूटने दो, मगर तुम समाज को तो जगा सकते हो, समाज को तो सचेत कर सकते हो और यदि वे लुटेरे कभी तुमसे टकरा जायें, तो उनसे कह देना कि तुम्हें हमारे गुरुजी की चुनौती है। मैं सामान्य सा जीवन जीता हूँ, मगर गर्व के साथ कहता हूँ कि हाँ, मैंने अपनी इष्ट के दर्शन प्राप्त किए हैं, मैंने अपनी कुण्डलिनीचेतना को जाग्रत् किया है, मैं किसी भी असम्भव को सम्भव कर सकता हूँ। मैं विश्वअध्यात्मजगत् को चुनौती देता हूँ कि यदि कोई मेरे अध्यात्मबल को झुका देगा, तो आजीवन उसकी गुलामी करूंगा।

आज भी ऋषित्त्व जीवित है, आज भी सत्य जीवित है। मैं वैसा जीवन जीता हूँ और विज्ञान को भी चुनौती देता हूँ, विश्वअध्यात्मजगत् को भी चुनौती देता हूँ कि धर्मरक्षा व मानवता की रक्षा के लिए ही आओ। हमें भी चाहिए कि हम अपना प्रमाण दें, इसलिए एक बार ऐसा आयोजन हो जाए। हो सकता है कि कई लोगों के पास समय न हो और अनेक संस्थाएं कह देंगी कि हम चमत्कार नहीं करते, लेकिन दुनियाभर को नाना प्रकार के आशीर्वाद देते हो, तो एक बार धर्मरक्षा के लिए एक जगह इकट्ठे हो जाओ और वहाँ मीडिया भी इकट्ठा हो, बुद्धिजीवीवर्ग से कुछ लोग इकट्ठे हों, राजसत्ता के कुछ लोग इकट्ठे हों, वैज्ञानिक भी इकट्ठे हों और उनके सामने कुछ कार्य रखे जायें। परीक्षण किया जा सकता है और विज्ञान के माध्यम से धर्माधिकारियों का भी परीक्षण किया जा सकता है।

 ढोंगी, पाखण्डी, लुटेरों की अनेक संस्थाएं हैं, जो समाज को लूट रहे हैं, समाज को दिशाभ्रमित कर रहे हैं, उनके बारे में समाज को सचेत करते रहना है, समाज को जगाते रहना है। कथावाचक नाच, रासरंग, प्रलोभनों में लिप्त हो गये हैं। यज्ञ होते हैं, तुम आओ या न आओ, केवल पैसा भेज दो, तुम्हारे नाम का यज्ञ हो जायेगा! पैसा भेज दो और फोन से दीक्षा ले लो, यह सबकुछ खुलेआम चल रहा है! मैं शिविरों के ही माध्यम से दीक्षा देता हूँ और किसी से एक रुपये का शुल्क नहीं लेता हूँ। एक-एक शिविर में पांच हज़ार, दस हज़ार, पच्चीस हज़ार लोग दीक्षा प्राप्त करते हैं, जिसका आजतक मैंने किसी से एक रुपये का शुल्क नहीं लिया और शिविरों के अलावा कोई अरबों की सम्पत्ति भी लाकर रख दे, तो सामने होने पर भी दीक्षा नहीं देता हूँ! केवल शिविरों के माध्यम से ही सामूहिक दीक्षा देता हूँ। आज तक मेरी दीक्षा न कोई खरीद सका है, न खरीद सकेगा। राजा हो या रंक, जब एक समान भाव से सामने उपस्थित होते हंै, तभी उनको दीक्षा प्रदान की जाती है।

मेरा धर्मपथ का कार्य चल रहा है और वहाँ भी आश्रम का निर्माण चल रहा है, मगर मेरे द्वारा कभी भी गलत रास्ते से एक रुपये वहाँ नहीं लगाए गए। मेरे साथ सच्चाई, ईमानदारी से जो समाज जुड़ा हुआ है, उसका ईमानदारी का एक-एक रुपया मेरे लिए महत्त्वपूर्ण होता है, जो समाज के द्वारा सहयोग किया जाता है और वह वहाँ के निर्माणकार्यों में खर्च किया जाता है। अपने जीवकोपार्जन के लिए मैंने स्वयं कुछ ऐसे रास्ते प्रशस्त कर रखे हैं, जिनके माध्यम से इतनी आय होजाती है कि मैं अपना और अपने परिवार का जीवकोपार्जन करता हूँ और मानवता के इस अभियान में भी सहयोग करता हूँ।

समाज के दान के दिए हुए पैसे से मैं एक दिन का भी जीवन नहीं जीता और यदि ऐसा महसूस होता है कि कुछ पैसा लग गया है, तो दूसरे पक्ष से दस गुना ज़्यादा समाज में लगाने का कार्य करता हूँ। मेरे पास बहुत बड़ा बैंक बैलेंस नहीं है और बड़ा क्या, छोटा बैंक बैलेंस भी नहीं है। सामान्य से सामान्य लोगों के पास जितना आता-जाता रहता है, उतना ही मेरे पास भी आता है और मेरे पास ज़्यादा की व्याकुलता भी नहीं रहती। मैं आय के उतने ही रास्ते खोलता हूँ, जिससे जीवकोपार्जन चलता रहे, समाज पर आश्रित न होना पड़े और वही मार्ग मैंने अपनी तीनों बच्चियों को भी दिया है कि अपने कर्म से उपार्जित धन से अपना जीवकोपार्जन करो, मानवता की सेवा में भी लगाओ और जो मानवता के लिए सहयोग आये, उसे मानवता के कार्यों में लगाओ और वही मैं आपसे चाहता हूँ कि सच्चाई, ईमानदारी का जीवन जियो।

संस्कारों से, आपके पुरुषार्थ से, आपके परिश्रम से जो धन आ जाये, उसे ही अपना मानो, वहीं भ्रष्टाचार से आया हुआ धन आपका अहित करता चला जायेगा। नमक-रोटी खा लेना श्रेष्ठ है, किन्तु भ्रष्टाचार से कमाकर लाए हुए धन से जीवन बचाया जाये, तो यह सबसे बड़ा महापाप होगा और इससे तो जीवन का नष्ट होना श्रेष्ठ होगा। आपका गुरु भी वैसा जीवन जीता है। मेरे जीवन में अनेक रास्ते आये, प्रलोभन आये, लालच आये, लेकिन मैंने सबको ठुकराया है। मेरी आज तक की यात्रा में कोई यह नहीं कह सकता कि ये तीनों धाराएं किसी की बैसाखी के सहारे खड़ी हैं। इसीलिए अपनी प्रत्येक बात अपने आत्मबल के साथ कहता हूँ कि न कोई उद्योगपति, न कोई राजसत्ता, कोई भी मेरी इस यात्रा की बैसाखी नहीं है। मेरी तो बैसाखियाँ उस परमसत्ता के हाथ हैं, उस परमसत्ता की कृपा है, जो हरपल मुझे चला रही हैं और मेरा आत्मबल उसी ममतामई माँ की कृपा है तथा वही आपसे भी चाहता हूँ कि उस ममतामई की कृपा को आप भी हासिल कर सको, ‘माँ’ के सच्चे भक्त बनो और सच्चे भक्त बनने के लिए जितनी साधना ज़रूरी है, उतना ही आपके जीवन के कर्म ज़रूरी हैं।

साधनापथ पर यह नहीं होना चाहिए कि दिन में राम-राम और रात में कोई पउवा चढ़ा रहा है, सुबह पूजापाठ किए और दिनभर भ्रष्टाचार कर रहे हैं! इस तरह की भक्ति कभी भी फलीभूत नहीं होती है। इसी तरह लोग साईं के मन्दिर में जाकर करोड़ों रुपये चढ़ा रहे हैं, क्योंकि उनका विवेक मर चुका है। उल्लू को ही लक्ष्मी की सवारी क्यों कहा जाता है? जिसके पास गलत रास्तों से बेईमानी का पैसा आ जाता है, वह उल्लू के समान बन जाता है, उसका विवेक मर जाता है, उसको कम दिखाई देने लगता है! अरे, जहाँ जिस मन्दिर में ज़रूरत हो, उतना चढ़ा दो, यदि वहाँ पर कुछ मानवता की सेवा में लग रहा हो तो, और यदि तुम्हारे पास देने के लिए है, तो तुम किसी गरीब बस्ती में जाकर उनकी मदद कर दो, इससे साईं तुम पर कई गुना ज़्यादा कृपा करेंगे।

आज देश के उद्योगपतियों में इतनी क्षमता है कि केवल एक वर्ष का संकल्प लें कि जितना वे बेईमानों को दे देते हैं, अधर्मी-अन्यायी ठेकेदारों को चढ़ा देते हैं या जो सर्वसम्पन्न मंदिर हैं, जहाँ ज़रूरत नहीं है, फिर भी वहां चढ़ा देते हैं, तो वहाँ चढ़ाने की बजाय यदि मानवता की सेवा में लगा दिया जाये, तो मेरा मानना है कि एक साल के अन्दर इस देश से गरीबी को मिटाया जा सकता है। केवल धर्म के ठेकेदारों और उद्योगपतियों के पास इतनी सामथ्र्य है कि पूरी मानवता की सेवा कर सकते हैं। हमें उन्हें भी आगाह करते रहना है, उन्हें भी सचेत करते रहना है। पहले अनेक लोग मेरी बीस सालों से चल रही विचारधारा का पुरजोर विरोध किया करते थे, चार-पांच साल तक नाना प्रकार के फोन आते थे, कोई धमकी देता था, किन्तु अब धीरे-धीरे करके स्वीकारोक्ति होती जा रही है और वे उसी पथ पर चलते जा रहे हैं, उन्हीं विचारों को पकड़ते जा रहे हैं तथा जो चिन्तन मैं देता हूँ, उन्हीं चिन्तनों को ग्रहण कर रहे हैं।

राजसत्ताओं के सहारे यदि कोई अपनी धर्म की गद्दी को बचाना चाहता है, तो धर्म की गद्दियाँ नहीं बचेंगी। धर्म तो वहाँ है, जहाँ राजसत्ताएं घुटने टेकने के लिए बाध्य होजायें। धर्माधिकारी राजसत्ताओं के सामने घुटने टेकते हों, इससे बड़ा अधर्म का कोई और कार्य नहीं हो सकता! इसीलिए आज तक मैंने अपने मंच में न तो किसी राजनेता को बैठने की अनुमति दी है और न किसी धर्माधिकारी को दी है। वैसे तो सभी मेरे हृदय में वास करते हैं, मगर यह धर्मपद है और इस पद पर बैठने की पात्रता किसी के पास नहीं है। यदि मैं अपने पद का सम्मान रखता हूँ, तो उसके अनुसार अपने जीवन को भी ढालता हूँ। यदि समाज को नशे-मांस से मुक्त चरित्रवान् बनने की प्रेरणा देता हूँ, तो स्वयं नशे-मांस से मुक्त चरित्रवान् ही नहीं, सपत्नीक पूर्ण ब्रह्मचर्यव्रत का पालन भी करता हूँ। तीन पुत्रियों के जन्म के बाद जिस दिन से सन्तानोत्पत्ति की इच्छा समाप्त हुई, उस दिन से सपत्नीक पूर्ण ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करता हूँ और आज भी कहता हूँ कि विश्वामित्र का ब्रह्मचर्यव्रत खण्डित हो सकता है, भीष्म की प्रतिज्ञा टल सकती है, भगवान् कृष्ण का लिया गया संकल्प टूट सकता है, मगर योगीराज शक्तिपुत्र का लिया गया संकल्प तोड़ने की सामथ्र्य इस त्रिभुवन में किसी के पास नहीं है। समाज मेरा भी परीक्षण करके देखे, खुली चुनौती देता हूँ।

मैं समाज को जगाने आया हूँ। समाज को यदि और भी गहराई में शोध करना हो, तो आज से चार-पांच सौ वर्ष पूर्व की पुस्तकों में भी लिखा है कि मेरा जन्म कहाँ होगा, मेरा रूप रंग क्या होगा, मेरे कार्य क्या होंगे, मेरा महत्त्वपूर्ण दिन कौन सा होगा और मंै किस तरह से कार्य करूंगा? यह सबकुछ वर्णित है, यदि देखना चाहोगे, तो मिल जायेगा और जिसे नहीं देखना, तो सूर्य उदय भी होता है, मगर उल्लू को नहीं दिखाई देता है। हमें अपने कार्यों की ओर बढ़ते रहना है, हमारा कर्म ही हमें चीख-चीखकर पुकारेगा कि हम कौन हैं? मैंने कहा है कि मैं अपने जाने के पहले अपने जीवन में अपनी पहचान देकर जाऊंगा, तब यह समाज पहचानेगा।

आओ, हम इन क्षणों पर वह संकल्प करें।  पुन: दोनों हाथ उठाकर संकल्प करो कि  ‘मैं संकल्प करता हूँ कि आज से नशे-मांस से मुक्त चरित्रवान् जीवन जीता हुआ धर्मरक्षा, राष्ट्ररक्षा और मानवता की सेवा के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित करूंगा।’ दिव्य आरती का वह समय आ गया है और कल नशामुक्ति का महाशंखनाद किया गया था, आज उसी का दूसरा चरण पूरा होगा। अत: जो शंख लिए हुए हैं, वे मेरे साथ शंखनाद करेंगे।

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