प्रकृतिसत्ता का आत्मा से सम्बन्ध

शक्ति चेतना जनजागरण शिविर, सिद्धाश्रम, 30.09.2006

आज नवरात्रि के इस पावन पर्व पर यहाँ सिद्धाश्रम में उपस्थित अपने समस्त शिष्यों, माँ के भक्तों, श्रद्धालुओं, जिज्ञासुओं को अपने हृदय में धारण करता हुआ माता आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा का पूर्ण आशीर्वाद प्राप्त करता हुआ अपना पूर्ण आशीर्वाद आप समस्त लोगों को समर्पित करता हूँ।
वर्तमान समय में समाज की जो दिशाधारा है, वह दिशाधारा यदि व्यक्त की जाय, यदि केवल उसका ही बखान किया जाता रहे कि समाज किस दिशा में जा रहा है, समाज की क्या स्थिति है? या केवल कहानी और किस्से सुनाये जाते रहें या केवल पुराणों और वेदों का वर्णन किया जाता रहे, तो उससे न तो समाज का हित होना है, न ही समाज में परिवर्तन डाला जा सकता है। आज समाज को सबसे ज्यादा आवश्यकता है कि समाज इस तथ्य को समझ सके कि माता भगवती आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा से हमारा रिश्ता क्या है? मानव से उस प्रकृतिसत्ता का सम्बन्ध क्या है? इस प्रकृति से उस प्रकृतिसत्ता का सम्बन्ध क्या है? हमारा जीवन क्या उस प्रकृतिसत्ता से संचालित है या अनेकों देवी-देवताओं या अन्य जो परम्परायें हैं या जीवन की स्वतन्त्र सत्ता है? नाना प्रकार के ये प्रश्न समाज के बीच उभरते रहते हैं।

माँ की हम आराधना करें, तो किस स्वरूप की आराधना करें? माँ का हम चिन्तन करें, तो किस प्रकार से करें? माँ से अपने सम्बन्ध का हम वर्णन करें, तो किससे हम तुलना करें? जहाँ माँ शब्द की बात की जाती है, तो माँ शब्द के विषय में मैंने पूर्व के चिन्तन में अनेकों वर्णन किये हैं, विस्तार से काफी कुछ जानकारी दी है और मैंने कहा है कि आने वाले समय में, भविष्य में माँ रूपी एक ऐसा ग्रन्थ समाज को प्रदान किया जायेगा, जिसमें प्रकृति के उन मूल रहस्यों की पूर्ण जानकारी होगी। पूर्व में मैंने आपको चिन्तन दिया था कि उस प्रकृतिसत्ता की आराधना और उस प्रकृतिसत्ता को इष्ट के रूप में हम क्यों स्वीकार करें? चूँकि इष्ट, मूलसत्ता, यदि हम मूलसत्ता किसी को कहें, तो मूलसत्ता वही हो सकती है, जो अजन्मा हो, अविनाशी हो और हम पूरे धर्मशास्त्रों को उठाकर देख लें, किसी भी देवी-देवता पर चिन्तन करके देख लें, उनके जीवन के सभी रहस्यों के बारे में जानकारी लेकर देख लें, सभी देवी-देवता कहीं न कहीं जन्म लिये होंगे। उनकी समय सीमायें होंगी। काल परिस्थिति पर उन्होंने समाज के कार्यों को करने के लिये, समाज की भावनाओं की रक्षा के लिये, समाज के हित के लिये नाना स्वरूपों में उस प्रकृतिसत्ता ने अवतार लिये हैं।
हम बह्मा, विष्णु, महेश की बात कर लें या अन्य देवी-देवताओं की बात कर लें। ब्रह्मा, विष्णु, महेश की भी उत्पत्ति उस प्रकृतिसत्ता से हुई है। यदि हम लोकों की बात कर लें, तो आज विज्ञान भी इस बात को स्वीकार करने लग गया है और हमारे ऋषियों-मुनियों ने तो आज से हजारों-हजार वर्षों पूर्व, करोड़ों वर्षों पूर्व इस रहस्य को लाकर समाज के बीच रख दिया था कि एक लोक नहीं, इस तरह के अनेकों लोक हैं, अनेकों ब्रह्माण्ड हैं। अनेकों ब्रह्मा, विष्णु, महेश हैं। अनेकों राम हैं, अनेकों कृष्ण हैं। तो, जब अनेकों हैं, तो उन अनेकों में एक कौन है? चूँकि इसको खोजने का प्रयास समाज ने किया ही नहीं। जानने का प्रयास किया ही नहीं कि आखिर इन समस्त देवी-देवताओं के बीच वह कौन एक ऐसी सत्ता है, जो अजन्मा है, अविनाशी है? जिसकी किसी के द्वारा उत्पत्ति नहीं हुई, जो कभी नाशवान् होती नहीं। हम अपनी आत्मा के विषय में तो यह स्वीकार करने लग गये हैं, समाज इस बात को स्वीकार करने लग गया है कि आत्मा अजन्मा है, अविनाशी है, इसका नाश नहीं होता और यह प्रकृतिसत्ता या किसी सत्ता का अंश मात्र है। अगर यह कोई अंश है, तो इसकी पूर्ण सत्ता कौन है? क्या इसको खोजने का प्रयास किया गया? मेरा मानना है कि बिल्कुल नहीं किया गया। चूँकि ये समाज की परम्परायें हैं। समाज क्षणिक लाभों में, क्षणिक प्रलोभनों में पड़ जाता है।

समाज के अनेकों धर्माचार्यों ने जिस तरह समाज को भटकाया, कि उसका वर्णन यदि मैं करने लग जाऊँगा, तो एक विस्तार का चिन्तन दूसरे क्षेत्र का हो जायेगा। आगे माँ के सम्बन्ध के विषय में उस प्रकृतिसत्ता के चिन्तनों की ओर और ले जाना चाहूँगा। यह समाज का भटकाव रहा कि समाज ने उन ऋषियों-मुनियों की उन परम्पराओं को अपनाने का कभी प्रयास नहीं किया। जिसको जहाँ से लाभ मिल गया कि यदि कलेक्टर का चपरासी लाभ दे सकता है, तो हमको कलेक्टर से क्या मतलब है? हम धीरे-धीरे उनको भूल जाते हैं। इसी तरह देवी-देवताओं के रहस्यों में हुआ कि प्रकृतिसत्ता की आराधना का वेदों-पुराणों में बखान अधिक क्यों नहीं किया गया? मेरा मानना है कि सबसे अधिक किया गया। जिस ओर निगाह उठाकर ऋषियों-मुनियों ने देखा, सिद्ध पुरुषों ने देखा, केवल माँ का ही वर्णन अधिक किया, मगर जो उनके उत्तराधिकारी रहे, वे उसका विस्तार गलत तरीके से करते चले गए।
हमारा हिन्दू धर्म, हिन्दू समाज काफी समय तक गुलामी का जीवन जीता रहा है। अनेकों प्रकार के चाटुकार साधू, सन्त, संन्यासी हुये, जो चाटुकारिता की भाषा बोलते रहे। धर्मग्रन्थों में परिवर्तन करते चले गये। आज भी हो रहा है। वर्तमान में भी आप लोगों ने देखा होगा, सुना होगा कि कुछ समय पूर्व शिव को क्या-क्या कहा गया? उन शब्दों का वर्णन मैं यहाँ से करना नहीं चाहता। बच्चों की कहानी की पुस्तकों में इस तरह के चिन्तन लिखे जाते हैं कि लोगों की अनास्था उन देवी-देवताओं के प्रति होती चली जाय। कृष्ण की रासलीलाओं पर नाच-गाने और अय्याशी के कार्यक्रम किये जाते हैं। रामायण पर किस तरह के मंचन करने के समय किस तरह के कार्यक्रम किये जाते हैं? टी.वी. धारावाहिकों में किस तरह के दृश्य दिखाये जाते हैं? और, जो दृश्य आपको दिखा दिया गया, आपकी विचारधारा वैसी ही बन जायेगी। चूँकि जैसा देखेंगे, वैसे विचार आपके मन में बनेंगे। यह केवल एक पक्ष की बात नहीं है।
आज विषय-विकार, काम, क्रोध, लोभ, मोह जो भी आपके ऊपर हावी होता है, पहले उस क्षेत्र में आप देखते हैं, विचार करते हैं और आँखों से जो चीज आपके अन्दर प्रवेश करती है, वैसे ही चिन्तन आपके बन जाते हैं। छोटे-छोटे बच्चे जिस तरह के सीरियल देखेंगे, उसमें उसको सत्यता के रूप में स्वीकार कर लेते हैं। समाज ने यह कभी सोचने का प्रयास नहीं किया। हमने राम को बहुत पूजा, कृष्ण को बहुत पूजा, उनको ब्रह्म मान लिया गया, मगर राम और कृष्ण जिन ऋषियों की परम्पराओं को स्वीकार करते रहे, जिन ऋषियों से जाकर उन्होंने ज्ञान अर्जित किया, कभी विश्वामित्र, वसिष्ठ, अगस्त्य जैसे ऋषियों का क्या कभी बखान किया गया? क्या उनके कहीं दिव्य मन्दिर बनवाये गये? जिन ऋषियों के पास अलौकिक शक्तिसामर्थ्य थी। मगर, यह समाज का भटकाव रहा कि समाज को जिससे केवल लाभ मिल जाये, वही हमारे लिये सर्वेश्वर है, वही ब्रह्म है!
इसी तरह गुरु भी परमब्रह्म और ब्रह्मर्षि मान लिये जाते हैं। गुरु अहंकारी हो जाते हैं। वह भूल जाते हैं कि हम प्रकृतिसत्ता के अंश हैं। अनेकों गुरुओं को आप समाज में देखते होंगे कि वे प्रकृतिसत्ता की ओर बढ़ाना नहीं चाहेंगे और ‘अहं ब्रह्मास्मि’ की बात रख देंगे। मैं पूर्ण हूँ। देवी-देवताओं की साधना-आराधना करने की जरूरत नहीं है। तुम स्वतः पूर्ण हो। यह अहंकार की भाषा है, रावण की भाषा है। राम ने जो मार्ग हमें दिखाया, कृष्ण ने जो ज्ञान हमें दिया, समाज ने उस पर अमल नहीं किया। बाद की परम्पराओं ने पुस्तकों में बहुत कुछ इस प्रकार की परिस्थितियों का वर्णन कर दिया, जो नहीं करना चाहिये था। दिशायें बदल दी गईं। विचार बदलते चले गये। धर्म का ह्रास होता गया। गद्दी दर गद्दी आसीन होने वाले धर्माचार्य, शंकराचार्य होते चले गये। राजनेताओं का पतन होता चला गया। भ्रष्टाचार, अनीति-अन्याय-अधर्म चरम सीमा पर बढ़ता चला गया।
यहाँ राजसत्तायें कायम थीं। राजतन्त्र के बाद जो एक दूसरे प्रकार के समाज का आक्रमण हुआ। विदेशियों का साम्राज्य रहा और अनेकों धर्मग्रन्थों में बहुत कुछ बदलकर रख दिया गया। दुर्गा सप्तशती में भी आप लोग वर्णन पढ़ते होंगे। वहाँ पर भी मदिरापान शब्द लिखा गया है, जबकि इससे बड़ा अधर्म-अन्याय और कुछ नहीं होगा। यह उसी प्रकार अतीत में कभी न कभी वर्णन कर दिया गया, जिस तरह वर्तमान में आज शिव को अय्याश लिखा जाता है, कामी लिखा जाता है। केवल उन चाटुकार नेताओं के संरक्षण में दिशा बदलती चली गई। उन अधर्मी-अन्यायी नेताओं के संरक्षण में कि शायद हमको मन्त्री पद या एक पद और आगे का मिल जायेगा। समाज का, धर्म का क्या होगा? इससे उनको कुछ लेना-देना नहीं। चूँकि उनकी अन्तरात्मा इतनी मर चुकी है कि उनके अन्दर चेतना नाम की शक्ति नहीं रह गई। सोचने-समझने की शक्ति क्षीण हो चुकी है। केवल भौतिकतावाद उनके जीवन में नजर आता है। हमारा शरीर जो तमोगुण, रजोगुण और सतोगुण से परिपूर्ण है, उस पर उन्होंने नजर उठाकर कभी देखा ही नहीं। उन्हें भौतिकतावाद में ही सब कुछ नजर आता है।
अधर्म-अन्याय जिस प्रकार हावी था, हजारों- हजार वर्षों से है और उस तरह हमारे धर्मग्रन्थों को बहुत कुछ बदलकर रख दिया गया। आज यदि हम धर्मग्रन्थों में तलाशने का प्रयास करेंगे, तो हम माँ की शक्ति की ओर कभी बढ़ नहीं सकेंगे। मगर, कहीं न कहीं उनके रहस्य छिपे पड़े होंगे, वह विचारधारा दबी पड़ी होगी। उसको उभारा नहीं गया। मैं सामान्य बात कर रहा हूँ, जिन्होंने यहाँ जन्म लिया, वही ऋषि-मुनि, वही साधू, सन्त, संन्यासी, वही कथावाचक माता सीता को क्या कहते हैं? भगवती जगदम्बा का अवतार। राधा को क्या कहते हैं? भगवती जगदम्बा, इन्हीं नामों से तो सब सम्बोधित करते हैं। उनको अवतार तो कहते हैं, मगर यदि अवतार हें, तो वह दिव्यसत्ता कहाँ है? उस दिव्य सत्ता को क्या हमने जानने का प्रयास किया? उस दिव्य सत्ता को क्या हमने समझने का प्रयास किया? हमने अपने मतलब के लिये सीता को माता कह दिया, जगदम्बा कह दिया। अपने हृदय में यह चीज स्वीकार भी कर ली कि राम से ज्यादा बढ़कर उनका महत्त्व है। कृष्ण से बढ़कर राधा का महत्त्व है, मगर वह अंशमात्र है। उस प्रकृतिसत्ता का अंशमात्र है, मगर फिर भी हमने उस प्रकृतिसत्ता की ओर आँखें उठाकर देखना ही नहीं चाहा। इसलिये कि हमारे निजी स्वार्थों की पूर्ति, हमारे स्थूल शरीर की पूर्ति, हमारी तमोगुणी इच्छाओं की पूर्ति, केवल सामान्य स्थितियों में ही हमें प्राप्त हो जाती है और समाज भटकाव के मार्ग पर भटकता चला गया।
सत्य की ओर समाज ने बढ़ने का प्रयास ही नहीं किया कि देवाधिदेवों के भी ऊपर जब संकट आया है, जब विपरीत परिस्थितियाँ आई हैं, तो उन्होंने उस जगदम्बा की शरण ली है, उस जगदम्बा को पुकारा है। मगर, समाज की यह विडम्बना है कि हमें कहीं से लाभ मिलने लग जाय, तो वही हमारे लिये ब्रह्म हो गये, परमबह्म हो गये। हमें मूल रहस्य को कभी नहीं भूलना चाहिये कि यह मूल कहाँ से चल रहा है? उस मूल को समझने का प्रयास करना चाहिये। मैंने कहा है कि मेरे पास जो कुछ भी है, उस प्रकृतिसत्ता का है। जो मेरे अन्दर चेतना बैठी है, उस प्रकृतिसत्ता का अंश है। आपके अन्दर जो चेतना बैठी है, वह उस प्रकृतिसत्ता का अंश है। उस प्रकृतिसत्ता के सम्बन्ध की अगर मैं बात कहूँ, तो स्थूल शरीर से उस प्रकृतिसत्ता का हमारा सम्बन्ध उसी प्रकार से है, जिस प्रकार जल से मछली का है कि अगर मछली जल से बाहर निकाल दी जाती है, तो उसकी मृत्यु हो जाती है, तड़प-तड़पकर मर जाती है। उसी तरह यदि हमारे स्थूल शरीर से हमारी चेतना बाहर चली जाती है, तो हम कुछ क्षणों में ही शरीर का त्याग कर देते हैं। उस शरीर से यदि हम सम्बन्ध की बात करें, तो माँ शब्द उस जगत् जननी जगदम्बा को भी कहते हैं और अपनी जन्म देने वाली माँ को भी हम माँ कहते हैं। निश्चित है इस भूतल पर इस समाज में माता-पिता से बढ़कर कोई दूसरा रिश्ता नहीं है, मगर हम उस अदृश्य सत्ता की बात करते हैं, उस आत्मा और परमसत्ता की बात करते हैं, तो हमें उस रिश्ते की गहराई को भी समझना होगा।
जगत् की माता निश्चित है हमारी पूज्या है, सर्वश्रेष्ठ है, मगर उस प्रकृतिसत्ता, परम पूज्या प्रकृतिसत्ता का सम्बन्ध माँ शब्द की तुलना में यहाँ और वहाँ बराबर फिट कर दें, तो यह अन्याय होगा, अधर्म होगा, पाप होगा। चूँकि करोड़ों सूर्यौं के प्रकाश की तुलना एक जुगनू से नहीं की जा सकती। चूँकि हमारे स्थूल को जन्म देने वाली माँ यदि हमसे अलग भी हो जाये, हम उससे अलग भी हो जायें, तो हमारा जीवन चलता रहता है। मगर, यदि प्रकृतिसत्ता हमारी चेतना को खींच ले, तो क्या हम एक पल का भी जीवन जी सकते हैं? प्रकृतिसत्ता हमारी चेतना को बाहर कर दे, तो क्या हम इसी प्रकार का जीवन जी सकेंगे? नहीं जी सकते। यदि उस चेतना की बात भी छोड़ दूँ कि वह चेतना आपकी है, आत्मा आपकी है। आप अहंकारी बन जायें, तो दूसरे रहस्य की भी आप जानकारी ले लें कि प्रकृतिसत्ता से हम जो कुछ भी बाह्य क्रम से ग्रहण करते हैं, पंचतत्त्वों की बात करते हैं। यह स्थूल शरीर हमारा पंचतत्त्वों से निर्मित है। इस चीज को विज्ञान भी स्वीकार कर चुका है। अगर हमारा यह शरीर पंचतत्त्वों से निर्मित है, तो पंचतत्त्वों का निर्माण करने वाली सत्ता कौन है? क्या कभी किसी ने जानने का प्रयास किया है कि व्यवस्थित गति से पंचतत्त्व किस प्रकार कार्य कर रहे हैं और उन पंचतत्त्वों के बिना हम यदि ऑक्सीजन न लें, तो क्या हमारा जीवन चल सकेगा?
वह प्रकृतिसत्ता तो हर पल, हर क्षण, यदि क्षणों से भी अधिक गहराई पर उतर जायें, तो उन सूक्ष्म से भी सूक्ष्म क्षणों पर हमारा सहारा बनती है। हमारे अन्दर ऑक्सीजन न जायेगी, तो हमारे शरीर का अन्त हो जायेगा। क्या हमने इन तथ्यों को समझने का प्रयास किया है कि इन्हीं पंचतत्त्वों (क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर) से हमारा शरीर बना है? 70 प्रतिशत हमारे शरीर में जल का भाग रहता है। यदि इन पंचतत्त्वों में से कोई एक तत्त्व हमारे शरीर से निकल जाये, तो क्या हमारा यह जीवन रह सकता है? नहीं रह सकेगा। तो, उस प्रकृतिसत्ता ने हमें केवल आत्मरूप से ही नहीं चैतन्यता प्रदान की, आत्मा से तो उस परमसत्ता की ओर बढ़ाने का निर्माण कर दिया है कि यदि तुम चाहो, तो उस चेतना को चैतन्य करके ब्रह्म के समान बन सकते हो। केवल ब्रह्म के समान, प्रकृतिसत्ता के समान नहीं। उस ब्रह्म के समान बन सकते हो, मगर फिर भी आपको सहारा दिया कि अगर कभी चूँकि यदि योगी चाहे, तो अपने प्राणायाम के माध्यम से, अपनी चेतना के माध्यम से अपनी कुण्डलिनी चेतना को जाग्रत् करके जिन तत्त्वों को चाहे, उन तत्त्वों को बाहर छोड़ सकता है। ऑक्सीजन के बगैर प्राणवायु के माध्यम से, प्राणचेतना के माध्यम से जीवन जी सकता है। पृथ्वी तत्त्व को अलग करके, अपने शरीर को सूक्ष्म कर सकता है। मगर, चूँकि अगर समाज का पतन हो, समाज उस चेतना का पूरी तरह उपयोग न कर सके, तब भी प्रकृतिसत्ता ने हर पल हमें सहारा दिया है कि हम वायु से ऑक्सीजन ले सकते हैं, सूर्य से प्रकाश ले सकते हैं, आकाश से हम वातावरण को ग्रहण कर सकते हैं और पृथ्वी तत्त्व का सहारा ले सकते हैं। हम जिस ओर से भी निगाह उठाकर देखें, तो वह प्रकृतिसत्ता हर पल हमें सहारा प्रदान कर रही है।
हम उस प्रकृतिसत्ता की आराधना की बात कर रहे हैं, जो अजन्मा है, अविनाशी है। और, जो अजन्मा, अविनाशी है, उससे हमारे सम्बन्ध क्या कामनाओं की पूर्ति के लिये होने चाहियें? क्या भक्त का रिश्ता केवल कामनाओं की पूर्ति से जुड़ा होना चाहिये? क्या भक्त का सम्बन्ध केवल कामनाओं तक ही सीमित होना चाहिये? यदि हमारी वही विचारधारा रही, तो समाज के भटकाव को फिर कोई नहीं रोक सकेगा। हमें कहीं न कहीं ठहराव लेना होगा। कहीं न कहीं एक पल सोचना होगा कि उन ऋषियों और मुनियों को मिलता क्या था, जो हजारों-हजार वर्षों तक तपस्या करते थे, साधनारत रहते थे? अनेकों देवी-देवताओं की शक्तियों के समान उनके पास शक्ति थी। नवीन स्वर्ग के निर्माण करने की क्षमतायें थीं। उसके बाद भी वे उस प्रकृतिसत्ता की ओर, उस सत्य की ओर सतत बढ़ते चले गये। चूँकि आत्मा की ऊर्जा को बढ़ाने की कोई सीमायें नहीं, फिर भी आज असमर्थता और असहाय का सा जीवन समाज जी रहा है! उसका मूल कारण है कि समाज सतत पतन की ओर जा रहा है। हमें कहीं न कहीं उस पतन को रोकना होगा। कहीं न कहीं विचार करना होगा कि उस परमसत्ता से यदि हमने सम्बन्ध नहीं जोड़ा, उस परमसत्ता के सम्बन्ध को हम बराबर समझते नहीं रहे। जिस तरह से हम ऑक्सीजन लेते हैं, तो हम यह बराबर कर लेते हैं कि हमारी नाक में नाक भर जाती है या कफ आ जाता है, तो हम कफ को बाहर निकाल देते हैं और नाक को साफ कर लेते हैं। वह इसलिये कि हमको लगता है कि अगर हमारे फेफड़ों में ऑक्सीजन नहीं जायेगी, तो हमारे प्राणों का अन्त हो जायेगा। मगर, उसी तरह आपके प्राणों का अन्त तो हर पल हो रहा है। दीन-हीन हो करके आप लोग जीवन जी रहे हैं। वह सामर्थ्य का जीवन क्यों नहीं, सामर्थ्य का जो जीवन आपका गुरु जीता है? वह चेतना का जीवन आपके अन्दर क्यों नहीं है? आपका गुरु कहीं जंगल में भी बैठकर कहता है कि अगर करोड़ों लोग भी आ जायें, तो मैं माँ अन्नपूर्णा की कृपा से भण्डारे का भोजन उनको बराबर कराता रह सकता हूँ। जिसे चाहूँ उसे जीवनदान दे सकता हूँ। यह कहने की बात नहीं है, अनेकों लोग समाज में आज भी यहाँ इस पण्डाल में बैठे हुये हैं, जिन्हें इस स्थान से जीवनदान मिला। तो, जीवनदान कहाँ से मिला? क्या इस शरीर की क्षमता के बल पर? नहीं, ऐसा हो ही नहीं सकता। उस प्रकृतिसत्ता के बल पर। उस प्रकृतिसत्ता का एक अंश, जो अन्दर आत्मा बैठी हुई है, उस आत्मा की चेतना तरंगों के बल पर हुआ।
आपका गुरु भी जो कार्य करता है, उस प्रकृतिसत्ता के आशीर्वाद को पूर्णता से प्राप्त करता हुआ और उस चेतना का भरपूर उपयोग करने का प्रयास करता है मानवता के हित के लिये, समाज के हित के लिये। आज जिस स्थान पर आप माँ के जयकारे लगा रहे हैं, यहाँ पूर्व में क्या स्थितियां थीं? आप सब लोगों को मालूम है। परिवर्तन अपने आप नहीं होता चला जाता। परिवर्तन करना पड़ता है। परिवर्तन के लिये हमें चाहिये कि कर्मबल हमारा जाग्रत् हो। हम असहायों का जीवन न जियें। हम एक बार सत्य की ओर निगाहें उठाकर देखें। प्रकृतिसत्ता हमें दोनों हाथों से सब कुछ लुटाने के लिये बिल्कुल तैयार बैठी है। मगर, यदि हम आँखें ही मोड़ लें, हम लेने के लिये अपने हाथ ही न फैलायें, हमारी झोली ही फटी हुई हो, तो क्या हम ग्रहण कर सकेंगे? चूँकि हमारे अन्दर की जो सुषुम्ना नाड़ी है, जहाँ हम यह तमोगुण की बात करेंगे, तो भौतिकतावाद में आप अब तक तमोगुण में ही सब कुछ तृप्ति प्राप्त करते रहेंगे और आपका जो रजोगुण है, वह क्षीण होता चला जायेगा। सतोगुण दबता चला जायेगा। चूँकि मैंने पूर्व के चिन्तनों में कहा था कि वह सुपर कम्प्यूटर, जिससे सूक्ष्म कुछ भी नहीं है, वह आपके शरीर के अन्दर बैठा हुआ है। वह आत्मा अंश, जिससे सूक्ष्म इस जगत् में कुछ है ही नहीं और जिससे विराट् भी कुछ नहीं है।
वह इतना सूक्ष्म रूप में हमारे अन्दर स्थित है कि जब एक बच्चा शिशु रूप में जन्म लेता है, तो सुषुम्ना नाड़ी में मूलाधार ग्रन्थि पर उस अंशमात्र की स्थापना होती है और उस अंश का विकास ज्यों-ज्यों होता चला जाता है, हमारे इस स्थूल शरीर का भी विस्तार होता चला जाता है। आप यदि कहें कि वह कैसे विराट् हो गई? तो मैं कहता हूँ आपका यह शरीर कैसे विराट् हो गया? एक बच्चा तो बहुत छोटा सा जन्म लेता है, किन्तु एक छोटे से बच्चे के इस स्थूल शरीर का विस्तार धीरे-धीरे कैसे होता चला जाता है? उसी तरह वह आत्मा अंश हमारी मूलाधार के मूल पर आकर स्थापित हो जाता है और उसकी चेतना तरंगों के माध्यम से इस स्थूल शरीर का भी विस्तार होता चला जाता है। उस सुपर कम्प्यूटर का भी हमारे अन्दर विस्तार होता चला जाता है कि हम जैसे भी अच्छे-बुरे कर्म करते हैं, वे हमारे अन्दर फीड होते जाते हैं। अनेकों जन्मों का लेखा हमारे अन्दर इसी सुपर कम्प्यूटर में स्थापित होता चला जाता है और हमारे कर्मौं के अनुसार हमको उसका फल मिलता चला जाता है।
आप उस सुपर कम्प्यूटर पर अपनी निगाहें ज्यादा रखते नहीं। उस आत्मा अंश की आराधना करना ही नहीं चाहते कि इस आत्मा को हम कैसे चैतन्य बनाकर रख सकते हैं। हम अगर उस प्रकृतिसत्ता की आराधना करना चाहते हैं, तो हमको उस प्रकृतिसत्ता के अंश को साफ-सुथरा बना करके रखना पड़ेगा। हमें उस सुषुम्ना नाड़ी को चैतन्य बनाकर रखना पड़ेगा और चैतन्य बनाने के लिये जो मैंने कहा था, कामनापूर्ति के चिन्तनों में मैंने कहा है कि केवल एक मार्ग है, उसके अलावा दूसरा कोई मार्ग नहीं है। जब आप नाना प्रकार की कामनाओं को रोककर केवल तीन कामनाओं में अपने आपको सीमित कर लेंगे- भक्ति, ज्ञान और आत्मशक्ति। जब इन तीन क्षेत्रों की ललक आपके अन्दर आ जायेगी, जब इन तीन क्षेत्रों की कामना आपके अन्दर आ जायेगी, चूँकि यदि आप भक्त बन गये, तो आपके लिये कुछ भी खाली नहीं रह जाता, शेष नहीं रह जाता। चूँकि भक्ति में शक्ति छिपी है। शक्ति वहीं हो सकती है, जहाँ पर भक्ति होगी और जहाँ भक्ति है, वहीं ज्ञान हो सकता है। चूँकि भौतिक जगत् के ज्ञान को ज्ञान नहीं कहा जा सकता। धर्मग्रन्थों को आप तोते की तरह रट लीजिये, उससे लाभ नहीं होगा।
अनेकों साधु, सन्त, संन्यासियों को देखते होंगे कि एक दोहा बोलेंगे और फिर बतायेंगे कि यह फलां पृष्ठ पर फलां अध्याय की फलां चौपाई का अंश है। पूरा जीवन लगा देते हैं रटने और बोलने में। तोते की तरह रटते हैं, तोते की तरह सुनाते हैं, तोते की तरह समाज सुनता रहता है और उसी समाज से कुछ और तोते निकल आते हैं और वे भी उन्हीं तोतों की तरह रटना शुरू कर देते हैं और यह प्रक्रिया बराबर चलती चली जाती है। कभी उस सार को समझने का प्रयास किया गया कि धर्मग्रन्थ हमें किस ओर ले जाने का प्रयास कर रहे हैं? भगवान् श्रीकृष्ण हमें किस ओर ले जाने का प्रयास कर रहे थे? उनके ज्ञान का, उन्होंने जो ज्ञान दिया, उसका वर्णन कभी विस्तार से मिलता है? जिस तरह मैंने बार-बार कहा कि कुछ सोचते होंगे कि माँ की आराधना का विस्तार इतना क्यों नहीं हो सका? मैं कह रहा हूँ कि श्रीकृष्ण ने तो समाज में जन्म लिया है, श्रीकृष्ण के बारे में समाज बहुत कुछ जानता है, मगर श्रीकृष्ण ने जो उपदेश दिया, ज्ञान दिया, क्या उसका विस्तार उतना हो पा रहा है? मगर, कृष्ण की रासलीला का चरम सीमा पर विस्तार हो रहा है।
किसी भी कथावाचक को देखो, जब अन्य वर्णन आयेंगे, तो बड़ी शान्ति से सामान्य वार्ता में लेंगे, मगर राधा का चिन्तन आजाये, तो फिर देखो! उनका पूरा दिल खिल जाता है, रोमान्चित हो जाते हैं और देखो फिर किस-किस तरह से वर्णन करते हैं! वह चाहे गोपियों का जल में स्नान करने की क्रीड़ा का हो, चाहे राधा और कृष्ण के प्रेम का हो। एक तरफ राधा को जगदम्बा कहते हैं और दूसरी तरफ फूहड़ तरीके से उनका वर्णन करते हैं। उन कथावाचकों से कहिये कि क्या आप अपने माता और पिता के प्रेमप्रसंग का वर्णन करेंगे? मगर, समाज कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाता। यही वे कारण थे कि समाज के लोग पतन के मार्ग पर बढ़ते चले गये। हम जिन्हें जगदम्बा कहते हैं, उनकी रासलीला का किस तरह वे बखान करते हैं! उनके प्रेमप्रसंगों का किस तरह से वे बखान करते हैं, जितना उस काल में हुआ भी न होगा! निश्चित है कृष्ण थे, उनकी बचपन की अवस्था थी और जब कोई चेतना समाज के बीच में आती है, तो उनसे जुड़ी हुई अनेकों चेतनायें भी समाज में आती हैं। उनके अपने बचपन के सगे-सम्बन्धी थे, जिस तरह का जीवन हम आप सभी जीते हैं। मगर, आज जो मैं ज्ञान दे रहा हूँ, आज जो मैं चिन्तन दे रहा हूँ, उस पर आप अमल न करें और मेरे बचपन में जाकर देखें कि बचपन में मैं किस तरह से रहता था, तो बचपन में मैं भी निर्वस्त्र टहलता था। अन्य बच्चों की तरह मेरा भी जन्म हुआ था। मैं भी अपने दोस्त मित्रों के साथ खेलता था। मुझसे भी अच्छाइयाँ- बुराइयाँ कुछ न कुछ हुई होंगी। मगर, कभी विचार नहीं किया जाता कि हमको किन चीजों को लेकर समाज में चलना है?
कृष्ण ने उपदेश क्या दिया? राम ने कितनी बड़ी मर्यादा का पालन किया? उन मर्यादाओं में समाज को चलाने के लिये कभी वर्णन नहीं किया गया। राधा का प्रसंग आया नहीं, कि किसी भी कथावाचक को देखो, असंतुलित हो जाते हैं। बड़े से बड़े कथावाचकों को देख लीजिये, निश्चित है कि उनको ज्ञान है, जो स्थूल जगत् का ज्ञान है। उन धर्मग्रन्थों का ज्ञान है। मगर, मैंने पूर्व में भी चिन्तन दिये हैं कि एक भी धर्माचार्य, एक भी कथावाचक आज आत्मचेतना से परिपूर्ण नहीं है और जो आत्मचेतना से परिपूर्ण नहीं होंगे, जिन्हें आत्मा और परमसत्ता का ज्ञान नहीं होगा, वे इसी तरह की लीलायें करेंगे। चूँकि उन्होंने अपने गुरुओं से जो सुना, उन्होंने उसमें दो-चार कहानी और जोड़ दीं। सभी कथावाचकों को सुनिये कि जितनी देर कथा सुनायेंगे, उससे ज्यादा देर तक बीच-बीच में गीतों और भजनों के कार्यक्रम जोड़ते रहेंगे। थोड़ी देर कोई एक रहस्य सुनायेंगे और फिर एक गीत शुरू हो जाता है। प्रेमप्रसंग के गीत आप ज्यादा सुनेंगे। धिक्कार है उन कथावाचकों पर, जिनको वर्णन, जिनको दिग्दर्शन राधा को एक माँ के रूप में रखना चाहिये, उनका चिन्तन रखना चाहिये! उनके चरित्र को रखना चाहिये, किन्तु वे उनमें न रखकर केवल रासलीला का वर्णन करते रहते हैं।
आज यही भटकाव है कि आप समाज में पढ़े-लिखे अधिकारियों को देखिये कि अधिकारी साड़ी पहनकर राधा बन रहे हैं। कोई कर्मयोगी क्यों नहीं बना? कोई इस समाज में अर्जुन क्यों नहीं बना? इसलिये कि उन कथावाचकों ने उनको पतन के मार्ग पर डाला। राधा बनकर उनको तृप्ति मिलती है, इसलिये कि उनकी चेतना का इतना पतन हो चुका है। वह सिर्फ आडम्बर है, भटकाव है। कृष्ण ने अर्जुन को जो उपदेश दिया, कृष्ण ने अर्जुन को जिस तरह प्रेरणा दी, जिस तरह उन्हें एक कर्मयोगी बनाया कि आज अर्जुन का नाम आते ही एक चेतना का संचार हो जाता है कि जिस चेतना पुरुष ने अर्जुन के अन्दर इतनी क्षमतायें भर दीं कि एक विशाल सेना को पाँच पाण्डवों ने परास्त कर डाला। आज अर्जुन बनने की ललक किसी के अन्दर क्यों नहीं पैदा हो रही? यह भावना क्यों नहीं हो रही कि जो अनीति-अन्याय- अधर्म फैला हुआ है, उसके विपरीत हम अपने अन्दर की आत्मचेतना को जाग्रत् करें, ज्ञानपक्ष को जाग्रत् करें, सत्य को समझने का प्रयास करें और आगे बढ़ चलें। हमारे साथ क्या होता है, इसको भूल जायें, चूँकि हम अजर-अमर-अविनाशी हैं।
उस प्रकृतिसत्ता का वर्णन-बखान नहीं किया गया। ब्रह्मा को आज कौन पूजता है? शिव की आराधना करने की बहुत जरूरत पड़ी है, विष्णु की आराधना कर लेंगे। इसलिये कि उन्हें लगता है, चूँकि समाज को चिन्तन दिया गया कि ब्रह्मा सिर्फ सृष्टि के रचनाकार हैं, तो हमें तो रच दिया, अब हमें उनसे क्या मतलब है? माता-पिता ने हमें जन्म दे दिया, हमको बड़ा कर दिया, अब हमको उनसे क्या मतलब है? अब तो अगर हमको पड़ोसी मदद दे देता है, तो पड़ोसी हमारे बाप से बढ़कर हो जाता है! यह विचारधारा पनप रही है। चूँकि समाज को हम जो कुछ परोसेंगे, समाज जैसा भोजन करेगा, वैसे ही उसके अन्दर विचार बनेंगे। जैसा देखेगा, वैसे ही उसके अन्दर विचार पैदा होंगे और समाज के कथावाचकों ने वही विचार दिये हें। वही विचार समाज के अन्दर डाले हैं। इसीलिये मैंने बहुत पहले एक चिन्तन दिया था कि यदि भविष्य में कोई ऐसा आयोजन हो सके कि एक आयोजन समाज करा सके, सभी धर्मों के लोग मिलकर करा सकें कि जहाँ सत्य का परीक्षण हो। सत्य देखा जाय कि सत्य किसके पास खड़ा हुआ है? प्रकृतिसत्ता के ‘माँ’ शब्द में कितनी बड़ी अलौकिक क्षमता छिपी पड़ी है। अनेकों तन्त्रों-मन्त्रों का उपयोग करके जो अनेकों तन्त्राचार्य-मन्त्राचार्य पड़े हैं, चारों मठों के शंकराचार्य ही नहीं, अनेकों धर्मों के धर्माचार्य मिलकर भी अपनी पूरी सामर्थ्य को लगाकर, जो एक कार्य को करते हैं, आपका यह गुरु केवल उस ‘माँ’ शब्द की शक्ति के बल पर अकेले करने में सक्षम है।
कोई गर्व और घमण्ड की बात नहीं, मैंने किसान परिवार में जन्म लिया है, मेरा स्थान आदि आप सब कुछ जानते हैं। आज सौभाग्य की बात है मेरे लिये कि मेरे पिता दण्डी संन्यासी स्वामी यहाँ उपस्थित हैं। चूँकि मेरा पथ अलग है, मेरा मार्ग अलग है। मगर, मेरे अन्दर जो चेतना प्राप्त हुई है, चूँकि बचपन से जब से मैंने होश सम्भाला था, पिता जी को मैं हमेशा साधनारत रहा देखा करता था। हमारे घर के, गाँव के भी सैकड़ों लोग यहाँ आये हुये हैं। उनको भी मालूम है कि सुबह-शाम नित्य आरती-पूजन होता था। मैंने कहा कि जैसा हम करेंगे, जैसा हम परोसेंगे, वैसा ही हमें प्राप्त होगा। इस शरीर के जन्म के पूर्व में क्या था? इसका वर्णन मैंने किया है। मेरी पूर्व की चेतना क्या है? इसका वर्णन मैं कर चुका हूँ। बार-बार उन चिन्तनों में मैं जाना नहीं चाहता, मगर इस शरीर के रूप में भी जब से मैंने जन्म लिया, उस घर में, सुबह-शाम आरती-पूजन होते हुये पाया। वह वातावरण भी पाता रहा कि मेरी आत्मा की मूल चेतना दबने नहीं पाई।
पिता जी एक कर्मयोगी के समान रहे कि खेती करने में भले काम करने वाले लोग लगे हों, मगर उन्होंने स्वतः कर्म करना सीखा है। स्वतः 18 घण्टे, 20 घण्टे परिश्रम करते थे। अपने बच्चों को परिश्रम कराते थे। परिश्रमी बनाने का उन्होंने प्रयास किया और जब साधना के क्षेत्र में गये, तो आज चूँकि उनकी 99 वर्ष की अवस्था हो चुकी है और मैंने तो उनसे 10 मिनट के लिये ही आग्रह किया था कि 10 मिनट आप यहाँ बैठें, मगर फिर भी यह उनकी क्षमता है कि लगातार बैठकर यहाँ के क्रम का लाभ ले रहे हैं। चूँकि 99 वर्ष की अवस्था में जो 25 वर्ष से संन्यास जीवन जी रहे हों, जो बिल्कुल स्वल्पाहारी रहे, जिन्होंने अनेकों मन्दिरों का जीर्णोद्धार कराया। जो भी पैसा मिलता, कभी एक भी पैसा अपने साथ नहीं रखा। जब से घर का त्याग करके गये, अपने लिये कोई एक कुटिया नहीं बनवाई, मगर उन्होंने कभी वर्णन नहीं किया।
मैं स्वतः एक बार बनारस उनसे मिलने गया था और इस नवरात्रि पर्व पर यह मेरी उनसे चौथी मुलाकात है। इस नवरात्रि पर्व पर जो उन्होंने मुझे भौतिक जगत् का स्नेह प्रदान किया, वह मेरे लिये सदैव स्मरणीय रहेगा कि आकर उन्होंने जिस प्रकार से मुझे गले लगाया, मुझे अपना बचपन याद आ गया कि मैं बचपन में किस तरह से उनकी गोद में खेलता था? किस तरह से गले लगाते थे? और इतने वर्षों के बाद, 35-40 वर्ष की अवधि के बाद पुनः वह सौभाग्य इस नवरात्रि पर्व पर मुझे मिला और उस सौभाग्य के फलस्वरूप जो भी आशीर्वाद मुझे मिला, वह आशीर्वाद मैं आप समस्त लोगों को समर्पित करता हूँ। चूँकि मेरे जीवन का एक-एक पल आपसे जुड़ा हुआ है, समाज से जुड़ा है, मैंने एक पल की साधना को अपने जीवन से नहीं जोड़ा। चूँकि मुझे जो तृप्ति चाहिये थी, वह प्रकृतिसत्ता ने बहुत पहले दे दी थी। मुझे अपने लिये किसी चीज की आवश्यकता नहीं। बस, इतना अवश्य है कि उस प्रकृतिसत्ता से जो तार जुड़े हुये हैं, उनमें कोई जंग न लगने पाये, प्रकृतिसत्ता मुझ पर उतनी कृपा करती रहें, इसके अलावा मुझे जीवन में और कुछ चाहिये ही नहीं।
यह तो हुई वातावरण की बात। मैंने कहा कि यदि वातावरण मिले, यदि हम बच्चों को वह दिशा दे सकें, चूँकि हमारा आपका सभी का कर्तव्य बनता है कि हम केवल कथाओं, कहानियों और किस्सों में न उलझें। समाज को एक दिशा दें कि हर मनुष्य के अन्दर एक चेतना तत्त्व बैठा हुआ है। वह चेतना तत्त्व उस प्रकृतिसत्ता का अंश है। उस माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा का अंश है, जिससे अनेकों देवी-देवताओं की उत्पत्ति हुई है। मैं यह कभी नहीं कहता कि कभी किसी देवी-देवता का अनादर करो। वे सभी तुमसे महान् हैं, आप सबसे महान् हैं। देव शक्तियाँ हैं, उस प्रकृतिसत्ता के अंश हैं, जो स्थूल से परे सूक्ष्म में रहती हैं। सूक्ष्म की सत्ता स्थूल से कई गुना ज्यादा महान् होती है। हम किन्हीं भी देवी-देवताओं के मन्दिरों में जायें, तो वहाँ आदर-मान-सम्मान करें, उन्हें नमन करें। मगर, हमारा लक्ष्य होना चाहिये प्रकृतिसत्ता। हमारी इष्ट होनी चाहिये प्रकृतिसत्ता। हम वहाँ भी नमन करें, तो यह भाव लेते हुये करें कि ये प्रकृतिसत्ता के अंश हैं। अगर हमें इनका भी आशीर्वाद मिले, तो हम प्रकृतिसत्ता की ओर दो कदम और बढ़ सकेंगे। यदि हम अपना लक्ष्य निर्धारित कर लेंगे, अपना इष्ट निर्धारित कर लेंगे, तो हमें पतन के मार्ग पर फिर कोई नहीं डाल सकेगा। चूँकि वास्तव में यदि हम आध्यात्मिक लाभ लेना चाहते हैं, वास्तव में यदि हम सत्य का लाभ लेना चाहते हैं और यदि भौतिकता का लाभ लेना है, तो अनेकों एक से एक व्यापारी पड़े हैं, बिजनेसमैन पड़े हैं, एक से एक राजनेता पड़े हैं, एक से एक अधिकारी पड़े हैं, जो आपकी नौकरी लगा सकते हैं, आपको सहयोग दे सकते हैं। तो, आप उन्हीं की शरण गह लीजिये। उन्हीं को अपना गुरु बना लीजिये। मगर, वास्तव में यदि सन्मार्गी बनना है, तो आपको विवेकवान् बनना पड़ेगा, भक्त बनना पड़ेगा। मैं नहीं कहता कि तुम मेरे भक्त बन जाओ। सबसे पहले तुम अपनी आत्मा के भक्त बन जाओ। आत्मा को समझने का प्रयास करो कि यह जो हमारी आत्मा है, प्रकृतिसत्ता का अंश है, इसकी हम नजदीकता किस प्रकार से प्राप्त करें? हर पल उसके लिये अपने अन्दर एक तड़प पैदा करो। एक ललक पैदा करो।

परम पूज्य सद्गुरुदेव जी महाराज के चिन्तन श्रवण करते हुए भक्तगण

भक्त का भाव क्या होता है? भक्त का लक्ष्य केवल कामनाओं की पूर्ति का नहीं होता है। भक्त का तात्पर्य होता है हम जिसकी भी भक्ति कर रहे हैं, इष्ट की कर रहे हैं, गुरु की कर रहे है, आत्मा की कर रहे हैं, तो भक्त का तात्पर्य है कि उसमें समा जाने का भाव, उससे एकाकार हो जाने का भाव। यह नहीं कि मैं अगर गुरु की भक्ति कर रहा हूँ, तो गुरु के समान बन जाऊँ। तुम गुरु से आगे भी जा सकते हो। गुरु के बन जाओ। या तो गुरु को अपना बना लो या गुरु के खुद बन जाओ। या तो आत्मा को अपना बना लो या आत्मा के तुम खुद बन जाओ। और, बनने के लिये वही मार्ग है, जो मैंने बतलाया है कि आपको नशामुक्त जीवन जीना ही पड़ेगा, मांसाहारमुक्त जीवन जीना ही होगा। मैंने जो कुछ चेतनामन्त्र, श्रीदुर्गा चालीसा का पाठ, ये जो क्रम बतलाये हैं, जो नित्य आप उच्चारण करते हैं, आज आप प्रातः कर रहे थे, वे अलौकिक सात्त्विक साधना के छोटे-छोटे जो क्रम बता रहा हूँ, उन्हें कभी छोटा मत समझ लेना। उन छोटे-छोटे क्रमों में वह अलौकिक शक्ति छिपी हुई है कि आप चाहें, तो बहुत कुछ प्राप्त कर सकते हैं। उनसे मेरा चिन्तन जुड़ा रहता है। ‘माँ’ और ‘ऊँ’ का जो उच्चारण दिया हैं, चेतनामन्त्र मैंने दिया है, गुरुमन्त्र दिया है कि उन मन्त्रों से नाना प्रकार की बीमारियों से, नाना प्रकार की अपनी समस्याओं का समाधान आप स्वतः प्राप्त कर सकते हैं। मगर, उनकी शरण तो गहो। गुरु की शरण न गहो, मगर गुरु जो कह रहा है, उसकी शरण गह लो। चूँकि गुरु तो ज्ञान का प्रतीक होता है और ज्ञान उस प्रकृतिसत्ता की देन होता है। गुरु को तो उस प्रकृतिसत्ता की एक किरण मात्र समझो कि वह किरण आपके पास आई है। जिस तरह सूर्य की कोई प्रकाश किरण आपके पास आ रही है और आपको ठण्ड लग रही है, तो उसका उपयोग कर डालो। अगर आपने नहीं किया, तो वह किरण भी किसी न किसी क्षण वहाँ से हट जायेगी। जितना आप उपयोग कर लोगे, उतनी ठण्डक आपके शरीर से हट जायेगी। उसी तरह कोई सद्गुरु यदि आपके जीवन में मिलता है और जो यहाँ से जुड़े हुये हैं, जो आपको ज्ञान बताया जा रहा है, उस पर अमल करो। आप वह सब कुछ हासिल कर सकते हो।
तुम सबसे पहले अपने सत्य को स्वीकार कर लो, तो सत्य आपको सत्य के पास अवश्य ले जायेगा। सत्य की तरंगें तुम्हें अपने पास खींच लेंगी। चूँकि जहाँ सत्य होता है, कुछ कहने की जरूरत नहीं होती। मेरी स्वतः इच्छा थी जब मैंने आश्रम की स्थापना की थी, उस समय माता जी भी इस समाज में थीं। आज वे नहीं हैं, मगर उन्होंने स्थापना के समय एक दो कार्यक्रमों को यहाँ अटैण्ड किया था। मेरे अन्दर विचार चिन्तन था कि भविष्य में यदि मेरे पिताश्री भी इस जीवन के रहते कभी न कभी इस आश्रम में उपस्थित हो जायें, तो शायद मेरे लिये एक और सौभाग्य हो जाय। मगर, यह मैंने बार-बार कहा कि मैं व्याकुल होकर उस तरह दौड़ने वालों में नहीं कि मैं बार-बार जाता और कहता कि आप मेरे यहाँ चलिए। चूँकि मैंने बार-बार कहा है कि आपका गुरु चेतना तरंगों के माध्यम से कार्य करता है। मैंने बहुत पहले एक बार चिन्तन भी दिया था कि कहीं न कहीं एक दिन वह आयेगा, जब सत्य की तरंगें उनको अपने आप यहाँ खींच लेंगी। चूँकि आपके अन्दर आत्मबल होता है। चेतना तरंगों की बात, चेतना तरंगों की भाषा सीखो तो, चेतना तरंगों से किसी को प्रभावित करना सीखो तो, चेतना तरंगों से किसी को आकर्षित करना सीखो तो। चूँकि चेतना तरंगें सत्य की तरंगें होती हैं। एक माता-पिता अपने बच्चे पर स्नेह का हाथ फेरते हैं, तो बच्चे की तकलीफ दूर हो जाती है। बच्चा रो रहा हो और वह माता की गोदी में आता है, माता-पिता के हाथ का स्पर्श मिला, तो वह कौन सा आनन्द उसको मिलने लगता है? चूँकि हर मनुष्य के पास एक आभामण्डल होता है, चेतना तरंगें होती हैं। मगर, वे चेतना तरंगें किसी की बहुत दबी होती हैं, किसी की बहुत विकसित होती हैं। आप करोड़ों-अरबों मील दूर अपनी चेतना तरंगों को भेज सकते हैं। कुछ समय ध्यान में बैठना सीखो। मैंने कहा है कि इन चिन्तनों में मैं विस्तार से भविष्य के चिन्तनों में जाऊँगा और आगे जानकारी भी दूँगा कि भविष्य में मैं ऐसा कोई क्रम भी आप लोगों के बीच उपस्थित करूँगा, जहाँ आप लोगों को कुण्डलिनी जागरण की कुछ प्रारम्भिक क्रियाओं को भी सिखाऊँगा। मगर, उनमें ये सब प्रारम्भिक क्रियायें जुड़ी हुई हैं।
मैंने बार-बार कहा है कि जिस तरह के समाज का निर्माण होता चला जायेगा, उस तरह का मैं आगे का ज्ञान देता चला जाऊँगा। मैंने कहा कि अगर सौभाग्य जगाना चाहें, तो वर्तमान के वे ऋषि, मुनि, साधु, सन्त, संन्यासी आयें, धर्माचार्य, शंकराचार्य आयें और हो सके, तो अपने सौभाग्य को जगाकर उस सत्य का ज्ञान प्राप्त कर लें और आगे बढ़ें। जितने क्रमों को आगे बढ़ाते जायेंगे, यह शरीर कुछ कदम आगे उनका मार्गदर्शन सतत स्वतः करता चला जायेगा और यदि अहंकारी बन करके भी कभी समझना चाहते हैं, तो या तो मेरी चुनौती स्वीकार करें या फिर मुझे चुनौती दें। या तो इस स्थान पर आ जायें, मैं उन्हें व्यवस्था देने को तैयार हूँ या वे मेरे अनुरूप मुझे वहाँ व्यवस्था दे दें। चूँकि मैंने बार-बार कहा है कि मैं किसी साधु, सन्त, संन्यासी के आसन को ग्रहण नहीं करता और न किसी को अपने नजदीक बैठालने की अनुमति देता हूँ। उसके पीछे ऐसा नहीं कि मुझे कोई अहंकार हो अपने आपका। वे अपना बड़ा आसन लगा लें और मेरा नीचे लगा दें। मगर, मैंने बार-बार कहा है कि मैं महसूस कर रहा हूँ कि उनमें बहुत कुछ पतन है। उनसे ज्यादा चेतना, उनसे ज्यादा समर्पण समाज के लोगों में है।
मेरी अपनी एक विचारधारा है। चूँकि मैं जिस पद पर बैठता हूँ, उस पद के मान-सम्मान को कभी झुका नहीं सकता हूँ। मुझे अपने इस शरीर का अहंकार नहीं है। मगर, इस पद पर उस प्रकृतिसत्ता की जो आत्मा है, उस आत्मा के सत्य का ऐहसास समाज को अवश्य कराना है कि न तो इस शरीर को कभी कोई धर्माचार्य, शंकराचार्य कभी झुका सकते हैं, न कोई राजसत्ता इस शरीर को प्रलोभनों में बाँधकर प्रभावित कर सकती है। यह अगर प्रभावित होती है, तो सिर्फ भ्क्ति के वशीभूत होकर। यदि तुम्हारे अन्दर भक्ति और समर्पण होगा, यदि तुम मेरे बताये हुये मार्ग पर चलना चाहोगे, तो चाहे तुम धर्मपथ पर बढ़ना चाहोगे, कुण्डलिनी चेतना के जागरण के पथ पर बढ़ना चाहोगे, अपने गृहस्थ को सुख-शान्ति से निभाना चाहोगे, व्यापार के क्षेत्र में बढ़ना चाहोगे, राजनीति के क्षेत्र में बढ़ना चाहोगे, तो सभी क्षेत्रों में मेरा सहारा होगा, मगर तभी जब तुम मेरे बताये हुये नियमों का पालन करोगे। चूँकि मैंने संकल्प लिया है कि मेरी शक्ति ऊर्जा केवल जनकल्याण को समर्पित होगी। उस जनकल्याण की भावना से जो भी जुड़ा हुआ है, आत्मकल्याण और जनकल्याण की भावना जिसके भी अन्दर उपजने लगेगी, बगैर बताये मैं उसका हो जाता हूँ, बगैर माँगे मैं उसको सब कुछ देने को तत्पर हो जाता हूँ, मगर आप उससे बहुत पीछे खड़े हैं। आप जिस भावपक्ष को ले लेते हैं और सोचते हैं कि शायद हो सकता है, यह हमारा भावपक्ष पूर्ण समर्पण का होगा। मगर, मैं कह रहा हूँ कि वह उसी तरह कि करोड़ों सूर्यों से जुगनू की तुलना! निश्चित ही मैं हर पल आपकी भावनाओं का आदर करता हूँ। मेरे लिये आप सभी ‘माँ’ के भक्त होते हैं, इस आश्रम में अतिथि समान होते हैं। मेरी तड़प होती है कि कुछ कदम आपको और आगे बढ़ा सकूँ, कुछ कदम और उस प्रकृतिसत्ता की ओर आपको खींच सकूँ, कुछ आपके मन को और एकाग्र कर सकूँ, कुछ अपनी चेतना तरंगों को आपकी चेतना तरंगों में समाहित कर सकूँ, कुछ आपके अवगुणों को अपने अन्दर समाहित कर सकूँ। मेरे कार्य उसी दिशा में होते हैं।
मैंने अनेकों मार्ग बताये हैं कि कुछ न कुछ समय नित्य मेरुदण्ड को सीधा करके बैठा करो। उससे आपके अन्दर किसी चीज का ज्ञान होगा न होगा, आपकी चेतना तरंगें ऊपर उठने लगती हैं। दिव्यता प्राप्त करना, सिद्धियों को प्राप्त करना, यह एक लम्बी यात्रा की बात है। मगर, धीरे-धीरे चेतना का संचार होने लगता है। प्राणवायु जाग्रत् होने लगती है और प्राणवायु आपके नाना प्रकार के विषय-विकारों को दूर करती चली जाती है। आपके शरीर की नाना प्रकार की व्याधियों को दूर करती चली जायेगी। एक व्यक्ति छोटी सी समस्या से व्यथित हो जायेगा, पागल हो जायेगा। आप उससे सौ गुना ज्यादा समस्याओं में घिरे होंगे, मगर फिर भी आपका मस्तिष्क थोड़ा-बहुत तो असन्तुलित हो सकता है। मगर, उनकी तुलना में आप बहुत कुछ कम असन्तुलित होंगे। चूँकि सत्य में इतनी शान्ति और स्थिरता रहती है। मैंने इसीलिये कहा था कि आज तो विज्ञान के पास वे परीक्षण यन्त्र हैं। यह शरीर सबसे पहले उनसे गुजरने के लिये तैयार बैठा है कि समाज में किसके मस्तिष्क के सन्तुलन की सीमायें क्या हैं, इसका परीक्षण हो? क्या वे जो आँख मूँदकर बैठे रहते हैं, भजन गाते रहते हैं, लगता है कि बहुत बड़े ध्यानस्थ हो गये? ध्यानस्थ की स्थिति क्या होती है? ध्यान की चरम अवस्थायें क्या होती हैं? सूक्ष्म की शक्तियाँ क्या होती हैं? वे हमारे ऋषि-मुनियों के पास अतीत में थीं। अनेकों ऋषि-मुनि समाज के बीच ही पैदा हुये हैं। वे इन दिव्य शक्तियों के मालिक थे। मगर, आज तो बस वही कि तुम देते जाओ और हम लेते जायें। बस, वही परम्परा कि रट्टू तोते की तरह सुनाते चले जायें। तुम्हारा हित हो या अहित हो, उनसे कोई मतलब नहीं। मगर, हमें कहीं न कहीं इस दिशाधारा को बदलना पड़ेगा। उस सत्य को, ‘माँ’ के रिश्ते को समझना पड़ेगा। समझना पड़ेगा कि जिस तरह उन फिल्मों में हम देखते हैं कि एक कोई फिल्मी ऐक्टर जाता है और उसका कार्य नहीं होता है, तो वह ‘माँ’ के मन्दिर पर घण्टा बजाता है या कभी ज्योति जला दिया कि बस मेरा कार्य करना होगा, नहीं तो दुबारा मैं इस दरवाजे पर नहीं आऊँगा! अरे, इस विचारधारा को आपको त्याग देना चाहिये। उस प्रकृतिसत्ता से आप कितना दूर जा पाओगे, जो हर पल आपके पास बैठी है? उस प्रकृतिसत्ता से दूर कहाँ जाओगे, जो कण-कण में मौजूद है?
उस प्रकृतिसत्ता से इन सामान्य रिश्तों की तुलना करके बातें करने लगते हो। अरे, यह शरीर जो आपका गुरु है, कह रहा है कि इस शरीर को वह प्रकृतिसत्ता कोढ़ियों और अपाहिजों का जीवन दे दे, अंग भंग कर दे, तब भी कभी उस प्रकृतिसत्ता पर कभी अंशमात्र भी समर्पण और भक्तिभाव में कोई परिवर्तन नहीं आयेगा, चूँकि हम तो हर पल उस प्रकृतिसत्ता से जुड़े हैं। प्रकृतिसत्ता ने हमें वह मूल तत्त्व दे रखा है जो अजर-अमर-अविनाशी है, जो न कभी मरता है न कभी जीता है और जिस पर न कभी किसी चीज का प्रभाव पड़ता है। उस तत्त्व की शरण में तो हम जायें। हमें दिव्यता का ऐहसास होने लगेगा, चेतना का ऐहसास होने लगेगा। मगर, आप एक कान से सुनेंगे और दूसरे कान से निकाल देंगे, नित्य अमल नहीं करेंगे। मेरे द्वारा जो शक्तिजल दिया गया है, उसका पान नहीं करेंगे, तो आपके शरीर में चेतना का संचार नहीं होगा। भक्त केवल भौतिक कामनाओं से जुड़ा हुआ नहीं होना चाहिये। भक्त के अन्दर कामना केवल भक्ति, ज्ञान और आत्मशक्ति की होनी चाहिये। चूँकि मैंने बार-बार कहा कि जिसके अन्दर भक्ति आ गई, ज्ञान आ गया, आत्मशक्ति आ गई, तो उसको दुनिया की कोई शक्ति पराजित नहीं कर सकती। कोई भी प्रलोभन उसे बाँध नहीं सकता, चूँकि वह सत्य की शरण में पहुँच चुका होता है और भक्त का मूल लक्ष्य होता है कि वह अपने इष्ट में समा जाये, इष्ट का हो जाये या इष्ट को अपने अन्दर समाहित कर ले। तुलना कहीं होती नहीं। किससे तुलना करें? कहाँ से करें, प्रकृतिसत्ता जब कण-कण में मौजूद है? हम केवल उस प्रकृतिसत्ता के हैं और प्रकृतिसत्ता में मिल जायें, उसमें समाहित हो जायें।
एक ऋषि, मुनि, योगी जो अन्दर जाते हैं, उस आनन्दमय कोश में पहुँचकर उस तृप्ति का आनन्द ही तो लेते हैं, उस नशे का पान ही तो करते रहते हैं, जिस नशे का वर्णन किया गया है कि जिस नशे की तुलना में भौतिक जगत् में दूसरा कोई नशा है ही नहीं, कोई तृप्ति है ही नहीं। उस नशे की एक लहर हमारे शरीर में आती है और लगता है कि दुनिया का सब वैभव हमारे लिये क्षीण है, सब कुछ बेकार है, एक पैर से ठोकर मार देने के बराबर है। समाज के अनेकों लोग चाहें और प्रयास करें, तो उस तत्त्व का ऐहसास कर सकते हैं, उस आनन्द का ऐहसास कर सकते हैं। चूँकि जो कुछ तुम्हारे अन्दर है, उस तक पहुँचना ही तो है और पहुँचने में केवल अपने आपको एकाग्र करो, बताये हुये नियमों का पालन करो। खुद एक साधक बनने का प्रयास करो, भक्त बनने का प्रयास करो। केवल कामनाओं की ही कामना नहीं कि नित्य नई-नई कामनायें चलती रहें। चूँकि हम यदि भक्त बनकर केवल उस प्रकृतिसत्ता के हो जायें, तो फिर प्रकृतिसत्ता की जिम्मेदारी है कि हमें किस चीज की आवश्यकता है? हमें कपड़े की जरूरत है, हमें पहनने की जरूरत है, हमें भोजन की जरूरत है, हमारी बीमारियाँ दूर करने की जरूरत है, हमें व्यापार में बढ़ने की जरूरत है, हमारी नौकरी लगने की जरूरत है या हमें राजनीति क्षेत्र में बढ़ने की जरूरत है। वह स्वतः हमें सहारा देती चली जायेंगी और यदि आप भिखारियों की तरह बहुत कुछ माँगते रहे, बार-बार गिड़गिड़ाते रहे, मगर जिस रास्ते से वह देना चाहती हैं, वह मार्ग ही हमारा अवरुद्ध है, वह सुषुम्ना नाड़ी ही हमारी अवरुद्ध पड़ी है, तो आयेगा कहाँ से? चूँकि प्रकृतिसत्ता जो भी कार्य करेगी, आत्मचेतना के माध्यम से ही कार्य करेगी। क्षणिक लाभ आप प्राप्त कर सकते हैं, मगर स्थायी लाभ नहीं प्राप्त कर सकते।
स्थायी मुक्ति का मार्ग आपको मिलेगा कैसे? यदि इस जीवन में भौतिक सुख-सुविधाओं में ही लिप्त होकर रह गये। मेरा मूल चिन्तन उसी दिशा की ओर है कि उस प्रकृतिसत्ता का वर्णन बहुत कुछ किया गया। हर ऋषि, मुनि, देवी-देवताओं ने स्वीकार किया है कि परमसत्ता देवी शक्ति है, जगदम्बा शक्ति है। जिन्होंने समाज में जन्म लिया, वे उन्हें जगदम्बा कहकर पुकारते रहे। मगर, वह जगदम्बा कौन है? उसका क्या वर्णन करना चाहिये? उसका क्या उल्लेख करना चाहिये? वह वर्णन नहीं हुआ। चूँकि वही कि हमारी क्षणिक कामनाओं की पूर्ति की बात है कि हमने राम का वर्णन बहुत किया, मगर राम के गुरुओं का वर्णन नहीं किया। राम के गुरुओं को समझना नहीं चाहा। उन ऋषियों की हमने शरण नहीं गही। कृष्ण के ज्ञान को हमने पकड़ा नहीं। राम ने जो मर्यादा का पाठ हमको पढ़ाया, उस मर्यादा के पथ पर हम बढ़े नहीं। यदि इसी तरह की गलतियाँ हम वर्तमान में भी करते चले गये, तो हमारा पतन सुनिश्चित है। मगर, यदि हम सत्यपथ पर बढ़ने लगे, अपने कर्तव्य को मात्र समझने लगे, यदि हमने मानवता के कर्तव्य को समझ लिया, मानवता के पथ पर हम बढ़ने लग गये, तो हमारा जीवन निश्चित धन्य हो जायेगा। हमें नवरात्रि के पर्वों का वास्तविक फल प्राप्त हो जायेगा।
देवी आराधना हर काल में रही है। अतीत में झाँककर देखो। जो कबीले के लोग रहते थे, अन्य लोग रहते थे, वहाँ देवी-देवताओं के अब भी शिलालेख मिलते हैं। उन मन्दिरों के अवशेष मिलते हैं। आज भी समाज में 108 शक्तिपीठों का वर्णन मिलता है, अनेकों शक्तिपीठों का वर्णन मिलता है, मगर विस्तार नहीं हो सका है। चूँकि अधिकांश समाज या तो भोले का भक्त बन जाता है या राम, कृष्ण और राधा बनकर नाचने लगता है। इन्हीं में लिप्त होकर रह जाता है, राधे-राधे बस। दिन में राधे-राधे और रात में क्या चलता है, यह समाज जानता है। तो कहीं न कहीं हमें और आपको सोचने की जरूरत है। हमें उस प्रकृतिसत्ता को इष्ट के रूप में स्वीकार करना चाहिये, जिस तरह हम अपने जन्म देने वाले पिता की तुलना में किसी को खड़ा नहीं कर सकते। क्या पड़ोसी को कह देंगे कि यह हमारा पिता है? तो आज इष्ट कैसे बदल देते हो? तुमने अपने इष्ट को कैसे बदलकर रख दिया? तुम इस सत्य को कैसे स्वीकार नहीं कर सके कि हमारी इष्ट केवल वह प्रकृतिसत्ता माता भगवती आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा हें? बाकी देव शक्तियाँ जितनी भी हैं, देवी शक्तियाँ जितनी भी हैं, वे सिर्फ हमारी सहायक हैं, जिस तरह समाज में हमारा कोई पड़ोसी रहता है, कोई चाचा रहता है, कोई भाई रहता है, कोई ताऊ रहता है या अन्य कोई रहता है। जिस तरह हम अपने पिता की जगह किसी दूसरे को खड़ा नहीं कर सकते कि हमारी माता एक होगी, हमारा पिता एक होगा, उसी तरह हमारा सत्य कि वह प्रकृतिसत्ता सिर्फ एक होगी, हमारी आत्मा की जननी एक होगी, अनेक नहीं हो सकती।
अनेकों धर्मों में पहुँचने के रास्ते अनेक हैं, मगर मेरा तो कहना है कि समस्त धर्म शोध करें। मैं मात्र हिन्दू धर्म की बात नहीं कर रहा, आप शोध करेंगे, तो उसी सत्य की ओर बढ़ेंगे कि इस आत्मा की मूल जननी कहीं बैठी है। चूँकि जो यह हमारा सनातन धर्म चला आ रहा है, वह आज का नहीं है। इसमें उलझने की जरूरत नहीं है। मैंने बार-बार कहा है कि सभी धर्मौं में बहुत कुछ सत्यता है। सभी धर्म, यदि अपने धर्म की सत्यता को लेकर आगे बढ़ें, तो कहीं न कहीं उस प्रकृतिसत्ता के चरणों तक पहुँचेंगे। मगर, हम अपनी परम्पराओं के नाम पर, आडम्बरों के नाम पर, सम्प्रदायों के नाम पर कहीं न कहीं उस मूलसत्ता से दूर होते चले जा रहे हैं। अपनी आत्मा से दूर होते चले जा रहे हैं। हमारे अन्दर सब कुछ है, मगर फिर भी हम व्याकुल रहते हैं। आपके अन्दर शान्ति और स्थिरता क्यों नहीं आती? आप क्यों भयभीत हो जाते हैं? भयपूर्ण जीवन क्यों जीते हैं? आपका गुरु तो हर पल निर्भीकता का जीवन जीता है। दुनिया का कोई ऐसा व्यक्ति नहीं है, जिसके सामने आपका गुरु भय खा जाय। सम्मान से जीवन जीने की कला सीखो और वह कला सिखायेगी आपकी आत्मा। जब आप अपनी आत्मा को चैतन्य बनाने का प्रयत्न करोगे, गुरु के निर्देशनों पर चलोगे, ज्ञान के निर्देशनों पर चलोगे, ज्ञानपक्ष को समझोगे, भक्त बनने का प्रयास करोगे, तभी मिलेगी आत्मशक्ति। चूँकि भक्ति के वशीभूत ही शक्ति होती है, इस बात को सदैव ध्यान रखना और अन्य कोई मार्ग नहीं है।
क्षणिक लाभ आप पा जायें, क्षणिक प्रलोभनों में आप उलझकर रह जायें, किन्तु जब तक आपको शक्ति प्राप्त नहीं होगी, तब तक आपको शान्ति प्राप्त नहीं हो सकेगी। चूँकि यह कह देने को तो बहुत होंगे कि जिसको अंगूर नहीं मिले, तो अंगूर खट्टे हैं। मगर, अंगूर फैले पड़े हों आपके सामने, फिर भी आपकी खाने की इच्छा न हो, तो वास्तविक तृप्ति वह होती है। चूँकि आपको विश्वास यह है कि मैं जब चाहूँ, तब खा सकता हूँ। वह अवस्था तभी की है कि जब आपके अन्दर शक्ति आ जाये। वास्तविक शान्ति तभी आपको मिल सकेगी। तभी आप समझ सकेंगे सत्यम्-शिवम्-सुन्दरम् का सच्चा अर्थ। तभी पहिचान सकेंगे आप सच्चिदानन्द को कि आनन्द का असली तत्त्व कहाँ छिपा बैठा है? तत्त्व का प्रवाह कहाँ से है? वह प्रकृतिसत्ता कौन है और उस प्रकृतिसत्ता का एक गुरु कौन है? वह दिव्य लोक कौन है? और आज नवरात्रि के पावन पर्व पर यहाँ वही सौभाग्यशाली लोग ही उपस्थित हो पाये हैं। एक और लाभ का आशीर्वाद देता हूँ कि जो समाज उस पर अमल कर सकेगा, चूँकि मैंने बार-बार कहा कि जिन क्षणों में मेरे अन्दर कोई चिन्तन आ जाता है, उस पर मैं विराम कभी लगाता नहीं। आज से मैं संकल्प लेता हूँ कि मेरी साधना का मुझे चाहे जो अंश समर्पित करना पड़े, चूँकि मैंने बार-बार कहा है कि चिन्तन देने के लिये मैं विशेष तौर से आप लोगों को नहीं बुलाता। उस एक दिव्य आरती में सम्मिलित होने के लिये बुलाता हूँ कि मैंने बार-बार कहा कि आप करोड़ों मील दूर बैठे रहें, मेरी शान्ति की तरंगें आपको प्रभावित करती रहेंगी। मैंने अनेकों जगह पूर्व में चिन्तन दिये हैं और आप लोग ऐहसास करते हैं कि मैं जब जहाँ चाहता हूँ, जिसको चाहता हूँ, खींच लेता हूँ और जिसको चाहता हूँ, दूर कर सकता हूँ। जिस क्षेत्र में चाहूँ, चिन्तन डाल सकता हूँ। जिसे चाहूँ, पतन के मार्ग पर भेज सकता हूँ और जिसे चाहूँ, दिव्यता की ओर भेज सकता हूँ। उसी एक लक्ष्य को लेकर कि ये जो दिव्य आरतियाँ होती हैं, जिन आरतियों में मैं स्वतः साकार स्वरूप में उपस्थित रहता हूँं, वे चाहे यहाँ शिविर में हो रही हों, आश्रम में या आश्रम के बाहर हों, जो भी शिष्य या भक्त या जिसके अन्दर शिष्यत्व या भक्तिभाव भी नहीं होगा, यदि मेरी 108 दिव्य आरतियों का लाभ प्राप्त कर लेगा, तो उसे मैं सिद्धाश्रम की प्राप्ति अवश्य करा दूँगा।
उस दिव्य लोक की मैं बात कर रहा हूँ, जिसे दिव्यधाम या परमधाम कहा जाता है, जिसे मुक्ति का धाम कहा जाता है कि अज्ञानी से अज्ञानी व्यक्ति भी, अपराधी से अपराधी व्यक्ति भी, यदि केवल उन 108 दिव्य आरतियों को प्राप्त कर लेगा, तो वह उस दिव्यधाम को पाने का आधिकारी होगा। इस यात्रा में अनेकों लोग सोचेंगे कि हम तो वृद्धावस्था में हैं और गुरु जी ने तो ऐसा आशीर्वाद चिन्तन दिया कि हम लोग तो आशीर्वाद से वंचित हुये जा रहे हैं। तो, उन्हें भी एक आशीर्वाद प्रदान करता हूँ कि जो भक्त कम से कम इस जीवन में 11 दिव्य आरतियों को प्राप्त कर लेंगे, वे पुनर्जन्म में चाहे जहाँ जन्म लें, इन आरतियों के क्रम से जुड़ जायेंगे और वह शंृखला उनके साथ जुड़ जायेगी। इस संकल्प की पूर्ति के लिये आप लोगों को केवल उस पथ पर बढ़ना है और उसके लिये चाहे मुझे कोई आशीर्वाद देना पड़े, ‘माँ’ के चरणों में कोई भी साधना तपस्या और करना पड़े, या अपनी साधना का कोई भी अंश समर्पित करना पड़े। चूँकि यह मेरा संकल्प है कि मुझे यदि हजारों करोड़ों जन्म कोढ़ियों का व्यतीत करना पड़े, फिर भी इस तड़पती-कराहती मानवता का केवल उद्धार हो जाये, इसे सन्मार्ग मिल जाये, तो मैं हजारों जन्म कोढ़ियों का जीवन जीने के लिये तैयार बैठा हूँ। अपनी साधना का कोई भी अंश समर्पित करने के लिये तैयार बैठा हूँ।
आप इस नवरात्रि पर्व पर यहाँ उपस्थित हुये हैं। हर पल आपके अन्दर व्याकुलता रहती है कि बस गुरुदेव जी से हमको मिलने को मिल जाये। चूँकि आपका गुरु हर पल आपके लिये, आपके कल्याण के लिये साधनारत रहता है, चिन्तनरत रहता है, चाहे वह कहीं पर बैठा हो, किसी जगह पर बैठा हो। चूँकि जिस तरह से आपका हित हो, उस तरह के कार्यों में मैं लगा रहता हूँ। बहुत ज्यादा मैं आपसे वार्ता ही करता रहूँगा, बहुत ज्यादा आपसे बातें ही करता रहूँगा, तो उससे आपका हित नहीं होगा। आपको जो भी प्रार्थना करना हुआ करे, उसे मूलध्वज मन्दिर में कर लिया करें। अपने अन्तर्मन में कर लिया करें। उसी से मेरे चिन्तन और विचार जुड़े रहेंगे और जिस लाभ की कामनाओं को लेकर आप लोग आये हुये हैं, यहाँ के नियमों का आप पालन करेंगे, तो आपको लाभ प्राप्त होगा। आप एक साधक बनने का प्रयास करें, भक्त बनने का प्रयास करें। इस तपस्थली को मैं हर पल चैतन्य बनाने का प्रयास कर रहा हूँ कि मैंने महानगरों से हटकर इस शान्त एकान्त स्थान का चयन किया है, जिसे अँधियारी कहा जाता था। आज जिस स्थान को मैं चैतन्य बना रहा हूँ, उस चैतन्यता को आप तभी ऐहसास कर सकेंगे, जब आप बाह्य स्थूल की व्याकुलता को छोड़कर यहाँ के दिव्य वातावरण को पकड़ने का प्रयास करेंगे। प्रातः जो आपको क्रम दिये जायें, उनका पालन करें। श्री दुर्गा चालीसा के पाठ का लाभ लें। कहीं बैठे हों, ध्यान में कुछ न कुछ समय बैठने का प्रयास करें।
आप जो वार्तालाप करते हैं, जितनी नितान्त आवश्यकता हो, उतनी ही वार्तालाप करें। जो शेष समय है, उसमें अधिक से अधिक शान्त रहने का प्रयास करें। उस तृप्ति का अधिक से अधिक आप तीनों दिन लाभ लें। इन क्षणों का भरपूर उपयोग करने का प्रयास करें और उस जगदम्बा के सत्य को समझने का प्रयास करें कि आपकी इष्ट दो या अनेकों नहीं हो सकती। आप सभी की इष्ट केवल एक ही होंगी और मैं कह रहा हूँ वो जगदम्बा भगवती हैं। अगर इनसे अलग कोई है, तो आप उन्हें ढ़ूँढ़ें खोजें और आकर आप मुझे भी बताने का प्रयास करना। चूँकि मैंने बार-बार कहा कि जिस तरह पिता एक हो सकता है, उसी तरह इष्ट केवल एक ही होंगी। उस एक इष्ट को खोजने का प्रयास करना। मगर, यदि उसी तरह रूढ़िवादी विचारधारा में आ गये कि कोई एक बरगद के नीचे पत्थर रख दे और कह दे कि बरगदहाई देवी बन गयीं! इस तरह उन अनेकों देवियों के क्षेत्र हैं। मैं ‘माँ’ का स्वतः एक अराधक हूँ, ‘माँ’ का एक शिशु हूँ। मगर, समाज में नाना प्रकार की भ्रान्तियाँ हैं और भ्रान्तियों में ही समाज उलझकर रह गया है। कहीं किन्हीं देवी-देवताओं के नाम पर बलि दी जाती है, तो कहीं देवी के नाम पर शराब चढ़ाई जाती है। मैंने कहा है कि इससे बड़ा अनीति-अन्याय-अधर्म ‘माँ’ के नाम पर और कुछ नहीं होगा। चाहे महासरस्वती हों, चाहे महालक्ष्मी हों या चाहे महाकाली हों, वे कभी किसी की बलि स्वीकार नहीं करतीं। चूँकि मैंने बार-बार कहा कि मांसाहारियों ने, उन पुजारियों ने जो मांसाहार करते थे, उन्होंने काली को मांस का भक्षण करने वाली बता दिया। अरे, जो माँ काली दिव्यता का प्रतीक हैं। चूँकि वर्णन करने की जहाँ कमी रही कि भगवान् श्रीकृष्ण का दिग्दर्शन दिखा दिया कि भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने मुँह को फैलाया और पूरा जगत् उनके अन्दर समा गया। अरे, उसी तरह अगर काली ने अपने मुँह का विस्तार किया और पूरा जगत् उनके अन्दर समा गया, तो क्या काली ने समाज का भक्षण किया? मगर, समाज में एक चिन्तन दे दिया गया कि प्रकृतिसत्ता माँ काली बस केवल शत्रुओं का मांस भक्षण करने वाली हैं। अरे, जो सर्वोच्च सत्ता है, तो वह एक पल में कहीं भी अपने शरीर में सर्वस्व समाहित कर सकती हें। एक पल में कहीं भी उसका सर्वानाश कर सकती हैं, अन्त कर सकती हैं।
वह मांस भक्षण करने वाली देवियाँ कोई नहीं हैं। हमारी मूल सत्ता न कोई शराब पीने वाली है, न कोई मांस खाने वाली है। ये जितने अन्यायी-अधर्मी धर्माचार्य, शंकराचार्य, पुजारी और पण्डित रहे, वे जो मांसाहारी थे, मांस खाते रहे, उन्होंने मांस का भोग लगाना शुरू कर दिया और हमारे देवी-देवताओं के नाम पर एक आपराधिक प्रवृत्ति का कार्य चलने लगा, जिसे कहीं न कहीं रोका जाना चाहिये। इस तरह आप लोगों को उस सत्य को समझने की जरूरत है। ऐसा नहीं कि किसी काल विशेष में, अपितु हर काल में दैवीशक्ति को सबसे अधिक महत्त्व दिया गया है। नवरात्रि पर्व में भी आप देखें कि साल में दो नवरात्रि के पर्व नौ-नौ दिन के होते हैं। अन्य देवी-देवताओं के जो भी पर्व होंगे, वे एक दिन, दो दिन या तीन दिन के ही होंगे। मगर, नवरात्रि के पर्व, जो हमें मिलते हैं, वे इसीलिये मिलते हैं कि हर छः-छः महीने पर जो हमें वातावरण मिलता है, उसमें हम उस प्रकृतिसत्ता की ओर बढ़ सकें। यह एक विस्तार का विषय है। चूँकि मैंने बार-बार कहा कि ऐसे कुछ रहस्य हैं, जिनका वर्णन मैं केवल उस माँ रूपी ग्रन्थ पर ही करना चाहूँगा और तब करना चाहूँगा, जब उस यज्ञस्थल का निर्माण हो जायेगा और उस प्रकृतिसत्ता की स्थापना करके मेरे शेष 100 यज्ञ पूर्ण हो जायेंगे। चूँकि मैं जानता हूँ कि तभी उसके बाद समाज उस सत्य को समझ सकेगा। चूँकि अगर मैं सत्य वर्णन कर दूँगा, तो काटने वाले बहुत से अन्यायी-अधर्मी बैठे हुये हैं। आज उनके पास मीडिया तन्त्र है और वे कुछ भी कह देंगे कि ऐसा नहीं, ऐसा है। वे अनेकों वेदों-पुराणों के उल्लेख ला-लाकर रख देंगे और कह देंगे कि नहीं, ऐसा नहीं, ऐसा है। मगर, मैंने बार-बार कहा है कि मैं नमक-रोटी खाकर शान्ति से रहना ज्यादा पसन्द करता हूँ। मगर, उन 108 महाशक्तियज्ञों के माध्यम से मैं समाज में इतनी ऊर्जा फैला चुका हूँगा, इतनी चेतना तरंगों को डाल चुका हूँगा कि जब जिस सत्य को कहूँगा, उस सत्य को स्वीकार करने की क्षमता आपके अन्दर आ जायेगी।
मैं केवल भावपक्ष जाग्रत् करके आप लोगों को नहीं कहना चाहता कि मैं जो कह रहा हूँ, वह सत्य है और उसे आपको मानना ही होगा। मैं उन गुरुओं में नहीं हूँ। मैं अपने शिष्यों को हर पल स्वतन्त्र रखता हूँ कि तुम खुले मन-मस्तिष्क से विचार करो। तुम अगर मेरे शिष्य बने रहना चाहते हो, तो तुम मेरे शिष्य बने रह सकते हो। यदि तुम्हें लगता है कि कोई दूसरा धर्मगुरु इस चेतना से बढ़कर ज्यादा ज्ञान दे सकता है, तो हर पल तुम स्वतंत्र हो। उसी तरह मैं किसी धर्म को दबाव से थोपता नहीं हूँ। इस काल में भी मैं जहाँ भक्ति की बात, समर्पण की बात कर रहा हूँ, शिष्यों के कल्याण लिये रात 11 बजे के पहले कभी मैंने नींद में जाने का प्रयास नहीं किया। वैसे तो मैंने बार-बार कहा कि नींद मेरी दो घण्टे से अधिक कभी हो ही नहीं पाती। मैंने नींद कभी दो घण्टे से अधिक ली ही नहीं। प्रातः मैं स्वतः ढाई बजे जग जाता हूँ, मगर भक्तों को जो मैं सूर्योदय से पहले जगने की बात कहता हूँ, तो उस पर कहीं न कहीं आपको दो कदम चलना होगा। पहले शिष्य गुरुओं से पहले जगते थे, मगर मैं जानता हूँ कि आपके अन्दर की जो शारीरिक क्षमतायें हैं, वे क्षमतायें अगर चाहोगे, तो मेरे बराबर नहीं चल पाओगे। मगर, कहीं न कहीं मैं धीरे-धीरे वे क्षमतायें आपके अन्दर भरता चला जाऊँगा कि तुम मुझसे आगे भी चलने के अधिकारी बन जाओगे। मुझसे भी ज्यादा चलने की क्षमता तुम्हारे अन्दर जाग्रत् हो जायेगी।
मैं एक समय भोजन करता हूँ, वह भी स्वल्पाहार लेता हूँ। मगर, तुम्हें कह दूँ कि स्वल्पाहार लो, तो तुम्हारे इस शरीर की क्षमतायें गिर जायेंगी, तत्काल घट जायेंगी। तो, इन नवरात्रि के व्रतों में तुमको चाहिये कि अधिक से अधिक व्रत रहना सीखो, चूँकि उपवास का तात्पर्य है नजदीक वास करना। उपवास हम इसलिये नहीं रहते कि अगर हम उपवास रखेंगे, तो कोई देवी-देवता बाहर से हमारे ऊपर खुश हो जायेगा। मैंने कहा है कि आत्मा की शरण प्राप्त करने के लिये उपवास रखा जाता है। उस प्रकृतिसत्ता के अंश के नजदीक जाने के लिये उपवास रखा गया है। किन्हीं देवी-देवताओं के नजदीक जाने के लिये उपवास नहीं रखा गया है। उपवास का सच्चा अर्थ समझने का प्रयास करना। मैंने बार-बार कहा है कि प्रकृतिसत्ता का तो हर पल चिन्तन जुड़ा हुआ है। आप कोई व्रत रहते हैं, तो ज्यादा से ज्यादा चिन्तन चल जाता है कि पहले इष्ट के नजदीक जाओ, फिर चाहे जिस क्षेत्र की कामना करो। किसी देवी-देवता की आप उपासना करते हैं। उपासना का तात्पर्य है पहले अपने इष्ट के नजदीक जाओ, फिर इष्ट से तुमको जिस क्षेत्र का लाभ मिल सकता हो, उधर की ऊर्जा प्राप्त कर लो। उपवास का तात्पर्य है नजदीक वास करना और किसके नजदीक वास करना? हम अगर व्रत रहते हैं, सबसे अधिक किसके नजदीक रहते हैं? हमारी आत्मा के। हम जब भोजन नहीं करते, तो हमारी आत्मा की जो प्राणवायु रहती है, वह धीरे-धीरे करके जाग्रत् होने लगती है। प्राणवायु धीरे-धीरे करके कार्य करने लगती है और हम आत्मा के नजदीक पहुँचने लगते हैं।
व्रत के पीछे दूसरा वही चिन्तन रहता है कि हमारा स्वास्थ्य भी ठीक रहे, पाचन क्रिया भी ठीक रहे। मगर, पाचन क्रिया का मतलब यह नहीं रहता कि हमारी पाचन क्रिया ठीक रहे। तो, इसलिये हम महीने में एक-दो व्रत रहते हैं। पाचन क्रिया किसलिये ठीक रहे? जब स्वास्थ्य ठीक रहेगा, पाचन क्रिया ठीक रहेगी, तभी हमारा नाभिचक्र सही कार्य करेगा। मूलाधार से उठने वाली हमारी ऊर्जा, हमारी सुषुम्ना नाड़ी सही कार्य करेगी। हम व्रत और उपवास इसलिये रहते हैं। तो, उपवास के मूल अर्थ को समझा करो। कम से कम नवरात्रि में उपवास रहना सीखो और मैंने व्रत का सरल मार्ग बताया है। किन्हीं आडम्बरों में पड़ने की जरूरत नहीं है। उस ज्ञान को गहराई से पकड़ा करो और यदि सत्य समझो, तो स्वीकार किया करो कि उपवास तुमको केवल दिन में रहना है। व्रत रहना है और थोड़ा बहुत फलाहार, जिससे तुम्हारा काम चल जाय, उतना थोड़ा से थोड़ा लेने का प्रयास किया करो और सायंकाल सूर्यास्त के बाद जो भी शुद्ध भोजन आपके घर में दाल, चावल, नमक, रोटी आदि बना हुआ हो, उसको कर लो। आपका व्रत पूर्ण होगा। चूँकि सभी कुछ तो फल हैं। केवल मांसाहार या उस तरह के भोजन को मत स्वीकार करो। शराब मत पियो। नशा मत करो। मांस का भोजन मत करो। केवल उस तरह के भोजन का त्याग करके शुद्ध सात्त्विक जो भी भोजन है, चूँकि वही हमारा वास्तविक भोजन है। तो शुद्ध सात्त्विक भोजन वे सब फल ही हैं। गेहूँ का दाना भी फल है। चने का दाना भी फल है। चावल भी फल है। सब्जी भी फल है। उसी तरह अनार, केला भी फल हें। मगर, दिन में आप लोगों के विचार भावनायें भी उस दिशा में हैं, तो दिन में थोड़ा-थोड़ा फल आदि जो कुछ आप लेना चाहें, दूध लेना चाहें, फल लेना चाहें, ले लें और सायंकाल एक बार तृप्ति का भोजन करें। तृप्ति का भोजन यह नहीं कि भरपेट भोजन पूरा शरीर में समा लें। तृप्ति कहते किसको हैं? तृप्ति वह है, जिससे हमको अन्दर से आनन्द मिले।
भोजन को सदैव कहा गया है कि आधा पेट भोजन करना चाहिये। आप कहेंगे कि गुरुजी, आधा पेट! चूँकि वास्तविकता यही है कि उतना ही लेने के लिये हमारे शरीर में स्थान बना हुआ है। चूँकि आधा इसलिये कह दिया जाता है कि किसी को समझाने के लिये दूसरा कोई मार्ग ही नहीं है। जिस तरह मैंने बार-बार कहा कि मुझे ‘मैं’ शब्द कहने के लिये लोग कई बार कह देते हैं कि गुरु जी तो अहंकारी हो गये। मैंने बार-बार कहा है कि मैंने एक किसान परिवार में जन्म लिया है। समाज के धर्माचार्यों, शंकराचार्यौं से मेरा शरीर कमजोर है, मेरे शिष्यों का भी। चूँकि मैंने कई बार कहा है कि मेरे शिष्य धन से गरीब हो सकते हैं, तन से निर्बल हो सकते हैं, मगर मन से बलवान् होंगे, मन से चेतनावान् होंगे। उसी तरह चूँकि वह बात कहने के लिये आधा पेट ही कहना पड़ेगा। चूँकि भोजन उतना करना चाहिये कि जितने भोजन में आपको चौथाई जल ग्रहण करने की जगह बनी रहे और चौथाई वायु के लिये जगह बनी रहे। तभी आपकी पाचन क्रिया व्यवस्थित गति से चलेगी। आपको तृप्ति का ऐहसास होगा, आपको आनन्द का ऐहसास होगा। दिनभर जो आप व्रत रहे हैं, उसकी मिठास का आनन्द आपके ऊपर आयेगा। आपकी कार्यक्षमता बढ़ेगी। चूँकि छोटे-छोटे जो रहस्य हैं, उन पर आप अमल नहीं करेंगे, तो आप कुछ नहीं प्राप्त कर सकते। वही होता है कि पहले आप भरपेट भोजन प्राप्त कर लेंगे, फिर उसके बाद मिठाई मिल जाये! भोजन के बाद मिठाई खाने की आपकी आदत है। खीर मिल जाये और फिर शाम को एक-दो गिलास दूध भी मिल जाये। हो सकता है, यहां व्यवस्था नहीं रहती है, फिर भी आप स्टाल में जाकर पी लेते हैं, जिसको पीना होता है। स्टाल में जाकर मिठाइयाँ भी खा लेते हैं। मुझे तो मजबूरी में यहाँ स्टाल की व्यवस्था करना पड़ता है, चूँकि मैं जानता हूँ कि आप लोग चाय के आदी हो। नवरात्रि में व्रत रहता है, सायंकाल जो भी भोजन रहता है तृप्ति का, उसकी व्यवस्था की जाती है। फिर भी मैंने स्टाल की व्यवस्था करा दी है कि आपको किसी तरह शान्ति मिले। मैं जानता हूँ कि आपके अन्दर असन्तुलन पैदा हो जायेगा। चूँकि आप आदी हैं उस चीज के। तो उसको धीरे-धीरे कम करो। मीठा-मिर्च-मसाला सीमित दायरे में लो। मैं नहीं कहता कि पूरी तरह से बन्द कर दो। भोजन कभी ऐसा न करो कि भरपेट एक के ऊपर एक खाते चले गये कि जब तक पूरी तरह से तृप्ति नहीं मिल गई। पूरी तरह से पेट हमारा भर न जाये और दो चार डकारें न आ जायें कि पानी पीने की जगह नहीं है, तो चलो आधे घण्टे बाद पानी पी लेंगे। वह आपके लिये हानिकारक होगा। एक साधक का जीवन जियो, तृप्ति का जीवन जियो।
आपका गुरु उसी मार्ग का जीवन जीता है। उसी तरह का जीवन जीता है। उससे ज्यादा कार्यक्षमता लेकर चलता है। नवरात्रि में दस-पन्द्रह दिन पहले जब से आप आने लगते हैं, तो मुझे एकान्त में पहुँचना ज्यादा उचित नजर आने लगता है। चूँकि शान्ति का वातावरण मिलने लगता है, तो मुझे तृप्ति मिलने लगती है। मगर, जिस तरह मैं स्वतः नहीं तो यहाँ के लोगों को मालूम है, मजदूरों को मालूम है कि मैं स्वतः आठ-आठ, नौ-नौ घण्टे मजदूरों के साथ खड़े होकर काम कराता हूँ। मैं उन धर्मगुरुओं में नहीं हूँ जो केवल एयरकण्डीशंड कमरों में रहना सीखें और बस आप लोगों को ज्ञान देना सीखें और तृप्ति का भोजन अन्दर करते हैं और बाहर अगर उनको एक घण्टा फावड़ा चलाना पड़े, एक घण्टा मजदूरों के पास खड़े होने की बात कह दी जाये तो, उनकी नानी याद आ जायेगी। हो सकता है बाद में आप मुझे देखते हों कि गुरु जी तो बस पाँच मिनट के लिये आये, काम देखे और चले गये। अगर मैं पाँच मिनट के लिये आता हूँ, काम देखता हूँ और चला जाता हूँ, तो चूँकि उस तरह का वातावरण आप लोग चारों तरफ बनाने लगते हैं। यहाँ की जो मेरे आश्रम की मर्यादायें हैं, यदि उनका पालन करने लगेंगे, तो अधिक से अधिक समय आप लोग मुझे अपने पास पायेंगे। चूँकि मैंने बार-बार कहा है कि इस स्थान को मैं अपने कर्मबल के माध्यम से निर्मित करना चाहता हूँ। धर्मबल और कर्मबल के माध्यम से। अधिक से अधिक यहाँ के कण-कण को चैतन्य करने का प्रयास करता हूँ। किसी जगह मैं खड़े होकर कार्य देखता रहता हूँ, तो उसका तात्पर्य केवल यही नहीं रहता है कि उस जगह मैं केवल कार्य देख रहा हूँ। चूँकि मैंने कहा कि यहाँ के कण-कण को मैं अपने चिन्तन में बसा लेना चाहता हूँ और यहाँ कण-कण को चैतन्य कर देना चाहता हूँ कि समाज यहाँ आये, तो मुझसे मिले या न मिले, मगर इस धरती के एक कण से यदि उसने सम्पर्क प्राप्त कर लिया, तो उसको यहाँ की ऊर्जा का लाभ मिलने लगे।
वह कार्यक्षमता आपके अन्दर आ सकती है। मैं मजदूरों के पास जहाँ भी खड़ा हो जाता हूँ यहाँ अगल-बगल के गाँव के सैकड़ों मजदूर आते हैं, जो बराबर काम करते रहते हैं। तृप्ति से काम करते हैं और सुबह-शाम प्रणाम करते हैं श्रद्धा के साथ और उसी तरह आशीर्वाद पाते हैं। वे देखते हैं कि मैं जिस स्थान पर जब खड़ा हो गया, तो जब तक मुझे खड़े होना है, कार्य करना है, तो भले शिष्य कुर्सी लाकर रख दें, मगर मैं स्वतः सात-सात, आठ-आठ घण्टे खड़े होकर कार्य देखता रहता हूँ। चूँकि उसी से इस स्थान की चैतन्यता टिकी है। आपको कर्मयोगी बनने की जरूरत है। उस तरह आप लोग भी जब अपने अन्दर तृप्ति का मार्ग पा जायेंगे, उस प्रकृतिसत्ता को स्वीकार करेंगे, उस मूलसत्ता के रहस्य को समझने का प्रयास करेंगे, अपनी आत्मा की शरण में जायेंगे और अपनी जननी को पहिचान जायेंगे। उस परमसत्ता को पहिचान लेंगे, जो अजन्मा और अविनाशी है, जो योगबल से सब कार्य करती है, जिसे योगमाया कहा गया है। अनेकों कथावाचक बीच-बीच में योगमाया-योगमाया शब्द कहते होंगे। कभी किसी के नाम पर तो कभी किसी के नाम पर योगमाया लगा देते होंगे। मगर, उस योगमाया का विस्तार कभी बता नहीं सके। मैं 108 यज्ञों के माध्यम से तुम्हें उस दिशा में ले जा रहा हूँ। इन शक्ति चेतना जनजागरण शिविरों के माध्यम से धीरे-धीरे उसी दिशा में ले जा रहा हूँ। श्री दुर्गा चालीसा का जो अखण्ड पाठ यहाँ अनवरत चल रहा है, उसके माध्यम से उसी दिशा में ले जा रहा हूँ। इस धर्मधुरी में दशवाँ वर्ष चल रहा है, श्री दुर्गा चालीसा का अखण्ड पाठ चल रहा है। इस धरातल का पहला यह केन्द्र है, जहाँ अखण्ड श्री दुर्गा चालीसा का पाठ चल रहा है। यह समाज हित के लिये संकल्पित है। मेरी एकान्त की साधना हर पल संकल्पित है।
इन क्षणों का लाभ लेने का प्रयास किया करें। केवल यही नहीं कि आये, गये, मनोरंजन किये, लेटे रहे और गुरु जी बाहर कहीं दिखाई दे गये, तो काम में लग गये, झाड़ू लगाने लग गये और गुरु जी अन्दर गये, तो बस फिर वापस जाकर अपनी जगह पर लेट गये। मैं शिष्यों से बहुत कम सेवायें लेने का प्रयास करता हूँ, चूँकि मैं कभी अपने पैर दबवाता नहीं हूँ, अपने कपड़े धुलवाता नहीं। मगर, जो कम से कम अगर आप लोगों से बने, तो यहाँ श्री दुर्गा चालीसा का पाठ किया करें। चूँकि मैं मजदूरों से बहुत कुछ कार्य करवा लेता हूँ। मगर, यदि किसी कार्य में लगा करें, तो हर पल मेरी हर जगह मौजूदगी है। उस प्रकृतिसत्ता की हर पल मौजूदगी है। काम करो, तो दिखावे के लिये नहीं। उस तरह दिखावे के लिये नहीं कि हाँ, सफाई अभियान आया, तो राष्ट्रपति, मुख्यमन्त्री और जितने मन्त्री हैं, सब खड़े होकर एक झाड़ू लेकर कैमरे वाले को कहें कि हाँ, अब हम झाड़ू लिये हैं, हमारी फोटो खींच लो। सफाई अभियान पूर्ण हो गया। तो, जो वे परोस रहे हैं, वही दूसरा सीख रहा है। उसी तरह वे जो नगरपालिका के कर्मचारी हैं, वे भी वही करते हैं कि वहाँ से झाडू उठाये और अपने घर में पड़कर सो गये। फिर कहते हैं हमारी नालियाँ गन्दी पड़ी हैं। सफाई कर्मचारी सफाई नहीं कर रहे हैं। अरे, वे राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री और मन्त्री जो कर रहे हैं, तो वही वे भी कर रहे हैं। वे गलती कहाँ कर रहे हैं? वे झाडू लेकर फोटो खिंचवा लेते हैं और पौधा लगवाने में एक-दो पौधा पकड़ लिये, पानी दूसरा डाल दिया और पौधारोपण हो गया। तो, उसी तरह दूसरे भी कर रहे हैं। क्षमता हो, तो उन राष्ट्रपतियों, प्रधानमन्त्रियों को आगे आना चाहिये। कम से कम एक दिन वर्ष में ऐसा निकालना चाहिये, जिस दिन वे पूरा नहीं तो कम से कम आठ घण्टे, आठ घण्टे श्रम के लिये माना गया है, तो आठ घण्टे नालियों की सफाई करें, सड़कों की सफाई करें। आठ घण्टे तो लग जायें कि हम मजदूरों के समान कार्य करेंगे। भले थकावट आ जाये, तो वहीं रोड में बैठ जायेंगे। जिस दिन यह नियम लागू हो जायेगा, उस दिन समाज में कहीं गन्दगी नहीं रह जायेगी। अगर केवल दिखावा चलता रहा, तो मैंने कहा यह अमरबेल के समान है। जैसा ऊपर से होगा, वैसा नीचे तक जायेगा। भ्रष्टाचार जब तक ऊपर से समाप्त नहीं होगा, तब तक नीचे से समाप्त नहीं हो सकता। तो, अनेकों ये बिन्दु हैं, जिनमें आप लोगों को विचार करने की आवश्यकता है कि उन मार्गौं का अनुसरण न करें।
अनुसरण करना है, तो अपने गुरु के कर्मौं को देखें। गुरु के कार्यों को देखें। आपका गुरु कर्मयोगी का जीवन जीता है। हर पल चेतना का जीवन जीता है। 18 घण्टे श्रम करता है या साधनारत रहता है। आपसे तो मैं कह रहा हूँ कि अट्ठारह घण्टे नहीं, तो कम से कम 12 घण्टे तो ऐसे निकालो, जिन्हें साधनामय बनाओ, कर्ममय बनाओ या जिस क्षेत्र में काम करो, ऑफिस में काम करो, तो चैतन्यता से कार्य करो। घर में आओ, तो चैतन्यता से घर के काम को देखो। बच्चों के साथ चैतन्यता का समय दो। नशामुक्त जीवन जियो। अपनी जो समस्यायें हैं, उन समस्याओं पर ही चर्चा मत करते रहो। उन समस्याओं का निदान कैसे होगा? वह कार्यक्षमता अपने अन्दर जाग्रत् करो और ‘माँ’ की आराधना, चिन्तनों की ओर बढ़ो। तभी आपका हित होगा। हित केवल दिखावे मात्र से नहीं होगा। कहानियाँ और किस्से सुनने मात्र से नहीं होगा। अनेकों मेरे ऐसे शिष्य हैं, जैसे अगर मैं सरपंच इन्द्रपाल को यहाँ खड़ा कर दूँ, तो हर बात पर एक कथानक आपको सुना देंगे। तो, कथानक सुनने से आपका हित नहीं होगा।
दूसरे धर्मगुरुओं के यहाँ जायेंगे, तो दाढ़ी-बाल बढ़वायेंगे और तुरन्त भगवे वस्त्र धारण करवा देंगे और यहाँ जो गौशाला में सेवाकार्य करते हैं या भण्डारे में आपको जो भोजन खिलाते हें, ये सब अपने आपमें साधक हैं। कोई आनन्दानन्द, तो कोई महानन्द अपना नाम रखाकर समाज के बीच टहल रहे थे। मगर, कहीं न कहीं उनको सत्य का ऐहसास हुआ और आकर यहाँ साधक बनने का प्रयास कर रहे हैं। चूँकि यह तृप्ति का मार्ग है और मैंने इसीलिये कहा है यह कोई गर्व और घमण्ड की बात नहीं कर रहा। इसीलिये मेरे द्वारा बार-बार कह दिया जाता है कि किसी अहंकार की बात नहीं कि मैं महान् हूँ और वे छोटे हैं। मैंने बार-बार कहा है कि सौभाग्य होगा उन धर्माचार्यों, शंकराचार्यों का, कि सत्य का अगर ऐहसास कर लें और सत्यपथ का लाभ उठा लें, तो शायद समाज में वे भी सहयोगी बन सकते हैं। अन्यथा, समाज के मेरे अपने शिष्य कर्मयोगी बनकर धीरे-धीरे बढ़ रहे हैं और उनके अन्दर मैं धीरे- धीरे वह क्षमता पैदा करता चला जाऊँगा कि वह शंकराचार्य मेरे एक-एक शिष्य के सामने न्यून नजर आयेगा। मेरे एक-एक शिष्य के पास इतनी कार्यक्षमता आ जायेगी, इतना जनकल्याणकारी कार्यों में वे आगे बढ़ जायेंगे कि एक व्यक्ति इतने समाज को नशामुक्त जीवन प्रदान कर देगा, एक शिष्य इतने घरों में ‘माँ’ की आरती एवं श्री दुर्गा चालीसा पाठ करवाकर लोगों को इतने आध्यात्मिक मार्ग में बढ़ा देगा कि जितना शंकराचार्य अपने पूरे वैभव को लेकर नहीं कर पा रहे होंगे। उन दिशाओं पर बढ़ने के लिये जो मेरा रास्ता चल रहा है, उस रास्ते को हृदय से समझने का प्रयास करें।
शान्त-एकान्त बैठने का प्रयास किया करें। शान्ति से बैठें, चूँकि मैं जानता हूँ कि अगर मैं चिन्तन देने लग जाऊँ, तो आप लोग बैठे रहेंगे शान्ति से। शान्ति के चिन्तन की स्थिति आ जायेगी। अनेकों लोग ऐसे होते हैं, जिन्हें डनलप के गद्दों में या फिर कुर्सियों में बैठने की आदत है। मगर, मैं यहाँ कभी कुर्सियाँ उपलब्ध नहीं करा सकता। चूँकि मेरे जीवन का चिन्तन भी है कि मैं साधक बनाऊँगा, भले आप लोगों को तकलीफें झेलनी पड़ें। आपको इस तरह बैठना सिखाऊँगा। आपको मेरुदण्ड सीधा करके बैठना है, चूँकि आपका गुरु कहता है कि जब तक मैं चाहूँ चैतन्य अवस्था में इसी तरह बैठा रह सकता हूँ। आप लोग कम से कम कुछ समय बैठना सीखा करें। यह बैठने की क्रिया आप सीखे नहीं हैं, इसलिये कोई मोटा होता जा रहा है, कोई कह रहा है कि मेरा पैर दर्द कर रहा है तो किसी के जोड़ दर्द कर रहे हैं। चूँकि पहले लोग टहलते घूमते थे। सुबह लैट्रिन के लिये बाहर मैदान में जाते थे, तो एक-एक, दो-दो किलोमीटर जाते थे। मगर, आज लैट्रिन-बाथरूम बेडरूम से लगा होना चाहिये। दुर्गन्ध बर्दाश्त कर लेंगे, मगर बाहर नहीं जा सकते, थोड़ा दूर भी नहीं होना चाहिये। बैठे-बैठे सब कुछ हो जाये, कुर्सी में ही भोजन हो जाना चाहिये। हमको जमीन में बैठना नहीं चाहिये। चूँकि जमीन पर जब बैठोगे, तो उठना भी सीखोगे और जब कुर्सी पर बैठोगे, तो आधा उठोगे। तो अगर प्रकृति आधा चलना भी सिखाती है, तो क्या गलत करती है? तो, इन सभी क्षेत्रों में थोड़ा सा और समझने का प्रयास करो।
इस आश्रम में हो सकता है आप लोगों को थोड़ा तकलीफें महसूस हों, मगर मैंने कहा है कि मैं भी सुख-सुविधाओं से रहता था। जब यहाँ आया था, तो यहाँ टेण्ट डालकर रहना शुरू कर दिया था। चूँकि यह ‘माँ’ का दरबार है, ‘माँ’ का दर है। प्लेटफार्मों पर आप सो जाते हैं। हम आप सभी समाज के बीच का ही जीवन जीते हैं। चूँकि यहाँ बैठा हूँ, मुझसे जुड़ा 90 प्रतिशत समाज गरीब वर्ग का है। तो, जब हम समाज में अनेकों प्रकार की तकलीफों को सहते हैं। घरों में, खेतों में मजदूरों के साथ खड़े रहते हैं, प्लेटफार्मों पर पड़े रहते हैं, ट्रेनों में सीट नहीं मिलती, हम खड़े-खड़े सफर कर लेते हैं, बस में खड़े-खड़े सफर कर लेते हैं। तो, यह तो ‘माँ’ का दरबार है। हमको जहाँ जैसा लेटने को मिल जाता है, वहाँ हम शान्ति के साथ लेटें। ‘माँ’ की गोदी समझकर लेटें, तो आपको तृप्ति महसूस होगी। आपको शान्ति मिलेगी, आनन्द मिलेगा और आप सुख-सुविधाओं की कामना करेंगे, सुख-सुविधाओं को चाहते हो, तो फिर ये रास्ते मैं कल और परसों बताऊँगा। मगर, जो रास्ते मैं आज दे रहा हूँ, वह ज्यादा तृप्ति का है, ज्यादा आनन्द का है।
घरों में भी आप पूजन किया करें, तो बैठने की आदत डालो कि बैठकर थोड़ी देर जिस आसन पर बैठते बने, उस आसन पर थोड़ी देर बैठा करो और बैठकर श्री दुर्गा चालीसा का पाठ, ऊँ और ‘माँ’ का उच्चारण, जिसके लिए मैंने कहा है कि आपकी नाना प्रकार की व्याधियाँ दूर हो जायें, अगर आप पन्द्रह मिनट का नित्य अभ्यास डाल दें कि ‘ऊँ’ एवं ‘माँ’ का, चेतनामन्त्र का और गुरुमन्त्र का सस्वर उच्चारण करना सीख लें। तो, ये क्रियायें कल भी आपको प्रातः कराई जायेंगी। साढ़े छः बजे से लेकर आठ बजे तक आप उन क्रियाओं में यहाँ बैठेंगे। और, अब उस दिव्यता की दिव्य महाआरती की ओर मैं आप लोगों को बढ़ा लेना चाहूँगा, जिस दिव्यता की महाआरती का आशीर्वाद आज मैंने आप लोगों के साथ जोड़ा है। वह दिव्यता की महाआरती के क्षण ही आपकी यहाँ की मूल ऊर्जा तरंगों को प्राप्त करने के लिये महत्त्वपूर्ण होंगे।
बोल जगदम्बे मातु की जय!

जय माता की - जय गुरुवर की

यूट्यूब चैनल

BMKS

Siddhashram Dham

Bhajan Sandhya Siddhashram

BSCP

फेसबुक

Twitter

मौसम

India
overcast clouds
25.5 ° C
25.5 °
25.5 °
65 %
6.3kmh
100 %
Sat
28 °
Sun
32 °
Mon
35 °
Tue
34 °
Wed
35 °