ब्रह्माण्ड की सर्वोच्च सत्ता

शक्ति चेतना जनजागरण शिविर, फतेहपुर (उ.प्र.), 15.11.1997

आज इस शरीर के जन्म स्थान के जिले (फतेहपुर) पर इस शक्ति चेतना जन जागरण शिविर पर उपस्थित सभी शिष्यों, भक्तों व आत्मीय जनों को अपने हृदय में धारण करता हुआ माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा का पूर्ण आशीर्वाद प्राप्त करता हुआ अपना पूर्ण आशीर्वाद समर्पित करता हूँ।
सौभाग्यशाली हैं वो भक्त, जो आज इस महत्वपूर्ण शिविर पर उपस्थित हैं। आज समाज की जो दिशाधारा है, समाज का जो प्रवाह है, उसके कुछ विपरीत ही सत्य की स्थिति है और उस सत्य की स्थिति की ओर ले जाने के लिए ही मुझे आप लोगों को मनोरंजनात्मक कार्यक्रमों से अलग हटकर कुछ चिन्तन देना पड़ता है। चूँकि आज धर्म का स्वरुप भी रासरंग से विभूषित हो चुका है और जब उस रासरंग के वातावरण से सत्य की ओर खींचना पड़ता है तो वह सत्य कुछ गिने चुने लोगों को ही रास आता है। अतः वह भक्त सौभाग्यशाली हैं जो सत्य की झलक को, सत्यमार्ग पर चलने के लिए, सत्य को पकडऩे के लिए इस शिविर में दूर-दूर के प्रान्तों से आकर उपस्थित हुये हैं।
आज मैं इस स्थान पर चेतनात्मक क्रम में, चेतना के प्रवाह में परमात्मा के रहस्यों के चिन्तन या कुछ और महत्वपूर्ण चिन्तन देना चाहता हूँ। कुछ विचार हैं इस क्षेत्र के, और मैं अपने चिन्तनों को आगे प्रवाह दूं, इसके पहले मैं चाहता हूँ कि मैं आप लोगों को उस क्रम की जानकारी दे दूँ, उस सत्य की जानकारी दे दूँ कि हम सभी उस माता भगवती आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा को ही क्यों इष्ट के रूप में स्वीकार करें? क्या इस प्रकृति की जननी वो हैं या इससे भी सर्वोपरि कोई है? क्या ब्रम्हा, विष्णु, महेश सर्वोपरि हैं या माता भगवती आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा सर्वाेपरि हैं? क्या ब्रह्मा, विष्णु, महेश से उत्पत्ति माँ की हुई है या माँ से ब्रह्मा, विष्णु, महेश की उत्पत्ति हुई है। यह आत्मचिन्तन लोगों के मन-मस्तिष्क में छाया रहता है। मैंने कहा है कि धर्म बहुत उथलेपन में आ गया है। धर्म और सत्य, गहरायी में जाने से प्राप्त हाते हैं। आज अनेकों जगहों पर कर्मकाण्डी ब्राह्मण, पण्डित और धर्माचार्य मौजूद हैं। मगर इस छोटे से चिन्तन को, जो समाज इस सत्य के चिन्तन को नहीं पकड़ पाया कि ब्रह्मा, विष्णु, महेश से माता भगवती दुर्गाजी की उत्पत्ति हुई है या माता आदिशक्ति जगज्जननी से उन ब्रम्हा, विष्णु, महेश की उत्पत्ति हुयी है। मैं पूर्व के ही चिन्तन में उस सत्य का एहसास एक प्रारम्भिक अवस्था में ही करा रहा हूँ। मैंने कहा है कि मैं इस शरीर के रहते ही माँ रूपी ग्रन्थ समाज को समर्पित करूँगा जिसमें एक नहीं सैकड़ों प्रमाणों के साथ वह रहस्य समाज के सामने उजागर करूँगा कि प्रकृति की मूल सत्ता माता भगवती आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा ही हैं और उस सत्य की ओर ले जाने के साथ ही मैं अनेकों महत्वूपर्ण चिन्तन, आप लोगों को कुण्डलिनी जागरण के क्रम में और आध्यात्मिक जीवन जीने के क्रम में, उसके बाद पुनः दूंगा।
आज उस सत्य की जानकारी देने के लिये कुछ भक्तों से ऐसे ही चिन्तन मुझे ध्यान में प्राप्त हुये कि शायद कुछ भक्तों के मन मस्तिष्क में यह रहता है कि क्या ब्रह्मा, विष्णु, महेश की जननी माँ हैं, या माँ की जननी ब्रम्हा, विष्णु, महेश हैं? आप लोगों के घर-घर में, कम से कम जो ब्राह्मण हैं, उनके घर में दुर्गा सप्तशती की पुस्तक अवश्य होगी और अनेक लोग अपने घरों में दुर्गा सप्तशती का पाठ कराते हैं। मगर फिर भी उन ब्राह्मणों ने उस सत्य का एहसास नहीं कराया, जो सत्य दुर्गा सप्तशती के प्रथम अध्याय में ही वर्णित है। आप लोगों के यहां दुर्गा सप्तशती का पाठ करते हैं और चिन्तन देते हैं कि ब्रम्हा, विष्णु, महेश से माँ की उत्पत्ति हुई। उस गहराई के रहस्य का सत्य कहीं न कहीं छिपा होता है, हमें उसे तलाशने की आवश्यकता होती है और मैं प्रथम अध्याय के बीच के चिन्तन को ही दे रहा हूं। उसको आप पढ़ें, उसमें वर्णित है। आप जब पहले अध्याय का पाठ करेंगे, उसके एक-एक शब्द, एक-एक पंक्ति को पढ़ें, उसमें प्रारम्भ से जहां वर्णित है कि राजा सुरथ और समाधि नामक वैश्य जब मेधा मुनि के आश्रम में पहुंचते हैं। स्वारोचिष मन्वन्तर में राजा सुरथ नाम के एक पराक्रमी राजा हुये हैं जो चक्रवर्ती राजा थे। सब कुछ सामर्थ्य उनके पास थी परन्तु उस समय कोलाविध्वंशी नामक क्षत्रिय उनके शत्रु हो गये और राजा सुरथ उनसे पराजित हुये। राजा सुरथ अपना राजपाठ छोड़कर मेधा मुनि के आश्रम में पहुंचते हैं तो वहां पहुंचकर भी उन्हें शान्ति की प्राप्ति नही हुयी। नाना प्रकार के विचारों में मन्थन करते रहते हैं। काम, क्रोध, मोह, लोभ के चक्कर से फिर भी मुक्त नहीं हो पाते। वहीं पर उसे समाधि नामक एक वैश्य मिलता है। वह भी उन्हीं परिस्थितियों से ग्रसित था कि लड़के-बच्चों ने धन सम्पत्ति के लालच में उसे घर से निकाल दिया था। यह वर्णन दुर्गा सप्तशती के प्रथम अध्याय मे वर्णित है और जब वह दोनों आत्मशान्ति नहीं प्राप्त कर पाये तो मेधा मुनि के आश्रम में उनके चरणों में उपस्थित होते हैं। और जब चरणों में उपस्थित होते हैं, अपनी व्यथा का वर्णन करते हैं, अपनी परेशानी को व्यक्त करते हैं कि हमें सत्य का ज्ञान कैसे हो? हमारे मन मस्तिष्क पर यह जो विचार घुमड़ते रहते हैं, हम उनसे शान्ति कैसे प्राप्त करें?
मार्कण्डेय ऋषि ने उस वर्णन को दुर्गा सप्तशती में वर्णित किया है। मार्कण्डेय ऋषि का यह कहना है कि मेधा मुनि के आश्रम में जब वे जाते हैं और मेधा मुनि से पूंछते हैं तो मेधा मुनि उन्हें बतलाते हैं कि माता भगवती आदिशक्ति जगदम्बा कौन हैं? उनकी ही आराधना करो और उनकी ही शरण में जाने से तुमको आत्मशान्ति प्राप्त हो सकेगी। सत्य का रहस्य प्राप्त होगा और उसका वर्णन करते हुये विस्तार आप दुर्गा सप्तशती में पढ़ें, अध्ययन करें। वहां पर वर्णन है कि मेधा मुनि उनको बतलाते है, कि जिस समय पर पूरी तरह से प्रलय की स्थिति में भगवान विष्णु शयन कर रहे थे और उनकी नाभिकमल पर ब्रह्मा जी विराजमान थे तो उसी समय मधु और कैटभ नामक दो राक्षस उत्पन्न हुये और ब्रह्मा जी का वध करने के लिए तत्पर हुये। मैं उन्ही ब्रह्मा, विष्णु, महेश की बात कर रहा हूँ । दुर्गा सप्तसती में वर्णित है कि ब्रह्मा जी ने उन निद्रास्वरूप माँ भगवती का, जिन्होंने भगवान विष्णु को जब निद्रा के आधीन कर लिया था, उनका स्मरण चिन्तन करते हुये भगवान ब्रह्मा यह शब्द कहते हैं, उन ब्रह्मा जी के ये शब्द हैं आप उसमें पढ़ें कि ब्रह्मा जी उनकी स्तुति करते हैं, माता को सब तरह से परिपूर्ण मानते हैं और उनकी स्तुति करते-करते जब थकते हैं, तब उन्हें लगता है कि उनकी स्तुति तो कोई कर ही नहीं सकता। किसी सामान्य स्थितियों में वर्णित नही है, यह दुर्गा सप्तसती में वर्णित है और दुर्गा सप्तसती एक ऐसा ग्रन्थ है जिसकी तुलना किसी अन्य ग्रन्थ से नहीं की जा सकती है। दुर्गा सप्तसती के एक श्लोक का वर्णन करने की सामर्थ्य किसी में नहीं है, उसकी गहरायी में जाने की सामर्थ्य किसी में नहीं है। एक अध्याय का विस्तार करने की सामर्थ्य किसी में है ही नहीं। वहां पर स्तुति करते-करते ब्रह्मा जी कहते हैं । इस प्रसंग का मेधा मुनि उस समय वर्णन करते हैं और कहते हैं कि माता भगवती की उत्पत्ति हर काल में अलग-अलग रूप से हुयी है। माता भगवती की उत्पत्ति ब्रह्मा, विष्णु, महेश से नहीं हुई है, बल्कि उनकी उत्पत्ति देवताओं की कार्यसिद्धि के लिए अनेक अलग-अलग रूपों में अनेकों जगह हुयी है, अनेकों स्वरूपों में हुयी है। माता भगवती की उत्पत्ति का जब भी स्मरण और चिन्तन किया जाता है तो वह किसी के भी शरीर से प्रकट हो सकती हैं, कहीं भी उपस्थित हो सकती हैं, कोई भी स्वरूप धारण कर सकती हैं और इसी चिन्तन को ले जाते हुये उन्होंने (ब्रह्मा जी ने) स्तुति करते हुये स्वीकारा है कि हे माता! हम आपकी स्तुति क्या कर सकते हैं? जब आपने भगवान विष्णु को, भगवान महेश को और मुझको स्वयं तक आपने शरीर धारण करवाया है तो भला आपकी स्तुति करने में कौन सामर्थ्यवान हो सकता है? कौन ऐसा ज्ञानी हो सकता है जो आपकी स्तुति करे? यह ब्रह्मा जी ने स्वीकार किया है कि आपने मुझे, भगवान विष्णु को और भगवान शंकर को शरीर धारण करवाया है। यह प्रारम्भिक पाठ में ही वर्णित है। जब प्रथम पाठ में यह ब्रह्मा जी ने स्वतः स्वीकार किया और मेधा मुनि एक ऋषि कह रहे हैं, चूँकि एक ऋषि की वाणी कभी मिथ्या नहीं होती। ऋषि सत्य को अपने ज्ञान के तराजू में तौलकर ही वर्णन करता है और जब एक ऋषि यह कह रहा है कि भगवान ब्रह्मा स्तुति करते हुये स्वतः स्वीकार करते हैं कि आपने (माता भगवती ने) हम तीनों को शरीर धारण करवाया है तो आपकी स्तुति करने में कौन सामर्थ्यवान हो सकता है? अतः यह सत्य पहले पाठ में ही स्पष्ट है। आप पूरी दुर्गा सप्तसती का पाठ करें, श्रवण करें, चिन्तन करें और मनन करें। उससे आप लोगों को रहस्य मिल जायेगा कि दुर्गा सप्तसती के प्रथम पाठ में ही वह मूल रहस्य दे दिया गया है कि किस तरह से उनकी उत्पत्ति हुई?
मैं तो कह रहा हूँ कि माता भगवती जगज्जननी जगदम्बा कि उत्पत्ति आप स्वतः कर सकते हैं, कोई बड़ी बात नहीं। चूँकि प्रकृति का एक अंश आपके पास उपस्थित है और यदि आप अपनी कुण्डलिनी चेतना को जाग्रत कर लें, अपने आपको चैतन्य बना लें, आप अगर उस प्रकृतिसत्ता की आराधना चिन्तन करने लगें और आप अगर मिट्टी की प्रतिमा बना लें तो मिट्टी की प्रतिमा से भी प्रकृतिसत्ता को उपस्थित किया जा सकता है। आप साकारस्वरुप अपनी चेतनाशक्ति से भी उस प्रकृतिस्वरूपा को देखना चाहें, प्रकृतिसत्ता को आप जिस रूप में देखना चाहेंगे तो वह प्रकृतिस्वरुपा उपस्थित होकर आपको उस रूप में दर्शन अवश्य देंगी। तो क्या उस मिट्टी से उनकी उत्पत्ति मान ली जायेगी? अगर ब्रह्मा, विष्णु, महेश ने उनका स्मरण किया, चिन्तन किया और देवताओं की कार्यसिद्धि के लिए उन्हीं के शरीर से निकलकर माता भगवती आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा का तेज उपस्थित हुआ, तो क्या उनसे उनकी उत्पत्ति मानी जायेगी?
प्रकृतिसत्ता माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा जो ब्रह्मा, विष्णु, महेश के शरीरों में शक्ति के रूप में समाहित थीं, वह शक्ति आकार स्वरुप में उनके सम्मुख खड़ी हो गईं और अपने स्वरूप में आकर उस शक्ति ने देवताओं का कार्य सिद्ध किया। अतः उस प्रकृति की मूलसत्ता माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा हैं और यदि हम आत्मशक्ति प्राप्त करना चाहते हैं, आत्मतृप्ति चाहते हैं, आध्यात्मिक और भौतिक पूर्णत्व का विकास चाहते हैं तो हमें उस प्रकृतिसत्ता की ओर बढऩा पड़ेगा। अपनी इष्ट को माता आदिशक्ति जगत जननी जगदम्बा के रूप में स्वीकार करना पड़ेगा। यदि हम माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा को अपने इष्ट के रूप में स्वीकार कर लें और फिर उस प्रकृतिसत्ता की ओर बढऩे का अपना चिन्तन बनायें, तो सब कुछ हमारे अन्दर समाहित है। मनुष्य के अन्दर ही ब्रह्मग्रन्थि समाहित है, विष्णुग्रन्थि समाहित है, शिवग्रन्थि समाहित है। और इन तीनों ग्रन्थियों को आप अपनी कुण्डलिनी जागरण क्रिया के माध्यम से चैतन्य बना सकते हैं। आप इतिहास उठाकर देखें, हमारे ऋषियों, मुनियों में नया स्वर्ग तक निर्माण करने की क्षमता थी, जीवनदान देने की क्षमता थी और नष्ट करने की क्षमतायें थीं। इसके प्रमाण मौजूद हैं, तो आप उन ब्रह्मा, विष्णु, महेश की ग्रन्थियों को माता भगवती आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा की आराधना करते हुये स्वतः जाग्रत कर सकते हैं और आप उन ग्रन्थियों को जाग्रत कर लेंगे तो भगवान ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों की कृपा तो आपको स्वतः ही मिलती चली जायेगी। यह मार्ग लम्बा है गहरा है, मगर यदि रास्ता लम्बा है गहरा है, किन्तु आत्मशान्ति का है तो क्या उसे तय नहीं किया जायेगा? क्या भटकावों में उलझा जायेगा और अगर आज का समाज उस सत्य की ओर न बढ़ सका, उस कुण्डलिनी शक्ति की जागरण क्रिया की ओर न बढ़ सका तो उसे आत्मशान्ति कभी न मिल पायेगी।
आज कथावाचक जगह-जगह पर कथायें करते हैं, कथाओं से आपको तृप्ति नहीं मिल सकती। कथायें सुनकर न तो आपके अन्दर सामर्थ्य आ सकती है कि आप किसी को जीवनदान दे सकें या अपनी परिस्थितियों से मुक्ति पा सकें और न उन कथावाचकों में पात्रता आ सकती है। हर क्षेत्र में जगह-जगह कथावाचक होंगे और वे भावनाओं को जाग्रत कर प्रवाह जरुर देते हैं, मगर सत्य के पलड़े पर आपको खड़ा नहीं कर सकते और एक साधक ऋषि अगर शान्त भी आपके सामने बैठा हुआ हो, चूँकि उसकी सभी क्रियायें ध्यान योग के माध्यम से चलती हैं, तो वह अपने ध्यान योग की क्रियाओं के माध्यम से आपकी जड़ ग्रन्थियों को खोल सकता है। उसके अन्दर की ऊर्जा जो, उसके शरीर से वायु प्रवाहित होकर किसी के शरीर को स्पर्श करती है तो उसके अन्दर की चैतन्यता को स्वतः जाग्रत करती चली जाती है। अनेकों प्रकार की बीमारियों से यदि भक्त केवल चैतन्य गुरू के सामने बैठ जाये तो वह बीमारियाँ अपने आप दूर होती चली जाती हैं और उन क्रमों को अपनाने के लिए अपनी ग्रन्थियों को जाग्रत करना नितान्त आवश्यक है। जिस तरह एक बड़ी वीणा बज रही हो, उसके सामने छोटी वीणा रख दी जाये और पूर्ण शान्त वातावरण कर दिया जाये तो दूसरी वीणा स्वतः बजने लगती है। उसी तरह यदि कोई साधक मात्र प्राथमिक स्तर पर भी प्रयास करे, कि उसकी ललक उस दिशा की ओर हो कि मैं अपनी चेतना को जाग्रत करना चाहता हूँ, सत्य को पकडऩा चाहता हूँ, सत्य की अनुभूतियाँ देखना चाहता हूँ, वह अपने प्रवाह को कुछ दिशा दे, तो गुरु करोड़ो मील दूर क्यों न बैठा हो, अगर वह चेतनावान गुरु है उसके अन्दर सामर्थ्य है तो उन ग्रन्थियों पर अपनी दिव्य दृष्टि के माध्यम से ऐसी ऊर्जा प्रवाहित करता है कि अनेकों प्रकार की अनुभूतियाँ, झलकियाँ साधक प्राप्त करते चले जाते हैं। यहाँ पर अनेकों ऐसे भक्त बैठे हैं जिन्होंने अपने गुरु के शरीर के विराटस्वरुप के दर्शन भी प्राप्त किये हैं, चैतन्यस्वरूप के दर्शन किये हैं। किसी प्रकार की घटनायें जहां घटित की गई हैं, हजारों किलोमीटर दूर से उन स्थानों को देखा है, अनुभव किया है।
मनुष्य के अन्दर, कुण्डलिनी चेतना एक ऐसी शक्ति समाहित है जिसको कोई भी जाग्रत कर सकता है और उस कुण्डलिनी चेतना जागरण की क्रिया में उक्त चार चीजें सहायक हैं, वहीं बाधक हैं। हमको इनके पलड़े को समझने की जरूरत है। समाज में चिन्तन दिया जाता है कि आप काम, क्रोध, लोभ, मोह का नाश कर दें। अरे! काम, क्रोध, लोभ और मोह को नाश करने की आवश्यकता नहीं है। काम, क्रोध, लेाभ, मोह के नाश से आप कुण्डलिनी जागरण की क्रिया को सीख भी नहीं सकते। इन क्रमों के पलड़े को केवल बदलने की आवश्यकता है। मनुष्य के शरीर में कामशक्ति, हर मनुष्य के शरीर में वीर्यशक्ति एक ऐसी चेतनाशक्ति समाहित है जिसको यदि वह ऊपर की ओर चढ़ाये, कुण्डलिनी जागरण क्रिया के माध्यम से गुरु के निर्देशन में उस काम शक्ति को चढ़ाता हुआ उस शिव शक्ति को चढ़ाता हुआ उस शक्ति से एकाकार करे तो एक अलौकिक शक्ति, एक अलौकिक क्षमता उसके अन्दर जाग्रत होगी। वह शक्ति आपके अन्दर है मगर आपको क्रिया के पलड़े, को बदलने की जरुरत है, उन यौगिक क्रियाओं के माध्यम से आपको अपनी चेतना को जाग्रत करने की जरुरत है। कोई भी उन क्रियाओं को जाग्रत करके, अपनी मनःशक्ति में नियन्त्रण प्राप्त करके उस अवस्था को प्राप्त कर सकता है। कामशक्ति के पलड़े को केवल बदलने की जरूरत है। मैं नहीं कह रहा कि आप अपने गृहस्थ को त्याग दें। एक प्रतिशत पकडऩे की जरूरत है कि उस शक्ति का संचय करके आप अपनी चेतना को जाग्रत करें। जिस समय वह शक्ति आपके ब्रह्मग्रन्थि का स्पर्श प्राप्त करेगी तो आपके अन्दर ब्रह्मा, विष्णु और महेश की शक्तियाँ और क्षमताओं का ज्ञान स्वतः होता चला जायेगा। कुण्डलिनी चेतना जागरण में आप क्रोध के भाव का नाश न करें। उस क्रोध को अपने अवगुणों, अपने दोषों पर नजर रखते हुये एक क्रोधाभाव उनमें रखे कि मुझमें जो अवगुण हैं, मैं अपने क्रोधाभाव, अपनी क्षमता से उसका नाश करूँगा। उन पर अपनी तीव्र निगाह रखें और उन भावों से अपनी कुण्डलिनी चेतना को जाग्रत कराने के लिए अपने अन्दर एक तीव्र भाव रखें। मैं वह क्रम बता रहा हूँ कि जिन क्रमों को जब आप अपना लेंगे, अपने अवगुणों से मुक्ति पायेंगे तो आपकी कुण्डलिनी शक्ति स्वतः जाग्रत होती चली जायेगी। और, लोभ अगर करना है तो लोभ करें उस ऊर्जा को पाने का। आप जिस तरह भौतिकतावाद की चीजों को पाने का लोभ करते हैं, उसी तरह जब आप प्रकृति को पाने के लिए, उस तृप्ति को पाने के लिए, उस अमृत को पाने के लिए लोभ पैदा कर देंगे, आप लोभी बन जायेंगे तो आपको वह तृप्ति पाने में देर नहीं लगेगी तथा मोह करें उस प्रकृतिसत्ता से, लगाव करें उस प्रकृत्तिसत्ता से कि हम उस प्रकृतिसत्ता को छोड़ नहीं सकते, उस प्रकृतिसत्ता को त्याग नहीं सकते और इन सबमें उस मनः शक्ति का उपयोग करें। आपके मन-मस्तिक को, आपकी मनःशक्ति को, आपकी भावना को उस दिशा में लगाना पड़ेगा और उस दिशा में जब आप लगा लेंगे तो आपकी कुण्डलिनी चेतना जिस समय जाग्रत होगी, जिस समय उसमें थिरकन होगी, तब आपको शक्ति की पकड़ होगी।
एक साधक एक स्थान पर बैठकर हजारों करोड़ों किलोमीटर दूर अपनी कुण्डलिनी चेतना को जाग्रत करके वहां पर परिवर्तन कर सकता है। मैंने कहा है कि जब तक आप आत्मा और परमात्मा के रहस्य को पकडऩे के लिए अपनी आत्मा की गहराई को नहीं सीखेंगे, तब तक आप कुछ भी नहीं कर सकते। इसके लिए जरूरत है कि आप इन चिन्तनों को ग्रहण करके उन मन्त्रों को, जो मन्त्र मेरे द्वारा बतलाये गये हैं उन मन्त्रों का सतत् जाप करें। अपनी मेरुदण्ड को सदैव सीधा करके बैठें। साधक जब बैठा होता है उस समय उसके शरीर से विशेष रेज (किरणें) फूटती हैं तथा अनेकों प्रकार की बीमारियों से मुक्ति का वह क्षण होता है। यदि हम मेरुदण्ड को सीधा करके बैठें, चैतन्य हो करके बैठें। मेरे द्वारा जो अनेकों स्थानों में परिवर्तन डाला जाता है तो उसके लिए कोई दूसरी क्रिया नहीं की जाती। मैं कुछ बोलूं या न बोलूं ,अपने शरीर में एक विशेष ऊर्जा पैदा करके सम्पूर्ण वातावरण में एक ऊर्जा का प्रवाह करता हूँ और यह शिविर, मैं यहां अपनी साधनात्मक क्षमता को लुटाने ही तो आया हूँ, इस शिविर में तो मैं बहुत कुछ समाज को देने ही आया हूँ और इसका एहसास आपको आने वाले समय में अवश्य होगा कि आप लोगों के अन्दर ही चेतना जाग्रत होगी, आप लोगों को अपनी अनुभूतियों के क्रमों में वृद्धि होगी। आपको उस सत्य के मार्ग में बढऩे का कुछ मार्ग मिलेगा।
सत्य के मार्ग में बढऩे के लिए ज्यादा कुछ समझने और जानने की आवश्यकता नहीं रहती, केवल अपनी आत्मा को जानना है। अभी आज मैं ध्यान चिन्तन में कुछ बैठा था और जब ध्यान से उठा तो रेस्ट हाउस के बगल में कुछ इन्जीनियर हड़ताल में बैठे थे। वे आपस में चर्चा कर रहे थे कि शक्ति चेतना जन-जागरण का अर्थ क्या है? मुझे हंसी आयी कि ये डिप्लोमा होल्डर इन्जीनियर, इनको शक्ति चेतना जन-जागरण शिविर का अर्थ नहीं मालूम? जो एक साधारण व्यक्ति अर्थ समझ सकता है उसको ये नहीं समझ पा रहे हैं। अपने आपको जो ज्ञानवान कहते हैं, वो कहते हैं कि देवी जागरण होता, तो उसे हम मान लेते, किन्तु यह जनजागरण क्या है? मैं उनको बताना चाहता हूँ कि समाज में देवी जागरण करने की आवश्यकता नहीं। अरे वह देवी तो हर कण-कण में मौजूद और जाग्रत है। उनका जागरण करने की क्या आवश्यकता है? अगर जागरण करना है तो जन-जन का जागरण करना है, समाज को जाग्रत करना है, उनके अन्दर सोई हुई आत्मा को जाग्रत करना है, जिसके ऊपर समाज ने कूड़ा-करकट डाल रखा है, उसकी सफाई करने की आवश्यकता है। अगर आप अपनी आत्मा का जागरण कर लेंगे, जनजागरण कर लेंगे तो प्रकृति से आपका एकाकार हो जायेगा।
प्रकृति तो कण-कण में मौजूद है और उस जागरण के लिए ‘ॐ जगदम्बिके दुर्गायै नमः’, मंत्र का सहारा लेना होगा। ‘ॐ जगदम्बिके दुर्गायै नमः’, मंत्र एक ऐसा मंत्र है, जो इस कलिकाल में आपके शरीर और ग्रन्थियों में दूषित प्रभाव पड़ चुका है उसको दूर करने में सहायक है। दूसरा वह शक्तिजल है जो मेरे द्वारा निर्माण करके समाज को निःशुल्क दिया जाता है। अगर साधक केवल श्रद्धा और भक्तिभाव से नियमित शक्तिजल का सेवन करे तो उसकी आत्मजागरण क्रिया सतत् बढ़ती चली जायेगी, नाना प्रकार की अनुभूतियाँ मिलती जायेंगी। यह शक्तिजल जिसके माध्यम से आप अपनी नाना प्रकार की बीमारियों को दूर करते हैं। साधक केवल अपनी तपस्या ही तो लुटाता है। अगर मैं कहानियाँ और किस्से सुनाने के लिए चिन्तन में आ जाऊँ तो आपको हजारों वर्षों तक सुना सकता हूँ, मगर उससे आपके हाथ लगेगा कुछ नहीं। आपको आवश्यकता है ‘ॐ जगदम्बिके दुर्गाये नमः’ मंत्र का सतत् जाप करने की। जितना अधिक से अधिक जाप कर सकें तथा उस शक्तिजल को श्रद्धा और भावना के साथ गंगाजल या नर्मदा जल से मिलाकर इतना अधिक बढ़ा लें कि वह आपके नित्य सेवन के उपयोग में आ जाये। आपको किसी भी प्रकार की बीमारी हो, किसी भी प्रकार की तकलीफ हो, किसी भी प्रकार की बाधा हो, मात्र उस शक्तिजल के उपयोग से लाभान्वित हो सकते हैं, जो मेरे आश्रम से, मेरे शिष्यों द्वारा निःशुल्क बंटवाया जाता है।
आप जब तक उन मार्गों को अपनायेंगे नहीं, आप तब तक सत्य के पलड़े में बैठेंगे नहीं, तब तक आप भटकते ही रहेंगे। जिस प्रकार जल में यदि नीचे कचड़ा हो, ऊपर कचड़ा हो और वह कचड़ा पूरे जल में मिल गया हो तो जब तक उसको छाना नहीं जायेगा, तब तक वह पीने के योग्य नहीं हो सकता है और यदि गंदा जल पिया जायेगा तो नाना प्रकार की बीमारियों को पैदा करता है। उसी प्रकार आज धर्मग्रन्थों में वह कचड़ा समाहित हो चुका है और आपको आवश्यकता है कि गुरु रूपी छन्ना लगा करके (गुरु ज्ञान को कहा गया है) उस ज्ञान को जानें और जो सत्य मिले, उस सत्य को ग्रहण कर लें, तभी आपका कल्याण हो सकता है। चूँकि आज अनेकों धर्मग्रन्थों और पुराणों में इतना परिवर्तन कर दिया गया है। अनेकों लेखकों ने अपने-अपने भाव और विचार लिख-लिख करके उनमें इतना परितर्वन कर दिया है कि सत्य कोसों दूर रह गया है। जैसे मैंने अभी जबलपुर में एक तस्वीर को देखा कि गणेश जी के सिर पर एक मूस की छवि बना दी गई थी। जो सवारी गणेश जी करते हैं, उसको चरणों में नीचे कहीं आसपास नहीं रखा, गणेश जी के सिर पर बना दिया । जो न जानेंगे, उसी मूर्ति की पूजा करने लगेंगे और जब सैकड़ों वर्ष हो जायेंगे तो सोचेंगे कि शायद किसी ने यही स्वरूप दिया था कि गणेश जी के सिर पर मूस बैठे होंगे और यही प्रचलन में आ जायेगा। उसी प्रकार से अनेकों बातें हमारे धर्मग्रन्थों में इतना परिवर्तन करके डाल दिया गया है जिसकी कोई कल्पना नहीं। जो धर्म से नास्तिकता का स्वरूप लिये हुये हैं, जो भटके हुये हैं, अपने ही हैं। उन्होंने अनेकों धर्मग्रन्थों में परिवर्तन करके बीच-बीच में ऐसे रहस्यों को डाल दिया है कि जब समाज पढ़़ेगा तो दिशाभ्रमित अवश्य हो जायेगा। आप समझ नहीं पा रहे हैं कि कितना बड़ा परिवर्तन उन ग्रन्थों और पुस्तकों के बीच किया जा रहा है। उनके अन्दर प्रवेश करके सत्य को तलाशने की नितान्त आवश्यकता है।
आप स्वतः अपने आपको जाग्रत करें। अपनी आत्मा का जागरण करें और तब जनजागरण के कार्य में लगें। आपको धर्म कर्म के क्रम के लिए बहुत बड़े मार्ग को अपनाने की आवश्यकता नहीं। आपको सिर्फ अपने आपको तपस्वी बनाना है, अपने अन्दर एक तपबल जाग्रत करना है। मैं, जैसे वो इन्जीनियर आपस में बात कर रहे थे तो मेरा चेलेन्ज है उन इन्जीनियरों को, इस देश के ही नहीं, विश्व के बड़े से बड़े इंजीनियर जो निर्माण करने की क्षमता रखते हैं तो मैंने कहा है कि उनसे उम्र में भी कम शरीर लिये हुये बैठा हूँ, मगर जिस शरीर ने उन डिप्लोमा-डिग्रियों को प्राप्त नहीं किया, वो कौन सा निर्माण का क्रम मुझसे प्राप्त करना चाहते हैं? विश्व स्तर का सम्मेलन हो और मैं केवल नेत्रों के माध्यम से बड़े से बड़े निर्माण को धराशायी करने की क्षमता रखता हूँ और जो इमारतें, जिनको वो इन्जीनियर कह रहे हों कि साल भर या छः महीने में गिर जायेंगी, मैं अपनी चेतना से सैकड़ों साल उसी स्थिति में बनाये रखने की क्षमता रखता हूँ। मेरी रगों में उस माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा का अंश है, जो कण-कण में समाहित है। उसी तरह इस स्थूल जगत में आत्मा जहां प्रकृतिसत्ता की है, इस स्थूल को जन्म देने वाली जननी का स्वर्गवास कुछ समय पहले ही हुआ है जिनकी तेरहवीं का कार्यक्रम कल है। छोटा पुत्र होने के नाते मेरा कर्म बनता था, किन्तु मैं उस शव को देखने नहीं आया। उस शव की क्रिया कर्म करने के लिए अनेकों सदस्य परिवार में उपस्थित थे। किन्तु मेरा कर्म था कि उस माता के दूध को, जिसका मैंने पान किया है, जिसके स्थूल शरीर को लेकर मैं उस प्रकृतिसत्ता की आत्मा को लिये बैठा हूँ, तो अपनी सामर्थ्य और क्षमता के बल पर यहां जनजागरण करूँ। एक ऐसी ऊर्जा जिले में प्रवाहित करूँ कि सब तरफ माँमय वातावरण पैदा हो, हर घर-घर में आने वाले समय में माँ की चेतना जाग्रत हो। लोग माँ की भक्ति में रत हों और उस आत्मा की शान्ति को मुक्ति का मार्ग तो मिलना ही है, उस आत्मा को तो सिद्धाश्रम में स्थान मिलना ही है।
इस शिविर में मैं अपनी साधनात्मक तपस्या को लुटाने आया हूँ और यह अवगत करा रहा हूँ कि जो शिष्य यहां उपस्थित हैं उनके कल्याण के लिए मैं जो कुछ प्रदान कर रहा हूँ तो वह प्रदान करूँगा ही, आप लोगों के समक्ष यदि कोई विषम परिस्थिति में हो और उसे सहारा देना चाहें तो आज की मेरी ऊर्जा का यह प्रभाव होगा कि जो इस शिविर में चिन्तन से उपस्थित हुये हैं कि घायल से घायल व्यक्ति को, मृत्युशैया में अन्तिम क्षणों में पड़े व्यक्ति को भी अपने हाथ के अंगूठे से उसके आज्ञाचक्र को स्पर्श करेंगे, तो मेरी ऊर्जा का प्रभाव होगा कि वह चैतन्य अवस्था को अवश्य प्राप्त करेंगे। मैंने बार-बार कहा है, अनेकों वर्षों पहले मेरे द्वारा जो कार्य किये जा रहे थे, उनकी गति आने वाले समय में और मिलेगी। मैंने हाथ के अंगूठे के स्पर्श से ही जहां अनेंको लोगों को जीवनदान दिया है उसी तरह मैंने और कहा है, उन डाक्टरों के लिए भी मेरा चैलेन्ज है, चूँकि मैंने अपनी यात्रा को कुछ समय के लिए, कुछ क्षणों के लिए रोका था, आश्रम स्थापना के लिये। मगर मैं महसूस कर रहा हूँ कि जब तक मैं अपनी ऊर्जा को समाज के बीच और उन धर्माचार्यों के बीच, साधु सन्त सन्यासियों के बीच चैलेन्ज के रुप में नहीं रखूँगा, तब तक समाज की जनता का कल्याण नहीं होगा, चूँकि उनके अन्दर की आत्मा जाग्रत नहीं होगी। उन डाक्टरों के लिए भी मेरा चैलेन्ज है कि वो जो चौदह साल-पन्द्रह साल परिश्रम करके, शोध करके अनेकों प्रकार के इन्जेक्शन और दवाईयाँ तैयार करते हैं, उनको मेरा चैलेन्ज है कि एक प्रकार के दो मरीज लाकर खड़ा करें और दुनिया भर के सभी डॉक्टर एक मरीज पर लग जायें। वह मुझसे चार गुना ज्यादा समय माँग लें और अगर वह कह देंगे कि इस मर्ज को हम एक दिन में ठीक कर देंगे तो मेरे लिए मात्र एक मिनट की आवश्यकता है, मैं उसे अपने स्पर्श मात्र से ठीक कर दूंगा। ऋषि के पास एक विशिष्ट क्षमता होती है।
आज इस स्थान पर शक्ति चेतना जन-जागरण शिविर के कार्यक्रम का तात्पर्य यह नहीं है कि मैं यहां इस स्थान पर लाखों हजारों रुपये के पोस्टर और पम्पलेट बंटवा देता। मुझे अपनी ऊर्जा फैलाना है, मुझे अपना चिन्तन देना है। एक स्थान पर अगर चार भक्त भी बैठे हैं तो मैं उनके सामने जो ऊर्जा फैलाऊंगा और उससे जन-जन प्रभावित होगा। साधनात्मक चैलेन्ज का क्रम मैंने मात्र उस विश्व धर्म आध्यात्म के लिये रखा है। धर्म का तात्पर्य उन धर्माचार्यों के लिए है जो सत्य, आत्मा और परमात्मा के मूल रहस्य की ओर समाज को बढ़ा नहीं रहे हैं। उन साधु-सन्त सन्यासियों को है जो भगवे वस्त्र धारण करके राजनीतिक क्रम में बढ़ रहे हैं और चुनाव लड़ रहे हैं और अपने आपको सन्त कह रहे हैं। कैसे समाज की आँखे खुलेंगी? क्या यही सत्य है कि कुछ संत जो स्वयं को समाज से पुजवाते थे, उन्होंने छोटे से मन्त्री पद के लिए धार्मिक लोगों की भावनाओं को आघात दिया। जहां आज अनेकों धर्माचार्य हैं, और अनेकों धर्माचार्य होने के बाद भी समाज के सामने सत्य उजागर नहीं हुआ। ऐसे चार शिष्य नहीं जाग्रत कर सके जो उनके सत्य को पकड़ सकें और समाज के बीच सत्य को स्थापित कर सकें। चूँकि मैंने कहा है कि मेरी अपनी कोई क्षमता नहीं है। मैं जो भी कार्य करता हूँ, जो भी कहता हूँ, उस माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा की कृपा के बल पर कहता हूँ जिनकी कृपा मुझे प्राप्त है और अगर मैं अपने इष्ट के स्वभाव और क्षमता को गर्व के साथ नहीं कह सकूँगा तो मेरे एक पल का भी जीवन व्यर्थ है। उसी तरह ज्ञान और विज्ञान दोनों क्षेत्रों के लिए मेरा साधनात्मक चैलेन्ज है। प्रचार मीडिया के माध्यम से, अपने शिष्यों के माध्यम से, अपने भक्तों के माध्यम से और उन नास्तिकों के माध्यम से, कि इस आवाज को जन-जन तक पहुँचायें कि एक फतेहपुर जिले के भद्रवास (भदवा) में एक किसान के घर में जन्मा हुआ एक बालक, जिसने माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा के चरणों में हाथ जोड़-जोड़ कर उनकी कृपा प्राप्त करके उस प्रकृतिसत्ता से एकाकार किया है, उस प्रकृतिसत्ता से प्राप्त तपबल के माध्यम से अपना साधनात्मक चैलेन्ज पूरे अध्यात्म जगत को एवं ज्ञान और विज्ञान दोनों को दे रहा है। मात्र इसलिए कि समाज सत्य को देखे कि हम उस भौतिकता की ओर न दौड़ें, मात्र इस रहस्य के लिए कि समाज समझ सके कि अगर अपने अन्दर सामर्थ्य लाना है तो हमें भौतिकतावाद की ओर नहीं दौडऩा है। हमें धर्म की ओर दौडऩा है, हमें उस इष्ट की ओर दौडऩा है, हमें माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा की ओर दौडऩा है, चूँकि हमें भौतिकतावाद की चीजों को समेटने के लिए तो भौतिक जगत की आवश्यकता है किन्तु आध्यात्म की क्षमता प्राप्त करने के लिये तो केवल आत्मा की क्षमता की जरूरत है और यदि कोई अपाहिज शरीर भी है तो उसमें भी चेतना उत्पन्न की जा सकती है। मुझे इस चैतन्य शरीर की भी जरूरत नहीं है, अगर मेरा शरीर अपाहिज भी हो जाये और मात्र जीवन चलने के लिए अगर केवल यह नाड़िय़ाँ व्यवस्थित रह जायें तो मैं वह कार्य बराबर उसी गति से कर सकता हूँ। आप स्वतः सोचें कि उन डाक्टरों, वैज्ञानिकों के लिए एक बहुत बड़े प्रयोगशाला की जरूरत होती है और योगी तो केवल अपनी आत्मशक्ति के बल पर वह कार्य करता है तथा जब आपके गुरु में यह सामर्थ्य है जिसका प्रमाण कई बार दिया जा चुका है अपने यज्ञों के माध्यम से बरसात करा कर, लोगों को जीवनदान दे कर, लोगों की बीमारियों को अपने शरीर में लेकर, तो वह क्रियायें आप भी कर सकते हैं। आवश्यकता है बढऩे की, आवश्यकता है अपने अन्दर निष्ठा जाग्रत करने की।
आज समाज जिन्हें कुत्ता, बिल्ली और जानवर कहता है, जिन्हें हेय दृष्टि से देखता है। जरा विचार करो कि उनमें पूर्वाभास करने की क्षमता कितनी समाहित है? एक कुत्ता, बिल्ली, सियार, पशु पक्षी बहुत पहले से अपनी भाषा के माध्यम से वह संकेत दे देते हैं कि कब कहां क्या घटना होने वाली है? और, एक मानव शरीर, जिसके लिये देवता भी तरसते हैं जो अपने आपको सबसे बड़ा ज्ञानवान समझता है जो अपने आपको बहुत बड़ा वैज्ञानिक समझता है उसकी क्या क्षमता है? वह एक मिनट बाद की घटना को भी नहीं देख सकता है और यह आपका गुरु कहता है कि पूर्वाभास की कौन सी घटना समाज मुझसे जानना चाहता है? आपका गुरु अनेकों बार वह प्रमाण दे चुका है और आवश्यकता पड़ी तो और प्रमाण दे सकता है। माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा के चरणों में समाज के उन नास्तिकों को घसीटने में मैं अपनी साधनात्मक क्षमता का कोई भी अंग न्यौछावर करने को तैयार हूँ। उस रास्ते में आपको बढ़ने की जरुरत है।
यह शिविर आज से दो महीने पहले मेरे द्वारा घोषित किया गया था। चूँकि मुझे ज्ञान था कि मुझे जन्म देने वाली मेरी माता का स्वर्गवास होना है और मैं उस क्रिया-कर्म में नहीं पहुँचूंगा। मुझे साधनात्मक शिविर का आयोजन करना है और मैंने पहले से ही दो दिन के शिविर का आयोजन किया कि इस समय मुझे अपनी साधनात्मक क्षमता को इस जिले, इस नगर में लुटाना है। एक गुरु जिस तरह अपनी साधनात्मक क्षमता को लुटाता है उसी तरह आपको अपने अन्दर साधनात्मक क्षमता को पैदा करना है और उस साधनात्मक क्षमता को जन-जागरण में लगाना है, देवी जागरण में नहीं। देवी तो स्वतः जाग्रत है, वह सोई ही कब थी..? क्या किसी ने उन्हें सोते हुये देखा है, जो कण-कण में मौजूद है? अरे! सोये हुये तो आप लोग हैं, सोया हुआ तो वह नास्तिक समाज है जो भौतिकवाद के ख्वाबों में खोया हुआ है और एक पल में उसका भौतिकवाद का सपना चकनाचूर हो जाता है, मगर आध्यात्मिक क्षमता कभी खत्म नहीं होती। आध्यात्मिक क्षमता ऋषि के कण-कण में समाहित होती है, रग-रग में समाहित होती है, उसके शरीर में स्पर्श होने वाले कण-कण में समाहित होती है। उस क्षमता को पाने के लिए समाज आगे बढ़े, देखे और अनुभव करे।
मेरे द्वारा इस वर्ष उस पंजज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम की स्थापना की जा चुकी है। वहां पर माता भगवती आदिशक्ति जगत जननी जगदम्बा का अखण्ड श्री दुर्गा चालीसा पाठ अनवरत अनन्तकाल के लिए चल रहा है। मैंने बहुत बड़े स्त्रोतों, मन्त्रों का सहारा लेकर समाज कल्याण का रास्ता नहीं दिया। एक दुर्गा चालीसा के पाठ का क्रम दिया है और आज वह रहस्य भी अवगत करा रहा हूँ कि जहां पर उस प्रकृत्तिसत्ता की मूल स्तुति आराधना हो रही है, आप लोग विषम से विषम परिस्थिति में हो, कोई तकलीफ हो, कोई मार्ग नजर न आ रहा हो, अपने घरों में माँ की अखण्ड ज्योति जला दें, कुछ भक्तों को बुलाकर माँ के श्री दुर्गा चालीसा का अखण्ड पाठ केवल 24 घण्टे के लिए करा दें और आप देखें कि आपकी समस्या का निदान अवश्य मिलेगा। मगर वह पाठ अखण्ड रामायण की तरह न हो। अखण्ड रामायण का फल है, मैं फल की बात नहीं कर रहा, मगर अखण्ड रामायण का पाठ लोग जिस तरह घरों में कराते हैं कि वहां पर पान, सुपाड़ी, लौंग, इलायची सब लाकर रख देंगे कि खाते जाओ, मुँह में भरते जाओ और रामचरितमानस का पाठ करते जाओ, यह सर्वथा गलत है। आपको श्री दुर्गा चालीसा का पाठ शुद्धता और सात्त्विकता से करना है कि आप लोग अपने मुँह में पान, सुपाड़ी या इस तरह की चीजें डालकर पाठ न करें। चूँकि किसी भी पाठ की शक्ति को प्राप्त करने के लिए मुख की शुद्धता नितान्त आवश्यक है। अगर लोग कुछ खाकर भी आ रहे हों तो पाठ में कुल्ला करके ही बैठें। जब तक आपका मुख शुद्ध नहीं होगा, तब तक आपके उच्चारण से आपकी ग्रन्थियों पर जो प्रभाव पडऩा चाहिए, वह प्रभाव पड़ेगा ही नहीं। अगर आप तम्बाखू खाये हैं, पान खाये हैं, तो उसका प्रभाव आयेगा। अतः श्री दुर्गा चालीसा का पाठ जब आप अपने घरों में करायें तो शान्ति के साथ करायें और माँ की कोई एक छवि रख लें, माँ की छवि के सामने अखण्ड ज्योति जला लें और श्री दुर्गा चालीसा के 24 घण्टे का अखण्ड पाठ करें। आप देखें कि आपके जीवन में स्वतः परिवर्तन आयेगा, आपके आस-पास के क्षेत्र में परिवर्तन आयेगा। इस तरह नाना प्रकार के परिवर्तन जो सतत् समाज में बढ़ते जायेंगे, उसका मूल केन्द्र पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम है। आवश्यकता है कि आप अपने बहुमूल्य जीवन से कुछ क्षण निकालकर उस आश्रम में एक बार उपस्थित हों, उस आश्रम के कण-कण को अपने मन-मस्तिष्क में बिठाने का प्रयास करें। कुछ नहीं बिठा सकते तो वहां पर जो मूल ध्वज है उसे अपने मन मस्तिष्क में बिठा लें और करोड़ों मील दूर रहकर भी आप जब विषम से विषम परिस्थिति में मात्र ध्वज का स्मरण करेंगे तो निश्चित ही उस ध्वज के माध्यम से आपको माँ की ऊर्जा अवश्य प्राप्त होगी, आपको माँ की कृपा अवश्य प्राप्त होगी। चूँकि आने वाले समय में वह दिव्य स्थल ही धर्म की धुरी साबित होगा। उस दिव्य स्थल से ही सैकड़ों हजारों सिद्ध साधक तैयार होंगे, कुण्डलिनी सिद्ध साधक तैयार होंगे।
मैंने कहा है कि जिस गुरु के जीवन का अतीत दूषित होता है वह अपने शिष्यों को जाग्रत नहीं होने देता है। आज यही कारण है कि जो बड़े-बड़े कथावाचक हैं, बड़े-बड़े भगवे वस्त्रधारी हैं उनका जीवन जब मैं ध्यान चिन्तन में बैठता हूँ, देखता हूँ तो वह समाज के सामने कुछ होते हैं और समाज से अलग कुछ और होते हैं। अनेकों प्रकार के भांग, मदिरा जैसे नशों में अपने आपको लिप्त रखते हैं और ऐसी स्थिति में न तो उनकी कुण्डलिनी जाग्रत होती है और न अपने शिष्यों की कुण्डलिनी जाग्रत कर सकते हैं। अतः ऐसे आडम्बरी, नशेड़िय़ों से बचने की आवश्यकता है। अपने घरों में माँ की आरती, चालीसा के पाठ करायें। अन्यथा आने वाले समय में यदि आप लोग अपने बच्चों को आगे न बढ़ा सके तो मेरे द्वारा स्वतः ऐसी ऊर्जा प्रवाहित की जायेगी कि मैं उस स्थान के प्रति एक ऐसा आकर्षण पैदा करूँगा कि आपके बच्चे आपका घर त्याग करके उस स्थान में पहुँचने लगेंगे। चूँकि एक ऋषि में क्षमता है वह आपके अन्दर भी हो सकती है। हर मनुष्य में एक चुम्बकत्व शक्ति होती है एक ऊर्जा की शक्ति होती है और अगर वह अपनी चुम्बकत्व शक्ति में पड़े मायारूपी बाहरी आवरण हटा दे और जिस दिशा का चिन्तन कर ले, तो वह ख्ंिाचता हुआ चला आयेगा। एक मैगनेट पॉवर होता है, मगर वह मैगनेट पॉवर केवल तपस्या के माध्यम से हासिल होता है, कुण्डलिनी चेतना जाग्रत करने से हासिल होता है, और उसका उपयोग केवल जनकल्याण के लिए किया जाता है, स्वकल्याण के लिए नहीं। और, मैंने जनकल्याण का वीणा उठाया है, उस सिद्धाश्रम की स्थापना करके, जन-जन में माँ की स्थापना करके और उसके बाद भी अगर समाज का सहयोग मुझे न मिला तो मेरा अखण्ड आसन उस स्थान पर लगेगा और एक ऐसा मैगनेट पॉवर खुलेगा, एक ऐसी ऊर्जा का प्रभाव फैलेगा कि आप लोगों के बच्चे घरों का त्याग करके उस स्थान पर पहुँचेंगे, तब आप लोग यह न कहें कि आप लोगों की पारिवारिक परम्परा, जन्म-मरण की परम्परा बाधित हो रही है, चूँकि मुझे जन-जन में माँ की चेतना जाग्रत करना है।
युवा वर्ग को आगे बढऩा है। जिस युवा वर्ग का शोषण हो रहा है, जिस युवा शक्ति का शोषण आज राजनीतिज्ञों द्वारा किया जा रहा है, जिस युवा वर्ग को आध्यात्मिक प्रवाह में डालना चाहिए, उन्हें राजनीतिक चक्रों में उलझा दिया जाता है। जिस युवा शक्ति को हमें शान्ति का पाठ पढ़ाना चाहिए, जिस युवा शक्ति के अन्तःकरण को हमें जाग्रत करना चाहिए, जो राजनीति समाज की रक्षक है उसे चाहिए कि ऐसी योजनायें बनाये कि युवा शक्ति की आत्मचेतना जाग्रत हो, वह आध्यात्मिक और भौतिक क्षेत्र में बढ़ सकें, सामर्थ्यवान बन सकें। उसके लिए कुछ नहीं किया जा रहा है, उसका शोषण अपने निजी लाभों के लिए किया जा रहा है। पहले 21 वर्ष में वोट डालने का अधिकार था, अब 18 वर्ष में कर दिया गया। कहीं ऐसा न हो कि गर्भ के अन्दर जो बच्चा हो, उसको भी अधिकार दे दिया जाये कि माँ दो बार वोट डाल सकती है। यह राजनीतिक चक्र, आज का राजनीतिक भविष्य, देश ही नहीं, विश्व का पूरा राजनीतिक ढाँचा चरमराया हुआ है और मैंने चार-पाँच वर्ष पहले ही कुछ शिष्यों के सामने कहा था कि मैं जिस क्षेत्र में जब चाहूँगा, हलचल मचा दूँगा। जिस राजनीतिक दल को चाहूँगा, सत्ता तक पहुँचा दूँगा।
इस शरीर को किसी राजनीतिक सत्ता की कामना नहीं, यह मात्र इसलिए एहसास करा रहा हूँ कि कहीं आप लोगों के चिन्तन में न आ जाये कि कहीं योगीराज शक्तिपुत्र किसी राजनीति से जुड़े तो नहीं। राजनीति मेरे जीवन का एक अंग है चूँकि जो धर्म क्षेत्र पर है, धर्म ने सदैव राजनीति का मार्गदर्शन किया है। हर राजसत्ता के पास एक धर्मगुरु होता था, केवल इसलिए कि राजनीति भटकने न पाये और आज राजनीति अपने कर्म से भटकी हुयी है, उसे दिशा देने के लिए आवश्यकता है कि धर्मतन्त्र जाग्रत हो। अपने अन्दर की ऊर्जा का ऐसा उपयोग किया जाये, दूसरे लोगों के मन मस्तिष्क पर ऐसे चिन्तन डाले जायें कि उनके जीवन में परिवर्तन आये। अगर सी.बी.आई. चाहे तो मैं राजनीतिक सत्ता के अनेकों ऐसे षड्यंत्रों के चिन्तन बता सकता हूँ अनेकों ऐसे रहस्य बता सकता हूँ कि जिन स्थानों पर वह छापा डाले, जिन स्थानों पर अपनी पकड़ करे, तो पूरा राजनीतिक नक्शा आइने के सरीखे सामने आ जायेगा और नहीं तो मेरे द्वारा तो वह कार्य किये ही जा रहे हैं कि जब एक राजनीतिक नंगा होगा तो वह दूसरे को भी नंगा करने का प्रयास करेगा, और वही क्रम चल पड़ा है। आप लोग भी प्रयास करें, अपने मन मस्तिष्क को लगा करके अपने क्षेत्र से जो आपकी सेवा करने के लिए तत्पर हों, जिनके अन्दर आपके क्षेत्र के विकास करने का चिन्तन हो, जो समाज की सेवा करना चाहते हों, उन्हें राजनीतिक क्षेत्र में बढ़ाने में सहयोगी बनें और अपने वोटों का सदुपयोग करें।
मैं किसी राजनीतिक सत्ता से या पार्टी से जुड़ा नहीं हूँ मगर जिस तरफ भी सत्य होगा, उस तरफ मेरा सहयोग होगा। दूसरी चीज जातीयता की जो खाईं आप लोगों के बीच पैदा की जा रही है, उससे बचें। राजनीतिक लोग आपके वोट बैंक के लिए आज समाज के बीच ऐसी खाई खोद रहे हैं जिसका बहुत ही भयावह स्वरूप मुझे दिखाई दे रहा है। जब मैं उस दिशा में भविष्य का चिन्तन करता हूँ तो अभी कुछ भी नहीं है किन्तु जो अब तक खाईं खोदी जा चुकी है उसमें ऐसा भयावह वातावरण आने वाले समय में पैदा होगा कि लोगों की आत्मा दहलेगी, अतः उसे विराम दे दें, कुछ परिवर्तन ले आयें। अपने अन्दर, अपने आस-पास भाईचारे का वातावरण पैदा करें। माँ की ज्योति जलाकर जातीयता के क्रमों को दूर करें। सभी को अपना मानें, सभी उसी प्रकृतिसत्ता के अंश हैं, सबके बीच जो भाईचारे का प्रेम है, उसे नष्ट न होने दें। आप लोग जिस तरह पहले अपने गाँव समाज में, पास पड़ोस में सभी जातियों के लोग प्रेम से रहते थे, वह दुश्मनी में परिवर्तित होने न पाये। उसके लिए आपको कर्म करना है। जो भटके हैं अगर कुछ समय आपको गालियां भी देते हैं तो उन गालियों को बर्दाश्त करके सामंजस्यपूर्ण वातावरण पैदा करें और माँ की ज्योति घर-घर में जलायें। एक चिन्तन दिया गया है कि आप माँ के चेतना मन्त्रों का जाप करें। ‘ॐ जगदम्बिके दुर्गायै नमः’, मन्त्र के बारे में बताया गया है कि आपको किसी मन्त्र का ज्ञान नहीं है, आप मेरे शिष्य हों या न हों, आप अगर इस मन्त्र का जाप करेंगे तो आपका कल्याण अवश्य होगा। आप कोई विधि विधान न जानते हों, आप कोई धर्म कर्म के कार्य न जानते हों, केवल माता भगवती से कृपा प्राप्त करने का चिन्तन हो, ललक हो और इस मन्त्र का आप जाप करेंगे तो आपको लाभ अवश्य मिलेगा।
उसी तरह एक शक्ति चक्र मेरे अपने चिन्तन के माध्यम से तैयार कराया गया है जिस पर मेरी साधनात्मक ऊर्जा समाहित है। उन शक्ति चक्रों को आप अपने घरों में लगायें और केवल आप ध्यान में बैठकर अपनी अगर बीमारियों को भी दूर करना चाहते हैं तो भी सहायक हो सकता है। आत्मजागरण करना चाहते हैं तो भी सहायक हो सकता है। आप किसी धर्म कर्म को नहीं मानते हैं तो भी वह सहायक होगा। चूँकि वह शक्तिचक्र, जिसको मैं अपने यहाँ तैयार कराता हूँ, उसमें मेरा चिन्तन जुड़ा होता है। उन नास्तिकों के लिए भी वह आत्मजागरण में सहायक होगा। उस शक्तिचक्र को अपने से तीन-चार फिट की दूरी पर लगा दें और एकाग्र हो करके मेरुदण्ड को सीधा करके बैठें और केवल नेत्रों के माध्यम से एकटक उसमें देखें और जब ध्यान लगायेंगे तो आपकी कुण्डलिनी चेतना में थिरकन स्वतः ही होने लगेगी। आपके नेत्रों में एक विशेष प्रकार की ऊर्जा पैदा होगी, वह ऊर्जा जो जनकल्याणकारी होगी। समाज उस ऊर्जा को दुरुपयोग के चिन्तन से लेता है और यही कारण है कि कोई भी उस ऊर्जा को सिद्ध नहीं कर पाता है। अनेकों पुस्तकें मुझे पढ़ने को मिलीं कि त्राटक को वह सम्मोहन मानते हैं। मैं कह रहा हूँ कि कोई त्राटक करने वाला सम्मोहन करके दिखा तो दे! त्राटक केवल लोगों की ऊर्जा को जाग्रत करने में सहायक है, ग्रन्थियों को खोलने में सहायक है। त्राटक का अगर दुरुपयोग होने लगता है तो उसके नेत्रों में स्वतः दोष आता चला जाता है और ऊर्जा दबती चली जायेगी। आज अगर आप लोग भी चाहें, समाज के लोग भी चाहें, वह युवा वर्ग भी अगर चाहे तो शक्ति चक्र का उपयोग करके त्राटक के माध्यम से अपनी चेतना, अपनी क्षमता को बढ़ा सकता है, अपने अन्दर एक अलौकिक ऊर्जा पैदा कर सकता है। उस शक्ति चक्र के बारे में मैंने अवगत करा रखा है कि कोई भी पहले एक घण्टे, आधा घण्टे का त्राटक कम से कम छः महीने सिद्ध कर ले और उसके आगे के क्रम का ज्ञान मुझसे आकर प्राप्त कर सकता है। आत्मजागरण में हमें कौन-कौन सी क्रियायें सहायक होंगी, उनका ज्ञान प्राप्त कर सकता है। कुण्डलिनी चेतना जाग्रत करके हमें क्या कर्म करना चाहिए, किस प्रकार का चिन्तन बनाना चाहिए, कैसे हम लोगों को लाभ दे सकते हैं, इसका ज्ञान प्राप्त कर सकता है। चूँकि यह तो एक अलौकिक क्षमता है, चाहे जितना लुटायें, कभी खर्च होती ही नहीं, केवल सदुपयोग करने की जरूरत होती है। एक ऐसी क्षमता जिसकी तुलना किसी चीज से की ही नहीं जा सकती।
मैंने कहा है कि मेरा सर्वस्व छीन लो और मुझे रेगिस्तान में बिठा दो तो भी मैं लाखों-करोड़ों को भोजन करा सकता हूँ, जहाँ पर कोई सहयोग करने वाला हो या न हो, वहाँ पर बड़े-बड़े भवन खड़े कर सकता हूँ और वही यात्रा तो मेरे द्वारा चलाई जा रही है। इन पाँच वर्षों में देखें कि मुझे समाज ने क्या सहयोग दिया? घर-परिवार ने क्या सहयोग दिया? और यह बड़े-बड़े आयोजन जो अखण्ड भण्डारा मेरे द्वारा कराया जाता है, आश्रम का निर्माण चल रहा है, समाज ने कितना सहयोग दिया? शिष्य चाहें तो अपनी साधनात्मक क्षमता को जाग्रत करके देख सकते हैं कि गुरु कोई कार्य हाथ में ले लेता है तो उसे पूरा कैसे करता है? उसके धन की पूर्ति होती कैसे है? वही क्रिया तो मैं आप लोगों को भी सिखा रहा हूँ, कि आप अपने अन्दर की क्षमता को जाग्रत करें और उसके लिए आवश्यक है कि आपको अपनी आत्मशक्ति को जाग्रत करना पड़ेगा, आडम्बरों से अपने आपको कुछ हटाना पड़ेगा। बेमतलब की चीजों में अपना समय नष्ट करने की जरूरत नहीं। कोई ताश खेल रहा है कोई जुआ खेल रहा है, तो कोई शराब पीकर मस्त पड़ा है। उससे आपके हाथ लगेगा क्या? अगर आप रह सकें तो नशामुक्त जीवन जियें, उस अलौकिक क्षमता को जाग्रत करें। मैंने कहा है कि मेरे जीवन का एक-एक पल समाज के लिए साधनात्मक क्षमता का प्रमाण होगा कि समाज देखता चला जाये कि एक भी रुपये का समाज सहयोग न करे, फिर भी मैं उस पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम धाम में करोड़ों अरबों का आश्रम बनवा करके जाऊंगा, माँ की कृपा से सब कुछ सम्भव है।
यह मेरे जन्म स्थान का जिला है। इस क्षेत्र की जनता अगर चाहे तो देख सकती है, कि मेरा जन्म कहां और किस स्थान पर हुआ है और मेरे परिवार के लोगों से जानकारी भी ले सकते हैं कि घर से मैंने किसी प्रकार का आर्थिक सहयोग तो नहीं लिया? मेरे समाज में जितने शिष्य है उनसे जानकारी ले लें कि किस-किस कार्यक्रम में आप लोग कितना सहयोग करते हैं और फिर भी गुरूजी का कार्य चलता कैसे है? अरे उस माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा के चरणों में सभी तरह के भण्डार भरे पड़े हैं, आपको केवल प्राप्त करने की क्षमता का ज्ञान तो आ जाये? माँ तो लुटाने के लिए बैठी हैं। जाग्रत अवस्था में बैठी है, सुप्तावस्था में नहीं। आप लोग स्वतः सोये हुये हैं, आप अपनी चेतना को जाग्रत करें तो आपको ज्ञान हो जायेगा कि अगर ब्रह्म ग्रन्थि, विष्णु ग्रन्थि और शिव ग्रन्थि को जाग्रत कर लें तो विष्णु जी किस प्रकार पालन करते हैं? कौन सी क्रिया का उपयोग करते हैं कि जहां चाहें वहाँ पर भौतिकतावाद का वातावरण पैदा कर दें, बड़े-बड़े भण्डारों की पूर्ति कर दें। वही तो मेरे आश्रम में अन्नपूर्णा की कृपा है। मैंने कोई अलग से अन्नपूर्णा की साधना नहीं की, केवल माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा के चरणों की साधना की है और अन्नपूर्णा की कृपा तो मुझे माँ की कृपा से स्वतः प्राप्त हो गयी है। मैंने कहा है कि मैं जब एक बार भण्डारे को शुरू करा देता हूँ तो मेरे भण्डारे में कमी नहीं आती। भण्डारा का तात्पर्य यह नहीं होता कि गंजे (बर्तन) में कितना बना रखा है। भण्डारा का तात्पर्य है कि मैं अगर चार बोरे भी किसी जगह रखा दूंगा तो चार सौ बोरे तक निकालने के बराबर वहीं से निकालकर देता जाऊंगा, उस भण्डार में कमी नहीं आयेगी। यह कृपा अन्नपूर्णा की कृपा से प्राप्त होती है, माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा की कृपा से प्राप्त होती है। उसी इष्ट को, जिसे मैंने कहा है कि आप लोग इष्ट के रूप में माता भगवती को स्वीकार करें, जिन्होंने ब्रह्मा, विष्णु, महेश को जन्म दिया, जिन्होंने महालक्ष्मी, महासरस्वती, महाकाली को जन्म दिया। जरा सोचें उसी प्रकृतिसत्ता के अंश आप हैं। आपके अन्दर महासरस्वती, महाकाली, महालक्ष्मी की ग्रन्थियाँ समाहित हैं। फिर भी आप अपाहिजों और बेसहारों का जीवन जीते हैं, तकलीफों का जीवन जीते हैं, क्यों? केवल इसलिये कि आप सत्य मार्ग पर गये नहीं, सत्यमार्ग को पकड़ा नहीं। आप केवल कथावाचकों के बीच नाचते रह गये। कथावाचकों के रहस्यों का ज्ञान करना है तो समाज के लोग मेरे सामने आयें और मैं बता दूँगा उन कथावाचकों के बारे में, कि आप लोग किस समय कहां उपस्थित हों और देखें कि उनका जीवन कैसा है? मैं नहीं कह रहा कि सभी ऐसे हैं मगर 90 प्रतिशत तक सत्यता बता रहा हूँ। वो आपका क्या कल्याण करेंगे?
आपको किसी जगह भटकने की जरूरत नहीं। अगर आप मेरे चिन्तनों को पकड़ सकें, मेरी आवाज को भी सुन सकें, मेरे उन क्रमों को पकड़ सकें, तो कोई जरूरी नहीं कि आप मेरे शिष्य बनें। मैं समाज को शिष्य बनाने नहीं आया। अरे! मेरा तो पूरा समाज ही अपना है। जब मैं उस प्रकृतिस्वरूपा की आराधना करता हूँ तो प्रकृति का कण-कण मेरा अपना है। मैं तो सर्वस्व प्रकृति मान करके सेवा में जाता हूँ, अपना सर्वस्व न्यौछावर करने आया हूँ। जो प्रकृति का है, प्रकृति के कार्य में लगा रहा हूँ। मुझे किसी चीज की आवश्यकता नहीं, बल्कि मैं चाहता हूँ कि समाज आस्था और विश्वास के साथ उस दिशा में बढ़ सके। मुझे प्रवचन देने की आवश्यकता नहीं। आने वाले समय में पता नहीं मुझे किस तरह ध्यान योग में बैठना पड़े, क्योंकि मेरी क्रियायें अधिकतर ध्यान योग के माध्यम से जुड़ी हैं, अन्तरंग योग से जुड़ी हैं। मुझे किसी बाह्य उच्चारण की आवश्यकता नहीं होती, चूँकि ध्यान योग में गया साधक अपनी सभी क्रियायें ध्यान योग के माध्यम से करता है।
आप लोग उन क्रमों को पकड़ें, चिन्तनों को पकड़ें और कम से कम ध्यान की प्रारम्भिक अवस्था को सीखें, उससे आपका कल्याण होगा। आपको सत्य का मार्ग मिलेगा। आडम्बर में, उन उलझनों में आप स्वतः उलझकर न रह जायें। सत्य तलाशने के लिए अपनी बुद्धि का उपयोग करें। अगर आपको कहीं गुरु की तलाश करना है, मार्ग तलाशना है तो भटकने की जरुरत नहीं, आप अपने घर में मात्र ‘माँ’ की आराधना शुरू कर दें, माँ आपको स्वतः चिन्तन देंगी। चाहे स्वप्र के माध्यम से हो, चाहे किसी संकेत के माध्यम से हो, आपको वह प्रकृतिसत्ता जरूर चिन्तन देंगी कि आपको कहाँ जुडऩा है और कहां से आपका कल्याण होगा? इन क्रमों को आप अपनाकर चलें और यह शिविर आप लोगों के लिए कल्याणकारी होगा। इन्हीं शब्दों के साथ अपना पुनः और बारम्बार आशीर्वाद आप लोगों को समर्पित करता हुआ माता आदिशक्ति जगत जननी जगदम्बा की आरती करने की ओर अग्रसर कर रहा हूँ।

बोलो जगदम्बे मातु की जय।

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