जगज्जननी की आराधना ही क्यों?

प्रवचन शृंखला क्रमांक -125, शारदीय नवरात्र शिविर, सिद्धाश्रम धाम, 20.10.2007

आज नवरात्र की नवमी तिथि के अति महत्त्वपूर्ण पर्व पर इस शिविर में उपस्थित अपने समस्त शिष्यों, ‘माँ’ के भक्तों एवं शिविर व्यवस्था में लगे हुये अपने समस्त कार्यकर्ताओं को अपने हृदय में धारण करता हुआ माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा का पूर्ण आशीर्वाद प्राप्त करता हुआ अपना पूर्ण आशीर्वाद आप समस्त लोगों को समर्पित करता हूँ।

            शिविर के प्रथम दिवस आप लोगों को भक्ति, ज्ञान और आत्मशक्ति के चिन्तनों की ओर ले जाने का प्रयास किया गया। वास्तव में यदि आप लोग धर्मपथ पर बढ़ना चाहते हैं, सत्यपथ पर बढ़ना चाहते हैं, तो सबसे पहले आपको किस चीज की आवश्यकता है? वह कौन सी एक विचारधारा है, जिस पर चल करके समस्त कामनाओं की पूर्ति होती है? वह ऐसा कौन सा मार्ग है, जिस मार्ग को या जिस विचारधारा को लेकर हम प्रकृतिसत्ता की आराधना करें? इसके लिये मेरे द्वारा आप लोगों को अवगत कराया गया कि केवल ‘‘भक्ति, ज्ञान और आत्मशक्ति’’, ये तीन शब्द, जो बड़े छोटे और सामान्य से लगते हैं, इन तीन शब्दों में सब कुछ सार समाहित है। हम यदि प्रकृतिसत्ता की आराधना करना चाहते हैं, अपने किसी भी इष्ट या देवी-देवताओं की आराधना करते हैं, तो हमें नाना प्रकार की कामनाओं को बार-बार रखने की आवश्यकता नहीं होती। केवल तीन चीजों की कामना करें- ‘‘भक्ति, ज्ञान और आत्मशक्ति’’।

मेरे द्वारा आप लोगों को अवगत कराया जा चुका है कि अष्टमी भक्ति प्रदाता दिवस होता है। माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा की आराधना में जो भक्ति की कामना करते हैं, माता से जो केवल भक्ति की चाहत रखते हैं कि ‘माँ’ हमें कुछ दे सकती हो, तो ऐसी भक्ति प्रदान करो जो अटूट हो, तो अष्टमी का दिन अति महत्त्वपूर्ण होता है, जबकि नवमी का दिन ज्ञानप्रदाता दिवस है। वैसे तो नवरात्र में नौ अलग-अलग देवियों की आराधना की जाती है, दसों महाविद्याओं की आराधना की जाती है। नवरात्र में आप ‘माँ’ के किसी भी स्वरूप की आराधना प्रारम्भ करें, आप ‘माँ’ शब्द की गहराई को केवल समझें। चूँकि आपकी विचारधारा जब तक उस तथ्य तक नहीं जायेगी, तब तक आपके विचार इधर-उधर भटकते रहते हैं कि हम ‘माँ’ के किस रूप की आराधना करें, ‘माँ’ से किस प्रकार की कामना करें, ‘माँ’ की आराधना में हमसे कहीं किसी प्रकार की कोई न्यूनता तो नहीं हो रही है?

‘माँ’ की आराधना से सरल, सुगम और सहज आराधना, त्रिभुवन में दूसरी कोई नहीं है और न ही कोई इष्ट है जो ‘माँ’ के समान हम पर कृपा बरसा सके। यह एक अटल सत्य है कि हमारी, आपकी व समस्त लोगों की आत्मा की मूल जननी माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा हैं। हिन्दू हो, मुस्लिम हो, सिक्ख हो, ईसाई हो, सभी के अन्दर आत्मतत्त्व एक समान बैठा हुआ है। और, जो शिष्य अमृत बूँदों की बात कर रहे थे, क्योंकि शिष्यों की कामनायें होती हैं, शिष्यों की अपनी विचारधारा होती है, तो सबसे बड़ा जो अमृत का अथाह सागर है, वह मेरे और आपके सभी के हृदय में स्थापित है। जिस आत्मतत्त्व की ओर मैं आप लोगों को लेजाना चाहता हूँ और विगत वर्षों से मेरे द्वारा जो लगातार चिन्तन दिये गये, उन चिन्तनों में उस क्षेत्र के संकेत हैं।  आध्यात्म क्षेत्र में बढ़ने के लिये जो विचारधारा चाहिये, पिछले दस-ग्यारह वर्षों के मेरे उन चिन्तनों में समस्त विचारधारा आप लोगों को दी गई है। 

सत्यपथ पर बढ़ने के लिये, धर्मपथ पर बढ़ने के लिये जब तक आप साधक नहीं बनेंगे, तब तक आपके अन्दर पात्रता आ ही नहीं सकती। चूँकि कर्म का फल प्राप्त होता है और कर्म में जब तक हमारे शरीर का उपयोग नहीं होगा, हम केवल एक श्रोता बन करके कथायें और कहानियाँ सुनते रहेंगे, तो हमारे अन्दर एक भावपक्ष जाग्रत् होगा और भावपक्ष बड़ी सरलता से नष्ट भी होजाता है। मगर जो हमारी सुषुम्ना नाड़ी है, सत, रज, तम हैं, स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर के बीच जो स्थिति है, उसको चेतनावान् बनाने के लिये केवल एक पथ है- साधनापथ। जिस प्रकार भोजन यदि नाना प्रकार का बाहर रखा हुआ हो, हम भोजन के बारे में बहुत कुछ जानते हों, सुनते हों कि हम गेहूँ से इस प्रकार आटा बना लेंगे, इस प्रकार बेल करके पूडिय़ाँ बना लेंगे और उसे खायेंगे, तो हमारे शरीर को इस प्रकार की तृप्ति होगी। चना हमारे लिये इस प्रकार का पौष्टिक तत्त्व है, हरी सब्जी हमारे लिये इस प्रकार का पौष्टिक तत्त्व प्रदान करती है। नाना प्रकार का ज्ञान आप क्यों न लिये बैठे हों, नाना प्रकार की थाली आपके सामने क्यों ही न सजी पड़ी हों, मगर हमें तृप्ति तभी मिलेगी, जब उस भोजन को हम मुख के माध्यम से अपने शरीर के अन्दर ले जायेंगे।

जिस तरह अन्न का एक दाना आपके शरीर के अन्दर जाता है, आपको तृप्ति प्रदान करता है, स्थूल को तृप्ति देता है और खून में परिवर्तित होकर एक लम्बे अन्तराल तक आपके साथ कार्य करता रहता है। उसी तरह यदि एक पल भी आप सात्विकता से गुजारते हैं, एक मन्त्र का भी यदि आप उच्चारण करते हैं, चूँकि इन मन्त्रों की रचना केवल देखने मात्र के लिये नहीं की गई, मन्त्रों की रचना सामान्य रूप से केवल किसी इष्ट को प्रसन्न करने के लिये नहीं की गई। इन मन्त्रों के पीछे ऋषियों-मुनियों की हज़ारों-हज़ारों सालों की तपस्या-साधना जुड़ी हुई है। इन मन्त्रों में शब्दों का चयन ही इस प्रकार किया गया है कि इनके मानसिक उच्चारण करने मात्र से हमारी चेतना जाग्रत् होती हैं, हमारी सुषुम्ना नाड़ी चैतन्य होती है। सुषुम्ना नाड़ी हमारे जीवन का आधार है। प्राणवायु हमारी सुषुम्ना नाड़ी से ही सक्रिय रूप से पूरे शरीर की समस्त कोशिकाओं में संचालित होती है। जिस तरह हमें बाह्य क्रम से ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है, उससे कई गुना ज्यादा हमें प्राणवायु की आवश्यकता होती है। हम ऑक्सीजन के फलस्वरूप जीवन नहीं जी रहे, बल्कि प्राणवायु के फलस्वरूप जीवन जी रहे हैं। अन्यथा, जब हमारी प्राणवायु समाप्त होजाती है, तो डॉक्टर नाना प्रकार से आपके शरीर में ऑक्सीजन की व्यवस्था क्यों न करते रहें, फिर भी आपका जीवन समाप्त होजाता है।

जब तक आपकी प्राणवायु आपके शरीर की समस्त कोशिकाओं में सक्रिय रूप से कार्य करती रहेगी, तब तक आपकी चेतना बनी रहेगी। यह आपके ऊपर है कि आपके शरीर की जो असंख्य कोशिकायें हैं, उन कोशिकाओं को आप कितना चैतन्य बना पाते हैं? हमारी कुण्डलिनीशक्ति जितनी चैतन्य होती जाती है, उतने हमारे विषय-विकार स्वाभाविक रूप से दूर होते चले जाते हैं। प्राणवायु हमारी जिन-जिन कोशिकाओं को स्पर्श करती जाती है, जिन-जिन कोशिकाओं को पूर्ण चैतन्य बनाती जाती है, उतनी हमारे शरीर में अलौकिकता, चैतन्यता स्वाभाविक रूप से आती चली जायेगी और विषय-विकार दूर होते चले जायेंगे। इसके लिये जो मार्ग तय करना है, वही मैंने बतलाया है कि भक्ति, ज्ञान और आत्मशक्ति के अलावा दूसरा कोई मार्ग नहीं है। अत: उस प्रकृतिसत्ता से भक्ति की कामना करें, ज्ञान की कामना करें और आत्मशक्ति प्राप्त करने का हमारा एक भाव होना चाहिये। तीनों के बारे में संक्षिप्त सा चिन्तन मैं पूर्व में दे चुका हूँ। आज ज्ञान की बात कर रहा हूँ कि आपको माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा से जिस तरह भक्ति की कामना करनी चाहिये, उसी तरह से ज्ञान प्राप्त करने की ललक होनी चाहिये कि हे ‘माँ’ यदि आप हमें कुछ दे सको, तो भक्ति दो, वह ज्ञान दो, जो हमारी आत्मा और आप (प्रकृतिसत्ता) के बीच के सम्बन्धों को जोड़ सके, हमारी अज्ञानता को दूर कर सके।

जिस तरह हज़ारों वर्षों से किसी बन्द कोठरी में अन्धकार बैठा हुआ है, उस कोठरी में एक प्रकाश की किरण जाती है और अन्धकार दूर भाग जाता है। उसी तरह हमारे जीवन का अन्धकार तभी दूर भाग सकेगा, हमारे जीवन के कष्ट तभी दूर भाग सकेंगे, जब हम उस प्रकृतिसत्ता से तार जोड़ सकेंगे। आप कहेंगे कि प्रकृतिसत्ता तो कण-कण में मौजूद है, फिर भी क्या प्रकृतिसत्ता से हमारे तार जुड़े ही नहीं हैं? प्रकृतिसत्ता से तार सभी से जुड़े हैं, मगर तार का यदि कनेक्शन हटा हुआ हो, तार पर यदि कालिख आ जाये, तो कई बार तार में करेण्ट प्रवाहित होना बन्द होजाता है। उस प्रकृतिसत्ता से सम्बन्ध, उस प्रकृतिसत्ता से चेतनातरंगें प्राप्त करने के लिये या प्रकृतिसत्ता ने हमें जो आत्मारूपी अंश हमारे शरीर में बैठा रखा है, उसकी चेतनातरंगों को प्रभावक रूप से हमको उपयोग करने के लिये, जब तक सुषुम्ना नाड़ी को चैतन्य और प्रभावक नहीं बनायेंगे, तब तक वे चेतनातरंगें, जिन्हें ‘माँ’ ने हमको पहले से दे रखा है, न हम उनका उपयोग कर सकते हैं और न ही ‘माँ’ से हम और आशीर्वाद पाने के अधिकारी बन सकते हैं।

हम अनेकों मन्दिरों में जायें, गिड़गिड़ायें, हाथ जोड़ें, प्रार्थना करते रहें, उससे हमें कुछ लाभ नहीं प्राप्त होता। क्षणिक हमारे भावपक्ष जाग्रत् होते हैं, जिससे आंशिक रूप से हमारे भावों का लाभ प्राप्त हो पाता है। पूर्णत्त्व का फल प्राप्त करने लिये, हमको अपने पूर्णत्त्व के चेतनाअंश को चैतन्य बनाने के लिये हमारे अन्दर ललक होनी चाहिये। उस ज्ञान को हासिल करने की एक तड़प होनी चाहिये और उसी के लिये मैंने वह क्रम बताया है, जो पूर्व में मेरे द्वारा एक संक्षिप्त सा चिन्तन दिया गया था ॐ और ‘माँ’ के विषय में, जो एक आम व्यक्ति के लिये आवश्यक है। जो ग्रामीण जीवन जी रहा है, अनपढ़ है और ज्यादा कुछ बोल नहीं पाता, धर्मग्रन्थों के बारे में ज्यादा कोई जानकारी नहीं है, किसी प्रकार की अपने या परमात्मा के बारे में कोई जानकारी नहीं है, उसके लिये भी ‘माँ’ और ॐ कितने आवश्यक हैं? जितने आवश्यक उसके लिये हैं, उतने ही एक चैतन्य योगी के लिये हैं, जिसने अपनी पूर्ण चैतन्यता को जाग्रत् कर लिया है, उसके लिये भी यह दो शब्द उसी तरह सहायक हैं।

 एक ऐसी साधना जो सबके लिये नितान्त आवश्यक है। यह साधना न हिन्दू की है, न मुस्लिम की है, न सिक्ख की है और न ईसाई की है, यह साधना मानव की साधना है। आत्मचेतनातरंगों को चैतन्य बनाने के लिए जो मानवशरीर हमें मिला हुआ है, इस मानवशरीर को उस परमसत्ता से एकाकार करने के लिये या इस मानवशरीर को पूर्णत्त्व मानव के स्वरूप में लेजाने के लिये वह जो एक बहुमूल्य धरोहर है, वह प्रकृति का मूल शब्द ‘माँ’ है और द्वितीय शब्द ॐ है।  इन शब्दों का चूँकि गहराई से किसी ने शोधन नहीं किया और जब तक हम शोधन नहीं करते, किसी मन्त्र को पढ़ लेने मात्र से हम मन्त्र के ज्ञाता नहीं बन जाते।

किसी मन्त्र की गहराई या उस मन्त्र के इष्ट से जब तक हमारा एकाकार न हो, तब तक उस मन्त्र की शक्ति का हम एहसास नहीं कर सकते कि मन्त्र की वास्तविक शक्ति क्या है? जिस तरह माँ बोल देने मात्र से माँ और पुत्र के सम्बन्ध नहीं जुड़ जाते। माँ शब्द की गहराई क्या है? जब तक हम पूरी गहराई को नहीं समझते कि माँ शब्द के कहते ही माँ और पुत्र के बीच का प्रेम, स्नेह, माँ की ममतामयी कृपा जब तक हमारे चारों तरफ  छा सी न जाये, तब तक हम माँ शब्द की गहराई को नहीं समझ सकते कि माँ शब्द कह लेने मात्र से पूर्णत्त्व नहीं होजाता। उन ऋषि-मुनियों ने तो शोधन किया, अपने शरीर को तपाया और समाज को वह बहुमूल्य बीज मन्त्र दिये कि ‘माँ’ और ॐ में वह सब कुछ सार समाहित है कि आप किसी भी मन्त्र का जाप न करें, किन्हीं भी धर्मग्रन्थों का आपको कुछ भी ज्ञान न हो, केवल इन्हीं दो शब्दों से प्रारम्भ करके अपने जीवन की अन्तिम अवस्था तक पूर्णत्त्व तक पहुँचने के लिये ये दो बीज मन्त्र पूर्णत्त्व प्रदान कर सकते हैं।

शरीर की रचना में ‘अ’कार, ‘उ’कार, ‘म’कार में स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर हैं। जब हम माँ शब्द का उच्चारण करते हैं और ॐ शब्द का उच्चारण करते हैं, तो इससे हमारे शरीर में मन्थन होता है। चूँकि जिस तरह किसी पाइप में या किसी बोतल में गन्दगी भर गई हो, तो अगर हम उसमें थोड़ा सा पानी भर करके किसी तरह हिलाते हैं, तो वह बिल्कुल साफ  होजाता है। उसी तरह हमारी सुषुम्ना नाड़ी भी चैतन्य होती है, चूँकि सुषुम्ना नाड़ी ही मनुष्य की ऐसी नाड़ी है, जो मनुष्य के कर्मों से प्रभावित होती है। उसे अन्य किसी माध्यम से न विज्ञान चैतन्य कर सकता है, न अन्य और कोई माध्यम सहायक हो सकते हैं। उसके शोधन के लिये ‘माँ’ और ॐ मात्र ये दो बीज मन्त्र हैं।

अनेकों लोग भटक रहे हैं कि गृहस्थों को ॐ का उपयोग नहीं करना चाहिये। ये उनकी केवल अज्ञानता है। वे समझ ही नहीं पाते कि ॐ का विस्तार क्या है? ‘माँ’-ॐ में पूरी सृष्टि समाहित है, इनमें पूरा सार समाहित है। ॐ का जिस तरह ऋषि-मुनि जाप कर सकते हैं, उसी तरह गृहस्थ भी जाप कर सकते हैं। ॐ से तो हमें प्रकृतिसत्ता तक पहुँचने का मार्ग मिलता है। चैतन्य अवस्था में जब हम मेरुदण्ड को सीधा करके ॐ शब्द का उच्चारण करते हैं, तो ॐ के माध्यम से बाह्यक्रम में जिस तरह से हमें अपने माता-पिता के पास जाना है और हम उनकी गोदी में बैठते हैं, तो हमें एक आनन्द की अनुभूति का एहसास होता है, उनके स्नेह का हाथ यदि स्पर्श होजाता है, तो एक आनन्द की प्राप्ति होती है। उसी तरह हमारे अन्दर आत्मतत्त्व बैठा हुआ है, हम बाहर का स्थूल का जीवन जी रहे हैं। इसमें प्राणवायु इतनी अधिक सक्रिय नहीं है, जितनी कि सूक्ष्म और कारण शरीर में होती है। जितना हम उसके नजदीक जायेंगे, उतना ही हमारे जीवन में तृप्ति आयेगी, आनन्द आयेगा। ॐ शब्द का जब हम उच्चारण करते हैं, कई लोग कहते हैं, चूँकि अभी कुछ समय पहले मैं एक चिन्तन सुन रहा था, जिसमें कह रहे थे कि सृष्टि के विनाश के लिये ॐ का शिव ने उच्चारण किया था। उनकी इससे बड़ी अज्ञानता और क्या होगी? आज तक इस पर शोध ही नहीं किया गया।

 विज्ञान चाहे तो इन शब्दों पर शोध करके देखे कि एक व्यक्ति जो जरूरत से ज्यादा अशान्त हो, असन्तुलित हो, ॐ शब्द का जब उच्चारण करेगा, तो ॐ से वह धीरे-धीरे गहराई की ओर जाता है, शान्ति की ओर जाता है। स्थूल से सूक्ष्म और सूक्ष्म से कारण की ओर होता हुआ उस आत्मतत्त्व की ओर उसकी चेतनातरंगें जाती हैं। यह मन्त्र आपको बरबस खींच लेगा। अन्न का एक दाना जिस तरह आपके शरीर में चला जायेगा, तो चाहे न चाहे आपको तृप्ति मिलेगी ही मिलेगी। उसी तरह जब आप ॐ का उच्चारण करेंगे, तो ॐ से आपका जो चिन्तन बाहर से जुड़ा हुआ होता है, आपके विचार जो बाहर भटक रहे होते हैं, उनसे आप धीरे-धीरे अन्दर की ओर प्रवेश करते हैं। ‘अ’कार, ‘उ’कार से होते हुये ‘म’कार में पहुँच जाते हैं। अन्दर आते हैं, स्थूल, सूक्ष्म और कारण में चेतनातरंगें पहुँचती हैं।

सुषुुम्ना नाड़ी में जो हमारी कुण्डलिनीचेतना बैठी हुयी है, आप तत्काल कुण्डलिनीचेतना जाग्रत् करना चाहते हैं, जबकि यह एक लम्बी प्रक्रिया है और इतनी सरलता से हासिल नहीं हो सकती है। मगर उसमें चेतनातरंगें जाग्रत् करने का एक सुराख, एक किरण प्राप्त होजाये, तो सब कुछ प्राप्त होजाता है। इसीलिये मेरे द्वारा बार-बार कहा जाता है कि कहानियों-किस्सों में न पड़ो। मैं अगर कहानियां-किस्से सुनाने के मार्ग में चला जाऊँगा, तो अनेकों ग्रन्थ शास्त्रों से चाहे जो एक कहानी ले लूँ और दिन भर सुनाता रहूँ और तुम सुनते रहोगे, मगर धीरे-धीरे उन क्रियाओं को सीखने की जरूरत है कि नवरात्र पर्व आदि में इन साधनाओं को किया जाये, तो कई गुना ज्यादा फल प्राप्त होता है। चूँकि इनमें स्थूल जगत् का भी पूरा वातावरण साधनामय होता है और ऋषि-मुनि, साधु-सन्त, संन्यासी, जिनकी भावना समाजकल्याण के लिये होती है, ये जो महत्त्वपूर्ण तिथियाँ होती हैं, उनमें वो उसी भावना से अपनी चेतना समाज में प्रवाहित करते हैं और उन्हीं भावों से प्रकृतिसत्ता हम पर उन विशेष नक्षत्र-मुहुर्तों में प्रसन्न होती है।

ॐ का जब हम उच्चारण करते हैं, तो ॐ से ही हम स्थूल, सूक्ष्म और कारण में धीरे-धीरे जाते हैं और जब माँ का उच्चारण करते हैं, तो माँ से हम ऊपर की ओर शक्ति को खींचते हैं। माँ शब्द में पुकार है।  सामान्य जीव-जन्तुओं में भी, पशुओं के जन्म लेते हुये बच्चा भी जब वह पहली अपनी ध्वनि उच्चारित करता है, विज्ञान उसमें यदि गहराई से शोध करे, तो माँ शब्द ही उच्चारित होता है। एक आकर्षण, किसी को खींचने का आकर्षण। इस शब्द में ही आकर्षण छिपा हुआ है कि अपने से बाहर जिससे हम जुड़े हुये हैं, जिससे तार जुड़ा हुआ है, उससे हम कुछ प्राप्त करना चाहते हैं, उसके नजदीक जाना चाहते हैं, उसको अपने पास बुलाना चाहते हैं और इसीलिये जब हम माँ शब्द का उच्चारण करते हैं, तो हमारे अन्दर का जो चेतनातत्त्व बैठा हुआ है, वे सुषुम्ना नाड़ी की चेतनातरंगे चैतन्य होकर धीरे-धीरे ऊपर की ओर हमारी प्राणवायु हमारी कोशिकाओं में फैलने लगती है।

 आप शान्तचित्त हो करके एकान्त स्थान पर बैठें, अपने किसी कमरे में बैठें और कोई जरूरी नहीं कि आप कई बार सस्वर उच्चारण करें, चूँकि सामूहिक क्रम कराया जाता है, तो सस्वर किया जाता है। आप दो-चार घण्टे मन्त्र जाप कर सकें या न कर सकें, केवल नित्य पाँच मिनट अनुभव करके देखें कि जब आप शान्त बैठे हों, चूँकि निश्चित है वातावरण हमको तलाशना ही पड़ेगा। ज्यादा अशान्त वातावरण में बैठेंगे, तो हमारा मन उतना एकाग्र नहीं हो सकेगा। मगर अनुभूति प्राप्त करने के लिये कि वास्तव में इनमें कितनी बड़ी ऊर्जा छिपी हुई है, इस मन्थन में कितनी बड़ी ऊर्जा छिपी हुई है? इस मन्थन को करने से हमारे अन्दर सुषुम्ना नाड़ी स्वाभाविक चैतन्य होने लगती है। जिस तरह सामान्य अवस्था में कई बार आपका शरीर शिथिल पड़ा रहता है, तो कई बार आपके शरीर में चैतन्यता आ जाती है। आपको एहसास नहीं कि आपके शरीर की आन्तरिक चैतन्यता क्या है? जब आप कई बार नीरस होजाते हैं, अपनी समस्याओं से व्यथित होते हैं, तो यदि आपकी प्राणवायु चैतन्य हो, तो आपकी वह नीरसता अपने आप दूर हो जायेगी और उसमें यदि आप कभी भी शान्त-एकान्त स्थान में जायें या घर में किसी स्थान पर बैठें और क्रम से पाँच मिनट ‘माँ’-ॐ का उच्चारण नित्य करें, तो आपके शरीर की कार्यक्षमता बढ़ेगी।

आप व्यापार, नौकरी या जिस क्षेत्र में बढ़ रहे हों, चूँकि मैंने ज्ञानपक्ष की जहाँ बात कही और ज्ञान हमारा जाग्रत् कहाँ होगा? जिस तरह एक अनपढ़ व्यक्ति होता है, उससे पढ़ा-लिखा ज्यादा ज्ञानवान् समाज जानता है, देख सकता है, दोनों में तुलना कर सकता है कि एक बेचारा जो बिल्कुल क ख ग न जानता हो, कभी विद्यालय न गया हो और एक दूसरा जो ग्रेजुएशन किये हो, पढ़ा-लिखा हो और समाज का कुछ अनुभव रखता हो, वह उसके बीच आ जाये, तो दोनों में फर्क अपने आप नजर आ जायेगा। पढ़ा-लिखा व्यक्ति सामाजिकता के बारे में, महत्त्पूर्ण तथ्यों के बारे में ज्यादा जानकारी दे सकता है, बता सकता है, अपने विचारों का उपयोग ज्यादा कर सकता है। कहाँ क्या निर्णय लेना है, वह ज्यादा उपयोगी निर्णय ले सकता है। एक अनपढ़ उतना अच्छा निर्णय नहीं ले सकता। उसी तरह जब चेतनातरंगों को हासिल करने लग जाते हैं, तो हमारी उस पढ़ाई से कई हज़ार गुना ज्यादा हमारी ज्ञानशक्ति जाग्रत् होजाती है।

ज्ञान अर्जन का मार्ग कहाँ है? ज्ञान अर्जन का मार्ग पुस्तकों में नहीं है। यह गुरुमार्ग केवल इसीलिये बताया गया है कि अगर पुस्तकों से हम सब कुछ हासिल कर सकते, तो गुरुओं की शरण में जाने की हमें आवश्यकता नहीं होती। गुरुओं की शरण में जाने की केवल इसलिये आवश्यकता है कि जो चेतनावान् गुरु होंगे, वे उन रहस्यों से आपको अवगत करा सकते हैं कि किन रहस्यों से चल करके, किन मार्गों में चल करके उन्होंने अपनी चेतना को प्राप्त किया है और उन्हीं मार्गों में चल करके आप भी उस चेतना को प्राप्त कर सकते हैं। जिस तरह यदि कोई एक व्यक्ति किसी गहरे गड्ढे में या गहरे कुएं में पड़ा हो, तो वह ज्यादा से ज्यादा कुएं के अन्दर का ही देख सकता है। मगर वही एक व्यक्ति बाहर समतल जगह में खड़ा हो, तो वह काफी दूर तक देख सकता है। आँखें दोनों के पास हैं, मगर वह गड्ढे के अन्दर चारों ओर गड्ढे की दीवारों से घिरा हुआ है, इसलिये वह उससे ज्यादा नहीं देख सकता है और जो बाहर खड़ा है, उससे ज्यादा देख सकता है। और, जो हिमालय या किसी पर्वत की किसी चोटी की ऊँचाईयों में खड़ा हो या किसी वृक्ष के ऊपर बैठा हुआ हो, तो वह उससे भी ज्यादा दूर-दूर तक देख लेता है। जबकि आँखें हमारी वही हैं। हम किस वातावरण को ग्रहण कर पाते हैं? हमारी अवस्था किस बिन्दु तक पहुँच सकी है? यह इसी पर निर्भर करता है।

हमारे शरीर की कार्यक्षमतायें सामान्य नहीं हैं। हम उनका उपयोग किस प्रकार कर पाते हैं? चूँकि आप लोग जीवन को बहुत सामान्य रूप से जीते हैं कि जिस तरह पूजा-पाठ में आप लोग कामनायें करते हैं, उसी तरह आपका जीवन जो ढल गया है। आपके जिस तरह माता-पिता हैं और वे जिस तरह जीवन जीते हैं कि ज्यों ही आप युवावस्था में हुये, तो वे यही कहेंगे कि बेटा तत्काल शादी कर लो और यही कहेंगे कि मैंने दो बच्चे पैदा किये हैं, तू भी जल्दी से बच्चे पैदा कर और जिस तरह मैं जंजाल में उलझा हुआ हूँ, तू भी उसी जंजाल में फंस जा और दिन-रात पढ़ाई के लिये कहते रहते हैं। चूँकि सत्य के ज्ञान से समाज कोसों दूर चला गया है। इसमें हमें व्यथित होने की जरूरत नहीं है।

आपके अन्दर एक अलौकिक तृप्ति और आनन्द की अनुभूति हो रही होती, यदि बचपन से वह दिशा मिल रही होती। चूँकि केवल स्थूल शरीर की तृप्ति के लिये, रोटी, कपड़ा और मकान के लिये आपकी पूरी क्षमता को झोंक दिया जाता है। छोटे-छोटे बच्चों में इतना बोझ कि बस पढ़ाई ही तुम्हारे जीवन का सार है। कई बच्चे जब सफल नहीं हो पाते, तो कई बार मानसिक असन्तुलन के शिकार होजाते हैं। माता-पिता उनके ऊपर दबाव बनाते रहते हैं कि बस बेटा पढ़ाई करना है। आठ घण्टे मेहनत करना है, दस घण्टे मेहनत करना है, चौबीस घण्टे मेहनत करना है, बस दिनभर तुमको पढ़ाई करते रहना है। पढ़ाई के पीछे एकमात्र सार है कि तुम्हें नौकरी मिल जायेगी और नौकरी आज कितने लोगों को मिलती है, यह आप लोग अच्छी तरह से जानते हैं। चूँकि जो सामाजिक व्यवस्थायें हैं, उन्हें मैं भी जानता हूँ और आप भी जानते हैं। मगर हम इनमें किस सार की ओर बढ़ें, जिससे हम शान्ति और चैतन्यता प्राप्त कर सकें और ज्ञान अगर किसी के पास भी है, तो उस ज्ञान से कम से कम इतना कि अगर चेतनातत्त्व को प्राप्त किये हुये बैठा हुआ कोई व्यक्ति है, तो कभी भूखों नहीं मर सकता, वह असमर्थता का जीवन नहीं जी सकता। मुझे अगर राजस्थान के रेगिस्तान में बैठा दिया जाये या कहीं भी बैठा दिया जाये, तो भी मैं जिस तरह का चाहूँ उस तरह का जीवन जी सकता हूँ।

चैतन्य अवस्था का, मैं चिन्तन दे रहा था कि बीमारी को किस तरह शरीर में लिया जा सकता है, एक घण्टे पहले शरीर की क्या स्थिति थी और एक घण्टे में क्या हो सकता है? यह चमत्कार की बात नहीं, एक स्वाभाविक गुण है, स्वाभाविक चैतन्यता है। चेतनातत्त्व में वह सब कुछ समाहित है। जिस तरह सूर्य की किरणों का एक स्वाभाविक गुण होता है कि अगर वे किरणें एकत्रित पानी में लगातार पड़ती रहें, तो पानी धीरे-धीरे सूखता चला जाता है। आपके शरीर में ठण्ड लगी हो, आप धूप में बैठ जाएं, तो सूर्य की किरणों के सामने केवल आपको जाना है, वे किरणें बरबस आपकी ठण्ड को खींच लेंगी। यह स्वाभाविक गुण इस शरीर के अन्दर है। सुषुम्ना नाड़ी आपकी जितनी चैतन्य होगी, आपको उतनी आरोग्यता की प्राप्ति होगी और उतना ज्ञान आपके अन्दर जाग्रत् होता चला जायेगा। बड़े-बड़े डॉक्टर और इन्जीनियर के पास जो ज्ञान नहीं रहता, वह ज्ञान ऋषियों-मुनियों के पास रहता था। आज जितने अणुबम और परमाणुबम बनाये जाते हैं, यह सब ज्ञान हमारे ऋषियों-मुनियों के पास था। उन्होंने किस विद्यालय में वह ज्ञान अर्जित किया था? जितने बड़े विस्फोट आज होते हैं, उससे बड़े-बड़े विस्फोट वे मंत्र के माध्यम से बाणों से करा देते थे। ऋषियों के आशीर्वाद में अद्भुत क्षमताएं थीं। वे क्षमताएं आप सब लोगों के अन्दर भी हैं, मगर दबी हुई हैं। उन क्षमताओं को आप लोग उजागर नहीं कर पाते। हमारे ऋषियों-मुनियों ने उन्हें उजागर किया था, जाना था, समझा था।

आपके अन्दर जो मूल तत्त्व बैठा हुआ है, जब तक आप उसे जानेंगे नहीं, समझेंगे नहीं, आपकी विचारधारा उस ओर नहीं चलेगी, आप चाहे जितने देवी-देवताओं की मूर्तियाँ रखते रहें, जैकारे लगाते रहें। निश्चित ही आनन्द के सभी मार्गों को अपना करके चलना चाहिये। योगमार्ग को भी, भक्तिमार्ग को भी और ज्ञानमार्ग को भी, मगर सभी को अपनाने के बाद हमारा मूल सार यही है कि प्रकृतिसत्ता एक है। सभी देवी-देवताओं का मान-सम्मान करें, उनसे भी आशीर्वाद की कामना करें, मगर हमारी इष्ट माता भगवती आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा ही होनी चाहिए। हमें जो कुछ अन्तिम लक्ष्य प्राप्त करना है या जहाँ से जो कुछ प्राप्त करने की इच्छा हो, वह प्रकृतिसत्ता से होनी चाहिए। जो सम्बन्ध जोड़ने की कामना हो, तो वह प्रकृतिसत्ता से होनी चाहिए। उसी प्रकार नाना प्रकार के लाभ हमें किसी भी क्षेत्र से प्राप्त हो सकते हैं, मगर हमारा जो असली सुख और असली आनन्द है, वह हमारे अन्दर छिपा हुआ है।

हमारे अन्दर वह अमृतकुण्ड बैठा हुआ है कि जिस अमृतकुण्ड से हमारी सुषुम्ना नाड़ी का प्रवाह जाग्रत् हो गया, तो वह अमृतकुण्ड हमारी कोशिकाओं में अपने आप ही फैलता चला जाता है, जो हमको तृप्ति देगा और हमारे आस-पास के वातावरण को भी तृप्ति देता चला जाता है। जिस तरह एक गुलाब का सुगन्धित फूल खिल जाए और वह पूरी तरह से खिल चुका हो, तो उसकी सुगन्ध अपने आप चारों तरफ  फैलने लगती है। यह प्रकृति का स्वाभाविक गुण है।  दुर्गन्धरूपी कोई फूल खिलेगा, तो वह दुर्गन्ध फैलाना शुरू कर देगा। सुगन्धित फूल खिलेगा, तो वह सुगन्ध फैलाना शुरू कर देगा। मिट्टी में जो गुण होगा, वह अपने आप फैलना शुरू कर देगा। जो मनुष्य सद्गुणों से परिपूर्ण होगा और वह किसी क्षेत्र में जाता है, तो सद्गुणों के चिन्तन देता है, विचार देता है। एक अपराधी प्रवृत्ति का, गुण्डे प्रवृत्ति का व्यक्ति होगा, तो वह जिस क्षेत्र से निकल जाता है, एक अशान्ति का भयपूर्ण वातावरण बनाता चला जाता है। वह बगल में जाते हुये व्यक्ति को भी ठोकर मारते हुये चलता है। जगह भी होती है, तो भी अकड़ करके चलता है।

भक्ति के स्थायित्व को प्राप्त करें। आप जिसे भक्ति कह देते हैं, वह भक्ति नहीं है। भक्ति तो अटूट होनी चाहिये कि जिस दिन आप संकल्प ले लें कि जीवन की अन्तिम श्वांस तक मेरी भक्ति में कोई विकल्प नहीं आयेगा, मेरे समर्पण में कोई कमी नहीं आयेगी। मेरा सर्वस्व छिन जाये, मेरे प्रियजन मेरे सामने नष्ट होजायें, उनके साथ कोई दुर्घटना होजाये, वे अपाहिज होजायें, कुछ भी होजाये, मगर ‘माँ’ की आराधना में कोई फर्क नहीं आयेगा। लेकिन समस्याएं आते ही आप दिव्यक्रम छोड़ देते हैं, नवरात्र में नहीं आते। कई बार नवरात्र पर्व मनाना बन्द कर देते हैं। गुरुवार के दिन किसी परिजन की मृत्यु होजाए, तो गुरुवार का व्रत करना छोड़ देते हैं। अरे, ये तो सौभाग्य की बात होती है कि अगर गुरुवार के दिन किसी की मृत्यु हो जाती है, तो उसे वह योग मिल गये। मेरे पिताजी ने गुरुवार को शरीर का त्याग किया, तो क्या मैं गुरुवार को मानना बन्द कर दूँ? आप लोग वही न्यूनता कर जाते हैं।

छोटी-छोटी बातें जब तक आप सीखेंगे नहीं, तब तक आपके अन्दर सन्तुलन नहीं आयेगा कि कभी भी अगर शुभ मुहुर्तों में आपके साथ कोई घटना घटित होजाए, तो उसे अपना सौभाग्य मानें। मृत्यु होजाए, तो यह मानें कि निश्चित रूप से मृत्यु तो होनी ही थी, मगर यदि शुभ मुहूर्त में हुयी है, तो निश्चित रूप से हमारा परिजन सौभाग्यशाली था कि उसने ऐसे शुभ महूर्त को प्राप्त किया। अब हम शुभ मुहुर्तों को और पकड़कर चलें और अगर दुर्घटना में आप बच गये हैं, तो निश्चित मानें कि वे शुभ मुहुर्त कहीं न कहीं आपके सहायक हुए हैं। आप उस तथ्य को समझ ही नहीं पाते और प्रकृतिसत्ता से उस रिश्ते को केवल लाभ और कामनाओं से जोड़कर भटक जाते हैं। उस सार को समझ ही नहीं पाते कि प्रकृतिसत्ता ने कितनी अलौकिक क्षमता हमारे अन्दर भर रखी है और हमको सद्गुरु के माध्यम से वह ज्ञान करा रखा है कि हम किस तरह का पथ अपनाएं, किस तरह आचार, विचार, व्यवहार में परिवर्तन करें?

  आप व्यवहारिकता में परिवर्तन लाएं, चूँकि यह एक पक्ष है कि जो हमको ज्ञान प्राप्त हो रहा हो, तो उससे उस तरह का अपने जीवन में परिवर्तन लाएं और यदि परिवर्तन न ला पा रहे हों, तो जिस तरह आप कहते हैं कि जब हम ध्यान में बैठते हैं, तो मन हमारा असन्तुलित होता है, इधर-उधर भागता है, तो यह स्वाभाविक है कि जो आपके अन्दर भरा हुआ है, वह स्वाभाविक रूप से सामने आयेगा। उसके लिये एक रास्ता है कि केवल पाँच मिनट बैठना शुरू कर दें तथा एक बार ‘माँ’ का और एक बार ॐ का उच्चारण करें। जब आप ॐ का उच्चारण करें, तो आपके अन्दर एकमात्र भाव हो कि बाहर की ओर हमारी चेतनातरंगें फैली हुयी हैं, हमारा मनमस्तिष्क जो बाहर की ओर भाग रहा है, उसे हम शान्त करके अपनी ‘माँ’ के पास, अपनी चेतना के पास, जिसके बल पर हम जी रहे हैं, बोल रहे हैं, श्वांस ले रहे हैं या जिसके बल पर हम भौतिक जगत् का जो भी सुख भोग कर रहे हैं, हम उससे दूर हैं, उसके नजदीक जाने, उसकी और कृपा पाने और उसमें समा जाने का भाव आपके अन्दर हो। एक वह भाव ले लें कि जिस तरह एक छोटा बच्चा (अबोध शिशु) माँ की गोदी की ओर दौड़ता है और माँ की गोदी पा जाने से सब कुछ तृप्ति पा जाता है।

केवल आंशिक भाव अपने अन्दर ले लें कि मात्र ॐ के उच्चारण करने से हम नीचे गहराई की ओर जो हमारे अन्दर चेतनातत्त्व, वह आत्मतत्त्व बैठा हुआ है, प्रकृतिसत्ता का जो अंश बैठा हुआ है और हम प्रकृति से एकाकार नहीं कर सकते, मगर प्रकृति ने जो अंश हमारे बहुत नजदीक दे रखा है, उसके पास जाकर अपनी चेतनातरंगों को लेकर बैठने का, उसके पास जाने का प्रयास करें। और, जब ‘माँ’ का उच्चारण करें, तो माँ शब्द के माध्यम से जिस चेतनातत्त्व पर हम अन्दर गये और ‘माँ’ से ही सब कुछ चाहिये, ‘माँ’ तत्त्व से ही हमको सब कुछ चाहिये। उस आत्मतत्त्व की बहुत बड़ी विराटता है। इस चीज का एहसास करना चाहिये। चूँकि आत्मतत्त्व उस प्रकृतिसत्ता का अंश है। परमसत्ता ने सब कुछ दे रखा है, तो उससे हम जितना आकर्षण ऊपर की ओर कर सकें कि माँ शब्द के उच्चारण के माध्यम से जिस तरह ‘माँ’ से कुछ प्राप्त करने की ललक रहती है कि जब हम ‘माँ’ को आवाज देते हैं, किसी व्यथा से प्रताडि़त होते हैं। जब हमको किसी चीज का भय होता है, तो हम माँ शब्द का उच्चारण करते हैं। उस समय एक भाव होता है। माँ से कुछ प्राप्त करने की ललक होती है। वह भाव हो कि जब हम माँ शब्द का उच्चारण करें, तो यह भाव ले लें कि हम माँ शब्द के माध्यम से उन चेतनातरंगों को अपने पूरे शरीर में प्रवाहित कर रहे हैं और वे चेतनातरंगें पूरे शरीर में प्रवाहित हो रही हैं। जब तक आपके अन्दर भावपक्ष नहीं आयेगा, तो पूर्ण लाभ नहीं मिलेगा, केवल आंशिक लाभ मिलेगा।

जिस तरह आप काम और क्रोध में देखते हैं कि काम की भावना आपके अन्दर जाग्रत् होती है, तो कामभावना चैतन्य होकर आपके शरीर में उसी प्रकार कार्य करने लग जाती है। क्रोध का भाव जाग्रत् होता है, तो क्रोध, भय पैदा होजाते हैं। चूँकि उसी तरह के भावपक्ष हम जोड़ लेते हैं। भाव में भाव हो, भावुकता आपके अन्दर न हो, जबकि भावुकता बहुत ज्यादा होजाती है। भावों में जीवन सन्तुलित होता है, असन्तुलन की स्थिति नहीं होती। कई बार चैतन्यता की स्थिति में चेतनातरंगों का एहसास होने लगता है, कई बार मन एकाग्र होने लगता है। कई बार सामान्य अवस्था में लगता है कि मेरा शरीर कितना वजनी है? आपका शरीर फूल सा होजाये, कोमल होजाये, एकदम सूक्ष्म सा होजाता है। जिस समय मन एकाग्र हो जायेगा, शरीर के दर्द का भान आपको भूल जायेगा। तो ऐसा न हो कि आपको असन्तुलन की स्थिति में लगे कि आपने बहुत कुछ प्राप्त कर लिया। कई बार लोग अभुवाने लगते हैं। मैंने बार-बार कहा है कि कभी चेतनातरंगें या कोई भी देवी-देवता कभी भी किसी के शरीर पर आकर अभुवाते नहीं हैं। इस सत्य का आपको ज्ञान होना चाहिये।

आज अनेकों जगह कोई देवी के नाम पर अभुवा रहा है कि मैं दुर्गा हूँ और कई लोग उसके सामने हाथ जोड़कर खड़े होजाते हैं। एक अपराध वह कर रहा है और दूसरा अपराध आप कर रहे हैं कि एक अपराधी के सामने आप हाथ जोड़कर ‘माँ’ के नाम की भक्ति कर रहे हैं। चूँकि कभी भी कोई भी देवी-देवता किसी के शरीर पर सवार होकर अभुवाते नहीं। पहली चीज तो इस सत्य को आप स्वीकार करें। चूँकि जब कभी यदि कोई उस सत्य के मार्ग पर बढ़ सकेगा, तो पायेगा कि ज्यों-ज्यों प्रकृतिसत्ता की चेतना की तरंगें हमारे शरीर के माध्यम से आती हैं, तो हमारे अन्दर एक सन्तुलन आता है, असन्तुलन नहीं आता। असन्तुलन को तो उसका पागलपन कहेंगे। कई बार व्यक्ति की अपनी ही चेतना उसे असन्तुलित कर देती है, जिससे वह पागलपन का शिकार हो सकता है या कुछ भी कह सकता है कि मैं देवी हूँ, मैं देवता हूँ!

 ध्यान रखें कि कभी भी देवी-देवता किसी के शरीर में सवार नहीं होते। देवी-देवता तो शरीर की चेतनातरंगों को चैतन्य बनाते हैं, प्रभावक बनाते हैं। यदि कोई ऐसा कह रहा है, तो वह किसी भूत-प्रेत से प्रभावित होगा या पागल होगा। कभी देवी के नाम पर किसी के सामने हाथ जोड़ने की जरूरत नहीं है, बल्कि यदि वह अपने आपको देवी के नाम से कहता है, तो उसे घसीटकर दो तमाचा मारने की जरूरत है। आपका कुछ भी नहीं बिगड़ेगा। चूँकि ये लोग देवी-देवताओं का अपमान करते हैं। जगह-जगह अभुवाना, जगह-जगह उस तरह भेष बना लेना, बालों को ऊपर बाँध लेंगे, अपने ऊपर रंग डाल लेंगे। सब जगह डेरे और चौकियाँ लग जायेंगी कि बस मैं माँ हूँ, मैं माँ हूँ! आशीर्वाद देने लगेंगे और वहीं से भटकाव होता है तथा आप भी उनके सामने हाथ जोड़ करके खड़े होजाते हैं।

आपके अन्दर प्रकृतिसत्ता ने अद्भुत शक्ति दे रखी है, आप स्वत: देखें कि जब आप भक्ति मार्ग पर बढ़ेंगे, तो स्वत: एहसास होगा कि इससे सन्तुलन आता है कि असन्तुलन आता है? यह वह अलौकिक नशा है, जो आपके अन्दर चैतन्यता भर देता है। अनेकों ऋषियों-मुनियों ने कहा है कि भक्ति का नशा जो हमारे शरीर में छाता है, उस नशे को यदि हम प्राप्त कर लें, तो सब कुछ प्राप्त कर सकते हैं। आप कहेंगे कि यदि नशा ही करना है, तो हम बाहर के नशे कर लें, एक बोतल चढ़ा लें उससे भी नशा आ जायेगा। उस नशे और इस नशे में बहुत बड़ा फर्क है। आप बाहर की एक बोतल चढ़ायेंगे, तो वह नशा आपके मनमस्तिस्क को बेकार कर देगा, आपके शरीर की कार्यक्षमता को नष्ट कर देगा और जब नशा उतरेगा तो आपके शरीर में अकड़न होगी, दर्द होगा। आपके शरीर में वेदना होगी और कष्ट देगा। अशान्ति होगी, असन्तुलन पैदा होगा और भक्ति का नशा, इससे चेतनातरंगें चैतन्य हो जायेंगी, जाग्रत् हो जायेंगी।

 सब कुछ हो सकता है, लेकिन पूर्णत्त्व को प्राप्त करना अलग बात है। जबकि, आप हैं कि तत्काल जैसे पानी पीने के लिये कुयें के पास जाओगे, तो यह ज्ञान नहीं अर्जित करोगे कि किस तरह पानी खींचना है, किस तरह हमको जितनी प्यास लगी है, उतना ही हमको पानी खींचना है या तो कुयें में छलाँग लगाने का प्रयास करोगे। चाहते हो कि सब कुछ एक मिनट में हासिल हो जाए। एक क्रमिक क्रम सीखो। तुम जहाँ पर खड़े हो, वहाँ से धीरे-धीरे आगे बढ़ने का क्रम सीखो। उसी से तुम्हारे अन्दर एक सन्तुलन आयेगा कि वे चेतनातरंगें जब तुम्हारे शरीर में जाग्रत् होंगी, तो स्वाभाविक रूप से इस नशे में और उस नशे में यही फर्क है कि यह नशा यदि एक पल के लिये तुम प्राप्त कर लोगे, तो हो सकता है आठ-दस घण्टे तक तुम तनाव से मुक्त रह सकते हो। यह नशा आपके शरीर की अनेकों बीमारियों को दूर कर सकता है। एक नशा सा आपके अन्दर सवार हो जायेगा, आपको तृप्ति की अनुभूति होगी। आपके कार्य करने की क्षमता बढ़ जायेगी, आपके सोचने समझने की क्षमता बढ़ जायेगी।

विषय-विकारों से आप बरबस दूर होंगे, बल्कि उस भौतिक नशे से तो लोग विषय-विकारों की ओर बढ़ते हैं। नशा करके लोग अपराध करते चले जाते हैं। इस नशे से तो आप अपराध करने से बच जायेंगे। आपको कुछ करने की जरूरत नहीं है कि किस तरह हमारे अवगुण दूर होंगे? अवगुण दूर करने के लिये केवल इस मार्ग पर बढ़ना है। जिस तरह मैंने कहा है कि अगर ठण्ड लगी है, तो केवल धूप में खड़े हो जाओ, आपकी ठण्ड दूर हो जायेगी। आग के सामने चले जाओ और ताप लो, तो आपकी ठण्ड दूर हो जायेगी, मगर आग में अंगुली डालोगे, तो जलोगे। इसलिये व्रत और उपवास रहो, तो सन्तुलित उपवास रहो।

‘माँ’ की आराधना करो, तो भक्ति, ज्ञान और आत्मशक्ति की कामना करो, क्योंकि इनमें सब कुछ समाहित है। अरे, हमको ‘माँ’ की भक्ति मिल गई, ‘माँ’ का ज्ञान मिल गया, हमारे अन्दर आत्मशक्ति आ गई, तो इसके बल पर हम सब कुछ कर सकते हैं। इसके अलावा हमें और चाहिये क्या? अरे, ‘माँ’ की गोदी मिल जाये, ‘माँ’ की हमें भक्ति मिल जाये, ‘माँ’ की हमें कृपा मिल जाये, तो ‘माँ’ के ऊपर हमें सब कुछ छोड़ देना चाहिये। हमारे लिये जो उचित होगा, ‘माँ’ वह निश्चित रूप से करेंगी। हमको बहुत कुछ अपनी कामनाओं को बार-बार ‘माँ’ के चरणों में रखने की आवश्यकता ही समाप्त होजाती है। केवल तीन शब्दों में ही हम त्रिभुवन का सारा सुख प्राप्त कर लेते हैं। आपके गुरु ने भी केवल इन्हीं तीन चीजों की कामना लेकर ‘माँ’ के चरणों में आराधना और भक्ति प्राप्त की है। केवल इन्हीं तीन चीजों को अपने मनमस्तिष्क में सदैव स्मरण रखें। व्रत, उपवास सन्तुलन का रखें, जिस तरह यहाँ भी नियम बताये जाते हैं, यहाँ के क्रम बताये जाते हैं। श्री दुर्गाचालीसा पाठ का आपको सहजता का ज्ञान दिया गया है। चेतनामन्त्र और त्रिशक्ति महामन्त्र आप लोगों को दिया गया है। वे मार्ग बताये जाते हैं कि आरतियों के क्रम आपको किस तरह से करने हैं?

‘माँ’ और ॐ की साधना का ज्ञान, जो मेरे द्वारा दिया गया है, उसे अपने जीवन में नियमितता से ढालने का प्रयास करें। लेकिन, यदि आप एक कान से सुनोगे और दूसरे कान से निकाल दोगे, तो लाभ नहीं मिलेगा। बड़ी-बड़ी भागवत की कथायें सुन लोगे, तो उससे आपको लाभ नहीं मिलेगा। मैं तो कह रहा हूँ कि भागवत की कथाओं को विराम दे देना चाहिये। चूँकि इन कथाओं से समाज को लाभ नहीं मिल रहा है, बल्कि परम्परायें भटक रही हैं। किसी कथावाचक को सुनकर देख लो, वही रास-रंग की बातें ज्यादा करेंगे। कभी थोड़ी देर कृष्ण का चिन्तन दे देंगे। भागवत में भगवान् की कथा क्या है, भगवान् का चिन्तन किस प्रकार है, भगवान् की कृपा किस प्रकार मिलेगी? इसके बारे में बहुत कम जानकारी दी जायेगी। कभी कोई कथानक लेकर बैठ जायेंगे, तो कभी कोई कथानक लेकर बैठ जायेंगे। कभी राधा के नाम पर अपने ऊपर चुनरी डाल लेंगे और नाचने लग जायेंगे। कभी लोगों से कहेंगे कि राधा के समान बन करके नाचो, परिणामस्वरूप इससे एक परम्परा भटकती चली जा रही है। 

 कलिकाल में इस भयावह वातावरण से पार पाने के लिये हमें चैतन्य साधक तैयार करने की जरूरत है कि लोगों के अन्दर वह साधनात्मक क्रियायें हों, लोग अपने-अपने घर में पूजा-पाठ करें, आराधना करें। लोगों को मन्त्रों का ज्ञान दें कि किस तरह से ध्यान में बैठना है, किस तरह से मन्त्रजाप करना है, किस तरह से किन-किन क्रियाओं को करना है और किन-किन क्रियाओं को नहीं करना है? किस समय हमें किस तरह के विचार अपनाने चाहिये और किस समय हमें किस तरह के विचार नहीं अपनाने चाहिये? समाज को उस ज्ञान की आवश्यकता है। रास रंग की चीजों से हमको तृप्ति नहीं मिलेगी। माता के नाम पर कहीं दाण्डिया का नृत्य हो रहा है, तो कहीं किसी चीज का क्रम हो रहा है। भावपक्ष अगर एक बार बदल गया, तो फिर बदलता चला जाता है।

‘माँ’ की भक्ति हमको किस प्रकार करनी है? मैंने उसके लिये आपको मार्ग बताया है कि अपने आपको अबोध शिशु मानो। वह विराटसत्ता जो अनन्त लोकों की जननी है, जिसके सामने देवाधि-देव भी नतमस्तक रहते हैं, उस ‘माँ’ और हमारे बीच की जो दूरी है, उसे हमें धीरे-धीरे करके कम करना होगा। हमको उस दूरी का भी एहसास रखना पड़ेगा, अपनी शारीरिक क्षमता का एहसास करना पड़ेगा और शरीर का हम किस प्रकार शोधन करें, उन क्रियाओं को सीखना पड़ेगा और वे क्रियायें मेरे द्वारा अनेकों बार बताई जा चुकी हैं। बीच-बीच में जो लोग मुझसे मिलने आते रहते हैं, साधनात्मक जानकारी लेने आते हैं, उनको मेरे द्वारा बार-बार बताया जा चुका है कि मेरे लिये गरीब, अमीर सभी एक बराबर हैं। एक बार मेरे द्वारा अमीर को तो रोक दिया जाता है कि कोई अमीर आये, नेता आये, तो उनको आधे घण्टे के लिये रोक दिया जाता है और वहीं जो आम व्यक्ति आते हैं, तो उनको पहले मिलने का मौका दे दिया जाता है। संगठन की कोई बहुत जरूरी संगठनात्मक चर्चा हो, तो भले मौका दे दिया जाय। मैं नित्य सुबह-शाम सभी से मिलता हूँ, मगर जब शिविर होता है, तब एक-दो दिन पहले से एक-दो दिन बाद तक मिलने का क्रम बन्द रहता है।

इस समय मैं आपसे मिल रहा हूँ, तो मुझे आप लोगों को क्या देना है, क्या चिन्तन करना है, यह मैं जानता हूँ? चूँकि न तो मैं आप लोगों को धन-दौलत की कामना से बुलाता हूँ और न शिविर शुल्क लगाता हूँ। मैंने बार-बार कहा है कि हर शिविर के लिये कर्ज लेकर मुझे लगाना पड़ता है। शिष्यों का थोड़ा बहुत सहयोग होजाता है। चूँकि नये भक्त आते हैं और कई बार विचार भटकते हैं कि कहीं गुरुजी अपना बैंक बैलेन्स तो नहीं बना रहे हैं। मैंने कहा है कि यह मेरा संकल्प है कि जीवन में एक रुपया भी समाज के दान का मैं अपने शरीर में और न ही अपने परिवार में लगने दूँगा। अगर कहीं एक रुपया लग जाता है, तो दस रुपया देकर उसकी भरपाई करता हूँ। कोई पैसा ला करके दे जाता है कि गुरुजी आप अपने कमरे में ए.सी. लगवा लीजिये, तो मैं उस पैसे को भी आश्रम के कार्यों में लगवा देता हूँ। मुझे जितनी चीजों की जरूरत है, मैं अपनी तरह से लगा लेता हूँ। मेरा जीवन इतना सुविधाभोगी नहीं है। मेरा जीवन आगे यज्ञ के कार्यों से जुड़ा हुआ है, अग्नि के कार्यों से जुड़ा हुआ है। कमलेश गुप्ता जैसे लोग यहाँ बैठे हुये हैं  कि मैंने पहले यज्ञ को जब प्रारम्भ किया था, तब उन चीजों के मैंने प्रमाण दिये हैं कि अग्नि की लपटें मेरे शरीर को कपड़े की तरह स्पर्श कर रही थीं और ऐसा नहीं कि मैं कोई दवा वगैरह कोई चीज लगा करके बैठा था।

अग्नि और मेरा सम्बन्ध किस प्रकार का है, इसका एहसास मैंने पहले यज्ञ में कराया था। अनेकों घटनाओं के साक्षीभूत अनेकों लोग हैं, जिन्होंने मेरे साथ यात्रायें की थीं, उन्होंने उस विचारधारा को पकड़ा, मेरी साधना तपस्या को देखा था। मैं इसलिये कह रहा हूँ कि जब तुम बैठो, तो तुम्हारे अन्दर वह भाव जाग्रत् हो। मैं वही चाह रहा हूँ कि आपके अन्दर साधनात्मक भाव जाग्रत् हो सके कि हम साधनात्मक क्रमों में धीरे-धीरे आगे बढ़ें। धीरे-धीरे अपनी क्षमता को विकसित करें। हमें कथायें और कहानियों को सुन लेने या धर्मग्रन्थों का बहुत ज्यादा अध्ययन करने से लाभ नहीं प्राप्त हो जायेगा।

आत्मग्रन्थ का अध्ययन करो। इस कलिकाल में आवश्यकता है कि आत्मग्रन्थ का अध्ययन किया जाये और आत्मा को चैतन्य बनाया जाये। उसी से हमारा और आप सभी का कल्याण होगा। उसी से प्रकृतिसत्ता प्रसन्न होंगी। उसी से आपका जो लक्ष्य होगा कि आप व्यापार क्षेत्र में जाना चाहते हैं, राजनीति क्षेत्र में जाना चाहते हैं या जिस क्षेत्र में जाना चाहते हैं, जब आप साधनात्मक क्रियाओं को अपने जीवन में अपनायेंगे, तो आगे बढ़ जाएंगे। और, जब तक आप साधनात्मक क्रियाओं को नहीं अपनायेंगे, तो अगर आपके जीवन में योग होगा, पूर्व जीवन के कोई संस्कार होंगे, तो हो सकता है कि आप आगे बढ़ जायें और नहीं होंगे, तो नाना प्रकार के विघ्न आयेंगे। जबकि आपके अन्दर अगर योग है, तो उनको आप कई गुना और प्रभावक बना सकते हैं।

आपकी जो सामथ्र्य है, कभी भी उससे आप भटकें नहीं। आप जिस पद पर हैं, उस पद की गरिमा को बरकरार रखें। जिस क्षेत्र में हैं, उसके अनुरूप अपने आचरण को ढ़ालें। आप समाज हित में जो कर सकते हैं, करें। समाज में अनेकों लोग ऐसे हैं, जिनमें जनहित की भावना होनी चाहिये। मैं जनहित की भावना ही जन-जन में भर रहा हूँ। मेरे पास उतना समय नहीं है कि मैं बार-बार बैठ करके आप लोगों को चिन्तन दूँगा। चूँकि मेरा एक बहुत कुछ एकान्त का लक्ष्य है, चूँकि जिस तरह मैं आप लोगों के भूत, भविष्य और वर्तमान की बात कहता हूँ, उसी तरह मुझे अपने भूत, भविष्य और वर्तमान का ज्ञान है।

 ऐसी सैकड़ों घटनायें हैं, मगर मैं उन चिन्तनों में जाना नहीं चाहता, मगर कभी न कभी ऐसा मौका जरूर दूँगा कि एक शिविर में अपनी कुछ अनुभूतियाँ आपके सामने रखूँगा। मेरे द्वारा जब जिसको जिस दिन के लिये मृत्यु का समय बताया गया, उसकी मृत्यु उसी दिन उसी समय हुई। जिसके साथ जो घटना जिस दिन के लिये बतायी गयी, उसी दिन वह घटना हुई। अगर मेरा कोई शिष्य बाहर कहीं तड़प रहा था, तो उन्हीं क्षणों पर मेरे शिष्यों ने मुझे तड़पते हुये देखा था, जबकि उससे बाहर का कोई सम्बन्ध नहीं था, सम्पर्क नहीं था। मैं शिष्यों से जो अपने तार जोड़ता हूँ, वह केवल देखने के लिये नहीं जोड़ता। मैंने कहा है कि तुम्हारी सुख-सुविधाओं में मैं तुम्हारा साथी बन सकूँ या न बन सकूँ, मगर तुम्हारी जो विषमतायें हैं, तुम्हारे जो संघर्ष हैं, जीवन की तुम्हारी जो तकलीफें  हैं, उनका मैं सदैव साथी बनता हूँ। केवल उस विचारधारा को पकड़ो। यदि इस आश्रम का निर्माण मैं चाहता, तो महानगरों के बीच कर सकता था, मगर उस माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा का चिन्तन यहाँ का था। इस एकान्त स्थान को मैंने चुना, जिसे अंधियारी कहा जाता था, जो प्रभावित क्षेत्र माना जाता था और जिस क्षेत्र में लोग दोपहर में भी आने में भयभीत होते थे। आज यहाँ ‘माँ’ का गुणगान चल रहा है। छोटे-छोटे बच्चे निर्भय होकर टहलते हैं, विचरण करते हैं। उस ऐसे क्षेत्र का मैंने यहाँ पर चयन किया है। मैं जानता हूँ कि भविष्य में इस स्थान को मुझे कितना चैतन्य करना है और भविष्य में मैं इस स्थान को विश्व की धर्मधुरी के रूप में स्थापित करूँगा। उस विचारधारा को आपको पकड़ना है।

इस नवरात्र शिविर में ‘माँ’ की जो तीन दिव्य आरतियाँ सम्पन्न कराने के लिये मैं आप लोगों का आवाहन करता हूँ कि दिव्य आरतियाँ, जिसमें मैं बैठा रहता हूँ और उस समय दिव्य आरतियाँ जो आप करेंगे, तो जो मैंने कहा है कि बड़े से बड़े भागवत, बड़ी से बड़ी कथाओं का वह फल आपको नहीं प्राप्त होगा, जो इन दिव्य आरतियों के माध्यम से प्राप्त होगा, चूँकि उस समय कर्ता, क्रिया, कर्म एक रूप होते हैं। जिस समय आप आरती कर रहे होते हैं, चूँकि आरती मैं अपनी प्रसन्नता के लिये नहीं कराता हूँ, आप मेरी भी आरती कर रहे होते हैं, माँ की आरती कर रहे होते हैं, तो वह तो कर ही रहे होते हैं, मगर जब आप गुरु आरती कर रहे होते हैं, तो मैं मूल गुरुसत्ता, चूँकि गुरु तो मैं उस प्रकृतिसत्ता को ही मानता हूँ। मैंने अपने आपको गुरु कभी माना ही नहीं, प्रकृतिसत्ता ने मुझे जो ज्ञान दे रखा है, तो आप मुझे गुरु के रूप में मानें या किसी रूप में मानें। चूँकि मैं जिस तरह आपको जनचेतना फैलाने का कार्य देता हूँ, उसी तरह मैं अपने आपको केवल भगवती मानव कल्याण संगठन का एक कार्यकर्ता समझता हूँ। जो कुछ ज्ञान ‘माँ’ ने मुझे दिया है, उसे आपको देने का प्रयास करता हूँ।

यदि मेरी कोई आराधना करता है, तो मैं उस आराधना को ‘माँ’ के चरणों की ओर समर्पित करने का प्रयास करता हूँ। सच्ची गुरु तो प्रकृतिसत्ता ही हैं। सच्चा ज्ञान तो प्रकृतिसत्ता के पास है, जो मेरे माध्यम से आपके पास आ रहा है। हर एक के अन्दर वह ज्ञान है, एक छोटा बच्चा भी वह ज्ञान दे सकता है। ज्ञान हमें कहीं से भी प्राप्त हो रहा हो, उस ज्ञान को प्राप्त कर लेना चाहिये। ज्ञान का प्रवाह अगर आप लोगों को अच्छा लगता है, तो कल विजयादशमी को दीक्षा का कार्यक्रम है। इन चीजों का चिन्तन देना मेरा कर्तव्य बनता है, चूँकि समाज में शिष्यों का एक बहुत बड़ा समूह खड़ा करने का मेरा कोई लक्ष्य नहीं है। यदि आप लोगों की भावना हो, आपकी इच्छा हो, आपका अन्तर्मन कहे, तभी आप लोग मेरे शिष्य बनें। मैं किसी को यहाँ के किसी भी प्रकार के प्रलोभनों में बाँधकर शिष्य नहीं बनाता। मेरी दीक्षा देने का किसी प्रकार का कोई शुल्क नहीं रहता, किसी प्रकार की दक्षिणा की कोई कामना नहीं रहती। अगर आप लोग किसी प्रकार की कोई भेंट समर्पित करते हैं, तो वह आश्रम के निर्माण कार्य में लगती है, जो जनहित के कार्य से जुड़ा रहता है। समाज की किसी प्रकार की दक्षिणा से मेरा जीवकोपार्जन नहीं चलता।

मैंने कल आप लोगों को चिन्तन दिया था कि मेरे जीवन में भी एक ऐसा काल आया था, जहाँ मैंने तीन दिन भूखों गुजारे थे, मगर उस समय मैंने कर्ज नहीं लिया। आज तो समाज के कार्य को करने के लिये मैं कर्ज भी ले लेता हूँ और समाज से कर्ज ले करके जनहित के कार्य करता रहता हूँ। उन क्षणों पर भी ‘माँ’ की कृपा से ऐसी सामथ्र्य थी कि मैं चाहता, तो कुछ भी कर सकता था, पर न मैं कभी अपनी साधनाओं का दुरुपयोग करता हूँ और न साधनाओं का दुरुपयोग किसी को करने देता हूँ। उसी तरह के मार्ग पर चलता हूँ, जिनसे मेरा लक्ष्य जुड़ा है। मुझे साधनायें मिली हैं, किसलिये मिली हैं, किसलिये नहीं मिली हैं, किन अनुभूतियों को प्राप्त करने के लिये मिली हैं, किस तरह समाज के साथ मेरा सम्बन्ध बनाना है? यह सब प्रकृतिसत्ता ने मुझे उस लक्ष्य के लिये दिया है और उसी हिसाब से मैं समाज के बीच कार्य करता हूँ। समाज में अनुभूतियाँ फैलाने के लिये जब तक ‘माँ’ ने मुझे समय दे रखा था, तब तक मैंने उस तरह के कार्य समाज के बीच किये हैं।

आप लोगों को जो महाआरतियों का सौभाग्य प्राप्त होता है, इसके लिये मैं आपका आवाहन करता हूँ कि जो संकट हैं, जो तकलीफें हैं, जो भी लक्ष्य है, केवल आरती के पहले ‘माँ’ के चरणों में निवेदन कर दें और आरती के समय केवल अपने आपको रत कर दें, कुछ समय चैतन्यता के साथ गुजार दें। आप मेरे सामने रोयेंगे, गिड़गिड़ायेंगे, तो जो लाभ उससे नहीं मिलेगा, वह लाभ आपको केवल ‘माँ’ की इन आरतियों से मिल जायेगा। इन आरतियों से मैंने अपने आपको स्वत: बाँध रखा है कि इन आरतियों का मैं किस तरह आपको फल दूँगा, किस तरह ऊर्जा दूँगा? 

मेरे द्वारा बार-बार चिन्तन दिये जाते हैं कि अपने अन्दर एक आध्यात्मिक वातावरण पैदा करो, धर्म पर आस्था और विश्वास रखो। मैंने यह चिन्तन दिया था कि कोई राम के नाम को काल्पनिक कह रहा है, कोई किसी चीज को काल्पनिक कह रहा है। इस तरह के अधर्मियों-अन्यायियों को कड़ी से कड़ी सजा दी जानी चाहिये। इस तरह के लोगों को तो सजा-ए-मौत देनी चाहिये। एक व्यक्ति को हत्या की सजा इस तरह दे दी जाती है और जो लोगों की आध्यात्मिक भावनाओं पर आघात करते हैं, हमारे राम और कृष्ण जैसे देवपुरुषों को कोई काल्पनिक पात्र कह दे, लाखों, करोड़ों, अरबों लोगों की भावनाओं की हत्या कर दे, तो उनको सजा-ए-मौत निश्चित रूप से देनी चाहिये।

यह आप निश्चित मान लें कि यह देश का दुर्भाग्य है कि हमारे समाज में आज भी ऐसे लोग रहते हैं, जो अपने आपको देवपुरुषों, देव संस्कृति या ऋषि-मुनियों की परम्परागत वंशज मानते ही नहीं। वे अपने आपको कुत्ते और बन्दरों के वंशज मानते हैं, तो वे मान लिया करें कि हो सकता है वे बन्दरों के वंशज होंगे, कुत्ते और बन्दरों की औलादें होंगी। इसलिये वह कुछ भी कह सकते हैं। अरे, उनको ज्ञान ही नहीं है देव संस्कृति के बारे में, चूँकि वे विज्ञान को बहुत ज्यादा मानते हैं और विज्ञान ने उनको यही दिया है। उन्होंने देव संस्कृति की शरण कभी पाई ही नहीं। वे अपने आपको बन्दरों की औलादें मानते हैं, तो हो सकता है वे कुत्ते और बन्दरों की औलादें हों और अगर नहीं होंगी तो कुछ जो अंग्रेज भी बीच में आये थे, कुछ अपना खून, कुछ औलादें यहाँ छोड़ गये थे, तो उनकी औलादें होंगी, जो इस तरह की चर्चा करते हैं। धर्म के बारे में जानते नहीं होंगे, राम और कृष्ण के बारे में जानते नहीं होंगे, तो ऐसे लोग कुछ भी कह सकते हैं।

आज रामनवमी है। राम की भी आराधना लोग भक्ति भाव से करते हैं। कोई रामायण का पाठ करता है, तो कोई किसी चीज का पाठ करता है, लेकिन जब काल्पनिक पात्र की बात आ जाती है, तो मन में संशय आ जाता है और आप लोगों की भावनाओं को निश्चित रूप से आघात लगता है। आपको संशय करने की जरूरत नहीं है। मैं ‘माँ’ का आराधक हूँ, मगर मैंने बार-बार कहा है कि मैं राम और कृष्ण का उसी तरह आदर, मान-सम्मान करता हूँ, चूँकि ये देवपुरुष थे। सत्य के पात्र थे, काल्पनिक पात्र नहीं थे। अरे, इन सत्य के पात्रों से तो हमारा पूरा इतिहास जुड़ा हुआ है। दशरथ का जीवन, राम के सभी भाइयों का जीवन, जनक का जीवन, परशुराम का जीवन, बाल्मीकि का जीवन, विश्वामित्र का जीवन, बजरंगबली का जीवन, रावण का जीवन, इसी तरह चित्रकूट धाम है, पूरा इतिहास इन चीजों से जुड़ा हुआ है। किसी एक व्यक्ति के कह देने मात्र से अपने विचारों को भटकने मत दें। ये हमारे देवपुरुष हैं और इन्होंने हमारे समाज को बहुत कुछ दिया है। ये देवपुरुष समाजकल्याण के लिये आये थे। अत: कभी आंशिक भी अपने अन्दर अनास्था का भाव न आने दें।

कुछ चन्द लोग तो हमेशा भटकाते रहते हैं। धर्म के बारे में नाना प्रकार की वार्तायें करते रहेंगे, टी.वी. सीरियलों में या न्यूज चैनलों में बैठ जायेंगे और नाना प्रकार की चर्चायें करते रहेंगे, किन्तु उनमें कभी आप भ्रमित मत हो जाया करें। आपकी आत्मा सत्य है, प्रकृतिसत्ता सत्य है, इसको सदैव गाँठ बाँध लें। जो हमारे इतिहास के पात्र हैं, देवपुरुष हैं, सत्य के पात्र हैं, वे काल्पनिक पात्र नहीं है। जो कुछ है, सत्य है और सत्य रहेगा। इसमें सदैव आपको ध्यान देने की जरूरत है। अपने मानसिक विचारों को भटकने मत दें। आने वाले समय में निश्चित है कि कहीं न कहीं वह बिन्दु जरूर अयेगा कि इस तरह की धार्मिक भावनाओं को जो आघात पहुँचायी जाती है, उसके लिये भी कभी न कभी कड़ा कानून जरूर बनेगा। मगर, जब तक भ्रष्ट नेता समाज में बैठे रहेंगे, अधर्मी राजनेताओं का साम्राज्य रहेगा, तब तक वे लोग वोट बैंक की राजनीति के लिये कुछ भी कर सकते हैं। मगर, समाज का हित किस तरह है, समाज का कल्याण किस तरह है? उसके बारे में कभी नहीं सोच सकते! उनका स्वयं का अपमान होजाये, तो सब कुछ कर देंगे, मगर देवपुरुषों का अपमान हो जायेगा, तो उनकी जबान में ताला लग जायेगा। यह समाज की बिडम्बना है, मगर आप लोगों को सत्यपथ पर बढ़ना है।

आप ‘माँ’ के आराधक हैं, तो ‘माँ’ की आराधना करें, किसी भी देवी-देवता के आराधक हैं, तो उन पर पूर्ण विश्वास करके आपको कर्म करना पड़ेगा। रोने-गिड़गिड़ाने का मार्ग छोड़ दो। मैंने आज तक प्रसाद मात्र इसलिये चढ़ाया है कि ‘माँ’ के चरणों में जो प्रसाद चढ़ाया जाता है, उस प्रसाद में ‘माँ’ की कृपा की किरणें बरसें और उस प्रसाद का अगर हम पान करेंगे, तो उस प्रसाद के माध्यम से भी उस माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा की कृपा, हमारे इष्ट की कृपा हमारे शरीर में जायेगी। इस तरह यदि हम नारियल प्रसाद चढ़ाते हैं या किसी अन्य चीज का प्रसाद चढ़ाते हैं, तो चूँकि ‘माँ’ के सामने जो भेंट का एक भाव रहता है कि ‘माँ’ के सामने हम भेंट चढ़ायें, तो उस प्रसाद को हम भी खायें और समाज को भी खिलायें। ‘माँ’ तो सबके भावों की भूखी होती हैं। आप प्रसाद थोड़ा चढ़ा दें या बहुत चढ़ा दें, सब एक समान रहता है।

कई लोग होते हैं कि ‘माँ’ को प्रसन्न करने के लिये पूरा मूठा भर अगरबत्ती लगा देंगे, कि शायद ‘माँ’ प्रसन्न हो जायेंगी। इसमें भी आप कई बार नुकसान उठा जाते हैं। यदि आपका छोटा कमरा है, बन्द कमरा है और खिड़की भी नहीं है, तो आप यदि एक अगरबत्ती लगायेंगे, तो ज्यादा फायदे में रहेंगे। ऐसा नहीं है कि जब दो अगरबत्ती लगायेंगे, तभी ‘माँ’ प्रसन्न होंगी। कोई खुली जगह हो या बड़ा हाल हो, तो आप दस-दस अगरबत्तियाँ लगा दें। वातावरण को सुगन्धित करने के लिये अगरबत्ती लगाई जाती है। उसके लिये अगर आपने एक अगरबत्ती लगा रखी है और आपको लगता है कि कमरे में ज्यादा धुआँ फैल रहा है, तो आप अगरबत्ती को बुझा दीजिये, उससे प्रकृतिसत्ता आपसे रुष्ट नहीं होंगी। मैं स्वत: ऐसा करता हूँ। मेरा जो ध्यान साधना का कक्ष है, वह अन्दर बना हुआ है और वह कक्ष छोटा है। कई बार मुझे भी अगरबत्ती से परेशानी होती है, तो अगरबत्ती बुझा देता हूँ। वातावरण जितने से सुगन्धित होजाये, अगरबत्ती उतनी ही लगानी चाहिये। मूठा भर अगरबत्ती लगाने से प्रकृतिसत्ता प्रसन्न नहीं हो जायेंगी। इन छोटी-छोटी बातों पर आप सभी को ध्यान रखने की जरूरत है। कर्ता, क्रिया और कर्म जब आपके पूर्ण होंगे, तब आप पूर्णता से उस सत्य का लाभ उठा सकेंगे। उसी सत्य की ओर मैं बार-बार आप लोगों को खींच रहा हूँ। आरती जब भी आप करेंगे, मन की एकाग्रता के साथ करेंगे।

मुझे समाज में बार-बार शिविर लगाने का शौक नहीं है और न ही शिविर लगाने का लक्ष्य है। समाज को चिन्तन देने की बात है, तो मैंने बार-बार कहा है कि अगर मैं सात तहखाने के अन्दर भी रहूँगा, तो भी समाज को उसी तरह लाभ देता चला जाऊँगा, जिस तरह आज दे रहा हूँ। मगर, आज समय है, इसलिये आप लोगों के बीच आ करके बैठता हूँ। मेरे शेष सौ महाशक्तियज्ञ शेष हैं। यज्ञस्थल के निर्माण के बाद मेरा अधिकांश समय इन यज्ञों के क्रमों में लगना है। एक-एक यज्ञ में ग्यारह दिन लगना है। आप स्वत: आकलन कर लें कि जहाँ मैं बगैर किसी से मिले-जुले ग्यारह दिन एक यज्ञ में रहता हूँ और एक सौ आठ यज्ञों के शेष सौ यज्ञ शेष पड़े हैं। यदि एक यज्ञ में ग्यारह दिन लगेंगे, तो कितने दिन मुझे अग्नि के समक्ष बैठना पड़ेगा! इसके अलावा भी मेरे अन्य साधनाक्रम हैं।

शिविर में मूल लाभ तीन आरतियों का रहता है, जिनके लिये मैं आप लोगों के सामने उपस्थित होता हूँ। उन आरतियों की तैयारी की ओर बढेंग़े और उनमें आप लोग अपने मनमस्तिष्क को अधिक से अधिक एकाग्र करेंगे। शक्तिजल भी मैंने आप लोगों के लाभ के लिये दिया है। अनेकों बार होता है कि आप लोग आये, गुरुजी मिले नहीं, तो हम जा रहे हैं! चूँकि जितना आप लोग मेरे पास बैठ करके लाभ प्राप्त कर सकते हो, तो जिन क्रियाओं से मैं आप लोगों को जोड़ने की बात कर रहा हूँ, अगर उनसे जुड़ रहे हो, तो उससे कई गुना ज्यादा लाभ मैं आप लोगों को दे रहा हूँ। अत: अपना मनमस्तिष्क अधिक से अधिक एकाग्र रखना और कभी भी आप यदि मिलने आयेंगे, तो मैं नित्य सुबह-शाम का समय देता हूँ। मुझसे मिलने का किसी प्रकार का कोई शुल्क नहीं रहता। चूँकि मैंने जीवन में किसी पक्ष का शुल्क नहीं लगा रखा है। न दीक्षा का शुल्क रहता है, न मेरे मिलने का शुल्क रहता है, न शिविरों का शुल्क रहता है, न आश्रम में रहने का शुल्क रहता है और न आश्रम में भोजन करने का शुल्क रहता है। जो व्यवस्थायें रहती हैं, उस भाव से समाज में चलती रहती हैं। जो सामथ्र्य आज प्रकृतिसत्ता ने मुझे दे रखी है, उस सामथ्र्य को समाज में लुटाने का प्रयास करता रहता हूँं। आगे आने वाले समय में ज्यों-ज्यों इसका विस्तार होता चला जायेगा, उस तरह समाज लाभान्वित होता रहेगा। आज निश्चित है आप लोग आश्रम में आते हैं, आप लोगों को कुछ कष्ट और तकलीफों को भोगना पड़ता है, इसके लिये मुझे आप लोगों से ज्यादा व्यथा रहती है, मगर इन व्यथाओं के बीच ही आपका कल्याण और हित छिपा हुआ है। आज इतनी व्यवस्थायें हैं और मैं हर वर्ष कुछ न कुछ व्यवस्थाओं को बढ़ाने का प्रयास करता रहता हूँ।

यहाँ आश्रम में आप लोगों को लाभ तभी मिल सकेगा, जब आप सन्तुलित और नशामुक्त जीवन जियेंगे, अवगुणों से अपने आपको दूर रखने का प्रयास करेंगे। कभी भूलकर भी एक भी अपराध न करें, कभी भी किसी एक भी व्यक्ति के एक रुपये के सामान से छेड़छाड़ न करें। यहाँ अच्छा कर्म करेंगे, तो उसका दस गुना अच्छा फल प्राप्त करेंगे, चूँकि इस पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम को मैं अपने संकल्पों, साधनाओं से कीलित कर रहा हूँ, चैतन्य बना रहा हूँ। आप एक अपराध करेंगे, तो दस गुना ज्यादा उसका परिणाम पायेंगे। अत: अपराधों से बचें। कई बार जिस तरह पिछले शिविर में दीक्षा का कार्यक्रम चल रहा था और एक शिष्य को स्नान करने की जरूरत हुई होगी, तो वह बाथरूम में गया। वहाँ एक अन्य व्यक्ति स्नान कर रहा था। उससे बोला, हटो तुम यहाँ से। तो वह बोला क्यों क्या हुआ? उसने कहा कि मुझे दीक्षा लेने जाना है, इसलिये जल्दी स्नान कर रहा हूँ। वह बोला कि तुम कैसे दीक्षा लोगे? मुझे गुरुजी ने इसीलिये भेजा है कि लोगों के बीच जा-जा करके देखो कि कौन दीक्षा लेने का पात्र है और कौन दीक्षा लेने का पात्र नहीं है? तुम तो दीक्षा लेने के पात्र ही नहीं हो। तुम्हारे पूर्व जीवन के ऐसे कर्म-संस्कार हैं कि तुम आज दीक्षा ले ही नहीं सकोगे। तुम्हें इस जीवन में गुरुजी से दीक्षा लेना ही नहीं है। वह बेचारा सही मान गया और वहाँ से भाग गया। उसको स्नान करने की जगह नहीं दी और खुद आराम से आ करके दीक्षा प्राप्त किया। बाद में आ करके वह व्यक्ति जब मुझसे मिला, तो पूछने लगा कि गुरुजी मेरे पूर्व जीवन के कौन से ऐसे कर्म-संस्कार हैं? गुरुजी मैं आपसे दीक्षा प्राप्त नहीं कर सका। मेरे ऐसे अवगुण हैं। वह बहुत व्यथित था। उसके बाद पिछले नवरात्र शिविर में आ करके उसने दीक्षा प्राप्त की। यह मैं कहानी नहीं सुना रहा हूँ, बल्कि सत्य घटना है, जो बता रहा हूँ। अनेकों प्रकार के मानसिक विकृति के लोग आ जाते हैं, अपराधी प्रवृत्ति के लोग भी बीच में आ जाते हैं, जो सोचते हैं चलो कहीं से कुछ मनोरंजन ही प्राप्त कर लेंगे। वे अपने अवगुणों से ग्रसित रहते हैं।

मुझसे सभी लोग दीक्षा प्राप्त कर सकते हैं। आज से पहले किसी गुरु से दीक्षा प्राप्त किये रहे हों और चूँकि यदि बढ़ता हुआ आगे का कोई क्रम हमें मिल रहा हो, तो पुन: यहाँ दीक्षा प्राप्त करना चाहते हैं, तो यहाँ आ करके दीक्षा प्राप्त कर सकते हैं। हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई सभी समान रूप से दीक्षा प्राप्त कर सकते हैं। आपको यहाँ आने के लिये अनेकों लोग कह दिया करते हैं, जैसे आज कुछ सिक्ख भक्त आये हुये हैं, तो उनको किसी ने कह दिया कि आप पगड़ी बाँध करके यहाँ नहीं रहेंगे! अरे, आप पगड़ी बाँध करके उसी सम्मान के साथ यहाँ रहें, उसी सम्मान से आपका स्थान बनेगा। आप पगड़ी बाँध करके दीक्षा प्राप्त करें या दाढ़ी बाल रखा करके दीक्षा प्राप्त करें, उसी तरह आपको सम्मान मिलता है। इस्लाम धर्म को मानने वाले अपने सिर में टोपी पहन करके रहें, उसी तरह सम्मान मिलता है और अगर कोई शिष्य टोंकता है, तो उसकी जानकारी मेरे प्रमुख कार्यकर्ताओं को दें। सम्मान का जीवन जियें, चूँकि मैं मानवता का जीवन जीता हूँ, मानवता का मार्ग प्रशस्त करता हूँ। मेरे लिये सभी एक बराबर होते हैं। हिन्दू हो, मुस्लिम हो, सिक्ख हो, ईसाई हो, अगर आपको अपना कल्याण यहाँ से नजर आता है, आपको यहाँ से सतमार्ग नजर आता है और आप यहाँ से जुडऩा चाहते हैं, तो मैं सभी को समान भाव से दीक्षा देता हूँ। इस तरह कभी कोई किसी तरह की बातें कह दे, तो आप प्रमुख कार्यकर्ताओं से चर्चा अवश्य कर लिया करें।

कुछ शिष्यों द्वारा समाज के बीच भी नाना प्रकार से गलत जानकारी दे दी जाती है कि गुरुजी के कार्यक्रमों में सेवाकार्य के लिये जाओ, अगर सेवाकार्य में नहीं जाओगे, तो तुम्हें ग्यारह-ग्यारह सौ रुपये जमा करना पड़ेगा! कभी आज तक धन की कामना मेरे द्वारा नहीं की गई और अगर ऐसा कोई कार्यकर्ता करता है, तो मैंने बार-बार कहा है कि उसे मेरे द्वारा दण्डित किया जाता है। अगर इस तरह की किसी भी प्रकार की जानकारी आपको मिले, तो यहाँ सूचित कर दिया करें। उसकी जानकारी संगठन द्वारा तत्काल ले ली जायेगी। चूँकि जिस तरह मैंने कहा है कि अगर लकड़ी में एक घुन लग जाता है, तो पूरी लकड़ी धीरे-धीरे बर्बाद होजाती है। इसलिये संगठन में कभी घुन मत लगने दो। संगठन की नींव डाली जा रही है। इसकी सत्य की विचारधारा है और सत्य की तरह समाज में प्रवाहित हो, इसके लिए हमारा-आपका सभी का दायित्व और कर्तव्य है। यदि कभी आपको कोई ऐसी बात नजर आती है, जिससे आप अवगत हों कि कभी गुरुजी ऐसा नहीं कह सकते, तो तत्काल यहाँ से जानकारी ले लिया करें। फोन के माध्यम से प्रमुख कार्यकर्ताओं से जानकारी ले लिया करें।

ये आरतियाँ जो हो रही हैं, चैतन्यता का भाव ले करके बैठा करें। आपका गुरु हर पल आपके साथ है और इन्हीं शब्दों के साथ मैं अपना पूर्ण आशीर्वाद आप समस्त लोगों को समर्पित करता हूँ।

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