युग परिवर्तन का महाशंखनाद

प्रवचन शृंखला क्रमांक -133
शारदीय नवरात्र शिविर, सिद्धाश्रम (म.प्र.) 22.10.2012

माता स्वरूपं माता स्वरूपं, देवी स्वरूपं देवी स्वरूपम्।
प्रकृति स्वरूपं प्रकृति स्वरूपं, प्रणम्यं प्रणम्यं प्रणम्यं प्रणम्यम्।।

इन महत्त्वपूर्ण क्षणों पर यहाँ उपस्थित अपने समस्त चेतनाअंशों, शिष्यों, ‘माँ’ के भक्तों, श्रद्धालुओं एवं नाना प्रकार की जिज्ञासाओं को लिये हुये यहाँ उपस्थित समस्त भक्त समुदाय को अपने हृदय में धारण करता हुआ माता आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा का पूर्ण आशीर्वाद प्राप्त करता हुआ अपना पूर्ण आशीर्वाद आप समस्त लोगों को समर्पित करता हूँ।

नवरात्र के ये पावन पवित्र दिन जो हर पल ‘माँ’ के भक्तों को एक विशिष्ट ऊर्जा से ओतप्रोत करते हैं। इस महत्त्वपूर्ण पर्व पर आप सभी भक्त यहाँ एक विशेष लक्ष्य को ले करके उपस्थित हुये हैं। शिविर तो अनेकों होते रहे हैं और भविष्य में भी होते रहेंगे, मगर यह शिविर अपने आप में विशिष्ट और महत्त्वपूर्ण है। माता आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा हर पल अपने भक्तों, साधकों, अनुयायियों को या आंशिक भी जो उस परमसत्ता के प्रति भक्तिभाव रखते हैं, समर्पणभाव रखते हैं, उन सभी के ऊपर हर पल कृपा बरसाती रहती हैं।

‘माँ’ की साधना-आराधना से सहज और सरल कोई दूसरी साधना-आराधना इस भूतल पर नहीं है। चूँकि अधिकांश शिष्य और भक्त इस भ्रम में सदैव पड़े रहते हैं कि ‘माँ’ की आराधना बहुत कठिन है। ‘माँ’ की आराधना में यदि हमसे कोई न्यूनता हो जायेगी, तो हमको बहुत बड़ा दण्ड प्राप्त हो जायेगा। जबकि, उस ममतामयी, कृपालु, दयालु आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा की कृपा सब पर समानभाव से बरसती रहती है। अज्ञानता के कारण बड़ा से बड़ा अपराध हो जाने पर वे सदैव क्षमा करती रहती हैं। आवश्यकता है, तो केवल हम एक विचारधारा को ग्रहण कर लें।

देवी-देवताओं की तो अनेकों साधनाएं हैं, अनेकों आराधनाएं हैं, तान्त्रिक-मान्त्रिक-यान्त्रिक क्रियायें हैं। लेकिन, जो मूल है, उस पर अगर आप लोग सजग हो जाओ, तो इस भूतल पर, इस सृष्टि में केवल ‘मैं’ और केवल ‘माँ’ इन दो शब्दों में सब कुछ सार छिपा हुआ है। अपने ‘मैं’ की और अपनी ‘माँ’ की खोज करो। मैं भौतिकतावाद की बात नहीं कर रहा। आपका अपना ‘मैं’ कि ‘मैं’ कौन हूँ और मेरी ‘माँ’ कौन हैं? इस स्थूल को जन्म देने वाले हमारे माता-पिता कौन हैं, बन्धु-बान्धव कौन हैं? यह तो सभी जानते हैं, मगर क्या हमारे मनमस्तिष्क में कभी यह विचारधारा नहीं कौंधती, कभी हमारे अन्दर यह तड़प नहीं पैदा होती कि हमारे इस स्थूल शरीर को जन्म देने वाले माता-पिता के प्रति हम कितना लगाव रखते हैं, माता-पिता हमारे प्रति कितना लगाव रखते हैं कि माता-पिता बच्चों के लिये सर्वस्व न्यौछावर करने के लिये सदैव तत्पर रहते हैं। जब इस स्थूल जगत् के माता-पिता हमारे साथ ऐसा व्यवहार करते हैं, तो हमारी आत्मा की जननी हम पर कितनी कृपा लुटा रही होंगी? कितनी दया लुटा रही होंगी? क्या हम कभी उस आत्मा की जननी को जानने का प्रयास करते हैं, कभी पहचानने का प्रयास करते हैं, कभी खोजने का प्रयास करते हैं?

आज समाज में नाना प्रकार के दैहिक, दैविक, भौतिक जितने भी ताप हैं, जितनी भी विषमतायें हैं, उन सबका मूल कारण है कि मनुष्य सत्यपथ से विमुख हो चुका है। सत्यपथ के पलड़े से असत्य के पलड़े पर जाकर खड़ा हो चुका है और जब तक मानव सत्य के पलड़े पर खड़ा नहीं होगा, तब तक इन झंझावातों से मुक्त नहीं हो पायेगा। एक बार मानव यदि उस सत्य के पलड़े पर जाकर खड़ा हो जाये, एक बार वह अपने जीवन को संकल्पित कर ले, एक बार संकल्पबद्ध हो जाये कि मुझे अपने आपको और अपनी आत्मा की जननी को जानना है। उस परमसत्ता, विराटसत्ता जिसने आपको सब कुछ दे रखा है। मानव के शरीर में समस्त लोक, समस्त बह्माण्ड समाहित हैं। इतनी अपार क्षमता, इतनी अपार सामथ्र्य, इतनी अपार शक्ति को प्रदान करने वाली उस परमसत्ता के प्रति, क्या कभी हमारे मन में तड़प पैदा नहीं होती कि हम भौतिक कामनाओं से थोड़ा सा ऊपर उठ करके एक जन्म में थोड़ा सा विचार कर लें कि हम क्यों न इन झंझावातों के बीच रह करके, इन झंझावातों से मुक्त हो करके अपनी दिशाधारा को उस परमसत्ता की ओर मोड़ लें और केवल भक्ति, ज्ञान व आत्मशक्ति की कामना ले करके इन तीन कामनाओं में अपने पूरे जीवन को समर्पित कर दें?

सब कुछ विचारों का खेल है। जैसे-जैसे आपकी विचारशक्ति जाग्रत् होगी, वैसे-वैसे आपका जीवनचरित्र बदलता चला जायेगा। चूँकि आपके विचारों की दिशा केवल भौतिकतावाद से जुड़ी हुयी है, विचार आपके केवल भौतिकतावाद पर बढ़ रहे हैं। तुम आत्मा का सुख नहीं चाहते, तुम वास्तव में ‘माँ’ की कृपा नहीं चाहते! तुम ‘माँ’ से केवल एक सौदागर बन करके लाभ चाहते हो और लाभ भी वह जो नाशवान है और भौतिक सुखों तक सीमित है। कब तक उस परमसत्ता से भौतिक सुखों की सौदेबाजी करते रहोगे? वह परमसत्ता जो समस्त लोकों की जननी है, देवाधि-देवों की जननी है, अनन्त लोकों की जननी है, अनन्त ब्रह्माण्ड की जननी है।

हमें क्या चाहिये, हमारे लिये क्या अच्छा है, हमारे लिये क्या बुरा है? क्या परमसत्ता इतना नहीं जानती! आप अपने मन को इतनी स्थिरता नहीं दे पाते कि उस माता आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा के प्रारम्भिक स्वरूपों को समझ करके अपनी सोच को बदल लें कि जो इतनी विराटसत्ता हो तथा जो एक पल में सर्वस्व को नष्ट करने, एक पल में समस्त लोकों को नष्ट करने की सामथ्र्य रखती हो, एक पल में अनन्त लोकों की रचना करने की सामथ्र्य रखती हो, तो क्या वह हमारे प्रति कृपामयी नहीं होंगी, हमारे प्रति क्या दयालु नहीं होंगी, क्या हमारे दु:ख तकलीफों को समझती नहीं होंगी? वह परमसत्ता सब कुछ समझती है, मगर हम उस परमसत्ता को नहीं समझ पा रहे हैं। हमारी और परमसत्ता के बीच की दूरियाँ बस इतनी हैं।

यदि यह समाज माता भगवती आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा के विधान को समझ जाये कि ‘माँ’ का जो विधान है, उसी पर चल करके हमारा कल्याण छिपा हुआ है। केवल उस परमसत्ता के विधान के अनुरूप हम अपने जीवन को मोडऩा शुरू कर दें कि माता ने हमें बनाया किसलिये है? अगर हमें केवल इसी तरह कुत्ते-बिल्लियों की तरह जीवन जीना होता, तो कुत्ता भी अपना पेट भर लेता है। दरवाजे-दरवाजे जाकर कुछ माँग लेता है और उसको भी कुछ टुकड़े मिल जाते हैं, फिर आप तो इन्सान हो। अलौकिक क्षमतायें हैं आपके अन्दर। आप सामान्य मानव नहीं हो। ऋषियों-मुनियों की सन्तान हो, जिनके अन्दर अलौकिक सामथ्र्य थी। वे ऋषि, जो नवीन स्वर्ग की रचना करने की सामथ्र्य रखते थे। वह साधक और साधिकायें, जो इस ब्रह्माण्ड के चक्र को मोडऩे की सामथ्र्य रखते थे, सूर्य की गति को मोडऩे की सामथ्र्य रखते थे। हम उन ऋषियों-मुनियों की सन्तानें हैं। यदि तुम अपनी शक्ति को भूल चुके हो, तो उन ऋषियों-मुनियों को तो याद करो कि वह भी तुम्हारे ही समान मानवजीवन में आये। मानवजीवन धारण करके इसी भूतल पर रहे और उनके पास इतनी अलौकिक क्षमतायें थीं, जबकि आज आप इतने दीन-हीन, असमर्थ-असहाय क्यों बने हुये हो? इसलिये कि तुम अपने आपको पहचानना नहीं चाहते हो और जो तुम्हें पहचान कराना भी चाहता है, तो उसकी आवाज को गहराई से सुनना नहीं चाहते। एक जीवन, एक जन्म आपकी पूरी दिशाधारा को बदल सकता है। एक निर्णय, एक विचारशक्ति कि हम क्या लेकर आये हैं और क्या लेकर जायेंगे? प्रकृति के बनाये हुये विधान के बाहर रह करके हमें कभी सुख, शान्ति और सामथ्र्य प्राप्त हो ही नहीं सकती, क्योंकि यह कर्मभूमि है।

प्रकृति का विधान इतना सच्चा है कि हज़ारों-करोड़ों जीवन उसके चरणों में न्यौछावर करने को मन हर पल तत्पर रहता है कि ‘माँ’ की हर कृपा पर एक नहीं, अनेकों-अनेकों जन्म न्यौछावर करने को अन्दर से अन्र्तमन तड़पता रहता है कि वह मेरे साथ अच्छाई करे या मेरे साथ बुराई करे, मुझे अपाहिज बना दे, मुझे नेत्रहीन बना दे, मुझे कोढिय़ों का जीवन दिला दे, फिर भी मैं ‘माँ’ के चरणों में बारम्बार न्यौछावर होने के लिये तत्पर रहूँगा। चूँकि परमसत्ता के विधान पर मुझे कहीं सन्देह नहीं है। परमसत्ता जो कुछ भी कर रही होंगी, वह हमारे कल्याण के लिये ही कर रही होंगी। परमसत्ता ने एक व्यवस्थित विधान बना करके रखा है। वह कभी किसी के साथ भेदभाव नहीं करती। उसने कर्म की एक परम्परा बना करके रखा है और वह परम्परा भी हमारे कल्याण के लिये है।

यह त्रिगुणात्मक प्रकृति है- सतोगुण, तमोगुण और रजोगुण। इन तीन गुणों से हम बाहर नहीं जा सकते। प्रकृतिसत्ता ने कर्म का विधान इसलिये बनाया कि हम कहीं तमोगुण और रजोगुण में उलझ करके न रह जायें। हम सतोगुण की प्रधानता को समझें। उस परमसत्ता से सदैव जुड़े रहने का मार्ग सतोगुण है। तमोगुण और रजोगुण को अपने आधीन करने पर, सतोगुण के आधीन करने पर ही हमारा कल्याण हो सकता है और रजोगुण और तमोगुण पर जाने से हमारा सिर्फ और सिर्फ पतन होगा। 

 यह केवल हाड़-माँस का शरीर ही नहीं है, इसमें अनन्त कोशिकायें, आत्मा, आत्मा की सहयोगी असंख्य चेतनाशक्तियां हैं और यह विज्ञान भी स्वीकार करता है। हमारे ऋषियों-मुनियों ने तो हज़ारों-हज़ारों वर्षों पहले यह कह रखा था कि मनुष्य के अन्दर केवल अपनी सामथ्र्य नहीं है, मनुष्य यदि अपने पूर्णत्त्व को जाग्रत् कर ले, तो अपने स्वरूप के असंख्य स्वरूपों को पैदा करने की सामथ्र्य रखता है। विज्ञान भी स्वीकार करता है कि एक रोम से, एक अंग से उसी तरह के किसी दूसरे व्यक्ति का निर्माण किया जा सकता है। इतनी अलौकिक अपार क्षमतायें, इतनी विराटता, फिर भी हम अज्ञानता में उलझे हुये हैं। समाज केवल भौतिकता का सुख, धन-सम्पदा का सुख, केवल अमीर बनने का सुख रखता है और ये आपको किस दिशा में लिये जा रहा है? एक बार आपको विचार करना होगा। एक बार आपको सोचना अवश्य होगा कि इसी तरह अगर आप भटकाव के मार्ग में बढ़ते चले गये, तो एक दिन जिस तरह नदियाँ बहती चली जाती हैं और खारे समुद्र में जा करके गिरती हैं, उसी तरह तुम्हारा भी पतन सुनिश्चित होगा, यदि तुम सत्यमार्ग पर नहीं बढ़े।

 निष्ठा, विश्वास, दृढ़ता, संकल्पशक्ति की आवश्यकता है। ऋषियों-मुनियों ने हमारे लिये संकल्पशक्ति की बात इसलिए रखी है कि जब भी पूजा-पाठ होते थे, कोई भी शुभकर्म होता था, व्यक्ति साधना-आराधना करता था, तो सबसे पहले संकल्प कराया जाता था। साधक जब संकल्प करता है, तो अपनी पूरी शक्ति-सामथ्र्य और अपनी पूरी भावना के साथ संकल्प करता है कि मैं ऐसा कार्य अवश्य करूँगा और उसमें दूसरा कोई विकल्प नहीं होगा। आज आपकी वह संकल्पशक्ति क्षीण होती जा रही है। मैं ये बातें केवल आपके लिये नहीं कह रहा हूँ। चूँकि भगवती मानव कल्याण संगठन के कार्यकर्ता, मेरे चेतनाअंश, शिष्य, तो हर पल अपने जीवन को परिवर्तित करते हुये सतत् धीरे-धीरे करके सत्यपथ की ओर बढ़ रहे हैं।

हर पल सजग रहें। यदि किसी पल यह एहसास हो जाये कि हम तो सत्यपथ पर बढ़ ही रहे हैं और थोड़ी सी हमसे चूक हुई नहीं कि हम फिर से पतन के मार्ग पर निकल जायेंगे। चूँकि भौतिकता के झंझावात कब किसके मनमस्तिष्क को मोड़कर ले जायें, अगर आपने अपने मनमस्तिष्क पर, अपने हृदय पर उस परमसत्ता की स्थापना नहीं की। अत: सोते-जागते, उठते-बैठते हमें उस परमसत्ता का स्मरण व चिन्तन बनाए रखना चाहिए। छोटी-छोटी व्यथायें, छोटी-छोटी दुर्घटनायें, छोटी-छोटी समस्यायें आप लोगों को अनास्थावादी बना देती हैं। सदा याद रखें कि नास्तिक व आलसी व्यक्ति, जिनमें नास्तिकता आजाती है, जिनके अन्दर आलस्य का भाव आजाता है, उनका कल्याण कर पाना असम्भव की सी स्थिति बन जाती है। अत: कोई भी परिस्थिति आजाये, प्रथम आपके अन्दर दृढ़ता का भाव बना रहना चाहिये कि परमसत्ता कभी हमारे साथ गलत नहीं कर सकती। वह आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा जो ममतामयी, कृपामयी हैं, वह जो कुछ भी हमारे साथ करेंगी, हमारे लिये अच्छा करेंगी।

हमें अपने विवेक को जाग्रत् करना है। जो हमें ज्ञान मिल रहा है, जो हमें सामथ्र्य मिल रही है, जो हमें दिशा मिल रही है, एक बार उस दिशा में हमें बढ़ने का प्रयास करना है। एक बार अपने अन्दर एक सोच पैदा करनी है कि अपनी गहराई में डूब करके अपनी अच्छाइयों को समझने का प्रयास करें। थोड़ी सी गड़बडिय़ाँ हैं, थोड़ी सी समस्यायें हैं, थोड़ी सी यातनायें हैं, थोड़े से संघर्ष हैं, उन संघर्षों के बीच आप घबड़ा जाते हो, धैर्य को खो देते हो। अपने धैर्य को कायम रखना सीखो, सन्तुलन को कायम रखना सीखो। बड़े से बड़े संघर्ष आजायें, भयावह वातावरण की स्थिति आजाये, कलिकाल का कितना भी भयावह अन्धकारपूर्ण वातावरण क्यों न हो, एक बार उस परमसत्ता को अपने हृदय में बिठाओ। एक बार चेतनाशक्ति को जाग्रत् करो और अंधकार को चीरते हुये आगे बढ़ो, प्रकाश की किरण तुम्हारा स्वागत करते हुये दृष्टिगत होगी।

सत्य कभी पराजित नहीं हो सकता, इसको गाँठ बाँध लेना, यह एक धु्रव सत्य है। उस सत्यपथ पर बढ़ो, आनन्द के पथ पर बढ़ो। माता आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा का जो सुव्यवस्थित विधान है, उस पर पूर्ण निष्ठा, विश्वास और समर्पण रखो। इसके लिये आपके पास एक ही मार्ग है, भक्ति और समर्पण। भक्ति के अलावा कोई दूसरा मार्ग नहीं है। बड़े-बड़े मन्त्रों का कितना ही जाप क्यों न कर लो, मगर आपके अन्दर यदि स्थाई भक्ति नहीं है, समर्पण का भाव नहीं है, उस परमसत्ता के प्रति तड़प नहीं है, तो आप पूर्ण आशीर्वाद के फल के भागीदार नहीं बन सकते। कहीं न कहीं अवरोध जरूर आयेगा।

प्रारम्भ भी भक्ति है और अन्त भी भक्ति है। बड़े से बड़े योगी, ऋषि, मुनि, नाना प्रकार के यत्न करके, नाना प्रकार की सामथ्र्य को प्राप्त करने के बाद भी भक्तिमार्ग पर ही जाकर झुकते हैं। चूँकि भक्ति के अलावा कुछ भी नहीं है। अत: अटूट भक्ति, निष्ठा को जाग्रत् करो। आध्यात्मिक जीवन जीना सीखो। ‘माँ’ की आराधना केवल इतनी ही नहीं है कि हमने ‘माँ’ के जैकारे लगा लिये। अपने जीवनचरित्र को बदलो और जब तक तुम अपने जीवनचरित्र को नहीं बदलोगे, तब तक तुम्हारी दिशा नहीं बदल सकेगी। सतत इस बात पर सजग रहो कि तुम्हें हर कर्म का फल भोगना है, चाहे वह अच्छा कर्म हो या वह बुरा कर्म हो।

अपनी सुख-सुविधाओं को जुटाने के लिये, कुछ अपने संसाधनों को बढ़ाने के लिये जो तुम अनीति-अन्याय-अधर्म का रास्ता अपना रहे हो, तो एक न एक दिन उसका दण्ड भी तुम्हीं को भोगना पड़ेगा और यही चक्र बराबर चलता चला आ रहा है। आज तुम्हारे सामने जो समस्यायें आ रही हैं, तुम्हारे जीवन में कोई संघर्ष आ रहा है, तो उसके जिम्मेदार केवल और केवल आप स्वयं हैं। तुम उस परमसत्ता को क्यों दोष देते हो? परमसत्ता की हर कृपा पर, हर स्थिति पर केवल समर्पण का भाव रखो, निष्ठा और विश्वास रखो। अपने अन्दर इतनी दृढ़शक्ति पैदा कर लो, इतनी दृढ़ता ले आओ कि मेरे जीवन में अच्छा या बुरा कुछ भी हो, मेरे और परमसत्ता के रिश्ते अटूट रहेंगे। मेरे और परमसत्ता के रिश्ते कभी अलग नहीं होंगे।

इस स्थूल शरीर को जन्म देने वाले माता-पिता अपने बच्चों को डाँटते हैं, मारते हैं, पीटते हैं, दण्ड देते हैं, लेकिन इससे हमारा रिश्ता नहीं छूट जाता। माता-पिता बच्चों को इसीलिये दण्डित करते हैं कि बच्चा सही दिशा में चले, सही मार्ग में चले। इसी तरह उस परमसत्ता का भी एक विधान बना हुआ है कि हमारे सोचने, विचारने, किसी भी कर्म का फल हमारे जीवन में जुड़ता चला जाता है। अत: कर्म के विधान पर विश्वास रखो और कर्म के विधान पर जिस दिन विश्वास हो जायेगा, अधर्म तुमसे दूर भागता चला जायेगा। चूँकि तुम अधर्म करोगे ही नहीं, जब तुमको विश्वास हो जायेगा कि आज मैं एक पाप कर रहा हूँ, आज मैं एक अधर्म कर रहा हूँ, तो उसका फल कोई दूसरा नहीं भोगेगा, मुझे ही भोगना पड़ेगा। अत: उस विधान पर निष्ठा और विश्वास रखो।

‘माँ’ की आराधना के लिये एक विचारधारा की जरूरत होती है। केवल ऐसे नहीं कि हमारे अन्दर भाव आ गया, हमारे जीवन में समस्यायें आ गईं, तो हम मन्दिर में चले गये और वहाँ हम चार नारियल तोड़ देंगे, तो हमें ‘माँ’ की बहुत बड़ी कृपा प्राप्त हो जायेगी। हम वहां जाकर कुछ दक्षिणा चढ़ा देंगे, तो हमें बहुत बड़ी कृपा प्राप्त हो जायेगी। दिन-रात माथा टेकते रहो, सैकड़ों नारियल फोड़ते रहो, लेकिन जब तक तुम अपने जीवन को नहीं बदलोगे, अपने स्वभाव को नहीं बदलोगे, एक समस्या का समाधान होगा, दस दूसरी समस्यायें आपके चारों ओर नाचती नजर आयेंगी। अत: अपने आपको पहचानो, अपने आपको जानो। तुम सामान्य मानव नहीं हो, परमसत्ता ने तुम्हारे अन्दर जो अलौकिकता भरी है, उस पर विश्वास रखो।

इस भूतल पर, जहाँ हम और आप बैठे हैं, वहाँ पर ‘माँ’ का अखण्ड गुणगान अनन्तकाल के लिये चल रहा है। उस गुणगान का मार्ग आपको दिया गया है कि ‘माँ’ की कृपा पाने का हमारे पास मार्ग ही एक है कि हर पल हम ‘माँ’ की स्तुति करते रहें, वन्दन करते रहें। और, जहाँ पर श्री दुर्गाचालीसा का अखण्ड पाठ चल रहा हो, उस भूतल पर अगर हमें बैठने का अवसर प्राप्त होता है, उस ध्वनि को सुनने का हमें सौभाग्य प्राप्त होता है या वहाँ की विचारधारा से हम कहीं करोड़ों मील दूर रहकर भी अपने जीवन को उसी दिशा में जोड़ करके रख सकते हैं, तो यहाँ की ऊर्जा के फल को पाने के हम भागीदार बनते हैं। आपको बहुत सहज-सरल मार्ग बताया गया है कि सभी चीजों को भूल जाओ और अपने आचार-विचार को शुद्ध रखते हुये केवल निष्ठाभाव, अपने अन्दर भक्तिभाव रख करके जीवन जियो। तुम्हें किसी तन्त्र, मन्त्र, यन्त्र का ज्ञान है या नहीं है, तुम पहले क्या थे, तुमसे कितने अपराध हो गये, कितने क्या-क्या गलत कार्य हुये, इन सब बातों को भूल जाओ। आज अगर ‘माँ’ ने तुम्हें इस दर तक बुलाया है, आज अगर ‘माँ’ ने संगठन से तुम्हें जोड़ा है, इस पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम से जोड़ा है, तो उस जोडऩे के सौभाग्य की जो एक किरण आपको प्राप्त हुयी है, बस उस किरण को अपने अन्दर समाहित कर लो। वह एक किरण आपको इतना प्रकाशित करती चली जायेगी कि आपके जीवन का भटकाव अपने आप रुक जायेगा।

बहुत बड़ी-बड़ी कथायें, बहुत बड़ी-बड़ी कहानियाँ सुन लेने से आपके अन्दर क्षणिक भावपक्ष तो जाग्रत् हो सकता है, मगर भावपक्ष आपको कुछ दे नहीं सकता। अत: स्थायित्त्व के मार्ग पर चलो। आपको यहाँ से बहुत ही सहज-सरल मार्ग ही बतलाया जाता है कि कर्म करो और फल पाओ, भिखारियों का जीवन मत जियो। इसीलिये मैं अपने शिष्यों से भी कहता हूँ कि तुम मेरे समक्ष भिखारी के रूप में मत उपस्थित हुआ करो। तुम मेरे चेतनाअंश हो, उस परमसत्ता के अंश हो, अपने आपको पहचानो और केवल मेरे बताये हुये मार्ग पर चलो, तुम्हारी समस्याओं का समाधान अपने आप ही होता चला जायेगा।

यह पवित्रधाम सामान्य धाम नहीं है। यदि मेरे द्वारा पहले की कही हुयी बात भूल गये हो, तो यहां से जाकर अपनी-अपनी डायरियों में लिख करके रख देना कि यह भूतल का वह टुकड़ा है, वह पवित्र स्थल है, जिस स्थल पर विश्व की समस्त शक्तियाँ झुकने के लिये बाध्य होंगी। इस स्थल पर अष्टमी, नवमी और विजयदशमी, इन तीन महत्त्वपूर्ण पर्वों पर इस भूतल के समस्त तीर्थों, समस्त शक्तियों की उपस्थिति होती है। यहाँ पर जब भी आओ और बैठो, तो सोचो कि यह साधनास्थली है, एक तपस्थली है। एक-एक पल का सदुपयोग करो। जिस सौभाग्य के क्षणों की ओर आपको बढ़ाया जा रहा है, जिस महत्त्वपूर्ण शिविर में आप सहभागी हो रहे हो, यह सामान्य शिविर नहीं है। इन शिविरों की शृंखला के लिये मैंने तीन कदमों से, तीन चरणों में यहाँ तक ला करके महाशंखनाद के लिये आप लोगों को इस सिद्धाश्रम में उपस्थित किया है। मेरा शरीर किसी अहंकार के वशीभूत नहीं है। मैंने एक बार नहीं, अनेकों बार मंचों से कहा है कि एक सामान्य से कृषक परिवार में मेरा जन्म हुआ है और सामान्य सा जीवन जीता हूँ। उस परमसत्ता का एक रजकण मात्र हूँ। मगर, उस परमसत्ता ने जो सामथ्र्य दी है, उस सामथ्र्य के लिये जिस मार्ग से वह परमसत्ता मुझे बढ़ा रही है, उसी मार्ग को तय करता हुआ मैं आगे बढ़ रहा हूँ।

यदि इस युग परिवर्तन के महाशंखनाद का सौभाग्य आपको और मुझको उस परमसत्ता ने दिया है, तो उसी व्यवस्थित कडिय़ों से कि वह सामान्य पात्रता के आधार पर, चूँकि न सामान्य पात्रता आप लिये बैठे हो, न सामान्य पात्रता के साथ आपका गुरु बैठा हुआ है और इसीलिये जब पहला महाशंखनाद दिल्ली शिविर से हुआ, तो चाहे वह शंकराचार्य हों, चाहे वह मठों के मठाधीश हों, चाहे तान्त्रिक हों, मान्त्रिक हों, विश्वअध्यात्मजगत् की सभी शक्तियों को मैंने चुनौती रखी थी। चूँकि मेरा धर्म कहता था कि इस महाशंखनाद के पहले मैं अपना उद्घोष करूँ कि मैं कौन हूँ, मेरी सामथ्र्य क्या है? और, अगर मेरी सामथ्र्य को कोई पराजित कर दे, तो इस महाशंखनाद को करने की पात्रता मेरी नहीं होगी। मैं हर कदम, एक-एक कदम अपनी पात्रता को समाज में रखता हुआ बढ़ता हूँ।

आठ महाशक्तियज्ञ भी जो मैंने समाज के बीच किये, वह प्रमाण भी मैंने पहले महाशक्तियज्ञ में रखा था। प्रमाण के रूप में मेरे चिन्तनों की कैसेटें आज भी मौजूद हैं और जिन्हें देखना और सुनना हो, उन कैसेटों को अवश्य एक बार सुनें कि जब मैंने पहला यज्ञ किया था, तो मैंने कहा था कि आठ यज्ञ मैं समाज के बीच करूँगा और मेरे किसी एक यज्ञ में भी यदि बरसात न हो, तो यह मान लेना कि मेरे पास ‘माँ’ की कोई कृपा नहीं है और मैं अपना चेहरा भी समाज को नहीं दिखाऊँगा तथा किसी एकान्त स्थान पर पुन: चला जाऊँगा। और, तब तक साधना करूँगा, जब तक परमसत्ता मुझे वह पात्रता नहीं देगी। मेरा लक्ष्य तो सुनिश्चित है कि समाज का कल्याण करना, समाज में परिवर्तन लाना, अनीति-अन्याय-अधर्म का नाश करना। यह मेरा दृढ़ संकल्प है कि जब तक अनीति-अन्याय-अधर्म का समापन नहीं हो जायेगा, एक नहीं अनेकों जन्म क्यों न लेना पड़े, इस पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम की ध्वजा सदा-सदा के लिये फहराती रहेगी। इसी पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम में आपका गुरु सदा-सदा के लिये वास करेगा और यह परिवर्तन इस पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम से आयेगा जरूर।

यदि किसी मठाधीश ने, किसी शंकराचार्य ने मेरी चुनौती को न सुना हो, तो मैं महाशंखनाद से पहले पुन: चुनौती देता हूँ कि हिन्दू धर्म ही नहीं, किसी भी धर्म के जितने धर्म प्रमुख हैं, यदि किसी के पास सामथ्र्य हो और यदि कोई मेरे साधनात्मक तपबल को झुका देगा, तो अपना सिर काट करके उनके चरणों में चढ़ा दूँगा, जिन्दगी भर उनकी गुलामी करूँगा। मेरे पास अपना कोई अहंकार नहीं है। मेरे पास सिर्फ सत्य की आवाज है और अगर मैं परमसत्ता की कृपा का एहसास समाज को कराऊँगा नहीं, तो उस परमसत्ता का कोई भक्त बन ही नहीं सकेगा।

 समाज में यह धारणा बन चुकी है कि कलिकाल में ‘माँ’ को देखा नहीं जा सकता, ‘माँ’ को जाना नहीं जा सकता, ‘माँ’ की कृपा नहीं प्राप्त की जा सकती। मैंने चुनौती दी है कि वे शंकराचार्य, मठाधीश और धर्माचार्य इकट्ठे हों और मैं भी खड़ा होता हूँ तथा विज्ञान के पास यह सामथ्र्य है कि कौन झूठ बोल रहा है, कौन सच बोल रहा है, इसका परीक्षण हो सकता है और इसका परीक्षण होना चाहिये? इसलिये मैं पुन: एक वर्ष का समय और देता हूँ कि कोई कह न सके कि हमें ज्ञात नहीं हुआ था। तीन-तीन शिविर हुये और इसके पहले से मेरे द्वारा कहा जा रहा था। कोई गर्व या घमण्ड नहीं है। किसके पास ध्यान की गहराई में जाने की सामथ्र्य है और कौन अपने आपको शून्य में लेजा सकता है, इसे विज्ञान देख सकता है। कोई कहता है कि मेरे सातों चक्र जाग्रत् हैं, कुण्डलिनीचेतनाशक्ति जाग्रत् है, तो वह झूठ बोल रहा है या सच बोल रहा है, इसका विज्ञान परीक्षण कर सकता है। उन शंकराचार्यों, धर्माचार्यों का, मैं किसी का अनादर नहीं करता और सभी का सम्मान करता हूँ कि हर एक के पास कुछ न कुछ है, मगर वह ठहर चुके हैं और ठहरा हुआ जल हमेशा दूषित होजाता है। उनके भी ठहराव को गति देना चाहता हूँ।

मैं जानता हूँ, महसूस करता हूँ, चिन्तन में लेता हूँ कि बड़े-बड़े मठों में बैठे हुये मठाधीश, जो मन्दिरों में दस-दस, बीस-बीस साल से आरती-पूजन कर रहे हैं, साधना कर रहे हैं, उनके भी मन में रहता है कि शायद भगवान् किसी को दर्शन देते ही नहीं, शायद भगवान् हैं ही नहीं! नास्तिक तो नास्तिक है ही, मगर जो आस्तिक यह कहते हैं, वह वास्तव में पूरे आस्तिक नहीं हैं, वह चाहे धर्मप्रमुख ही क्यों न हों। चूँकि उन्होंने दस-दस, बीस-बीस साल पूजा-पाठ में व्यतीत करके भी बस केवल थोड़ी सी मन की शान्ति पाई है। इस काल में पुन: अपनी कुण्डलिनीचेतना को जाग्रत् करो। कोई तपस्या के मार्ग में बढ़ना ही नहीं चाहता। उनके पास सामथ्र्य है, संसाधन हैं, मगर साधना करना नहीं चाहते। अपने आपको ही दिशा देना नहीं चाहते। भौतिकतावाद के उलझनों में तत्काल समझौते कर लेते हैं।

मेरी बचपन से आज तक की यात्रा को आ करके कोई आँख खोल करके देख ले, मैंने अनीति-अन्याय-अधर्म से कभी समझौता नहीं किया और जो कहता हूँ, वैसा जीवन जीता हूँ और वैसा ही करता हूँ। आज वह परीक्षण करने के रास्ते खुले हुये हैं। चूँकि समाज एक बार देखे और जाने कि किसके पास पात्रता है और किसके पास पात्रता नहीं है? यह मैं इसलिये नहीं कह रहा हूँ कि लोग मुझे जानने लग जायेंगे या विश्वस्तर का ऐसा कोई सम्मेलन होजाने से मेरे पास कोई प्रभुता आ जायेगी। मेरा पूरा जीवन संकल्पबद्ध है कि मुझे अभी शेष सौ यज्ञ सम्पन्न करने हैं। अधिकतर मेरा समय अग्नि के समक्ष गुजर जाना है और बीसों साल से जो संगठन के सदस्य मुझे जान रहे हैं, वह स्वत: देख रहे हैं कि मेरी अधिकतर एकान्त की साधनायें रहती हैं।

साल में एक या दो बार से अधिक मैं समाज के बीच समय भी नहीं दे पाता। चूँकि मैं जानता हूँ कि उस परमसत्ता के चरणों से प्राप्त करके जो मैं समाज को बाँट सकता हूँ, वह समाज की सुख-सुविधाओं, संसाधनों में यदि मैं समाज की तरफ आँखें उठा करके देखने लग जाऊँगा कि वे मेरी मदद करें, वे मुझे सामथ्र्य दें कि मैं धन-सम्पदा के माध्यम से, अपने वैभव के माध्यम से विशाल आश्रम बनवा करके समाज का कल्याण कर सकूँगा, तो यह असम्भव है। अत: जो सम्भव है उस दिशा की ओर बराबर मेरे द्वारा कार्य किया जा रहा है। इसलिये मेरे अन्दर कोई उतावलापन नहीं रहता कि आश्रम धीरे-धीरे बन रहा है या तेज गति से बन रहा है। आश्रम कैसा बनेगा, यह सुनिश्चित है और समय के साथ उसे बनना भी है, मगर जिस स्थान पर मूलध्वज की भी स्थापना की गई है, लेकिन अभी यहाँ किसी स्थाई मन्दिर का निर्माण नहीं किया गया और उस स्थान के बारे में भी कहता हूँ कि अगर विज्ञान के पास यहाँ के वातावरण की तरंगों को पकड़ने की सामथ्र्य हो, तो उन यन्त्रों को यहाँ पर ला करके रखें और देखें कि आज इतने कम समय में यहाँ के वातावरण में कितनी चैतन्यता आयी है?

यह पवित्र स्थल, यह पवित्र स्थान, जिस धाम पर आप बैठे हुये हैं, सामान्य धाम नहीं है। जिस दिन आप अपनी दिशाधारा को मोड़ लोगे, तो यहाँ से हज़ारों-करोड़ों मील दूर रह करके भी यहाँ की ऊर्जा पाने के अधिकारी बनोगे। आवश्यकता है कि ‘माँ’ के विधान को समझो, निष्ठा, विश्वास जाग्रत् करो। अन्यथा छल, प्रपंच, ढ़ोंग तुम्हें ठगता चला जायेगा। आप लोगों को जो बीजमंत्र ‘ॐ’ और ‘माँ’ का उच्चारण बताया गया है, उसमें आधे घण्टे, एक घण्टे नित्य बैठो। इससे तुम्हारे अन्दर थोड़ी स्थिरता आ जायेगी, थोड़ी शान्ति आ जायेगी और तुम ध्यान के प्रथम चरण को भी पकड़ने लगोगे, तब तुम्हें सत्य का एहसास होने लगेगा कि गुरुजी जो कह रहे थे, वह सही कह रहे थे। मैं तुमसे चाहता हूँ कि बाह्य नेत्रों से मुझे मत देखो, अन्दर के नेत्रों से देखने की सामथ्र्य हासिल करो और जब तुम अन्दर के नेत्रों से देखना सीख जाओगे, तब तुम्हें अपने गुरु की विराटता का एहसास होगा। आवश्यकता है एक दिशाधारा में बढ़ने के लिये संकल्पबद्ध होने की। आज की सायंकाल की आरती और शेष दो दिन की दिव्य आरतियों पर जो महाशंखनाद करना है, उसके पहले आप लोगों को अनेकों बातों से संकल्पबद्ध होना है।

यह साधनात्मक क्षण हैं। मौज-मस्ती मनाने के क्षण नहीं हैं, नाचने और झूमने के क्षण नहीं हैं। मैं तो ऐसा जीवन प्रारम्भ से जीता चला आ रहा हूँ। इसलिये इतने शिविर होते हैं, कार्यक्रम होते हैं और आप लोग भी प्रारम्भ में जब आते थे, जैकारे लगाते थे, तो शुरु-शुरु में कुछ भक्तों ने नृत्य करना शुरु किया, जिसे मैंने रोका कि नृत्य नहीं करना है, बल्कि हमें अपनी चेतना को जगाना है। हर चीज में भौतिकतावाद का आनन्द मत लो, स्थूल के आनन्द में मत झूम जाओ। चैतन्यता आये, मस्ती आये, मगर उस मस्ती को पीना सीखो, हज़म करना सीखो। जब उस मस्ती को पीना सीखोगे, हज़म करना सीखोगे, भक्ति के प्रवाह की ऊर्जा को अन्दर समाहित करना सीखोगे, तभी तुम्हारा मन एकाग्र होगा और तुम्हारी सुषुम्ना नाड़ी चैतन्य होगी।

 आज बड़े-बड़े आश्रमों में नाच रहे हैं, झूम रहे हैं। अगर मैं कहता हूँ, तो बुरा लगता है और मेरी बात का विरोध करते हैं। मैं दूसरों की बुराई देखने का कार्य नहीं करता, मगर यह मेरा कर्म है, मैं आया ही इसीलिये हूँ। मेरा जन्म इसीलिये हुआ है कि जो अधर्मी, अन्यायी हैं, उन्हें सही दिशा दूँ। जो अपराधिक मार्ग में जा रहे हैं, उन्हें सही रास्ता दिखाऊँ। उन्हें चाहे चुनौती देनी पड़े, चाहे ठोकर मारना पड़े, चाहे धर्मयुद्ध लडऩा पड़े, किसी भी तरह से उन्हें घेरकर सही दिशा में बढ़ाना है। सबकी दिशायें भटकी हुई हैं। कौन बोलेगा, कौन कहेगा? हर एक में डर समाया हुआ है।

चोर-चोर मौसेरे भाइयों वाली यह प्रवृत्ति कहीं न कहीं, कोई न कोई तो समाप्त करेगा और उसे समाप्त करने वाले आप लोग ही तो होंगे। मेरे चेतनाअंश, मेरे शिष्य, जिस तरह आप लोग अपने जीवन में परिवर्तन कर रहे हो, वह समाज के लिए अनुकरणीय है। आप लोगों में ही अनेकों ऐसे थे, जो अपराधिक प्रवृत्तियों से ग्रसित थे। लाखों लोग ऐसे थे, जो नशा कर रहे थे। आज उन सब चीजों को त्यागकर जीवन में परिवर्तन ला रहे हो। धीरे-धीरे आपके जीवन में परिवर्तन आ रहा है। कलिकाल में यह परिवर्तन सामान्य नहीं है। दो, चार, पाँच साल पहले मुझे व्यथा होती थी कि मैं जैसा चाह रहा हूँ, मेरे शिष्य वैसा आगे नहीं बढ़ रहे हैं, मगर आज सन्तोष होता है कि मेरे शिष्य मेरी विचारधारा को अपनाकर बदलते जा रहे हैं और उन्हें उस परमसत्ता की कृपा का एहसास हो रहा है। कहीं न कहीं वह महसूस कर रहे हैं कि हम जितना सदाचारी जीवन जियेंगे, जितना सात्विकता का जीवन जियेंगे, उतना ही हमारे जीवन में परिवर्तन आयेगा और उतनी ही हमें गुरु और ‘माँ’ की कृपा प्राप्त होगी।

भगवती मानव कल्याण संगठन ही एक ऐसा संगठन है, जो एक ऐसी विचारधारा को लेकर चल रहा है, जो हर एक के जीवन में परिवर्तन ला रहा है, आपके अन्दर साधकप्रवृत्ति जाग्रत् कर रहा है, अन्यथा नाच-गाना, नृत्य करना, उत्सव मनाना, यह सब धर्म की परम्परा के अन्तर्गत नहीं हैं। अनेकों लोगों को देखोगे कि नाचेंगे, झूमेंगे और बड़ी मस्ती में राधे-राधे कहते हुए मस्त हो जायेंगे कि उनको अपने वस्त्रों का भी ख्याल नहीं रह जायेगा। ऐसा तो एक नशेड़ी भी कर लेता है। वे नाचेंगे और नाचने के बाद उनका शरीर टूटता है और तुम एक बार मस्ती में ऊर्जा को अपने अन्दर समाहित करके देखो तो सही, घण्टों नहीं कई-कई दिनों तक तुम्हारा शरीर ऊर्जा से परिपूर्ण रहेगा। मस्ती में यदि असन्तुलन आ जाये, तो तुम्हारी कोशिकाओं की दिशा भटकने लगेगी।

मैं नृत्य की बुराई नहीं करता, लेकिन इसके लिए अवसर होता है। नृत्य, संगीत होना चाहिये, मगर हर जगह, धार्मिक क्रमों में, कि कथायें चल रही हैं, कहीं कुछ चल रहा है, हर जगह असन्तुलित होकर नाचने लगते हैं। नाचने में शरीर की वह सुधि-बुधि खोने लगे, उसे ध्यान नहीं कहते। वह सुधि-बुधि खोई कहाँ? हाथ भी चल रहे हैं, पैर भी चल रहे हैं, बस कहीं न कहीं आपकी ऊर्जा बाहर डाइवर्ट हो रही है, कहीं न कहीं आपकी ऊर्जा बाहर जा रही है, कहीं न कहीं आपकी ऊर्जा दूसरी दिशा में कार्य कर रही है और कहाँ कार्य कर रही है? स्थूल शरीर में। आपका शरीर थिरक रहा है, आपका शरीर मस्त हो रहा है, मगर वह अन्दर की सुषुम्ना नाड़ी पर प्रभाव नहीं डाल रहा है। अत: उस मस्ती को पीना सीखो, उस ऊर्जा को पीना सीखो। कभी आंशिक थिरकन आ जाये, आंशिक चैतन्यता आ जाये, आँखों में आँसू आ जायें, उतना अच्छा है, मगर किसी व्यथा में आप चीख-चीख कर रो पड़ो, असन्तुलित होजाओ, गिरने लगो, यह असन्तुलन कहलाता है। अत: उस सत्य को समझो, एकाग्रता को समझो।

एकाग्रता से सब कुछ सम्भव है। अपने अन्दर और बाहर को दर्पण के समान एक करो। इस भौतिक जगत् में पेड़-पौधे, लतायें, कंकड़, पत्थर, नदी, झरने, ये सब कुछ गुरुस्वरूप हैं। यहाँ का कण-कण गुरुस्वरूप है। इस भूतल पर जहाँ भी जो कुछ दिखे, सभी उस परमसत्ता की ही रचना है। नित्य दर्पण में अपना चेहरा देखते हो, मगर अपने आपको दर्पण समान नहीं बना पाते। अपने आपको भी दर्पण बनाओ कि अन्दर बाहर एक रहो। दर्पण को उठाओ और उसको जमीन में पटक दो, उसके हज़ार टुकड़े हो जायें, मगर एक छोटे टुकड़े पर भी देखोगे, तो जो मूल स्वरूप में था उस टुकड़े में भी वही दृश्य दिखाई देगा। असंख्य टुकड़े क्यों न कर दो, मगर वह चीख-चीख कर वही कहेगा कि जो मैं पहले था, वही मैं इस अंश में भी हूँ और अगर मेरे सभी अंशों को समेट दिया जायेगा, तब भी मैं वही हूँ। टुकड़े-टुकड़े कर दोगे, तब भी मैं वही हूँ। केवल दर्पण को गुरु मान लो और दर्पण से कुछ सीख लो कि हम उस परमसत्ता के भक्त हैं, उस परमसत्ता के अंश हैं। यह कलियुग का भयावह वातावरण भले हमारे अंग-भंग कर दे, हमें विषमताओं से क्यों न घेर दे, मगर हम उस परमसत्ता के भक्त थे, उस परमसत्ता के अंश थे, अंश आज हैं और अंश कल भी रहेंगे। एक अटूट विश्वास, अटूट दृढ़ता, अटूट निष्ठा और यह अटूटता क्यों? इसलिये कि जड़ कोशिकायें तभी जाग्रत् होंगी।

आपनेे दृढ़ता को धारण नहीं किया। अपने अन्दर शिथिलता, अकर्मण्यता, आलस्य लिये बैठे रहे कि पूजा कर रहे हैं, ‘माँ’ देख रही हैं कि नहीं देख रही हैं, ‘माँ’ सुन रही हैं कि नहीं सुन रही हैं? गुरुजी के मन्त्रजाप कर रहे हैं, तो गुरुजी की कृपा मिल रही है कि नहीं मिल रही है? वह परमसत्ता कण-कण में मौजूद है और आपका गुरु भी कण-कण में मौजूद है। एक नहीं, अनेकों प्रमाण समाज के सामने दिये हैं। आज भी जो कहीं से लाभ प्राप्त नहीं कर पा रहे, वह आ करके यहाँ इस आश्रम से लाभ प्राप्त कर रहे हैं। तनाव से आते हैं, विषमताओं से आते हैं और अगर यहाँ आश्रम में कुछ क्षण बैठते हैं, तो यहाँ अभी स्थाई मन्दिर का निर्माण भी नहीं हुआ, फिर भी उन्हें शान्ति मिलती है। चूँकि सत्य कभी नकारा नहीं जा सकता।

मेरी दिन-रात की एकान्त की साधनायें कभी निष्फल नहीं जायेंगी। माता आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा की कृपा निष्फल कभी नहीं जाती, केवल विश्वास करना सीखो। अपने तन, अपने मन, अपने धन को शुद्ध करना सीखो। जब तक तुम्हारा तन शुद्ध नहीं होगा, जब तक तुम्हारा मन शुद्ध नहीं होगा, जब तक तुम्हारे घर में आने वाला धन शुद्ध नहीं होगा, तुम्हारी समस्यायें बढ़ती रहेंगी, घटेंगी नहीं। अगर समस्याओं से मुक्ति पाना है, तो अपने तन, मन और धन को शुद्ध और पवित्र करो। प्रलोभनों में मत उलझ जाओ। आहार हमारा शुद्ध और सात्विक हो। हम चरित्रवान् हों, तभी हम चेतनावान् बन सकेंगे। आप अट्ठारह घण्टे, बीस घण्टे अपने शरीर को व्यस्त रखें, तब भी आपका कुछ नहीं बिगड़ेगा। भौतिक जगत् का जीवन जीने के लिये, अपने शरीर को स्वस्थ्य रखने के लिये सात, आठ घण्टे आराम करना पर्याप्त हैं। अधिक से अधिक समय आप साधनाओं में दें, समाजकल्याण के कार्यों में दें। इसीलिये मैंने अपने शिष्यों को जनकल्याण और आत्मकल्याण, इन दोनों धाराओं से जोड़ा है और अगर उस परमसत्ता को प्राप्त करना है, तो लोभी प्रवृत्ति कभी भी न हो।

हमारा कल्याण हो, इसके लिये हम हर पल उस परमसत्ता के चरणों में आकांक्षी रहते हैं और निवेदन करते रहते हैं कि हम उस परमसत्ता के चरणों के सदैव दास बने रहें। मगर, जो समाज भटक रहा है, उसके प्रति भी हमारे कुछ दायित्त्व और कर्तव्य हैं कि उसका भी कल्याण हो, उसका भी हित हो। जो भटक रहे हैं, उन्हें भी हम सही दिशा दे सकें। आज हम इस परिवार में जन्म ले रहे हैं, कल जा करके हम किसी दूसरे परिवार में जन्म ले लेंगे। आज हम जिसे शत्रु मान रहे हैं, कल को हो सकता है, उसी परिवार में जाकर हम जन्म ले लें। अत: जो विषमतायें हैं, उन्हें दूर करो। शत्रुता तो सिर्फ अनीति-अन्याय-अधर्म से होनी चाहिये, जिस अनीति-अन्याय-अधर्म को आप सहजभाव से अपना हितैषी मान चुके हैं। मैं यह बात केवल संगठन के लिये नहीं कह रहा। मैं समाज के लिये कह रहा हूँ कि आज जिस तरफ  निगाह उठा करके देखो, अनीति-अन्याय-अधर्म का साम्राज्य स्थापित हो चुका है।

आपने तो एक रावण की कहानियाँ सुनी हैं, लेकिन आज अनेकों-अनेकों, हज़ारों-हज़ारों रावण हर देश में मौजूद हैं। उनको समाज के दु:ख दर्द से कुछ लेना-देना नहीं है। गरीब कहाँ मर रहा है, गाँव के लोग किस तरह का जीवन जी रहे हैं, गरीब लोग किस तरह का जीवन जी रहे हैं, महानगरों में रहने वाले मजदूर किस तरह का जीवन जी रहे हैं? उनको इसकी कोई परवाह नहीं है। अरे, उनका बस चले तो, गरीबी मिटाने के नाम पर गरीबों को एक लाइन में खड़ा करके गोलियों से भून दें। अन्तरात्मा मर चुकी है। हमारे देश के चाहे बड़े-बड़े राजनेता हों, चाहे हमारे धर्मप्रमुख हों, इस बात को कहने में मुझे कोई आपत्ति नहीं है, कोई हिचक नहीं हैं कि वे अन्यायियों-अधर्मियों का उनके भगवान् से ज्यादा स्वागत करते हैं। अपने मंचों में उन्हें सम्मानित करते हैं। कौन आवाज उठायेगा? कब तक तुम इस अधर्म को देखते रहोगे? कब तक यह अनीति-अन्याय-अधर्म होता रहेगा? वह भी इस भारतभूमि में, जो ऋषियों-मुनियों की तपस्थली है, ऋषियों-मुनियों ने जहाँ जन्म लिया है, राम और कृष्ण जैसे देवपुरुषों ने जहाँ जन्म लिया है, विश्वामित्र, पुलस्त, वशिष्ठ, अगस्त आदि ऋषियों ने जहाँ जन्म लिया है! क्या हम इस अनीति-अन्याय-अधर्म को अपनी आँखों से देखते चले जायें और फिर भी कह दें कि हम ‘माँ’ के भक्त हैं!

सदा याद रखो कि पाप करने वाला तो पापी है ही और यदि कोई अधर्म कर रहा है, तो उसको देखने वाला भी उसी के समान पापी, अधर्मी कहलाता है। अत: उसके खिलाफ आवाज उठाओ और इसके लिये मैंने आपको एक सशक्त संगठन दिया है- भगवती मानव कल्याण संगठन। जिस पर मेरी चेतना वास करती है और जिसके लिये मैं अपना सर्वस्व न्यौछावर करने के लिये हर पल तत्पर हूँ। उस भगवती मानव कल्याण संगठन के आप कार्यकर्ता हो। अपने आपको जानो, समझो, पहचानो, अपनी आध्यात्मिक ऊर्जा को जाग्रत् करो। हमारी आध्यात्मिक ऊर्जा कभी नष्ट न होने पाये। हमारा प्रथम कर्तव्य और दायित्त्व है कि हमारे अन्दर की शान्ति कभी भंग न हो। हम उस परमसत्ता के आराधक बनें और अपने अन्दर उस परमसत्ता से इतनी ऊर्जा प्राप्त करें कि हमें सुख मिले या न मिले, मगर हम इस जीवन में अनीति-अन्याय-अधर्म के खिलाफ खुला धर्मयुद्ध लड़ सकें और विजय प्राप्त कर सकें।

चारों ओर अनीति-अन्याय-अधर्म फैला हुआ है, इन्हें समाप्त कौन करेगा? जहां देखो, वहां केवल अन्यायियों-अधर्मियों का स्वागत हो रहा है। हज़ार-पांच सौ धर्मप्रमुख होंगे, हज़ार-दो हज़ार बेईमान राजनेता होंगे, हज़ार-दो हज़ार बेईमान उद्योगपति होंगे और हज़ार-दो हज़ार बेईमान भ्रष्ट प्रशासनिक अधिकारी होंगे। मात्र दस-बीस हज़ार लोग पूरे देश की संस्कृति को, देश की सामथ्र्य को लूट रहे हैं, आपको अधर्म की ओर बढ़ा रहे हैं और आप हैं कि उसी प्रवाह में खिंचते चले जा रहे हैं। 

अन्यायियों-अधर्मियों के सामने झुकना बन्द करो। अरे झुकना है, तो माता आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा के सामने झुको। प्रार्थना करना है, तो परमसत्ता के चरणों में करो। अनेकों धर्माधिकारियों को देखो कि उनके मंचों पर कोई राजनेता आ जाता है, वह चाहे जितना भ्रष्ट से भ्रष्ट हो, चाहे जितना बेईमान हो, उसकी लम्बी आयु की कामना करते हैं। आपसे भी कहता हूँ कि पूजा-पाठ किया करो, तो एक पल का समय इस काम के लिये भी दे दिया करो कि ‘माँ’ के चरणों में प्रार्थना कर दो कि जितने अन्यायी-अधर्मी, भ्रष्ट लोग हैं, ये घातक से घातक बीमारियों के शिकार हों, इनके एक्सीडेण्ट हों और ये आपस में लड़ें। यह सब कुछ हो भी रहा है और होगा। जो मैंने दसियों साल पहले मंच से कहा था कि राजनेता आज तक समाज को लड़ाते चले आये हैं और देखते जाओ कि मैं आने वाले समय में ऐसा चक्रव्यूह रचूँगा, जिस चक्रव्यूह से अधर्मी-अन्यायी निकल भी नहीं पायेंगे।

मेरा यह शरीर शान्त, एकान्त स्थान पर जरूर रहता है, मगर मेरी चेतना कभी शान्त नहीं रहती। मेरी चेतना जहाँ जिन रूपों से कार्य कर रही है, आने वाले समय में समाज देखता चला जायेगा। अत: बार-बार चेतावनी देता हूँ उन अधर्मियों-अन्यायियों को, कि सुधर जाओ, अन्यथा सुधारने के लिये प्रकृतिसत्ता ने सामथ्र्य इस छोटे से शरीर को दे रखी है। अत: जो कुछ समाज में हो रहा है, खुली आँखों से देखा करो। टी. वी. सीरियल, दूसरी अन्य चीजें देखा करो या न देखा करो, मगर न्यूज एक घण्टे जरूर देख लिया करो। देखो कि समाज को किस तरह लूटा जा रहा है? गरीब किस तरह तड़प रहे हैं? लोग अपने बच्चों की स्कूल फीस नहीं जमा कर पा रहे, अपने बच्चों को कपड़े नहीं पहना पा रहे, अपना घर नहीं बना पा रहे, एक झोपड़ी नहीं बना पा रहे। घर में जितने सदस्य हैं, उतने सदस्यों के लेटने के लिये एक कमरा भी नहीं है कि वे उस कमरे की जमीन पर ही उतनी जगह पर आराम से लेट सकें। मगर हमारे राजनेता अरबों-खरबों की सम्पत्ति पर खेल रहे हैं। करोड़ों-करोड़ों रुपये एक-एक दिन में लुटा रहे हैं। अभी आज ही एक केन्द्रीय मन्त्री का स्टेटमेण्ट आया कि यदि कोई कहीं खुली जगह में शौच को जाये, पेशाब करे, तो उसको जेल के अन्दर डाल दिया जाय। इसलिये, कि उन बेईमानों के पास तो सब सुविधायें हैं, उन धूर्तों के पास तो किसी चीज की कोई कमी नहीं है।

बेईमान, धूर्त राजनेता, उन गाँवों मे जा करके देखें कि गांव में रहने वाले गरीबों के पास बाथरूम बनाने की तो क्या, रहने के लिये झोपड़ी नहीं है और जिनके बाथरूम बन जाने चाहिये, उनके हक को तो वे बेईमान खा करके अपनी जेबें भर चुके हैं और विदेशों में ले जा-जा करके जमा कर चुके हैं। दिन-प्रतिदिन तुम लोग लुट रहे हो, हर विभागों में लुट रहे हो। सभी थानों में जहाँ जाओ, वहाँ लूटा जाता है, तहसील में जाओ, वहाँ लूटा जाता है। आखिर, कब तक लुटते रहोगे? अपने कर्तव्य को तुम पूरा नहीं करोगे, तो ‘माँ’ की कृपा को कैसे प्राप्त करोगे? अत: ‘माँ’ की कृपा को प्राप्त करना है, तो सच्चे साधक और सच्चे धर्मयोद्धा बनो, मानवता के रक्षक बनो।

परमसत्ता ने तुम्हारे अन्दर सब कुछ दे रखा है। अत: अनीति-अन्याय-अधर्म के खिलाफ खुला धर्मयुद्ध लड़ने की सामथ्र्य रखो। एक ऐसा धर्मयुद्ध, जहाँ पर हमें कहीं भी अस्त्र-शस्त्र का उपयोग नहीं करना है। हमारी आध्यात्मिक शक्ति, हमारी एकता, हमारी सद्भावना, हमारी सामथ्र्य उन अधर्मियों-अन्यायियों को पराजित करती चली जायेगी। एक बार उस परमसत्ता पर विश्वास तो रखो कि उसने आपको सामान्य जीवन जीने के लिये पैदा नहीं किया। परमसत्ता ने आपको इस स्थान पर, आपके क्षणिक प्रलोभनों की पूर्ति के लिये नहीं बुलाया, यहाँ पर नहीं खींचा। मैं आप सब लोगों को तैयार कर रहा हूँ एक बड़े विशाल धर्मयुद्ध के लिये, एक ऐसा धर्मयुद्ध जो इस भूतल पर न कभी हुआ है और न कभी भविष्य में हो सकेगा। जहाँ हमें किसी अस्त्र-शस्त्र से किसी की हत्या नहीं करनी है, मगर उसके अन्दर समाहित अनीति-अन्याय-अधर्म के अस्तित्व को अपनी आध्यात्मिक ऊर्जा के बल पर, अपनी धर्मशक्ति के बल पर नष्ट करना है। इसके लिये प्रयास करना पड़ेगा, स्वयं में सजगता लानी पड़ेगी।

 हमारी आध्यात्मिक शक्ति नशे-माँस का सेवन करने से नहीं बढ़ेगी, विकारों में ग्रसित होजाने से नहीं बढ़ेगी। इसीलिये आप सभी लोगों को और जो मेरे संगठन के सदस्य हैं, उनको मैं संकल्पित कराता हूँ कि अगर तुम मेरे शिष्य हो, मेरे शिष्य बन करके रहना चाहते हो, तो मेरा शिष्य वही होगा, जो नशे से मुक्त होगा, माँस से मुक्त होगा और चरित्रवान् होगा। चरित्रवान् का तात्पर्य है कि हम एक पति एवं एक पत्नी पर विश्वास रखें, शादी के पहले बच्चे और बच्चियाँ अनीति-अन्याय-अधर्म में, विषय-विकारों में ग्रसित न हों और शादी के बाद एक पति और एक पत्नीव्रत धर्म का पालन करें। अनेकों प्रकार के भटकाव समाज में हैं और इसके लिये आप लोगों को हर पल दृढ़ संकल्पित रहना है।

आज जिस महाशंखनाद की ओर मैं बढ़ रहा हूँ, उस महाशंखनाद पर मैं पुन: इन क्षणों पर आपको सबसे पहले संकल्प कराना चाहूँगा कि जितने लोग नशे और माँस से मुक्त होना चाहते हैं, चरित्रवान् बनना चाहते हैं, हाथ उठाकर संकल्प लें कि आप चरित्रवान् बनेंगे, अनीति-अन्याय-अधर्म के रास्ते को नहीं पकड़ेंगे और नशे-माँस से मुक्त होंगे। विषय-विकारों में जितना लुट चुके तो लुट चुके, एक बार उस परमसत्ता के चरणों का आनन्द लेना सीखो, गुरुकृपा के आनन्द में डूबना सीखो। आपका गुरु स्वत: पूर्ण ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करता है। मेरे परिवार के सदस्य बैठे हैं, मेरी बच्चियाँ बैठी हैं, मेरी पत्नी बैठी हुयी हैं। सन्तानोत्पत्ति के अलावा, जिस दिन से संतान उत्पत्ति की इच्छा समाप्त हुयी और मैंने ‘माँ’ के चरणों में प्रार्थना की थी कि अगर मुझे समाज के बीच चिन्तन देना है और यदि मैं नि:सन्तान रहूँगा, तो लोग कहेंगे कि गुरुदेव जी खुद नि:सन्तान हैं, तो समाज को सन्तान उत्पन्न करने का आशीर्वाद क्या दे सकेंगे? तब मैंने ‘माँ’ के चरणों में प्रार्थना की थी कि अगर मेरे यहाँ सन्तान होना है, तो कन्याओं के रूप में दिव्यशक्तियों का अवतरण हो। मैंने कन्याओं को स्वीकार किया और जहाँ जिस क्षण आगे सन्तान उत्पन्न करने की इच्छा समाप्त हुई, पूर्ण ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करता हूँ।

आपसे तो कहता हूँ कि आप गृहस्थ में हो, साधक हो, एक पति और एक पत्नीधर्म के व्रत का पालन करो। कम से कम विषय-विकार से तो अलग रहो। शादी के पहले तो ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करो। अगर इतना भी नहीं कर सकते, तो तुम वास्तव में मेेरे शिष्य बनने के अधिकारी नहीं हो। योग के आनन्द को देखो, अन्तर्मन के आनन्द में खोना सीखो, गुरुभक्ति में खोना सीखो, ‘माँ’ की भक्ति में डूबना सीखो, इससे तुम्हारी शक्ति-सामथ्र्य बढ़ेगी, कम नहीं होगी। अत: इन क्षणों पर जो लोग भी नशे-माँस से मुक्त चरित्रवानों का जीवन जीना चाहते हों, जो चाहते हैं कि शंखनाद का पूर्ण फल उन्हें प्राप्त हो सके, जो तीन दिनों के इस महत्त्वपूर्ण शिविर का लाभ लेना चाहते हैं, तो वे इन क्षणों पर हाथ उठाकर संकल्प लें कि हम नशे-माँस से मुक्त चरित्रवान् जीवन जियेंगे। यही हमारी शक्ति है और यही हमारे, भगवती मानव कल्याण संगठन की ऊर्जा है, जो अनीति-अन्याय-अधर्म को तहस-नहस करके रख देगी। इस शक्ति को बनाये रखना है, इस संकल्प को अपने जीवन में तोड़ना नहीं है।

अपने अन्दर के दृढ़ संकल्प को अक्षुण्य बनाए रखो और आज जो यह दृढ़ संकल्प ले रहे हैं, यहाँ पर या टी. वी. प्रसारण के माध्यम से या मेरे शिष्य कहीं पर भी मौजूद हैं, तो जिन आठ यज्ञों की ऊर्जा को मैंने आज तक सीमित कर रखा था, क्योंकि आठ यज्ञ जहाँ-जहाँ मैंने सम्पन्न कराये थे, उनके आयोजकों को मैंने कह रखा था कि यज्ञ के माध्यम तो आप बन रहे हैं, मगर यज्ञ की ऊर्जा इतनी विराट है कि उसका लाभ केवल आप तक ही सीमित नहीं रहेगा। समय आने पर मैं उस ऊर्जा को लोगों में बाटूँगा और वह समय आ चुका है कि आज इन क्षणों पर मैं संकल्प के साथ अपने उन समस्त आठ यज्ञों की ऊर्जा अपने उन समस्त शिष्यों, ‘माँ’ के भक्तों को, जो मेरे शिष्य भी नहीं हैं, अगर इन क्षणों पर पूर्ण नशे-माँस से मुक्त चरित्रवान् बनने का संकल्प लेते हैं, तो यह समस्त ऊर्जा आप लोगों को लुटाता हूँ, बाँटता हूँ कि इस ऊर्जा के आप लोग अधिकारी बनो और यह ऊर्जा आप लोगों को गति देती चली जायेगी, आपकी समस्याओं का समाधान करेगी। आप जीवन में इसे महसूस करेंगे। अत: इस संकल्प को मत तोड़ना। यह संकल्प तुम्हारे जीवन की नींव बन जायेगा।

जो बीत गया, वह बीत गया, वर्तमान तुम्हारे सामने है। अपने भविष्य को संवार लो। केवल इस संकल्प पर दृढ़ रहना कि आज इस महाशंखनाद में हमने यह संकल्प लिया है। हम शंखनाद केवल दिखावे के लिये नहीं कर रहे। हम शंखनाद परिवर्तन के लिये कर रहे हैं और जब हम बदलेंगे, तो जग अवश्य बदलेगा। हमें इस शब्द को सार्थक करना है। एक विचारधारा का जीवन जीना है। अत: एक विचारधारा का जीवन जियो कि हमें ‘माँ’ के भक्त बनना है और जब यह प्रवाह आपके अन्दर दृढ़ता से आयेगा, तो आपकी जड़ पड़ी कोशिकायें धीरे-धीरे परिष्कृत होती जायेंगी और आपकी ऊर्जा, आपकी चैतन्यता, आपकी सोचने, विचारने व समझने की शक्ति बढ़ने लगेगी।

आप नशे-माँस से मुक्त चरित्रवान् बन करके तो देखो और फिर ‘माँ’ के चरणों में बैठो, देखो तुम्हें कितना आनन्द मिलता है, कितनी तृप्ति मिलती है? मैं स्वत: उस तृप्ति को हर पल पीता रहता हूँ कि जिन क्षणों पर ‘माँ’ के ध्यान में बैठने का सौभाग्य प्राप्त होजाता है, तो लगता है कि बस यही मेरा जीवन है। जिन क्षणों पर ‘माँ’ के पूजन कक्ष में ‘माँ’ के चरणों के दर्शन प्राप्त होते हैं, ‘माँ’ का पूजन करने का सौभाग्य प्राप्त होता है, ध्यान लगाने का सौभाग्य प्राप्त होता है, आरती करने का सौभाग्य प्राप्त होता है, तो लगता है कि मेरे जीवन की पूरी सम्पदा मुझे प्राप्त हो गयी। वैसा जीवन जीना सीखो। जब नित्य अपने पूजन कक्ष में जाओ, तो महसूस करो कि कलिकाल के इस भयावह वातावरण में हम ‘माँ’ की कृपा से इन क्षणों को प्राप्त कर रहे हैं। अगर हमें दो मिनट, पाँच मिनट, दस मिनट मिल रहे हैं, तो उस परमसत्ता की कृपा से हमें प्राप्त हो रहे हैं। हर पल उस भाव विभूति में जीवन जी करके तो देखो।

अपने जीवन की समस्याओं को केवल एक बार ‘माँ’ के चरणों में रख दो और फिर अगर माँगना है, तो भक्ति, ज्ञान और आत्मशक्ति माँगो। इन तीनों आशीर्वादों में सब कुछ समाहित है और वह परमसत्ता आपको वही देगी, जो आपके लिये हितकारी है, कल्याणकारी है। उसे बार-बार बताने या समझाने की जरूरत नहीं रहती। वह परमसत्ता कण-कण में मौजूद है, जिसने हमें बनाया है, जो हमें जीवन दे रही है, जिसके बल पर हम हर साँस ले रहे हैं। हमें क्या चाहिये, क्या नहीं चाहिये, हमसे ज्यादा भलीभाँति वह जानती है? तो, ‘माँ’ के चरणों में प्रार्थना कर दें और हमें यदि माँगना है, तो केवल भक्ति माँगें, ज्ञान माँगें और आत्मशक्ति माँगें। चूँकि यही तीनों हमको ‘माँ’ के रिश्ते से जोड़ करके रखेंगे और यह भी हम इसलिये नहीं माँग रहे कि हमें जीवन में सुख-सामथ्र्य मिल जाये, हम सामथ्र्यवान् बन जायें, हमें समाज सम्मान देने लगे। हम तो यह इसलिये माँग रहे हैं कि इसी से हम उस परमसत्ता से जुड़े रह पायेंगे। अत: प्रकृतिसत्ता हमारा सर्वस्व छीन ले, पति छीन ले, पत्नी छीन ले, बेटा छीन ले, हमारे शरीर को अपाहिज बना दे, हमें कोढिय़ों के समान बना दे, हमारा अंग-भंग कर दे, मगर हमसे भक्ति, ज्ञान और आत्मशक्ति न छीने। केवल यदि यह तीन चीजें हमारे पास मौजूद हैं, तो हम असमर्थ रहकर भी, नेत्रहीन बन करके भी उस ‘माँ’ की कृपा को प्राप्त कर सकते हैं। रेगिस्तान में रह करके भी वहाँ अपना वैभव खड़ा कर सकते हैं। अत: केवल तीन चीजों को मत छूटने दो।

एक विचारधारा का जीवन जियो। ‘माँ’ से अगर रिश्ता जोडऩा है, तो सच्चा रिश्ता जोड़ो, केवल अपने प्रलोभनों के लिये नहीं कि साल भर हम चाहे जैसा जीवन जियें, घर में हम कैसा जीवन जी रहे हैं, अनीति-अन्याय-अधर्म कर रहे हैं, अनीति-अन्याय-अधर्म अपनी आँखों से होता देख रहे हैं और फिर भी कह रहे हैं कि हम ‘माँ’ के भक्त हैं। ‘माँ’ हम पर कृपा लुटाओ, ‘माँ’ हमारी समस्याओं का समाधान करो, तो तुम्हारे अन्दर जितनी सामथ्र्य है, उसका सदुपयोग करना सीखो। जिस दिन तुम उस भावभूमि पर खड़े हो जाओगे, उस दिन तुम्हारा ध्यान लगने लगेगा, मन एकाग्र होने लगेगा। आपको इसीलिये विशिष्ट मन्त्र दिये गये हैं। अपने घरों में ‘माँ’ का ध्वज लगाओ, शक्तिजल का नित्य पान करो, ‘माँ’ के चेतनामन्त्र, गुरुमन्त्र का नित्य जाप करो। ध्यान में नित्य पाँच-दस मिनट बैठो। ‘माँ’ और ॐ का नित्य पाँच-दस मिनट जाप करो, सहज प्राणायाम करो। ये मूल क्रियायें हैं।

आपका शरीर संकुचित होता जा रहा है। पहले लोग मेहनत करते थे, परिश्रम करते थे, जिससे फेफड़ों में फैलाव आता था। मगर आज आप लोग थोड़ी सी मेहनत करते हो, कहीं कोई छोटी सी पहाड़ी चढ़ते हो, तो साँस फूलने लगती है। चूँकि इसके पहले कभी आपने अपने फेफड़ों को फैलाव दिया ही नहीं। फेफड़े संकुचित होते जा रहे हैं और इसीलिये पचास साल में, साठ साल में किसी को हार्टअटैक हो रहा है, किसी को कोई बीमारी हो रही है। अत: फेफड़ों में फैलाव देने के लिये ऑक्सीजन लेना नितान्त आवश्यक है। इसलिये बार-बार गहरी साँस लिया करो।

तुम अपाहिज हो, नेत्रहीन हो, शरीर यदि बैठने लायक नहीं है, बैठ भी नहीं पाते हो, लेट करके भी अगर पड़े हुये हो, तो एक बार उस अभ्यास में डूब करके देखो। केवल सहज प्राणायाम, कि गहरी साँस को अन्दर धीरे-धीरे भरना है और फिर धीरे-धीरे बाहर निकाल देना है। जितनी देर अच्छा लगे, उतनी देर साँस को अपने अन्दर रखो। महीने दो महीने सहज प्राणायाम करके देखो, तुम्हारे अन्दर एक तृप्ति का एहसास होगा। चलते-फिरते जो सामान्य साँस लेते हो, उससे तुम्हारे अन्दर पूरी साँस फेफड़ों तक नहीं जाती। तुमको खुद एहसास नहीं होता। गले तक साँस जाती है और फिर बाहर निकल जाती है। दूषित वायु आपके शरीर में अन्दर पड़ी रहती है। एक-दो गहरी साँसें ले करके देखो, तुम्हें चैतन्यता महसूस होगी।

इन छोटी-छोटी क्रियाओं को करो। तुम्हारा आत्मबल बढ़ेगा। तुम्हें सही तरीके से ध्यान लगने लगेगा, निरोगी काया प्राप्त होगी। योग की क्रियायें यहाँ पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम में नवम्बर से लेकर फरवरी तक सिखाई जाती हैं। जिसके पास भी समय हो, लाभ ले सकता है। यहाँ कोई शुल्क नहीं है। नि:शुल्क रहने की जो व्यवस्था होती है, वह मिल जाती है, यहाँ भोजन की जो व्यवस्था रहती है, वह मिल जाती है और नित्य सायंकाल जो योग की क्रियायें सिखाई जाती हैं, वह अगर आप सीखना चाहो, तो कभी भी आ करके सीख सकते हो। जब कभी शिविर में मैं कहीं बाहर जा रहा होता हूँ, तो उस समय को छोड़ करके आप कभी भी आ सकते हैं। मेरे यहाँ कोई किसी प्रकार का शुल्क नहीं रहता। चाहे मेरे शिविर हों, चाहे मेरी दीक्षा हो, चाहे यहाँ लोग मुझसे मिलने आ रहे हों। प्रारम्भ से लेकर आज तक की मेरी यात्रा में किसी चीज का कोई शुल्क नहीं रहा है। रास्ते खुले हैं, चूँकि ‘माँ’ के रास्ते सभी के लिये खुले रहते हैं।

मैं आज के लुटेरे योगाचार्यों के सरीखे जीवन नहीं जीता। जिनकी कथनी और करनी में आकाश और पाताल का फर्क है। एक विचारधारा का जीवन जियो, सहजता का जीवन जियो। अपने आध्यात्मिक बल को जाग्रत् करो और अधर्मी-अन्यायियों के प्रति अपने अन्दर एक रोषभाव रखो। जब तक तुम्हारे अन्दर वह रोषभाव जाग्रत् नहीं होगा, तब तक तुम उनसे टकराने की हिम्मत नहीं जुटा पाओगे। आज किसी एक क्षेत्र में कोई अधर्मी-अन्यायी रहता है, तो वहाँ सब उससे आतंकित रहते हैं कि कौन उससे टकराये? मैं बार-बार उस परमसत्ता से कहता हूँ, समाज के सामने आवाहन करता हूँ कि भूतल में जितने अधर्मी-अन्यायी हों, वे किसी दूसरे से टकरायें न टकरायें, मेरे भगवती मानव कल्याण संगठन से जरूर टकरायें। चूँकि भगवती मानव कल्याण संगठन से टकरायेंगे, तभी उनको जवाब मिलेगा और यदि भगवती मानव कल्याण संगठन का असर होगा, तो भगवती मानव कल्याण संगठन के कार्यकर्ताओं के साथ उनके गुरु की शक्ति जुड़ी है और अगर कहीं पर मैं असफल हो रहा होऊंगा, तो मैं वह मार्ग जानता हूँ कि ‘माँ’ के चरणों से मैं वह ऊर्जा प्राप्त करके समाज में लुटा सकता हूँ कि भगवती मानव कल्याण संगठन का मेरा कोई भी कार्यकर्ता कभी असफल नहीं होगा, यदि वह नशे, माँस से मुक्त चरित्रवान् जीवन जीता है।

अनीति-अन्याय-अधर्म से घबराओ मत, उसका परिणाम आपके सामने आता जा रहा है। जिन-जिन क्षेत्रों में आप प्रवाह से कार्य कर रहे हैं, उन-उन क्षेत्रों में परिवर्तन आता जा रहा है। अगर चमत्कार देखना है, तो जो नास्तिकवादी हैं, वे दो-चार दिन मेरे आश्रम में आकर, रह करके देखें कि लोग समझा-समझा कर नशा नहीं छुड़वा पाते, मगर आश्रम में नशेड़ी अपने आप भगकर चले आते हैं। उनके घर का कोई सदस्य साथ नहीं आता। सौ-सौ, पचास-पचास के समूह के समूह आते हैं और कहते हैं कि गुरुदेव जी हम आपके पास नशा छोड़ने आये हैं। कौन सी ऊर्जा कार्य कर रही हैं, कौन सा तन्त्र कार्य कर रहा है, कौन सा माध्यम कार्य कर रहा है? आकर खोजें, देखें, समझ में आ जायेगा।

लोग कहते हैं कि जो गुरुदेव जी के पास जाता है, वह गुरुदेव जी का बन जाता है। कोई शरीर गुरु नहीं होता, बल्कि गुरु उस परमसत्ता की एक चेतनातरंग है। अगर तुम अपने माता-पिता की गोदी में जाओगे, तो आनन्द की अनुभूति करोगे। अगर कोई सच्चा गुरु होगा, कोई सच्चा स्थल होगा, तो वहाँ पर जाने से तुम्हें तृप्ति और आनन्द मिलेगा ही। तुम्हारा अन्तर्मन वहाँ बसने का करेगा ही। इसीलिये मैंने पहले भी कहा है कि मुझे हज़ार तहखानों के अन्दर डाल दिया जाये और विज्ञान प्रमाण देखना चाहता है, तो किसी एक क्षेत्र का कार्य मुझे बता दे, मैं वहाँ जितनी चाहूँगा, हलचल मचा दूँगा, जिस क्षेत्र से जितने लोगों को चाहूँगा, उतने लोगों को वहाँ से खींच लूँगा। मगर, मैं अपनी आध्यात्मिक ऊर्जा को प्रदर्शन के लिये उपयोग नहीं कर रहा हूँ। जिन्हें सुधारना है, जो भटक रहे हैं, उनके लिये मैं भी कहीं न कहीं चेतना के माध्यम से ‘माँ’ के चरणों में निवेदन करता रहता हूँ। चेतनातरंगों के माध्यम से कार्य करता रहता हूँ और वही परिवर्तन के परिणाम हैं जो सतत समाज में नज़र आते हैं।

अभी तो केवल ‘माँ’ के मूलध्वज की स्थापना की गई है। अभी तो श्रीदुर्गाचालीसा पाठ का स्थाई भवन भी नहीं बना। आज अस्थाई भवन में चलने वाले श्रीदुर्गाचालीसा का पाठ, ‘माँ’ का गुणगान, देश ही नहीं, विश्व के कोने-कोने से अनेकों देशों में गूँज रहा है। विदेशों में भी लोग श्रीदुर्गाचालीसा के पाठ के रूप में ‘माँ’ का गुणगान कर रहे हैं। यह परिवर्तन जो आ रहा है, सत्य का परिवर्तन है। यह केवल मेरा परिवर्तन नहीं, चूँकि मेरे पास तो केवल ‘माँ’ की कृपा है। मैंने बार-बार कहा है कि यहाँ की जो भी अच्छाई दिखे, वह सब उस ‘माँ’ की कृपा मान लेना और जो भी बुराई दिखे, उसे यह मान लेना कि वह मेरी अभी कमी है, जिसे मैं अभी उतना दूर नहीं कर पा रहा हूँ। डूब जाओ ‘माँ’ की भक्ति में, यही नवरात्र का सच्चा पर्व होगा और रावण जलाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। अगर वास्तव में रावणों का वध करना है, तो यह प्रयास करो कि अपने आस-पास जितने रावण हैं, आपके गाँव, गली, शहरों में, वह चाहे धर्माधिकारी के रूप में हों, चाहे अधिकारी के रूप में हों, चाहे राजनेता के रूप में हों, उनकी शक्ति किस तरह क्षीण की जा सकती है, उनके अस्तित्व को किस तरह से समाप्त किया जा सकता है?  हमें किसी की हत्या नहीं करना, मगर उनकी सामथ्र्य को जरूर छीन लेना है। उस सामथ्र्य को छीनने के लिये जरूर कार्य करना है। उनसे टकराना है, जिनसे कोई नहीं टकरा पा रहा है और इसीलिये भगवती मानव कल्याण संगठन ने जो अभियान छेड़ा है और जहाँ जो परिवर्तन करने का निर्णय लेता है, वहाँ एक प्रवाह से बढ़ता चला जाता है।

अभी कुछ महीने पहले ही मेरे द्वारा चिन्तन दिया गया कि जितने भी नशे का नाज़ायज़ व्यवसाय कर रहे हैं, वहाँ पर रोक लगाओ और मेरे कार्यकर्ता तन-मन से जुट गये। एक नहीं, सैकड़ों जगहों से ज्यादा इस कार्य में सफल हुए। सौ का आँकड़ा पार करना इतना आसान नहीं होता और इतने कम समय में, लगभग सवा सौ स्थानों के आसपास शराब की खेपें पकड़ाई गईं। जो कार्य इतने कम समय में किसी प्रदेश में शासन-प्रशासन तक भी नहीं कर पाया, करोड़ों रुपये की वह नाज़ायज़ खेपें संगठन द्वारा पकड़ायी गईं। एक-एक खेप को पकड़ाना इतना आसान नहीं है। चूँकि इन व्यवसायों में जितने जुटे हैं, वह सब अधर्मी-अन्यायी प्रवृत्ति के हैं। जिनमें किसी ने गुण्डे पाल रखे हैं, किसी ने अपराधी पाल रखे हैं। कोई सोचता है कि उनसे कोई टकरा ही नहीं सकता, मगर फिर भी भगवती मानव कल्याण संगठन के वे धर्मयोद्धा उनसे टकराये और सफलता भी हासिल की। मैंने बार-बार कहा है कि कलिकाल के इस भयावह वातावरण में संघर्ष को एक कीचड़ मानो और कीचड़ में भी जिस तरह कमल खिल करके  स्वच्छ जल में ऊपर फैल जाता है, उसी तरह भगवती मानव कल्याण संगठन भले ही संघर्षों के बीच घिर जाये, मगर अपने आपको एक कमल के समान समझना, उस संघर्ष से पार जरूर निकल जाओगे।

‘माँ’ ने मुझे शक्ति-सामथ्र्य दी है। मेरे लिये असम्भव कोई कार्य नहीं है। रोड में खड़े हुये व्यक्ति को जहाँ जिस स्थान पर चाहूँ, पहुँचा सकता हूँ और आकाश में खड़े हुये व्यक्ति को घसीटकर ज़मीन पर ला सकता हूँ। इसीलिये मैंने विश्वअध्यात्मजगत् को चुनौती दी है और यह किसी गर्व और घमण्ड से नहीं। समस्त देश के धर्माचार्य, राजनेता, मीडिया यदि मेरी आवाज़ को अभी तक नहीं सुने हों, तो पुन: मेरी आवाज़ को कान खोलकर सुन लें कि मैं विश्वअध्यात्मजगत् को इस महाशंखनाद को करने के पहले पुन: चुनौती दे रहा हूँ कि आगे आने वाले एक वर्ष तक का समय देता हूँ कि अगर कोई भी, सभी मिलकर या अलग-अलग चाहें, सभी धर्माचार्य चाहें एक साथ एक पलड़े में खड़े हो जायें और मैं एक तरफ  खड़ा रहूँगा। एक तरह के दो कार्य ला करके दे दिये जायें और समाज देखे कि वे कर पाते हैं या मैं कर पाता हूँ? यदि ध्यान की गहराई को नापना चाहें, तो विज्ञान के पास वे यन्त्र हैं कि मैं सत्य बोल रहा हँू या वे अधर्मी-अन्यायी सत्य बोल रहे हैं, जो जगह-जगह झूठ और प्रलोभनों में पूरे समाज को दिशाभ्रमित कर रहे हैं। कोई बीजमन्त्र के नाम पर लूट रहा है, कोई निर्मल दरबार लगा करके लूट रहा है, कोई योग की क्लास लगा करके लूट रहा है और कायरों की तरह महिलाओं के कपड़े पहनकर भाग रहा है और अपने शिष्यों को मरने के लिये छोड़ देते हैं, लेकिन आपका गुरु हर स्थिति में सामने खड़ा होने के लिये हर पल तत्पर है। इसीलिये अन्यायियों-अधर्मियों को चुनौती शिष्यों की तरफ  से नहीं देता, उन समस्त अन्यायियों-अधर्मियों को अपनी चुनौती देता हूँ कि अगर एक कार्य ही केवल कर सको, केवल एक परीक्षण करा लो। मेरे लिये भूतल पर कोई भी कार्य असम्भव नहीं है। चूँकि मेरी ही बात नहीं, जिसकी भी कुण्डलिनीशक्ति पूर्ण जाग्रत् हो, वह किसी भी असम्भव कार्य को सम्भव कर सकता है।

सजग प्रहरी के समान जीवन जियो। आपके आस-पास जो अनीति-अन्याय-अधर्म हो रहा है, उसकी तलाश करो। उसको किस तरह खत्म किया जा सकता है, इसके लिए प्रयास करो। संगठन की जो एक शक्ति दी गई है कि कहीं आप असफल हो रहे हो, तो मुझसे आ करके मिलो। हमें हर पल सजग हो करके समाज के अवगुणों से समाज को मुक्त कराना है और जो नहीं मुक्त हो रहे हैं, उनसे डट करके संघर्ष करना है। इसीलिये आज से पच्चीसों वर्ष पहले जब मैंने संगठन का गठन किया था, तब से मेरे द्वारा हर मंचों से कहा जाता है कि समाज मेरे लिये क्या सोचता है ? इसकी मुझे कोई परवाह नहीं है। वह परमसत्ता मेरे बारे में क्या सोचती है? केवल मैं इसकी परवाह करता हूँ।

 तीन धाराओं के माध्यम से मैंने समाज में कार्य करने का संकल्प लिया था कि एक भगवती मानव कल्याण संगठन, जो समाजसुधारक के रूप में समाज में सेवायें देगा, अनीति-अन्याय-अधर्म के खिलाफ भगवती मानव कल्याण संगठन समाज को एक आध्यात्मिक मार्ग प्रदान करेगा, समाज के दु:ख-दर्दों को दूर करने में सहायक सिद्ध होगा, समाजसेवा के कार्यों में लगेगा और एक ऐसा स्वयंसेवी संगठन बनेगा, जहाँ जातिभेद, धर्म, सम्प्रदाय, इन सबसे ऊपर उठ करके केवल मानव के अन्दर मानवीय मूल्यों की स्थापना करेगा। देश, धर्म, सम्प्रदाय, इन सबसे ऊपर केवल मानवता हमारा धर्म होगा। सद्भावना, विश्वशान्ति, जनकल्याण के लिये हम अपना सर्वस्व न्यौछावर करने के लिये सदैव तत्पर रहें। वह भगवती मानव कल्याण संगठन आपको दिया गया है।

 इस पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम की स्थापना की गई, जहाँ पर सत्य का स्थल हो, जहाँ पर हर पल ‘माँ’ का गुणगान हो रहा हो, जहाँ पर ‘माँ’ की ज्योति जल रही हो, जहाँ पर ‘माँ’ का ध्वजा लहरा रहा हो, जहाँ की स्थली तपोभूमि बन जाये कि जहाँ पर आपकी ऊर्जा कहीं असफल होने लगे, कमजोर होने लगे, तो इस दिव्यधाम पर आ करके अपनी ऊर्जा को प्राप्त करो। अपने मन की शान्ति प्राप्त करो, अपनी आत्मा की शक्ति को जाग्रत् करो और पुन: जा करके अनीति-अन्याय-अधर्म से संघर्ष करो। यह आपको दूसरी धारा-‘पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम’ दी गई है।

 तीसरी धारा, जिसका इन्तजार आप सभी लोग कर रहे थे। इस शंखनाद के पहले उसकी भी घोषणा कर रहा हूँ कि जहाँ भगवती मानव कल्याण संगठन आप लोगों को दिया गया, यह पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम दिया गया, वहीं जिस राजनीतिक पार्टी के माध्यम से समाज के बीच कार्य करना है, उस राजनीतिक पार्टी का भी गठन किया जा चुका है। बैठक पूर्ण हो चुकी है। चुनाव आयोग की औपचारिकताएं पूरी हो रहीं हैं। पार्टी का नाम ‘भारतीय शक्ति चेतना पार्टी’ रखा गया है। अब मेरे शिष्यों को इन्हीं तीन धाराओं से जुड़ करके कार्य करना है। मेरा संकल्प पहले भी था, मेरा संकल्प आज भी है कि मुझे कोई भी राजनीतिक चुनाव नहीं लडऩा। मुझे किसी भी राजनीतिक पार्टी का सांसद नहीें बनना, विधायक नहीं बनना। पार्टी का मार्गदर्शन एक सीमित समय तक करने के बाद, इन तीनों धाराओं को देखने के लिये पूजा, संध्या और ज्योति के रूप में मेरी तीनों बेटियां हैं, जिनको साधनात्मक क्रम से मैं हर पल तैयार कर रहा हूँ।

  मेरा तो पूरा जीवन यज्ञों में खप जाना है। ‘माँ’ के चरणों में साधनारत् रहना है, जिससे मैं आपको ऊर्जा दे सकूँ। ‘माँ’ के चरणों में हर पल प्रार्थना कर सकूँ। इस दिव्यधाम को, परमधाम को ‘माँ’ का आवाहन करके स्थापित कर सकूँ और भगवती मानव कल्याण संगठन को ऊर्जा का प्रवाह दे सकूँ तथा उस राजनीतिक पार्टी को इतनी सामथ्र्य दूँ कि वास्तव में राष्ट्ररक्षा के लक्ष्य को पूर्ण किया जा सके। आज वर्तमान की अधर्मी-अन्यायी राजनीतिक पार्टियाँ और अगर कह दिया जाय, तो एक भी ऐसी राजनीतिक पार्टी नहीं है, जिसमें वे नब्बे प्रतिशत लुटेरे, अधर्मी-अन्यायी, ऐय्याश, बलात्कारी, हत्यारे भरे पड़े न हों और फिर भी हमारे राजनेता बने हैं।

भारतीय शक्ति चेतना पार्टी एक ऐसी पार्टी होगी, जिसके सदस्य नशे-माँस से मुक्त होंगे, चरित्रवान् होंगे। वह समाज को नहीं लूटेंगे, बल्कि अपना सबकुछ लुटाने के लिये हर पल तत्पर रहेंगे। हमारे संगठन का कार्य बड़ी शान्ति से चलता है, होहल्ला मचा करके नहीं चलता। जो मैंने आज से बीसों साल पहले कहा था कि जिस तरह कलिकाल ने समाज में अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया और सत्य को पता ही नहीं चला, सत्य की नीवें उखड़ती चली गयीं। उसी तरह पुन: एक बार हमें सत्यधर्म की स्थापना करना है कि कलिकाल को पता ही न चले। अधर्मी-अन्यायियों को पता ही नहीं चलेगा कि उनके नीचे का धरातल कब खिसक गया?

हम किसी अहंकार को ले करके यात्रा पर नहीं चल रहे, हम ‘माँ’ की कृपा को ले करके यात्रा पर चल रहे हैं। हमारे हाथों में अस्त्र-शस्त्र नहीं हैं, हमारे हाथों में ‘माँ’ का ध्वजा है। हम हाथ जोडऩा भी जानते हैं, ‘माँ’ का ध्वजा ले करके चलना भी जानते हैं और किसी के किये हुये अपराध को एक बार क्षमा करना भी जानते हैं। बहुत हो गया अनीति-अन्याय-अधर्म से समझौता करते हुये, अब न हम अनीति-अन्याय-अधर्म करेंगे और न सहेंगे, तभी हम ‘माँ’ के सच्चे भक्त कहलायेंगे। पहले मैं सब कुछ समाज में लुटाता हूँ। मैं चाहता तो पहला शंखनाद यहाँ से कर सकता था। मगर, जिस तरह 108 महाशक्तियज्ञों के प्रथम 08 यज्ञ मैंने समाज में किये, शेष 100 यज्ञ इसी मूल स्थल पर होने हैं, उसी तरह मैंने शंखनाद के दो चरण समाज में, पहला दिल्ली में, दूसरा सागर में और तीसरा इस तपस्थली में पूर्ण कर रहा हूँ। मगर, उसके पहले आपको दृढ़ता रखना है कि हमें कभी खौफ नहीं खाना है, निर्भयता का जीवन जीना है।

 अरे, हमें कौन मार सकता है? आत्मा अजर-अमर-अविनाशी है। न उसे कोई मिटा सकता है और न कोई उसके अस्तित्व को नष्ट कर सकता है। हमें कोई मारेगा, तो हम इससे दस गुना अधिक शक्ति लेकर पुन: जन्म लेंगे। हमारा लक्ष्य निर्धारित है, हमारा संकल्प दृढ़ है। हम पर माता आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा की कृपा बरस रही है। केवल उस कृपा की ओर निगाहें रखो। ‘माँ’ के चरणों की ओर निगाहें रखो। इस भूतल का कोई भी संघर्ष भगवती मानव कल्याण संगठन के मार्ग को रोक नहीं सकेगा। जिस तरफ  तुम्हारे कदम बढ़ रहे हैं, उसके पहले ही मैं समाज में ऐसा वातावरण बनाता जा रहा हूँ कि आप निद्र्वन्द्व होकर समाज में बढ़ते चले जाओगे और आपकी धर्मध्वजा देश ही नहीं, विश्व के कोने-कोने में फहरायेगी।

हमारे लिये सभी एक हैं। सदैव ध्यान रखना कि देश से भी ऊपर है धर्म। हर व्यक्ति अपने देश से प्रेम करता है। मैं भी अपने देश से प्रेम करता हूँ। मैं भी अपने देश के संविधान से प्रेम करता हूँ, मगर उन दोनों से ऊपर अपने धर्म से प्रेम करता हूँ। जो हमारा मानवधर्म है, वह हमारे लिए प्रथम स्थान पर है। दूसरे स्थान पर हमारा देश और संविधान है। इसलिये हमें भगवती मानव कल्याण संगठन के माध्यम से एक नहीं, बल्कि पूरे विश्व में समान ऊर्जा फैलाना है। जिस तरह हम अपने देश को सुधारना चाहते हैं, उसी तरह दूसरे देशों को भी सुधारना चाहते हैं।

नेपाल में भी बहुत लोग नशे और माँस में लिप्त हैं। मैंने कुछ समय पहले वहाँ चिन्तन डालना प्रारम्भ किया और इस शिविर में भी वहाँ से ढाई-तीन सौ लोग यहाँ आ करके शिविर का लाभ ले रहे हैं। वहाँ भी सुधार की आवश्यकता है, कि जहाँ चारों ओर जिस गली या शहर में निकल जाओ, बस नशे-माँस से लिप्त लोग मिलेंगे। यह हमारी संस्कृति नहीं है, यह असुरों का आहार है। जिस तरह पहले सुनते थे और आज असुरों के केवल स्वरूप बदल गये हैं। महानगरों में देखो कि रोज रासरंग की पार्टियाँ हो रही हैं। मीट-मटन बन रहा है और वहाँ जो जाते हैं, तो कहेंगे कि अरे! बहुत अच्छा स्वागत हुआ, बहुत अच्छी व्यवस्था की गई। किसी भी अभिनेता, अभिनेत्री की या किसी भी राजनेता की पार्टी में जाएंगे, तो वहाँ से बाहर आकर मीडिया में ऐसा कहेंगे कि जैसे बिल्कुल स्वर्ग का वैभव देख करके आ रहे हों। अरे अधर्मियों-अन्यायियों! ठहर जाओ, देश को लूट-लूट करके, मानवता को लूट-लूट करके तुम जो बड़ी-बड़ी पार्टियाँ दे रहे हो, तो शीघ्र ही इसका प्रतिफल तुम्हें भोगना पड़ेगा और तुम्हारा धरातल खिसकता चला जायेगा। शीघ्र ही इस तरह की पार्टियों में रोक लगेगी। इन्तजार करो, जिन गरीबों की, असमर्थों की, असहायों के मुखों की मुस्कानें तुमने छीनी हैं, एक दिन वह परमसत्ता तुम्हारे भी मुखों की मुस्कानें अवश्य छीन लेगी।

सतत वह संकल्प ले करके, एक विचारधारा ले करके ये तीन दिन जो आपको मिल रहे हैं आज, कल और परसों, उनके हर पल में ‘माँ’ की भक्ति में डूब जाओ। चूँकि ये दिव्य आरतियाँ आपके जीवन के लिये अतिमहत्त्वपूर्ण हैं। शिविर की हर आरती महत्त्वपूर्ण होती है, मगर इन तीन दिनों की आरती अतिमहत्त्वपूर्ण हैं। आप जहाँ पर भी हों, जिस जगह हों, अपने मन को एकाग्र करके सेवा या साधना का भाव ले करके इन तीन आरतियों को, इन दिव्य आरतियों को करने में सफल हो जाओगे, जो शंखनाद की ध्वनि होगी, उस ध्वनि में अपने मन को केन्द्रित करोगे और जिसके पास शंख है, शंखध्वनि करे। अगर आपके पास बच्चे बैठे हैं, परिवार के सदस्य बैठे हैं, तो आपस में एक दूसरे का शंख लेकर शंखनाद कर सकते हैं, मगर परिवार के अलावा अपना शंख किसी दूसरे को ध्वनि करने के लिये नहीं देंगे। अगर शंख किसी के पास नहीं है, तो स्टाल में शंख लेने की व्यवस्था है, तो वहाँ से भी आप प्राप्त कर सकते हैं।

इस शंखध्वनि को मन को एकाग्र करके करें। वैसे पच्चीस से तीस हज़ार भक्तों के पास शंख की व्यवस्थायें हैं। हज़ारों सदस्य जो घरों में हैं और यहाँ नहीं आ पाये, उनको भी जो पहले से ज्ञात है कि सायंकाल इतने समय से शंखध्वनि की जायेगी, वे भी अपने-अपने घरों में इस समय शंखध्वनि करेंगे तथा वे भी इस स्थल के समान बराबर लाभ के भागीदार बनेंगे। मगर, जो इस स्थान पर शंखध्वनि करेंगे, उनके भाग्य की तुलना किन्हीं अन्य स्थानों से नहीं की जा सकती। यह हमारे युग परिवर्तन का शंखनाद है। यह हमारे धर्मयुद्ध का शंखनाद है। यह हमारे आत्मकल्याण का शंखनाद है। यह हमारे समाज में विश्वशान्ति का शंखनाद है। हम बदलेंगे, जग बदलेगा। हम सुधरेंगे, जग सुधरेगा। इस भावना को ले करके हम जो शंखनाद कर रहे हैं, यह शंखनाद सदा-सदा के लिये गूँजता रहेगा।

 आरती का क्रम भी होगा। आरतियों की व्यवस्था करते रहेंगे। अत: जिनके पास शंख हैं, वह शंखध्वनि मेरे साथ करेंगे। पाँच मिनट के लिये शंखध्वनि होगी। तीव्र शंखध्वनि करेंगे कि जिस तरह आप करते हैं कि एक बार शंख बजाने के बाद आराम से गहरी पूरी तरह साँस ले करके दुबारा पुन: शंख बजायें। यह भी इस भूतल का रिकार्ड है कि अब तक कहीं पर भी ऐसा शंखनाद नहीं हुआ है। दिल्ली में पन्द्रह-बीस हज़ार लोगों ने शंखध्वनि की, बीस-पच्चीस हज़ार लोगों ने सागर में शंखध्वनि की। लाखों लोगों में पच्चीस-तीस हज़ार से ज्यादा लोगों के पास यहाँ शंख हैं, बल्कि उससे अधिक ही लोगों के पास शंख हैं। तो शंखध्वनि यहाँ भी हो रही है और यह भी भूतल का एक रिकार्ड है। मगर, इस शंखध्वनि के साथ हमारी एक विचारधारा है। हर पल ‘माँ’ की कृपा का एहसास करते हुये अपने-अपने हाथों में शंख ले लें। शंखध्वनि सभी कर सकते हैं। पुरुष, महिलायें, बुजुर्ग, बच्चे, जवान सभी को एक समान अधिकार है। इसका हमेशा ध्यान रखियेगा। पाँच मिनट के लिये यह ऐतिहासिक शंखध्वनि होगी। आप चैतन्यता के साथ शंखध्वनि करेंगे।

(शंखनाद पूर्ण किया गया)

इस महाशंखनाद के प्रथम दिवस के शंखनाद को आप लोगों ने पूर्ण किया और इसके साथ ही आप लोग ‘माँ’ की दिव्य आरती की ओर बढ़ेंगे। उस ममतामयी, कृपामयी ‘माँ’ की कृपा प्राप्त करने के लिये कि ‘माँ’ हमें इसी तरह शंखध्वनि करने का सौभाग्य प्रदान करती रहें। इस पवित्र शंखध्वनि के समान हमारा अन्तर्मन भी सदा पवित्र और निर्मल बना रहे, हम राग-द्वेष से दूर रहें। ‘माँ’ हम हर पल आपकी कृपा के पात्र बने रहें, जिससे हम अनीति-अन्याय-अधर्म से संघर्ष कर सकें। हम अपना भी आत्मकल्याण कर सकें और समाज का भी आत्मकल्याण कराने में सहायक सिद्ध हो सकें। इसीलिये ‘माँ’ हर पल आपकी कृपा माँगते हैं। आपकी कृपा हर पल हम पर बरसती रहे और हम सत्यपथ पर बढ़ते रहें। इसी कामना को ले करके हम आप सभी मन को पूर्ण एकाग्र करके उस परमसत्ता माता आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा की आरती करेंगे।

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