121वां महाशक्ति साधना योग-ध्यान कुण्डलिनी जागरण शिविर, सिद्धाश्रम, 6,7,8 अक्टूबर 2019

माता आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा की अनुकंपा तो हम पर अनादिकाल से ही बनी हुई है और वर्तमान के साथ ही आगत में भी बनी रहेगी। ‘माँ’ की परम अनुकंपा तो पंचतत्त्वों के रूप में चहुँओर बिखरी हुई है, साथ ही ‘माँ’ ने कुण्डलिनीशक्ति जैसी बहुमूल्य आन्तरिक शक्ति आपके अन्तर में समाहित कर रखी है, लेकिन इस अनुकंपा को प्राप्त करने के लिए आपमें पुरुषार्थ व योग-ध्यान-साधना रूपी पात्रता का होना नितान्त आवश्यक है।

आप जितना पुरुषार्थ करते हैं, उतनी अनुकंपा आपको मिल जाती है, लेकिन आप पुरुषार्थ की सीमा को न बढ़ाकर और पाने की याचना करते रहते हैं। ध्यान रखें कि याचना से भीख में थोड़ा कुछ और मिल सकता है, लेकिन सब कुछ प्राप्त नहीं हो सकता। आपने गौर किया होगा कि जो जितनी शिक्षा ग्रहण करता है, जितना पुरुषार्थ करता है, उसी के अनुरूप उसे महत्त्व मिलता है। कम पढ़ा-लिखा, कम पुरुषार्थी व्यक्ति चपरासी, बाबू, श्रमिक या मिस्त्री बनकर जीवननिर्वाह करता है, जबकि अधिक शिक्षाप्राप्त, अधिक पुरुषार्थी व्यक्ति इंजीनियर, डॉक्टर, व्याख्याता, पत्रकार, वैज्ञानिक आदि बनकर स्वयं के साथ ही देश को आगे बढ़ाने का कार्य करते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो पानी में जितना शक्कर डालेंगे, उसमें उतनी ही मिठास होगी। कहने का तात्पर्य यह है कि जीवन में बहुत कुछ अच्छा पाने के लिए पात्र बनना पड़ता है। मनुष्य को स्वयं की दृष्टि में ही नहीं, बल्कि प्रकृतिसत्ता की दृष्टि में भी पात्रता सिद्ध करनी पड़ती है।

इसी परिप्रेक्ष्य में ज्ञानलाभ प्राप्त करने के लिए शारदीय नवरात्र पर्व पर अष्टमी, नवमी व विजयादशमी (06, 07, 08 अक्टूबर 2019) को पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम में आयोजित त्रिदिवसीय महाशक्ति साधना योग-ध्यान कुण्डलिनी जागरण शिविर में अपार संख्या में भक्त पहुँचे और ज्ञानामृत प्राप्त करके स्वयं की आन्तरिक शक्ति को जाना, पहचाना और नशे-मांस से मुक्त चरित्रवान् व चेतनावान् जीवन अंगीकार करने तथा समाज को भी इसी दिशा में बढ़ाने के लिए संकल्पित हुए।

इस शिविर के प्रथम दो दिवसों पर प्रथम सत्र में जहां ऋषिवर सद्गुरुदेव श्री शक्तिपुत्र जी महाराज के शिष्यों व ‘माँ’ के भक्तों ने शक्तिस्वरूपा बहन पूजा, संध्या और ज्योति शुक्ला जी की पावन उपस्थिति में योग-ध्यान-साधना के क्रम को पूर्ण किया, वहीं तीनों दिवसों के द्वितीय सत्र में ऋषिवर के श्रीमुख से प्रवाहित आन्तरिक शक्ति कुण्डलिनी जागरण के सम्बन्ध में अद्वितीय चिन्तन को ग्राह्य किया। शारदीय नवरात्र पर्व में आयोजित शक्ति चेतना जनजागरण शिविर ‘महाशक्ति साधना योग-ध्यान कुण्डलिनी जागरण शिविर’ में देश-विदेश से पहुंचे एक लाख से अधिक ‘माँ’ के भक्त व ऋषिवर सद्गुरुदेव परमहंस योगीराज श्री शक्तिपुत्र जी महाराज के शिष्य  कुण्डलिनीचेतना जाग्रत् करने तथा अन्य विविध ज्ञान प्राप्त करके अविभूत रहे। दिनांक 06, 07, 08 अक्टूबर 2019 (अष्टमी, नवमी, विजयादशमी) को पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम में पूर्णरूपेण नशामुक्त व मांसाहारमुक्त, चरित्रवान् जीवन अंगीकार कर चुके भक्तों का समूह उमड़ पड़ा था। 

शिविर के तीनों दिवसों में सर्वप्रथम प्रात:काल भक्तजन मूलध्वज साधना मंदिर में आरतीक्रम पूर्ण करने के पश्चात् अखण्ड श्री दुर्गाचालीसा पाठ मंदिर परिसर पहुंचे और विगत 22 वर्षों से चल रहे अखण्ड श्री दुर्गाचालीसा पाठ में सम्मिलित हुये, जहां परम पूज्य सदगुरुदेव जी महाराज के द्वारा प्रात: 06 बजे स्वयं उपस्थित होकर आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा व सहायक शक्तियों की पूजा-अर्चन नित्यप्रति की तरह करने के पश्चात् मूलध्वज साधना मन्दिर पहुंचकर विश्वशांति की कामना माता आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा से की गई।

उक्त साधनात्मक क्रमों व प्रवचन पण्डाल में सभी भक्तों ने अनुशासनपूर्वक पंक्तिबद्ध होकर सद्गुरुदेव जी महाराज के चरणकमलों को नमन किया। इसके उपरान्त, प्रात: 07:30 बजे सभी भक्तों ने प्रवचन पण्डाल में बैठकर सम्पूर्ण मनोयोग से तीन-तीन बार शंखनाद करते हुए अतिमहत्त्वपूर्ण बीज मंत्र ‘माँ-ॐ’ एवं गुरुमन्त्र ‘ॐ शक्तिपुत्राय गुरुभ्यो नम:’ व चेतनामन्त्र ‘ॐ जगदम्बिके दुर्गायै नम:’ का सस्वर जाप किया। पंडाल में उपस्थित भक्तों को शक्तिस्वरूपा बहन संध्या शुक्ला जी ने जहां साधनाक्रम की जानकारी दी, वहीं योगाभ्यास कराया। इस अवसर पर शक्तिस्वरूपा बहन पूजा शुक्ला जी और ज्योति शुक्ला जी की भी पावन उपस्थिति रही।

विदित हो कि भगवती मानव कल्याण संगठन व पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम ट्रस्ट के कार्यकर्ता सदस्यों के द्वारा संयुक्त रूप से सिद्धाश्रम के विशाल परिसर में दक्षिण दिशा की ओर दिन-रात अथक परिश्रम करके अत्यन्त ही आकर्षक व भव्य मंच तथा वृहदाकार पंडाल का निर्माण किया गया था, जहां तीन दिवस तक प्रतिदिन निर्धारित समय पर अपराह्न 03 बजे से 05 बजे तक ऋषिवर की वाणी से अमृतधारा प्रवाहित होती रही और शिविर में उपस्थित भक्त उसका पान करते रहे। पश्चात् सभी ने शिविर के तीनों दिवस दिव्य आरतियों से उत्सर्जित अलौकिक ऊर्जा का भी लाभ प्राप्त किया।

प्रथम दिवस द्वितीय सत्र

अत्यन्त ही नयनाभिराम दृश्य, शिविर के प्रथम दिवस का द्वितीय सत्र, वृहदाकार पंडाल और उससे बाहर का सिद्धाश्रम क्षेत्र भी अपार जनसमुदाय से भरा हुआ, सभी अनुशासित रूप से पंक्तिबद्ध बैठे हुये थे। सभी के नयन सद्गुरुदेव भगवान् के आगमन की प्रतीक्षा में बिछे हुए थे, तभी निर्धारित समय में अपराह्न 02:30 बजे सद्गुरुदेव महाराज जी के पदार्पण के साथ ही सम्पूर्ण वातावरण उनके जयकारे, शंखध्वनि व तालियों की गडग़ड़ाहट से गुंजायमान हो उठा। उनके मंचासीन होते ही सर्वप्रथम बहन पूजा, संध्या और ज्योति जी के द्वारा समस्त भक्तों की ओर से गुरुवरश्री का पदप्रक्षालन करके पुष्प समर्पित किया गया। तत्पश्चात् भगवती मानव कल्याण संगठन के सदस्यों में से, कुछ प्रतिभावान् शिष्यों ने भक्तिरस से परिपूर्ण भावगीत प्रस्तुत किये, जिसके कुछ अंश इस प्रकार हैं:-

 ‘‘मेरी तकदीर में क्या है? मैं पढ़ नहीं सकता, मेरा हाथ आपके चरणों तक बढ़ नहीं सकता। किस तरह से नमन करूँ मैं आपका, स्वागतम, स्वागतम, स्वागतम आपका।।’’ कार्यक्रम का संचालन करते हुए सर्वप्रथम वीरेन्द्र दीक्षित जी, दतिया के द्वारा यह भावगीत गुरुचरणों में प्रस्तुत किया गया। गुरु आशीष दो ऐसा कहीं पग डगमगाए न: विपिन जी, फर्रूखाबाद। महाशक्ति साधना का, योग-ध्यान-आराधना का। कुण्डलिनी जागरण का शिविर लगाया, धन्य गुरुदेव की माया। हमें चरणों में बुलाया।।: बाबूलाल विश्वकर्मा जी, दमोह ने भावपूर्ण प्रस्तुति दी।   

 अन्त में शक्तिस्वरूपा बहन संध्या शुक्ला जी ने माता जगदम्बे के पावन श्रीचरणों में भक्ति से ओतप्रोत भावसुमन प्रस्तुत करके सभी को मंत्रमुग्ध कर दिया- ‘‘माँ की शक्ति से चक्र सृष्टि का चलता है, माँ के आँचल में ही यह सारा जग पलता है। बोलो अम्बे माँ की जय, बोलो जगदम्बे माँ की जय।।’’

दिव्य उद्बोधन

आज मानवसमाज अज्ञानान्धकार से आछन्न है, जिसके वशीभूत वह नाना प्रकार के दुष्चारण में लिप्त होता जा रहा है। ऐसे कठिन समय में ऋषिवर सद्गुरुदेव परमहंस योगीराज श्री शक्तिपुत्र जी महाराज की इस पुण्यभूमि भारत में उपस्थिति और आपश्री का चिन्तन तथा मानवसमाज के उत्थान के लिए किए जा रहे प्रयासों से निश्चय ही व्याप्त अज्ञानान्धकार दूर होगा और एक बार पुन: हमारा भारत ज्ञान के प्रकाश से आलोकित होगा।

भावगीतों का क्रम समाप्त होते ही ऋषिवर सद्गुरुदेव परमहंस योगीराज श्री शक्तिपुत्र जी महाराज ने ध्यानावस्थित होकर माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा की स्तुति की और सभी शिष्यों, चेतनाअंशों तथा शिविर पंडाल में उपस्थित विशाल जनसमुदाय सहित व्यवस्था में लगे सभी कार्यकर्ताओं को अपना पूर्ण आशीर्वाद प्रदान करते हुये धीर-गम्भीर वाणी में उपस्थित शिष्यों, भक्तों से कहते हैं कि-

नवरात्र पर्व माता आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा की आराधना के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होता है। वैसे तो सभी दिन एक समान होते हैं, लेकिन कुछ दिवस, कुछ पर्व, कुछ तिथियाँ अन्य दिनों की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण होती हैं, क्योंकि इनमें सभी की, ऋषि-मुनियों की, माता जगदम्बे की और आपकी भावनाएं जुड़ी हुईं होती हैं।

मानवजीवन के उत्थान हेतु मैंने अपने पूर्व के चिन्तनों में ऐसा कोई भी क्षेत्र नहीं छोड़ा है, जिस पर चिन्तन न दिया जा चुका हो! यदि उन चिन्तनों का अवलोकन करेंगे, तो पायेंगे कि इस भूतल पर जितना ज्ञान है, उनमें वह सब कुछ है। यदि उस मार्ग पर चला जाए, तो वास्तव में आप सभी मानव कहलाने के अधिकारी बन सकते हैं।

धर्मग्रन्थ इसलिए नहीं होते कि उन्हें रट लो और एक किनारे रख दो। अरे, धर्मग्रन्थों की रचना उन ऋषियों ने की है, जो कि आत्मावान् थे, परमज्ञानी थे, चेतनावान् थे। उन ग्रन्थों के माध्यम से वह सब कुछ प्रयास किया गया है कि जिन्हें पढक़र मनुष्य अपने जीवन को सुचारु रूप से संचालित कर सकता है, लेकिन पतन की स्थिति आ गई है। कोई भी उन धर्मग्रन्थों में लिखी बातों का सही अर्थ नहीं लगा पाता। हमारे ऋषि-मुनियों ने कहा है कि आपकी आत्मा में समस्त ब्रह्मांड की शक्तियाँ समाहित हैं, परन्तु समाज का दुर्भाग्य है कि लोग मूल सत्य से दूर होते चले गए और धर्म का व्यवसायिक स्वरूप बन गया। मनुष्य के शरीर में सत, रज, तम, ये तीनों गुण हैं, लेकिन समयान्तराल में सतोगुण दबता चला गया और तमोगुण व रजोगुण बढ़ते चले गए! अतएव इस पतन के दोषी आप स्वयं हैं, परमसत्ता नहीं!

किसी भी धर्मग्रन्थ को उठाकर देख लो, उनमें ‘आत्मा की अमरता और कर्म की प्रधानता’ का विशेष महत्त्व प्रतिपादित किया गया है। अनेकों ऋषि-मुनि कह गए हैं कि आत्मा अजर-अमर-अविनाशी है और माता आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा अजर-अमर-अविनाशी सत्ता हंै। यह मानवशरीर पंचतत्त्वों- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश से निर्मित है। माता-पिता अपने बच्चे के लिए अपना जीवन न्यौछावर कर देते हैं। जब भौतिक रिश्ते में इतनी ताकत है, तो सोचिए कि हमारी आत्मा की जननी से हमारा कितना अटूट रिश्ता होगा और क्या उस रिश्ते को नापा जा सकता है? क्या आपको उस अलौकिक रिश्ते का अहसास नहीं होता? यदि हो जाए, तो आपका पतन रुक जायेगा। मन की गहराई से अपनी आत्मा की जननी माता जगदम्बे को याद तो करो, पुकारो तो सही, वे तुम्हारी व्यथा को अवश्य सुनेंगी। हमारे और ‘माँ’ के बीच सुई के नोक के बराबर की भी दूरी नहीं है। वे सब सुनती हैं, सब देखती हैं और उसी का प्रतिफल हमें प्राप्त होता है। भौतिक जगत् में तो सब कुछ बदल सकता है, परन्तु परमसत्ता का कर्म के लिए बनाया गया विधान, उसमें आंशिक परिवर्तन भी नहीं होता। इसी तरह चाहे युग बदल जाए, लेकिन आत्मा की अमरता की सत्यता पर अंशमात्र भी अंतर नहीं आ सकता। ऐसी शक्ति ‘माँ’ ने आपके अन्दर भर रखी है। ऋषियों-मुनियों के अन्दर जो अपार सामथ्र्य थी, वह आपके अन्दर भी है।

हम आत्मा को जानने के लिए और उस पर पड़े आवरणों को हटाने के लिए साधना-आराधना करते हैं। जैसे-जैसे कुत्सित कर्मों के फलस्वरूप आत्मा पर पड़े आवरण हटते चले जाते हैं, आप परमसत्ता को जानने-समझने लगते हैं। आपके अन्दर सजगता आती चली जायेगी कि जो आत्मा जन्मों-जन्मों से साथ देती चली आ रही है, वह महत्त्वपूर्ण है, न कि भौतिक सम्पदा, जो कि नष्ट होजाने वाली है। हमारे अन्दर सतोगुण की प्रधानता होनी चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं है, जिसके कारण तुम्हें यह पंचतत्त्वों का शरीर ठगता चला जा रहा है। यदि अब भी समय रहते अपनी आत्मा पर ध्यान नहीं दिया गया, तो धीरे-धीरे आपका अस्तित्त्व ही समाप्त होता चला जायेगा। अत: इस शरीर का उपयोग करें, उपभोग नहीं। आज के साधु-संत-संन्यासी यह कहते हैं कि ‘माया महाठगनि मैं जानी।’ जबकि मेरा मानना है कि माया महाठगनी नहीं है, बल्कि काया महाठगनी है। अत: मेरा कहना है कि ‘काया महाठगनि मैं जानी।’ माया नहीं, बल्कि काया ठगनी है, जो एक दिन आपको छोडक़र चली जायेगी। यदि इसका उपयोग नहीं करोगे, तो परमसत्ता कहाँ से आपको सब कुछ दे देगी?

हमारा मूल कर्तव्य है कि हम अपनी आत्मा को जानने का प्रयास करें। क्या जीवन की यही पूर्णता है कि अच्छे से अच्छा भोजन कर लूँ, आलीशान भवन बनवा लूँ, अच्छे-अच्छे कपड़े पहन लूँ, जमीन-जायदाद खरीद लूँ। नहीं, यह पूर्णता नहीं है। यह सब यहीं का यहीं धरा रह जायेगा। अत: सत्य को समझने का प्रयास करो। यदि अब भी आप सजग नहीं हुए, तो गीता, रामायण पढऩे भर से कुछ नहीं होगा। इसीलिए मैंने कहा है कि ग्रन्थों को एक कोने पर रख दो। इसका मतलब यह नहीं है कि मैं धर्मग्रन्थों का विरोधी हूँ। उनका अध्ययन करो, लेकिन उनमें निहित भावार्थ को समझकर उन्हें जीवन में उतारने का प्रयास कर लो। धर्मग्रन्थों को रट लेने व रटन्त विद्या को सुन भर लेने से हासिल कुछ नहीं होने वाला है।

 एक बार निर्णय ले लो कि मैं कुण्डलिनी के सातों चक्र (मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा, सहस्रार) जाग्रत् करके रहूँगा। इसी शक्ति पर भौतिक जगत् की सम्पदा आधारित है। लेकिन जिनकी यह शक्ति जाग्रत् हुई, उन्होंने इसका कभी सदुपयोग नहीं किया। प्राप्त धन को परोपकार में नहीं लगाया गया। सोना-चाँदी, बहुमूल्य सम्पदा तहखानों में भरते चले गए, लेकिन जैसा कि कहा जाता है कि भारत सोने की चिडिय़ा थी, मैं तो कहता हूँ कि भारत आज भी सोने की चिडिय़ा है और कई अरबों-खरबों की सम्पदा तहखानों में कैद है।

 पात्रता आप सभी के अन्दर है, लेकिन उस पात्रता को आप उभार नहीं पा रहे हो। स्वयं के द्वारा स्वयं को तलाशो। कहाँ खो गए हो? यह तुम्हारा गुरु तुम्हें जगाने आया है, चेतनावान् बनाने आया है। मैंने अपने जीवन की तपस्या के फल को पूर्णरूपेण समाजकल्याण के लिए समर्पित किया है। जो मनुष्य स्वयं को न पहचान सके, उसका जीवन पशु के समान होता है।

कुण्डलिनी जागरण एक लम्बी प्रक्रिया है। इसे दो-चार दिन, माह, दस-बीस वर्ष में मत बाँध देना। यह अनन्त यात्रा है। जब सम्बंधित कर्म पूर्ण कर लिया जाता है, तब कहीं जाकर फल प्राप्त होता है। हमारी सुषुम्ना नाड़ी हर पल धर्म-कर्म से जुड़ी हुई है। एक पल में जो सोचते हो, वह भी जुड़ जाता है। यदि अब भी मेरी बातों पर अमल नहीं कर सके, तो पतन सुनिश्चित है। जिस दिन ढ़ोंग-पाखंड तुम्हारे गुरु से जुड़ जायेगा, वह इस शरीर का त्याग कर देगा। मेरे किसी भी पक्ष को, मेरी जीवनयात्रा को उठाकर देख लो।

ऋषिवर सद्गुरुदेव परमहंस योगीराज श्री शक्तिपुत्र जी महाराज ने अपने शिष्यों से कहा कि यह आश्रम किसके लिए निर्मित हो रहा है? आपके लिए, मानवता के कल्याण के लिए और इस हेतु इस जीवन को खपाया गया है। यह जो कुछ देख रहे हो, सब कर्म का परिणाम है। नए शिष्यों को यह अहसास होना चाहिए कि परोपकार के लिए जीवन को खपाया जा सकता है। जब आप अपने आपको कर्म से जोड़ देते हैं, तब पुरुषार्थ की भावना उत्पन्न होती है। ठहराव कभी मेरे जीवन को स्पर्श भी नहीं कर पाया। आपका गुरु पुरुषार्थ का जीवन जीता है, परोपकार का जीवन जीता है। यदि मेरे साथ चलना चाहते हो, तो अपने ऊपरी परिवेश के साथ अन्तर्मन को भी साफ करना होगा, आलस्य, अकर्मण्यता को छोडक़र पुरुषार्थी और परोपकारी बनना पड़ेगा।

आपश्री ने कहा कि मैंने इस स्वरूप को 25 वर्ष पहले धारण किया था और मेरी सहधर्मिणी ने त्याग-तपस्या के क्षेत्र में मेरा पूरा साथ दिया। इसी का परिणाम है कि 25 वर्षों के लम्बे अन्तराल के बाद मैंने उन्हें इस शारदीय नवरात्र की पंचमी और गुरुवार के महत्त्वपूर्ण दिन को संन्यासदीक्षा प्रदान की है। आने वाले वर्ष 2021 में अन्य जो शिष्य सत्यधर्म की राह पर चल रहे हैं, आत्मकल्याण और जनकल्याण के मार्ग पर चल रहे हैं, यदि वे चाहेंगे, तो उन्हें भी संन्यास दीक्षा दी जायेगी। लेकिन, इस हेतु एक वर्ष पहले आवेदन करना होगा।

अपने कर्तव्य को समझो और आपके अन्दर जो कुण्डलिनीचेतना है, उस पर आपका ध्यान होना चाहिए, उसके प्रति आकर्षण होना चाहिए। धिक्कार है उनको, जिनके मन में उस अलौकिक सम्पदा के प्रति ध्यान ही नहीं है। जब तक आपके अन्दर दया, ममता, करुणा, विनम्रता, सरलता का भाव नहीं है, आप पुरुषार्थी और परोपकारी नहीं हो, तब तक इस अलौकिक शक्ति को स्पंदित भी नहीं कर पाओगे। ‘‘यदि भौतिक जगत् में जीवन जी रहे हो, समाज का अन्न खा रहे हो, तो चाहे मंदिर या मठ में बैठे हो, अगर पुरुषार्थी और परोपकारी नहीं हो, तो भ्रष्टाचारी हो और मनुष्य भी नहीं हो।’’ सत्य से सत्य का रिश्ता जोड़ो। क्यों दौड़ रहे हो अन्धी दौड़ में? यह अन्धी दौड़ ही आपके दु:खों का कारण है। अपनी क्षमता के अनुरूप ही जीना सीखो। अपने से ऊपर की ओर नहीं, बल्कि निचले स्तर के लोगों की ओर देखो।

ध्यान का अर्थ केवल आँख मूँदकर बैठ जाना नहीं है, भगवान् का स्मरण करना ही ध्यान नहीं है, बल्कि अपने आसपास का ध्यान रखना सीखो। उस अन्धी दौड़ में मत दौड़ो, क्योंकि उसमें दु:ख ही दु:ख है। मैं यह नहीं कहता कि विकासपथ पर मत बढ़ो। बढ़ो, लेकिन ईमानदारी के साथ। सोचो कि जैसी भौतिकता के प्रति तुम्हारी ललक है, क्या वैसी आध्यात्मिकता के प्रति भी है। मैंने धर्म की बहुत ही संक्षिप्त परिभाषा दी है कि, ‘‘मनुष्य द्वारा किया गया प्रत्येक वह कार्य धर्म है, जिससे आत्मा की परमसत्ता से निकटता बढ़ती है तथा मनुष्य द्वारा किया गया प्रत्येक वह कार्य अधर्म है, जिससे आत्मा की परमसत्ता से दूरियाँ बढ़ती हैं।।’’

सद्गुरुदेव जी महाराज के प्रथम दिवस के दिव्य उद्बोधन के उपरान्त, उपस्थित सभी शिष्यों-भक्तों ने माँ-गुरुवर की दिव्य आरती का लाभ प्राप्त किया।

द्वितीय दिवस का द्वितीय सत्र

मंच का मनोहारी व प्रगतिमय चित्रण, उमड़ते-घुमड़ते बादलों के साथ सकारात्मक परिवर्तन और प्रगति तथा जीवनदायिनी जलतत्त्व के प्रतीकस्वरूप नीले रंग की छटा का अद्भुत दृश्यांकन भक्तों के मन व हृदय को बरबस ही आकर्षित कर रहे थे। बायीं ओर सुख-समृद्धि का प्रतीक कलश और दाहिनी ओर ‘माँ’-गुरुवर की संयुक्त दिव्यछवि के समक्ष नवजीवन का संदेश प्रदान करती हुई प्र्रज्ज्वलित अखंड ज्योति और मंच के मध्य में विराजमान ऋषिवर सद्गुरुदेव श्री शक्तिपुत्र जी महाराज का अलौकिकस्वरूप। यह सभी कुछ अत्यन्त ही मनमोहक था।

सर्वप्रथम शक्तिस्वरूपा बहन पूजा जी, संध्या जी और ज्योति जी ने गुरुवरश्री का प्रदप्रक्षालन करके पुष्प समर्पित किये, पश्चात् कुछ शिष्यों-भक्तों ने गुरुचरणों में अपने भावसुमन अर्पित किए, जो अंशरूप में प्रस्तुत हैं- मैं तेरे तेज से डर न जाऊँ कहीं, माँ तुझे देख पाने की क्षमता नहीं: वीरेन्द्र दीक्षित जी, दतिया। गुरुजी मुझे माँ की शरण से जोडऩा: प्रतीक मिश्रा, कानपुर। सिद्धाश्रम में सिद्ध हुए सबके सारे काम, सिद्धाश्रम स्वामी जी को सबका कोटि-कोटि प्रणाम: बाबूलाल जी, दमोह। याद करे जग मरने के बाद, कुछ ऐसा करके दिखा जाओ। जिससे ये दुनिया गर्व करे, ऐसा इतिहास बना जाओ: शक्तिस्वरूपा बहन संध्या जी, सिद्धाश्रम।

भावगीतों के उपरान्त, मंचासीन ऋषिवर सद्गुरुदेव श्री शक्तिपुत्र जी महाराज नवमी तिथि पर सभी शिष्यों-भक्तों को आशीर्वाद प्रदान करते हुए कहते हैं कि-

 कल से लेकर आज तक आप लोगों ने इस पवित्र धाम में रहकर अपने विचारों को, अपने मनमस्तिष्क को एकाग्र करने का प्रयास किया है। वातावरण का अच्छा प्रभाव पड़ता है। यही वह दिव्यस्थली है, जो आने वाले समय में धर्मधुरी बनेगी और यहीं मेरे 108 महाशक्तियज्ञों की शृंखला के शेष 100 यज्ञ पूर्ण किए जायेंगे। आठ यज्ञ समाज के बीच सम्पन्न किए जा चुके हैं, जिनकी अलौकिक ऊर्जा का अनुभव समाज कर चुका है। मैं चमत्कार नहीं करता, मैं इसे सत्य की यात्रा कहता हूँ। साधक जब सत्य की यात्रा पर चलता है, तो सब कुछ सम्भव है। ‘माँ’ को अपना बना लो, यह तो कठिन है। तो ‘माँ’ के बन जाओ।  हाँ, ‘माँ’ के बन सकते हो, वे आदिशक्ति जगत् जननी हैं। जब मेरे 100 यज्ञ पूर्ण हो जायेंगे, ‘माँ’ के सम्बंध में पूर्ण रहस्य एक-एक करके उद्घाटित किए जायेंगे। दुर्गासप्तशती का अध्ययन कर लेना, उसमें मिल जायेगा कि ब्रह्मा, विष्णु, महेश को भी ‘माँ’ ने ही बनाया है।

मैं धर्मग्रन्थों में समाज को उलझाने नहीं आया हूंँ। समय-समय पर सभी ज्ञान दिए जायेंगे, लेकिन आज आत्मग्रंथ को पढऩे की आवश्यकता है। धर्मग्रन्थों की अपेक्षा अधिक से अधिक आत्मग्रंथ का अध्ययन करें, क्योंकि श्रेष्ठ से श्रेष्ठ आचार्यों ने भी जिन धर्मग्रन्थों की रचना की है, उन धर्मग्रन्थों को पढऩे से प्रतीत होता है कि उनमें कहीं न कहीं कुछ छूट गया है। ज्ञानी तो बहुत हुए, लेकिन आत्मज्ञानी नहीं हुए। इसीलिए कहा गया है कि ज्ञानी तो भटक सकता है, लेकिन भक्त कभी नहीं भटकता। बड़ी-बड़ी तपस्या करो, लेकिन तप में यदि भक्ति समाहित नहीं है, तो वह तप तमोगुणी बन जायेगा, रजोगुणी बन जायेगा। भक्ति सहज मार्ग है। सब कुछ ‘माँ’ को समर्पित कर दो। यदि ‘माँ’ को प्रसन्न करना चाहते हो, तो सत्कर्म की यात्रा तय करनी पड़ेगी। वास्तव में यदि आप अपनी कुण्डलिनीशक्ति को जगाना चाहते हो, तो सत्कर्म की यात्रा तय करनी पड़ेगी।

यह सत्य है कि किसी कुएं से जल निकालते रहो, किसी सरोवर से जल निकालते रहो, तो वह सूख सकता है, लेकिन ‘माँ’ की भक्ति का सरोवर कभी नहीं सूखेगा। आप चाहे उससे जितना निकालते रहो। आप लोगों ने मन की शक्ति का, मन की ऊर्जा का सदुपयोग नहीं, बल्कि दुरुपयोग किया है। अरे, तुम मन नहीं, आत्मा हो और आत्मा की शक्ति मन है, बुद्धि है। मन में विचार लाते हो और एक क्षण में हज़ारों किलोमीटर दूर के दृश्य देख लेते हो। मन को जहाँ पहुँचाना चाहो, पहुँच जायेगा। मन तो कहता है कि मैं जल के समान निर्मल और पवित्र हूँ। मुझमें जैसा रंग डालोगे, वैसा बन जाऊंगा। मन तो माध्यम है, चाहे उसे परमसत्ता के ध्यान में लगा दो, चाहे विकारों की ओर लेजाओ। परमसत्ता की ओर ध्यान लगाओगे, तो आपकी सात्विक कोशिकाएं जाग्रत् होंगी और विकारों की ओर लगाओगे, तो तुम्हारा पतन सुनिश्चित है।

जहाँ बुद्धि है, वहाँ दुर्बुद्धि भी है। दुर्बुद्धि को नियंत्रण में ले लो और बुद्धि का सदुपयोग करो। बुद्धि प्रकाश है और दुर्बुद्धि अन्धकार। प्रकाश ही सत्य है, न कि अन्धकार। प्रकाश ही अन्धकार को समाप्त कर सकता है, अन्धकार कभी भी प्रकाश को नष्ट नहीं कर सकता। लेकिन, तुमने बुद्धि का सदुपयोग करना ही नहीं सीखा।

अब आप धर्मयोद्धा बनना चाहते हो, तो बताओ कि तुम ज्ञान को अस्त्र बनाना चाहते हो या अज्ञान को! ज्ञान को अस्त्र बनाओगे, तो आगे बढ़ते चले जाओगे और अज्ञान को अस्त्र बनाओगे, तो पतन सुनिश्चित है। अब आपको ही यह निर्णय लेना पड़ेगा कि ज्ञान ही सत्य है, अज्ञान नहीं! विकारों का कोई अस्तित्त्व है ही नहीं। एक बार अपने विचारों को स्थिर करके जरा सोचो। जब सात्विक दिशा में आगे बढऩे लगोगे, तो आपका आभामण्डल धीरे-धीरे प्रकाशित होता चला जायेगा। अपनी कुण्डलिनीचेतना को जगाना चाहते हो, तो उसके लिए प्रारम्भिक यात्रा तो तय करो।

कुण्डलिनी के चक्रों की प्रारम्भिक यात्रा है अष्टांग योग का पालन। यम-नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि। इन आठों अंगों में पूर्णतया निष्ठा-विश्वास और समर्पण के साथ चलने पर ही पूर्णत्त्व का लाभ प्राप्त हो सकता है। यदि आप साधना की चरम अवस्था को प्राप्त करना चाहते हैं, कुण्डलिनीशक्ति को जगाना चाहते हैं, तो अष्टांग योग का पालन करना अनिवार्य है। यह ऐसी धारा है कि इस पर जितना आगे बढ़ते जाओगे, उतनी ही सिद्धि प्राप्त करते चले जाओगे। इस पथ पर जिस दिन से चल पड़ोगे, आपको कोई भटका नहीं सकेगा। यह कर्मप्रधान सृष्टि है कि आप जैसा कर्म करेंगे, वैसा ही परिवर्तन आपके जीवन में आता चला जायेगा।

किसी दूसरे को दोष मत दो। परमसत्ता ने बहुत सुव्यवस्थित विधान बनाकर आपको दिया है। सत्कर्मों की ओर चलते जाओ, देवत्त्व व ऋषित्त्व का मार्ग मिलेगा। आप स्वयं अपने भाग्य के निर्माता हो, स्वयं रचनाकार हो। परमसत्ता के पास कोई लिखने वाला नहीं बैठता, उसने अपने अंशरूप में आपको आत्मा प्रदान की है। आत्मा और परमसत्ता एक हैं। आप जो कुछ करते हैं, वह सब कुछ अंकित होता चला जाता है। आप जब तक अपने अन्दर क्रोधभाव को पैदा नहीं करोगे, तो चाहे कोई सौ गाली दे, शान्त ही रहोगे। आप जब तक अपने अन्दर विकारभाव उत्पन्न नहीं करोगे, तब तक आप उस दिशा में प्रवृत्त हो ही नहीं सकते। आप लोग निरन्तर भक्ति के मार्ग पर बढ़ो, मूलाधार में थिरकन होने लगेगी। यदि आप मूलाधार को सशक्त बनाने में सफल हो गए, तो आपका पतन कभी नहीं हो सकता। मूलाधार के सशक्त होते ही पतन रुक जायेगा और पुरुषार्थ, परोपकार के भाव जाग्रत् होते चले जायेंगे।

दुर्भाग्य है कि अज्ञानियों ने इस पथ को उलझा करके रख दिया है। हर मनुष्य का आभामण्डल, उसके शरीर का एक-एक रोयाँ चीख-चीखकर कहता है कि मैं कौन हूँ और क्या था? इतना बड़ा शरीर और आन्तरिक अमूल्य निधि लेकर भी कहते हो कि मैं निरीह हूँ, कमजोर हूँ, निर्धन हूँ! इसीलिए उलझे हुए हो और परमसत्ता को दोष देते हो। जिस स्थिति में हो, उसी स्थिति में चलने लगो। मेरा मानना है कि धर्मपथ पर चलने वाला व्यक्ति कभी भूखा रह ही नहीं सकता, निरीह बनकर रह ही नहीं सकता। अपने अन्दर की अच्छाईयों को देखो और परमसत्ता ने जो क्षमताएं दी हैं, उनका उपयोग करो। अच्छा कर्म करना शुरू कर दो, दु:ख-कष्ट आने बन्द हो जायेंगे। अज्ञानी बनकर नहीं, ज्ञानी बनकर, आत्मज्ञानी बनकर जीना है।

अपरिग्रही बनो। अपने लिए उतना ही धन का संचय करना चाहिए, जितना कि जीवन के लिए नितान्त आवश्यक है। आवश्यकता से अधिक संचय मूर्खता है और यदि चाहते हो कि तुम्हारा पुत्र धर्मवान् बने, हमेशा तुम्हारा सम्मान करे, तो पहले स्वयं धर्मवान् बनो, अपने से बड़ों का सम्मान करो। जो कठिन कार्य हैं, उन्हें तुम्हें करना है, भगवती मानव कल्याण संगठन को करना है। तुम्हें गिरे हुए को ऊपर उठाना है, परोपकारी बनना है। मानवता के लिए कार्य करो। मैंने हर मनुष्य के तीन ही मुख्य कर्तव्य बतलाए हैं और वे हैं-मानवता की सेवा, धर्मरक्षा और राष्ट्र की रक्षा करना। लेकिन, धर्मरक्षा का तात्पर्य यह नहीं है कि दूसरों के धर्म का सम्मान न करो। अपने धर्म की रक्षा करते हुए जो दूसरों के धर्म का सम्मान करता है, वही धर्माधिकारी कहलाता है। राष्ट्ररक्षा से तात्पर्य देश के लिए अपनी जान दे देना नहीं है, बल्कि देश के अन्दर पनप रही बुराईयों को नष्ट करना ही सच्चे अर्थों में राष्ट्र की रक्षा करना है। समाज में व्याप्त बुराईयों के साथ ही कुरीतियों को समाप्त करने की दिशा में कार्य करना भी राष्ट्ररक्षा की श्रेणी में आता है। तुम भगवती मानव कल्याण संगठन के कार्यकर्ता हो, अत: किसी भी तोडफ़ोड़ की गतिविधियों में शामिल नहीं होना है, क्योंकि हम विनाश में नहीं, बल्कि सृजन में विश्वास रखते हैं।

राजसत्ता, राजा वह होता है, जो न्याय करना जानता है, भले ही उसे सत्ताच्युत होना पड़े। क्या देश में कोई भी, चाहे केन्द्र हो या राज्य सरकारें आम जनता के प्रति न्याय कर पा रहीं हैं? चारों ओर अराजकता का माहौल है। अनाचारी, अत्याचारियों को सरकारों द्वारा प्रश्रय दिया जाता है। किसी अतिगम्भीर मामले में जब जनता उग्र होजाती है, तब कहीं जाकर अपराधी को जेल की सलाखों के पीछे भेजा जाता है। चिन्मयानंद का की मामला देख लीजिए, सब कुछ स्पष्ट हो जायेगा। वर्तमान में प्रधानमंत्री मोदी जी ईमानदारी से कार्य कर रहे हैं, यह मैं मान रहा हँू, लेकिन पूरी तरह नहीं! केवल 10-15 प्रतिशत। उन्होंने अपने लोगों पर नियंत्रण नहीं किया। उन्हें कसौटी पर खरा उतरना पड़ेगा। यदि वे सत्ता पर स्थायित्त्व चाहते हैं, तो स्वतंत्रतासेनानियों ने जो सपना देखा था, उसे पूरा करना पड़ेगा।

लोकतंत्र की हत्या हो रही है। चुनावों में एक-एक क्षेत्र में करोड़ों-करोड़ों रुपया खर्च किया जाता है और जो निर्धारित है, चुनाव आयोग को केवल उतना ही हिसाब दिया जाता है। क्या यह ठीक है, क्या यह लोकतंत्र की हत्या नहीं है? करोड़ों खर्च करने वाले अन्यायी-अधर्मी जीत जाते हैं और ईमानदार प्रत्याशी, जिसमें इतनी बड़ी राशि खर्च कर पाने की क्षमता नहीं है, वह जनता के सपनों को पूरा कर पाए, इससे पहले ही उसे हार का मुँह देखना पड़ता है। क्या हमारे सेनानियों को वह स्थान मिल सका, जिसके कि वे वास्तव में हकदार हैं? भगत सिंह की आत्मा, लक्ष्मीबाई की आत्मा क्या सोचती होगी? मंगल पाण्डेय जैसे हज़ारों-लाखों युवाओं ने भारतभूमि की आज़ादी के लिए अपने प्राणों की आहुति दी है।

भगत सिंह को आज तक राष्ट्रभक्त का दर्जा नहीं मिला, शहीद का दर्जा नहीं मिला और ये राजनेता अपने आपको राष्ट्रभक्त कहते हैं! देश की सरकारें कैसी हैं? यह आप सभी जानते हैं। मैंने हर अच्छे कार्य की सराहना की है। कश्मीर पर लिया गया मोदी जी का निर्णय निश्चय ही सराहनीय है। आज हम सीना ठोंककर कह सकते हैं कि कश्मीर हमारा है। लेकिन, भ्रष्टाचार और मंहगाई पर नियंत्रण न करना, यह मोदी जी की सबसे बड़ी नाकामी है। जनसंख्या नियंत्रण के लिए भी उनके पास कोई सारगर्भित योजना नहीं है। जीएसटी नामक दानव सबको खाए जा रहा है। कोई भी नीति लागू करने से पहले बहुत सोच-विचार की आवश्यकता होती है। किसी भी नियम को शनै:-शनै: लागू किया जाना चाहिए, लेकिन नहीं। नीति बनाने वाले तो करोड़ों-अरबों में खेलते हैं, मरती तो देश की गरीब जनता ही है।

ऋषिवर ने द्वितीय दिवस के चिन्तन का पटाक्षेप करते हुए अपने शिष्यों व भगवती मानव कल्याण संगठन के कार्यकर्ताओं से कहा कि जो अच्छा हो रहा है, हम उसके समर्थक हैं और जो नहीं हो रहा है, उसके लिए आवाज़ उठाओ। तीन धाराएं जो आप लोगों को दी गई हैं, वह देश के भविष्य की सुरक्षा के लिए हैं। धर्म, धैर्य, पुरुषार्थ और एकाग्रता निरन्तर बनी रही, तो एक दिन अपने लक्ष्य तक अवश्य पहुँचोगे। आपकी एकाग्रता कभी भंग न होने पाए, क्योंकि एकाग्रता में ही आपकी कुण्डलिनीशक्ति समाहित है। अपने आज्ञाचक्र की शरण में जाओ। इस सुपरकम्प्यूटर में सब कुछ अंकित है। ‘माँ’-ॐ बीजमंत्रों का नित्यप्रति उच्चारण करो। 10 मिनट, 15 मिनट, 01 घण्टा, जितना समय मिले। प्राणायाम में ही जीवनीशक्ति है। उस शक्ति पर अपनी पकड़ हासिल करो। धीरे-धीरे चेतनाशक्ति बढ़ती चली जायेगी। योगी बनो, साधक बनो, शक्तिसाधक बनो। जो जीवन है, उसका उपयोग कर डालो। पुरुषार्थ में, परोपकार में ही तृप्ति है। यह हमेशा ध्यान रखो कि कभी किसी का हृदय मत दु:खाओ, क्योंकि गरीब की आह बड़ों-बड़ों को, अच्छों-अच्छों को मिटा देती है। विशेषकर युवाओं से कहता हूँ कि सुधर जाओ और सत्यपथ के राही बनो।

परम पूज्य गुरुवरश्री के चिन्तन के उपरान्त, सभी भक्तों ने सामूहिक रूप से शंखध्वनि करके एकाग्रतापूर्वक दिव्य आरती का लाभ प्राप्त किया।

तृतीय दिवस का प्रथम सत्र लगभग 10 हज़ार नए भक्तों ने ली गुरुदीक्षा

शिविर के तृतीय व अन्तिम दिवस का प्रथम सत्र। लगभग 10 हज़ार नए भक्तों ने ऋषिवर सद्गुरुदेव परमहंस योगीराज श्री शक्तिपुत्र जी महाराज से दीक्षा लेकर नशे-मांस से मुक्त चरित्रवान् जीवन जीने व धर्मरक्षा, राष्ट्र की रक्षा और मानवता की सेवा की राह पर चलने का संकल्प लिया।

 दिव्य मंच स्थल पर प्रात: 08:00 बजे से गुरुदीक्षा का कार्यक्रम प्रारम्भ हुआ। इस अवसर पर लगभग 10 हज़ार नये भक्तों ने गुरुदीक्षा प्राप्त करके अपने जीवन को धन्य बनाया। दीक्षा प्रदान करने से पूर्व नए भक्तों को शिष्य रूप में अपने हृदय में धारण करते हुए सद्गुरुदेव श्री शक्तिपुत्र जी महाराज कहते हैं कि-

 असत्य पर सत्य की विजय का, असुरत्त्व पर देवत्त्व की विजय का एवं बुराई पर अच्छाई की विजय का पर्व है आज। ऐसे पावन पर्व पर जो दीक्षा लेने जा रहे हैं, वे अत्यन्त सौभाग्यशाली हैं।

वास्तव में मनुष्य का वास्तविक जीवन तभी शुरू होता है, जिस दिन से वह गुरुदीक्षा लेता है, जहां से उसे मनुष्योचित कर्म करने का सौभाग्य मिलता है, एक नवीन जन्म प्राप्त होता है। आज आपके पास सुनहरा अवसर है कि आप यह निर्णय ले सकते हैं कि नशे-मांस से मुक्त चरित्रवान् जीवन जीते हुए धर्मरक्षा, राष्ट्ररक्षा और मानवता की सेवा के लिए हमेशा कटिबद्ध रहेंगे। गुरुआज्ञा का आजीवन अक्षरश: पालन करेंगे, क्योंकि गुरु जिससे सम्बंध स्थापित करता है, उसे अपनी तरफ से कभी नहीं छोड़ता। मैंने दीक्षा के बदले कभी किसी से कुछ नहीं माँगा, माँगा है तो केवल आपके अवगुणों को। यदि आप मुझे कुछ देना ही चाहते हैं, तो अपने अवगुणों को दे दो।

 इसी क्षण से आप लोग नशे-मांस से मुक्त चरित्रवान् जीवन का संकल्प ले लें। दृढ़ता के साथ इस विचार को धारण कर लें कि हमें अपने जीवन को बदलना है। आपश्री ने कहा कि केवल दीक्षा प्राप्त कर लेने से ही कल्याण नहीं होगा, बल्कि गुरु जो कहे, उसका अक्षरश: पालन करना चाहिए। गुरु और शिष्य का सम्बंध अगूढ़ सम्बन्ध है। जो शिष्य मेरे आदेश-निर्देश का पालन करता है, वह मुझसे अलग हो ही नहीं सकता।

आप लोग यहां जो संकल्प लें, वह आपके जीवन का आधार होजाना चाहिए। कर्मवान् बनो, धर्मवान् बनो, पुरुषार्थी बनो, आत्मावान् बनो। हमेशा संगठन के परिवेश में, परिधान में रहो। मेरा शक्तिपात, मेरी ऊर्जा का प्रवाह ही दीक्षा का माध्यम होता है और गुरु के द्वारा जो मन्त्र प्रदान किया जाता है, उसे जब आप उच्चारण करते हैं, तो वह मन्त्र उत्कीलित एवं प्रभावी होजाता है।

चिन्तन के पश्चात् परम पूज्य गुरुवरश्री ने कहा कि मैं शक्तिपात के माध्यम से सभी को अपनी चेतना से आबद्ध करते हुये जो जिस अवस्था में है, उसे स्वीकार करता हूँ। आपश्री ने सहायक शक्तियों हनुमान जी, भैरव जी एवं गणेश जी के मंत्र के साथ चेतनामंत्र ‘ॐ जगदम्बिके दुर्गायै नम:’ एवं गुरुमन्त्र ‘ॐ शक्तिपुत्राय गुरुभ्यो नम:’ प्रदान किया। अंत में सभी नये दीक्षाप्राप्त शिष्यों ने सद्गुरुदेव भगवान् को नमन करते हुये नि:शुल्क शक्तिजल, गुरुचरणकमल व ‘माँ’-गुरुवर की संयुक्त छवि का छायाचित्र प्राप्त करते हुये गुरुदीक्षा प्रपत्र भरकर प्रवचनस्थल की व्यवस्था में सक्रिय, भगवती मानव कल्याण संगठन के कार्यकर्ताओं के पास जमा कराया।

शिविर के तृतीय दिवस का द्वितीय सत्र

 सर्वप्रथम शक्तिस्वरूपा बहन पूजा जी, संध्या जी और  ज्योति जी ने गुरुवरश्री का प्रदप्रक्षालन करके पुष्प समर्पित किये। पश्चात् कुछ शिष्यों-भक्तों ने गुरुचरणों में नित्यप्रति की तरह भावगीतों की प्रस्तुति दी, जो अंश रूप में प्रस्तुत हैं- रास्ता कठिन है, मगर कदम बढ़ाए  रखना…: वीरेन्द्र दीक्षित जी, दतिया। तूफानी हों कितनी लहरें, अम्बर की हों कितनी पहरें… कालचक्र का मतलब तो…सतयुग को फिर से आना है: अमित शुक्ला जी, सिद्धाश्रम। आओ सभी संकल्प यही लेना है उस दरबार में, जीवन अपना जीना है परहित में, पर उपकार में: बाबूलाल जी, दमोह। तीरथ किए हज़ार पर किया न परोपकार, तो सब कुछ व्यर्थ गया।… दीनहीन को न अपनाया, मर्म धर्म का समझ न पाया: शक्तिस्वरूपा बहन संध्या शुक्ला जी।

भावगीतों की शृंखला के पश्चात् उपस्थित भक्तों को आशीर्वाद प्रदान करते हुए ऋषिवर ने कहा कि-

इस पवित्र तीर्थस्थल पर, जहाँ आप लोग बैठे हुए हैं, यहाँ विगत 22 वर्षों से ‘माँ’ का गुणगान अनवरत चल रहा है। यह एकमात्र ऐसा स्थान है, जहाँ ‘माँ’ का गुणगान सतत चल रहा है और यहाँ पर ‘माँ’ की साधनाओं का फल मेरे द्वारा बिन माँगे ही समर्पित किया जाता है। यह ‘माँ’ का दर है, तुम्हारे गुरुवर का दर है। इस स्थान को साधनात्मक क्रमों से आबद्ध किया जा रहा है, जिससे कि आप लोगों को ‘माँ’ से, अपने गुरु से कुछ माँगना न पड़े और ‘बिन माँगे ही सब मिल जाए।’ लेकिन, इसके लिए पात्रता होनी चाहिए। क्योंकि, आज लोग सतोगुण छोडक़र रजोगुण व तमोगुण की ओर चले गए हैं।

आज भी मन्त्रों में अपूर्व शक्ति है, लेकिन उस शक्ति को जगाने के लिए सात्विकता, पवित्रता धारण करके अपने आपमें साधकप्रवृत्ति लाओ। जिस दिन साधक बन जाओगे, उसी दिन गुरु के द्वारा दिया गया मन्त्र, जप करने से फलीभूत होने लगेगा। आपको सात्विकता के पथ पर चलना होगा। आपका आहार-विचार पवित्र होना चाहिए, तथापि आप गृहस्थ में रहकर भी बहुत कुछ कर सकते हो। केवल एक बार ठान लो कि मुझे स्वयं मेें बदलाव लाना है, फिर देखो कि कलिकाल का दुष्प्रभाव समाप्त होता चला जायेगा।

विजयादशमी असत्य पर सत्य की विजय का पर्व है और इस तिथि पर लिया गया संकल्प अवश्य फलीभूत होगा। लेकिन, आज नवरात्र पर्व पर दुर्गापंडालों पर क्या हो रहा है, शराब पीकर हो-हुल्लड़, नाच-गाना, रास-रंग। यह सब क्या है? क्या इससे ‘माँ’ प्रसन्न होंगी? नहीं! इतना ही नहीं, नौ दिनों तक मूर्तियों को रखने के बाद अधिकांशत: उन्हें गंदे नालों में विसर्जित कर दिया जाता है! क्या यही साधना है? समाज बहुत गलत दिशा में जा रहा है। इसीलिए मैं कहता हूँ कि ‘माँ’ को अपने हृदय में स्थापित करो, अपने घरों को मंदिर बना लो, घर में ‘माँ’ की स्थापना करो और सात्विकता के साथ पूजन करो। ‘माँ’ तुम्हारी पुकार अवश्य सुनेंगी, बजाय कि दुर्गापंडालों में अपना समय नष्ट करो।

माता आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा की भक्ति से सहज-सरल-सुगम साधना अन्य किसी देवी-देवता की साधना है ही नहीं। जो सत्य है, उस पथ पर चलो। केवल सोचने मात्र से कर्म सम्पादित नहीं होजाता, बल्कि उस सोच को कर्म रूप में परिणत करना पड़ता है। जो भी अच्छे विचार उत्पन्न हों, उन्हें कार्य रूप में परिणत करो। समय के एक-एक पल का उपयोग पूरी कार्यक्षमता के साथ करो। दैनन्दिन कार्य करते हुए हर पल परमसत्ता का स्मरण बनाए रखो, जिससे भूल से भी आपसे गलत कार्य न होने पाए। चौबीस घंटे सजग रहो कि कहीं मन में कुविचार तो उत्पन्न नहीं हो रहे हैं और जैसे ही कुविचार उठें, उन्हें मनमस्तिष्क से पूरी तरह झटक दो और सात्विक कार्यों में लग जाओ।

ऋषिवर सद्गुरुदेव परमहंस योगीराज श्री शक्तिपुत्र जी महाराज ने कहा कि इस शिविर में मैं जो कुण्डलिनीचेतना के बारे में वास्तविक ज्ञान देना चाहता था, उसे रोक दिया गया है, क्योंकि उस ज्ञान को ग्रहण करने की पात्रता यहाँ उपस्थित 90 प्रतिशत लोगों में नहीं है। इसके लिए एक वर्ष के अन्दर-अन्दर 15 दिवसीय योग-ध्यान-साधना शिविर लगाया जायेगा। मैं सभी वर्ग के साधकों का आवाहन कर रहा हूँ कि योग-ध्यान-साधना के इस पन्द्रहदिवसीय शिविर में जो सम्मिलित होना चाहते हैं, पूर्व से ही आवेदन कर सकते हैं। उनमें से जो पात्र होंगे, उन्हें ही शिविर में स्थान दिया जायेगा। शिविर के पन्द्रह दिनों में मेरा यह प्रयास रहेगा कि आपको धरातल दे सकूँ।

चिन्तन के उपरान्त, सद्गुरुदेव जी महाराज ने अपने आगामी कार्यक्रमों के बारे में जानकारी प्रदान की, जो इस प्रकार है-

* 26 अक्टूबर 2019: सुबह 09 से 12 बजे तक

सुर संध्या एवं कविसम्मेलन, गुरुजन्मस्थली, भदबा, फतेहपुर (उ.प्र.)

* 08-09 फरवरी 2020, शक्ति चेतना जनजागरण शिविर, सिंगरौली (म.प्र.)।

शिविर के तृतीय व अन्तिम दिवस की समापन बेला पर सभी भक्तों ने माँ-गुरुवर की दिव्य आरती प्राप्त करके स्वयं में विशेष चेतनात्मक शक्ति का अहसास किया। पश्चात् सभी ने गुरुचरणपादुकाओं को बड़े ही श्रद्धाभाव से नमन करके और प्रसाद प्राप्तकर जीवन को संस्कारों से पूरित किया।

शिविर व्यवस्था में संगठन के पाँच हज़ार से अधिक कार्यकर्ताओं का अथक योगदान

शिविर को सफलतापूर्वक सम्पन्न कराने में भगवती मानव कल्याण संगठन के पाँच हज़ार से अधिक सक्रिय समर्पित कार्यकर्ताओं व सिद्धाश्रमवासियों ने अथक परिश्रम किया। नवरात्र पर्व के एक सप्ताह पूर्व से संगठन के कार्यकर्ताओं ने पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम पहुंचकर आगन्तुक श्रद्धालुओं के ठहरने हेतु आवासीय व्यवस्था प्रदान की व शिविर में शांति व्यवस्था के लिये सैकड़ों कार्यकर्ताओं ने महती भूमिका अदा की।

भोजन व्यवस्था, प्रवचनस्थल व्यवस्था, जनसम्पर्क कार्यालय, खोया-पाया विभाग, नि:शुल्क प्राथमिक चिकित्सा केन्द्र, स्टॉल व्यवस्था, स्वच्छता व्यवस्था, पेयजल व्यवस्था, प्रसाद वितरण, लाईट, साउण्ड, माईक, कैमरा व्यवस्था तथा मूलध्वज साधना मंदिर व अखण्ड श्री दुर्गाचालीसा पाठ भवन में प्रात:कालीन व सायंकालीन साधनाक्रम व आरती सम्पन्न कराने हेतु हज़ारों कार्यकर्ता अनुशासित ढंग़ से लगे रहे।

इस तरह प्रकृतिसत्ता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा व परम पूज्य गुरुवरश्री की कृपा से जन-जन में चेतना का संचार करने व विश्वशांति के लिये आयोजित यह वृहद कार्यक्रम धार्मिक व आध्यात्मिक वातावरण में शालीनतापूर्वक सम्पन्न हुआ।

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