योग-ध्यान-साधना शक्ति चेतना जनजागरण शिविर, सिद्धाश्रम धाम, 20-22 अक्टूबर 2015

जीवन की पूर्णता के लिए योगमार्ग पर चलना नितान्त आवश्यक है। इसके अतिरिक्त और कोई मार्ग है ही नहीं। किन्तु, इस विषय में समाज के अन्दर बड़ी भ्रामक स्थिति है। प्रायः लोग योगासनों को ही योग कहते हैं। वे स्वयं को योगगुरु या योगऋषि कहते हैं तथा योगशिविर लगाकर मात्र योगासन ही सिखाते हैं। इसके लिए वे प्रति व्यक्ति भारी शुल्क वसूलते हैं। जो बीस-पच्चीस हज़ार रुपए देते हैं, उन्हें अपने पास आगे बैठाया जाता है तथा हज़ार-दो हज़ार देने वाले बिल्कुल पीछे बैठते हैं। और, बेचारे गरीब लोग, जो कुछ नहीं दे पाते, उन्हें प्रवेश नहीं दिया जाता। इस प्रकार, ये तथाकथित योगगुरु योग के नाम पर समाज का शोषण कर रहे हैं, जब कि ध्यान-समाधि का इन्हें कोई ज्ञान नहीं है।
इस दुरवस्था से समाज को बचाने तथा योग का वास्तविक ज्ञान कराने के उद्देश्य से परम पूज्य सद्गुरुदेव भगवान् योगीराज श्री शक्तिपुत्र जी महाराज के द्वारा पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम में 20 से 22 अक्टूबर 2015 की अवधि में एक विशेष त्रिदिवसीय योग-ध्यान-साधना शक्ति चेतना जनजागरण शिविर का आयोजन किया गया। इसमें देश-विदेश से आए लाखों लोगों ने परम पूज्य गुरुवरश्री के दिव्य निर्देशन में प्रथम दो दिनों के प्रथम सत्र में योगासनों का अभ्यास किया तथा योग की सम्पूर्ण विधा से सम्बन्धित उनके सारगर्भित चिन्तनों को हृदयंगम किया।
शिविर के अन्तिम दिन विजयादशमी को प्रातःकालीन सत्र में लगभग ग्यारह हज़ार लोगों ने गुरुदीक्षा प्राप्त की और गुरुवरश्री के द्वारा प्रदत्त विचारधारा को आत्मसात् किया। इसी दिन सायंकालीन सत्र में तेरह नवयुगलों के विवाह संस्कार योगभारती विवाह पद्धति के अनुसार सम्पन्न हुए। इस अवसर पर तीन सदस्यों को ‘श्रमशक्ति पुरस्कार’ और एक को ‘सिद्धाश्रम सुरसाधना पुरस्कार’ प्रदान करके सम्मानित किया गया।
इस विशाल अलौकिक आयोजन में परम पूज्य गुरुवरश्री के द्वारा गठित त्रिधाराओं से जुड़े विभिन्न प्रान्तों से आए लाखों सदस्यों के साथ ‘माँ’ के भक्तों, श्रद्धालुओं, जिज्ञासुओं तथा क्षेत्रीय जनता की विशिष्ट उपस्थिति रही।

प्रारम्भिक तैयारियां
अनेक नए आवासीय भवनों एवं शौचालयों का निर्माण होने के कारण तथा साथ ही वृहद् पैमाने पर आवासीय पण्डालों एवं अस्थायी प्रसाधनों की व्यवस्था दिये जाने के कारण इस वर्ष शिविरार्थियों को ठहरने एवं दैनिक क्रियाओं से निवृत्त होने में बहुत सुविधा हुई। उनकी सुविधा के लिए तीन अलग-अलग स्थानों पर स्वच्छ शीतल पेयजल की व्यवस्था की गई थी। भोजन व्यवस्था भी इस वर्ष अति सन्तोषजनक रही। इससे भोजन प्राप्त करने वालों को देर तक लम्बी लाईन में इन्तज़ार नहीं करना पड़ा और न ही कहीं पर कोई अतिसंकुलता की स्थिति उत्पन्न हुई।
सेवा-श्रमदान करने के लिए लालायित अनेक गुरुभाई-बहनों ने नवरात्र की पूरी अवधि यहां पर रहकर सेवा-साधना में व्यतीत की और जीतोड़ मेहनत करके विभिन्न कार्यों में अपना अमूल्य योगदान दिया।
दूसरी ओर, भगवती मानव कल्याण संगठन के सक्रिय कार्यकर्ताओं ने अपने-अपने क्षेत्र में लगभग एक महीना पूर्व से शिविर से सम्बन्धित व्यापक प्रचार किया। उनके द्वारा इस शिविर की होर्डिंग्स लगाई गईं तथा पैम्फ्लेट्स वितरित किये गए।

विभिन्न व्यवस्थाएं
इस वृहद् आयोजन की विभिन्न व्यवस्थाओं को सुचारु रूप से संचालित करने में पांच हज़ार से भी अधिक समर्पित कार्यकर्ताओं ने अग्रणी भूमिका निभाई। आश्रम के स्थायी जनसम्पर्क कार्यालय के अतिरिक्त एक अन्य अस्थायी कार्यालय भी समधिन नदी के तट पर मुख्य स्वागत द्वार के नज़दीक स्थापित किया गया। इसके द्वारा आगन्तुक शिविरार्थियों को उनके सम्बन्धित आवासीय पण्डाल में तथा वाहनों को पार्किंग में व्यवस्थित किया गया तथा अन्य महत्त्वपूर्ण निर्देशन ध्वनिविस्तारक यंत्र के माध्यम से दिये जाते रहे।
भोजन व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने में हज़ारों कार्यकर्ताओं ने प्रशंसनीय योगदान दिया। शिविर पण्डाल में श्रोताओं को पंक्तिबद्ध बैठाने और अन्त में क्रमबद्ध ढंग से प्रणाम कराने एवं प्रसाद वितरण में आद्योपान्त हज़ारों कार्यकर्ता लगे रहे। मूलध्वज मन्दिर और श्री दुर्गाचालीसा अखण्ड पाठ मन्दिर के प्रातः एवं सायंकालीन साधनाक्रम व आरती सम्पन्न कराने तथा शिविर पण्डाल में प्रातःकालीन योगासन सम्पन्न कराने में भी हज़ारों कार्यकर्ताओं ने अपने कर्तव्य का निष्ठापूर्वक पालन किया। आवासीय व्यवस्था एवं शान्ति सुरक्षा व्यवस्थाओं में लगे कार्यकर्ताओं ने दिन-रात लगकर अथक परिश्रम का परिचय दिया।

दैनिक कार्यक्रम
शिविर पण्डाल में प्रथम दो दिवस प्रातः सात से नौ बजे तक परम पूज्य सद्गुरुदेव भगवान् योगीराज श्री शक्तिपुत्र जी महाराज के दिव्य निर्देशन में शिविरार्थियों ने योगाभ्यास एवं ध्यान-साधना के क्रमों को पूरे मनोयोग से किया। अन्तिम दिन इस अवधि में गुरुदीक्षा प्रदान की गई। प्रतिदिन अपराह्न एक से दो बजे तक भावगीतों का कार्यक्रम रहता था। तदुपरान्त, ‘माँ’-गुरुवर के जयकारे लगाए जाते थे, जिनके बीच परम पूज्य सद्गुरुदेव भगवान् का शुभागमन होता था। शक्तिस्वरूपा बहनों पूजा, संध्या एवं ज्योति दीदी जी के द्वारा उनके पदप्रक्षालन एवं वन्दन के उपरान्त भी भावगीतों का क्रम जारी रहता था। अन्त में शक्तिस्वरूपा बहनों संध्या एवं ज्योति योगभारती जी के द्वारा पुनः ‘माँ’-गुरुवर के जयकारे लगवाने के पश्चात् महाराजश्री सबको अपना दिव्य आशीर्वाद समर्पित करके अपना उद्बोधन देते थे।

योग का शिक्षण
इस शिविर का मूल विषय योग-ध्यान-साधना होने के कारण, परम पूज्य सद्गुरुदेव भगवान् का चिन्तन तीनों दिन मुख्य रूप से अष्टांग योग एवं कुण्डिलिनी जागरण पर केन्द्रित रहा। किन्तु, इसके साथ-साथ उन्होंने आज के आम आदमी की पीड़ा को भी उजागर किया तथा उन्हें उनके ऊपर हो रहे अनीति-अन्याय-अधर्म के प्रति जागरूक करने के लिए धर्म, अध्यात्म, समाजसेवा एवं राजनीति आदि क्षेत्रों पर भी भरपूर प्रकाश डाला।
शिविर के प्रथम दो दिवसपर्यन्त प्रथम सत्र में प्रातः 07ः00 से 09ः00 तक महाराजश्री ने शिविरार्थियों को अपने दिव्य मार्गदर्शन में योगासन एवं प्राणायाम सिखाए। यह पहला अवसर था, जब आपश्री ने किसी शक्ति चेतना जनजागरण शिविर में स्वयं उपस्थित होकर ऐसा किया। अतः वे शिविरार्थी, वास्तव में, परम सौभाग्यशाली रहे, जिन्होंने इस स्वर्णिम अवसर का लाभ उठाया।
योगासन सीखने वालों के लिए शिविर पण्डाल के अन्दर तथा उसके आगे और दायें-बायें इतनी सारी चटाइयां (मैट्स) बिछाई गई थीं कि किए जाने वाले सभी आसनों के समय किसी भी व्यक्ति का कोई अंग किसी अन्य से स्पर्श न करे। प्रतिदिन नियत समय से पहले ही शिविरार्थी आकर अपने स्थान पर बैठ जाते थे। तदुपरान्त, शक्तिस्वरूपा बहन संध्या जी के द्वारा देवीसूक्तम् का सस्वर पाठ किया जाता था, जिसके एक-एक श्लोक का अनुसरण शिविरार्थियों के द्वारा किया जाता था। तत्पश्चात्, जयकारों एवं शंखध्वनि के मध्य गुरुवरश्री का शुभागमन होता था। मंचासीन होने के बाद अपना पूर्ण आशीर्वाद समर्पित करके वे अपना संक्षिप्त उद्बोधन देते थे और योगासन शुरू कराते थे। उनके दोनों दिनों के दिव्य उद्बोधन का सारसंक्षेप निम्नवत् हैः
गुरुवरश्री का दिव्य उद्बोधन
नवरात्र के ये दिन ‘माँ’ की भक्ति के लिए महत्त्वपूर्ण दिन होते हें। इन दिनों हमारा समर्पण एक अलग ही प्रवाह लिए होता है। मानवजीवन में ध्यान एक अति महत्त्वपूर्ण चरण होता है। इस ओर आप लोग बढ़ सकें, इसके लिए ही यह योग-ध्यान-साधना का शिविर रखा गया है।
आज की सामाजिक परिस्थितियों में मनुष्य का शरीर क्षीण सा हो रहा है। हमारा शरीर स्वस्थ होना बहुत ज़रूरी है। तभी हमारा मन स्वस्थ और बुद्धि निर्मल होगी। इसीलिए मैं आपको साधनापथ पर बढ़ाने का प्रयास कर रहा हूं। इस अवसर पर ‘शक्तियोग’ नामक पुस्तक आपको उपलब्ध कराई गई है। इसमें योग और यौगिक क्रियाओं से सम्बन्धित प्रारम्भिक जानकारियां दी गई हैं।
आप लोग संकल्प करें कि आज के बाद योगपथ का कभी भी त्याग नहीं करेंगे। इस समय समाज में दो प्रकार के लोग हैं– योगी और भोगी। चयन आपको करना है कि आप योगी का जीवन जियेंगे या भोगी का? आपके शरीर में निष्क्रियता और जड़ता है, यहां तक कि छोटे-छोटे बच्चे भी आलस्य में रहते हैं। यह जड़ता दूर होनी चाहिए और शरीर की एक-एक कोशिका चैतन्य होनी चाहिये। इससे आपकी उम्र के साथ-साथ आपकी कार्यक्षमता भी बढ़ेगी। उससे पहले यम-नियमों का दृढ़ता से पालन करने का संकल्प लेना चाहिए।
योगासन प्रारम्भ करने के लिए आपके अन्दर तीव्र इच्छाशक्ति होनी चाहिये तथा आपका पेट खाली और आपका प्रसन्नचित्त होना नितान्त आवश्यक है। तभी आपके अन्दर योग की पात्रता आयेगी। योग के लिए एक तड़प होनी चाहिये और हर पल ‘माँ’ का ध्यान रहे।
योग का प्रथम लक्ष्य है– शरीर का संतुलन, मन की एकाग्रता, श्वास पर नियंत्रण और बुद्धि की प्रखरता। जो कुछ भी आप कर रहे हें, अपने आपको उसी में समाहित करें। यदि नियमित योगासन करते रहें, तो शरीर में अकड़न और दर्द नहीं होता। किन्तु, योगासन अपने शरीर की क्षमता के अनुसार ही करें। अत्यधिक कभी न करें। शुरू में सहज आसन करें और धीरे-धीरे कठिन आसनों की ओर बढ़ें।
योगासन इस भाव से करें कि हमें अपने शरीर को चेतन करना है। अपने अन्तःकरण को निर्मल बनाएं। हमें किसी सामान्य व्यक्ति जैसा जीवन नहीं जीना है। हमारे विचारों में परिवर्तन आएगा और दूसरों की अपेक्षा हमारा जीवन श्रेष्ठ होगा।
अपने शरीर की जड़ता को दूर करने के लिए योग ही एकमात्र साधन है। इसके द्वारा आप निन्यानवे प्रतिशत बीमारियों से बच सकते हैं। जिस प्रकार आप प्रतिदिन भोजन करते हें, वैसे ही योग भी नियमित रूप से करें। महीने में कम से कम बीस-बाईस दिन तो अवश्य ही करें। यदि आप नवम्बर से फरवरी तक योगासन करेंगे, तो सालभर स्वस्थ रहेंगे।
अब मन को एकाग्र करके तीन-तीन बार ‘माँ’ और ‘ऊँ’ बीजमंत्रों का उच्चारण किया गया तथा योगासन प्रारम्भ किये गए।
सर्वप्रथम सहज प्राणायाम प्रारम्भ करके विभिन्न प्राणायाम सिखाने के बाद, बैठकर किए जाने वाले आसन सिखाए गए। तदुपरान्त, खड़े होकर किये जाने वाले और लेटकर किए जाने वाले आसन सिखाए गए और अन्त में शवासन एवं हास्यासन कराए गए।
योग शिक्षण के समापन पर महाराजश्री ने कहा कि आश्रम का अर्थ है आश्रम, यानि आओ और श्रम करो। इसलिए यहां पर आकर सबको अधिक से अधिक परिश्रम करना चाहिए। मरणोपरान्त कर्म ही आपके साथ जाएंगे। यहां पर इन तीन दिनों का भरपूर उपयोग करो। यहां पर आप ‘माँ’ के दरबार में उपस्थित हैं। डूब जाओ यहां के वातावरण में। काम-क्रोधादि से दूर रहकर सबसे सद्भावनापूर्ण व्यवहार करो। एक-एक क्षण आपके लिए मेरा चिन्तन रहता है। मैं आपको अपना पूर्ण आशीर्वाद समर्पित करता हूं।
अन्त में, शक्तिस्वरूपा बहन सन्ध्या जी ने सभी को योगासन सीखने के लिए बधाई दी तथा गुरुवरश्री के निर्देंशों का पालन करने एवं नियमित योगसाधना करने के लिए प्रेरित किया।

प्रथम दिवस- दिव्य उद्बोधन
आज का मनुष्य भौतिकतावाद के झंझावातों में फंसा है। इस पवित्र स्थल पर हमें जो भी क्षण व्यतीत करने को मिल रहे हैं, इससे बड़ा कोई सौभाग्य नहीं है। यह ‘माँ’ की कृपा है कि हम सत्य की ओर बढ़ रहे हैं। मैं इसे विश्व की धर्मधुरी के रूप में चैतन्य कर रहा हूँ। मैं स्वयं सौभाग्य के क्षण महसूस कर रहा हूँ। ‘माँ’ की कृपा से मैं एक-एक कदम आगे बढ़ा रहा हूँ। ज़रूरत है हमें यह जानने की कि ‘माँ’ हमसे क्या चाहती हैं? इसके लिए हमें अपने अन्तःकरण में झांकना होगा।
आप और ‘माँ’ में कोई भेद नहीं है। हम सब उसी के अंश हैं। जिस दिन वह हमसे दूर हो जाएंगी, उस दिन हमारा अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। अपने मन को एकाग्र करके अपने अन्तःकरण के विचारों को सुनो। वह ‘माँ’ की आवाज़ होती है। इसलिए उसे दबाओ मत। ये विचार आपको कुछ न कुछ संकेत देते हैं। हम ‘माँ’ की चेतनातरंगों के बीच रहते हैं। हम खाली हाड़-मांस के पुतले नहीं हैं। हममें अलौकिक शक्तियां हैं तथा हम अजर-अमर-अविनाशी आत्मा हैं। जीवन में दो बातें ज़रूरी हैं अच्छा सोचो और अच्छा करो।
अपनी आत्मा और परमसत्ता के बीच की दूरियां कम करने के लिए सत्कर्म करना पड़ेगा। हमें अपने आपको जानना है। यदि कोई अपने आपको नहीं जानेगा, तो एक दिन उसका पतन अवश्य होगा। निर्णय आपको करना है कि आप क्या चाहते हैं- पतन या उत्थान?
मुझे कहीं भी भेज दिया जाय। गरीब से गरीब परिवार में जन्म लेकर भी मैं आनन्द प्राप्त कर सकता हूँ। मेरे लिए बैंक बैलेन्स और वैभव आदि सब तुच्छ हैं। मेरी आध्यात्मिक शक्ति मेरी वास्तविक पूंजी है। आज लोगों की आत्मिक शक्ति को भौतिकवाद ने कमज़ोर कर दिया है। यदि अपनी आध्यात्मिक शक्ति जगा लें, तो मृत्यु का भय समाप्त हो जाएगा। यह शरीर नाशवान् अवश्य है, किन्तु अमूल्य है। इसका सदुपयोग करो। हमारी आत्मिक शक्ति इसी के माध्यम से कार्य करती है। इसलिए शरीर को स्वस्थ रखो। इसे खूब खिलाओ-पिलाओ, इसलिए कि हमें इसका सदुपयोग करना है, दुरुपयोग नहीं। जिस दिन ऐसा कर लोगे, तो ध्यान भी लगने लगेगा।
अपने अन्तःकरण में झांकने के लिए योग अनिवार्य है। योग ही जीवन है, वियोग ही मृत्यु है और कुण्डलिनी का जागरण ही जीवन की मुक्ति है। पूर्व में किए गए कर्मों को तो भोगना ही पड़ेगा। उन्हें कम करने के लिए भी योग ही एक मार्ग है।
कुण्डलिनी को ‘माँ’ के रूप में बताया गया है। कुण्डलिनी का जागरण एक लम्बा मार्ग है तथा कठिन अवश्य है, किन्तु यह स्थायी होता है। आसान मार्ग से किया गया जागरण स्थायी नहीं होता। वर्तमान में हमारी कुण्डलिनी शक्ति आंशिक रूप से कार्य कर रही है, सुषुम्ना नाड़ी आंशिक कार्य कर रही है। यदि संस्कारों के द्वारा सुषुम्ना को निर्मल कर लिया जाय, तो आपमें दिव्यता आती चली जाएगी।
कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत् किये बिना आप कभी भी पूर्ण मुक्त नहीं हो सकते। उसको चैतन्य करने के लिए यम-नियमों का पालन करना पड़ेगा। उसे ऊर्ध्वगामी बनाने के लिए यम-नियमों के पालन के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं है। आप कितने भी पढ़े-लिखे हों, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। निपट निरक्षर व्यक्ति भी यदि यम-नियमों का पालन करले, तो धारणा-ध्यान-समाधि सिद्ध होजाते हैं। ऐसे अनेक उदाहरण हैं।
इसलिए सबसे पहले यम-नियमों का पालन करो। सत्य के रास्ते पर चलो, समाज चले या न चले। स्वयं मैंने यही मार्ग तय किया है और आज लाखों-करोड़ों लोग मुझसे जुड़े हैं। उन्हें जिस मार्ग पर मैं बढ़ाना चाहूं, उस पर बढ़ा सकता हूँ। यह सब ‘माँ’ की कृपा है। इसलिए ‘माँ’ के शरणागत होजाओ और आराम को छोड़कर सत्यपथ पर बढ़ चलो।
यम के पांच भाग हैं- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह।
कभी भी हिंसात्मक जीवन न जियें और मन-वचन-कर्म से किसी को कष्ट न पहुंचाएं। किसी का अहित सोचना भी हिंसा है। मात्र किसी की हत्या करना ही हिंसा नहीं है। किसी हिंसक जीव को अकारण मारना भी हिंसा है। यदि वह आपके ऊपर आक्रमण करे, तो उसे अवश्य मारो। वह अहिंसा ही है। अपनी रक्षा में किसी को मारना हिंसा नहीं है। देश की रक्षा करने वाले सैनिक सीमा का उल्लंघन करने वालों को मारते हैं। वह हिंसा नहीं है। आपके द्वारा एक भी ऐसा व्यक्ति प्रताड़ित नहीं होना चाहिए, जिसका वह अधिकारी न हो। और, आतंकवाद से सदैव बचो। यह स्वयं के लिए घातक है। अपने बच्चों को भी अहिंसा का पाठ पढ़ाओ।
सदैव सत्य का जीवन जिओ और असत्य से सदा दूर रहो। यदि अज्ञानता से कभी असत्य का व्यवहार होजाय, तो उसके लिए पश्चात्ताप करो। किसी को धोखा मत दो और छल-कपट न करो। मिलावट मत करो तथा कम मत नापो-तोलो। ये सब असत्य की श्रेणी में आते हैं। कभी-कभी एक झूठ बोलकर सैकड़ों झूठ बोलने पड़ते हैं। सत्य की शक्ति बड़ी विराट् है। इससे कभी भी पतन के मार्ग पर नहीं जाओगे। अपने बच्चों को भी सत्य मार्ग पर चलने का पाठ पढ़ाओ।
अस्तेय का अर्थ है, जिसकी पात्रता न हो, उसे प्राप्त न करना। अतः चोरी-डकैती मत करो, अन्यथा कभी भी पतन से नहीं बच सकोगे। घूस लेना और घोटाले करना भी गलत मार्ग हैं। दूसरों की चीज़ों को हड़पने का प्रयास मत करो। अपने कर्म के द्वारा उपार्जित धन को ही ग्रहण करो, गलत रास्ते से नहीं।
वर्तमान समाज के लिए ब्रह्मचर्यव्रत का पालन महत्त्वपूर्ण है। इसका अर्थ है अपने विषय-विकारों पर नियंत्रण करना। शादी से पहले ब्रह्मचर्य का पालन होना नितान्त आवश्यक है। शादी के बाद एक पति/पत्नी व्रत होना चाहिए और सन्तानोत्पत्ति के बाद पुनः ब्रह्मचर्यव्रत का पालन होना चाहिए। यह ब्रह्मचर्यव्रत तभी सफल होगा, जब पति-पत्नी दोनों की सहमति होगी। इस प्रकार, जीवन निर्विकार हो जाएगा। जिस ब्रह्मचर्यव्रत का पालन मैं करता हूँ, वह बड़े से बड़े ब्रह्मचारी भी नहीं करते। ऐसा मैं इसलिए करता हूँ, जिससे आप लोगों को शिक्षा दे सकूं और अपनी चेतनातरंगों से आपको लाभ पहुंचा सकूं। अतः आप लोग भी आज से ब्रह्मचर्यव्रत धारण करने का संकल्प लेलो। इसके फलस्वरूप, परमसत्ता से आपका प्रेम बढ़ने लगेगा।
अपरिग्रह का अर्थ है, उतना ही संग्रह करना, जितना हमारे लिए आवश्यक है। अपनी पात्रता के अनुसार अपना जीवन जिओ। जो आपको प्राप्त हो रहा है, उससे कम में ही जीवनयापन करो। जितना धन आपकी आवश्यकता से अधिक आरहा है, उसे समाजसेवा में लगाओ। अपनी आय का दशांश यदि समाजसेवा में नहीं लगाओगे, तो तुम्हारा पतन सुनिश्चित है। बरसात में जब पोखर भर जाते हैं, तो उनका भी पानी बाहर फैलने लगता है। इसलिए अपनी आय का दशांश धर्मक्षेत्र में लगाओ। यह धन का सदुपयोग है। इस दशांश को अपने ऊपर खर्च करना ज़हर के समान है। दशांश का आधा आप धर्मधुरी पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम में समर्पित करें और आधा अन्यत्र गोशाला आदि में करें। इस समर्पण में दानी भाव नहीं होना चाहिए। अपने जीवन में सादगी लाओ।
यदि इन पांचों यमों का निष्ठापूर्वक पालन करोगे, तो दुनिया की कोई शक्ति आपको पतन के मार्ग पर नहीं भेज सकेगी। इससे आपकी कुण्डलिनी शक्ति उर्ध्वगामी होगी और तुम जीवन्मुक्ति के अधिकारी बनोगे।

नियम के भी पांच भाग हैं- शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय तथा ईश्वर प्राणिधान।
शौच का अर्थ है, शुद्धता। शुद्धता आन्तरिक और बाह्य दोनों होनी चाहिएं। नित्यप्रति नित्यकर्म से निवृत्त होकर और स्नान करके शरीर को शुद्ध रखें तथा अपने अन्तःकरण को भी शुद्ध रखें। उसमें कोई मलिनता नहीं होनी चाहिए। इससे आपका मन भी निर्मल एवं पवित्र रहेगा। जो आपके पास है, उसी में सन्तुष्ट रहना सन्तोष कहलाता है। अपनी मेहनत और ईमानदारी की कमाई से जो कुछ भी आजाय, उसी में जीवनयापन करें और प्रसन्नचित्त रहें। किसी दूसरे ऐसे व्यक्ति को देखकर व्यथित न हों, जो हमसे अधिक सम्पन्न हो। इसमें किसी प्रकार का कोई दिखावा नहीं होना चाहिए।
तप करो, तपस्वी बनो, परिश्रमी बनो और कर्मवान् बनो। जो भी कार्य या व्यवसाय आदि करते हो, उसे पूरी निष्ठा एवं ईमानदारी से करो और तपस्यात्मक जीवन जिओ। इससे आपकी पात्रता बनती चली जाएगी तथा सुषुम्ना नाड़ी चैतन्य होगी। इसके फलस्वरूप, आपकी कुण्डलिनी शक्ति ऊर्ध्वगामी होगी और आपको ‘माँ’ का सहारा मिलेगा। कुण्डलिनी शक्ति एक दिव्य ऊर्जा है। उसमें डूब जाओ।
स्वाध्याय का मतलब है, सदैव अच्छा साहित्य पढ़ो और सत्संग करो। चरित्रहीनता के गीत-संगीत कभी मत सुनो। सात्त्विक भजन सुनो और सात्त्विक साहित्य पढ़ो। गीता-रामायण आदि रटने से कुछ नहीं होगा। उन पर आचरण करना चाहिए।
ईश्वर प्राणिधान का अर्थ है, अपने इष्ट को समर्पण। हमारे पास जो कुछ भी है, वह परमसत्ता का दिया हुआ है। हमारा कुछ भी नहीं है। ‘तेरा तुझको अर्पण, क्या लागे मेरा’ इस प्रकार का जीवन जिओ।
जिस समय कुण्डलिनी शक्ति ऊर्ध्वगामी होती है, तो वह मूलाधार से स्वाधिष्ठानचक्र की ओर बढ़ती है। उस समय साधक के मन में विकार ही उत्पन्न होते हैं। यदि वह कुण्डलिनी को ‘माँ’ मान ले, तो विकार स्वतः नष्ट हो जाएंगे। साधक को चाहिए कि वह गुरु, ‘माँ’ और कुण्डलिनी शक्ति का ध्यान करे। ‘माँ’ कुण्डलिनी के सातों चक्रों में समाहित है। तब ‘माँ’ की गोदी का आनन्द क्यों नहीं मिल सकता?
यह मार्ग लेन-देन का मार्ग नहीं है। यह चलने का मार्ग है। अतः इस पर बढ़ चलो। आपका कल्याण अवश्यम्भावी है। नारी का सदैव सम्मान करो। उसके बिना हम जीवन नहीं जी सकते। अपनी पत्नी को कभी भी दोष मत दो। बारात आते हुए रास्ते में दुर्घटना होजाय, तो प्रायः उस कन्या को दोष देते हैं, जिसका विवाह था। कितना घोर अज्ञान है! इससे सुषुम्ना नाड़ी संकुचित होती है, जिससे पतन होता है।
इस स्थान से पवित्र इस धरती पर अन्य कोई स्थान नहीं है। आप लोग इसके एक अंग बन जाओ। तब मुझसे कभी दूर नहीं होगे। आप मेरे हैं, मैं आपका हूँ। अन्त में, दोनों हाथ उठवाकर सब को निम्नवत् संकल्प दिलाया गयाः
मैं संकल्प करता/करती हूँ कि आजीवन पूर्ण नशामुक्त, मांसाहारमुक्त एवं चरित्रवान् जीवन जिऊंगा/जिऊंगी तथा मानवता की सेवा, धर्मरक्षा एवं राष्ट्ररक्षा के लिए पूर्ण समर्पित रहूंगा/रहूंगी और अपनी मासिक आय का दशांश इन तीनों धाराओं को समर्पित करूंगा/करुंगी।
हमारे अन्दर कुण्डलिनी शक्ति के रूप में ‘माँ’ बैठी हें, फिर भी हम एक सामान्य व्यक्ति का जीवन जी रहे हैं। अतः हमें अपने धर्मपक्ष को प्रबल करना है तथा इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना तीनों नाडिय़ों का सन्तुलन बनाना है। वर्तमान में सब लोग इड़ा-पिंगला का जीवन जी रहे हैं, सुषुम्ना नाड़ी पर किसी का ध्यान नहीं है। इस देश में केवल दस-बीस ही ऐसे धर्माधिकारी होंगे, जो वास्तव में धर्म का पालन कर रहे हैं। शेष सभी भौतिक जगत् में डूबे हैं। ‘माँ’ हमसे क्या चाहती हैं? हमारे विचार और कर्म कैसे हों? यदि हम यह सोच लें, तो सहज भाव से परिवर्तन आता चला जाएगा। हमारा प्रेम अपनी इष्ट की ओर होना चाहिए, भौतिक जगत् की ओर नहीं। वास्तव में, हम परमसत्ता को पहचान ही नहीं पा रहे हैं। इसके लिए हमें धर्म के अनुकूल आचरण करना होगा।
चूंकि आपकी कुण्डलिनी के सातों चक्रों की ऊर्जा दब चुकी है, इसीलिए आप शून्य पर खड़े हो। आपका गुरु आपको शिखर पर लेजाने आया है। परमसत्ता ने मुझे यह सौभाग्य दिया है कि मैं आप लोगों को जगा सकूं। मैं अपने शरीर को तपाने-गलाने आया हूँ। मुझे आपसे कुछ भी नहीं चाहिए। बस, आपकी इच्छाशक्ति की ज़रूरत है कि हर व्यक्ति साधनापथ, मुक्तिपथ की ओर बढ़े।
चमत्कार के लिए नहीं, बल्कि धर्मरक्षा के लिए मैं विज्ञान को चुनौती देता हूँ कि वह आए और मेरे शरीर पर अनुसन्धान करे। यदि अनजाने में मेरे शरीर को कोई छू लेगा, तो उसे 440 वोल्ट बिजली का झटका लगेगा, चिंगारी निकलेगी और स्पार्क की आवाज़ आएगी। मैं चाहता हूँ कि वही ऊर्जा आपके अन्दर समाहित होजाय, जिससे आप समाज में परिवर्तन डालने का कार्य कर सकें।
आप सोचें कि क्या आप भी अपनी कुण्डलिनी शक्ति को जगाना चाहते हो? इसके लिए आपकी चेतनात्मक क्षमता जाग्रत् होनी चाहिए। जिस दिन यह समाज जाग गया, उसमें परिवर्तन आता चला जाएगा। यह यात्रा लम्बी है, किन्तु आप लोग कुछ तो प्राप्त करो। वह आपके अगले जन्म के लिए एक संचित पूंजी होगी।
हृदयचक्र सातों चक्रों के मध्य में स्थित है। यह ‘माँ’ का चक्र कहलाता है। आप हर पल अपने इष्ट का चिन्तन करें। इससे आपके अन्दर ममता एवं करुणा जागने लगेंगी। यह सब कुछ पुस्तकों के माध्यम से सम्भव नहीं है। इसके लिए एक चेतनावान् गुरु का मार्गदर्शन ज़रूरी है। ‘माँ’ का पार न कोई पा सका है और न पा सकेगा। उसका ध्यान कभी हटना नहीं चाहिए।
मेरा संकल्प है कि जहां मैंने ‘माँ’ को स्थापित किया है, वहीं पर मैंने अपनी चेतना को भी स्थापित किया है। जब तक यहां पर ‘माँ’ का गुणगान चलता रहेगा, तब तक मैं सूक्ष्म रूप से यहीं पर विद्यमान रहूंगा।
अपने मन को एकाग्र करना सीखो। यदि विषय-विकारों की चर्चा करते रहोगे, तो कभी भी आपकी कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत् नहीं होगी। खाली आंखें बन्द करके बैठना ध्यान नहीं है। आपका ध्यान इसलिए नहीं लग पाता कि अपनी एक भी इन्द्रिय पर आपकी पकड़ नहीं है। आप लोग सतत विषय-विकारों में डूबे रहते हो। इसलिए आपको अपनी दसों इन्द्रियों को वशीभूत करना है। इससे मन-बुद्धि-चित्त स्वतः वश में हो जाएंगे। जब अन्तःकरण पर ध्यान एकाग्र होजाता है, वही ध्यान कहलाता है। ध्यान में अलौकिक शक्ति है।
ममतामयी ‘माँ’ से एक बार सच्चा प्रेम करके तो देखो। वह तुम्हें सब कुछ देने के लिए तैयार बैठी हैं। जो बीत गया, सो बीत चुका। किन्तु, वर्तमान आपके हाथ में है। उसे सुधारना शुरू कर दो। मिलेगा वही, जो आपका कर्मसंस्कार है। वह उतना ही देंगी। इसलिए माथा मत रगड़ो। अबोध शिशु बनकर ‘माँ’ की गोदी में समा जाओ और कहो कि आप ही हमारा सर्वस्व हैं। हमें अपने चरणों से दूर न कर देना। हमारे आवरण हटा दो, माँ! चाहे हमारा कुछ भी अनर्थ होजाय, किन्तु ‘माँ’, हमसे दूर मत जाओ। सच्चे मन से प्रार्थना करके देखो। ‘माँ’ का सच्चा प्रेम और भक्ति मांगो। नहीं तो, अनेकों नवरात्र आते-जाते रहेंगे और आपको कुछ नहीं मिलेगा।
कुण्डलिनी चेतना हमारे विचारों से प्रभावित होती है। इसलिए एक बार अपनी सोच को बदल दो। आपका पूरा जीवन बदलता चला जाएगा। कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत् होने के बाद भी गुरु के मार्गदर्शन में, ‘माँ’ के मार्गदर्शन में चलना चाहिए। तीनों धाराओं के प्रति तन-मन-धन से समर्पित रहो।
आज के मक्कार राजनेता जनता के सामने घडिय़ाली आंसूं बहाते हैं और अपने घर जाकर ऐश का जीवन जीते हैं। साठ-सत्तर साल की आज़ादी के बाद भी देश बदहाल है। कांग्रेस और बीजेपी दोनों ने देश को लूटा है। ये दोनों भ्रष्ट हैं। समाज जागेगा, तो इन्हें धूल चटाएगा। मोदी सबसे बड़े भ्रष्टाचारी हैं, जो अपनी पार्टी के भ्रष्ट लोगों को संरक्षण देते हैं। यदि जांच होजाय, तो हर राज्य का मुख्यमंत्री जेल की सलाखों के पीछे होगा।
छापे भी पड़ रहे हैं, तो विरोधियों के यहां। अपनों के यहां क्यों नहीं? सत्ता में आने से पहले कहते थे, ‘चौकीदार बनकर कार्य करूंगा।’ किन्तु, कुछ नहीं किया। किसका सुधार हुआ? हर जगह ‘जय मोदी, जय मोदी’ हो रहा है।
हमेशा गलत के विरुद्ध आवाज़ उठाओ। कोई ठीक कार्य करे, तो उसका स्वागत है। किन्तु, गलत को हम ठोकर मारते हैं। अंग्रेज़ों ने देश को इतना नहीं लूटा, जितना इन बेईमानों ने लूटा है। यदि इन्होंने ईमानदारी के साथ कार्य किया होता, तो देश की तस्वीर कुछ और होती। इन्होंने पूरे समाज को बेवकूफ बना रखा है। आज गरीबों को कोई नहीं पूछता और गुण्डों की हर जगह सेवा होती है। न्याय बिक रहा है– अमीरों के लिए कुछ, गरीबों के लिए कुछ।
इसलिए समाज को जगाना पड़ेगा। संकल्पित हो जाओ चुनाव में भले ही आपका बाप खड़ा हो, यदि वह भ्रष्ट है, तो कदापि उसे अपना वोट मत दो। साम्प्रदायिकता लगातार बढ़ रही है। गोरक्षा की बात करते हैं, पर करते कुछ नहीं हैं। आप सब ‘माँ’ के ध्वज के नीचे आजाओ, तो इनकी शक्ति क्षीण होती चली जाएगी। हमारा धरातल मज़बूत हो चुका है। बस, इस पर महल खड़ा करना है। मैं आपको एक लम्बी यात्रा पर बढ़ा रहा हूँ। सम्पूर्ण आज़ादी तब होगी, जब सत्ता में बैठे लोग अपना सर्वस्व मानवसेवा को समर्पित कर देंगे।
मैं अपने चेतनाअंशों की ईमानदारी की कमाई से इस आश्रम का निर्माण करना चाहता हूँ। मुझे उतावलापन नहीं है। अनीति-अन्याय-अधर्म की कमाई का एक पैसा भी इस निर्माण में नहीं लगेगा।
यहां आश्रम में दस-दस, बीस-बीस, पचास-पचास लोग एक साथ आते हैं। जब उनसे पूछा जाता है कि किसलिए आए हो? कहते हैं, ‘नशा छोड़ने आए हैं।’ कौन खींच रहा है उन्हें इस ओर? कोई दवाई नहीं दी जाती, मगर ‘माँ’ की कृपा से उनकी शराब छूट जाती है। सौ में से नब्बे लोग ज़रूर शराब छोड़ देते हैं।
अपने घर को मन्दिर का स्वरूप दो। एक-दूसरे का सम्मान करो। जिस घर में ‘माँ’ की ज्योति जलती है, वह मन्दिर है। बेटियों को भी आपके चरणस्पर्श करने और आशीर्वाद लेने का अधिकार है। बेटे-बेटी को समान मानो। मैंने स्वयं ‘माँ’ के चरणों में प्रार्थना की थी कि मेरे यहाँ बेटियाँ ही जन्म लें और मैं अपने आपको सौभाग्यशाली मानता हूँ कि मुझे तीनों बेटियाँ ही प्राप्त हुई हैं। मेरा परिवार सबसे अधिक सुखी परिवार है। सबका एक-दूसरे के प्रति समर्पण है।
कई लोगों के यहां पांच-पांच बेटियां हो गईं, किन्तु फिर भी कहते हैं, ‘‘गुरु जी, एक बेटा चाहिये।’’ अरे अज्ञानियों, अपने परिवार को सीमित रखो। बेटे के चक्कर में मत पड़ो। बेटे के मुखाग्नि देने से मुक्ति नहीं होती। मुक्ति होती है सत्कर्मों से। अपने बेटे से कहो कि बेटे, मेंने ऐसे कर्म कर लिए हैं, जिनसे मेरी मुक्ति हो जाएगी। तुम भी ऐसे कर्म करो, ताकि तुम्हें भी किसी के सहारे की ज़रूरत न पड़े। फिर शरीर को चाहे गाड़ दो, पानी में बहा दो या जला दो। उससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा।
बेटी की शादी करके लोग कहते हैं, ‘‘बोझ उतर गया।’’ इसका मतलब है कि बेटी को बोझ समझते हैं। फिर वह देवी कैसी? यदि तुम्हारी यही सोच रहेगी, तो कभी भी तुम्हारे घर में देवी वास नहीं करेंगी।
जो धर्माधिकारी रत्नों का गुलाम हो, वह अपने इष्ट को कभी भी प्राप्त नहीं कर पाएगा। और, यदि इष्ट को प्राप्त कर लिया, तो सभी ग्रह तुम्हारे अनुकूल चलेंगे। न तो भ्रष्ट नेता और न ही अधर्मी धर्मगुरु देश का कल्याण कर सकेंगे। इसके लिए हमें ‘माँ’ की शरण में जाना पड़ेगा।

गुरुदीक्षा का क्रम
आप लोग परम सौभाग्यशाली हैं, जो इस पावन स्थल पर दीक्षा ले रहे हैं। किसी चेतनावान् गुरु से दीक्षा प्राप्त करना बड़े सौभाग्य की बात होती है। आपके पूर्व जन्म के संस्कारों ने आपको यहाँ लाकर खड़ा कर दिया है। आपका एक जन्म अपनी माँ के गर्भ से हुआ है और दूसरा जन्म अब इस गुरुदीक्षा के द्वारा होने जा रहा है। अब आपके ऊपर पड़े आवरणों के हटने का प्रारम्भ हो रहा है।
मैं शक्तिपात के द्वारा दीक्षा देता हूँ। मैं एक सामान्य सा जीवन जीता हूँ और यही अपेक्षा मैं आपसे करता हूँ। मैं आपको अपना अनुयायी नहीं, बल्कि अपनी चेतना का अंश बनाता हूँ। यदि आप मेरे द्वारा बताए मार्ग पर चलते रहे, तो जन्म-दर-जन्म आपका उत्थान होता चला जाएगा। जिन एक लाख ग्यारह हज़ार शिष्यों की मुझे तलाश है, उन्हें मैं परमधाम लेकर जाऊँगा।
गुरुदीक्षा प्राप्त कर लेने मात्र से आपका कल्याण नहीं होगा। नियमित साधना करनी पड़ती है और बराबर गुरु मार्गदर्शन में चलना होता है। नशे-मांस से मुक्त चरित्रवान् जीवन जीना होता है। मैं आप सबको अपना शिष्य स्वीकार करता हूँ। आपको पतन के मार्ग पर जाने को विराम देना है, सत्य के मार्ग पर बढ़ना है तथा धर्मरक्षा, राष्ट्ररक्षा एवं मानवता की सेवा के प्रति समर्पित रहना होगा।
(अब तीन बार शंखध्वनि की गई तथा मेरुदण्ड सीधी करके तीन-तीन बार ‘माँ’-ऊँ का उच्चारण किया गया। तदुपरान्त, सभी दीक्षार्थियों को एक संकल्प कराया गया, जिसका सार संक्षेप निम्नवत् हैः मैं परम पूज्य सद्गुरुदेव भगवान् योगीराज श्री शक्तिपुत्र जी महाराज को अपना गुरु स्वीकार करता हूँ, जीवनपर्यन्त नशा-मांसाहारमुक्त चरित्रवान् जीवन जिऊंगा, भगवती मानव कल्याण संगठन एवं पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम के दिशा-निर्देशों का पालन करूँगा तथा मानवता की सेवा, धर्मरक्षा एवं राष्ट्ररक्षा के लिए प्रदत्त तीनों धाराओं के प्रति तन-मन-धन से पूर्णतया समर्पित रहूंगा।)
इस संकल्प में गुरु-शिष्य सम्बन्ध का पूरा सार समाहित है। यदि आप इस पर अडिग रहे, तो कोई भी कभी आपको मुझसे दूर नहीं कर सकेगा। ‘माँ’-ॐ बीजमन्त्रों में सभी मन्त्रों का सार निहित है।
तत्पश्चात्, गुरुवरश्री के द्वारा निम्नलिखित मन्त्रों का तीन-तीन बार उच्चारण कराया गयाः

बजरंगबली की कृपा पाने के लिए- ॐ हं हनुमतये नमः, 2. भैरवदेव की कृपा पाने के लिए- ॐ भ्रं भैरवाय नमः, 3. गणपतिदेव की कृपा पाने के लिए- ॐ गं गणपतये नमः, 4. गुरुमंत्र- ॐ शक्तिपुत्राय गुरुभ्यो नमः, तथा ‘माँ’ का चेतनामंत्र- ॐ जगदम्बिके दुर्गायै नमः।
‘माँ’ की आराधना में, शुरू और बाद में यदि गुरुमंत्र का जाप कर लें, तो आराधना फलीभूत होगी। शेष सभी मंत्रों को आगे-पीछे कर सकते हैं। इसी प्रकार, स्नान एवं तिलक भी किसी को भी पहले या बाद में कर सकते हैं, क्योंकि सूक्ष्म शक्तियों में कोई भेद नहीं होता।
अपनी व्यवस्था के अनुसार अपने घर में एक पूजनकक्ष बना लें। यदि इतना स्थान नहीं है, तो किसी अलमारी या आले में व्यवस्था कर लें। ‘माँ’ की आराधना से सहज और सरल कोई आराधना नहीं है। बड़ी से बड़ी गलती को भी ‘माँ’ क्षमा कर देती हैं, किन्तु जान-बूझकर कोई गलती न करें।
बाद में प्रणाम के समय आपको निःशुल्क शक्तिजल प्रदान किया जाएगा। इसमें ‘माँ’ का आशीर्वाद रहता है। इसे गंगाजल या नर्मदाजल से बढ़ा सकते हैं। इसका मात्र पान करना है, छिड़कें नहीं। अपने लाभ के लिए इसे किसी को न दें और झाड़-फूँक के लिए भी नहीं, अन्यथा तुम्हारा अनिष्ट सुनिश्चित है। अपने घर के ऊपर ‘माँ’ का शक्तिध्वज लगाएं। रक्षाकवच, रक्षारूमाल और कुंकुम का तिलक धारण करें। गुरुवार का व्रत अवश्य रखें। इससे सभी व्रतों का फल प्राप्त होता है। अतः कोई और व्रत रखने की आवश्यकता नहीं रहती। हर महीने की कृष्णाष्टमी का व्रत भी रख सकते हैं। यदि यह किसी कारणवश छूट जाए, तो नवमी या चतुर्दशी को रख लें। यदि कोई व्रत कभी खण्डित होजाए, तो परेशान न हों। आपके ज़िलों में कहीं पर मासिक महाआरती हो रही हो, तो उसमें सम्मिलित होने का प्रयास करें। इसको मैंने यहां की मूलध्वज की आरती से जोड़ रखा है। (दोनों हाथ उठाकर सबको संकल्प कराया गया कि मैं आजीवन नशे-मांस से मुक्त चरित्रवान् जीवन जीते हुए मानवता की सेवा, धर्मरक्षा एवं राष्ट्ररक्षा के प्रति पूर्ण समर्पित रहूंगा/रहूंगी और अपने उपार्जित धन का दशांश त्रिधाराओं को समर्पित करूँगा/करूंगी।)
आपका गुरु आज वचन देता है कि आपके द्वारा अब तक किये गए नशे-मांस या चरित्रहीनता के कारण आपको कोई हानि नहीं होगी, किन्तु शर्त यह है कि अब से आगे आप ऐसी गलती न करें।
आप जितना प्रेम मुझसे करते हैं, उससे दसियों गुना प्रेम मैं आपसे करता हूँ। आपका गुरु आपके कल्याण के लिए ही आया है। आप मुझे कुछ दे सको या न दे सको, किन्तु अपने हृदय को पूर्ण समर्पित कर दो। मैं तुम्हारे हृदय में ‘माँ’ को स्थापित कर दूंगा। मैं हर दिल को ‘माँ’ का मन्दिर बनाने आया हूँ।
दीक्षा प्राप्त करने के बाद मूलध्वज की कम से कम एक परिक्रमा अवश्य करें और एक पाठ श्री दुर्गाचालीसा का करें। इस शिविर के बाद जब भी आश्रम आयें, आपको मुझसे मिलने का समय दिया जाएगा। मेरे द्वारा स्पर्श की गई किसी भी वस्तु को यदि आप स्पर्श करते हैं, तो वह मेरे चरणस्पर्श के बराबर ही है। आपको बराबर आशीर्वाद मिलेगा।
अन्त में, तीन बार शंखध्वनि करने के पश्चात् दीक्षार्थियों के द्वारा गुरुवरश्री की चरणपादुकाओं का स्पर्श किया गया। सभी ने एक-एक शीशी शक्तिजल प्राप्त किया और दीक्षाप्राप्ति पत्रक भरकर लौटाया। इस अवसर पर लगभग ग्यारह हज़ार लोगों ने गुरुदीक्षा प्राप्त की।
योगभारती विवाह एवं गुरुवर का दिव्य उद्बोधन
इस सत्र में तेरह नवयुगलों के विवाहसंस्कार योगभारती विवाह पद्धति के अनुसार सम्पन्न हुए। इससे पूर्व परम पूज्य सद्गुरुदेव भगवान् ने एक संक्षिप्त उद्बोधन दिया-
आज अनेकों स्थानों पर रावण दहन हो रहा है। वैसे, घर-घर में रावण बैठा है। लोग आज के दिन हो-हल्ला मचाते हैं और सोचते हैं कि उन्होंने रावण को मार दिया है, किन्तु वहीं पर अनेकों रावण घूमते रहते हैं। दर असल, हर व्यक्ति में असुरत्व है। समाज को संकल्प लेना चाहिए कि हम अपने अन्दर के असुरत्व को मारेंगे।
वर्तमान में शादियों का स्वरूप भटक गया है। पूजा-पाठ का कोई स्थान नहीं। उसके स्थान पर अश्लील गाने चल रहे होते हैं। विवाह कोई सामान्य सम्बन्ध नहीं है। इसके द्वारा नई पीढ़ी का निर्माण होता है। यदि वातावरण विकारयुक्त होगा, तो अच्छी पीढ़ी कैसे निर्मित होगी? वहां पर, वास्तव में, आध्यात्मिक वातावरण होना चाहिए। ‘माँ’ के भजन और सात्त्विक गीत अन्तःकरण को निर्मल बनाते हैं।
ऐसे विवाहों में प्रायः लेन-देन पर झगड़ा होता है। कोई न कोई कमी निकाल दी जाती है और लड़ाई-झगड़ा ज़रूर होता है। इन समस्यायों को दूर करने के लिए मैंने योगभारती विवाह पद्धति प्रदान की है। इसमें हिन्दूधर्म के प्रायः सभी रीति-रिवाजों को समाहित किया गया है। समाज में करने के लिए इसे तभी दिया जाएगा, जब वह जाग्रत् हो जाएगा।
यह व्यवस्था गरीबों के लिए है। अमीर लोग भी यदि इसे अपनालें, तो निरर्थक खर्च किये जाने वाले पैसे की बचत होगी। उसे यदि गरीब लड़कियों की शादी में लगाया जाय, तो आपको शान्ति एवं सन्तोष मिलेगा।
अब तीन बार शंखध्वनि करने के बाद इस कार्यक्रम का शुभारम्भ किया गया। सबसे पहले वर-कन्या के हाथों में अक्षत, पुष्प, द्रव्य, तुलसीपत्र, सुपाड़ी और जल रखकर संकल्प कराया गया कि वे एक-दूसरे को पति/पत्नी के रूप में स्वीकार करते हैं। संकल्प की सामग्री को फेंका नहीं जाता, बल्कि ध्वज में बांधकर सुरक्षित रखते हैं। अब वर-कन्या ने एक-दूसरे का माल्यार्पण किया। उसके बाद वर के रक्षाकवच और कन्या की चुनरी में मौली के द्वारा गांठ लगाकर गठबंधन किया गया। यह रस्म शक्तिस्वरूपा बहनों के द्वारा की गई। अब वर ने कन्या की मांग में सिन्दूर भरा और उसके गले में मंगलसूत्र धारण कराया।
अब फेरों का क्रम प्रारम्भ हुआ। इस अवसर पर वर-कन्या आगे-पीछे नहीं, बल्कि बराबर-बराबर चले। उन्होंने हाथ में पुष्प लेकर एक फेरा पूर्ण किया और मंच पर समर्पित करते हुए नमन किया तथा अगले फेरे के लिए पुनः हाथ में पुष्प लेकर चले। इस बीच ‘माँ’-गुरुवर के जयकारे चलते रहे। ये सातों फेरे क्रमशः पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश, वायु तत्त्वों तथा दृश्य एवं अदृश्य जगत् की समस्त स्थापित शक्तियों को साक्षी मानकर लगाए गए।
सातों फेरे पूर्ण करके वर-कन्याओं ने मूलध्वज मन्दिर में एक-एक परिक्रमा की और चालीसा भवन में नमन किया। जिन तेरह नवयुगलों के विवाहसंस्कार सम्पन्न हुए, उनके नाम निम्नवत् हेंः

हेमन्त संग सुनीता, 2. संजीव संग सोनू देवी, 3. कुलदीप संग रंजना, 4. गुलाब सिंह संग उमा, 5. अक्षय प्रताप संग उमाकान्ती, 6. जयप्रकाश संग रचना, 7. सुनील संग माधुरी, 8. लक्ष्मी संग रानी देवी, 9. आकाश संग कुन्ती, 10. रामभुवन संग पीलेश्वरी, 11. हरमेश संग दीपाली, 12. नरेन्द्र संग रिंकी तथा 13. प्रदीप संग सताक्षी।
तदुपरान्त, पुरस्कार वितरण समारोह हुआ। इसके अन्तर्गत, तीन कर्मठ श्रमिकों को उनके सराहनीय कार्य के लिए ‘श्रमशक्ति पुरस्कार’ प्रदान किया गया। ये हैं सिद्धाश्रम निवासी कमलेश योगभारती जी, टांघर ग्राम निवासी श्रीमती आरती सिंह जी तथा रामलखन जी। इन सबको शक्तिस्वरूपा बहनों पूजा, सन्ध्या एवं ज्योति दीदी जी के द्वारा एक-एक प्रशस्ति पत्र, एक-एक शॉल और ग्यारह-ग्यारह हज़ार रुपए नकद प्रदान करके सम्मानित किया गया।
इनके साथ ही जाने-माने गायक व संगठन के सक्रिय कार्यकर्ता तथा अपने स्वरचित गीतों एवं कविताओं के द्वारा उल्लेखनीय सेवाकार्यों के लिए बाबूलाल विश्वकर्मा जी को प्रथम ‘सिद्धाश्रम सुरसाधना पुरस्कार’ प्रदान किया गया। इसमें उन्हें प्रशस्ति पत्र, शॉल और इक्यावन हज़ार रुपये का चैक प्राप्त हुआ।
तत्पश्चात् , परम पूज्य सद्गुरुदेव भगवान् का नियमित दिव्य उद्बोधन हुआ–
यदि आप अच्छा फल चाहते हैं, तो अच्छा सोचें और अच्छा करें। सत्यपथ पर बढ़ना शुरू कर दें और परमसत्ता को पहचानें। जब हमें यह ज्ञात हो जाएगा कि मैं कौन हूँ? मेरा स्वरूप क्या है? तभी हम ‘माँ’ को जान पाएंगे और सब कुछ जान जाएंगे। यदि हम अपने आपको जान लें, तो हमें कोई समस्या नहीं रहेगी। इसके लिए यम-नियमों का पालन करें और अपने कर्मों को सुधारें।
अपने घर में सात्त्विक वातावरण बनाएं। वहां पर नीगेटिव एवं सारहीन बातें न हों। इससे वातावरण दूषित होता है। आपके घर में सुख-शांति आएगी और घर बैठे यहां का आशीर्वाद प्राप्त होगा। ‘माँ’ सब जानती हैं कि तुम्हें क्या चाहिए? इसलिए बार-बार नहीं, सिर्फ एक बार उनके चरणों में प्रार्थना कर दीजिए।
‘माँ’ आपकी हैं और आप उनके हैं। सत्कर्मों का मार्ग आपके पास है। प्रार्थना करो कि ‘माँ’, मुझे एक बार अपनालो। मेरे और आपके बीच की दूरी मिट जाए। साधना में निर्मल मन से बैठो और मन्त्रों का मानसिक जाप करो। इससे आपके सारे चक्र चैतन्य होने लगेंगे और अलौकिक शक्तियां जाग्रत् होंगी। इड़ा-पिंगला आपके अधीन हो जाएंगी तथा सुषुम्ना नाड़ी प्रभावक होगी, जो सुप्त पड़ी है।
हमारे धर्मप्रमुख प्रायः साधनाहीन हें और सत्कर्मों से दूर हैं। सुषुम्ना नाड़ी का संकुचन सारे अपराधों की जड़ है। खाली दण्ड देने से सुधार नहीं होगा। जनता की सुषुम्ना नाड़ी को जगाना होगा और उन्हें शिक्षित करना होगा। आज चारों ओर अश्लीलता परोसी जा रही है। मीडिया शान्त बैठा है, क्योंकि स्वयं उसमें अश्लीलता है। पांचवां स्तम्भ धर्म भी भटक गया है। कहीं पर कोई लगाम नहीं। इसलिए मीडिया को सजग होना चाहिए। नब्बे प्रतिशत जनता कैसी बदहाली का जीवन जी रही है, इससे उनको कोई मतलब नहीं।
राजनेताओं के ऊपर मंहगाई का कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि उनके पास अकूत धन-सम्पत्ति है। गरीब बेचारा पिस रहा है। मैं सत्य कहने से डरता नहीं हूं। हर राजनीतिक दल लुटेरा है- एक नागनाथ तो दूसरा सांपनाथ। लोगों को बेवकूफ बनाया जा रहा है। मोदी सबसे बड़े भ्रष्टाचारी हैं। भले खुद एक पैसा न लिया हो, लेकिन भ्रष्टों को संरक्षण दे रहे हैं। सत्ता में होते हुए कुछ नहीं किया। वरना, सारे दल के अध्यक्षों को बुलाते और चर्चा करते, तो नब्बे प्रतिशत लोग उनकी बात को स्वीकार करते।
गरीबों के हित का कोई कार्य नहीं किया जा रहा है। आरक्षण का लाभ भी सम्पन्न लोगों को ही मिल रहा है। गरीब का लड़का जब बेचारा हाईस्कूल भी नहीं कर पाता, तो आरक्षण उसको क्या लाभ पहुंचाएगा? मैंने मोदी को एक अवसर दिया था कि यदि सही काम करेंगे, तो मैं भी समर्थन दूंगा। किन्तु, कुछ नहीं किया। मोदी, भागवत और शाह, ये तीनों समाज को गारत करके रहेंगे। वीरभद्र सिंह के यहां छापा पड़ा, किन्तु क्या अपनी पार्टी के लोगों के यहां छापा डलवाने की हिम्मत है?
दिल्ली में परिवर्तन हुआ। बीजेपी और कांग्रेस दोनों को तमाचा मारकर वहां की जनता ने केजरीवाल को प्रचण्ड बहुमत दिया। वह अच्छा कार्य कर रहे हैं। उन्हें आगे बढ़कर सपोर्ट करना चाहिए था, ताकि जनता को राहत मिलती। किन्तु, उनके कार्यों में अड़ंगा लगाया जा रहा है, जिससे वह असफल हो जाएं। मोदी रोज़ झूठ बोलते हैं। उनमें सच्चाई-ईमानदारी की भावना नहीं है। उद्योगपतियों से पैसा लेकर विज्ञापनों पर खूब पैसा खर्च कर रहे हैं। एक बार भी भ्रष्टाचारियों को चेतावनी नहीं दी कि यदि कोई भ्रष्टाचार करेगा, तो निकाल बाहर करूंगा। भारतीय शक्ति चेतना पार्टी का गठन मैंने सत्ता के लिए नहीं, बल्कि समाजसेवा के लिए किया है। समाज तुम्हें सत्ता में लाएगा।
उधर धर्मक्षेत्र में भी पतन है। शराबमाफियाओं को महामण्डलेश्वर बना दिया जाता है। वे सब अपराधी हैं। कुछ धर्मगुरु बीजेपी के गुलाम हैं, कुछ कांग्रेस के। इसके खिलाफ मैंने आवाज़ उठाई है, जिसे कोई रोक नहीं पाएगा। हमें इसे भी बदलना है। इसके लिए स्वयं को बदलना पड़ेगा। राम जैसा आचरण करना पड़ेगा, तभी रावण को नष्ट कर सकेंगे।
हमारे सारे कार्यक्रम बिना शासन के सहयोग के निर्विघ्न सम्पन्न होते हैं। बल्कि, यदि शासन को कभी आवश्यकता पड़े, तो हम उसे सहयोग दे सकते हैं। भारतीय शक्ति चेतना पार्टी का भविष्य मैं देख रहा हूं। इसके पीछे ‘माँ’ की कृपा जुड़ी है।
सन्तोषी, परिश्रमी और परोपकारी बनो। हमें विश्व के कल्याण के लिए, उसके भले के लिए सोचना है। हम सब अजर-अमर-अविनाशी आत्मा हैं। इसलिए सदैव निर्भय रहो। यदि किसी ने हमारे इस शरीर को नष्ट कर भी दिया, तो हम अब से अधिक सामर्थ्य लेकर पैदा होंगे।
अपने माता-पिता, बड़ों और नारी का सम्मान करो। यदि आप अच्छे बन जाएं, तो ‘माँ’ तो तुम्हारे पास बैठी हैं। अपने अन्दर की आवाज़ को सुनो तथा अपने जीवन को संकल्पों से बांधकर रखो।
मैं कोई देवपुरुष नहीं हूं। मैं एक ऋषि था, हूं और आगे भी रहूंगा। इस धरती पर आज भी एक ऋषि जीवित है। मैं परम सिद्धाश्रम धाम सिरमौर सच्चिदानन्द स्वामी का स्वरूप हूं। मैं गृहस्थी में रहकर ब्रह्मचारी हूं। मेरा मार्ग चमत्कारों का मार्ग नहीं है। उससे ऊर्जा नष्ट होती है। उस ऊर्जा को मैं समाजकल्याण में लगा रहा हूं।
आप सभी को मालूम है कि आगामी 28-29 नवम्बर को धमतरी (छ.ग.) में शिविर का आयोजन किया जा रहा है। मैं 26 नवम्बर को ब्यौहारी होते हुए आश्रम से प्रस्थान करूंगा। रात्रिविश्राम मुंगेली में होगा और 27 नवम्बर को प्रातः वहां से चलकर रायपुर होते हुए धमतरी पहुंचूंगा।
लखनऊ (उ.प्र.) का शिविर फरवरी 2016 को होगा। शिविर के एक दिन पूर्व लखनऊ पहुंचकर नशामुक्ति जनजागरण मानवश्रृंखला बनाई जायेगी।
इसके बाद नवम्बर 2016 को सागर (म.प्र.) का शिविर होगा, जिसकी तिथियां बाद में घोषित की जाएंगी।
गुरु होने के नाते कर्त्तव्यबोध कराना मेरा धर्म और कर्त्तव्य है। अपनी आय का दस प्रतिशत यदि आप अपने ऊपर या परिवार के ऊपर लगाते हें, तो वह विष के समान है। इसलिए उसे सदैव परोपकार में लगाओ। इससे आपका कल्याण होगा। (दोनों हाथ उठवाकर सभी को संकल्प कराया गया कि आजीवन नशे-मांस से मुक्त चरित्रवान् जीवन जीते हुए मानवता की सेवा, धर्मरक्षा एवं राष्ट्ररक्षा के लिए समर्पित रहेंगे तथा अपनी आय का दशांश त्रिधाराओं के लिए समर्पित करेंगे।)
यह संकल्प आपके जीवन का आधार होना चाहिए।
इस प्रकार, तीन दिवसपर्यन्त चला यह शक्ति चेतना जनजागरण शिविर ममतामयी ‘माँ’ की कृपा एवं परम कृपालु सद्गुरुदेव भगवान् के दिव्य आशीर्वाद से पूर्णतया निर्विघ्न सम्पन्न हुआ। अपार भीड़ के बावजूद न तो कहीं पर कोई अव्यवस्था हुई और न ही कोई अप्रत्याशित घटना घटी। सब ओर आनन्द ही आनन्द रहा।

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